आरोही वर्मा
वो जुलाई की पहली बारिश थी। दिल्ली की सड़कों पर धूल धुल रही थी और आसमान के हर कोने से बूंदें टपक रही थीं। ऑफिस से लौटते वक़्त सारा कुछ भीग गया था—कपड़े, बाल, मन। लेकिन अदिति को बारिश से कभी शिकायत नहीं थी। बारिश उसके लिए हमेशा एक नया पन्ना खोलती थी—नमी से भरा, स्याही से गीला, यादों से लिपटा हुआ।
उसे बारिश में चलना पसंद था, बिना छाते के। लेकिन आज पहली बार किसी ने उसके हाथ में छाता थमाया था।
“इतनी भीग क्यों रही हो? बीमार पड़ोगी।”
वो आवाज़ जैसे बादलों के बीच से आई थी। अदिति ने पलटकर देखा—गहरे नीले शर्ट में एक लड़का, सिर पर बारिश गिरने से बचाने की नाकाम कोशिश करता हुआ, लेकिन मुस्कराता हुआ। उसकी मुस्कान में गर्म चाय जैसा सुकून था।
“तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?” अदिति ने थोड़ी नाराज़गी से कहा, लेकिन आँखों में कौतुहल था।
“फर्क तो पड़ता है। जब कोई यूँ भीगता है, लगता है वो बारिश से नहीं, किसी और चीज़ से भाग रहा है।”
अदिति को जैसे किसी ने पकड़ लिया। उसकी आंखें थोड़ी और भीग गईं। लड़का शायद समझ गया था, उसने बात नहीं बढ़ाई। बस छाता बढ़ा दिया। और अदिति ने, जाने क्यों, इंकार नहीं किया।
दोनों थोड़ी दूर तक साथ चले। वो कुछ पूछना चाहता था, लेकिन अदिति चुप रही। उस चुप्पी में भी एक अजीब किस्म का संवाद था।
“मैं आरव हूं,” उसने आखिर कहा।
“अदिति,” उसने जवाब दिया, जैसे नाम बताने से कोई दीवार टूट गई हो।
आरव मुस्कराया। “तुम्हारा नाम बारिश जैसा है। शांति देने वाला, लेकिन कुछ छिपाता हुआ।”
अदिति ने नजरें फेर लीं। इतना जल्दी कोई उसके बारे में कैसे कुछ समझ सकता है?
दोनों बस स्टॉप तक साथ गए। आरव ने छाता मोड़ा और मुस्कराते हुए कहा, “कल फिर बारिश होगी, शायद। अगर हो, तो क्या फिर मिलेंगे?”
अदिति ने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन उसकी आंखों की चमक ने सब कह दिया।
अगले दिन सच में बारिश आई। और आरव भी। वही छाता, वही मुस्कान। अदिति इस बार पहले से तैयार थी—न भीगने के लिए नहीं, बल्कि उस अजनबी से फिर बात करने के लिए।
“तुम्हें लगता है, हर बारिश कुछ नया लाती है?” अदिति ने पूछा।
आरव ने कहा, “शायद नहीं। लेकिन हर बारिश कुछ पुराना धो जाती है। शायद वही सबसे जरूरी होता है।”
अदिति को पहली बार लगा कि किसी ने उसकी सोच को शब्द दे दिए हैं। वो दोनों वहीं पार्क के एक कोने में बैठ गए, भीगे हुए पत्तों की महक में खोए हुए।
बातों का सिलसिला चल निकला—कॉफ़ी, किताबें, अधूरे ख्वाब, अधूरी कहानियाँ। अदिति को समझ नहीं आ रहा था कि ये अजनबी इतना जाना-पहचाना क्यों लग रहा है। आरव की हर बात जैसे किसी पुराने खत से निकली पंक्ति हो।
“तुम बहुत बोलते हो,” अदिति ने मुस्कराते हुए कहा।
“और तुम बहुत सुनती हो,” आरव ने जवाब दिया। “शायद इसलिए अच्छा लगता है कहना।”
वो दिन, और फिर अगले कई दिन, बारिशों के साथ बीतते गए। अदिति और आरव की मुलाकातें अब इत्तेफ़ाक नहीं रहीं, आदत बन गईं। और उस आदत में एक मीठा सा डर भी था—कहीं ये सब बारिश के साथ ही ना बह जाए।
एक शाम, जब बादल कुछ ज्यादा ही गहरे थे और हवा में ठंडक कुछ ज्यादा ही थी, आरव ने कहा, “अगर एक दिन बारिश ना हो, तो क्या तुम फिर भी मिलोगी?”
अदिति थोड़ी देर चुप रही। फिर धीरे से बोली, “शायद मैं बारिश बन जाऊँ।”
आरव ने उसकी ओर देखा। “तो मैं वो लड़का बनूंगा जो हर मौसम में छाता लेकर तुम्हें ढूंढता रहेगा।”
पहली बार अदिति ने उसका हाथ थाम लिया। पहली बार किसी ने उसका अकेलापन बिना बोले समझा था।
बारिश अभी भी गिर रही थी। लेकिन अब वो सिर्फ आसमान से नहीं, किसी अधूरे मन की गहराई से भी गिर रही थी।
तीसरी मुलाकात में अदिति को एहसास हुआ कि आरव सिर्फ बारिश का साथी नहीं, बल्कि उसके भीतर चलती एक अंतहीन तन्हाई का साक्षी बन चुका है। जैसे किसी ने अनजाने में उसके सीने में दबी वो डायरी खोल दी हो, जिसके पन्नों को सिर्फ बारिश ही समझ पाती थी।
उस दिन बारिश थोड़ी कम थी, पर हवाओं में गीलापन बाकी था। अदिति ऑफिस से जल्दी निकली और बिना सोचे पार्क पहुँच गई। वहाँ वो बेंच खाली थी जहाँ वो अक्सर आरव के साथ बैठती थी। लेकिन आरव नहीं आया।
पहली बार उसे उसका इंतज़ार खलने लगा। उसने मोबाइल देखा—ना कोई कॉल, ना कोई मैसेज। फिर सोचा, अजीब है, कभी नंबर ही तो एक्सचेंज नहीं किया। सब कुछ बस इत्तेफ़ाकों पर टिका था। क्या इत्तेफ़ाक भी कभी धोखा दे सकते हैं?
वो वहीं बैठी रही, भीगे पत्तों की सरसराहट सुनती रही। और जब उठने ही वाली थी, पीछे से आवाज़ आई—”आज बारिश देर से आई शायद।”
वो मुड़ी, और आरव वहीं खड़ा था। बाल हल्के भीगे हुए, चेहरे पर वही बेफिक्र मुस्कान।
“तुम्हें आज ज्यादा इंतज़ार करना पड़ा?” उसने पूछा।
अदिति मुस्करा दी, लेकिन उसकी आँखें पूछ रही थीं—क्यों आज देर हुई?
आरव बैठते हुए बोला, “सोचा था आज एक चाय की दुकान पर चलें। बारिश और चाय की दोस्ती को थोड़ा और करीब से देखें।”
दोनों एक पुराने से टपरी वाले चाय स्टॉल तक पहुँचे। सड़क किनारे प्लास्टिक की कुर्सियाँ, ऊपर से टीन की छत और भाप छोड़ती कुल्हड़ वाली चाय। अदिति ने गहरी साँस ली—ये वही खुशबू थी जिसे वो अपने बचपन में पीछे छोड़ आई थी।
“तुम्हें क्या पसंद है चाय में?” आरव ने पूछा।
“थोड़ा अदरक, थोड़ा इलायची… और थोड़ा सा अकेलापन,” अदिति ने हल्के से कहा।
आरव ने उसकी तरफ देखा—”तुम अकेलेपन को स्वाद की तरह जानती हो।”
“शायद क्योंकि मैंने उसे बहुत लंबे समय से पिया है।”
चाय आ गई। भाप से उनके चेहरे और पास आ गए। अदिति ने पहली बार ध्यान से देखा—आरव की आँखें बहुत कुछ कहती हैं, और फिर भी सब छिपा लेती हैं। जैसे कोई चुपचाप किसी की तकलीफ का बोझ अपने काँधे पर रख दे।
“तुम हमेशा अकेली रहती हो?” आरव ने पूछा।
अदिति ने चाय का एक घूँट लिया। “कभी-कभी लोग होते हैं आसपास, फिर भी दिल में जगह खाली ही रहती है। और वो खालीपन बारिश में ज़्यादा गूंजता है।”
आरव चुप रहा, फिर बोला, “मैं भी जानता हूँ उस गूंज को। माँ के जाने के बाद पापा जैसे घर में तो रहे, पर दिल से कभी लौटे ही नहीं।”
दोनों की चुप्पी ने पहली बार अपना नाम बताया—साझा अधूरापन।
फिर अचानक आरव ने जेब से एक छोटा-सा स्केचबुक निकाला। “कुछ दिखाऊं?”
उसने एक पेज पलटा, उसमें एक लड़की की रेखाचित्र थी—भीगे बाल, खुला चेहरा, और आँखों में हल्की सी उदासी। अदिति चौंकी।
“ये… मैं?”
आरव ने सिर हिलाया। “तुम्हें पहली बारिश वाले दिन देखा था, तब ही बना डाला था। तुम्हारी आँखों ने उस दिन कुछ कहा था, जिसे मैं भूल नहीं सका।”
अदिति कुछ नहीं कह पाई। उसकी उंगलियाँ उस पेज पर ठिठकी रहीं।
“तुम्हारी आँखों में एक कहानी है,” आरव बोला। “और मैं उस कहानी का हिस्सा बनना चाहता हूँ, अगर तुम चाहो।”
बारिश फिर तेज़ हो गई थी। हवा अब दोनों के इर्द-गिर्द चक्कर काट रही थी, जैसे इन दो अधूरी रूहों को एक धागे में पिरोने की जिद कर रही हो।
“कभी-कभी लगता है, कुछ रिश्ते शब्दों के बिना ही बन जाते हैं,” अदिति ने कहा।
“और कुछ रिश्ते बारिश से भीगकर पनपते हैं,” आरव ने जवाब दिया।
उस शाम जब वो घर लौटी, तो बाल और दिल दोनों भीगे थे। पर आज उसे कोई ठंडक नहीं लगी। कुछ था जो भीतर से गर्म था—शायद पहली बार, अकेलापन किसी और के साथ बांटा गया था।
अगले दिन भी बारिश हुई। और उसके अगले दिन भी। पर अब फर्क ये था कि बारिश अब सिर्फ भीगने की वजह नहीं थी, मिलने की वजह थी। आरव अब हर रोज़ आता, कभी चाय के साथ, कभी स्केचबुक के साथ, कभी बस यूं ही।
एक दिन अदिति ने पूछा, “अगर एक दिन बारिश बंद हो जाए, तो क्या तुम आओगे?”
आरव ने उसकी ओर देखा। “अब मैं बारिश से मिलने नहीं आता… मैं तुमसे मिलने आता हूँ।”
वो एक वादा था—बिना शोर के, बिना दस्तावेज़ के, बस दो दिलों के बीच।
अदिति को अब लगने लगा था कि हर दिन की शुरुआत एक उम्मीद के साथ होती है—कि कहीं न कहीं कोई उसका इंतज़ार कर रहा है। पहले उसके लिए सुबह बस एक और दिन होती थी, एक और चुप्पी, एक और दफ़्तर की थकान। पर अब, हर दिन बारिश की कोई नई वजह लेकर आता था—और वो वजह थी आरव।
आज भी वही हल्की बूंदें, वही ठंडी हवा और वही कॉफ़ी के प्याले का इंतज़ार। पार्क की वही पुरानी बेंच थी, जिस पर दोनों बैठे थे। आरव अपने स्केचबुक के पन्ने पलट रहा था, और अदिति अपनी हथेलियों में गर्म कॉफ़ी थामे उसके चेहरे को नज़रों से पढ़ रही थी।
“कभी-कभी सोचती हूँ,” अदिति ने कहा, “क्या ये सब सच है या मैं कोई सपना देख रही हूँ?”
आरव ने बिना देखे जवाब दिया, “अगर ये सपना है तो मैं नहीं चाहता कि तुम जागो। और अगर ये हकीकत है… तो मुझे डर है कि एक दिन ये सब बारिश के साथ बह न जाए।”
अदिति ने हल्के से हँसते हुए कहा, “तुम बहुत जल्दी डर जाते हो।”
“शायद इसलिए क्योंकि जिन चीज़ों को मैंने चाहा, वो अक्सर बहुत जल्दी छूट गईं।”
एक पल को चुप्पी पसर गई। हवा के झोंके ने अदिति के बालों को चेहरे पर बिखेर दिया। आरव ने धीरे से उसकी एक लट कान के पीछे की। उसके स्पर्श में कोई जल्दबाज़ी नहीं थी—बस एक कोमल इजाज़त, जैसे कह रहा हो—अगर मैं कुछ कहूँ तो क्या तुम सुनोगी?
“अदिति,” उसने धीमे से कहा, “अगर एक दिन तुम्हें मुझसे दूर जाना पड़े, तो क्या तुम कुछ कहकर जाओगी या यूँ ही चुपचाप?”
अदिति ने उसकी आँखों में झाँका। “तुम्हारे साथ जो बात है ना, वो शब्दों से परे है। अगर जाना हुआ भी, तो मेरा कोई हिस्सा यहीं तुम्हारे पास रह जाएगा।”
आरव ने आँखें बंद कर लीं, जैसे उस वाक्य को अपने भीतर समेट रहा हो।
शाम ढलने लगी थी। बादल अब घने हो रहे थे। पर इस बार बारिश के साथ कुछ और भी गिर रहा था—एक सवाल, एक डर, एक बेचैनी।
अदिति ने अचानक पूछा, “क्या तुम कभी किसी से बहुत प्यार में पड़े थे?”
आरव कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, “एक बार। बहुत साल पहले। वो लड़की कविता लिखती थी। और मैं उन कविताओं में खुद को ढूंढता था। लेकिन एक दिन वो चली गई। बिना कुछ कहे। उसके बाद मैंने कभी दोबारा किसी से नहीं कहा कि ‘मुझे तुम्हारी आदत हो गई है’।”
“और अब?” अदिति की आवाज़ बहुत धीमी थी।
“अब मैं फिर डरता हूँ—कहीं तुम भी…”
“मैं कविता नहीं हूँ, आरव। मैं कहानी हूँ। अधूरी नहीं, लेकिन हर रोज़ लिखी जाने वाली।”
आरव मुस्करा दिया। “तो क्या मैं उस कहानी का कोई किरदार बन सकता हूँ?”
अदिति ने पहली बार उसका हाथ थाम लिया। जवाब में कुछ नहीं कहा, पर उस स्पर्श में वादा था—तुम अब इस कहानी का हिस्सा हो, और शायद हमेशा रहोगे।
बारिश तेज़ होने लगी थी। दोनों ने छाता खोलने की जरूरत नहीं समझी। अब भीगना, ठिठुरना और कांपना उन्हें असहज नहीं लगता था। अब वो साथ थे।
अचानक आरव ने कहा, “कल शाम एक एग्ज़िबिशन है—मेरे स्केच का। पहली बार। तुम चलोगी?”
अदिति के चेहरे पर आश्चर्य और उत्साह एक साथ उभरा। “तुमने बताया नहीं कभी कि तुम पब्लिक में दिखाते हो अपना काम!”
“कभी हिम्मत नहीं हुई। लेकिन तुम्हें देखकर लगा कि शायद अब समय आ गया है।”
“मैं चलूंगी,” उसने कहा। “क्योंकि शायद मैं भी अब कुछ नया देखना चाहती हूँ—तुम्हारी आँखों से, तुम्हारे रंगों में।”
उस दिन की रात लंबी थी, लेकिन नींद जल्दी आ गई। सपने में फिर वही बारिश थी—लेकिन इस बार उसमें सिर्फ अकेलापन नहीं, दो छाते, दो कॉफ़ी मग और दो मुस्कानें भी थीं।
अगले दिन की शाम अलग थी। बारिश आज कुछ धीमी थी, जैसे खुद भी चाहती हो कि सब साफ़ दिखे—बिना धुंध, बिना पानी की परतों के। अदिति पहली बार आरव की उस दुनिया में कदम रखने जा रही थी, जो अब तक सिर्फ स्केचबुक के पन्नों में बसी थी। एक छोटी-सी आर्ट गैलरी, कहीं साउथ दिल्ली की शांत गलियों में, जहाँ बाहर की चहल-पहल से अलग एक सादगी और सुकून का माहौल था।
अदिति जब वहाँ पहुँची, तो आरव पहले से मौजूद था—सफेद शर्ट, रोल्ड-अप स्लीव्स, हल्की सी उलझी मुस्कान। उसकी आंखें जैसे हर दरवाजे की ओर देख रही थीं, जैसे किसी एक नाम का इंतज़ार कर रही हों।
जब उसने अदिति को देखा, तो जैसे किसी पेंटिंग ने रंग पकड़ लिया हो। “तुम आ गईं,” उसने इतना ही कहा, लेकिन उसके चेहरे की राहत ने शब्दों से कहीं ज़्यादा कहा।
अदिति ने गैलरी की ओर देखा—दीवारों पर स्केच, पानी के रंगों में भीगे चेहरे, आँखें जो बहुत कुछ कहती थीं, और कहीं-कहीं कविता की कुछ पंक्तियाँ जो पेंटिंग से उतरकर कैनवस के कोनों में बसी थीं। कुछ चेहरे अजनबी थे, कुछ जाने-पहचाने, और कुछ तो जैसे सीधे अदिति के दिल से उतरे हुए।
एक स्केच के सामने वो देर तक रुकी रही। एक लड़की, हल्के भीगे बाल, चेहरे पर उदासी की चमक, और बैकग्राउंड में बारिश की लकीरें। उस कैनवस के नीचे लिखा था—“उस शाम जब पहली बार उसने खुद को खोला”।
“ये मैं हूँ न?” अदिति ने धीरे से पूछा।
आरव ने हँसते हुए सिर झुकाया। “हाँ। वो शाम तुम्हारे लिए थी। और तुम्हारी वजह से ही मैं इस दीवार पर हूँ।”
“तुम्हारी ये दुनिया बहुत सच्ची है, आरव। लेकिन बहुत नंगी भी। डर नहीं लगता सबको इतना दिखाने में?”
“डर तो था,” उसने कहा। “लेकिन तुमने सिखाया कि जो असली है, वही टिकता है। जो भीतर छिपा है, उसे बाहर आने देना ही सबसे बड़ा साहस है।”
गैलरी में लोग धीरे-धीरे आने लगे थे—कुछ दोस्त, कुछ आर्ट क्रिटिक, कुछ अनजान चेहरे जो रंगों को पढ़ने आए थे। पर आरव की नज़रें अब भी बस अदिति पर टिकी थीं। वो उसकी हर प्रतिक्रिया को अपनी सबसे बड़ी समीक्षा मानता था।
“तुम्हें कोई पेंटिंग पसंद आई?” उसने पूछा।
अदिति मुस्कराई। “हाँ, पर सबसे ज़्यादा वो जो अधूरी है। बस आधा चेहरा दिखता है, और बाकी खाली।”
आरव थोड़ी देर चुप रहा। “क्योंकि वो तुम्हारा आख़िरी हिस्सा है, जो अब भी अनकहा है। मैंने उसे अभी तक समझा नहीं।”
“शायद मैं खुद भी नहीं समझी,” अदिति ने जवाब दिया। “पर जब समझ जाऊँगी, तब तुम सबसे पहले जानोगे।”
गैलरी के एक कोने में धीमा संगीत बजने लगा था। बाहर हल्की बूँदें गिर रही थीं, और काँच की खिड़कियों पर उनके निशान बनते-मिटते जा रहे थे। एक बार फिर, बारिश आरव और अदिति के बीच थी—लेकिन अब वो दीवार नहीं, एक पुल बन चुकी थी।
अदिति ने अचानक पूछा, “तुम हर चीज़ को स्केच करते हो? जो महसूस करते हो, वो सब कैनवस पर उकेर लेते हो?”
“नहीं,” आरव ने कहा। “कुछ चीज़ें इतनी गहरी होती हैं कि उन्हें रंगों में नहीं बाँधा जा सकता। जैसे तुम्हारी वो चुप्पी… जब तुम कुछ नहीं कहतीं, तब मैं सबसे ज़्यादा कुछ महसूस करता हूँ।”
“और वो एहसास?” अदिति ने सरसराहट से पूछा।
“वो शायद… प्यार है,” आरव ने पहली बार वो शब्द कहे, जो अब तक सिर्फ हवा में तैरते रहे थे।
अदिति का दिल जैसे एक पल को रुक गया। ये शब्द उसने सुने तो थे, पर कभी किसी के होंठों से अपने लिए नहीं। और जब सुने, तो ऐसा लगा जैसे कोई दरवाज़ा खुल गया हो, जिसे वो बरसों से अंदर से बंद किए बैठी थी।
“तुम्हें सच में लगता है ये प्यार है?” उसने धीरे से पूछा।
“मुझे नहीं लगता… मुझे यक़ीन है। क्योंकि जब मैं तुम्हारे साथ होता हूँ, तो बारिश मुझे ठंडक नहीं देती, बल्कि तुम्हारा साथ गर्मी देता है। और जब तुम नहीं होती, तो सबसे भरी भीड़ में भी मैं अकेला महसूस करता हूँ।”
अदिति ने उसकी ओर देखा—आरव की आंखें साफ थीं, किसी भी दुविधा से परे। और तब उसने खुद से पूछा—क्या वो भी वही महसूस करती है?
जवाब भीतर से आया—हाँ।
“तो फिर?” आरव ने पूछा।
“तो फिर कल से मैं भी एक स्केच बनना चाहती हूँ… तुम्हारी सबसे खूबसूरत रचना।”
आरव ने उसका हाथ थाम लिया। बाहर बारिश अब तेज हो गई थी, लेकिन अब वो भीगने से नहीं डरते थे। अब बारिश उनके प्यार का साज थी, हर बूंद एक नया सुर, हर बूँद एक नया वादा।
अदिति की सुबह अब पहले जैसी नहीं रही। अब हर सुबह में एक उम्मीद होती थी, एक मुस्कान होती थी, और एक बेचैनी भी—आरव से मिलने की, उसकी बातें सुनने की, उसकी आँखों में खुद को देखने की। अब बारिश उसके लिए मौसम नहीं, एक एहसास थी। जैसे हर बूंद में आरव की कोई बात छिपी हो, जो कानों से ज़्यादा दिल में सुनाई देती थी।
आज सुबह से ही आसमान में अजीब-सी नमी थी। बादल घने नहीं थे, पर हवा में अधूरापन था। ऑफिस में भी मन नहीं लग रहा था। अदिति ने जैसे-तैसे काम निपटाया और दोपहर होते ही बाहर निकल गई। उसने मैसेज किया—“आज कहाँ मिल रहे हो?”
कुछ देर बाद जवाब आया—“आज एक नई जगह ले चलूं? जहाँ बारिश से ज़्यादा ख़ामोशी बोलती है?”
अदिति को मुस्कान आ गई। वो जानती थी, आरव की हर मुलाकात एक नया रंग लाती है।
आरव ने उसे पुराने शहर के किनारे एक झील के पास बुलाया। वो जगह शहर की भीड़ से दूर, पेड़ों के झुरमुटों के बीच छिपी थी। वहां तक जाने के लिए पत्थर की पगडंडियों पर चलना पड़ता था। झील शांत थी, लेकिन उसकी सतह पर हर बूँद की दस्तक सुनाई देती थी।
जब अदिति पहुँची, आरव पहले से वहीं था—नीली डेनिम, सफेद कुर्ता और हाथ में वही स्केचबुक।
“तुम्हें यहाँ लाने का मन बहुत दिनों से था,” उसने कहा। “लेकिन सोचा था, जब दिल की आवाज़ बहुत साफ़ हो, तभी लाऊँ।”
“और आज वो आवाज़ साफ़ हो गई?” अदिति ने मुस्कराते हुए पूछा।
आरव ने उसकी ओर देखा। “हाँ। आज मैं कुछ कहना चाहता हूँ, जो बहुत दिन से भीतर है। लेकिन पहले ये देखो।”
उसने स्केचबुक खोली, और एक नया पेज पलटा। उसमें दोनों की एक साथ की तस्वीर थी—बारिश में भीगते हुए, एक ही छाते के नीचे, एक ही मुस्कान में। अदिति कुछ देर उसे देखती रही। उसकी आँखें भीगने लगीं—बिना बारिश के।
“ये तो हमारी…” उसने कहना चाहा, लेकिन शब्द गले में अटक गए।
“हाँ,” आरव ने कहा। “ये हमारी कहानी है। और मैं चाहता हूँ कि ये कहानी अधूरी न रहे।”
अदिति की सांसें जैसे रुक सी गईं।
“मैं जानता हूँ, हम थोड़े ही दिनों में बहुत कुछ जी गए हैं,” आरव बोला। “लेकिन जब तुम होती हो, तो हर दिन लम्बा लगता है, हर लम्हा पूरा। मैं तुम्हारे बिना खुद को अधूरा महसूस करता हूँ।”
अदिति अब भी चुप थी।
“मैं तुमसे प्यार करता हूँ, अदिति,” उसने कहा। “और मैं चाहता हूँ कि ये बारिश, ये झील, ये पल—हमेशा के लिए हमारे हो जाएँ। क्या तुम…”
अदिति ने उसके शब्दों को बीच में रोक दिया—उसका हाथ थामते हुए। आँखों में एक सैलाब था, लेकिन मुस्कान में एक सुकून।
“मैं भी तुम्हें चाहने लगी हूँ, आरव,” उसने धीरे से कहा। “शायद उस दिन से ही जब तुमने पहली बार मुझे छाता पकड़ाया था। मुझे नहीं पता था कि एक छाते से शुरू हुई ये कहानी इतनी गहराई तक जाएगी। पर अब मैं जानती हूँ—तुम मेरी बारिश हो।”
आरव की आंखों में चमक थी, और होंठों पर एक वादा। उसने अदिति का हाथ अपने होंठों से छुआ, जैसे कह रहा हो—अब ये हाथ कभी नहीं छूटेगा।
झील के किनारे खामोशी थी, पर दिलों के बीच एक शोर। आसपास कुछ नहीं था, सिर्फ पानी की सरसराहट, दिल की धड़कनों का संगीत और दो दिलों के मिलन की अनकही आवाज़।
“क्या तुम जानती हो,” आरव बोला, “मैंने इस झील के किनारे तुम्हारे नाम से एक पेड़ चिन्हित किया है? वो जो तुम्हारे जैसा ही है—चुप, लेकिन मजबूत।”
अदिति ने उसे देखा—”तुम हर चीज़ में मुझे देख लेते हो, आरव।”
“क्योंकि तुम अब मेरी हर चीज़ में हो,” उसने जवाब दिया।
उस पल कोई वादा नहीं किया गया, लेकिन फिर भी सब कुछ तय हो गया था। बारिश अब थमने लगी थी, पर उनके बीच की नमी अब हमेशा की थी—एक एहसास, एक कहानी, एक रिश्ता।
जब दोनों वापस लौटने लगे, तो रास्ते में सिर्फ खामोशी थी। पर वो खामोशी अब बोझ नहीं थी, वो प्रेम की भाषा थी—जिसे कहने के लिए शब्दों की जरूरत नहीं होती।
अदिति और आरव के बीच अब कुछ भी अधूरा नहीं था, फिर भी हर मुलाकात में कुछ नया जुड़ता जा रहा था। अब वो रोज़ नहीं मिलते थे, लेकिन जब भी मिलते, तो लगता जैसे वक्त थम गया हो। उनके बीच जो रिश्ता पनपा था, वो तेज़ नहीं था—धीरे-धीरे बहती एक नदी की तरह था, गहराई लिए हुए, शांत, लेकिन सब कुछ बहा ले जाने की ताक़त वाला।
उस दिन शाम हल्की सी गीली थी, लेकिन आसमान में इंद्रधनुष झांक रहा था। अदिति ने ऑफिस से निकलते वक़्त खुद को शीशे में देखा—उसकी आँखों में अब अकेलापन नहीं था। वो रंग जो कभी उसकी ज़िन्दगी से उड़ गए थे, अब धीरे-धीरे लौट रहे थे। उसका मन कह रहा था—आज कुछ खास होगा।
आरव ने उसे मेसेज किया—“आज एक सरप्राइज है। तैयार रहना। छाता मत लाना।”
वो मुस्कराई। आरव जानता था कि वो बारिश में भीगना पसंद करती है। और अब जब प्यार भीग चुका है, तो बदन क्या चीज़ है?
थोड़ी देर बाद वो उसे लेने आया—बाइक पर, बिना किसी छाते या जैकेट के। “आज तुम्हें उड़ने देना है,” उसने कहा।
“और अगर गिर गई?”
“तो मैं पकड़ लूंगा,” आरव ने मुस्कराते हुए कहा।
बाइक शहर की सीमाओं से निकल कर किसी खुली सड़क की ओर बढ़ रही थी। चारों ओर हरियाली थी, धूल सनी गंध नहीं बल्कि मिट्टी और पानी की ताजगी थी। और बीच-बीच में बारिश की बूँदें, जो हवा के साथ उनके गालों को छू जातीं।
कुछ देर बाद वो एक पहाड़ी के पास रुके, जहाँ नीचे एक छोटी-सी घाटी थी। दूर-दूर तक फैला नीला आकाश, बादल पहाड़ियों से खेलते हुए और नीचे एक पुराना झरना, जिसकी आवाज़ जैसे कोई सुर में बहती धुन हो।
“तुम मुझे यहाँ क्यों लाए हो?” अदिति ने पूछा।
“क्योंकि ये वो जगह है जहाँ मैं हर उस चीज़ के बारे में सोचता हूँ जो अधूरी है। और आज मैं चाहता हूँ कि ये जगह हमारी पूरी कहानी की गवाह बने।”
अदिति कुछ बोलना चाह रही थी, पर आरव ने उसकी हथेली अपने हाथ में ले ली।
“अदिति, तुमने मुझे खुद से मिलवाया है। तुम्हारी आँखों में मैंने वो आरव देखा है जो बचपन में था—ईमानदार, डरपोक, लेकिन सच्चा। जब तुम साथ होती हो, तो मैं खुद से झूठ नहीं बोल सकता।”
“मैंने भी खुद को तुम्हारे साथ ही जाना है,” अदिति ने कहा। “पहले लगता था, किसी के बिना भी सब चल सकता है। लेकिन अब लगता है, कुछ लोग होते हैं जो दिल में नहीं होते, तो साँसें भी अधूरी लगती हैं।”
आरव ने उसकी ओर देखा। उसकी आंखों में कोई सवाल नहीं था, बस इंतज़ार था—एक इज़ाजत का, एक कबूलनामे का।
“अदिति, मैं नहीं जानता ज़िंदगी हमें कहाँ ले जाएगी। लेकिन अगर तुम साथ हो, तो हर मोड़ आसान लगेगा। क्या तुम मेरे साथ चलोगी? इस बारिश से भी आगे, हर मौसम में?”
अदिति ने बिना कुछ कहे बस सिर हिलाया। उसकी आंखें भीगी थीं, लेकिन इस बार आँसू दुख के नहीं थे—यह वो बूंदें थीं जो मन की मिट्टी को सींचने आई थीं।
आरव ने अपनी जेब से एक छोटी सी डब्बी निकाली—उसमें कोई अंगूठी नहीं थी, बस एक पेपर रिंग, जो उसने खुद बनाई थी। “ये अभी असली नहीं है,” उसने कहा। “पर वादा असली है। जब दिन आएगा, तो मैं तुम्हें इससे भी खूबसूरत अंगूठी दूंगा। लेकिन वादा अभी करना चाहता हूँ।”
अदिति ने वो रिंग पहन ली। और उस पेपर के हल्के वजन में भी उसने वो भरोसा महसूस किया, जो सबसे भारी वचनों में भी नहीं होता।
नीचे झरना बह रहा था। ऊपर से बारिश फिर से शुरू हो चुकी थी। लेकिन अब वो बारिश उन्हें अलग नहीं कर रही थी—वो गवाह थी उनके मिलन की। एक प्रेम जो मौसमों का मोहताज नहीं था, बल्कि उनके पार था।
जब दोनों वापस लौटने लगे, तो गीली मिट्टी उनके पैरों में चिपक रही थी, लेकिन दिल हल्के थे। बाइक की रफ्तार तेज थी, लेकिन वक्त अब भी जैसे ठहरा हुआ लग रहा था।
रास्ते में अदिति ने पूछा, “अगर कभी ये सब खो गया तो?”
आरव ने कहा, “तो मैं फिर से वही बारिश ढूंढूंगा, जहाँ से हम मिले थे। और फिर से शुरू करूंगा, तुम्हें फिर से देखूंगा, फिर से प्यार करूंगा। क्योंकि तुम एक बार नहीं, हर बार मेरी हो।”
उस दिन की बारिश कुछ अलग थी। आसमान में बिजली तो नहीं थी, पर हवा के झोंकों में एक अजीब बेचैनी थी। अदिति खिड़की के पास बैठी थी, हाथ में कॉफी का मग, लेकिन नजरें कहीं और थीं। मन किसी और दिशा में बह रहा था। कुछ तो था जो उसे परेशान कर रहा था—बिना नाम का डर, बिना चेहरा वाली चिंता। और वो डर सिर्फ आरव से जुड़ा नहीं था, बल्कि उस खुद से भी था, जो इस प्रेम में खुद को खो बैठी थी।
फोन कई बार देखा, पर कोई मैसेज नहीं था। आरव आमतौर पर सुबह एक “गुड मॉर्निंग” भेजता था—कुछ शब्द, कुछ स्केच या बस एक इमोजी। पर आज पूरा दिन बीत गया, और न कोई कॉल, न कोई अपडेट। पहले लगा, शायद बिज़ी होगा। फिर सोचा, शायद कोई इमरजेंसी हो गई हो। लेकिन जैसे-जैसे शाम गहराने लगी, उसका दिल किसी अनहोनी की आहट महसूस करने लगा।
उसने खुद को समझाया—आराम से, घबराओ मत। वो ठीक होगा। बस कोई कारण रहा होगा। पर मन ने तर्क नहीं माना। आखिर शाम को उसने कॉल किया। घंटी जाती रही, लेकिन कोई जवाब नहीं।
उसने बाहर झांका—बारिश फिर शुरू हो चुकी थी। वही बूंदें, वही ठंडी हवा, लेकिन आज उनमें वो सुकून नहीं था। अब हर बूँद एक बेचैनी बढ़ा रही थी।
अचानक उसका फोन बजा।
स्क्रीन पर नाम था—“आरव”
उसने तुरंत कॉल उठाया।
“हैलो? आरव? तुम ठीक हो?” उसकी आवाज़ में घबराहट साफ थी।
फोन की दूसरी ओर थोड़ी देर खामोशी रही। फिर धीरे से आवाज़ आई—“मैं ठीक हूँ… अब।”
“अब? मतलब?” अदिति की सांस अटक गई।
“मैं हॉस्पिटल में था। बाइक स्लिप कर गई थी। ज्यादा कुछ नहीं, बस पैर में चोट आई है।”
अदिति की आँखों में आँसू आ गए। “तुमने मुझे बताया क्यों नहीं? मैं पागल हो रही थी, आरव!”
“मैं खुद बहुत घबरा गया था। और फिर, मोबाइल बैग में था। जब होश आया, तब तक तुम सौ बार याद आ चुकी थी…”
“कहाँ हो अब?” अदिति ने सीधे पूछा।
“सिटी हॉस्पिटल। वार्ड 3B में।”
उसने बिना एक पल गंवाए खुद को तैयार किया और बाहर निकल पड़ी। ऑटो लेते वक्त उसकी आँखें अब भी भरी थीं, लेकिन दिल में बस एक बात थी—बस वो ठीक हो, मैं उसके पास हूँ, यही काफी है।
जब वो हॉस्पिटल पहुँची, तब बारिश तेज़ हो चुकी थी। गेट से वार्ड तक का रास्ता भीगता रहा, पर उसने परवाह नहीं की। वो दौड़ती हुई वार्ड 3B पहुँची। अंदर सफेद चादर पर लेटा आरव था, उसके माथे पर पट्टी, और एक टाँग में प्लास्टर।
अदिति को देखते ही उसकी आंखों में एक राहत चमकी।
“तुम आ गईं,” उसने जैसे धीरे से सांस छोड़ते हुए कहा।
अदिति उसके पास जाकर बैठी, उसका हाथ पकड़ा और हल्के से कहा—“तुम्हें पता भी है तुम मेरे लिए क्या हो?”
आरव की आंखें भीग गईं। “अब पता चल रहा है… जब तुम्हें सामने देखता हूँ, तो लगता है कि दर्द भी कुछ मीठा है… अगर तुम पास हो।”
अदिति ने उसका सिर सहलाया। “तुम्हें क्या लगा था, मैं नहीं आऊँगी? जब तुम नहीं थे, तो मुझे लगा जैसे मेरी पूरी दुनिया रुक गई हो। अगर तुम्हें कुछ हो जाता… तो…”
“कुछ नहीं होगा,” आरव ने उसका हाथ दबाते हुए कहा। “अब मैं तुम्हारे बिना कहीं नहीं जाऊँगा।”
अदिति उसकी आँखों में झाँकती रही। इस बार कोई रोमांटिक संगीत नहीं था, कोई पार्क, कोई स्केचबुक नहीं थी। सिर्फ हॉस्पिटल की दीवारें, दवाइयों की गंध और दिलों के बीच की नमी थी। पर प्यार पहले से ज़्यादा साफ था, ज़्यादा सच्चा।
“तुम जब ठीक हो जाओगे, हम वापस उसी झील पर चलेंगे,” अदिति ने कहा।
“और फिर से वादा करेंगे—इस बार पेपर रिंग की जगह असली वाली,” आरव ने मुस्करा कर कहा।
“रिंग से ज़्यादा जरूरी तुम हो, आरव,” अदिति ने उसके माथे को चूमा। “तुम्हारी साँसें, तुम्हारा साथ… यही मेरी सबसे बड़ी अंगूठी है।”
बाहर बारिश अब और ज़ोर से होने लगी थी। खिड़की के शीशे पर बूंदें दौड़ रही थीं, जैसे ऊपर वाला भी इस मिलन को आशीर्वाद दे रहा हो।
आरव की हालत अब धीरे-धीरे बेहतर हो रही थी। अस्पताल से छुट्टी मिलने के दो दिन बाद अदिति ने तय कर लिया कि वो उसे अपने घर ले आएगी जब तक वो पूरी तरह ठीक नहीं हो जाता। आरव ने पहले मना किया था, थोड़ा संकोच में था—लेकिन अदिति के चेहरे की जिद और आँखों के प्रेम ने उसकी हिम्मत छीन ली। अब वो अदिति के कमरे के एक कोने में रखे दीवान पर लेटा हुआ था, दीवार के सामने लगी खिड़की से बाहर होती बारिश को देखता, अदिति की हर हरकत में खोया हुआ।
अदिति कभी किचन में जाती, कभी उसकी दवाइयों का ध्यान रखती, कभी स्केचबुक में कुछ बनाती, तो कभी चुपचाप बैठकर उसकी तरफ देखती रहती। दोनों के बीच शब्द अब कम थे, भावनाएं ज़्यादा। उनका रिश्ता अब किसी नाम का मोहताज नहीं था। उसमें एक सहजता थी, जैसे बरसात में बहता पानी—बिना रुकावट, बिना योजना, पर बिल्कुल सच्चा।
उस शाम बारिश कुछ थम गई थी। हवा में ठंडक थी लेकिन उसमें एक सुकून भी था। अदिति ने आरव के लिए खिचड़ी बनाई थी, वो वही चम्मच से धीरे-धीरे उसे खिला रही थी।
“तुम्हें पता है,” आरव ने एक कौर निगलते हुए कहा, “तुम्हारे हाथ की खिचड़ी मेरे लिए पाँच स्टार डिनर से ज़्यादा कीमती है।”
अदिति हँस पड़ी। “ज्यादा ड्रामा मत करो। ये वही खिचड़ी है जो मेरी मम्मी बचपन में मुझे जब बीमार होता था तब खिलाती थी।”
“तो इसका मतलब तुम्हारा प्यार बचपन से ही खिचड़ी में था,” उसने मुस्कराते हुए कहा।
“नहीं, मेरा प्यार सिर्फ तुम्हारे लिए बचा था,” अदिति ने धीमे से जवाब दिया, फिर खुद को चुप कर लिया।
कुछ पल चुप्पी रही, लेकिन उसमें भी एक मधुर गूंज थी। फिर आरव ने पूछा, “अदिति, क्या तुम कभी डरती हो?”
“हर दिन,” उसने बिना झिझक जवाब दिया। “डरती हूँ कि कहीं ये सब सपना न हो। डरती हूँ कि कहीं तुम फिर दूर न हो जाओ। पर सबसे ज़्यादा डरती हूँ खुद को खोने से—क्योंकि अब जो मैं हूँ, वो तुम्हारे साथ ही पूरी होती है।”
आरव ने उसका हाथ थाम लिया। “हम सब डरते हैं। मैं भी। लेकिन अब जब तुम साथ हो, तो मैं उस डर से लड़ सकता हूँ।”
उस रात दोनों ने खिड़की के पास बैठकर चाय पी। अदिति ने रेडियो ऑन किया, और उसमें एक पुराना गाना बजने लगा—“रिमझिम गिरे सावन, सुलग-सुलग जाए मन…”
आरव ने अदिति की तरफ देखा। “हमारे लिए भी एक गाना बनना चाहिए, जो सिर्फ हमारा हो।”
“तो बनाओ ना,” अदिति ने कहा, “तुम्हारी स्केचबुक में शब्दों की भी जगह होती है।”
“मैं बनाऊँगा,” आरव ने वादा किया।
अगले कुछ दिनों में आरव और ठीक हो गया। उसकी बैसाखी अब ज़रूरी नहीं रही। चलने में थोड़ी दिक्कत थी, लेकिन अदिति हर कदम उसके साथ होती। एक शाम वो दोनों छत पर खड़े थे—बादल नीचे झुक आए थे, हवा में बूँदें थीं लेकिन आसमान खुला था। अदिति ने आरव को एक छोटा सा लिफाफा दिया।
“ये क्या है?” उसने पूछा।
“खोलो तो सही।”
अंदर एक फोटो थी—वो दोनों झील किनारे बैठे, अदिति का सिर आरव के कंधे पर, और बैकग्राउंड में बारिश।
“ये कब ली थी?” आरव हैरान था।
“वो पहला दिन, जब हम झील गए थे,” अदिति ने कहा। “मैंने फोन से खींची थी पर तुम्हें नहीं बताया।”
“और अब?” उसने हल्के से मुस्कराते हुए पूछा।
“अब ये तुम्हारे पास रहे, ताकि जब कभी अकेलापन महसूस हो, तो ये तुम्हें याद दिलाए—तुम कभी अकेले नहीं हो।”
आरव ने वो फोटो अपने सीने से लगा ली। “अब मुझे कुछ और नहीं चाहिए।”
उस पल में वक्त थम गया था। नीचे सड़क पर गाड़ियाँ चल रही थीं, पर उनकी आवाजें खो गई थीं। दूर मंदिर से घंटी बज रही थी, लेकिन वो भी किसी और जगत की लग रही थी। सिर्फ दो दिल थे—बारिश के साक्षी, प्रेम की अनुभूति में खोए हुए।
और फिर अचानक बारिश शुरू हो गई। तेज़ नहीं, पर मीठी। बूँदें उनके चेहरे पर पड़ीं, और दोनों ने एक-दूसरे की तरफ देखा।
“एक वादा करोगे?” अदिति ने पूछा।
“हर बार,” आरव ने तुरंत कहा।
“जो भी हो जाए, हम एक-दूसरे से सच बोलेंगे। और… कभी अचानक गायब नहीं होंगे।”
आरव ने सिर हिलाया। “मैं अब सिर्फ तुम्हारा हूँ, अदिति। और इस बारिश ने ये वादा सील कर दिया है।”
उस रात बारिश देर तक होती रही। अदिति की बालकनी में दो कप चाय खाली पड़ी थीं, और स्केचबुक में एक नया गाना जन्म ले रहा था।
अगले कुछ हफ्तों में आरव ने फिर से चलना सीखा, और उसकी जिंदगी धीरे-धीरे अपनी रफ्तार में लौटने लगी। लेकिन अब वो पहले जैसा नहीं था। हर सुबह जब वो अपनी खिड़की से बाहर देखता, उसे बारिश के हर कतरे में अदिति की हँसी सुनाई देती। वो अकेला नहीं था, कभी नहीं था—ये एहसास उसे हर सुबह नया बनाता था।
अदिति ने फिर से अपनी पेंटिंग्स पर काम शुरू किया। उसके रंग पहले से और गहरे, और अर्थपूर्ण हो गए थे। उसके ब्रश की हर स्ट्रोक में अब एक कहानी थी, जिसमें आरव का नाम लिखा था।
एक दिन आरव ने उसे एक स्केचबुक थमाई। “खोलो,” उसने कहा।
अदिति ने धीरे से पन्ने पलटे। पहले पन्ने पर एक कविता थी—
“जब बारिश की बूँदें तेरे गालों को छूती हैं,
मुझे लगता है जैसे मेरी आत्मा भीग गई हो।
तू पास नहीं होती फिर भी हर धड़कन तेरा नाम गुनगुनाती है,
मैं हर बूँद से तुझे चूम लेता हूँ।”
उसने चुपचाप पढ़ा, फिर उसकी आँखें नम हो गईं। “ये… ये सिर्फ शब्द नहीं हैं, ये मेरी आत्मा की आवाज़ है,” अदिति ने कहा।
“और वो सिर्फ तुम्हारे लिए है,” आरव ने मुस्कराकर जवाब दिया।
फिर उन्होंने एक निर्णय लिया—एक साथ कुछ दिन शहर से दूर बिताने का। एक ऐसी जगह, जहाँ सिर्फ पहाड़ हों, चाय की खुशबू हो और बारिश—जो उनके रिश्ते का सबसे प्रिय हिस्सा थी।
वे मसूरी गए। वहाँ का शांत वातावरण, बादलों में लिपटे पेड़, और हर मोड़ पर छलकती बारिश की बूँदें—सब कुछ मानो उनके प्रेम को और भी गहरा कर रहे थे। एक छोटा सा कॉटेज उन्होंने किराए पर लिया था, जिसमें लकड़ी की दीवारें थीं और छत पर बारिश की बूँदें बजती थीं जैसे कोई धुन हो।
एक सुबह अदिति बालकनी में बैठकर कॉफी पी रही थी और आरव उसके सामने स्केचबुक में कुछ लिख रहा था।
“क्या कर रहे हो?” अदिति ने पूछा।
“तुम्हारे लिए एक चिट्ठी लिख रहा हूँ,” उसने कहा बिना ऊपर देखे।
“चिट्ठी? क्यों? हम तो साथ हैं।”
“कभी पढ़ने का मन करे, तो तुम्हारे पास मेरी बातों की बारिश हमेशा रहे,” उसने शरारत से कहा।
अदिति ने झुककर उसका माथा चूमा। “तुम्हें पता है, मैं हर रोज़ खुद से एक सवाल पूछती हूँ।”
“क्या?” उसने पूछा।
“कि क्या ये सच है? क्या वाकई कोई मुझे इस तरह बेइंतहा चाह सकता है? और जब तुम मुझे देख कर मुस्कराते हो, तो मुझे हर बार जवाब मिल जाता है।”
आरव ने उसका हाथ थाम लिया और कहा, “तुम्हारे बिना मैं अधूरा हूँ, अदिति। तुम्हारे साथ ही मेरा हर मौसम मुकम्मल होता है।”
उस रात मसूरी की वादियाँ चाँदनी में भीगी हुई थीं। वो दोनों कॉटेज के सामने बैठकर चुपचाप आसमान देख रहे थे। अदिति ने पूछा, “क्या तुमने कभी कल्पना की है, हम बूढ़े हो गए हैं, और एक बरसात वाली शाम ऐसे ही साथ बैठे हैं?”
आरव ने हँसते हुए कहा, “और तुम तब भी मुझसे पूछोगी—‘कॉफी पीओगे?’”
“और तुम तब भी कहोगे—‘अगर तुम बना रही हो, तो हमेशा।’”
दोनों ने उस कल्पना में खुद को देखा—सफेद बाल, झुर्रियों वाली मुस्कराहट, लेकिन आँखों में वही बारिश की चमक। वही इंतज़ार, वही अपनापन।
मसूरी में बिताए वो पाँच दिन जैसे जीवन की सबसे सुंदर तस्वीर बन गए थे। लौटते वक्त ट्रेन की खिड़की के बाहर बारिश हो रही थी। अदिति ने सिर आरव के कंधे पर रख दिया, और बोली, “मैं कभी नहीं चाहती ये यात्रा खत्म हो।”
आरव ने उसका हाथ दबाया। “जब तक हम साथ हैं, ये यात्रा चलती रहेगी। हर स्टेशन सिर्फ एक पड़ाव होगा, लेकिन मंज़िल—हम खुद हैं।”
उसके ये शब्द बारिश की बूँदों से भी ज़्यादा मुलायम लगे अदिति को। वह जानती थी कि उसका जीवन अब किसी डगर पर अकेला नहीं चलने वाला था। वो जानती थी कि हर बरसात अब उसे आरव की बाहों में लौटने का बहाना देगी।
ट्रेन धीरे-धीरे स्टेशन की तरफ बढ़ रही थी। ज़िंदगी फिर रफ्तार पकड़ रही थी। लेकिन उनके दिलों में अब एक अलग शांति थी—एक स्थायित्व, जो किसी भी तूफ़ान को नर्म कर सके।
बरसों बीत गए। लेकिन हर मानसून में कुछ बदलता नहीं था—न अदिति की आंखों की चमक, न आरव की आवाज़ में वो पुरानी गर्माहट। हां, वक्त ने उनके चेहरे पर कुछ रेखाएँ जरूर खींच दी थीं, पर उनके बीच की मोहब्बत और भी गहरी हो चुकी थी।
मुंबई की एक शांत, छोटी सी गली में, उनका घर अब भी वो जगह था जहाँ बारिश रुकती नहीं थी—कभी बाहर, कभी भीतर। हर साल जब पहली बारिश की बूँदें गिरतीं, अदिति चुपचाप खिड़की के पास जा खड़ी होती और बाहर देखने लगती, जैसे कोई पुराना वादा दोहराने आई हो। आरव तब भी उसके पीछे खड़ा हो जाता, बिना कुछ कहे।
एक दिन, ऐसी ही एक दोपहर में, अदिति ने किताबों की अलमारी से पुरानी स्केचबुक निकाली। पन्ने पलटे तो एक पीला पड़ा हुआ पन्ना मिला—वही चिट्ठी जो आरव ने मसूरी में लिखी थी। उसने धीरे-धीरे पढ़ना शुरू किया—
“प्रिय अदिति,
अगर कभी ऐसा दिन आए जब मैं पास न रहूं, तो इस चिट्ठी को खोलना।
जानना कि मेरे हर ख्याल में सिर्फ तुम थी। हर शब्द, हर आहट, हर खामोशी में बस तुम्हारा नाम था।
मैंने तुम्हारे लिए सिर्फ प्यार नहीं जिया—मैंने तुम्हें जीया।
और जब ये चिट्ठी तुम्हारे हाथ में होगी, मैं शायद कहीं और रहूं, लेकिन हर बारिश की बूँद में, मैं तुम्हें छूने लौटूंगा।
—तुम्हारा, हमेशा का,
आरव”
अदिति ने चिट्ठी अपने सीने से लगा ली। उसकी आंखें नम थीं, पर मुस्कान वही थी—जो सिर्फ किसी को पूरी तरह चाहने के बाद ही आती है।
उस दिन बारिश कुछ ज़्यादा ही तेज़ थी। आसमान धुंधला और बादल बेहद करीब लगे। अदिति ने खिड़की खोली और एक कप कॉफी हाथ में लेकर बाहर बालकनी में आ बैठी। हवा में आरव की खुशबू जैसे अब भी तैर रही थी।
हां, आरव अब नहीं था। एक साल पहले वो लंबी बीमारी के बाद चुपचाप चला गया था। मगर जाने से पहले अदिति से वादा कर गया था—“जब भी बारिश होगी, समझना मैं तुम्हारे पास हूँ। जैसे पहले था, जैसे हमेशा रहूंगा।”
और अदिति को वाकई वो महसूस होता था। हर बूँद में उसकी आवाज़ सुनाई देती, हर बादल की गड़गड़ाहट में उसकी हँसी।
उसी दिन, अदिति ने अपने पुराने स्केच कैनवास निकाले। बरसों बाद उसने एक पेंटिंग पूरी की। वो एक बरसाती दोपहर थी, जिसमें दो लोग एक ही छतरी के नीचे खड़े थे—एक अधूरी, और दूसरी पूरी आकृति। पर रंग दोनों पर समान रूप से बरस रहे थे।
उसने पेंटिंग को नीचे हस्ताक्षर करते हुए लिखा—“बारिश की वो बात, जो अब भी पूरी है।”
फिर वो पेंटिंग उसने शहर की एक आर्ट गैलरी को भेज दी। कुछ हफ्तों बाद उसे एक कॉल आया—उसकी पेंटिंग को एक विशेष पुरस्कार मिला था। जब उससे पूछा गया, “आपने इसे क्या सोचकर बनाया?”
तो उसने कहा, “कभी-कभी कोई इंसान चला जाता है, लेकिन जो भाव वो छोड़ जाता है, वो एक मौसम बन जाता है। मेरे लिए आरव, एक बरसात की तरह है—जो हर साल लौटता है, हर बार मुझे भिगोता है।”
उसी शाम एक युवा जोड़ा उस गैलरी में आया। लड़की ने पेंटिंग की ओर इशारा करके कहा, “देखो ना, बिल्कुल वैसा ही जैसे हम बारिश में चलते हैं।” लड़के ने सिर हिलाया, “लेकिन ये आकृति क्यों अधूरी है?” लड़की मुस्कुरा दी, “क्योंकि प्यार कभी पूरा नहीं होता किसी एक शरीर से—वो तो बूँद-बूँद में बहता है।”
कहीं दूर खड़ी अदिति ये सुन रही थी, और उसकी आंखों में सुकून था। शायद कुछ प्रेम कहानियाँ कभी खत्म नहीं होतीं—वो मौसम बन जाती हैं, संगीत बन जाती हैं, या किसी और प्रेम कहानी की शुरुआत।
और उस दिन, जब रात ने बारिश की चादर ओढ़ी, अदिति ने अपनी खिड़की पर बैठकर आसमान की ओर देखा।
“तुम आए?” उसने फुसफुसाकर पूछा।
एक हल्की हवा चली। बारिश की एक बूँद उसके गाल पर गिरी।
उसने हल्के से मुस्कराकर जवाब दिया—”जानती थी।”
समाप्त
				
	

	


