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ब्लैक रिवर केस

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अभिनव सेठ


गंगा किनारे बसे उस कस्बे की सुबह हमेशा शांति और प्रार्थना से शुरू होती थी। मंदिर की घंटियों की ध्वनि, घाट पर उठता धुआँ, और पानी में उतरती नावों की आवाज़ें मानो जीवन का हिस्सा थीं। लेकिन उस दिन सूरज की पहली किरणें अभी पूरी तरह फैली भी नहीं थीं कि घाट पर मछली पकड़ने गया मन्नू नाविक चीख पड़ा। उसकी आँखें भय से फटी हुई थीं—पानी के बहाव में एक शव तैर रहा था। लोग दौड़कर जमा हो गए, और कस्बे में हड़कंप मच गया। शव को किनारे लाया गया तो पता चला कि वह कोई सामान्य डूबकर मरा हुआ व्यक्ति नहीं था। चेहरे पर खून के धब्बे, गले पर कसकर दबाने के निशान, और सबसे विचित्र—उसकी मुट्ठी में कसकर दबा हुआ काला फूल। लोगों की साँसें थम गईं। कस्बे के बुज़ुर्गों ने कहा, “ये तो वही संकेत है… काली नदी जाग गई है।” अचानक पूरे कस्बे में दहशत फैल गई कि गंगा का यह हिस्सा, जिसे लोग बरसों से ‘काली नदी’ कहकर डरते आए हैं, फिर से किसी भयानक श्राप का गवाह बना है। बच्चे, औरतें, बूढ़े—सबके चेहरों पर अजीब सा भय उतर आया।

लाश की पहचान करना भी आसान नहीं था। शव के कपड़े फटे-पुराने थे, चेहरे की पहचान मुश्किल थी, मगर कस्बे के कुछ लोगों ने शक जताया कि यह पास के गाँव का एक खेतिहर मज़दूर हो सकता है, जो पिछली रात गायब हुआ था। लेकिन असली सवाल यह नहीं था कि वह कौन था, बल्कि यह था कि उसकी मुट्ठी में वह काला फूल कैसे आया। कस्बे के लोग मानते थे कि यह फूल साधारण नहीं, बल्कि तांत्रिक विद्या से जुड़ा है। औरतें रोते हुए कहने लगीं कि यह किसी आत्मा की चेतावनी है, जबकि बच्चे अपने घरों के अंधेरे कोनों में दुबक गए। धीरे-धीरे भीड़ में किसी ने जोर से कहा, “नदी अपने पापियों को खुद बुलाती है… यही उसका श्राप है।” मंदिर के पुजारी पंडित हरिदास घाट पर पहुँचे और गंभीर स्वर में बोले, “यह साधारण हत्या नहीं है। यह उस श्राप की निशानी है, जो इस कस्बे पर बरसों पहले पड़ा था।” उनके शब्दों ने आग में घी का काम किया। लोग डर के साए में घर लौट गए, लेकिन उनके भीतर अब अंधविश्वास की आग जल उठी थी।

उस रात कस्बे का माहौल पूरी तरह बदल चुका था। हर घर के दरवाज़े जल्दी बंद हो गए, गलियों में सन्नाटा छा गया, और यहाँ तक कि कुत्तों का भौंकना भी थम गया। महिलाएँ घरों में दीपक जलाकर मंत्र फूँकने लगीं, बूढ़े लोग अपने बच्चों को पुराने किस्से सुनाते रहे कि कैसे कभी नदी ने एक पूरे गाँव को लील लिया था। लेकिन डर के बीच भी कुछ लोग सोच में थे—क्या सचमुच यह नदी का श्राप है, या कोई इंसान इस भय का इस्तेमाल कर रहा है? कस्बे की पत्रकार रीमा चौहान ने अपने कैमरे से उस लाश और फूल की तस्वीरें खींचीं। उसे यकीन था कि यह कोई संकेत है, कोई गुप्त संदेश। लेकिन जब उसने लोगों से पूछताछ की, तो हर कोई डरकर चुप हो गया। मन्नू नाविक, जिसने सबसे पहले लाश देखी थी, बार-बार कसम खाता रहा कि उसने पानी में कुछ और भी देखा था—मानो कोई परछाईं फूल को शव की मुट्ठी में रख रही हो। लेकिन जब उससे विस्तार में पूछा गया, तो उसने होंठ सी लिए और काँपते हुए बोला, “मैंने कुछ नहीं देखा।” उस रात गंगा का पानी और भी काला, और भी गाढ़ा लगता था, मानो वह अपने भीतर छुपे रहस्यों को कभी उजागर नहीं करेगा। कस्बा अब एक नई दहशत के दौर में प्रवेश कर चुका था—और यह तो सिर्फ़ शुरुआत थी।

कस्बे में फैली दहशत और अंधविश्वास के बीच अगले ही दिन एक नई हलचल मची—पुलिस थाने के बाहर भीड़ जमा थी, क्योंकि कस्बे को नया प्रभारी इंस्पेक्टर मिला था। उसका नाम था कृष्ण वर्मा। लगभग छत्तीस वर्ष का यह अधिकारी गहरे भूरे रंग की वर्दी में, चौड़ी छाती और तेज निगाहों वाला व्यक्ति था। उसकी चाल में आत्मविश्वास झलकता था और चेहरे पर सख्त परंतु शांत भाव थे। वह कोई साधारण इंस्पेक्टर नहीं था; बड़े शहरों में कठिन से कठिन अपराधों को सुलझाने का उसका अनुभव उसे खास बनाता था। लेकिन यहाँ आते ही उसने महसूस किया कि यह कस्बा अलग है। लोग कानून से कम और आस्था से ज्यादा संचालित होते हैं। जब उसने पहले केस की फाइल पढ़ी और देखा कि लाश की मुट्ठी में काला फूल था, तो उसने अपने सहयोगियों से बस इतना कहा, “यह काम किसी इंसान का है, किसी आत्मा का नहीं। आत्माएँ फूल नहीं छोड़तीं।” यह सुनकर थाने के कुछ पुलिसकर्मी असहज हो गए, क्योंकि वे भी कस्बे के ही निवासी थे और श्राप वाली कहानियों पर यकीन करते थे।

कृष्ण वर्मा ने सबसे पहले घटना स्थल का दौरा किया। गंगा किनारे वही जगह थी जहाँ लाश मिली थी। चारों ओर अब भी लोगों के कदमों के निशान और मन्नू नाविक के खींचे गए डंडों के चिन्ह साफ़ दिखाई दे रहे थे। वर्मा ने झुककर मिट्टी उठाई, पानी की धाराओं को गौर से देखा और फिर उस स्थान का नक्शा बनाया। उसने पाया कि लाश वहाँ बहकर नहीं आई थी, बल्कि उसे जान-बूझकर वहीं छोड़ा गया था। यह निष्कर्ष ही उसके लिए पहला सुराग था। जब उसने लोगों से पूछताछ शुरू की, तो सभी ने एक ही बात दोहराई—“नदी का श्राप है।” कोई यह मानने को तैयार ही नहीं था कि यह हत्या इंसानी हाथों का नतीजा है। कृष्ण वर्मा ने इस अंधविश्वास को तोड़ने की कोशिश की। उसने खुलेआम कस्बे के चौक पर लोगों को संबोधित किया और कहा, “कातिल आत्मा नहीं है, बल्कि आप सबके बीच कोई है जो इस डर का फायदा उठा रहा है। और मैं उसे पकड़कर ही रहूँगा।” उसकी आवाज़ में ऐसा दृढ़ विश्वास था कि कुछ लोग सहम गए, मगर बहुमत अब भी डर और शंका से घिरा रहा।

लेकिन कृष्ण वर्मा का इरादा अडिग था। उस रात उसने थाने में बैठकर सभी रिपोर्ट्स, पोस्टमार्टम नोट्स और पुराने रिकॉर्ड खंगाले। डॉ. सान्वी मेहरा से उसकी पहली मुलाकात भी इसी रात हुई, जब वह लाश के गले पर पड़े निशानों का वैज्ञानिक विश्लेषण लेकर आई थी। उसने साफ़ कहा कि ये निशान रस्सी या तार से गला घोंटने के थे—कोई भी अलौकिक ताक़त इसका कारण नहीं हो सकती। कृष्ण वर्मा ने उसकी बात ध्यान से सुनी और पहली बार महसूस किया कि इस अंधविश्वासी माहौल में वह अकेला नहीं है। दोनों ने मिलकर तय किया कि यह केस उन्हें तर्क और सबूत के बल पर ही सुलझाना होगा। दूसरी ओर, पंडित हरिदास जैसे लोग लोगों को और डराते रहे, जिससे कस्बे की मानसिकता बदलना और कठिन हो गया। मगर वर्मा जानता था कि डर हमेशा इंसान को कमजोर बनाता है और अपराधी का असली हथियार भी यही होता है। उसने अपनी डायरी में लिखा—“यह हत्या नहीं, मनोवैज्ञानिक खेल है। कोई चालाक कातिल डर की खेती कर रहा है। इस खेल को खत्म करना ही मेरी जिम्मेदारी है।” और इस तरह, इंस्पेक्टर कृष्ण वर्मा ने कस्बे में अपने पहले कदम रखते ही यह साफ़ कर दिया कि यह लड़ाई सिर्फ अपराध से नहीं, बल्कि अंधविश्वास से भी है।

सुबह की ठंडी धूप जब कस्बे के पुलिस थाने के आँगन में फैल रही थी, तभी एक सफेद जीप आकर रुकी। उससे उतरीं एक लंबी कद-काठी की महिला, हाथ में चमड़े का बैग और आँखों पर काला चश्मा। यह थीं डॉ. सान्वी मेहरा, दिल्ली से आई फॉरेंसिक एक्सपर्ट, जिन्हें इस केस की गंभीरता को देखते हुए बुलाया गया था। कस्बे के लोगों ने पहली बार इतना आधुनिक और आत्मविश्वासी व्यक्तित्व देखा। वर्दीधारी सिपाही भी हैरान थे कि यह महिला शहर से आई है, और लाशों की गुत्थी सुलझाएगी। जब वह लाश के पोस्टमार्टम रूम में दाखिल हुईं, तो वहाँ पहले से फैली सीलन और औषधीय गंध के बीच उनका अनुभव और अधिक स्पष्ट हो उठा। उन्होंने दस्ताने पहने, शव के घावों को ध्यान से देखा, और बार-बार नोटबुक में लिखती रहीं। सबसे पहले उन्होंने गले के चारों ओर पड़े नीले-स्याह निशानों का विश्लेषण किया। उन्होंने बिना झिझक कहा—“यह आत्मा का श्राप नहीं, गला घोंटने का मामला है। रस्सी या तार का इस्तेमाल हुआ है। यह काम योजनाबद्ध तरीके से किया गया है।” वहाँ मौजूद पुलिसकर्मी और थानेदार सहम गए, क्योंकि उनकी आदत थी कि हर मौत को अंधविश्वास से जोड़ दें।

सान्वी ने अपनी जाँच को और आगे बढ़ाया। उन्होंने शव के हाथ में दबे काले फूल की सावधानीपूर्वक जाँच की। वह फूल सामान्य किस्म का नहीं था; उसमें कुछ गंध थी, मानो किसी विशेष औषधीय मिश्रण में भिगोया गया हो। उन्होंने नोट किया कि हत्यारा सिर्फ मारकर छोड़ नहीं देता, बल्कि प्रतीक के रूप में फूल रखता है—यह उसके मानसिक विकार और एक पैटर्न की ओर इशारा करता है। “कातिल का मकसद सिर्फ हत्या नहीं, बल्कि भय फैलाना है,” उन्होंने कहा। उनकी यह बात सुनकर इंस्पेक्टर कृष्ण वर्मा ने गहरी साँस ली और सहमति में सिर हिलाया। लेकिन जब यह निष्कर्ष गाँव के लोगों तक पहुँचा, तो किसी ने उस पर विश्वास नहीं किया। चौक पर खड़े लोगों ने आपस में कहा, “यह शहर से आई डॉक्टर क्या जाने गंगा का श्राप! यह तो विज्ञान की बातें बनाकर हमारी आस्था का अपमान कर रही है।” कुछ औरतें तो यहाँ तक कहने लगीं कि “इस औरत का रहना ही अपशगुन है।” भीड़ में यह धारणा तेज़ी से फैल गई कि सान्वी का आना ही काली नदी की आत्मा को और नाराज़ कर देगा।

लेकिन सान्वी हतोत्साहित नहीं हुईं। उन्होंने अपनी रिपोर्ट विस्तार से लिखी और उसमें सभी सबूतों को संलग्न किया। उन्होंने कहा कि यह हत्या बेहद योजनाबद्ध है, और यह किसी साधारण अपराधी का काम नहीं, बल्कि एक मनोवैज्ञानिक हत्यारे का काम है—जो अपने शिकार के साथ-साथ पूरे कस्बे को भी मानसिक रूप से नियंत्रित करना चाहता है। उनकी आँखों में दृढ़ विश्वास झलक रहा था। उन्होंने कृष्ण वर्मा से कहा—“लोगों का विश्वास जीतना आसान नहीं होगा, लेकिन हमें सच सामने लाना ही होगा।” वर्मा ने उनके शब्दों में वही जज़्बा महसूस किया जो उनके अपने मन में था। लेकिन कस्बे का माहौल उनके खिलाफ जाता दिख रहा था। लोग मंदिर के पुजारी पंडित हरिदास की बातों पर भरोसा कर रहे थे, जो बार-बार कह रहे थे कि यह आत्मा का खेल है। विज्ञान और आस्था की यह टकराहट अब और गहरी होती जा रही थी। परंतु सान्वी जानती थीं कि हर शव, हर घाव और हर फूल एक कहानी कहता है—और वही कहानी अंततः उस नकली श्राप का सच उजागर करेगी। उस रात, जब वह अपने अस्थायी कमरे में बैठीं, तो उन्होंने खिड़की से बहती गंगा को देखा और खुद से कहा—“अगर यह कातिल वाकई मानसिक विकृत है, तो वह और हत्याएँ करेगा। और हर हत्या हमें उसके और करीब ले जाएगी।” उनकी आँखों में दृढ़ता थी, लेकिन बाहर गंगा का अंधेरा मानो चेतावनी दे रहा था कि यह जाँच उतनी आसान नहीं होने वाली।

गंगा किनारे बसे प्राचीन शिव मंदिर की घंटियाँ उस सुबह असामान्य रूप से भारी लग रही थीं। हवा में धुएँ और अगरबत्ती की गंध घुली हुई थी, परंतु वातावरण में श्रद्धा से अधिक भय तैर रहा था। भीड़ इकट्ठा थी, और हर चेहरा सशंकित। मंदिर की सीढ़ियों पर खड़े होकर पंडित हरिदास त्रिपाठी ने अपने गंभीर, रहस्यमयी स्वर में घोषणा की—“यह साधारण हत्या नहीं है। यह काली नदी की आत्मा का कोप है।” उनका सफेद धोती-कुर्ता, माथे पर चमकता चंदन का तिलक और गूँजती आवाज़ मानो लोगों के दिलों में सीधे उतर रही थी। उन्होंने कहा कि बरसों पहले नदी ने इस कस्बे से पापियों का हिसाब लिया था और अब वही आत्मा फिर जाग उठी है। उनके शब्दों में ऐसा सम्मोहन था कि भीड़ सहम गई। लोग एक-दूसरे को देखने लगे और भय की फुसफुसाहटें पूरे मंदिर प्रांगण में भर गईं। किसी ने धीमे स्वर में कहा, “हमने तो सुना था कि आत्मा चुप हो चुकी है…” किसी और ने जोड़ा, “लेकिन अब फिर वह लौट आई है।” हरिदास ने हाथ उठाकर भीड़ को शांत किया और गंभीर आवाज़ में कहा, “काली नदी अपने पापियों को पहचानती है। यह काला फूल उसकी पहचान है। कोई भाग नहीं सकता। यह आत्मा तब तक तृप्त नहीं होगी, जब तक उसका अधूरा न्याय पूरा न हो जाए।”

पंडित हरिदास के इन शब्दों ने कस्बे में आतंक की जड़ें और गहरी कर दीं। औरतें अपने बच्चों को कसकर पकड़ने लगीं, पुरुष घरों के बाहर कम निकलने लगे, और रात का सन्नाटा और भी गाढ़ा हो गया। अंधविश्वास के इस माहौल में लोग डॉ. सान्वी की वैज्ञानिक रिपोर्ट को हंसी और अविश्वास से खारिज करने लगे। उनके लिए सच वही था जो पुजारी कह रहे थे। हरिदास का अंदाज़ डर को और हवा देता था। उन्होंने पुराने किस्से सुनाए—कैसे दशकों पहले नदी ने पूरे गाँव को डुबो दिया था, कैसे अज्ञात रोग फैलते ही लोग मरने लगे थे, और कैसे उस समय भी रहस्यमय काले फूल बहते हुए घाटों तक पहुँचे थे। लोग मंत्रमुग्ध होकर यह सब सुनते रहे और उनकी आँखों में यह दृढ़ विश्वास बैठ गया कि विज्ञान झूठ बोल सकता है, परंतु आत्मा का श्राप कभी झूठा नहीं होता। इंस्पेक्टर कृष्ण वर्मा जब वहाँ पहुँचे और लोगों को समझाने की कोशिश की, तो भीड़ ने उनकी बात सुनने से भी इनकार कर दिया। “पुलिस हमें बचा नहीं सकती, सिर्फ़ गंगा माँ की कृपा ही हमें बचा सकती है,” यह स्वर हर ओर से गूँजने लगा। वर्मा ने महसूस किया कि कातिल ने अगर अंधविश्वास को अपना हथियार चुना है, तो पंडित हरिदास अनजाने में उसका सबसे बड़ा सहयोगी बन रहे हैं।

शाम होते-होते मंदिर में और भी भीड़ जुटी। हरिदास ने बड़े अनुष्ठान का ऐलान किया—“कल काली नदी को शांत करने के लिए विशेष हवन होगा। हर घर से लोग आकर चढ़ावा चढ़ाएँगे, तभी आत्मा शांत होगी।” यह सुनकर कस्बे के लोग थोड़ी राहत महसूस करने लगे, मानो हवन उन्हें सुरक्षा देगा। लेकिन इस माहौल ने इंस्पेक्टर कृष्ण और डॉ. सान्वी की जाँच को और कठिन बना दिया। सान्वी ने उस रात कृष्ण से कहा, “जितनी जल्दी हम सच सामने नहीं लाएँगे, उतनी ही जल्दी यह अंधविश्वास लोगों को हमारे खिलाफ कर देगा।” कृष्ण गंभीर होकर बोले, “कातिल जानता है कि डर से बड़ी कोई ताक़त नहीं होती। वह जानता है कि लोगों को श्राप पर विश्वास कराकर वह हमेशा बचा रह सकता है। हमें यह खेल उलटना होगा।” दूसरी ओर मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे हरिदास दूर बहती गंगा को निहारते हुए धीमी आवाज़ में बुदबुदा रहे थे, “अधूरा न्याय… अब पूरा होगा।” उनके होंठों पर हल्की मुस्कान थी—क्या यह सचमुच आत्मा का डर था, या फिर कोई पुराना राज़, जिसे वह दुनिया से छुपा रहे थे? यह सवाल धीरे-धीरे गंगा की अंधेरी लहरों की तरह और गहराता जा रहा था।

रीमा चौहान हमेशा से उन पत्रकारों में गिनी जाती थी, जो सनसनी से ज़्यादा सच को महत्व देती थीं। उम्र में लगभग अट्ठाईस साल की, तेज़ नज़र और निर्भीक सवालों से लैस, उसने इस कस्बे के कई छोटे-बड़े घोटाले उजागर किए थे। लेकिन इस बार मामला अलग था—यह सिर्फ़ एक हत्या की ख़बर नहीं थी, बल्कि पूरे कस्बे की आत्मा को जकड़ लेने वाला रहस्य था। जिस दिन पंडित हरिदास ने मंदिर में ‘काली नदी की आत्मा’ वाली चेतावनी दी, उसी शाम रीमा ने तय कर लिया कि अगर किसी को इस अंधविश्वास के पीछे की सच्चाई निकालनी होगी, तो वह वही होगी। वह अपने पुराने प्रेस ऑफिस के धूल-भरे रिकॉर्ड रूम में पहुँची। लोहे की जंग लगी अलमारी खोलते हुए उसे पन्नों की खड़खड़ाहट और पुरानी स्याही की गंध महसूस हुई। धीरे-धीरे उसने पिछले कई सालों की पुलिस रिपोर्ट्स, अख़बारों की कतरनें और अधूरे केस फाइल्स खंगालना शुरू किया। रात के सन्नाटे में, जब हर कोई घरों में दुबका हुआ था, रीमा अकेली टेबल लैम्प की पीली रोशनी में पन्ने पलट रही थी। उसकी आँखें तब ठिठक गईं जब उसे 15 साल पुराने एक केस की फाइल मिली—फाइल में वही निशानी दर्ज थी, “पीड़ित के हाथ में दबा हुआ काला फूल मिला।” रीमा के दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। यह महज़ संयोग नहीं हो सकता।

उस फाइल में दर्ज केस एक अजीब मोड़ पर अधूरा छोड़ दिया गया था। पीड़ित की पहचान एक स्थानीय व्यापारी के रूप में की गई थी, जिसका नाम रघुनाथ अग्रवाल था। रिपोर्ट में लिखा था कि उसकी मौत को पहले ‘डूबने की दुर्घटना’ माना गया था, लेकिन पोस्टमार्टम में गला दबाने के निशान पाए गए थे। फिर अचानक केस बंद कर दिया गया, और कहीं दर्ज था—“सबूतों की कमी।” लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह थी कि फाइल के किनारे पर हाथ से लिखा एक नोट था—“फूल उसी की तलाश का प्रतीक है।” रीमा ने बार-बार उस वाक्य को पढ़ा, मानो उसके पीछे कोई छुपा हुआ संदेश हो। उसने अपने लैपटॉप में नोट्स टाइप करना शुरू किया और हर बारीकी को दर्ज किया। यह साफ़ था कि ‘काला फूल’ का रहस्य अचानक पैदा नहीं हुआ था; यह सिलसिला कम से कम डेढ़ दशक पुराना था। रीमा सोचने लगी—क्या तब भी किसी ने इन हत्याओं को आत्मा का श्राप कहकर दबा दिया था? या फिर उस समय भी असली हत्यारा किसी कोने में मुस्कुरा रहा था? उसके मन में सवालों की आंधी चल रही थी, और वह जानती थी कि इस धुंध के पार सच कहीं छुपा हुआ है।

रीमा अगली सुबह सीधे इंस्पेक्टर कृष्ण वर्मा से मिलने पहुँची। उसने फाइल उनके सामने रखते हुए कहा, “यह देखिए, यह खेल नया नहीं है। यह 15 साल पुराना है। और काला फूल महज़ अंधविश्वास नहीं, बल्कि किसी खास मकसद की पहचान है।” कृष्ण ने फाइल को ध्यान से पढ़ा और उनकी आँखों में एक चमक उभर आई। उन्होंने गंभीर स्वर में कहा, “इसका मतलब है कि हमारा हत्यारा किसी पुराने हिसाब-किताब को पूरा कर रहा है। यह सब कुछ योजनाबद्ध है, और अंधविश्वास सिर्फ़ उसकी ढाल है।” रीमा ने हामी भरी, परंतु चेतावनी भी दी—“सावधान रहिए, इंस्पेक्टर। यह खेल सिर्फ़ खून-खराबे का नहीं है, बल्कि स्मृति और इतिहास का भी है। जो अतीत में छुपा है, वही आज सामने आ रहा है।” इस बीच, कस्बे के लोग पंडित हरिदास की बातों में उलझे हुए थे, और डर उनकी सोचने-समझने की क्षमता छीन रहा था। लेकिन रीमा की खोज ने एक नई दिशा खोल दी थी। अतीत की परछाइयाँ वर्तमान में लौट आई थीं, और उन पर रोशनी डालना अब सिर्फ़ रीमा, कृष्ण और सान्वी का काम नहीं था—यह एक ऐसी लड़ाई बन गई थी जिसमें सच और झूठ, विज्ञान और अंधविश्वास, इतिहास और वर्तमान एक-दूसरे से टकराने वाले थे। और इस टकराव की गूंज अभी पूरे कस्बे में सुनाई देनी बाकी थी।

कस्बे के लोग कई दिनों से नदी के किनारे हो रही हत्याओं की दहशत में जी रहे थे। हर कोई अपने-अपने अंदाज़ में घटनाओं की व्याख्या कर रहा था—कोई इसे “काली नदी की आत्मा” का श्राप मान रहा था तो कोई “तांत्रिक साधना” की बात कर रहा था। लेकिन इंस्पेक्टर कृष्ण वर्मा के लिए यह सब सिर्फ़ अफवाहें थीं। वह जानते थे कि हत्यारे को पकड़ने के लिए उन्हें असली सुराग चाहिए। ऐसे में अचानक एक नाम सामने आया—मन्नू नाविक। मन्नू गाँव का पुराना नाविक था, उम्र करीब पचास साल, चेहरा धूप और हवा से काला पड़ चुका, आँखों में हमेशा डर और बेचैनी तैरती रहती। वह दिन-रात गंगा पर नाव चलाता और नदी के हर मोड़, हर धारा को पहचानता था। शुरू में उसने किसी से कुछ नहीं कहा था, लेकिन जब रीमा और सान्वी ने उसके सामने पुरानी घटनाओं की चर्चा की और कृष्ण ने भरोसा दिलाया कि उसकी गवाही को गुप्त रखा जाएगा, तब जाकर मन्नू ने हिम्मत जुटाई। काँपती आवाज़ में उसने कहा—“मैंने उस रात कुछ देखा था… जो बताने की हिम्मत अब तक नहीं जुटा पाया।” कमरे में अचानक सन्नाटा छा गया।

मन्नू ने धीरे-धीरे अपनी कहानी खोलनी शुरू की। उसने बताया कि घटना वाली रात वह नाव लेकर देर तक घाट पर रुका हुआ था। आधी रात का समय था, आसमान में बादल घिरे थे और चाँद की रोशनी धुंध के पीछे छिपी हुई थी। चारों तरफ़ सन्नाटा था, सिर्फ़ नदी की लहरों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। तभी उसने देखा कि घाट के किनारे एक आदमी खड़ा है। वह सफेद कपड़े पहने हुए था, जैसे किसी ने धोती-कुर्ता ओढ़ रखा हो, लेकिन उसके हाव-भाव सामान्य इंसानों जैसे नहीं थे। वह आदमी झुक-झुककर पानी में कुछ डुबो रहा था। मन्नू ने अपनी आँखों को जोर से मिचमिचाकर देखा और पाया कि उस अजनबी के हाथ में फूल थे—काले फूल। वह उन्हें नदी में डुबोकर फिर बाहर निकालता और बहुत देर तक उन्हें देखता रहता। उसके चेहरे पर एक अजीब, विकृत-सी मुस्कान थी, मानो वह किसी रहस्यमयी अनुष्ठान में खोया हो। मन्नू का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसे लगा कि यह इंसान नहीं, कोई आत्मा है, जो अंधेरे से निकलकर इंसानों को निगल रही है। डर के मारे उसने नाव की रस्सी छोड़ दी और जल्दी-जल्दी चप्पू चलाकर दूसरी ओर भाग गया। अगले दिन जब उसने हत्या की खबर सुनी और हाथ में दबे काले फूल की बात जानी, तब उसकी रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ गई। यही वजह थी कि अब तक उसने चुप्पी साध रखी थी—क्योंकि उसे डर था कि कहीं वह अजीब आदमी उसकी चुप्पी तोड़ने की सज़ा न दे दे।

कृष्ण वर्मा ने ध्यान से मन्नू की हर बात सुनी। वह समझ गए कि यह गवाही बेहद महत्वपूर्ण है। यह पहली बार था जब किसी ने हत्यारे जैसी शक्ल-सूरत वाले आदमी को देखा था। उन्होंने तुरंत मन्नू से सवाल किए—“क्या तुमने उसका चेहरा साफ देखा? उसकी उम्र, कद-काठी, चाल-ढाल कुछ याद है?” मन्नू ने सिर झुकाते हुए कहा, “चेहरा तो साफ नहीं दिखा… अंधेरा था। लेकिन उसकी चाल धीमी और भारी थी, जैसे कोई गहरी सोच में डूबा हो। कद औसत से थोड़ा लंबा, और शरीर दुबला-पतला। लेकिन उसकी आँखें… उसकी आँखों की चमक मैं आज तक नहीं भूल पाया। जैसे जलती हुई अंगार।” यह सुनते ही कमरे में बैठे रीमा और सान्वी की आँखें भी चौड़ी हो गईं। रीमा ने फौरन अपने नोट्स में यह विवरण दर्ज किया और धीरे से कहा—“इसका मतलब है कि यह कोई इंसान है, भूत-प्रेत नहीं। और यह काले फूल पानी में डुबोकर शायद किसी तरह का प्रतीक बनाना चाहता है।” सान्वी ने भी गंभीर स्वर में कहा—“यह व्यवहार मनोवैज्ञानिक विकार की तरफ इशारा करता है। कोई सामान्य इंसान इस तरह का अनुष्ठानिक पैटर्न क्यों अपनाएगा?” कृष्ण ने गहरी सांस ली और बोले—“अब हमें यह तय करना होगा कि यह सफेद कपड़ों वाला आदमी कौन है। मन्नू, तुम्हारी गवाही हमारे लिए सबसे अहम कड़ी है। लेकिन ध्यान रहे, अगर यह शख्स जान गया कि तुमने उसे देखा है, तो वह तुम्हें भी निशाना बना सकता है।” यह सुनकर मन्नू के चेहरे पर पसीना छलक आया। लेकिन उसी क्षण, उसे लगा जैसे उसके भीतर कहीं से साहस उमड़ आया हो। उसने हकलाते हुए कहा—“अगर मेरी बात से किसी की जान बच सकती है, तो मैं चुप नहीं रहूँगा।”

कस्बे की फिज़ा में फैले डर और अफवाहों के बीच इंस्पेक्टर कृष्ण वर्मा और डॉ. सान्वी ने जांच की दिशा बदलने का फैसला किया। रीमा द्वारा मिली पुरानी फाइलें और मन्नू नाविक की गवाही ने उन्हें यकीन दिलाया कि यह मामला केवल मौजूदा हत्याओं का नहीं, बल्कि अतीत में दबे किसी गहरे राज़ से जुड़ा हुआ है। दोनों ने कस्बे की लाइब्रेरी और थाने के रिकॉर्ड रूम में घंटों पुराने दस्तावेज़ खंगाले। धूल से भरी फाइलों और फटी हुई रिपोर्टों में धीरे-धीरे एक अजीब पैटर्न सामने आने लगा। पंद्रह साल पहले, इसी नदी किनारे, कुछ रहस्यमय मौतें हुई थीं, जिनका कोई साफ निष्कर्ष सामने नहीं आया था। खास बात यह थी कि उन सभी मौतों के बाद भी “काला फूल” ज़रूर दर्ज किया गया था, लेकिन उस समय की पुलिस ने उसे अंधविश्वास बताकर मामले को बंद कर दिया था। धीरे-धीरे नाम सामने आए—कस्बे के कुछ रसूखदार लोग, जिनमें बड़े व्यापारी, ज़मीन के सौदागर और स्थानीय राजनीति से जुड़े चेहरे थे। कृष्ण ने जब उन रिपोर्टों को पढ़ा तो उनके माथे पर बल पड़ गए। “इसका मतलब है कि काली नदी के बहाने किसी ने लालच और साजिश का खेल खेला था,” उन्होंने सख्त स्वर में कहा। सान्वी ने भी हामी भरी—“और वही खेल अब फिर दोहराया जा रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार हत्यारा शायद किसी पुराने अधूरे सच को सामने लाने की कोशिश कर रहा है।”

जांच और गहरी हुई तो कृष्ण और सान्वी को पता चला कि पंद्रह साल पहले की हत्याएँ दरअसल ज़मीन हथियाने की साजिश का हिस्सा थीं। नदी किनारे फैली उपजाऊ ज़मीन पर कब्जा जमाने के लिए उन रसूखदार लोगों ने एक-एक कर स्थानीय किसानों और नाविकों को मरवाया था, ताकि उनकी ज़मीनें औने-पौने दाम में खरीदी जा सकें। हत्या को आत्महत्या या दुर्घटना का रूप देने के लिए कभी डूबने की झूठी कहानियाँ गढ़ी गईं, तो कभी झगड़े का बहाना बनाया गया। लेकिन उस दौर में भी एक शख्स था, जिसने इस साजिश को देखा और पुलिस तक पहुँचने की कोशिश की—एक गवाह। उसका नाम दस्तावेज़ों में बस संक्षिप्त रूप से दर्ज था, लेकिन उसकी गवाही कभी सामने नहीं आई, क्योंकि मामला अदालत तक पहुँचने से पहले ही वह रहस्यमय ढंग से गायब हो गया। उसके गायब होते ही पुलिस की फाइलें धीरे-धीरे ठंडी पड़ गईं और रसूखदारों की ताक़त इतनी बड़ी थी कि किसी ने सच बोलने की हिम्मत नहीं की। “यही है असली कड़ी,” सान्वी ने धीरे से कहा, जब उन्होंने उस गवाह का नाम पढ़ा। “अगर हम जान पाएँ कि वह कौन था और उसके साथ क्या हुआ, तो शायद पूरी तस्वीर साफ हो जाएगी।” कृष्ण ने गंभीरता से सिर हिलाया—“यह सिर्फ़ हत्या का केस नहीं है, यह भ्रष्टाचार, लालच और साज़िश का जाल है। और इस जाल में फँसे हुए लोग आज भी ज़िंदा हैं, शायद वही अब इस हत्याओं के सिलसिले से जुड़े हैं।”

कृष्ण और सान्वी को अब यकीन हो गया था कि वर्तमान घटनाएँ अतीत के उसी अधूरे केस का विस्तार हैं। हत्यारे का सफेद कपड़ों में दिखाई देना, काले फूलों का बार-बार इस्तेमाल, और गवाहों का डर—ये सब केवल किसी विकृत दिमाग़ की सनक नहीं थी, बल्कि एक सोचा-समझा संदेश था। यह मानो पंद्रह साल पुरानी चीखें थीं, जो अब दोबारा गूंज रही थीं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल अब भी वहीं खड़ा था—उस गुमशुदा गवाह का क्या हुआ? क्या वह सचमुच मारा गया था, या कहीं ज़िंदा छिपा बैठा था? कृष्ण ने फैसला किया कि उन्हें उन रसूखदार लोगों की जड़ तक जाना होगा, जिनके नाम रिपोर्ट में दर्ज थे। लेकिन इस कोशिश का मतलब था, सीधे उस शक्ति को चुनौती देना जिसने अतीत में गवाहों को गायब कर दिया था। कस्बे की हवा में अब दो धाराएँ बहने लगीं—एक तरफ़ लोग पंडित हरिदास की “काली नदी की आत्मा” वाली बातों को सच मानकर और ज्यादा डरने लगे, तो दूसरी तरफ़ कृष्ण और सान्वी को यकीन हो गया कि असली आत्मा कोई अलौकिक शक्ति नहीं, बल्कि इंसानी लालच है जिसने नदी को खून से रंगा था। यही खोज उन्हें अगले मोड़ तक ले जाने वाली थी, जहाँ अंधेरे में छिपा हत्यारा और भी करीब आता जा रहा था।

रीमा चौहान ने जब अपनी खोजबीन को आगे बढ़ाया, तो उसे मंदिर की पुरानी डायरी और कुछ अप्रकाशित अख़बारों की कतरनें हाथ लगीं। इन दस्तावेज़ों में दर्ज बातों ने उसकी आँखें खोल दीं—पंडित हरिदास, जो आज कस्बे में डर फैलाने वाले प्रवचन देता था और “काली नदी की आत्मा” का किस्सा सुनाकर लोगों को सहमा देता था, वही व्यक्ति पंद्रह साल पहले भी इस पूरे घटनाक्रम का हिस्सा था। दरअसल, उस समय जब हत्याएँ हो रही थीं, पंडित हरिदास ने जानबूझकर सच छुपाया और आत्मा का डर फैलाया, ताकि लोग हकीकत जानने की कोशिश ही न करें। रीमा को यह बात पढ़ते ही समझ आ गई कि धर्म और अंधविश्वास की आड़ में कितनी गहरी साज़िश रची गई थी। उसने अपने सारे सबूत कृष्ण वर्मा और सान्वी के सामने रखे। कृष्ण गुस्से से भर गए—“तो यह आदमी शुरू से लोगों को गुमराह कर रहा है। वह जानता था कि हत्यारे इंसान थे, लेकिन उसने आत्मा का बहाना बनाकर उन रसूखदारों की रक्षा की।” रीमा ने गंभीर आवाज़ में कहा—“और यही वजह है कि आज तक सच्चाई दबाई जाती रही। लोग पंडित की बातों पर भरोसा कर बैठे और जांच कभी आगे नहीं बढ़ी।” सान्वी ने गहरी साँस ली—“इसका मतलब है कि वर्तमान हत्याओं के पीछे भी कोई ऐसा है, जो चाहता है कि पुराना राज़ सामने आए। और हर बार काला फूल छोड़कर वह हमें सच की तरफ़ धकेल रहा है।”

कृष्ण ने तुरंत रणनीति बदली। वह, रीमा और सान्वी सीधे मंदिर पहुँचे और पंडित हरिदास का सामना किया। मंदिर की घंटियों के बीच जब कृष्ण ने सबूत उसके सामने रखे, तो पंडित का चेहरा पल भर में पीला पड़ गया। पहले तो उसने ऊँची आवाज़ में झूठ बोलने की कोशिश की—“यह सब झूठ है! आत्मा ही यह सब कर रही है, इंसान का इसमें कोई हाथ नहीं!” लेकिन कृष्ण ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा—“तुम सच जानते हो और तुमने उसे छुपाया। तुमने अपने लालच और डर के कारण हत्यारों का साथ दिया। यह सिर्फ़ धोखा नहीं, यह कस्बे के साथ गद्दारी है।” रीमा ने उन कतरनों और डायरी के पन्नों को उसके सामने रख दिया, जिसमें दर्ज था कि पंडित हरिदास को पंद्रह साल पहले कुछ घटनाओं की जानकारी थी, लेकिन उसने पुलिस को गलत दिशा में ले जाकर केस को दबा दिया। भीड़ में खड़े कुछ बुज़ुर्ग लोग चिल्ला उठे—“हमें याद है, उस समय भी हरिदास ही कहता था कि नदी की आत्मा गुस्से में है। हमने उसी की बात मान ली थी।” यह सुनकर माहौल और तनावपूर्ण हो गया। पंडित घबरा गया और बुदबुदाने लगा—“मैंने सिर्फ वही किया जो मुझे कहा गया था… वे लोग बहुत ताक़तवर थे… मैं उनका विरोध नहीं कर सकता था…” कृष्ण ने सख़्त स्वर में कहा—“ताक़तवर लोग आज भी ज़िंदा हैं, और अब उन्हें बेनक़ाब करना ही इस कस्बे को बचाने का एकमात्र रास्ता है।”

पंडित हरिदास के इस टूटे हुए स्वीकारोक्ति ने पूरे कस्बे को हिला दिया। लोगों के मन से यह विश्वास धीरे-धीरे मिटने लगा कि काली नदी की आत्मा हत्याएँ कर रही है। असली अपराधी इंसान ही थे—वे, जिन्होंने लालच के लिए ज़मीन हथियाई, निर्दोष लोगों का खून बहाया और समाज को डर में जीने पर मजबूर किया। रीमा की खोज से साजिश का असली चेहरा सामने आ चुका था। कृष्ण अब और दृढ़ निश्चय से आगे बढ़ा—“अब हमें उन रसूखदारों तक पहुँचना होगा, जिन्होंने यह सब खेल खेला था। पंडित हरिदास तो केवल उनका मोहरा था।” सान्वी ने भी हामी भरी—“लेकिन हमें सावधान रहना होगा। जो लोग पंद्रह साल पहले गवाहों को गायब कर सकते थे, वे आज भी किसी भी हद तक जा सकते हैं।” रीमा ने मुस्कराते हुए कहा—“लेकिन इस बार उनके पास सच्चाई को दबाने का रास्ता नहीं है। काला फूल अब उनकी चाल नहीं, बल्कि उनकी हार का प्रतीक बनेगा।” कस्बे में यह खबर आग की तरह फैल गई और लोगों ने पहली बार आत्मा की बजाय इंसान के अपराध की ओर ध्यान देना शुरू किया। पर इसी बीच, अंधेरे में छिपा असली हत्यारा और खतरनाक हो गया, क्योंकि अब उसकी असली पहचान सामने आने का खतरा था। कृष्ण जानता था कि यह जाँच अब जीवन-मरण का खेल बन चुकी है—एक ऐसा खेल जिसमें सच सामने लाने के लिए उसे हर कदम पर मौत से लड़ना होगा।

रात का सन्नाटा कस्बे पर पूरी तरह छाया हुआ था। गंगा किनारे फैली काली नदी का पानी चाँदनी में किसी काले शीशे की तरह चमक रहा था। इंस्पेक्टर कृष्ण वर्मा और डॉ. सान्वी ने अपने जाल को पूरी सावधानी से रचा था—नदी के उसी तट पर, जहाँ पहली लाश मिली थी। पुलिस की टीम छिपी हुई थी, लेकिन किसी को ज़रा भी आहट नहीं थी। योजना सीधी थी: कातिल अपने पैटर्न से बँधा हुआ था, वह हमेशा काले फूल को नदी में डुबोकर फिर शव के हाथ में छोड़ता था। कृष्ण जानता था कि वह फिर आएगा, क्योंकि उसकी विकृत मानसिकता उसे रोकने नहीं देगी। हवा में हल्की ठंडक थी, और हर परछाई किसी छिपे ख़तरे की तरह लग रही थी। सान्वी ने धीमी आवाज़ में कहा—“अगर यह सचमुच वही है जो हम सोच रहे हैं, तो आज सब साफ़ हो जाएगा।” कृष्ण ने सिर हिलाया और आँखें चौकस रखीं। तभी, अंधेरे में से एक आकृति उभरी—सफेद कपड़ों में लिपटा, हाथ में वही काला फूल थामे। उसका हर कदम सोची-समझी सटीकता से भरा था, जैसे वह किसी प्राचीन अनुष्ठान को दोहरा रहा हो। पुलिसकर्मी सांस रोके बैठे थे। कृष्ण ने धीरे से अपनी बंदूक संभाली और फुसफुसाया—“शिकार आ चुका है।”

वह शख्स जैसे ही नदी किनारे झुका और फूल को पानी में डुबोने लगा, कृष्ण ने टॉर्च जला दी और ज़ोर से गरजा—“रुक जाओ! तुम्हारा खेल अब खत्म हो गया है।” चौंककर वह आकृति पीछे हटी। उसका चेहरा टॉर्च की रोशनी में आया और सब दंग रह गए। वह वही आदमी था जिसे कस्बे वाले पंद्रह साल से मृत मानते थे—रामकिशोर, जो उस समय का मुख्य गवाह था और रहस्यमय ढंग से गायब हो गया था। उसकी आँखों में पागलपन की चमक थी। उसने हँसते हुए कहा—“मृत? हाँ, मैं उनके लिए मर चुका था। लेकिन सचमुच मरना इतना आसान नहीं होता। जब सबने मुझे धोखा दिया, तो मैंने तय कर लिया कि मैं परछाइयों में रहूँगा। और जो हुआ, उसका बदला लूँगा।” उसकी आवाज़ में पीड़ा और ज़हर मिला हुआ था। सान्वी ने हैरान होकर कहा—“तुम गवाह थे… और तुमने ही इन हत्याओं का सिलसिला शुरू किया?” रामकिशोर की आँखें फटी-फटी-सी दिखीं—“हाँ! गवाह था मैं, लेकिन कौन सुनता? वे ताक़तवर लोग मुझे भी मिटा देना चाहते थे। इसलिए मैंने मौत का नक़ाब पहन लिया। सालों तक छुपा रहा, और अब… अब वही फूल जो मेरे खिलाफ़ सबूत था, मैंने उसे अपने हथियार में बदल दिया। हर लाश, हर फूल, मेरी चीख़ थी जिसे तुम सबने अनसुना किया।” उसकी हँसी में एक भयानक प्रतिशोध की गूँज थी।

कृष्ण ने ठंडे स्वर में कहा—“यह चीख़ नहीं, तुम्हारा पागलपन है। तुमने मासूम लोगों को मारा, सिर्फ इसलिए कि तुम अपनी कहानी को खून से लिखना चाहते थे।” रामकिशोर चीखा—“मासूम? कोई मासूम नहीं है! सब उसी पाप के हिस्सेदार हैं। जिसने देखा, जिसने चुप्पी साधी, जिसने आँखें फेर लीं—सब अपराधी हैं। और मैं… मैं उनका न्यायाधीश हूँ।” उसने जेब से एक और काला फूल निकाला और पानी में फेंका। तभी वह अचानक भागने की कोशिश करने लगा। कृष्ण और सान्वी तुरंत पीछे दौड़े। पुलिस ने उसे घेरने की कोशिश की, लेकिन वह नदी किनारे बने पुराने घाट की ओर भाग गया। वहीं, वर्षों से टूटे-फूटे पत्थरों के बीच उसका अड्डा था। वहाँ दीवारों पर चिपकी कतरनों और पुराने अख़बारों में उसके पागलपन की कहानी दर्ज थी—हर हत्या, हर फूल, हर तिथि एक योजनाबद्ध प्रतिशोध का हिस्सा। लेकिन इस बार वह भाग नहीं पाया। कृष्ण ने उसे जकड़ लिया और ज़मीन पर गिरा दिया। रामकिशोर छटपटाते हुए चिल्लाया—“तुम सच्चाई को दबा दोगे… जैसे पंद्रह साल पहले दबाई गई थी!” कृष्ण ने गुस्से से कहा—“नहीं, इस बार नहीं। इस बार सच्चाई को दबने नहीं दूँगा। तुम्हारे हर अपराध का हिसाब होगा।” रामकिशोर की आँखों से आँसू बहे, लेकिन वह आँसू पश्चाताप के नहीं, बल्कि टूटे हुए पागलपन के थे। लोगों ने पहली बार देखा कि “ब्लैक फ्लॉवर किलर” कोई आत्मा नहीं, बल्कि एक टूटा हुआ इंसान था—जो अपने ही अंधे बदले में राक्षस बन गया। कृष्ण और सान्वी ने कस्बे को राहत दी, लेकिन उनके मन में एक गहरा सवाल रह गया—क्या न्याय का रास्ता हमेशा इतना खून माँगता है?

१०

कस्बे की हवाओं में अब हल्की राहत महसूस हो रही थी। महीनों से फैला डर, खौफ़ और बेचैनी जैसे धीरे-धीरे पिघल रहा था। रामकिशोर, यानी “ब्लैक फ्लॉवर किलर,” को पुलिस ने पकड़ लिया था और उसका सच सबके सामने आ चुका था। अदालत में उसके बयान और सबूतों ने यह साफ़ कर दिया कि काली नदी की आत्मा की अफवाह महज़ छलावा थी—असल में यह सब एक टूटे हुए इंसान का विकृत प्रतिशोध था। कस्बे के लोग अब मंदिर में घंटियाँ बजा रहे थे, बाजार फिर से गुलज़ार होने लगे थे, और गंगा घाट पर स्नान करने वालों की भीड़ लौट आई थी। इंस्पेक्टर कृष्ण वर्मा और डॉ. सान्वी चौहान ने चैन की सांस ली। रीमा चौहान ने अपनी कलम से पूरी कहानी को दर्ज किया, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ जान सकें कि कैसे डर और अंधविश्वास की आड़ में कभी-कभी इंसान ही राक्षस बन जाता है। पंडित हरिदास, जिनकी चेतावनियाँ कस्बे में भय फैलाती थीं, अब खामोश थे। उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने भी सच छुपाकर पाप किया था। कस्बे की सभा में कृष्ण ने कहा—“डर से बड़ा कोई ज़हर नहीं होता। जब हम डर को सच मान लेते हैं, तभी असली अपराधी जीत जाता है।” लोगों ने पहली बार तालियाँ बजाईं, और उनकी आँखों में संतोष की चमक थी। ऐसा लग रहा था कि कस्बे ने अपनी खोई हुई आत्मा को फिर पा लिया है।

लेकिन इस राहत की परत के नीचे एक अनजाना सन्नाटा अब भी मौजूद था। रात ढलते ही काली नदी का किनारा फिर से अजीब-सा रूप ले लेता। हवाओं में एक सर्द खामोशी होती, और पानी की लहरें रहस्यमय अंदाज़ में टकरातीं। कृष्ण और सान्वी अक्सर सोचा करते कि क्या वाकई सब खत्म हो गया है। रामकिशोर के चेहरे पर आख़िरी वक्त जो मुस्कान थी, उसने उन्हें बेचैन कर रखा था। वह मुस्कान मानो यह कह रही थी कि खेल अभी पूरा नहीं हुआ। रीमा ने भी अपनी डायरी में लिखा—“सच का परदा उठ गया है, लेकिन कहानियाँ कभी सचमुच खत्म नहीं होतीं। वे अपने नए किरदार तलाश लेती हैं।” कस्बे के कुछ बुजुर्ग अब भी फुसफुसाते थे कि नदी में आत्मा बसी है, और फूल उसी का संकेत हैं। हालांकि कोई खुले तौर पर यह मानने को तैयार नहीं था, लेकिन डर की हल्की परछाई अब भी हवा में तैरती रहती। कस्बे के बच्चे जब रात को नदी की दिशा से आती हवाओं को सुनते, तो डरकर खिड़कियाँ बंद कर लेते। भले ही लोगों ने खुद को समझा लिया था कि अपराधी इंसान था, पर उनके दिल में कहीं न कहीं यह सवाल अब भी गूंजता रहा—क्या वाकई आत्माएँ सिर्फ़ कहानियाँ होती हैं?

उस रात गंगा किनारे शांति छाई हुई थी। चाँद अपनी आधी रोशनी पानी पर बिखेर रहा था, और किनारे लगे पीपल के पेड़ की शाखाएँ हवा में डोल रही थीं। अचानक एक हल्की लहर उठी, और पानी की सतह पर कुछ धीरे-धीरे तैरने लगा। वह था—एक ताज़ा काला फूल। किसी ने उसे वहाँ रखा था, या वह खुद बहकर आया था—यह कोई नहीं जान पाया। लेकिन उस फूल को देखकर ऐसा लगा मानो पूरा कस्बा फिर से ठिठक गया हो। एक नाविक, जिसने उसे सबसे पहले देखा, भयभीत होकर पीछे हट गया। “फिर से…” उसने काँपते हुए कहा। अगले ही दिन यह खबर पूरे कस्बे में फैल गई। पुलिस ने उस क्षेत्र की तलाश की, लेकिन कुछ हाथ नहीं लगा। कृष्ण ने फूल को हाथ में उठाकर देखा—वह ताज़ा था, जैसे अभी-अभी किसी ने पानी में छोड़ा हो। सान्वी की आँखें भी गहरी चिंता से भर गईं। दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा, और बिना कुछ कहे समझ गए कि शायद यह अंत नहीं था। शायद कोई और छाया, कोई और खेल, अब भी बाकी था। और काली नदी का पानी, जो शांत दिख रहा था, उसकी गहराई में जैसे कोई नया रहस्य छिपा बैठा था। कस्बे के लोग भले चैन की साँस लेने लगे हों, लेकिन हवा में फिर से वही सवाल गूंजने लगा—क्या यह सुकून स्थायी है, या यह सिर्फ़ अगले तूफ़ान से पहले की ख़ामोशी?

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