Hindi - प्रेतकथा

बरगद का वादा

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गाँव से ज़रा हटकर, कच्ची पगडंडी के किनारे, खेतों और बंजर ज़मीन के बीच खड़ा था एक विशाल बरगद का पेड़। उसकी जटाएँ धरती से लटककर साँपों की तरह रेंगती थीं और उसका फैलाव इतना था कि बरसात के दिनों में आधा गाँव उसकी छाँव में आ सकता था। लेकिन यह छाँव गाँववालों के लिए सुकून नहीं, बल्कि डर का पर्याय थी। पेड़ के चारों ओर का इलाक़ा वीरान और सुनसान पड़ा रहता; न कोई पशु पास आता, न कोई इंसान। कहते थे कि बरगद के पत्तों की सरसराहट भी आम हवा की तरह नहीं, बल्कि किसी की फुसफुसाहट जैसी लगती है। खासकर अमावस्या की रात, जब चारों ओर घुप्प अँधेरा छा जाता, तब उस बरगद से अजीब आवाज़ें आतीं—कभी किसी औरत के रोने जैसी, कभी किसी के नाम पुकारने जैसी। गाँव के लोग अक्सर अपने बच्चों को चेतावनी देते कि अंधेरा होते ही उस तरफ़ पाँव न बढ़ाना, वरना बरगद की जटाएँ किसी अनदेखी ताक़त की तरह पकड़ लेंगी। लेकिन बच्चों के मन में हमेशा वही सवाल रहता—क्या सचमुच कोई आत्मा वहाँ रहती है या यह बस बड़ों का डराने का तरीका है?

ऐसे ही एक रात, जब चाँद अमावस्या के कारण बिल्कुल गायब था, और आकाश घने बादलों से घिरा था, तब गाँव के बुज़ुर्ग रामदीन चौपाल पर बैठे बच्चों को बरगद की कहानी सुना रहे थे। उनकी झुर्रियों भरी आवाज़ में अनुभव और डर की मिली-जुली गूँज थी। उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “यह कोई साधारण पेड़ नहीं है। इस पेड़ की जड़ों में एक औरत की अधूरी कहानी दबी है। कहते हैं, कई साल पहले एक औरत की मौत यहीं बरगद के नीचे हुई थी। उसकी आत्मा आज भी यहाँ भटकती है और जो कोई उसके सामने जाता है, उससे वादा मांगती है। और अगर कोई उस वादे को तोड़ दे, तो वह जीवित नहीं बचता।” बच्चे चौकन्ने होकर उनकी आँखों में झाँकने लगे, और उनकी कल्पना में बरगद की शाखाएँ किसी राक्षसी रूप में फैलने लगीं। कुछ बच्चे भयभीत होकर अपनी माँओं की गोद में दुबक गए, तो कुछ रोमांचित हो उठे। चौपाल का वातावरण रहस्यमय हो गया—ठंडी हवा का झोंका चला और लालटेन की लौ काँप उठी, मानो किसी अदृश्य उपस्थिति ने उस पल को और भयावह बना दिया हो।

लेकिन इस सबके बीच बैठा अरविन्द मुस्कुराता रहा। लगभग अट्ठाईस साल का यह युवक खेतों में काम करने वाला, मेहनती और पढ़ा-लिखा था। उसे गाँव की कहानियाँ हमेशा अंधविश्वास लगती थीं। वह बुज़ुर्ग रामदीन की बातों को सुनते हुए बोला, “बाबा, ये सब बस लोगों को डराने की बातें हैं। अगर सच में आत्मा होती तो अब तक गाँव में कितने ही लोग मर गए होते। मैंने तो खुद दिन में उस बरगद के पास जाकर आराम किया है।” बाकी गाँववाले उसकी हिम्मत देखकर हैरान थे, लेकिन भीतर ही भीतर डरते थे कि कहीं उसकी यह अवज्ञा किसी अनहोनी को न बुला ले। रामदीन ने गहरी साँस लेते हुए उसे देखा और कहा, “बेटा, तू पढ़ा-लिखा है, लेकिन कुछ बातें किताबों से नहीं सीखी जा सकतीं। उस बरगद की जड़ों में जो दबा है, वह सच्चाई है, कहानी नहीं। आज तू मज़ाक उड़ा रहा है, कल जब आत्मा तुझसे वादा माँगेगी, तब समझेगा।” अरविन्द ने हँसते हुए सिर हिला दिया, लेकिन उसके मन में भी एक हल्की बेचैनी उतर चुकी थी। उस रात जब वह घर लौटा, तो खिड़की से दूर खड़े बरगद की परछाई अँधेरे में किसी स्त्री की आकृति जैसी लग रही थी—जैसे वह उसकी ओर देख रही हो और किसी अनकहे वादे की प्रतीक्षा कर रही हो।

रामदीन ने चौपाल पर बैठे अरविन्द और कुछ युवकों को गंभीर स्वर में देखते हुए अपनी बात शुरू की। उनकी आँखों में वर्षों का डर और एक दबा हुआ राज झलक रहा था। उन्होंने धीरे-धीरे कहना शुरू किया—“यह कहानी बहुत पुरानी है, जब मैं भी जवान था। हमारे गाँव में एक औरत रहती थी—सावित्री। वह सिर्फ़ सुंदर ही नहीं थी, बल्कि बेहद दयालु और मददगार भी थी। उसका चेहरा हमेशा मुस्कान से भरा रहता था। किसी को बीमारी हो या किसी के घर दुःख, सावित्री सबसे पहले वहाँ पहुँचती। वह खेतों में काम करनेवालों को पानी पिलाती, भूखे बच्चों को रोटी खिलाती, और बुज़ुर्गों का आदर करती। उसकी यह निश्छलता ही गाँव में उसे सबसे प्रिय बना चुकी थी। लेकिन कहते हैं न, जहाँ रोशनी होती है वहाँ अँधेरा भी पीछा करता है। सावित्री का सौंदर्य और उसकी भलाई गाँव के कुछ लालची और कुटिल लोगों की आँखों में चुभने लगी। वे चाहते थे कि सावित्री उनकी बात माने, उनकी संपत्ति और ज़मीन पर अधिकार दिला दे, लेकिन सावित्री ने कभी अन्याय का साथ नहीं दिया। उसी जिद्द ने उसकी ज़िंदगी छीन ली। रामदीन की आवाज़ धीमी हो गई, मानो वह खुद उस घटना को फिर से जी रहे हों। वह बोले—“एक अमावस्या की रात, सावित्री को छल से गाँव के बाहर इस बरगद तक बुलाया गया। उसने सोचा कि कोई बीमार है या किसी को मदद चाहिए। लेकिन वहाँ उसके इंतज़ार में वे लोग थे जिन्होंने उसके भलेपन को ही उसकी कमजोरी बना दिया। उन्होंने उसी बरगद की जटाओं में सावित्री का गला घोंट दिया। कहते हैं, उस वक़्त सावित्री ने किसी से एक वादा लिया था—कि सच सबके सामने आएगा, और उसका विश्वास कभी टूटा नहीं रहेगा। लेकिन वह वादा अधूरा रह गया… और उसी अधूरे वादे ने उसकी आत्मा को बरगद की जड़ों से बाँध दिया।”

अरविन्द और बाकी युवक चुपचाप यह सब सुनते रहे। हवा में एक अजीब सी ठंडक उतर आई थी। रामदीन आगे बोले—“उस रात जब सावित्री की चीखें हवा में घुलीं, पूरा गाँव सिहर उठा था। लेकिन कोई बाहर निकलने की हिम्मत नहीं कर सका। अगले दिन जब लोग बरगद के नीचे पहुँचे, तो वहाँ खून के निशान मिट चुके थे, और सिर्फ़ ज़मीन पर गीली मिट्टी थी। किसी ने कभी उसका शव नहीं देखा। लेकिन उसके बाद से हर अमावस्या की रात बरगद के नीचे खून जैसे अक्षर उभरने लगे—मानो कोई लिख रहा हो: ‘वादा निभाओ।’ शुरुआत में लोगों ने सोचा कि यह उनका भ्रम है, लेकिन धीरे-धीरे जब गाँव के दो-तीन लोग इस पेड़ के पास आकर अनजाने में कोई वादा कर बैठे और अगले ही दिनों में रहस्यमय मौत का शिकार हुए, तब सबको समझ आ गया कि सावित्री की आत्मा अब न्याय चाहती है। वह अब सिर्फ़ एक आत्मा नहीं रही, बल्कि उस अधूरे वादे का प्रतीक बन गई। उसका दर्द यही है कि उसने आखिरी साँसों में भरोसा किया, मगर इंसानियत ने उसे धोखा दिया। उसकी आत्मा न किसी को सीधे नुकसान पहुँचाती है, न किसी से दुश्मनी रखती है। वह बस एक ही चीज़ माँगती है—वादा। लेकिन जिसने वादा किया, उसके लिए फिर पीछे हटना नामुमकिन हो जाता है। क्योंकि सावित्री का श्राप यही है कि जो उसके विश्वास को तोड़ेगा, वह जीते जी कभी चैन नहीं पाएगा।”

अरविन्द की आँखों में हल्की बेचैनी तैर गई। उसे लगा कि वह अब तक जो कुछ अंधविश्वास मानता था, उसमें कहीं न कहीं सच्चाई छिपी है। उसने रामदीन से पूछा, “लेकिन बाबा, आखिर क्यों सावित्री सिर्फ़ वादा ही मांगती है? क्यों नहीं वह अपने हत्यारों को खुद सज़ा देती?” रामदीन ने गहरी साँस लेकर कहा—“क्योंकि उसके जीवन का सार ही विश्वास और वादा था। उसने जिस पर भरोसा किया, उसने उसे धोखा दिया। अब वह हर इंसान में वही अधूरा भरोसा खोजती है। उसका दुख यह है कि उसके आखिरी शब्द हवा में खो गए, पूरा नहीं हो सके। यही कारण है कि उसकी आत्मा हर नए इंसान से चाहती है कि वह उसके लिए वादा करे और उसे पूरा करके उसके दर्द को हल्का करे। मगर सच यह है कि गाँव के लोग उस पर भरोसा करने से डरते हैं। वे जानते हैं कि अगर किसी ने वादा किया और निभा न सका, तो मौत उसकी छाती पर पंजा गाड़कर उसे खींच ले जाएगी।” कहते-कहते रामदीन की आँखें नम हो गईं। उनकी आवाज़ काँप रही थी। पास बैठे युवक एक-दूसरे की ओर देख रहे थे, और हवा में बरगद की डालियों की सरसराहट सुनाई दे रही थी—मानो सावित्री की आत्मा अभी भी वहाँ मौजूद हो और किसी नए वादे का इंतज़ार कर रही हो। अरविन्द ने हल्का सा काँपते हुए अपने भीतर एक नई जिज्ञासा महसूस की—शायद यह कहानी अंधविश्वास नहीं, बल्कि उस औरत की करुण पुकार है, जो अब भी अधूरी रह गई है।

अमावस्या की रात थी, और पूरा गाँव जैसे किसी अनजाने भय में डूबा हुआ था। आकाश में एक भी तारा नहीं चमक रहा था, बादलों ने चाँद को पूरी तरह निगल लिया था। हवा में एक अजीब सी नमी थी, मानो बारिश होने वाली हो, लेकिन न बादल गरज रहे थे, न बिजली चमक रही थी। अरविन्द, अपनी आदत के मुताबिक़ सबको गलत साबित करने की ठान चुका था। वह कुछ युवकों—गणेश, मोहन और बलराम—को साथ लेकर गाँव की चौपाल से धीरे-धीरे बरगद की ओर बढ़ा। रास्ते में सिर्फ़ लालटेन की पीली लौ थी, जो बार-बार काँप रही थी। जैसे-जैसे वे पेड़ के करीब पहुँचते, हवा ठंडी और भारी होती जा रही थी। दूर से ही बरगद की काली आकृति किसी दैत्य की तरह खड़ी दिखाई दे रही थी—उसकी जटाएँ ज़मीन को छू रही थीं और परछाइयाँ लंबी-लंबी उँगलियों की तरह हिल रही थीं। गाँव की चुप्पी, कुत्तों का अचानक रोना और खेतों से आती सीटी जैसी हवा, सब मिलकर एक ऐसा माहौल बना रहे थे जिसमें दिल की धड़कनें साफ़ सुनाई देने लगीं। गणेश ने धीरे से कहा, “मुझे ठीक नहीं लग रहा अरविन्द… चलो वापस चलते हैं।” लेकिन अरविन्द ज़िद में बोला, “आज सच और झूठ का फैसला होना ही चाहिए।”

जैसे ही वे बरगद के पास पहुँचे, अचानक तेज़ ठंडी हवा का झोंका आया। लालटेन की लौ एकदम बुझ गई और अँधेरा चारों ओर छा गया। पेड़ की शाखाएँ और जटाएँ ऐसे हिल रही थीं मानो कोई अदृश्य ताक़त उन्हें झकझोर रही हो। उसी समय ज़मीन पर, बरगद की जड़ों के पास, लाल रंग के अक्षर उभरने लगे। वे धीरे-धीरे मिट्टी पर फैल रहे थे—मानो किसी ने ताज़े खून से लिखा हो। अक्षरों का आकार बड़ा और डरावना था: “वादा निभाओ…” मोहन की आवाज़ काँप गई, “देखो… ये तो सच है।” बलराम पीछे हटने लगा, उसकी साँसें तेज़ हो रही थीं। लेकिन अरविन्द उन अक्षरों को देखकर वहीं जड़ हो गया। उसका मन कह रहा था कि यह सब धोखा है, लेकिन उसकी आँखें साफ़-साफ़ देख रही थीं कि मिट्टी पर लालिमा फैल रही है। उसी पल पेड़ के तने के पास धुंध का एक गुबार उठा, और धीरे-धीरे उसमें एक स्त्री की आकृति बनने लगी। उसके बाल बिखरे हुए थे, चेहरा धुँधला था, पर उसकी आँखें आग की तरह चमक रही थीं। उसका शरीर पारदर्शी था, मानो हवा में घुला हो। उसकी उपस्थिति से हवा भारी हो गई, और युवकों के शरीर में सिहरन दौड़ गई।

अरविन्द की आँखें उस धुँधली महिला-आकृति पर टिक गईं। उसे लगा कि वह आकृति उसे ही घूर रही है, जैसे उसकी आत्मा में झाँक रही हो। हवा में एक धीमी आवाज़ गूँजने लगी—धीमी पर साफ़, जो बरगद की हर शाख से उतरती हुई प्रतीत हो रही थी: “वादा करो… वादा निभाओ…” बाकी युवक घबराकर भाग खड़े हुए, लेकिन अरविन्द वहीं खड़ा रहा। उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था, पर पाँव जैसे ज़मीन में गड़ गए हों। उसकी आँखों के सामने सावित्री का चेहरा उभरने लगा—पहले एक मासूम स्त्री का चेहरा, फिर एक पीड़ित औरत का, और अंत में एक ऐसी आत्मा का, जो अधूरे विश्वास से बँधी हुई थी। अचानक पेड़ की एक जटा लहराकर अरविन्द के हाथ से छू गई और उसकी त्वचा पर जलन सी उठी। जब उसने हाथ देखा तो वहाँ खून जैसी लाल रेखा खिंची हुई थी। यह किसी साधारण खरोंच की तरह नहीं, बल्कि किसी अज्ञात अनुबंध की मुहर जैसी थी। अरविन्द काँपते हुए पीछे हटने लगा, लेकिन उसकी आँखों में साफ़ लिखा था कि यह अनुभव उसकी पूरी ज़िंदगी बदल देगा। उस रात, पहली बार उसे महसूस हुआ कि बरगद की कहानियाँ सिर्फ़ अंधविश्वास नहीं थीं—वहाँ सचमुच कुछ था, कुछ ऐसा जो इंसान और मृत्यु के बीच के वादे से बँधा हुआ था।

अरविन्द अंधेरे कमरे में अकेला खड़ा था, चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा हुआ था। खिड़कियों से आती हवा सरसराहट की आवाज़ कर रही थी, मानो कोई अनदेखी शक्ति धीरे-धीरे पास आ रही हो। उसकी सांसें भारी हो चुकी थीं, दिल की धड़कनें कानों में गूंज रही थीं। अचानक दीवार के पास एक धुंध-सी आकृति बनने लगी। यह वही आत्मा थी जिसे अरविन्द पिछले कुछ दिनों से महसूस करता आ रहा था—एक छाया, एक अनजानी उपस्थिति, लेकिन अब वह पूरी तरह सामने आ चुकी थी। चेहरे पर पीड़ा का भाव, आँखों में असीम रिक्तता, और आवाज़ में एक बेचैन पुकार। आत्मा ने धीमे स्वर में कहा—“अरविन्द, मेरी अधूरी प्रतिज्ञा तुम पूरी करोगे?” इस सवाल ने अरविन्द को भीतर तक हिला दिया। उसके होंठ कांपे, वह डर और असमंजस से भर उठा, पर भीतर कहीं उसे लगा कि इस आत्मा का दुख और अधूरापन सच्चा है। डर की लहरों के बावजूद उसके भीतर का इंसान जवाब दे बैठा—“हाँ… मैं करूँगा।”

जैसे ही यह शब्द उसके होंठों से निकले, आत्मा का चेहरा बदल गया। वहाँ कुछ क्षण के लिए संतोष की झलक दिखी, लेकिन उसी पल आत्मा उसके पास और नज़दीक आ गई। ठंडी हवा का झोंका कमरे में फैला, और अरविन्द ने महसूस किया कि उसकी कलाई पर एक जलन-सी होने लगी है। उसने नीचे देखा तो पाया कि आत्मा ने अपने रक्तरंजित उंगलियों से उसकी हथेली को छू लिया है। खून की तरह लाल एक प्रतीक—एक अजीब, प्राचीन चिन्ह—उसकी त्वचा पर उभर आया। अरविन्द दर्द से कराह उठा, लेकिन आवाज़ बाहर नहीं निकल सकी। वह समझ गया कि यह कोई साधारण निशान नहीं है, बल्कि एक वचन का बंधन है—एक वादा जिसे अब वह तोड़ नहीं सकता। आत्मा ने धीमी, ठंडी आवाज़ में कहा—“अब यह प्रतिज्ञा केवल तुम्हारी नहीं रही। तुम्हारा जीवन, तुम्हारी सांसें इस वचन से बंध चुकी हैं। जब तक यह अधूरा कार्य पूरा नहीं होगा, तब तक यह निशान तुम्हें याद दिलाता रहेगा।”

अरविन्द ने कांपते हुए अपनी हथेली पर बने निशान को देखा। वह चमक रहा था, मानो अंगारों की तरह जलता हो। उस पर नज़र डालते ही उसके मन में अजीब दृश्य उभरने लगे—खून से सने रास्ते, अधूरी रस्में, किसी स्त्री की चीखें, और एक टूटा हुआ मंदिर। वह घबराकर पीछे हट गया, लेकिन दृश्य उसकी आँखों में चिपके रहे। आत्मा धीरे-धीरे धुंध में विलीन होने लगी, लेकिन जाते-जाते उसकी आवाज़ कमरे में गूंजती रही—“वादा मत भूलना, अरविन्द। यह निशान गवाही देगा, यह वचन तुम्हें चैन से जीने नहीं देगा, जब तक कि मैं मुक्त न हो जाऊँ।” सन्नाटा लौट आया, लेकिन अरविन्द अब पहले जैसा नहीं था। उसकी हथेली में जलता हुआ चिन्ह यह बता रहा था कि उसके जीवन की दिशा बदल चुकी है। अब यह केवल उसकी कहानी नहीं थी—यह उस आत्मा की अधूरी प्रतिज्ञा की भी कहानी बन चुकी थी।

अरविन्द जब घर लौटा तो उसके कदमों में अजीब-सी थकान थी। माथे पर पसीना था, आँखों में बेचैनी और हाथ पर गहरा नीला-सा निशान, मानो किसी ने वहाँ गरम लोहे से दबाकर जलाया हो। दरवाज़ा खोलते ही उसकी पत्नी राधा ने उसे देखा और चीख उठी—“अरविन्द! ये क्या हुआ तुम्हारे हाथ को?” उसकी आवाज़ में भय और चिंता दोनों घुली हुई थीं। अरविन्द ने पहले तो बहाना बनाने की कोशिश की—“कुछ नहीं, बस जंगल में एक पत्थर से टकरा गया था।” लेकिन उसकी आँखों की घबराहट, और शरीर की काँपती हुई नसें, यह बता रही थीं कि सच्चाई कुछ और है। राधा ने उसका हाथ पकड़ा तो उसे लगा जैसे यह ठंडे बर्फ से भी ठंडा है। कमरे में सन्नाटा छा गया, दीवार की घड़ी की टिक-टिक और बाहर किसी कुत्ते के भौंकने की आवाज़ उस डर को और गहरा कर रही थी। राधा ने कुछ देर उसे घूरा और फिर सीधे शब्दों में कहा—“अरविन्द, यह साधारण चोट नहीं है। बताओ, रात को उस श्मशान में क्या हुआ?” अरविन्द ने नज़रें झुका लीं, उसके होंठ काँपने लगे। उसने मन ही मन सोचा, क्या वह सच बता दे—कि सावित्री की आत्मा सचमुच उसके सामने आई थी और उससे वादा ले चुकी थी?

राधा की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उसने झटपट पड़ोस में रहने वाले पंडित हरिराम को बुलाने का निश्चय किया। पंडित जी गाँव में सबसे अधिक श्रद्धा और भय के पात्र थे—उनकी बातें लोग आँख मूँदकर मानते थे। थोड़ी देर बाद पंडित हरिराम आए, सफ़ेद धोती, गले में तुलसी की माला और माथे पर गेरुए तिलक के साथ। जैसे ही उन्होंने अरविन्द के हाथ पर निशान देखा, उनकी आँखें फैल गईं। उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा—“यह साधारण घाव नहीं है। यह उस पार की छाया का चिन्ह है। सावित्री ने तुझसे वादा लिया है, अरविन्द। अब चाहे तू माने या न माने, तुझे वह निभाना ही होगा।” राधा हतप्रभ खड़ी रह गई। उसके होंठ सूख गए, आँखें डबडबा उठीं—“पंडित जी, अगर अरविन्द ने वादा पूरा न किया तो?” पंडित जी का चेहरा गंभीर हो उठा। उन्होंने धीमी आवाज़ में कहा—“तो मौत तय है। ऐसी आत्माएँ धोखा सहन नहीं करतीं। वे हर हालत में अपना हिसाब पूरा करती हैं।” यह सुनते ही कमरे में ठंडी हवा-सी फैल गई, मानो किसी ने अदृश्य रूप से वहाँ अपनी मौजूदगी जताई हो। राधा का पूरा शरीर काँपने लगा और उसने अरविन्द का हाथ कसकर पकड़ लिया।

अरविन्द के भीतर मानो तूफ़ान मच गया। वह सोच में पड़ गया—क्या यह सब सच है? या यह उसका वहम है? लेकिन हाथ का जलता हुआ निशान उसे बार-बार याद दिला रहा था कि उसने वास्तव में उस रात कुछ ऐसा अनुभव किया था, जिसे नकारना असंभव है। उसने पंडित जी से काँपती आवाज़ में पूछा—“पर मैं क्या करूँ? मैं किस रास्ते जाऊँ? यह वादा तो मैंने मजबूरी में किया था। मैं उसे कैसे निभाऊँ?” पंडित जी ने आँखें मूँदकर गहरी साँस ली और कहा—“जिससे वादा किया है, उसे निभाना ही होगा। आत्माएँ इंसानों से ज्यादा कठोर होती हैं। तुझे सावित्री की आत्मा को शांति देनी होगी, नहीं तो वह तुझे चैन से जीने नहीं देगी।” अरविन्द वहीं बैठ गया, उसका चेहरा पसीने से भीग चुका था। उसे लग रहा था जैसे कमरे की दीवारें धीरे-धीरे सिकुड़कर उसे घेर रही हैं। राधा की आँखों से आँसू बह रहे थे, लेकिन उसने अपने पति के कंधे पर हाथ रखकर कहा—“तुम अकेले नहीं हो, मैं तुम्हारे साथ हूँ। लेकिन हमें सच का सामना करना ही होगा।” उस रात अरविन्द देर तक जागता रहा, खिड़की से बाहर घना अंधेरा उसे घूरता रहा और उसके कानों में मानो बार-बार वही आवाज़ गूँजती रही—“तुमने वादा किया है, अरविन्द… अब पीछे नहीं हट सकते।” डर और शंका ने उसकी आत्मा को पूरी तरह जकड़ लिया था।

राधा की नींद अब सामान्य नहीं रही थी। रात ढलते ही उसे बार-बार वही सपना सताने लगता था, जिसमें सावित्री उसके सामने खड़ी होती—बिखरे बालों में मिट्टी, आँखों में आँसू और ओठों पर एक दबा हुआ आर्तनाद। सपने में सावित्री की आवाज़ टूटती-सी सुनाई देती—“राधा, मेरा वादा पूरा करो… मुझे इंसाफ दिलाओ।” राधा कभी डरकर जाग जाती, कभी अपने माथे पर पसीना लिए हाँफने लगती। उसे लगता मानो यह सपना नहीं, बल्कि सावित्री की आत्मा सीधा उससे संवाद कर रही है। सपनों में वह अक्सर वही दृश्य देखती—एक अंधेरी पगडंडी, पीपल के नीचे किसी का छुपकर मिलना, और फिर सावित्री की चीख। धीरे-धीरे धुंध साफ़ होती और राधा को समझ में आने लगता कि उस रात सावित्री के साथ कुछ भयानक घटा था। पर सपने का सबसे डरावना हिस्सा तब आता जब सावित्री अपने गले की ओर इशारा करती, मानो बताना चाहती हो कि उसका गला घोंटा गया था, और फिर अचानक अंधकार में गायब हो जाती। राधा के भीतर बेचैनी बढ़ने लगी—क्या यह उसका भ्रम था या सचमुच सावित्री उसके ज़रिए अपनी हत्या का सच उजागर करना चाहती थी?

इन सपनों के साथ ही राधा की दिनचर्या भी बदलने लगी। खेत में काम करते समय, कुएँ से पानी भरते वक्त या मंदिर जाते हुए भी उसे लगता कोई उसके कान में फुसफुसा रहा है। कभी अचानक उसे सावित्री की हँसी सुनाई देती, तो कभी उसकी रुलाई। इन संकेतों को राधा अब अनदेखा नहीं कर पा रही थी। सपनों के अंश धीरे-धीरे एक कहानी बुनने लगे थे—सावित्री ने किसी पर भरोसा किया था, जिसने उसे धोखा दिया। राधा ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा पूरी तरह साफ़ नहीं था, पर उसके पहनावे, चाल-ढाल और आवाज़ से यह साफ था कि वह गाँव का ही कोई आदमी था। उसे पगड़ी और कमर में लटकती लोहे की चाबी साफ दिखाई दी। राधा ने सोचा—गाँव में कौन है जो हमेशा कमर में चाबी रखता है? उसकी नज़र तुरंत गाँव के चौकीदार माधव पर पड़ी, फिर उसे याद आया कि चौधरी के नौकर भी अक्सर ऐसी चाबी रखते हैं। इन सुराग़ों से राधा का दिमाग़ उलझता गया। वह किसी को सीधे शक़ के घेरे में नहीं डालना चाहती थी, पर इतना तय था कि सावित्री की मौत कोई साधारण हादसा नहीं थी, बल्कि योजनाबद्ध हत्या थी। सपने उसे सच की ओर खींच रहे थे, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसे इस रहस्य से पर्दा उठाने के लिए मजबूर कर रही हो।

दिन बीतते-बीतते राधा ने सपनों को जोड़कर समझने की कोशिश शुरू कर दी। वह मंदिर में घंटों बैठकर सावित्री की आत्मा से संवाद करने का प्रयास करती। कभी उसे लगता कि हवा का झोंका जवाब दे रहा है, कभी पीपल के पत्तों की सरसराहट से कोई संकेत मिल रहा है। धीरे-धीरे सपनों में और स्पष्ट तस्वीरें उभरने लगीं—सावित्री को गाँव के बाहर खेत की मेड़ पर बुलाया गया था, वहाँ उसका भरोसेमंद कोई पहले से मौजूद था। वह इंसान पहले तो मीठी बातें करता, फिर अचानक उसका चेहरा कठोर हो उठता। सावित्री डरकर पीछे हटने लगती, लेकिन तभी उसका रास्ता रोक लिया जाता और गला दबा दिया जाता। राधा की आत्मा कांप उठी। उसने ठान लिया कि अब चुप रहना अपराध होगा। उसने निश्चय किया कि चाहे जो भी हो, वह सच उजागर करेगी। उसे यह भी आभास हो गया था कि कातिल गाँव का ही कोई जाना-पहचाना चेहरा है, जो दिन में साधारण इंसान की तरह सबके बीच घुलता-मिलता है, लेकिन रात के अंधेरे में उसने ऐसा घृणित काम किया। राधा जानती थी कि इस राज़ को सामने लाने के लिए उसे सावधान रहना होगा, क्योंकि सच का सामना करने से पहले ही झूठ उसे कुचलने की कोशिश करेगा। सपनों ने उसके भीतर एक नई आग जला दी थी—अब यह उसकी ज़िम्मेदारी थी कि सावित्री के रोते हुए शब्दों को पूरा करे और उसके खून का बदला दिलाए।

गाँव का सच, धीरे-धीरे अपने रहस्य खोलता है। रामदीन बुज़ुर्ग, जिनके चेहरे पर समय की लकीरें और अनुभव की गहराई झलकती है, अरविन्द को अपने घर के बरामदे में बिठाकर सच बताते हैं। उन्होंने जैसे ही शुरुआत की, वातावरण में एक अजीब सी गंभीरता फैल गई। रामदीन कहते हैं कि सावित्री का प्रेमी, जो गाँव में ही रहता था, और कुछ लालची लोग मिलकर एक षड़यंत्र रचते हैं। उनका मकसद सिर्फ़ प्यार या ईर्ष्या नहीं था, बल्कि गाँव की सबसे अच्छी ज़मीन हड़पना था। सावित्री, जो अपनी ईमानदारी और साहस के लिए जानी जाती थी, उनकी योजनाओं को विफल कर सकती थी। इसलिए उन्होंने उसे बरगद के विशाल पेड़ के नीचे मारकर दफ़न कर दिया। रामदीन की आवाज़ में वह ठंडी गंभीरता थी, जो अरविन्द को भीतर तक हिला देती थी। उन्होंने बताया कि इस हत्या की खबर गाँव के अधिकांश लोगों को थी, लेकिन भय और शक्ति के डर से किसी ने भी मुख खोला। गाँव की छोटी-छोटी गलियों और कुहासा भरे रास्तों में अब तक यह रहस्य छुपा हुआ था, और यह सच केवल बुज़ुर्गों के अनुभव और यादों में जीवित था। अरविन्द को यह सुनकर यह अहसास हुआ कि कितने लोग चुप्पी साधकर बुराई का हिस्सा बन जाते हैं, और कैसे भय न्याय की राह में बाधा बन सकता है।

रामदीन बुज़ुर्ग ने और विस्तार से बताया कि सावित्री की हत्या के बाद गाँव में कई लोग डर के मारे सामान्य जीवन जीने लगे। सावित्री के प्रेमी ने भी अपना चेहरा बदल लिया और गाँव से दूर जाने की योजना बनाई। लालची लोग, जो जमीन के स्वामी बनना चाहते थे, धीरे-धीरे अपने मकसद में सफल हो गए। लेकिन रामदीन कहते हैं कि गाँव की मिट्टी हमेशा सच को जानती है, और वह सच समय आने पर सामने आता ही है। उन्होंने अरविन्द से कहा कि सावित्री की आत्मा अब भी न्याय की आस में है। उसकी यादें गाँव की हवाओं में, बरगद की पत्तियों में, और उन गलियों में जिनमें वह कभी घूमती थी, जीवित हैं। यह सुनकर अरविन्द का मन गहरे भावों से भर गया। उसे समझ में आने लगा कि सावित्री केवल अपनी हत्या का बदला नहीं चाहती, बल्कि वह यह देखना चाहती है कि गाँव के लोग अब भी सही और न्याय के लिए खड़े हो सकते हैं या नहीं। रामदीन की बातें अरविन्द के भीतर एक आग जगा देती हैं—वह महसूस करता है कि अब समय आ गया है जब वह अपने प्रयासों से इस लंबे समय से छुपे हुए अपराध को उजागर करेगा।

अरविन्द अब पूरी तरह समझ चुका था कि सावित्री की इच्छा न्याय पाने की है। वह महसूस करता है कि उसके कदम केवल एक व्यक्तिगत खोज नहीं हैं, बल्कि यह गाँव की संस्कृति, उसकी नैतिकता और सामाजिक ढाँचे के लिए भी महत्वपूर्ण हैं। उसने देखा कि गाँव के लोग डर की छाया में वर्षों से चुप्पी साधे हुए थे, और सच की रोशनी अब तक उनके जीवन में प्रवेश नहीं कर पाई थी। अरविन्द का मन सावित्री के प्रति गहरी सहानुभूति से भरा था, और वह ठान लेता है कि वह उसके हत्यारों को बेनकाब करेगा। रामदीन बुज़ुर्ग ने उसे चेतावनी भी दी कि इस रास्ते में चुनौतियाँ बहुत होंगी, और उसे अकेले ही साहस और धैर्य के साथ आगे बढ़ना होगा। अरविन्द ने अपने दिल में संकल्प लिया कि वह सावित्री के लिए न्याय लाएगा, चाहे उसे कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न सहनी पड़े। गाँव का सच अब उसके सामने था, और वह इस सच को छुपने नहीं देगा। यह अध्याय न केवल सावित्री के जीवन और उसके अधूरे सपनों का खुलासा करता है, बल्कि अरविन्द के भीतर न्याय के प्रति जागरूकता और दृढ़ निश्चय को भी उजागर करता है, जो आगे की कहानी में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाने वाला है।

रक्त का संकेत, अरविन्द के जीवन में एक नई, भयावह और रहस्यमय घटना लेकर आता है। अमावस्या की रात, जब अंधेरा गाँव के हर कोने में गहरा हो चुका था, अरविन्द की नींद में वही जिज्ञासु और विचलित करने वाली आवाज़ फिर सुनाई देती है। सावित्री की आत्मा, जिसने पहले भी उसे चेताया था, अब और भी स्पष्ट और जोर से उसके कानों में गूंजती है। वह उसे बरगद के पेड़ के नीचे आने के लिए कहती है। अरविन्द डर और उत्सुकता के मिश्रित भावों के साथ पेड़ के पास जाता है। वहाँ उसने देखा कि पिछले बार की तुलना में कुछ अधिक भयावह दृश्य सामने था: पेड़ की जड़ें और मिट्टी में खून से लिखे अक्षरों की आकृति बदल गई थी। पहले केवल संकेत के रूप में दिखाई देने वाले अक्षर अब स्पष्ट शब्दों में बदल गए थे—“सच उजागर करो।” अरविन्द के भीतर भय और दायित्व की भावनाएँ आपस में संघर्ष कर रही थीं। उसे महसूस हुआ कि अब केवल रहस्य जानना पर्याप्त नहीं है; उसे कदम बढ़ाकर न्याय की राह पर चलना ही होगा। रात की ठंडी हवाओं में खून की लालिमा और पेड़ की चुप्पी उसे भीतर तक हिला देती है। यह संकेत केवल एक संदेश नहीं था, बल्कि सावित्री की आत्मा की निरंतर पुकार और न्याय की अनकही मांग थी।

अगले दिन अरविन्द ने गाँव की पंचायत में अपनी पूरी हिम्मत के साथ यह घटना साझा करने का निर्णय लिया। उसने गाँव के बुज़ुर्गों और पंचायत के सदस्यों को विस्तार से बताया कि अमावस्या की रात उसे सावित्री की आत्मा ने बुलाया और बरगद के नीचे खून से लिखे अक्षर उसे सच बताने को कह रहे हैं। उसने सावित्री की हत्या, लालची लोगों की मंशा और गाँव के लोगों की चुप्पी के बारे में भी खुलकर कहा। पंचायत में कुछ लोग चौंक गए, कुछ सहम गए, और कुछ ने अरविन्द की बातें पर संदेह भी किया। लेकिन अरविन्द ने अपने विश्वास और साहस से सबके सामने यह स्पष्ट कर दिया कि यह केवल अंधविश्वास नहीं, बल्कि वास्तविकता थी, जो वर्षों से दबे हुए अपराध को उजागर करने के लिए सामने आई थी। पंचायत के वातावरण में मिश्रित भावनाएँ व्याप्त थीं—डर, गुस्सा, और अधीरता का मिश्रण। कुछ बुज़ुर्गों ने अरविन्द को समझाने की कोशिश की कि वह अपने कदमों में संयम रखे, जबकि अन्य ने कहा कि अब समय आ गया है कि सच सामने आए।

लेकिन जैसे ही अरविन्द ने गाँव में अपने इरादों का इज़हार किया, दोषी लोग अपनी सच्चाई छिपाने के लिए सक्रिय हो गए। उन्होंने अरविन्द को धमकाना शुरू कर दिया। कुछ लोग रात में उसके घर के बाहर खड़े होकर उसे डराने की कोशिश करते, कुछ गाँव में अफवाहें फैलाते कि वह झूठ बोल रहा है, और कुछ ने सीधे तौर पर उसे चेतावनी दी कि अगर उसने सच उजागर किया तो उसे ही नुकसान होगा। इन धमकियों के बावजूद, अरविन्द का मन डगमगाया नहीं। उसने समझा कि डर और धमकी केवल उनके पास मौजूद शक्ति का प्रदर्शन है, लेकिन न्याय की इच्छा और सावित्री के प्रति कर्तव्य उसे पीछे नहीं हटने देगा। खून के अक्षरों का संकेत, पंचायत में उसकी हिम्मत, और दोषियों की धमकियाँ—ये सब मिलकर उसे और दृढ़ बना देती हैं। अरविन्द अब न केवल इस रहस्य को उजागर करने के लिए तैयार है, बल्कि वह यह भी जान गया है कि न्याय की राह आसान नहीं है। यह अध्याय डर, रहस्य और साहस के बीच की तीव्रता को दर्शाता है, जहाँ एक ओर आत्मा का पुकार है और दूसरी ओर मानव समाज की भय और लालच की शक्ति।

वादे की अंतिम रात, एक अत्यंत रहस्यमय और भयानक मोड़ पर पहुँचता है। अमावस्या की वह रात, जब अंधकार गाँव पर गहरा था, सावित्री की आत्मा आखिरी बार अरविन्द के सामने प्रकट होती है। उसके रूप में एक अजीब चमक और भयावहता है—उसकी आँखों में पीड़ा और न्याय की चाहत दोनों झलक रही हैं। जैसे ही वह बरगद के विशाल पेड़ के पास आती है, पेड़ की जटाएँ अपने आप हिलने लगती हैं। मिट्टी में हलचल होती है, पत्तियाँ सरसराने लगती हैं, और पूरा पेड़ ऐसा प्रतीत होता है मानो वह जीवित हो उठा हो। गाँव में अचानक अजीब-सा हड़कंप मच जाता है। लोग डर और आश्चर्य के मिश्रित भावों में अपने घरों और गलियों में छिप जाते हैं। बार-बार हवा में कानों में कानाफूसी जैसी आवाज़ें सुनाई देती हैं, जैसे पेड़ और सावित्री की आत्मा गाँव के लोगों से कुछ कहना चाहती हो। अरविन्द को यह अनुभव अतीन्द्रिय और असाधारण लगता है। उसके सामने जो दृश्य है, वह केवल भय पैदा करने वाला नहीं है, बल्कि यह न्याय की पुकार और लंबे समय से दबे हुए सत्य का उद्घोष भी है।

जैसे ही सावित्री की आत्मा बरगद के पेड़ के आसपास मंडराती है, दोषी व्यक्ति, जो वर्षों से उसके अपहरण और हत्या में शामिल था, अपने घर में अस्वाभाविक तरीके से पीड़ित और भयभीत महसूस करता है। अचानक उसके शरीर पर वही खून के निशान उभर आते हैं जो बरगद के नीचे मिट्टी में दिखाई दिए थे। यह दृश्य गाँव के लोगों को चौंका देता है, और धीरे-धीरे डर और सत्य का मिश्रण पूरे गाँव में फैल जाता है। लोग यह समझने लगते हैं कि केवल चेतावनी और धमकी से अपराध छुपाया नहीं जा सकता। इस घटना ने दोषी व्यक्ति की मानसिक स्थिति पर गहरा प्रभाव डाला, और वह अपने अपराध के भय से कांपने लगता है। अरविन्द, जो अब तक साक्षी बनकर खड़ा था, अनुभव करता है कि सत्य और न्याय की शक्ति मात्र भौतिक शक्ति या धमकियों से परे है। वह जानता है कि सावित्री की आत्मा केवल न्याय की चाहत के लिए प्रकट हुई है, और अब यह न्याय का अंतिम समय है।

इस अत्यंत तनावपूर्ण वातावरण में, पंडित हरिराम अपने मंत्रोच्चार के साथ बरगद के पेड़ के पास पहुँचते हैं। उनका उद्देश्य है सावित्री की आत्मा को शांति प्रदान करना, ताकि उसका मन अब संतुष्ट हो सके। पंडित के मंत्रों की ध्वनि वातावरण में गूंजती है, और पेड़ की हिलती जटाएँ धीरे-धीरे शांत होने लगती हैं। सावित्री की आत्मा अपने अंतिम रूप में अरविन्द की ओर देखती है, मानो धन्यवाद और संतोष व्यक्त कर रही हो। उसका प्रकाश मंद होता जाता है और धीरे-धीरे वह हवा में विलीन हो जाती है। गाँव में रहस्य और भय की इस रात ने सभी के मन में गहरी छाप छोड़ी। दोषी व्यक्ति अब अकेले अपने अपराध और खून के निशानों के साथ रह जाता है, और गाँव के लोग महसूस करते हैं कि अब उन्हें सत्य और न्याय की महत्ता का पता चल गया है। यह अध्याय केवल रहस्य और भय का नहीं है, बल्कि न्याय, मानवता और साहस की भी गहन छवि प्रस्तुत करता है। यह कहानी का वह क्षण है जब अधूरी इच्छा, लंबे समय से दबे हुए अपराध और सत्य की पुकार का मिलन होता है, और अरविन्द को समझ आता है कि न्याय कभी देर से आए, लेकिन अवश्य आता है।

१०

मुक्ति या मृत्यु?, अरविन्द की साहस और संकल्प की परिणति को दर्शाता है। बरगद के विशाल पेड़ के नीचे वर्षों से दबा हुआ सत्य अब पूरी तरह उजागर होने वाला था। अरविन्द ने सावित्री की आत्मा के प्रति अपने वादे को निभाने का निर्णय लिया और गाँव के लोगों के सामने हिम्मत करके सभी तथ्यों का खुलासा किया। उसने विस्तार से बताया कि सावित्री की हत्या किन लालची लोगों ने की थी और किस तरह गाँव के कुछ लोग डर के कारण चुप रहे। पंचायत और गाँव के अन्य लोग, जो पहले डर या अज्ञानता के कारण चुप थे, अब धीरे-धीरे सत्य का सामना करने लगे। दोषियों के नाम और उनके अपराधों का खुलासा होते ही पूरे गाँव में सनसनी फैल गई। अरविन्द ने न केवल सावित्री की हत्या के रहस्य को उजागर किया, बल्कि यह भी दिखाया कि सत्य और न्याय की शक्ति हमेशा अंततः विजयी होती है। उसकी हिम्मत और न्याय के प्रति उसकी प्रतिबद्धता गाँव के लोगों के दिलों में नई जागरूकता और साहस पैदा करती है।

जैसे ही दोषियों के अपराध सामने आए, गाँव ने निर्णय लिया कि उन्हें उचित दंड दिया जाए। उन्हें गाँव के नियमों और न्याय की प्रक्रिया के तहत दंडित किया गया। यह दंड केवल सजा नहीं, बल्कि पूरे गाँव के लिए चेतावनी भी था कि अपराध छुपा नहीं रह सकता। दोषी व्यक्ति, जो वर्षों तक अपनी गलतियों को छुपा कर आराम से जी रहा था, अब समाज के सामने अपनी भूलों का सामना करने के लिए मजबूर हुआ। उसका भय और पछतावा स्पष्ट रूप से उसके चेहरे पर झलक रहा था। इस प्रक्रिया में गाँव के लोग भी यह महसूस करने लगे कि केवल डर और धमकियों के सहारे कोई न्याय नहीं रोक सकता। अरविन्द का साहस और सत्य की खोज ने गाँव में विश्वास, न्याय और ईमानदारी की नई भावना पैदा की। सावित्री की आत्मा अब धीरे-धीरे अपने लक्ष्य की पूर्ति की ओर बढ़ती है; उसका प्रकाश बरगद के पेड़ के पत्तों के बीच चमकता है, और धीरे-धीरे उसकी उपस्थिति हवा में विलीन होने लगती है।

जैसे ही सावित्री की आत्मा मुक्त होकर दूर जाने लगती है, वह अरविन्द की ओर देखकर अंतिम शब्द कहती है—“बरगद अब शांत है, लेकिन हर वादा जीवन और मृत्यु का सेतु होता है।” इस वाक्य में गहन अर्थ था। यह चेतावनी और संदेश दोनों था कि जीवन और मृत्यु केवल भौतिक नहीं, बल्कि हमारी प्रतिज्ञाओं, जिम्मेदारियों और सत्य की ओर उठाए गए कदमों से जुड़ी होती हैं। गाँव अब फिर शांत हो गया, लेकिन बरगद के नीचे अमावस्या की रात की हल्की सी छाया अभी भी झलक रही थी, जो उस रहस्य और न्याय की याद दिलाती थी। अरविन्द ने महसूस किया कि न्याय केवल अपराधियों को दंड देने में नहीं, बल्कि उनके और समाज के बीच एक संतुलन स्थापित करने में है। यह अध्याय अंततः न्याय, साहस, आत्मा की शांति और मानव जीवन के गहरे अर्थों की गवाही देता है। बरगद की छाया, सावित्री की आत्मा और अरविन्द का साहस अब गाँव की कहानी का हिस्सा बन गए हैं, और यह साबित करता है कि वादे और सत्य का मार्ग हमेशा जीवन और मृत्यु के बीच एक सेतु का काम करता है।

समाप्त

 

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