Hindi - प्रेतकथा

बरगद की चुड़ैल

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दिनेश कुमार


गाँव के ठीक बीचों-बीच खड़ा वह बरगद का पेड़ सदियों पुराना था, जिसकी फैली हुई जटाएँ और चौड़ी शाखाएँ गाँव की पहचान मानी जाती थीं। दिन के उजाले में यह पेड़ गाँववालों का आश्रय स्थल होता—कोई किसान हल चलाने से पहले थोड़ी देर इसकी छाँव में बैठकर बीड़ी सुलगा लेता, बच्चे इसकी झूलती जड़ों को झूले की तरह पकड़कर खेलते, और दोपहर की तपिश से थके मजदूर इसकी ठंडी छाँव में सुस्ताने आ जाते। बरगद की ठंडी छाया में गाँव का चौपाल भी लगता, जहाँ बुजुर्ग अपने अनुभव साझा करते और लड़के-लड़कियाँ खेलकूद में मशगूल रहते। लेकिन जैसे ही सूरज ढलने लगता, गाँव के माहौल में एक अजीब सा बदलाव आ जाता। वही बरगद, जो दिन में शीतलता और जीवन का प्रतीक लगता था, रात के अंधेरे में किसी रहस्यमय प्रहरी की तरह खामोश खड़ा दिखाई देता। गाँववाले इस पेड़ के आसपास से जल्दी-जल्दी गुजर जाते, और बच्चों को सख्त हिदायत थी कि अंधेरा होने के बाद कभी भी उस बरगद की तरफ रुख न करें। अंधविश्वास या सच्चाई—कोई नहीं जानता था, लेकिन हर घर में यह कहानी ज़रूर कही-सुनी जाती थी कि उस पेड़ से रात के समय कुछ ऐसी आवाज़ें आती हैं जो इंसानी नहीं होतीं।

गाँव के बुजुर्ग अक्सर आग के चारों ओर बैठकर एक ही किस्सा सुनाते—”बरगद की जड़ों के नीचे रात को चूड़ियों की खनक सुनाई देती है।” आवाज़ इतनी साफ होती मानो कोई औरत वहाँ बैठकर हाथ हिला रही हो, या फिर झूमते-झूमते चूड़ियाँ बज रही हों। कईयों ने दावा किया कि उन्होंने सचमुच वह आवाज़ सुनी है—कभी हल्की-सी खनक, कभी लंबी खनक की गूँज जो सन्नाटे में और डरावनी हो जाती थी। और इस किस्से को और भयानक बनाता था वह सच, जिसे कोई झुठला नहीं सकता था—जिस किसी ने भी उस आवाज़ को कानों से सुना, वह कुछ ही दिनों में रहस्यमय तरीके से गायब हो गया। गाँव की यादों में ऐसे कई नाम थे—रामनाथ, जो एक रात खेत से लौटते समय देर से घर पहुँचा और अगले ही हफ्ते कहीं लापता हो गया; फिर कमला, जिसे शाम ढले बरगद की तरफ जाते देखा गया था, और अगले दिन उसकी चप्पलें पेड़ के नीचे पड़ी मिलीं, लेकिन खुद वह कहीं नहीं थी। ऐसे अनगिनत किस्सों ने बरगद को गाँव का डरावना प्रतीक बना दिया था। कुछ लोग कहते यह किसी स्त्री की आत्मा है, जो अधूरी इच्छा लेकर उस पेड़ से बँधी है; कुछ इसे पुराने श्राप का परिणाम मानते, तो कुछ इसे सिर्फ़ वहम कहकर टालते। मगर सच्चाई यह थी कि रात होते ही बरगद के आसपास कोई नहीं जाता, और जो गया, वह कभी सुरक्षित लौटकर नहीं आया।

गाँव में बच्चों से लेकर बड़ों तक इस रहस्य ने एक अजीब दहशत पैदा कर रखी थी। बरगद के नीचे दिन की चहल-पहल और रात का सन्नाटा जैसे दो अलग-अलग दुनिया का हिस्सा लगते। जब चाँदनी रात होती, तो पेड़ की फैली शाखाएँ ज़मीन पर लंबी-लंबी परछाइयाँ डालतीं और जड़ों के बीच काली दरारें किसी अंधेरे खोह जैसी लगतीं। हवा के हल्के झोंके से पत्तों का सरसराना सुनाई देता, लेकिन बीच-बीच में जैसे ही खनकने की आवाज़ आती, तो लगता कोई और मौजूद है—कोई अदृश्य आकृति जो वहाँ बैठकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। गाँव की औरतें अक्सर बच्चों को डराने के लिए कहतीं—”अगर बदमाशी करोगे, तो बरगद वाली चुड़ैल तुम्हें उठा ले जाएगी।” पर समय बीतने के साथ डर सिर्फ़ बच्चों की कल्पना तक सीमित नहीं रहा; बड़ों के दिलों में भी यह एक जीवंत भय बन चुका था। बरगद का रहस्य गाँव के इतिहास की तरह था—पुराना, गहरा और अनसुलझा। हर गुजरती रात उस रहस्य को और गाढ़ा कर देती थी, और हर नई सुबह लोग राहत की साँस लेते थे कि वे अब भी सुरक्षित हैं। मगर इस सबके बीच यह सवाल हवा में तैरता ही रहता—आखिर वह आवाज़ किसकी है, और क्यों हर सुनने वाला उसकी गिरफ्त में आ जाता है? यही सवाल बरगद को केवल एक पेड़ नहीं, बल्कि एक जीता-जागता रहस्य बना देता था।

गाँव की दोपहर अक्सर बच्चों की किलकारियों से गूँज उठती थी। खेत-खलिहानों के बीच दौड़ते-भागते, मिट्टी में लथपथ होते हुए बच्चे अपनी ही दुनिया में खोए रहते। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। सात-आठ बच्चों का झुंड कबड्डी और पकड़म-पकड़ाई खेलते-खेलते धीरे-धीरे गाँव के बीचों-बीच खड़े सदियों पुराने बरगद की तरफ जा पहुँचा। आम तौर पर वे उस ओर नहीं जाते थे, क्योंकि माँ-बाप और बुजुर्ग सख्त हिदायत देकर रखते थे कि अंधेरा ढलने से पहले उस पेड़ के पास पैर तक मत रखना। लेकिन बच्चों के खेल-खेल में अकसर ऐसे नियम भूल जाते। बरगद की फैली हुई जटाओं और झूलती जड़ों को देखकर उनमें से किसी ने मज़ाक में कहा—“चलो, इसे झूला बना लेते हैं।” सब हँसते हुए उस विचार पर राज़ी हो गए। पत्तों के बीच से छनकर आती धूप में पेड़ एकदम साधारण और शांत प्रतीत हो रहा था, मानो उसमें कोई रहस्य न हो। बच्चे झूलों की तरह जड़ों पर लटकने लगे और एक-दूसरे को धक्का देने लगे। उसी बीच अचानक, जैसे ही एक पल के लिए हवा का झोंका आया, किसी ने बहुत साफ़ आवाज़ सुनी—चूड़ियों की खनक, बिलकुल वैसी ही जैसी उनके बड़ों की कहानियों में वर्णित थी। पहले तो सबने सोचा शायद किसी औरत की चूड़ियाँ होंगी, लेकिन अगले ही पल जब उन्होंने देखा कि वहाँ कोई नहीं है, तो पूरे झुंड में खौफ दौड़ गया। डर से उनके चेहरे सफेद पड़ गए और सब एक साथ चीखते-चिल्लाते गाँव की ओर भाग खड़े हुए।

मगर उस भगदड़ में एक बच्चा वहीं ठिठक गया—नन्हा गोपाल, जो उम्र में सबसे छोटा और सबसे जिज्ञासु था। उसके कानों में वह खनक इतनी स्पष्ट गूँज रही थी कि मानो कोई पास खड़ा होकर उसे बुला रहा हो। बाकी सब भाग गए, पर गोपाल की नज़रें बरगद की जड़ों की ओर टिक गईं। उसकी आँखों में भय से अधिक आकर्षण था। जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे रोक लिया हो। उसके होंठ सूख गए, लेकिन वह एक पल को भी हिल नहीं पाया। तभी अचानक उसे लगा जैसे पत्तों के बीच से कोई धीमी फुसफुसाहट आ रही हो—मानो कोई स्त्री उसका नाम पुकार रही हो। उसका गला सूख गया, पाँव भारी हो गए। तभी दूर से उसकी माँ की आवाज़ सुनाई दी, जो उसे ढूँढ़ते हुए आ रही थी। यह सुनते ही गोपाल का ध्यान टूटा और वह काँपते कदमों से घर की ओर भागा। लेकिन उसका चेहरा पीला पड़ चुका था और आँखों में एक अजीब-सी चमक थी। बाकी बच्चों ने घर पहुँचकर हाँफते-हाँफते किस्सा सुनाया, मगर बड़ों ने डाँटकर चुप करा दिया—“झूठ बोलते हो, डर फैलाते हो, चुप रहो।” किसी ने उनकी बात पर विश्वास नहीं किया, लेकिन गोपाल के भीतर जो कुछ हुआ था, उसे वह भूल नहीं पा रहा था।

अगले ही दिन गोपाल अचानक बीमार पड़ गया। उसका शरीर बुखार से तपने लगा, और उसकी आँखें अक्सर किसी अदृश्य बिंदु पर टिकी रह जातीं। गाँव के वैद्य ने आकर जड़ी-बूटियाँ दीं, मगर हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। सबसे अजीब बात यह थी कि वह बार-बार एक ही वाक्य दोहराने लगा—“वो मुझे बुला रही है…वो मुझे बुला रही है…”। उसके छोटे-छोटे होंठों से ये शब्द सुनकर घरवालों की रूह काँप जाती। उसकी माँ रोते-रोते कहती, “कौन बुला रहा है बेटा?” मगर गोपाल हर बार वही जवाब देता—“बरगद वाली… वो मुझे अपने पास चाहती है।” धीरे-धीरे गाँव में यह खबर फैल गई और लोग सशंकित होने लगे कि शायद बरगद का पुराना रहस्य अब फिर से किसी को अपने जाल में फँसा रहा है। बच्चे डरे-सहमे घरों में दुबक गए और बड़ों के चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ़ दिखने लगीं। बरगद का डर जो अब तक सिर्फ़ कहानियों और बुजुर्गों की चेतावनी तक सीमित था, वह अब एक जीवित चेतावनी बनकर उनके सामने खड़ा था—गोपाल की बीमारी और उसके रहस्यमय शब्द मानो आने वाले किसी बड़े खतरे का संकेत दे रहे थे। गाँव की हवा में पहली बार यह अहसास तैरने लगा कि बरगद का रहस्य केवल कहानी नहीं, बल्कि सच्चाई है, और अब वह सच्चाई धीरे-धीरे उनके दरवाज़े तक पहुँच रही है।

गोपाल की बीमारी और उसके होंठों पर बार-बार दोहराए जाने वाले शब्दों ने पूरे गाँव को चिंता और दहशत से भर दिया था। रात के समय हर घर में खुसुर-फुसुर चलती, और लोग पुराने किस्सों को याद करने लगे। आखिरकार गाँव के चौपाल में सब इकट्ठा हुए। औरतें, बच्चे, मर्द—सभी अपनी बेचैनी और डर के बीच जवाब खोज रहे थे। उसी बीच सबसे बुजुर्ग औरत, दादी सावित्री, अपनी लकड़ी की छड़ी टेकते हुए आईं। उनकी झुर्रियों से भरा चेहरा, धुँधली आँखें और धीमी आवाज़ गाँव वालों के लिए हमेशा रहस्य और अनुभव का प्रतीक थीं। लोग जानते थे कि दादी ने अपने जीवन में गाँव के अनगिनत उतार-चढ़ाव देखे हैं। जब उन्होंने बोलना शुरू किया, तो पूरा चौपाल खामोश हो गया। सावित्री ने काँपती आवाज़ में कहा—“तुम सब डर क्यों रहे हो? यह पहली बार नहीं है। बरगद के नीचे की आवाज़, वह खनक, वह पुकार… यह सब पुराना है। तुममें से किसी ने उस औरत की कहानी ठीक से नहीं सुनी, मगर मैं उस दौर की गवाह हूँ।” उनके ये शब्द सुनते ही सबकी साँसें थम गईं। बच्चों की जिज्ञासु आँखें और बड़ों का खौफ एक साथ उनकी ओर टिक गया।

सावित्री ने गहरी साँस ली और धीरे-धीरे अतीत का परदा उठाने लगीं। उन्होंने बताया कि सालों पहले गाँव में एक औरत रहती थी—नाम उसका गौरी। वह सुंदर थी, पर उसके जीवन पर दुखों की परत चढ़ी हुई थी। पति की अकाल मृत्यु के बाद उसने अकेलेपन और गरीबी में अपनी ज़िंदगी काटनी शुरू की। मगर गाँववालों ने उसकी स्वतंत्रता और उसकी आँखों की चमक को सहन नहीं किया। लोगों में यह अफवाह फैल गई कि वह रातों को बरगद के पास जाती है और वहाँ अजीब अनुष्ठान करती है। किसी ने कहा उसने खेत में बीमारी फैलाई है, किसी ने कहा बच्चों पर उसका बुरा साया है। धीरे-धीरे अफवाह इतनी गहरी हो गई कि लोगों ने उसे डायन कहना शुरू कर दिया। दादी सावित्री की आवाज़ काँप रही थी जब उन्होंने कहा—“उस औरत का गुनाह बस इतना था कि वह अकेली थी और अपने दम पर जीना चाहती थी। मगर अंधविश्वास ने उसे राक्षसी बना दिया।” गाँववालों ने पंचायत बुलाई और फैसला सुनाया—गौरी को जिंदा दफना दिया जाए ताकि उसका साया हमेशा के लिए मिट जाए। उस समय बरगद का पेड़ ही पंचायत का स्थल हुआ करता था। वहीँ उसकी जड़ों के नीचे गड्ढा खोदा गया और गौरी को बाँधकर उसमें उतार दिया गया। लोग कहते हैं कि जब मिट्टी उसके ऊपर डाली जा रही थी, तो उसकी चूड़ियाँ जोर-जोर से खनक रही थीं। वह चिल्लाई, “तुम मुझे रोक नहीं सकते। मैं लौटूँगी… अपनी चूड़ियों की खनक से तुम्हें बुलाऊँगी।” और फिर उसकी आवाज़ मिट्टी में दब गई, मगर वह चेतावनी हवा में तैर गई।

उस दिन के बाद से बरगद गाँव का शाप बन गया। पहले-पहल लोग यह मानते थे कि अब सब शांत हो जाएगा, मगर जल्द ही रात होते ही अजीब खनक सुनाई देने लगी। किसी ने उसे सपना कहा, किसी ने भ्रम, लेकिन जब गाँव के कुछ लोग उस आवाज़ को सुनकर गायब हो गए, तो भय ने कहानी को हकीकत में बदल दिया। दादी सावित्री ने अपनी आँखें बंद कर लीं, जैसे वह उस भयानक अतीत को फिर से जी रही हों। उन्होंने कहा—“मैंने अपनी आँखों से देखा था, गौरी की आँखों में मौत से भी बड़ा गुस्सा था। वह औरत मरकर भी चैन से नहीं रही। उसकी चूड़ियों की खनक वही चेतावनी है, वही श्राप है जो हर पीढ़ी तक पहुँचता रहेगा।” चौपाल में बैठे लोग सिहर उठे। बच्चों के चेहरे डर से नीले पड़ गए, और औरतों ने अपने गहनों को कसकर पकड़ लिया। कोई यह सोचने लगा कि क्या गोपाल को भी वही औरत बुला रही है? दादी के शब्दों ने उस रात गाँव के हर दिल पर डर की एक नई परत चढ़ा दी। बरगद अब सिर्फ़ एक पेड़ नहीं, बल्कि इंसानी पाप और अंधविश्वास का जीता-जागता सबूत बन गया था। और उसकी जड़ों के नीचे दफन गौरी मानो अब भी हर रात लौटकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कर रही थी।

गोपाल की हालत और दादी सावित्री की दास्तान ने पूरे गाँव को एक बार फिर खौफ और बेचैनी में डुबो दिया था। लोग दिन में भी बरगद की ओर देखने से कतराने लगे थे, मानो उसकी जटाएँ किसी को खींच लेंगी। मगर हर डर के बीच कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें अंधविश्वास चुनौती जैसा लगता है। गाँव के पाँच-छह जवान लड़कों ने आपस में मिलकर ठान लिया कि वे इस रहस्य को सुलझाकर रहेंगे। वे मानते थे कि यह सब बुजुर्गों की बनाई हुई कहानियाँ हैं, जिनसे बच्चों और औरतों को डराया जाता है। उनमें सबसे आगे था रघु, जिसकी जवानी और ताकत के किस्से पूरे गाँव में मशहूर थे। उसके साथ उसके दोस्त—मोहन, दिलीप, सुरेश और हरि भी तैयार हो गए। गाँववालों की चेतावनी और दादी सावित्री की बातों को उन्होंने हँसी में उड़ा दिया। उन्होंने तय किया कि अगली अमावस्या की रात वे लालटेन लेकर बरगद तक जाएँगे और सबको दिखा देंगे कि वहाँ कोई भूत-प्रेत नहीं है। पूरे गाँव में यह खबर फैल गई, और लोग दबी आवाज़ में कहने लगे—“ये लड़के अपने पैरों से मौत को बुला रहे हैं।” मगर जवान खून के सामने कोई भी समझाइश बेअसर साबित हुई।

वह रात आई तो गाँव का माहौल और भी स्याह हो गया। आसमान पर बादल छाए थे, और हवा में अजीब-सी नमी थी। जब बाकी गाँववाले अपने घरों में दरवाज़े बंद कर रहे थे, तब रघु और उसके साथी हाथों में लालटेन और लाठी लेकर धीरे-धीरे बरगद की ओर बढ़े। चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा था, सिर्फ़ उनके कदमों की आहट और लालटेन की टिमटिमाती रोशनी साथ थी। बरगद की ऊँची-ऊँची शाखाएँ हवा में हिल रही थीं और उनकी परछाइयाँ ज़मीन पर लंबे भूत जैसे आकार बना रही थीं। लड़कों ने अपने डर को हँसी में छिपाने की कोशिश की, मगर उनके चेहरे की कसावट बता रही थी कि भीतर कहीं न कहीं बेचैनी है। जब वे पेड़ के पास पहुँचे, तो सब कुछ सामान्य था। न कोई आवाज़, न कोई हलचल। रघु ने ठहाका लगाया और कहा—“देखा, सब झूठ है। यही है वह पेड़, जिसमें तुम लोग भूत देखते हो।” बाकी लड़के भी थोड़ा सहज हुए और लालटेन ऊँचा करके पेड़ की जड़ों और तनों को देखने लगे। अचानक हवा का तेज़ झोंका आया, मानो किसी ने अचानक पूरे पेड़ को झकझोर दिया हो। पत्तों के बीच से सरसराहट गूँजी और उसी के साथ—एकदम साफ़, एकदम पास से—चूड़ियों की खनक सुनाई दी।

वह आवाज़ इतनी अप्रत्याशित और तेज़ थी कि मानो किसी ने ठीक उनके कानों में चूड़ियाँ झनकाई हों। एक पल को सब जम गए, किसी की साँस तक थम गई। लालटेन काँपने लगी और रोशनी डगमगाकर पेड़ की परछाइयों को और भयानक बना देने लगी। अगले ही क्षण डर ने उन सब पर हावी हो गया। मोहन ने सबसे पहले भागना शुरू किया, उसके पीछे-पीछे दिलीप, हरि और सुरेश भी जान बचाकर दौड़ पड़े। उनके कदमों की आहट रात के सन्नाटे को चीरती चली गई। मगर रघु वहीं खड़ा रह गया। उसकी आँखें पेड़ की जड़ों की ओर जमी थीं, जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने उसे जकड़ लिया हो। उसने लड़खड़ाकर कुछ कदम पीछे हटने की कोशिश की, मगर तभी उसके कानों में एक औरत की धीमी पर डरावनी हँसी गूँजी। उसके शरीर से ताकत मानो खिसक गई और वह ज़मीन पर धड़ाम से गिर पड़ा। जब बाकी लड़के सुबह गाँव लौटकर गाँववालों को लेकर बरगद तक आए, तो उन्होंने रघु को पेड़ की जड़ों के पास बेहोश पड़ा पाया। उसका चेहरा पीला था, होंठ नीले, और उसकी मुट्ठियाँ कसकर बंद थीं, जैसे उसने किसी चीज़ को पकड़ने की कोशिश की हो। वह साँस तो ले रहा था, मगर उसकी आँखें बंद थीं और होठों पर अजीब-सी फुसफुसाहट थी। पूरे गाँव ने उस दृश्य को देखकर दहशत की एक नई परत महसूस की। अब यह किसी दास्तान का किस्सा नहीं रहा था—बरगद की चुड़ैल ने अपना डर और भी स्पष्ट कर दिया था, और गाँव समझ गया था कि उसका खेल अब और खतरनाक होने वाला है।

सुबह होते ही पूरे गाँव में अफरा-तफरी मच गई, क्योंकि रघु, जो पिछली रात बरगद के पास बेहोश मिला था, अब अचानक गायब था। उसका परिवार सबसे पहले जागा और देखा कि बिस्तर खाली पड़ा है। माँ की चीख सुनकर पूरा मोहल्ला दौड़ पड़ा। सबने पहले सोचा कि शायद वह खुद कहीं चला गया हो, लेकिन जब आस-पास खोजा गया, तो कोई सुराग नहीं मिला। उसकी माँ रो-रोकर बेबस हो उठी और पिता गुस्से से पागल की तरह हर किसी से पूछते फिरने लगे। गाँववाले इकट्ठा हुए और आखिरकार सबका ध्यान उसी जगह की ओर गया जहाँ कल रात रघु बेहोश पड़ा मिला था—बरगद की जड़ें। दर्जनों लोग एक साथ वहाँ पहुँचे, और दृश्य देखकर सबके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। पेड़ के नीचे की मिट्टी जगह-जगह से उखड़ी हुई थी, जैसे किसी ने उसे जोर-जबरदस्ती खरोंचा हो। मिट्टी में गहरे निशान थे, मानो किसी इंसान ने जान बचाने की कोशिश की हो और अपने नाखूनों से ज़मीन को खोदा हो। वहीं पास में पैरों के ताज़ा निशान थे, जो अचानक जड़ों के बीच जाकर गायब हो जाते थे। ऐसा लग रहा था कि किसी ने रघु को ज़मीन के अंदर खींच लिया हो। औरतें चीख उठीं, बच्चे माँओं की ओट में छिप गए और मर्दों के चेहरों पर भी पसीने की बूँदें चमकने लगीं। किसी की हिम्मत नहीं हुई कि पेड़ की जड़ों के नीचे झाँककर देख सके।

उस भयावह खोजबीन के बाद गाँव की फिज़ा पूरी तरह बदल गई। जो लोग अब तक दादी सावित्री की दास्तान को महज़ कहानी मानते थे, उनकी आँखों के सामने हकीकत थी। हर गली में फुसफुसाहटें गूँजने लगीं—“बरगद ने रघु को निगल लिया… चुड़ैल लौट आई है।” अब किसी ने बच्चों को बाहर खेलने नहीं दिया, खेतों में काम करने वाले भी सूरज ढलने से पहले घर लौट आते। दुकानों के शटर आधे दिन में ही गिर जाते, और गाँव एक कैदखाने जैसा लगने लगा। शाम ढलते ही दरवाज़े कसकर बंद कर दिए जाते और कोई भी आदमी बाहर निकलने की हिम्मत नहीं करता। रात में दूर-दूर तक बस कुत्तों के भौंकने और पत्तों की सरसराहट की आवाज़ें सुनाई देतीं, जो हर किसी की नींद छीन लेतीं। सबसे बुरा हाल रघु के परिवार का था। उसकी माँ रोज़ पेड़ की ओर देखकर बिलखती और चिल्लाती—“मेरा बेटा लौटा दो, चाहे जैसे हो लौटा दो।” लेकिन बरगद की जड़ों से कोई जवाब नहीं आता, सिर्फ़ हवा के साथ आती चूड़ियों की खनक सबको खामोश कर देती। गाँववालों के बीच यह मान्यता और मजबूत हो गई कि पेड़ में दबी हुई आत्मा अब अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने लौट आई है और वह एक-एक करके गाँव के लोगों को अपने पास बुला रही है।

इस डर ने धीरे-धीरे गाँव के जीवन को जकड़ लिया। बच्चे स्कूल नहीं जाते, लोग रात को खिड़कियों तक से बाहर झाँकने से कतराते। चौपाल, जो कभी हँसी-ठिठोली का केंद्र हुआ करता था, अब सुनसान पड़ा रहता। एक अजीब-सा विश्वास फैल गया कि बरगद की चुड़ैल अब केवल उसी पेड़ के नीचे नहीं, बल्कि पूरे गाँव में मंडरा रही है। घरों में पूजा-पाठ शुरू हो गए, लोग नींबू-मिर्च और ताबीज़ लटकाने लगे। कुछ ने तो गाँव छोड़ देने का मन बना लिया, लेकिन गरीबी और मजबूरी ने उन्हें बाँध रखा था। रघु की गुमशुदगी अब सिर्फ़ एक परिवार का दुख नहीं रही, बल्कि पूरे गाँव के लिए एक जीवित श्राप बन गई थी। लोग अब यह समझने लगे थे कि यह खेल कोई साधारण डरावनी कहानी नहीं, बल्कि एक अंधेरी सच्चाई है जो उनकी जड़ों तक पहुँच चुकी है। हर कोई मन ही मन यही सोचता—“कौन अगला होगा?” और यह ख्याल उनके सीने पर ऐसा बोझ डाल देता कि साँस लेना भी कठिन लगता। बरगद अब सिर्फ़ पेड़ नहीं, मौत और रहस्य का प्रतीक बन गया था, और उसकी छाया ने पूरे गाँव को अपने कब्ज़े में ले लिया था।

गाँव भय और निराशा में डूबा हुआ था। रघु की गुमशुदगी को कई दिन बीत चुके थे, लेकिन कोई हल नहीं निकल पाया। हर दिन लोग चौपाल पर इकट्ठा होते और आपस में बहस करते—किसी का कहना था कि यह सब भगवान की सज़ा है, किसी ने सुझाव दिया कि सब मिलकर गाँव छोड़ दें, तो कोई कहता कि सामूहिक हवन करना चाहिए। लेकिन हर चर्चा का अंत खामोशी और बेबसी में होता। तभी एक दिन दोपहर को धूल से भरी सड़क पर एक अजनबी साधु का आगमन हुआ। उसकी जटाएँ कमर तक लटक रही थीं, शरीर भस्म से लिपटा था, और आँखों में अजीब-सी चमक थी। उसके गले में रुद्राक्ष की माला और हाथ में एक त्रिशूल था। बच्चे पहले तो डरकर भागे, लेकिन बड़ों ने उसे देखकर आशा की किरण महसूस की। गाँववाले उसके चारों ओर इकट्ठा हो गए और एक स्वर में सारी घटना उसे सुना डाली—बरगद का रहस्य, चुड़ियों की खनक, रघु का गायब होना और गाँव का डर। साधु ने ध्यान से सब सुना और फिर गहरी आवाज़ में बोला—“यह साधारण आत्मा नहीं है। यह बाँधने वाली आत्मा है, जिसे मरने के बाद भी मोक्ष नहीं मिला। इसे उसी पेड़ के नीचे जिंदा गाड़ा गया था, और तभी से इसकी आत्मा वहीं अटकी हुई है। जो कोई इसके वश में आता है, वह उसकी दुनिया में खो जाता है। वह दुनिया जहाँ से कोई लौट नहीं पाता।” उसके शब्द सुनते ही गाँववालों की रूह काँप गई, लेकिन साथ ही उन्हें लगा कि शायद अब समाधान का कोई रास्ता मिलेगा।

साधु ने सबको समझाया कि इस आत्मा को केवल एक धार्मिक अनुष्ठान से रोका जा सकता है। उसने कहा—“बरगद की जड़ों के नीचे हर रात दीपक जलाना होगा। यह दीपक उस आत्मा की अंधेरी शक्ति को बाँधे रखेगा और उसे और फैलने से रोकेगा।” यह सुनते ही लोग थोड़े आश्वस्त हुए, मगर साधु ने गंभीर स्वर में चेताया—“ध्यान रखना, दीपक कभी बुझना नहीं चाहिए। अगर दीपक बुझ गया, तो यह आत्मा और भी शक्तिशाली हो जाएगी। फिर न कोई मंत्र काम आएगा, न कोई पूजा। वह पूरे गाँव को अपनी गिरफ्त में ले लेगी।” साधु के चेहरे पर गंभीरता और आवाज़ में दृढ़ता थी। गाँववाले एक-दूसरे की ओर देख रहे थे। उनमें डर भी था और उम्मीद भी। साधु ने आगे कहा—“तुम्हारे गाँव पर जो श्राप है, वह आसान नहीं है। इसे तोड़ने के लिए साहस और अनुशासन चाहिए। अगर तुम सब मिलकर नियम निभाओगे, तो ही यह आत्मा कमजोर होगी।” इसके बाद उसने पेड़ के नीचे जाकर मंत्र पढ़े, धूप-दीप जलाए और त्रिशूल से चारों ओर पवित्र चिह्न बनाए। बरगद के नीचे उसकी आवाज़ गूँज रही थी, मानो सैकड़ों साल से सोई हुई कोई शक्ति जाग उठी हो। गाँववाले दूर खड़े काँपते हुए यह सब देख रहे थे, मगर उनके दिलों में उम्मीद की लौ जल उठी थी।

उस रात पहली बार बरगद के नीचे दीपक जलाया गया। गाँव की औरतें थाल में फूल और जल लेकर वहाँ पहुँचीं और साधु के बताए मंत्रों का जाप किया। जैसे ही दीपक की लौ अंधेरे में चमकी, बरगद की शाखाएँ अजीब ढंग से हिल उठीं, मानो किसी को यह सब पसंद नहीं आ रहा हो। हवा का झोंका आया, पत्तों में खड़खड़ाहट गूँजी, और एक पल को लगा जैसे किसी ने फिर चूड़ियों की हल्की खनक कर दी हो। मगर दीपक की लौ स्थिर रही, टिमटिमाई नहीं। लोग सिहर उठे, लेकिन साधु ने ऊँची आवाज़ में कहा—“डरो मत। यह उसकी असली ताकत नहीं है। वह अभी बाँध में है।” गाँववाले थोड़े निश्चिंत हुए, मगर हर किसी के मन में यह डर भी बैठ गया कि अगर दीपक कभी बुझ गया, तो क्या होगा? उस लौ में अब गाँव की ज़िंदगी और उम्मीद बंधी हुई थी। घर लौटते वक्त हर आदमी एक ही बात सोच रहा था—यह खेल अब सिर्फ़ आत्मा और साधु का नहीं, बल्कि पूरे गाँव की नियति का है। और अगर कहीं चूक हुई, तो शायद अगली सुबह कोई और गायब होगा। दीपक की छोटी-सी लौ पूरे गाँव के लिए अब जीवन और मृत्यु के बीच की एकमात्र डोर बन चुकी थी।

बरगद के नीचे जब अंतिम पूजा का समय आया, तो पूरा गाँव एक साथ इकट्ठा हुआ। चारों ओर भय और उम्मीद का अजीब मिश्रण था। औरतें दीयों और अगरबत्तियों को लेकर आईं, बच्चे घरों में छिपे हुए खिड़कियों से झाँक रहे थे, और मर्द साधु के चारों ओर खड़े थे। साधु ने जमीन पर एक मंडल बनाया और उसमें घी के दीपक रखे। हवा उस रात असामान्य रूप से भारी थी, जैसे किसी तूफ़ान के आने की आहट हो। साधु ने ऊँचे स्वर में मंत्रोच्चार शुरू किया, और बाकी गाँव वाले काँपती आवाज़ों में उसका साथ देने लगे। अचानक ही, जैसे किसी ने आसमान को झकझोर दिया हो, चूड़ियों की खनक एक साथ गूंज उठी। पहले धीमी, फिर तेज़, और फिर इतनी प्रचंड कि लगा मानो सैकड़ों औरतें एक साथ चूड़ियाँ बजा रही हों। गाँव वालों के दिल की धड़कनें बढ़ गईं। बरगद की शाखाएँ जोर-जोर से हिलने लगीं, जबकि हवा का कोई झोंका आसपास नहीं था। लोग डर से पीछे हटने लगे, लेकिन साधु ने उन्हें अपने स्थान पर टिके रहने का आदेश दिया। उसी क्षण बरगद की जड़ों के बीच से धुएँ की लहर उठी और धीरे-धीरे उसने एक औरत का रूप लेना शुरू कर दिया। उसका चेहरा धुंधला था, पर आँखें लाल और जलती हुई मशाल जैसी लग रही थीं।

गाँव वाले चीखने ही वाले थे कि वह धुएँ की औरत खिलखिलाकर हँस पड़ी—एक ऐसी हँसी जिसमें न खुशी थी, न दुःख, बल्कि केवल तिरस्कार और बदले की गूँज थी। उसने कहा—“तुम मुझे रोक नहीं सकते। मैं वहीं लौटूँगी, जहाँ से तुमने मुझे निकाला था।” उसकी आवाज़ मानो हर कोने से एक साथ आ रही थी। बरगद की पत्तियाँ खड़क-खड़क कर गिरने लगीं, मानो पेड़ खुद भी उस शक्ति के बोझ को सहने में असमर्थ हो। बच्चों के रुदन और औरतों की घबराई हुई चीखें वातावरण को और भयावह बना रही थीं। साधु ने अपनी आँखें बंद कीं और मंत्रों का जाप और तेज़ कर दिया। उनके स्वर की गूँज ने वातावरण में एक अजीब कंपन पैदा कर दिया। औरत की आकृति उस कंपन से तिलमिलाने लगी। उसने एकाएक बरगद की शाखाओं को पकड़कर जोर से झकझोरा, जिससे कई सूखी डालियाँ नीचे गिर पड़ीं और लोग इधर-उधर भागने लगे। लेकिन साधु ने अपना डंडा उठाकर जमीन पर पटका और गरजकर कहा—“किसी को मत भागने देना, यही घड़ी निर्णायक है!” गाँव वाले कांपते हुए फिर अपनी जगह जम गए।

धीरे-धीरे साधु के मंत्रों की शक्ति बढ़ने लगी। दीपक की लौ तेज़ होकर पीली से सुनहरी और फिर नीली होने लगी। औरत का धुएँ का शरीर उस नीली आभा को सहन नहीं कर पा रहा था। वह चीखते हुए बोली—“नहीं! यह अग्नि मुझे बाँध नहीं सकती! मैं लौटूँगी, हर हाल में लौटूँगी!” लेकिन उसकी चीखें अब गूँज से ज्यादा विलाप जैसी लगने लगीं। उसकी परछाई थरथराई और धीरे-धीरे उसी बरगद की जड़ों में समाने लगी। उसकी लाल आँखें अंतिम बार जलकर बुझ गईं। पेड़ की शाखाएँ अचानक स्थिर हो गईं, और चूड़ियों की खनक मानो एक झटके में थम गई। वातावरण में एक भारी सन्नाटा फैल गया। गाँव वाले एक-दूसरे को अविश्वास से देखने लगे—क्या सचमुच वह बंध गई थी? साधु ने थककर अपना डंडा ज़मीन पर टेक दिया और गंभीर स्वर में कहा—“आज वह दब गई है, पर नष्ट नहीं हुई। जब तक इस बरगद का अस्तित्व रहेगा, उसका नाम और उसका श्राप यहाँ जिंदा रहेगा। याद रखना, दीपक जलते रहना चाहिए, क्योंकि अँधेरा उसकी सबसे बड़ी ताकत है।” गाँव वाले नतमस्तक हो गए, राहत की साँस ली, मगर उनके दिल में यह डर बैठ गया कि बरगद का रहस्य शायद कभी पूरी तरह खत्म नहीं होगा।

सुबह गाँव में पहली बार लंबे समय बाद शांति का अनुभव हुआ। लोग एक-दूसरे से राहत की बातें करने लगे, और बरगद के पेड़ की ओर देखते हुए कुछ ने मन ही मन साधु को धन्यवाद दिया। औरतें कुएँ से पानी भरने निकल आईं, बच्चे घरों से बाहर खेलने लगे और मर्द अपने खेतों की ओर बढ़ गए। ऐसा लग रहा था मानो गाँव पर छाया हुआ भय का काला बादल आखिरकार छँट गया हो। पर इस सतही शांति के पीछे हर दिल में अब भी एक हल्की दहशत छिपी हुई थी। कई लोगों ने रात की घटनाओं को एक भयानक सपना मानकर भुला देने की कोशिश की, लेकिन कुछ को साधु की कही बात याद थी—“वह बंधी है, मिट्टी में समा गई है, पर पूरी तरह खत्म नहीं हुई।” शाम ढलते ही, जब सूरज की रोशनी लाल से काली होने लगी, लोग बेचैनी से इधर-उधर झाँकने लगे। दीपक जलाए गए, मंत्रों का स्मरण किया गया, पर मन में एक अनजाना डर बार-बार सिर उठाने लगा। कोई भी बरगद के पास जाने की हिम्मत नहीं कर रहा था, फिर भी सबकी निगाहें उसी ओर खिंच रही थीं।

रात गहराते ही गाँव में सन्नाटा फैल गया। अचानक कहीं से वही परिचित खनक सुनाई दी—पहले धीमी, फिर तेज़, जैसे कोई दरवाज़े के पीछे खड़ा होकर ज़िद्दी तरीके से चूड़ियाँ बजा रहा हो। सुनते ही लोगों के चेहरों का रंग उड़ गया। खिड़कियाँ बंद की जाने लगीं, दरवाज़ों पर कुंडियाँ चढ़ा दी गईं, और औरतों ने बच्चों को अपने आँचल में छुपा लिया। लेकिन डर जितना छुपाने की कोशिश की जाए, उतना ही गहरा हो जाता है। बरगद की डालियों से चूड़ियों की खनक और साफ़ सुनाई देने लगी, और कुछ लोगों ने खिड़की की झिरी से देखा—पेड़ की शाखाएँ हिल नहीं रहीं, पर उनमें से जैसे कोई अदृश्य हाथ झूल रहा हो। तभी अचानक गाँव के एक युवक ने चिल्लाते हुए कहा कि उसने बरगद की जड़ों के पास कुछ अजीब देखा। गाँव के दो-चार बहादुर लोग लालटेन लेकर वहाँ पहुँचे। जैसे ही उनकी रोशनी पेड़ की जड़ों पर पड़ी, सबकी रूह काँप गई—मिट्टी के बीच से धीरे-धीरे एक सफेद, बेहद पतला और लंबा हाथ बाहर निकल रहा था। वह हाथ काँपते हुए ऊपर की ओर खिंच रहा था, मानो ज़मीन के भीतर दबा कोई जीवित इंसान बाहर आने की कोशिश कर रहा हो। उसकी उंगलियों में टूटी हुई चूड़ियों के टुकड़े चमक रहे थे।

लोग स्तब्ध रह गए—कुछ चीखकर भाग गए, तो कुछ वहीं जमीन पर गिर पड़े। जिन्होंने वह दृश्य देखा, उनकी आँखों में जीवन भर के लिए भय अंकित हो गया। कोई यह समझ नहीं पा रहा था कि यह वास्तविकता थी या आँखों का धोखा, पर चूड़ियों की झंकार इतनी तेज़ थी कि कान बंद करने पर भी वह भीतर गूँज रही थी। उसी क्षण, पेड़ की छाया लंबी होकर गाँव की ओर फैलने लगी, मानो वह धीरे-धीरे सबको अपनी गिरफ्त में लेना चाहती हो। दूर खड़े कुछ लोगों ने कहा कि उन्होंने उस हाथ को हिलते हुए देखा, जैसे वह किसी को इशारे से बुला रहा हो। डर का माहौल इतना गाढ़ा हो गया कि लोगों ने कुछ भी करने की हिम्मत छोड़ दी। अंततः सब अपने-अपने घरों में दुबक गए और खामोशी में रात बिताने लगे। लेकिन उस रात किसी ने भी चैन की नींद नहीं ली। सुबह की पहली किरण के साथ गाँव फिर शांत दिखा, पर हर कोई जानता था कि शांति केवल छलावा है। बरगद अब भी वहीं खड़ा था, और उसकी जड़ों में दबा वह रहस्य अधूरा था। कहानी यहीं थम जाती है, पर यह प्रश्न हमेशा जीवित रहता है—क्या चुड़ैल सचमुच खत्म हुई थी, या वह अब भी अपनी चूड़ियों की खनक से किसी नए शिकार का इंतज़ार कर रही है?

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