Hindi - प्रेतकथा

बेरोज़ा हवेली का अंतिम दीपक

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मानव वर्धन


मध्य प्रदेश के भीतरी हिस्सों में बसा था एक पुराना, लगभग भुला दिया गया गाँव — बेरोज़ा। इस गाँव का नाम तक मानचित्रों में साफ़ नहीं दिखता था, लेकिन उसकी कहानियाँ लोकगीतों और बुज़ुर्गों की फुसफुसाहटों में अब भी ज़िंदा थीं। किसी जमाने में यह इलाका राजा वीरप्रताप सिंह के अधीन था, जिनकी विशाल हवेली अब वीरान पड़ी थी। हवेली की जर्जर दीवारें, छत पर उगी काई, टूटी खिड़कियाँ और सामने की परछाइयाँ — सब मिलकर उस जगह को किसी शापित चित्र की तरह बनाते थे। पत्रकार शौर्य वर्मा और उसकी कैमरा ऑपरेटर मित्र दीपिका उस दिन दोपहर के करीब गाँव पहुँचे थे, जब धूप अपने ढलान की ओर थी। जीप से उतरते ही उनका स्वागत कोई नहीं करता — न कोई बच्चा, न कोई बूढ़ा। केवल सूखे पत्तों की सरसराहट और हवेली की दिशा से आती एक पुरानी, ढहती घंटी की आवाज़। “लगता है किसी भूतिया फिल्म के सेट पर आ गए हैं,” दीपिका ने मज़ाक में कहा, लेकिन शौर्य गंभीर था। वह जानता था कि इस जगह में कुछ ऐसा था, जिसे सिर्फ देखा या सुना नहीं जा सकता, बल्कि महसूस किया जा सकता है।
गाँव के अंदर कुछ ही लोग दिखाई दे रहे थे — बूढ़े चेहरे, सूनी आँखें, और होंठ जैसे किसी डर से सिले हुए हों। एक पुरानी चाय की दुकान पर बैठे एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से शौर्य ने पूछा, “बेरोज़ा हवेली कहाँ है?” उस व्यक्ति ने बिना जवाब दिए सिर्फ एक उंगली से हवेली की दिशा इशारा कर दी और फिर नजरें फेर लीं, जैसे हवेली का नाम लेना भी वर्जित हो। गाँव के बाकी लोग उन्हें घूरते रहे, मानो वे किसी निषिद्ध लोक में कदम रख रहे हों। शौर्य, जो कि अंधविश्वासों को चुनौती देने के लिए जाना जाता था, इन निगाहों की परवाह नहीं करता था। उसके पास एक मकसद था — बेरोज़ा हवेली की सच्चाई दुनिया के सामने लाना। उसने पिछले कई महीनों में पुरालेख, समाचार की कतरनों और पुराने दस्तावेज़ों से यह जाना था कि उस हवेली में किसी समय एक क्रूर सत्य को छुपाया गया था — एक महिला की चीखें, एक दीया जो कभी बुझा नहीं, और एक आत्मा जो दीवारों में कैद हो गई थी। यह कहानी उसके लिए सिर्फ एक पत्रकारिता प्रोजेक्ट नहीं थी, बल्कि उसके भीतर कहीं कुछ था जो उस रहस्य को जानने के लिए तड़प रहा था।
हवेली तक पहुँचने के लिए उन्हें गाँव के बाहर एक पथरीली पगडंडी पार करनी पड़ी, जो बांस के सूखे झुरमुटों और झाड़ियों से घिरी हुई थी। दोपहर ढलते ही हवा में नमी और एक विचित्र गंध भर गई थी — पुराने धुएँ, जले हुए तेल और शायद… धूप की। जैसे ही हवेली का ऊपरी हिस्सा दिखा, दीपिका ने धीमी आवाज़ में कहा, “ये जगह कुछ ज़्यादा ही शांत है।” हवेली, पास से देखने पर और भी डरावनी लग रही थी — उसकी बालकनियों पर कबूतरों के घोंसले थे, खिड़कियों से जालों में जकड़ी परछाइयाँ लटक रही थीं, और सबसे ऊपर के गुंबद से एक टूटी जंजीर हवा में हिल रही थी, मानो किसी झूले का संकेत हो। शौर्य ने कैमरा ऑन किया और पहला शॉट लिया — “बेरोज़ा हवेली: एक राज, जो इतिहास की दीवारों में कैद है।” जैसे ही उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया, वह अपने आप धीरे-धीरे चर्र की आवाज़ के साथ खुल गया। अंदर की हवा गाढ़ी और बोझिल थी, और हर कोना जैसे किसी की निगरानी में था। कमरे पुराने थे, दीवारों पर फटी हुई पेंटिंग्स लटकी थीं — एक में रानी चंद्रप्रभा की धुंधली छवि थी, जिसे देखकर दीपिका ने धीरे से कहा, “ये तो जैसे अभी-अभी किसी ने आँसू पोंछे हों।”
शाम ढलने लगी थी और दोनों ने हवेली के मुख्य हॉल में डेरा डाल लिया। कैमरा, ट्राइपॉड, टॉर्च और रिकॉर्डर सेट कर लिए गए थे। शौर्य ने अपनी डायरी में नोट किया — “पहली अनुभूति — हवेली जीवित है। यहाँ की दीवारें सांस लेती हैं।” इतने में ही हवेली के मुख्य दरवाज़े पर किसी के पैरों की आहट सुनाई दी, जैसे कोई नंगे पाँव धीरे-धीरे भीतर आ रहा हो। लेकिन बाहर कोई नहीं था। दीपिका ने झिझकते हुए पूछा, “हम अकेले तो हैं, ना?” शौर्य ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ एक लंबी साँस ली और चुपचाप कैमरा ऑन रखा। यह शुरुआत थी — बेरोज़ा हवेली के रहस्य की, उस दीये की कहानी की जो बुझने का नाम नहीं लेता था, और उस आत्मा की — जो अब जागने लगी थी।
हवेली की पहली सीढ़ी पर कदम रखते ही शौर्य वर्मा को एहसास हो गया कि यह कोई साधारण जगह नहीं है। जैसे ही उसके जूते की ठोकर सीढ़ी के टूटे पत्थर से लगी, एक सूखी सी आवाज़ गूँजी — मानो किसी पुराने गलियारे में किसी ने कुछ बुदबुदाया हो। दरवाज़ा पहले ही खुला हुआ था, और अंदर की हवा में एक अजीब तरह की नमी थी — जैसे कई बरसों की बंद साँसें एक साथ अंदर सिमटी हों। छत से लटकी एक लोहे की पुरानी झूमर, जिसमें अब न कोई काँच था न रोशनी, हवा के हल्के झोंकों में धीरे-धीरे हिल रही थी। दीवारों पर लगे चित्र और पेंटिंग्स ऐसे लग रहे थे जैसे वे आँखों से देख रही हों — किसी को पहचाने बिना भी पहचान लेने वाली नज़रों से। दीपिका कैमरा संभाल रही थी, लेकिन उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं। “शौर्य, हमें थोड़ा सावधान रहना चाहिए… यहां कुछ तो है,” उसने फुसफुसाते हुए कहा। लेकिन शौर्य की नजरें कमरे की सबसे दूर वाली दीवार पर टिकी थीं — जहां एक झूला टंगा था, लकड़ी का, पुराना, और उस पर जाले लिपटे हुए थे। लेकिन वह हल्का-सा हिल रहा था… जबकि खिड़कियाँ बंद थीं।
हवेली का मुख्य हॉल लगभग दो मंज़िला ऊँचाई का था, और उसकी छत पर स्याह धब्बे ऐसे दिखते थे जैसे किसी ने कभी वहां आग जलाई हो। एक कोने में टेढ़ी पड़ी एक लकड़ी की अलमारी के भीतर कुछ पुरानी किताबें दिख रही थीं। शौर्य उन्हें छूने ही वाला था कि एक मोटी धूल की परत उसकी उंगलियों पर जम गई और साथ ही उसकी नाक में कोई सड़ा हुआ गंध भर गया — जैसे मिट्टी में कुछ दबा हो जो अब सड़ने लगा है। उन्होंने एक किताब निकाली — उसका नाम मिट चुका था, लेकिन अंदर की पहली पंक्ति पढ़कर शौर्य ठिठक गया: “चंद्रप्रभा रानी की यह आख़िरी पुकार है, जिसे केवल वह सुन सकेगा जो सच्चाई से डरे नहीं।” दीपिका ने वो शब्द सुने नहीं, लेकिन शौर्य के चेहरे की सफेदी देखकर उसने कैमरा नीचे कर दिया। “कुछ मिला क्या?” वह बोली। शौर्य ने किताब वापस रख दी और बस इतना कहा, “अभी नहीं… लेकिन ये जगह बोलती है।” उसकी आवाज़ धीमी थी, मानो हवेली के कानों से डर रहा हो।
जैसे-जैसे वे अंदर के कमरों की ओर बढ़ते गए, हवेली और भी रहस्यमय होती गई। दीवारों पर लगे पुराने झरोखों से कुछ-कुछ धूप की रेखाएँ अब भी आ रही थीं, लेकिन वे भी कमरे में उजाला लाने की बजाय परछाइयाँ बना रही थीं। एक कमरा जो राजा का सिंहासन-कक्ष कहा जाता था, वहाँ के दरवाज़े पर एक लोहे की जंजीर लटक रही थी — टूटी हुई, लेकिन उसके नीचे कुछ लकीरें थीं… जैसे किसी ने नाखूनों से ज़मीन खुरची हो। शौर्य झुक कर देखने ही वाला था कि पीछे से फिर वही झूले की धीमी चर्र-चर्र आवाज़ आई। दीपिका ने अब कैमरा नीचे रख दिया था और एक तरह की घबराहट उसके चेहरे पर साफ़ थी। “हमने अगर यहां रात बिताई तो मुझे नहीं लगता मैं सो पाऊँगी,” उसने कहा, लेकिन शौर्य की आँखें किसी और ही दिशा में थीं — हवेली की सीढ़ियों की ओर, जो ऊपर वाले कक्षों तक जाती थीं। ऊपर से एकदम शांत वातावरण था, लेकिन वह शांति ऐसी थी, जिसमें कुछ छिपा हो — जैसे कोई ऊपर से नीचे झाँक रहा हो।
जब वे ऊपर की मंज़िल पर पहुँचे, तो सबसे अंतिम कमरे का दरवाज़ा बंद था। शौर्य ने हल्के से दरवाज़ा धकेला, वह चर्र की आवाज़ करता हुआ खुल गया। कमरा अपेक्षाकृत साफ़ था — उसमें एक पलंग था, एक बड़ा शीशा, और दीवार पर एक तस्वीर — एक रानी की, जिसके माथे पर बड़ी सी बिंदी थी और चेहरे पर एक अपार पीड़ा। दीपिका ने कैमरा उठाकर ज़ूम किया, लेकिन कैमरा फ़ोकस नहीं कर रहा था — मानो चेहरा कैमरे में आना नहीं चाहता। तभी एक ठंडी हवा का झोंका कमरे में घुसा, जबकि सारी खिड़कियाँ बंद थीं। शौर्य ने महसूस किया कि उसके कानों में कोई धीमी सी स्त्री-आवाज़ गूँज रही है — “दीया बुझाओ…” वह पलटा, लेकिन पीछे दीपिका खड़ी थी, उसकी आँखों में डर साफ़ था। “तुमने भी सुना…?” शौर्य ने पूछा। दीपिका ने सिर हिलाया — “हाँ, कोई था… कोई जो चाहता है कि हम यहाँ न रहें।” लेकिन शौर्य ने वहीं अपनी डायरी में लिखा — “इस हवेली में नज़रों से ज़्यादा आवाज़ें हैं… और उनमें सबसे खतरनाक है वो, जो दीया बुझाने के लिए कह रही है। लेकिन कौन सा दीया?” तभी नीचे के हॉल से फिर वही झूले की आवाज़ आई — और साथ में एक धीमी हँसी, जो हवेली की दीवारों में गूंज उठी।
अगली सुबह हवेली के बाहर का आसमान थोड़ी देर के लिए साफ़ हुआ था, लेकिन हवेली के ठीक ऊपर जैसे कोई अदृश्य बादल मंडरा रहा था। रात की घटनाओं ने दीपिका को विचलित कर दिया था, और शौर्य की नींद भी आधी-अधूरी रही थी — उसके कानों में अब भी वह स्त्री-स्वर गूंजता रहा, “दीया बुझाओ…”। दोनों ने तय किया कि आज गाँव के बुज़ुर्गों से सीधे बात की जाए। उस रहस्यमय हवेली से जुड़ी कड़ियाँ अब किसी और दिशा की ओर इशारा कर रही थीं, जहाँ सिर्फ दीवारें नहीं, इतिहास भी बोलता था। गाँव में सबसे ज्यादा सम्मानित और डराई गई शख्सियत थी — सावित्री काकी। उम्र करीब अस्सी साल, लेकिन आंखों की धार अब भी वैसी ही पैनी। सफेद सूती साड़ी, माथे पर हल्दी की तरह पीली बिंदी, और आवाज़ में वो कंपन जैसे खुद वक़्त ने भी उनसे डरना सीख लिया हो। शौर्य और दीपिका उनके कच्चे घर के बाहर पहुँचे तो दरवाज़ा खुला हुआ था। वे भीतर गए तो देखा — सावित्री काकी चूल्हे के पास बैठी कुछ जड़ी-बूटियों को पीस रही थीं, लेकिन जैसे उन्हें पहले से ही पता था कि कोई आएगा। बिना देखे ही बोलीं, “रात हवेली में बिताई, ना बेटा? अब क्या पूछने आए हो — कि दीया क्यों मत जलाना?”
शौर्य ठिठक गया। उसने अपने बैग से कैमरा निकालने की कोशिश की, लेकिन काकी ने हाथ उठाकर इशारा किया, “बंद रखो वो यंत्र। मेरी बातों को मशीनों में मत कैद करो। कुछ बातें बस आत्मा से सुनी जाती हैं।” दीपिका ने शौर्य को आँखों से समझाया — बात मान लो। फिर सावित्री काकी ने उन्हें पास बिठाया, जैसे कोई माँ अपने खोए हुए बच्चों को सच्चाई बताने बैठती है। उनकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन हर शब्द लोहे की कील जैसा लगता था। “राजा वीरप्रताप सिंह की हवेली, जिसे अब तुम लोग ‘हॉन्टेड’ कहते हो, वो किसी भूत का घर नहीं है बेटा। वो एक रानी की अधूरी चिता है। रानी चंद्रप्रभा — उज्जैन से ब्याह कर आई थी। तेजस्विनी थी, विदुषी थी, लेकिन सबसे बड़ी बात — सत्य की पुजारी थी। जब राजा ने गाँववालों पर ज़ुल्म बढ़ाया, खासकर औरतों पर, रानी ने विरोध किया। एक दिन उसने सभा में राजा की नीतियों को चुनौती दी… और उसी दिन से उसकी आत्मा को बंद करने की तैयारी शुरू हुई।” शौर्य साँस रोके सुन रहा था। “उसे जिंदा दीवार में चुनवा दिया गया था — उसी दीवार के पीछे, जहाँ अब वो झूला है। और उस दिन रानी ने एक दीया जलाया था — कहा था, जब तक ये दीया जलता रहेगा, मेरा शाप जिंदा रहेगा। जब भी कोई इसे जलाएगा, मेरी पुकार लौटेगी।”
शौर्य को एक साथ सबकुछ समझ आने लगा — झूले की आवाज़, दीवारों से आती धीमी हँसी, और वह स्त्री-स्वर जिसने बार-बार ‘दीया बुझाओ’ कहा। दीपिका ने थोड़ी घबराई हुई आवाज़ में पूछा, “तो क्या कोई उसे मुक्त नहीं कर सकता?” सावित्री काकी हँसी — एक लंबी, थकी हुई हँसी, “मुक्ति तब मिले जब कोई उसकी पूरी कहानी दुनिया को बताए। पर जो भी दीया जलाता है, उसे कुछ देना पड़ता है — या तो अपना डर, या अपनी साँसें। तुम लोग शहर से आए हो, बुद्धिमान हो — पर यहाँ की ज़मीन, यहाँ की आत्माएं, वो तुम्हारी समझ के बाहर हैं। दीया जलाओगे, तो रानी जागेगी। और जब रानी जागती है, तो कोई भी सुरक्षित नहीं रहता।” शौर्य ने धीरे से पूछा, “तो हमें क्या करना चाहिए?” काकी ने उनकी आँखों में गहराई से झाँका, और बोलीं, “तुम्हें रानी की कहानी पूरी करनी होगी। सच को बाहर लाना होगा, पर बिना उसे छेड़े। हवेली में दीया मत जलाना, और झूले को मत छूना।” लेकिन वह ये नहीं जानती थीं — कि दीया तो पिछली रात ही जल चुका था।
शौर्य और दीपिका घर से बाहर निकले तो हवा और भारी लगने लगी थी। सावित्री काकी की बातों ने उन्हें हिला कर रख दिया था। दीपिका लगभग काँपती आवाज़ में बोली, “शौर्य, ये अब सिर्फ डॉक्युमेंट्री नहीं रही… ये कुछ ज़्यादा बड़ा है।” लेकिन शौर्य की आँखों में कुछ और था — डर नहीं, बल्कि जिज्ञासा की आग। “अगर हम ही नहीं बताएंगे रानी की कहानी, तो कौन बताएगा?” उसने कहा। लेकिन उस पल उन्हें नहीं पता था कि हवेली अब उन्हें पहचान चुकी है। लौटते वक़्त हवेली की तरफ़ देखते ही शौर्य ने देखा — ऊपर की बालकनी में, धुंध के बीच कोई साया खड़ा था — बिलकुल स्थिर, बिलकुल शांत। और जैसे ही उसने देखा, झूला फिर से हिला। हवेली की परछाईं अब उनके पीछे चलने लगी थी — और यह खेल अब बस शुरू हुआ था।
रात के आठ बज चुके थे, लेकिन हवेली के आस-पास का अंधकार जैसे समय से पहले ही छा गया था। दूर गाँव के मंदिर से आती आरती की आवाज़ भी जैसे हवेली की चुप्पी के सामने हार मान चुकी थी। दीपिका ने सारी लाइट्स और कैमरा दोबारा सेट कर दिए थे — वे आज रात पूरी रिकॉर्डिंग प्लान कर चुके थे, ताकि हवेली की असली “उर्जा” को कैमरे में कैद किया जा सके। लेकिन शौर्य भीतर से अशांत था। सावित्री काकी की चेतावनी अब भी उसके कानों में गूंज रही थी — “दीया मत जलाना…”। पर शौर्य के भीतर का पत्रकार, या शायद कोई और ही शक्ति, उसे बार-बार उस कमरे की ओर खींच रही थी जहाँ रानी चंद्रप्रभा का झूला था। जैसे वह दीया, जिसकी लौ बुझाने की बात हर रात एक परछाईं कहती थी, अब खुद ही जलने की माँग कर रहा था। “मैं बस एक दृश्य शूट कर रहा हूँ,” उसने खुद से कहा और झूले वाले कमरे में गया। दीवार के कोने में एक प्राचीन पीतल का दीया पड़ा था, जो शायद सालों से वहीं था। उसने माचिस निकाली, और एक तीली जलाई। जैसे ही लौ दीये से टकराई, कमरे की हवा बदल गई — शीतल नहीं, बल्कि भारी और दाबदार। और जैसे ही दीया जला, दीवारें हिलने लगीं — नहीं, सच में नहीं, पर मनोविज्ञानिक रूप से — जैसे किसी ने इन पत्थरों को सालों बाद कुछ महसूस कराया हो।
दीपिका उस समय बाहर के हॉल में कैमरे के फ्रेम देख रही थी जब एक अजीब सी ध्वनि उसके माइक्रोफोन में आने लगी — एक धीमा फुसफुसाना, एक स्त्री की आवाज़, जिसे वह ठीक-ठीक समझ नहीं पा रही थी, लेकिन जो दिल की धड़कन बढ़ा देने वाली थी। “शौर्य! तुम कहाँ हो?” उसने ज़ोर से पुकारा। भीतर से कोई जवाब नहीं आया। वह डरते हुए झूले वाले कमरे की ओर बढ़ी। जब वह कमरे के दरवाज़े पर पहुँची, तो देखा — झूला अपने आप हिल रहा था, और दीया जल रहा था, लेकिन शौर्य वहाँ नहीं था। “शौर्य?” वह काँपती हुई बोली। तभी पीछे से एक आवाज़ आई — “दीया क्यों जलाया?” दीपिका ने पलटकर देखा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। आवाज़ अब दीवारों में गूंज रही थी, बार-बार — “दीया क्यों जलाया… क्यों जलाया… क्यों जलाया…”। दीपिका ने दीये की लौ की ओर देखा — वह अब सामान्य पीली नहीं, बल्कि गाढ़ी नीली और बैंगनी रंग में चमक रही थी। उसी पल, दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। दीपिका भीतर बंद हो गई — और शौर्य…?
शौर्य उस समय हवेली की छत पर खड़ा था — कैसे पहुँचा, उसे नहीं पता। एक क्षण पहले वह दीया जला रहा था, अगले पल वह हवेली की सबसे ऊँची जगह पर, रात की स्याही में डूबा खड़ा था। नीचे दूर से गाँव की बुझी-बुझी बत्तियाँ दिख रही थीं, और आस-पास सिर्फ हवा नहीं, कोई साँसें ले रहा था — अदृश्य, मगर मौजूद। तभी उसे कुछ सरसराहट सुनाई दी — जैसे रेशमी साड़ी की। उसने मुड़कर देखा — छत के कोने में, परछाई में कोई खड़ा था। धीरे-धीरे वह आकृति स्पष्ट होती गई — एक स्त्री, काली साड़ी में, लहराते बाल, और चेहरा… चेहरा नहीं, बस गहराई… एक खाली जगह जिसमें आँखें नहीं, सिर्फ शून्य था। शौर्य का शरीर जड़ हो गया। “तुमने दीया जलाया…” वह आवाज़ फिर गूंजी, इस बार बहुत पास से। “तुम मेरी नींद में आग बनके आए हो… अब मेरी जागृति बनोगे।” शौर्य का मन कह रहा था — भागो! लेकिन उसके पैर जैसे ज़मीन से चिपक गए थे। तभी वह परछाई हवा में तैरती हुई उसकी ओर बढ़ी, और झट से उसकी आंखों में झाँकती चली गई। और फिर… अंधेरा।
दीपिका ने जब किसी तरह दरवाज़ा खोला और बाहर भागी, तो शौर्य को मुख्य हॉल के पास बेहोश पड़ा पाया। उसके माथे से पसीना बह रहा था, लेकिन उसके चेहरे पर एक गहरी शांति और एक अजीब मुस्कान थी — जैसे वह किसी से मिल चुका हो, जो उसे पहले से जानती थी। दीपिका ने उसे जगाया, वह काँपते हुए उठा और धीमी आवाज़ में बस इतना कहा, “मैंने उसे देख लिया। रानी चंद्रप्रभा… वह अब जाग चुकी है।” उसी पल हवेली के बाहर एक कुत्ता ज़ोर से रोया, और गाँव की बत्तियाँ एक साथ बुझ गईं। हवेली का दीया अब भी जल रहा था, और उसकी लौ अब हरे रंग में काँप रही थी — जैसे कोई आत्मा अब उसमें निवास कर रही हो। और तब शौर्य ने धीमे स्वर में कहा, “अब यह कहानी हमारी नहीं रही, अब हम उसकी कहानी का हिस्सा बन चुके हैं।”
बारिश उस रात भी बिना रुके गिर रही थी, जैसे आकाश खुद अपने भीतर छुपे भय को ज़मीन पर बहा देना चाहता हो। शौर्य वर्मा उस जले हुए कमरे की ओर बढ़ रहा था, जहाँ पिछली रात दीवार पर रहस्यमयी “ॐ क्षम्” का चिन्ह उभरा था। उस चिन्ह का क्या अर्थ था, यह जानने के लिए उसने पुराने संस्कृत ग्रंथ और तांत्रिक शास्त्रों की कई प्रतियाँ मंगवाई थीं। दिन भर पढ़ाई करने के बाद एक निष्कर्ष सामने आया — यह प्रतीक केवल आत्माओं को शांत करने या नियंत्रित करने के लिए उपयोग होता था। लेकिन किस आत्मा की? और क्यों उस कमरे में? हवेली अब उसे किसी जीवित संरचना की तरह महसूस हो रही थी — साँस लेती, घूरती और प्रतिक्रिया करती। जैसे ही शौर्य कमरे में दाखिल हुआ, एक बर्फीली हवा ने उसके शरीर को भीतर तक ठंडा कर दिया। कमरे की दीवारें अब पहले से अधिक काली थीं, और छत से जले हुए कपड़ों के टुकड़े झूल रहे थे। अचानक, एक कोना झिलमिलाने लगा, जैसे कोई उसमें खड़ा हो।
शौर्य ने अपना कैमरा उठाया और उस झिलमिलाते कोने की ओर बढ़ा। लेकिन कैमरे की स्क्रीन में कुछ और ही नजर आया — एक औरत खून से लथपथ, लाल साड़ी में खड़ी थी, और उसकी आँखें सीधी शौर्य की ओर। शौर्य ने कैमरा हटाकर सीधे देखा, तो वहाँ कुछ नहीं था। लेकिन उसकी पीठ पर किसी के हाथ की गर्माहट अब भी महसूस हो रही थी। वह एक पल को जड़ हो गया, और तभी उसे एक धीमी सी आवाज़ सुनाई दी, “मैं यहाँ हूँ… दीया बुझा मत देना।” यह आवाज़ किसी औरत की थी, लेकिन उसमें इतना दर्द, इतनी घुटन थी कि जैसे वर्षों से वह बोलने की ताक में थी। शौर्य ने तुरंत रजिस्टर निकाला और उस लाइन को नोट किया। अब यह साफ था — कोई आत्मा उस हवेली में बंधी हुई थी, और उस दीपक के माध्यम से ही उसकी उपस्थिति बनी हुई थी। लेकिन वह दीपक कहाँ था?
अगले दिन शौर्य ने हवेली के नौकर नाथूराम से गुप्त बात करने की कोशिश की। कई बार की असफल कोशिशों के बाद, नाथूराम ने रात को चुपचाप उसे हवेली के पुराने तहखाने तक ले जाने का इशारा किया। तहखाना जो वर्षों से बंद था, जिसमें कोई जाने की हिम्मत नहीं करता था। “मालिक के समय एक पूजा हुआ था, वहीं रखा गया था दीपक… लेकिन जब से वह पूजा अधूरी रही, तब से…” नाथूराम काँपते हुए रुक गया। शौर्य ने दीवार की दरार में हाथ डाला और पुरानी लोहे की चाबी बाहर निकाली। तहखाने का दरवाज़ा चिटकने की आवाज़ के साथ खुला, और एक दुर्गंध भरी हवा बाहर आई। नीचे जाते ही उसे एक पुराना पूजन-कक्ष मिला, जिसके बीचों-बीच एक काले पत्थर की चौकी पर टूटा हुआ दीपक रखा था — जैसे किसी ने उसे जानबूझकर तोड़ा हो। वहीं एक ओर, ज़मीन पर खून के सूखे छींटे और राख का घेरा बना हुआ था। शौर्य के कदमों की आहट पर कुछ चूहों ने भाग लिया, लेकिन उनकी भागती परछाइयाँ दीवारों पर कुछ अलग ही आकृतियाँ बना रही थीं — एक त्रिशूल, एक आँख और… एक औरत का चेहरा।
शौर्य ने जैसे ही टूटा दीपक हाथ में लिया, उसकी आँखों के सामने अंधेरा छा गया। उसके कानों में एक ही आवाज़ गूंज रही थी — “जो अधूरा रह गया, वो अब पूरी होगी। दीपक जलाओ, नहीं तो…” तभी उसकी चेतना वापस आई, और उसने खुद को ज़मीन पर गिरा हुआ पाया। उसके माथे पर खून था, और हाथों में राख चिपकी हुई थी। लेकिन दीपक अब साबुत था — जैसे अभी-अभी किसी ने उसे जोड़ दिया हो। शौर्य समझ गया कि यह साधारण भूतहा मामला नहीं था; यह किसी अधूरी साधना, किसी पुरानी प्रतिशोध की कहानी थी। हवेली सिर्फ एक ढांचा नहीं थी, वह एक ज़िंदा स्मृति थी — और शौर्य, जाने-अनजाने, उस स्मृति का हिस्सा बन चुका था।
शौर्य वर्मा उस रात ठीक से सो नहीं पाया। हवेली में पिछले कुछ दिनों की घटनाएँ उसके ज़हन में किसी भूचाल की तरह चल रही थीं—हवन की राख में उभरता अनाम चेहरा, गायब नौकर, पुराना संदूक, और सबसे अहम—दीवारों पर उभरती परछाइयाँ। अगले दिन सुबह हवेली में एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था, मानो रात के डर ने दीवारों तक को गूंगा कर दिया हो। वृद्धा लता देवी, जो पहले दिन से ही खामोश और संयमित थीं, अचानक शौर्य के कमरे में आईं। उन्होंने बहुत धीमी और डरते हुए आवाज़ में कहा, “एक जगह है इस हवेली में… जहाँ हम पीढ़ियों से नहीं जाते। चित्रगृह। वहाँ कुछ ऐसा है जो वर्षों से ढँका है। शायद तुम्हें वहीं से जवाब मिलेंगे।”
शौर्य के लिए यह जानकारी किसी भूचाल से कम नहीं थी। हवेली के दक्षिणी कोने में बने चित्रगृह के बारे में उसने सिर्फ़ अंधेरे में फुसफुसाई कहानियाँ सुनी थीं। कमरे तक पहुँचने वाला गलियारा मकड़ी के जालों से भरा था, मानो वर्षों से कोई वहाँ नहीं गया। कमरे का दरवाज़ा लोहे का था और जर्जर ज़रूर, पर किसी अदृश्य शक्ति से बंद। शौर्य ने जैसे ही उस पर हाथ रखा, एक ठंडी लहर उसके शरीर से गुज़री, और उसकी हथेली पर एक अजीब सी लाल रेखा उभर आई। उसने बड़ी मुश्किल से दरवाज़ा खोला। अंदर घुप्प अंधेरा था, पर हवा में एक जानी-पहचानी गंध थी—जैसे धूप-दीप, पुरानी चितकबरी किताबें, और कुछ अधजला। शौर्य ने मोबाइल की फ्लैशलाइट जलाई और कमरे के चारों ओर घूमना शुरू किया।
दीवारों पर पुराने राजसी चित्र टंगे थे। किसी में एक रानी हाथ में दीपक लिए खड़ी है, किसी में एक दरबारी अपने कानों में कुछ कह रहा है। पर सबसे पीछे की दीवार पर टंगा एक चित्र बाक़ी सबसे अलग था। वह एक विशाल काले फ्रेम में था, और पर्दे से ढँका हुआ। जैसे ही शौर्य ने पर्दा हटाया, कमरे में हल्की कंपन हुई। चित्र में वही हवेली थी—बिलकुल हूबहू। लेकिन हवेली के सामने खड़े थे सात लोग—सभी सफ़ेद वस्त्रों में, आंखें बंद, और एक दीपक लिए। शौर्य को तुरंत याद आया वो सपना जिसमें सात दीपक थे। पर यह तो तस्वीर थी, और बेहद पुरानी। उसने गौर से देखा—उन सात लोगों में एक चेहरा आज के चौकीदार घनश्याम जैसा लग रहा था। यह कैसे संभव था? तभी एक ज़ोरदार आवाज़ हुई और कमरे की खिड़की अपने आप बंद हो गई। मोबाइल की रोशनी भी फड़फड़ाने लगी। शौर्य को लगा जैसे चित्र से कोई उसे देख रहा हो।
घबराहट में उसने दरवाज़े की ओर दौड़ लगाई, पर दरवाज़ा भीतर से बंद हो चुका था। कमरे का तापमान तेजी से गिर रहा था, सांसें उखड़ने लगीं। अचानक चित्र से एक तेज़ रोशनी निकली और शौर्य की आंखें चौंधिया गईं। वह ज़मीन पर गिर पड़ा। कुछ पल बाद, जब वह उठा, तो खुद को एक अलग दुनिया में पाया—वही हवेली, लेकिन बेहद पुरानी, दीवारों पर दीपक जल रहे थे, लोग पुराने वस्त्रों में, और एक युवती ज़ोर-ज़ोर से चीख रही थी, “इस दीपक को मत बुझाओ! ये आखिरी रक्षक है!” फिर अचानक सब गायब हो गया। शौर्य फिर उसी चित्रगृह में था, पसीने में लथपथ, हांफता हुआ। पर कुछ बदला था—अब चित्र के अंदर सात लोगों में से एक की आंखें खुल गई थीं। उसकी आंखें सीधी शौर्य की ओर देख रही थीं।
शौर्य समझ चुका था कि यह कोई सामान्य चित्र नहीं, यह जीवित है। यह उन रूहों का द्वार है जो कभी इस हवेली में जीवित थीं और अब दीपक के माध्यम से इस लोक में जुड़ी हैं। शायद हर दीपक एक आत्मा का प्रतीक है, और चित्र उनका बंधन। वह तेजी से कमरे से बाहर भागा और सीधा लता देवी के पास पहुंचा। वृद्धा की आंखें भर आईं। उन्होंने कांपती आवाज़ में कहा, “मैं जानती थी… इस पीढ़ी में कोई न कोई आएगा जो इस श्राप को तोड़ेगा। लेकिन जल्दी करो… अगले अमावस से पहले… वरना अगली आत्मा भी जाग जाएगी… और फिर…”
उनकी बात अधूरी रह गई, लेकिन शौर्य को सब समझ में आ चुका था। दीपक बुझाना मतलब आत्मा को मुक्त करना नहीं, उसे इस लोक में खींच लाना है। और हवेली का अंतिम दीपक… शायद शौर्य के अपने हाथ में है।
साँझ का समय धीरे-धीरे रात में बदल रहा था, और हवेली के बाहर की स्याह छाया अब भीतर तक अपनी पकड़ बना चुकी थी। शौर्य वर्मा उस पुराने नक़्शे को फिर से देख रहा था, जो उन्होंने हवेली के तहख़ाने से खोज निकाला था। नक़्शे में हवेली के अंदर तीन रहस्यमयी द्वारों की ओर संकेत किया गया था—पहला द्वार पुस्तकालय के पीछे, दूसरा रसोई के नीचे, और तीसरा… हवेली के पश्चिमी हिस्से में, जिसे आज तक किसी ने नहीं खोला था। यह द्वार ‘तिसरा द्वार’ कहलाता था—जिसे स्थानीय लोग ‘भैरवी द्वार’ कहते थे। मान्यता थी कि यह द्वार केवल उसी व्यक्ति के लिए खुलता है जिसे ‘हवेली की आत्मा’ पहचानती है। शौर्य जानता था कि यह महज़ किंवदंती नहीं हो सकती; पिछले छह दिनों की घटनाएँ उसे बता चुकी थीं कि यह हवेली केवल दीवारों और पत्थरों की नहीं बनी, यह यादों और प्रेतों का घर थी।
उस रात, जब सब सो रहे थे, शौर्य अकेले उस पश्चिमी हिस्से में पहुँचा, जहाँ वर्षों से किसी ने क़दम नहीं रखा था। फर्श की पट्टियाँ चरमरा रही थीं, और हर दीवार पर जाले लटक रहे थे। दीवारों पर लगे पुराने चित्र जैसे अंधेरे में आँखें गड़ाए उसे देख रहे हों। धीरे-धीरे वह उस बंद दरवाज़े के पास पहुँचा, जिसके ऊपर समय की धूल जमी थी और जिस पर लाल रंग से कुछ संस्कृत में लिखा था—“यत्र मृत्युः तत्र मौनं” (जहाँ मृत्यु है, वहाँ मौन है)। शौर्य का गला सूखने लगा। उसने दरवाज़े की कुंडी को पकड़ कर हल्का सा झटका दिया—दरवाज़ा खुला नहीं, लेकिन किसी अदृश्य बल ने जैसे उसे धक्का देकर दूर फेंक दिया। उसकी पीठ दीवार से जा टकराई। लेकिन उसे एहसास हो गया था—यह द्वार उसकी उपस्थिति को पहचान चुका है। अगले ही क्षण दरवाज़ा अपने-आप चरमराया, और एक अजीब सी गंध हवा में फैल गई—जैसे पुराने कफ़न, धूप और कुछ सड़ चुकी चीज़ों की मिलीजुली गंध।
अंदर प्रवेश करते ही शौर्य की साँसें थम गईं। कमरा बहुत लंबा और संकरा था, दीवारों पर छोटे-छोटे ताबूत रखे थे—लगभग एक दर्जन। हर ताबूत पर एक नाम खुदा था, जो किसी जमाने में हवेली में रहने वाले नौकरों और परिचारकों के थे। लेकिन सबसे अंतिम ताबूत पर खुदा था—”रुद्राक्ष वर्मा, 1912″। शौर्य के पैरों तले ज़मीन खिसक गई। यह उसका परदादा था, जो लापता हो गया था और कभी मिला नहीं। पास ही एक काठ की कुर्सी पर एक मोटा, पुराना रजिस्टर रखा था। उसने काँपते हाथों से उसे खोला—रजिस्टर में हवेली में हुई प्रत्येक मृत्यु का ब्यौरा लिखा था, और कैसे उन्हें इस कमरे में दफ़नाया गया। लेकिन पन्नों के बीच एक चिट्ठी मिली—जिसे शायद उसके परदादा ने लिखा था। चिट्ठी में लिखा था:
“अगर कोई मेरा वंशज इस पत्र को पढ़ रहा है, तो समझो हवेली की आत्मा अभी पूरी तरह जागी नहीं है। तीसरा द्वार सिर्फ तुम्हें रास्ता दिखाएगा, लेकिन चेतावनी देता हूँ—जो भी प्रश्न पूछे जाएँ, सत्य बोलना। वरना इस कमरे से निकलना असंभव होगा।”
शौर्य का सिर घूमने लगा। उसने रजिस्टर बंद किया और जब पीछे मुड़कर निकलने का प्रयास किया, तो दरवाज़ा फिर से बंद हो चुका था। अंधेरे में एक मंद रौशनी जली, और दीवार पर एक चेहरा उभरने लगा—वही स्त्री, जो हर रात उसकी नींदों में आती थी। लेकिन अब वह और भी स्पष्ट थी—उसकी आँखों में क्रोध, दर्द और इंतज़ार था। और तभी एक तेज़ आवाज़ गूँजी—“क्या तुम तैयार हो सच जानने के लिए?” शौर्य काँपते हुए बोला—“हाँ।” और उसके सामने फर्श खुलने लगा… मानो हवेली ने अब तय कर लिया था कि अगला राज़ उजागर होगा।
शौर्य वर्मा की आँखों में रात की थकावट साफ़ दिख रही थी, लेकिन मन में जो उथल-पुथल चल रही थी, वह किसी विश्राम की इजाज़त नहीं दे रही थी। हवेली के अंदर लगातार घट रही घटनाओं ने जैसे उसकी सोच को कुंद कर दिया था—चूड़ियों की आवाज़, बेबस चेहरों की परछाइयाँ, और हर रात अंधेरे में दिखने वाली वो नीली रौशनी। लेकिन आज की रात अलग थी। रजनी ने हवेली की जिस पुरानी दीवार के पीछे एक और कमरा होने का संकेत दिया था, वहां खुदाई के दौरान एक लोहे का भारी दरवाज़ा मिला था, जिस पर ताले लगे थे और उसके ऊपर लाल सिंदूर से बने हुए अजीब मंत्र लिखे थे। पास ही मिट्टी में दबी एक छोटी लकड़ी की तख्ती मिली, जिस पर लिखा था—”इस दरवाज़े के पार समय भी साँस लेना छोड़ देता है।” शौर्य और रजनी देर रात तक उस दरवाज़े को निहारते रहे, जैसे वो उन्हें देख रहा हो, उनकी आत्मा को पढ़ रहा हो।
शौर्य ने अगले दिन निर्णय लिया कि वह उस दरवाज़े के पीछे की सच्चाई को जाने बिना इस रहस्य को अधूरा नहीं छोड़ेगा। उसने हवेली के पुराने रखवाले बलवीर से बात की, जिसने कांपती आवाज़ में कहा, “साहब, वो दरवाज़ा नहीं, वो पिंजरा है… अंदर कैद है वो आत्मा जिसने हवेली को निगल लिया था। मेरे बाबा ने बताया था कि महाराज ने अपनी छोटी बहन को ज़िंदा उस कमरे में बंद करवाया था, क्योंकि उसने एक अंग्रेज़ से प्रेम कर लिया था… और वह लड़की मरकर भी मर नहीं सकी।” यह सुनते ही रजनी का चेहरा पीला पड़ गया। शौर्य ने उसे शांत किया और कहा, “हमें सच्चाई सामने लानी होगी—किसी भी कीमत पर।” बलवीर ने मना किया, लेकिन शौर्य की दृढ़ता को देखकर उसने सिर्फ एक बात कही—“तो फिर इसे खोलने से पहले… माँ काली की तस्वीर जेब में रखना साहब।”
रात के ठीक बारह बजे, शौर्य और रजनी उस शापित दरवाज़े के सामने खड़े थे, हाथ में मशाल और जेब में तांत्रिक द्वारा दी गई रुद्राक्ष की माला। जैसे ही शौर्य ने दरवाज़े पर हाथ रखा, पूरी हवेली जैसे काँप उठी—दीवारों से धूल झड़ने लगी, और हवा भारी हो गई। ताले को खोलते ही अचानक कमरे के अंदर से एक तेज़ चीख आई, जैसे सदियों पुराना दर्द फिर से ज़िंदा हो गया हो। अंदर घुसते ही एक तीखा, सड़ा हुआ गंध उनके नथुनों में समा गया। दीवारों पर खून से लिपटे चित्र बने थे, और बीच कमरे में एक टूटी हुई पलंग थी, जिस पर लोहे की बेड़ियाँ अब भी जमी हुई थीं। रजनी का ध्यान दीवार पर टंगी एक तस्वीर पर गया—एक युवती की, जिसकी आँखों में कष्ट और करुणा की गहराई थी। तभी शौर्य की मशाल की रोशनी अचानक काँपी, और एक छाया उनके पीछे से गुजर गई। “शौर्य… वो हमारे साथ नहीं… हमारे आगे चल रही है,” रजनी की आवाज़ में पहली बार डर था।
शौर्य ने कमरे की दीवारों को खंगालना शुरू किया, और पलंग के नीचे एक पुरानी डायरी मिली। उसके पन्नों में उस युवती के शब्द थे—”मुझे माफ करना भैया… मैंने सिर्फ प्यार किया था। मुझे बंद करने से मेरी आत्मा कभी चैन नहीं पाएगी। जब तक सच्चाई दुनिया के सामने नहीं आएगी, मैं इस हवेली को छोड़ नहीं पाऊँगी…”। तभी कमरे का तापमान गिर गया, और चारों ओर एक नीली रोशनी फैल गई। युवती की परछाई धीरे-धीरे सामने आई, और उसकी आँखों से आंसू बहने लगे। वह रजनी की ओर बढ़ी, जैसे अपनी करुण पुकार उसके माध्यम से दुनिया को सुनाना चाहती हो। शौर्य ने कांपती उंगलियों से वह डायरी उठाई और कहा, “मैं तुम्हारी कहानी पूरी दुनिया तक पहुँचाऊँगा… और तुम्हारे प्रेम को इंसाफ़ दिलाऊँगा।” अगले ही क्षण, हवेली में अचानक शांति छा गई। नीली रोशनी धीमे-धीमे कमरे से बाहर चली गई, और दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया—लेकिन अब उसमें डर नहीं, एक अजीब सा सुकून था।
शौर्य वर्मा को हवेली में बिताई हर रात अब एक नए रहस्य में ढाल रही थी। पिछली रात की वह तेज़ चीख, जिससे उसकी नींद टूटी थी, अब भी उसके कानों में गूंज रही थी। दीवारों के पीछे चलती परछाइयाँ, उस बंद कमरे से आती सुबकियों की आवाज़ें — ये सब हवेली की आत्मा का हिस्सा बन चुकी थीं। लेकिन शौर्य अब सिर्फ एक दर्शक नहीं था, वह इस कहानी का हिस्सा बन चुका था। सुबह-सुबह वह फिर उसी गलियारे में गया जहाँ पिछली रात उसे किसी के चलने की आहट मिली थी। वहां एक पुरानी चित्रफलक दीवार पर टिकी थी, जिसे उसने पहले कभी गौर से नहीं देखा था। चित्र के पीछे कुछ अजीब-सा उभार था। उसने धीरे से उसे हटाया तो दीवार की एक ईंट ढीली मिली। जब उसने उसे खींचा, तो पीछे एक संकरी सुरंग का मुंह खुला — बिल्कुल अंधकारमय, ठंडी और सीलन भरी। इस सुरंग के बारे में हवेली के किसी दस्तावेज़ में कोई ज़िक्र नहीं था, लेकिन किसी ज़माने में ये जगह किसी छिपे सच की गवाह रही होगी।
शौर्य बिना किसी को बताए उस सुरंग में उतर गया, कैमरा चालू करके और बैकपैक में टॉर्च और कुछ ज़रूरी सामान लेकर। भीतर जाते ही घुटन महसूस होने लगी, जैसे सदियों से बंद हवा में अजीब-सी कोई गंध ठहरी हो। रास्ता बहुत संकरा था, लेकिन वह धीरे-धीरे रेंगता हुआ आगे बढ़ता गया। कुछ मीटर बाद वह एक छोटे से कमरे में पहुँचा, जहां दीवारों पर लोहे की सांकलें टंगी थीं — जैसे किसी को बांधकर रखा जाता हो। कमरे के एक कोने में उसे एक पुरानी लकड़ी की संदूक दिखाई दी। जब उसने उसे खोला, तो अंदर एक औरत का लाल रंग का फटा हुआ घाघरा, कुछ पुराने चांदी के जेवर और एक हस्तलिखित पत्र था। पत्र में उर्दू में कुछ लिखा था — “मुझे मत छोड़ो, दीपक… तुमने वादा किया था, तुम वापस आओगे…” शौर्य के हाथ कांपने लगे। क्या यह वही दीपक था, जिसका जिक्र हवेली के किस्सों में आता था? क्या ये हवेली सिर्फ एक डरावनी इमारत नहीं, बल्कि एक अधूरी प्रेम-कहानी की क़ैद थी?
शौर्य जब उस संदूक को देख ही रहा था, तभी अचानक पीछे से हवा का झोंका आया और उसके कैमरे की स्क्रीन पर एक सफेद छाया-सी झलक गई। कैमरा गिरकर टूट गया, और टॉर्च भी कुछ क्षणों के लिए बंद हो गई। जब रोशनी लौटी, तो सामने दीवार पर खून से लिखा हुआ दिखा — “तू भी वादा तोड़ेगा, शौर्य?” उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने उसका नाम पुकारा हो, बिल्कुल धीमे, लेकिन बेहद कातर स्वर में। डर और सिहरन के बीच उसने खुद को संभाला और सुरंग से बाहर निकला। अब उसके पास सबूत था — कि हवेली में कोई आत्मा है जो अब भी इंसानों से वादा निभाने की उम्मीद रखती है। हवेली अब सिर्फ एक कहानी नहीं, एक सच बन चुकी थी।
सुरंग से बाहर निकलते ही शौर्य को हवेली के बाहर कुछ हलचल सुनाई दी। गाँव के कुछ लोग टोर्च लेकर हवेली के बाहर जमा थे — किसी ने शौर्य की चीख सुनी थी और पुलिस को बुला लिया गया था। लेकिन पुलिस को वह सुरंग नहीं दिखाई दी, न वह संदूक, और न वह खून का लिखा संदेश। सब कुछ जैसे फिर से हवेली ने निगल लिया हो। पुलिस अफसरों ने शौर्य को मानसिक थकावट का शिकार मानते हुए चेतावनी दी कि वह अकेले हवेली में प्रवेश न करे। लेकिन शौर्य जानता था — अब वह पीछे नहीं हट सकता। उस आत्मा ने उसका नाम लिया था। अब इस कहानी का अंतिम दीपक वही था, और उसे इसे बुझने से रोकना था — चाहे इसके लिए उसे किसी भी हद तक जाना पड़े।
१०
बेरोज़ा हवेली की वीरान दीवारों पर रात की कालिमा अब स्थायी छाया बन चुकी थी। हवेली के भीतर गूंजती हर आवाज़ किसी टूटे हुए कालखंड की तरह लग रही थी, मानो ज़माना अब रुक गया हो और वक्त ने अपने कदम थाम लिए हों। शौर्य वर्मा, जिसने बचपन में केवल कहानियों में भूत-प्रेत की बातें सुनी थीं, अब खुद उस सच्चाई के करीब खड़ा था, जिसे वह तर्क और पत्रकारिता से परखना चाहता था। लेकिन इस हवेली में पिछले तीन रातों की घटनाएं, गायब होती परछाइयाँ, अपने आप जलते-बुझते दीपक और पुराने गलियारों में गूंजती स्त्री की रोती हुई आवाज़ ने उसकी समझ की हर सीमा को तोड़ दिया था। माया, जो अब एक रहस्यमयी उपस्थिति की तरह शौर्य के साथ चल रही थी, हर घटना के पीछे के इतिहास को समझा रही थी — जैसे वह पहले से जानती हो कि अंत क्या होगा।
जिस दीपक को हवेली में हर अमावस्या को जलाया जाता था — जिसे ‘अंतिम दीपक’ कहा जाता था — वह दीपक दरअसल एक आत्मा को बंधन में रखने का माध्यम था। हवेली की मालकिन “शशिबाला देवी”, जिन्हें सभी लोग पचास साल पहले मरी हुई मान चुके थे, उनकी आत्मा दरअसल इस दीपक के जलने पर ही सीमित रहती थी। दीपक बुझते ही वह आत्मा हवेली में स्वतंत्र हो जाती थी — और तब शुरू होता था रक्तरंजित भय का तांडव। पिछली रात, जब दीपक अपने आप बुझ गया था, तब से हवेली की हवाएँ और ज़्यादा भारी हो गई थीं। हवेली के चौकीदार रामधारी, जो वर्षों से दीपक जलाते आ रहे थे, उस रात बेहोश होकर गिर पड़े। माया, जो अब तक केवल एक रहस्यमयी मित्र बनी हुई थी, अब अपने वास्तविक रूप में सामने आई — वह शशिबाला देवी की पोती थी, जो जानती थी कि दीपक और आत्मा के इस संबंध को केवल एक ही तरीके से तोड़ा जा सकता है — और वह था सत्य का स्वीकार।
शौर्य और माया ने मिलकर हवेली के उस पुराने तहखाने को खोला, जिसे वर्षों से बंद कर दिया गया था। दीवारों पर पुरानी पेंटिंगें, राख से ढके शंख और दीप — और दीवार के कोने में खुदी एक कविता — “जब दीपक स्वयं बुझे, तब सत्य के स्वर से जला दो उसे।” माया समझ गई — शशिबाला देवी की आत्मा अभी भी अपनी हत्या के अधूरे न्याय से बंधी हुई है। उसकी हत्या आत्महत्या के रूप में दर्शाई गई थी, लेकिन सच्चाई यह थी कि हवेली के तत्कालीन वारिसों ने उसकी संपत्ति हथियाने के लिए उसकी हत्या की थी। माया के दादा, जिन्होंने सारा सच छिपाया, अब मृत्युशैया पर थे — और केवल वही अंतिम सत्य जानता था। शौर्य ने माया को सुझाव दिया कि वह अपने दादा को कैमरे के सामने लाकर सच्चाई स्वीकार कराए — और जब वह सत्य सामने आ जाएगा, तभी शशिबाला देवी की आत्मा मुक्त हो सकेगी, और दीपक स्वयं बुझ जाएगा — हमेशा के लिए।
अंतिम दृश्य में, माया के दादा कैमरे के सामने बैठे, कांपते हुए हाथों से शौर्य को देख रहे थे। आँखों में पश्चाताप और होंठों पर स्वीकारोक्ति। “मैंने…मैंने ही उन्हें धक्का दिया था… हवेली मेरी नहीं थी… पर मैंने उसे छीन लिया।” जैसे ही उसने यह शब्द कहे, हवेली के भीतर जलता दीपक अचानक तेज लौ से झनझनाने लगा — और फिर धीरे-धीरे बुझ गया। उसी क्षण, हवेली की दीवारों पर पड़ा भारीपन जैसे उठ गया हो, एक सन्नाटा फैल गया। हवेली पहली बार सैकड़ों वर्षों में शांत हुई थी। शशिबाला देवी की आत्मा मुक्त हो चुकी थी। शौर्य और माया बाहर निकले, और जैसे ही उन्होंने हवेली का मुख्य दरवाज़ा बंद किया, उसके ऊपर लिखा हुआ पुराना श्लोक अब साफ़ दिख रहा था — “जहाँ सत्य है, वहीं शांति है।” उस रात शौर्य ने अपने कैमरे को बंद किया, लेकिन उसकी आत्मा अब और भी जागरूक थी — कुछ कहानियाँ केवल बताने के लिए नहीं होतीं, उन्हें महसूस करने के लिए जीना पड़ता है।

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