अदिति देशपांडे
१
अन्विता के लिए घर की चारदीवारी किसी कैदख़ाने से कम नहीं थी। सुबह की धूप जब परदों के बीच से छनकर कमरे में आती, तो भी उसमें कोई गर्माहट नहीं होती थी। उसके जीवन का हर दिन एक ही तरह का था—संघर्ष और चुप्पी का। रसोई की खटपट, दीवारों पर टंगी तस्वीरों की उदासी, और हर शाम दरवाज़े की आहट जब विवेक घर लौटता, तब उसका दिल अजीब-सा धड़कने लगता। विवेक का चेहरा देखना उसके लिए किसी कड़ी परीक्षा जैसा था—जहाँ हर शब्द में तिरस्कार, हर नज़र में ठंडापन, और हर चुप्पी में भारीपन छिपा होता। अन्विता कभी सोचती थी कि शादी एक नई शुरुआत होगी, जीवन का सबसे सुंदर अध्याय। लेकिन समय ने उसे सिखा दिया कि उम्मीदें हमेशा सच नहीं होतीं। उसकी हँसी धीरे-धीरे खो गई थी, जैसे किसी ने उसके भीतर से आवाज़ ही छीन ली हो। फिर भी, उसके दिल की गहराइयों में कहीं, बहुत गहरे, एक हल्की-सी लौ जलती थी—एक उम्मीद की किरण, जो अब भी बुझी नहीं थी।
दिन के काम पूरे करते हुए अन्विता अक्सर अपने अतीत में लौट जाती थी। उसे याद आता कि वह कॉलेज में कितनी जीवंत और खुशमिज़ाज थी। दोस्तों के बीच हँसी-मज़ाक करती, अपने सपनों को लेकर उत्साहित रहती। उसे लिखने का शौक़ था—डायरी के पन्नों पर वह अपने मन की बातें उकेरती थी। पर अब उसकी डायरी भी अलमारी के किसी कोने में धूल खा रही थी। जब वह उसे छूती, तो लगता जैसे किसी पुराने दोस्त से मिल रही हो। विवेक के साथ की ज़िंदगी ने उसके भीतर की यह जीवंत लड़की को धीरे-धीरे गुम कर दिया था। तानों और उपेक्षा ने उसकी आत्मा को चोट पहुँचाई थी। विवेक को कभी यह परवाह नहीं रही कि अन्विता क्या सोचती है, क्या महसूस करती है, या उसे क्या चाहिए। वह बस चाहता था कि उसका घर बाहर से परिपूर्ण दिखे, लेकिन अंदर की दरारों की ओर उसने कभी ध्यान नहीं दिया। और यही दरारें थीं, जिनमें अन्विता की चुप्पियाँ गहराती गईं।
रातें उसके लिए सबसे कठिन होती थीं। बाहर सड़क पर जब सबकुछ शांत हो जाता, तो उसकी नींद को यादों का शोर जगाए रखता। वह अक्सर छत की ओर देखती और सोचती कि आखिर उसने ज़िंदगी से क्या पाया। कभी-कभी खिड़की से झाँकते हुए चाँद को देखकर उसे लगता कि शायद कहीं दूर, कोई और भी है, जो उसकी तरह चुप्पी में डूबा हुआ है। इन पलों में उसके भीतर दबी हुई लौ हल्की-सी चमकती—वह लौ जो कहती थी कि यह अंत नहीं है, कि ज़िंदगी कहीं न कहीं उसके लिए भी कुछ सँजोकर रखी है। लेकिन सुबह होते ही वह चमक धुंधली पड़ जाती। फिर वही काम, वही ताने, वही चुप्पी। अन्विता की ज़िंदगी मानो एक दायरे में घूमती रहती थी। मगर इस दायरे के बाहर उसका दिल अब भी किसी अनकहे, अनजाने इंतज़ार में था। उसे नहीं पता था कि कब और कैसे यह इंतज़ार खत्म होगा, लेकिन कहीं भीतर से वह जानती थी कि टूटी हुई चुप्पी हमेशा टूटी ही नहीं रहती—कभी न कभी, कोई तो होगा, जो उसकी आवाज़ सुनेगा।
२
राघव की ज़िंदगी बाहर से देखने पर सामान्य लग सकती थी—ऑफिस जाना, सहकर्मियों के बीच हँसी-मज़ाक करना, दोस्तों के साथ कभी-कभी शामें बिताना। वह ऐसा आदमी था जो हर माहौल में हल्कापन घोल देता था, दूसरों को हँसाता, मज़ाक करता और सबको यह एहसास कराता कि वह बिल्कुल निश्चिंत है। लेकिन यह सब केवल एक मुखौटा था। उसकी मुस्कान उसके भीतर की टूटन को ढकने का एक तरीका मात्र थी। जब वह घर लौटता और दरवाज़ा बंद करता, तो वही चारदीवारी उसके अतीत की गूँज से भर जाती। हर कमरे में, हर कोने में, उसकी असफल शादी की यादें बसी हुई थीं। दीवार पर टंगी तस्वीरें उतार दी गई थीं, लेकिन जिन पलों को उसने जिया था, वे उसके भीतर से कभी नहीं मिटे। रात के सन्नाटे में अक्सर वह अपनी शादी की शुरुआत याद करता—कैसे उसने पूरे दिल से एक रिश्ता बनाने की कोशिश की थी, कैसे उसने सपनों का एक घर सजाने की कल्पना की थी। लेकिन उन सपनों का तिनका-तिनका बिखर जाना, उसे भीतर तक तोड़ चुका था।
वह अक्सर सोचता कि गलती कहाँ हुई। क्या उसने अपनी पत्नी को पर्याप्त समझ नहीं दिया? क्या उसकी उम्मीदें बहुत बड़ी थीं, या फिर जीवन की ज़िम्मेदारियों के बोझ ने उनके बीच की नज़दीकियों को छीन लिया? सवाल उसके दिमाग़ में घूमते रहते, लेकिन उनके जवाब उसे कभी नहीं मिले। तलाक़ की प्रक्रिया ने उसके दिल को और भी बोझिल बना दिया था। कागज़ के कुछ दस्तावेज़, अदालत की औपचारिकताएँ, और कुछ गवाह—इतनी आसानी से एक रिश्ता टूट गया, जिसे बनाने में उसने अपनी पूरी भावनाएँ लगा दी थीं। यह सच उसे अब भी सालता था कि जिस इंसान के साथ वह अपना जीवन बिताना चाहता था, वही सबसे अजनबी बनकर चला गया। उसके दोस्त और परिवार वाले उसे आगे बढ़ने की सलाह देते, कहते कि “ज़िंदगी रुकती नहीं है”—लेकिन यह सलाह उसकी चुप्पियों को और गहरी कर देती। बाहर से वह हाँ में हाँ मिलाता, लेकिन भीतर से वह मान चुका था कि उसकी दुनिया खत्म हो चुकी है।
रात को जब सब सो जाते, राघव अपने कमरे में अकेला बैठा खिड़की से बाहर देखता। अँधेरे में दूर शहर की रोशनियाँ उसे याद दिलातीं कि ज़िंदगी अभी भी चल रही है, लेकिन उसके लिए नहीं। वह खुद से लड़ता, यह समझाने की कोशिश करता कि वह मज़बूत है, कि वह आगे बढ़ सकता है। लेकिन भीतर का अकेलापन उसे खींचकर अतीत में ले जाता। उसने कई बार कोशिश की कि वह अपनी तकलीफ़ें किसी के साथ बाँटे, लेकिन उसके अंदर का डर उसे रोक देता। उसे लगता कि लोग उसकी कमजोरी जानकर उसे और दया की नज़र से देखेंगे। इसलिए उसने अपनी तकलीफ़ को हँसी के पर्दे में छिपा लिया। उसका यह मुखौटा इतना गहरा हो गया था कि लोग उसे “हमेशा मज़ाक करने वाला, खुशमिज़ाज राघव” कहने लगे। लेकिन किसी को नहीं पता था कि उसकी हर मुस्कान के पीछे एक टूटा हुआ आदमी था, जो हर रात खुद से यह पूछता—क्या कभी ज़िंदगी उसे भी दूसरा मौका देगी, या अब उसके हिस्से में सिर्फ़ अतीत का बोझ ही रहेगा?
३
शहर के सांस्कृतिक केंद्र में उस शाम एक साहित्यिक कार्यक्रम का आयोजन था। सभागार हल्की पीली रोशनी में नहाया हुआ था, कुर्सियों पर बैठे लोग धीरे-धीरे गुनगुना रहे थे और मंच पर कवि अपनी पंक्तियाँ पढ़ रहे थे। अन्विता ने वर्षों बाद अपने लिए समय निकाला था। वह अक्सर ऐसे आयोजनों के बारे में सुनती थी, लेकिन कभी साहस नहीं कर पाती थी घर से निकलने का। उस दिन भी उसने बहुत सोच-विचार के बाद ही कदम बढ़ाया था। उसकी आँखों में एक हल्की-सी घबराहट और उत्सुकता दोनों थी। सामने मंच पर कोई कवि अपनी रचना सुना रहा था, लेकिन अन्विता का ध्यान शब्दों पर नहीं, बल्कि उन भावनाओं पर था जो वातावरण में फैली हुई थीं। उसके भीतर दबी हुई चुप्पियाँ जैसे इन कविताओं के बीच आवाज़ पा रही थीं। इसी भीड़ में, एक कोने में बैठा राघव भी था—गहरे रंग की शर्ट पहने, चेहरा गंभीर पर आँखों में हल्की चमक। वह कविता सुनते हुए बीच-बीच में मुस्कुराता, लेकिन उसकी मुस्कान अधूरी थी, जैसे भीतर का खालीपन उसे पूरी तरह व्यक्त होने से रोक रहा हो।
कार्यक्रम के बीच अचानक बिजली का हल्का झटका आया और सभागार कुछ पल के लिए अंधेरे में डूब गया। लोग इधर-उधर सरकने लगे, मोबाइल की टॉर्चें जल उठीं। इसी हलचल में अन्विता और राघव की नज़रें टकराईं। वह कोई योजनाबद्ध परिचय नहीं था, न ही कोई औपचारिक शब्द। बस दो अजनबी, जो अपनी-अपनी चुप्पियों में डूबे थे, अचानक एक-दूसरे की आँखों में खुद को देख बैठे। अन्विता को लगा जैसे राघव की आँखों में वही दर्द है जो उसके भीतर है—वह दर्द जो बाहर से कोई नहीं देख पाता। राघव ने भी उसी पल महसूस किया कि इस औरत की खामोशी में उसकी अपनी कहानी छिपी है। उनके बीच कोई संवाद नहीं हुआ, लेकिन वह चुप्पी इतनी गहरी थी कि शब्दों की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। यह मुलाक़ात अजनबीपन से शुरू हुई, लेकिन उसमें एक अजीब-सी पहचान का अहसास था, जैसे वे दोनों पहले से ही एक-दूसरे के दर्द से परिचित हों।
कार्यक्रम समाप्त होने के बाद लोग धीरे-धीरे बाहर निकलने लगे। अन्विता ने अपना दुपट्टा ठीक करते हुए उठने की कोशिश की, तभी पास में खड़ा राघव अनायास उसकी ओर बढ़ा और उसने कुर्सी से गिरती उसकी किताब उठा ली। उस क्षण दोनों मुस्कुराए—एक हल्की, झिझकी हुई मुस्कान, जो उनके टूटे हुए मन की दरारों से होकर निकली थी। “धन्यवाद,” अन्विता ने धीमे स्वर में कहा। राघव ने जवाब में बस सिर हिला दिया, लेकिन उसकी आँखों में एक सच्चाई थी। कोई लंबी बातचीत नहीं हुई, कोई परिचय नहीं पूछा गया, पर दोनों को लगा कि यह क्षण साधारण नहीं था। बाहर ठंडी हवा बह रही थी, लोग आपस में बातें करते हुए चले जा रहे थे, लेकिन भीड़ के बीच अन्विता और राघव के दिलों में एक खामोश पुल बन चुका था। वह पुल, जो शायद आने वाले दिनों में उनकी टूटी हुई ज़िंदगियों को जोड़ने वाला था। उस रात घर लौटते समय अन्विता की चुप्पी कुछ हल्की थी और राघव की मुस्कान में थोड़ी सच्चाई। दोनों को पता नहीं था कि यह मुलाक़ात कहाँ तक जाएगी, लेकिन इतना ज़रूर था कि यह एक शुरुआत थी—एक शुरुआत जो किसी किताब की पहली पंक्ति की तरह थी, जिसमें पूरी कहानी का बीज छिपा होता है।
४
अगले कुछ दिनों में जैसे किस्मत ने ही अन्विता और राघव के रास्तों को जोड़ दिया। वह साहित्यिक कार्यक्रम महज़ एक इत्तेफ़ाक़ नहीं रहा, बल्कि एक दरवाज़ा बन गया जिससे दोनों एक-दूसरे की दुनिया में दाख़िल होने लगे। उसी पुस्तकालय में, जहाँ अन्विता अक्सर अकेली बैठकर कविताएँ पढ़ा करती थी, राघव भी आने लगा। शुरुआत में दोनों एक-दूसरे को बस हल्की मुस्कान से स्वीकार करते, फिर धीरे-धीरे बातचीत का सिलसिला चल पड़ा। किताबों और कविताओं के बहाने वे अपनी चुप्पियों को शब्दों में बदलने लगे। राघव ने एक दिन किसी कवि की पंक्ति पढ़कर कहा, “अजीब है न, शब्द कितने हल्के होते हैं, लेकिन कभी-कभी यही सबसे भारी बोझ बन जाते हैं।” अन्विता ने उसकी ओर देखा और पहली बार बिना झिझक बोली, “हाँ, और कभी-कभी यही बोझ किसी और के दिल तक पहुँचकर हल्का भी हो जाता है।” इन शब्दों के बाद दोनों के बीच एक ऐसी खामोश समझदारी पनपी जो शब्दों से कहीं ज़्यादा गहरी थी।
अन्विता की चुप्पियों में राघव अपनी ही ज़िंदगी के आईने को देखता था। वह महसूस करता कि जैसे उसकी टूटी हुई हँसी और छिपा हुआ दर्द अन्विता के भीतर भी गूँज रहा हो। अन्विता की आँखें बहुत कुछ कहती थीं—वह कभी सीधे अपनी तकलीफ़ें बयान नहीं करती, लेकिन उसकी धीमी मुस्कान, उसकी झुकी निगाहें और उसका किताबों में डूब जाना, सब उसकी कहानी बयान कर देते। राघव उन भावनाओं को पहचानता था क्योंकि उसने भी वही रास्ता तय किया था। दूसरी तरफ़ अन्विता के लिए राघव का साथ किसी राहत की तरह था। उसकी आँखों में उसे एक अजीब-सा सुकून मिलता, मानो कोई कह रहा हो कि वह अकेली नहीं है। जब राघव बोलता, उसकी आवाज़ में एक स्थिरता और आत्मीयता होती, जो अन्विता को भीतर तक छू जाती। उसे लगता जैसे बरसों बाद किसी ने उसकी चुप्पी को सुना है, बिना सवाल किए, बिना दोष दिए। यह रिश्ता नामहीन था, लेकिन उनके भीतर की सूनी जगहों को धीरे-धीरे भरने लगा था।
समय बीतने के साथ उनकी मुलाक़ातें लंबी होती गईं। कभी वह दोनों साथ बैठकर चाय की प्यालियों के बीच कविताओं पर चर्चा करते, कभी किसी किताब के किरदार को लेकर बहस छेड़ देते। लेकिन इन चर्चाओं के बीच असली बातचीत उनकी खामोशियों में होती। राघव को अन्विता की उपस्थिति एक दवा की तरह लगने लगी—वह उसके भीतर के घावों को धीरे-धीरे भर रही थी। वहीं अन्विता को लगता कि राघव के साथ रहकर उसका दिल धीरे-धीरे साँस लेने लगा है। दोनों समझते थे कि वे एक-दूसरे के दर्द से बँधे हैं, लेकिन यह बंधन बोझ नहीं था, बल्कि सहारा था। उनके बीच अब भी कोई औपचारिक इज़हार नहीं हुआ था, लेकिन दिल की गहराइयों में वे जान चुके थे कि यह रिश्ता किताबों या कविताओं का बहाना नहीं है। यह वह डोर है, जो दो अकेलेपन को एक साझा सुकून में बदल रही है। अनकही बातें ही अब उनके बीच सबसे सशक्त संवाद थीं, और इन्हीं अनकही बातों ने उनके जीवन में धीरे-धीरे एक नई रौशनी जगानी शुरू कर दी थी।
५
अन्विता की ज़िंदगी में माया हमेशा से उसका सहारा रही थी। वह सिर्फ़ एक दोस्त नहीं, बल्कि उसकी आत्मा का आईना थी, जो उसकी आँखों के पीछे छिपी कहानियों को भी पढ़ लेती थी। उस दिन जब अन्विता ने माया से राघव के बारे में थोड़ी-सी बात छेड़ी, तो उसकी झिझक साफ़ झलक रही थी। माया ने ध्यान से उसकी बातें सुनीं और हल्की मुस्कान के साथ कहा, “अन्विता, अगर दिल में चिंगारी है, तो उसे दबाना मत। ज़िंदगी एक ही बार मिलती है और हर किसी को दूसरा मौका नहीं मिलता। अगर तुम्हें लगता है कि यह मुलाक़ात साधारण नहीं है, तो खुद को रोकने की वजह मत ढूँढो।” माया के शब्द अन्विता के दिल में गहराई तक उतर गए। इतने सालों तक उसने अपनी इच्छाओं को, अपनी ख़्वाहिशों को दबाकर रखा था। विवेक की परछाइयों और उसके उपेक्षा भरे व्यवहार ने उसे यह यक़ीन दिला दिया था कि वह खुश रहने की हक़दार ही नहीं है। लेकिन अब जब राघव के साथ उसका एक अनकहा रिश्ता बनने लगा था, तो उसके भीतर एक डर और एक उम्मीद दोनों साथ-साथ पल रहे थे। माया ने उसकी आँखों में सीधे झाँकते हुए कहा, “दरारें भरने के लिए कभी-कभी रोशनी को अंदर आने देना पड़ता है।” यह सुनकर अन्विता चुप रही, लेकिन भीतर कहीं उसे लगा कि शायद अब वक़्त आ गया है जब वह अपनी टूटी हुई ज़िंदगी को नए सिरे से देखने की कोशिश करे।
दूसरी ओर राघव भी अपने ही सवालों में उलझा हुआ था। उसका भाई सौरभ कई दिनों से देख रहा था कि राघव के चेहरे पर एक हल्का-सा बदलाव आया है। उसकी मुस्कान अब सिर्फ़ मुखौटा नहीं लगती थी, उसमें कहीं-कहीं सच्चाई की झलक दिखने लगी थी। एक शाम जब दोनों छत पर बैठे थे, सौरभ ने सीधी बात छेड़ दी। “भैया, मैं जानता हूँ कि आप अपने अतीत से अभी भी जूझ रहे हैं, लेकिन शायद किस्मत आपको एक नया मौका दे रही है। हर बार लोग टूटते हैं, लेकिन हर बार टूटने का मतलब यह नहीं कि फिर से जुड़ा नहीं जा सकता। अगर कोई है जो आपकी चुप्पियों को समझता है, तो शायद वही इंसान आपके घावों को भर सकता है।” राघव पहले तो चुप रहा, फिर बोला, “तुम नहीं समझोगे, सौरभ। जब एक बार भरोसा टूटता है, तो फिर किसी पर यक़ीन करना आसान नहीं होता।” सौरभ ने गंभीर स्वर में कहा, “लेकिन अगर टूटे हुए भरोसे के बाद भी कोई आपको देखने पर मजबूर कर दे, तो शायद वही सच्चा रिश्ता होता है। आप ज़िंदगी से भागते-भागते कब तक अकेले रहेंगे?” राघव के लिए यह सुनना आसान नहीं था, लेकिन सौरभ की बातों ने उसके भीतर हलचल ज़रूर पैदा कर दी।
उस रात दोनों, अन्विता और राघव, अपने-अपने कमरों में जागते रहे। अन्विता खिड़की से आती हवा को महसूस करते हुए माया की कही बातों को दोहराती रही—“अगर दिल में चिंगारी है, तो उसे दबाना मत।” उसे लगा जैसे उसकी आत्मा के गहरे अंधकार में वाक़ई कोई चिंगारी सुलग रही है। वहीं राघव सौरभ की बातों को याद करता रहा—“किस्मत शायद आपको एक नया मौका दे रही है।” उसने सोचा कि क्या सच में ज़िंदगी उसे फिर से मुस्कुराने का कारण दे सकती है? क्या यह संभव है कि टूटी हुई कहानियाँ भी एक नए अध्याय की शुरुआत करें? इन सवालों के बीच उनकी बेचैनी बढ़ती गई, लेकिन उसी बेचैनी में एक अजीब-सी राहत भी छिपी थी। जैसे दोनों के दिल जानते हों कि वे अब अपने अकेलेपन में कैद नहीं हैं। दरारें अब भी थीं, लेकिन उन दरारों से रोशनी भी झाँकने लगी थी। और यह रोशनी उनके आईनों में उनकी सच्चाई दिखा रही थी—कि शायद ज़िंदगी सचमुच उन्हें दूसरा मौका देना चाहती है।
६
अन्विता की ज़िंदगी में जब भी कोई नया एहसास सिर उठाने लगता, विवेक की परछाई उसके सामने आ खड़ी होती। यह परछाई वास्तविक रूप से मौजूद नहीं थी, लेकिन उसकी स्मृतियों में इतनी गहरी जड़ें जमा चुकी थी कि उससे बच पाना नामुमकिन था। राघव से मिलकर जब उसके दिल में धीरे-धीरे नई रोशनी उतरने लगी, तो विवेक की यादें अचानक और तीव्र हो उठीं। उसे याद आने लगा कि कैसे विवेक ने कभी उसके सपनों को महत्व नहीं दिया, उसकी हँसी को व्यर्थ समझा, और उसके अस्तित्व को केवल ज़िम्मेदारियों के बोझ तले कुचल दिया। हर बार जब राघव उसकी आँखों में देखकर कुछ अनकहा कहने की कोशिश करता, अन्विता का मन काँप जाता—क्या वह सचमुच किसी नए रिश्ते की हक़दार है? क्या उसका अतीत इतना हल्का है कि उसे छोड़कर आगे बढ़ा जा सके? विवेक की परछाई उसके भीतर अपराधबोध की तरह मंडराती रहती, जैसे कोई कह रही हो—“तुम्हें अब भी चुप रहना चाहिए, तुम्हें खुश रहने का हक़ नहीं।”
राघव इस परछाई को सीधे महसूस नहीं कर सकता था, लेकिन वह अन्विता की झिझक और अचानक बदलते व्यवहार में इसे पढ़ लेता। जब वे दोनों किताबों पर चर्चा करते या हल्की-फुल्की बातें करते, तो कई बार अन्विता एकदम चुप हो जाती, उसकी नज़रें झुक जातीं और आवाज़ काँपने लगती। राघव समझ जाता कि यह चुप्पी उसके अतीत की वजह से है। वह कभी उस पर दबाव नहीं डालता, लेकिन उसकी आँखों में चिंता और कोमलता दोनों झलकते। अन्विता जब भी राघव की इस चिंता को देखती, तो भीतर से पिघल जाती, पर उसी क्षण विवेक की परछाई उसके कानों में गूँजती—“यह सब झूठ है, यह भी एक धोखा साबित होगा।” उस आवाज़ को नज़रअंदाज़ करना उसके लिए बेहद कठिन था। कई रातों तक वह सो नहीं पाती, सोचती रहती कि अगर उसने फिर से भरोसा किया और उसका दिल फिर टूट गया तो? क्या वह इतनी मज़बूत है कि दूसरी बार भी वही दर्द सह सके? यह डर उसे हर कदम पर रोकता, हर मुस्कान के बाद अपराधबोध से भर देता।
इस संघर्ष ने अन्विता के भीतर एक गहरी लड़ाई पैदा कर दी थी। एक ओर उसका दिल था, जो राघव के साथ बिताए गए हर पल में सुकून महसूस करता था, और दूसरी ओर उसका मन था, जो विवेक की परछाई से निकल नहीं पा रहा था। यह परछाई कभी-कभी इतनी वास्तविक लगती कि उसे लगता विवेक अभी दरवाज़े से अंदर आकर उस पर चिल्लाएगा, उसे उसकी जगह याद दिलाएगा। और यही डर उसे आगे बढ़ने से रोकता था। लेकिन कहीं भीतर से एक आवाज़ बार-बार कहती—“क्या हर परछाई को सच्चाई मान लेना सही है? क्या बीते हुए दर्द को भविष्य की खुशियों का फ़ैसला करने देना उचित है?” अन्विता अभी इन सवालों का जवाब नहीं जानती थी। वह सिर्फ़ इतना समझ पा रही थी कि उसके दिल और दिमाग़ की यह जंग आसान नहीं होगी। राघव उसके लिए नई सुबह की तरह था, लेकिन विवेक की परछाई अब भी उसके जीवन के अँधेरे को गहरा कर रही थी। यही परछाई उसका सबसे बड़ा डर थी—और यही डर यह तय करेगा कि क्या वह वाक़ई नए रिश्ते की हक़दार है या नहीं।
७
रात गहरी हो चली थी। बाहर शहर की आवाज़ें थम गई थीं, लेकिन भीतर अन्विता और राघव के दिलों में शोर मचा हुआ था। एक पुराने कैफ़े के कोने की मेज़ पर बैठे दोनों एक-दूसरे से कुछ कहने की हिम्मत जुटा रहे थे। कपों में कॉफ़ी ठंडी हो चुकी थी, मगर उनके बीच की चुप्पी तपिश से भरी थी। अन्विता के हाथ काँप रहे थे, उसकी आँखें बार-बार झुक जातीं, लेकिन इस बार उसने तय किया कि वह अपने भीतर का बोझ और नहीं छिपाएगी। उसने धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया—कैसे उसकी शादी ने उसे सिर्फ़ टूटन दी, कैसे विवेक की बेरुख़ी और अपमान ने उसे धीरे-धीरे अपनी ही परछाई बना दिया। बोलते-बोलते उसकी आँखों से आँसू बह निकले, मानो बरसों से दबे जज़्बातों ने अब आज़ादी पा ली हो। राघव चुपचाप सुनता रहा, उसकी आँखें नम थीं, और चेहरे पर गहरी समझ। वह बीच में नहीं बोला, क्योंकि उसे लगा कि यह सिर्फ़ सुनने का वक़्त है।
कुछ देर बाद राघव ने भी अपनी चुप्पी तोड़ी। उसने बताया कि उसका विवाह क्यों टूटा, कैसे उसने किसी से दिल से मोहब्बत की थी लेकिन बदले में विश्वासघात और बिखराव ही पाया। उसने स्वीकार किया कि तलाक़ के बाद वह अक्सर नकली हँसी का मुखौटा पहनकर दूसरों के बीच रहता था, लेकिन भीतर से खाली और टूट चुका था। उसकी आवाज़ कभी ठहर जाती, कभी काँपती, और हर वाक्य में एक अजीब-सी सच्चाई झलकती। अन्विता उसकी आँखों में देख रही थी, और उसमें उसे अपने दर्द का आईना दिखाई दे रहा था। दोनों को एहसास हुआ कि वे अकेले नहीं हैं; उनकी चोटें अलग-अलग थीं, पर दर्द एक जैसा था। यह एहसास किसी मरहम की तरह काम कर रहा था। आँसू बहते जा रहे थे, लेकिन वे दोनों उन आँसुओं में अपने बोझ को हल्का होते देख रहे थे। यह पहली बार था जब वे किसी के सामने पूरी तरह खुलकर अपने सबसे गहरे घाव दिखा रहे थे, और अजीब बात यह थी कि इन घावों ने उन्हें और भी करीब ला दिया।
जब रात आधी से ज़्यादा गुज़र गई, तो अन्विता और राघव दोनों ने महसूस किया कि ये आँसू किसी कमज़ोरी का नहीं, बल्कि नए भरोसे का संकेत हैं। अन्विता ने अपने आँसू पोंछते हुए कहा—“शायद पहली बार मुझे लगता है कि कोई मेरी चुप्पी को समझ सकता है।” राघव ने उसके हाथों पर अपना हाथ रखा और मुस्कराकर कहा—“और शायद पहली बार मुझे लगता है कि कोई मेरे नकली चेहरे के पीछे छुपे सच को देख सकता है।” इस स्पर्श में शब्दों से ज़्यादा गहराई थी। उस रात उन्होंने कोई वादा नहीं किया, कोई भविष्य की तस्वीर नहीं बनाई, लेकिन एक अनकहा समझौता ज़रूर हुआ—अब वे अपने डर और टूटन से भागेंगे नहीं, बल्कि एक-दूसरे के सामने स्वीकार करेंगे। और यही स्वीकारोक्ति, यही सच्चाई, उनके बीच एक नए भरोसे की नींव रख गई। उनके भीतर अब भी चोटें थीं, लेकिन अब उन चोटों को बाँटने वाला कोई था। यह रात उनकी कहानी का सबसे संवेदनशील मोड़ बन गई—जहाँ टूटन से जन्म लिया स्वीकार ने, और स्वीकार से जन्म लिया नया विश्वास।
८
सुबह का मौसम हल्का और खुशनुमा था। शहर के एक छोटे से बॉटैनिकल गार्डन में फूल खिले थे और हल्की-सी हवा बह रही थी। राघव ने सोचा था कि आज वह अन्विता को वहाँ ले जाएगा, जहाँ उसकी आँखों को कुछ सुकून मिले। लंबे समय तक बंद कमरे की चारदीवारियों में घुटने के बाद यह खुला आसमान, यह धूप, यह ताज़गी अन्विता के लिए नया अनुभव था। वह धीरे-धीरे चलते हुए पेड़ों और फूलों को देख रही थी, जैसे किसी भूले हुए रंगीन संसार से उसका फिर परिचय हो रहा हो। राघव उसकी चाल देख रहा था—अब भी संकोच था, लेकिन उसमें पहले वाली थकान और उदासी नहीं थी। वे दोनों एक बेंच पर बैठ गए। कुछ देर तक वे चुप रहे, बस अपने आस-पास की ताज़गी महसूस करते रहे। फिर अचानक पास खेलते बच्चों की शरारत देखकर अन्विता के होंठों पर हल्की-सी मुस्कान आ गई। वह मुस्कान छोटी थी, संकोची थी, पर उसमें वर्षों का जकड़ा हुआ दर्द ढीला पड़ता महसूस हो रहा था। राघव ने उस पल को गौर से देखा, और उसके भीतर भी एक अजीब-सी राहत उतर आई।
अन्विता की हँसी बहुत हल्की थी, लेकिन उसमें एक गहराई थी। जैसे किसी ने लंबे अंधेरे कमरे में अचानक खिड़की खोल दी हो और रोशनी भीतर आ गई हो। राघव ने धीरे से कहा—“जानती हो, यह पहली बार है जब मैंने तुम्हें दिल से हँसते देखा है।” अन्विता चौंककर उसकी ओर देखने लगी, फिर धीरे से झेंपते हुए बोली—“शायद मैं भूल ही गई थी कि हँसना कैसा होता है।” उसकी आँखें भीगी थीं, पर उनमें चमक भी थी। राघव ने महसूस किया कि उसके दिल का बोझ अब थोड़ा हल्का हो रहा है। उसने खुद से सोचा, शायद यही वह पल है जिसका इंतज़ार दोनों कर रहे थे—वह क्षण जब उनका दर्द उन्हें जोड़ने के बजाय धीरे-धीरे पिघलाने लगे। वे बातें करते रहे—किताबों की, फिल्मों की, उन सपनों की जो अधूरे रह गए, और उन ख्वाहिशों की जो अब भी कहीं छुपी हुई थीं। हर बात के बीच अन्विता की हँसी लौट-लौटकर आती, और हर बार राघव को लगता जैसे वह अपने अकेलेपन की दीवार को थोड़ा और तोड़ रहा है।
धीरे-धीरे यह मुलाक़ात उनके रिश्ते की दिशा तय करने लगी। अन्विता ने महसूस किया कि दर्द भरी यादें अभी भी उसका पीछा कर रही हैं, लेकिन अब उनके बीच कोई है जो उसे थाम सकता है। राघव ने भी सोचा कि शायद ज़िंदगी ने उसे सचमुच दूसरा मौका दिया है। वह समझता था कि इंसान को अतीत से भागना नहीं चाहिए, बल्कि उसे स्वीकार कर आगे बढ़ना चाहिए। उसी दिन उसने अन्विता से कहा—“ज़िंदगी कभी-कभी हमें फिर से शुरू करने का मौका देती है, बस हमें हिम्मत करनी होती है उसे पकड़ने की।” अन्विता ने चुपचाप उसकी ओर देखा, फिर हल्की-सी हँसी के साथ सिर हिला दिया। उस मुस्कान में कृतज्ञता भी थी, भरोसा भी और कहीं गहराई में एक अनकहा वादा भी। दोनों जानते थे कि रास्ता आसान नहीं होगा, लेकिन उन्होंने समझ लिया था कि जब दो टूटे हुए लोग एक-दूसरे को संभाल लेते हैं, तो शायद वही टूटन एक नई ताक़त में बदल जाती है। उस दिन बॉटैनिकल गार्डन से लौटते वक्त उनके कदम हल्के थे, जैसे सचमुच ज़िंदगी ने उनके दिल से एक बोझ उतार दिया हो। यह पहली मुस्कान, यह पहली हँसी, उनके नए सफ़र की शुरुआत थी।
९
शाम का वक़्त था, हल्की बारिश हो रही थी और आसमान में बादलों की गड़गड़ाहट गूँज रही थी। राघव और अन्विता एक कैफ़े में बैठे थे, जहाँ आम दिनों में उनकी बातें मुस्कुराहट और सुकून से भरी रहती थीं। लेकिन उस दिन का माहौल भारी था। अन्विता के फ़ोन पर विवेक का नाम चमका, और वह घबराकर चुप हो गई। उसने कॉल रिसीव नहीं किया, लेकिन उस एक नाम ने कमरे की सारी गर्माहट छीन ली। राघव ने यह सब देखा और भीतर से चुपचाप तड़प उठा। उसके मन में सवाल उठे—क्या अन्विता सचमुच अपने अतीत से निकल पाई है? क्या विवेक अब भी उसकी ज़िंदगी का हिस्सा है? और अगर है, तो क्या वह सिर्फ एक पड़ाव बनकर रह जाएगा? चुप्पी के उस दौर में दोनों ने अपनी-अपनी परछाइयों को महसूस किया। अन्विता का चेहरा सफ़ेद पड़ गया था, जैसे किसी ने उसके दिल में फिर पुराने ज़ख़्म कुरेद दिए हों। राघव की आँखों में झिझक और डर साफ़ झलक रहे थे। आखिरकार राघव ने धीरे से कहा—“अगर तुम अब भी उस अतीत में बंधी हो, तो शायद हमारे बीच कुछ नहीं हो पाएगा।” यह सुनते ही अन्विता की आँखों से आँसू बह निकले। वह हिम्मत जुटाकर बोली—“मैं बंधी नहीं हूँ, लेकिन डर अब भी वहीं है। मैं चाहती हूँ कि यह डर तुम्हें मुझसे दूर न कर दे।”
यह बातचीत उनके बीच पहली बड़ी दीवार की तरह खड़ी हो गई। अन्विता ने महसूस किया कि उसने अब तक राघव से अपने भीतर के डर और विवेक की परछाई के बारे में पूरी तरह ईमानदारी से बात नहीं की थी। दूसरी तरफ, राघव अपने तलाक़ की कड़वी यादों को भूल नहीं पा रहा था। उसे लगता था कि हर रिश्ता अंततः टूट ही जाता है। उसका डर उसे आगे बढ़ने से रोक रहा था। उस कैफ़े में, बाहर बरसती बारिश की आवाज़ और अंदर की खामोशी जैसे दोनों की मनःस्थिति का आईना थी। दोनों के बीच बहस छिड़ गई—राघव ने कहा कि वह फिर से टूटने का जोखिम नहीं उठा सकता, और अन्विता ने कहा कि वह अब और अपमान और खोखले रिश्तों को नहीं झेल सकती। दोनों की आवाज़ ऊँची नहीं हुई, लेकिन हर शब्द तलवार की तरह था। यह टकराव ऐसा लग रहा था मानो उनकी दुनिया यहीं समाप्त हो जाएगी। लेकिन फिर, उस खामोशी में, अन्विता ने धीरे से कहा—“अगर मैं डरते-डरते जिऊँगी, तो कभी जी ही नहीं पाऊँगी। और अगर तुम भागते-भागते रहोगे, तो कभी ठहर नहीं पाओगे।” उसके शब्दों ने जैसे राघव के भीतर छुपे डर को सीधा चुनौती दी।
कुछ देर दोनों खामोश रहे। राघव ने गहरी साँस ली और पहली बार स्वीकार किया कि वह अब तक अपने अतीत की छाया से भागता रहा है। उसने अन्विता का हाथ पकड़ते हुए कहा—“मुझे डर है कि कहीं हम भी टूट न जाएँ। लेकिन शायद यही डर हमें और मज़बूत बना सकता है, अगर हम साथ रहें।” अन्विता ने उसकी आँखों में देखते हुए जवाब दिया—“हाँ, टूटन से डरना नहीं चाहिए, क्योंकि वही हमें जोड़ना भी सिखाती है।” उस पल दोनों ने तय किया कि वे अपने अतीत को अपने भविष्य पर हावी नहीं होने देंगे। बाहर बारिश थम चुकी थी और आसमान में हल्की-सी धूप झलकने लगी थी। कैफ़े की खिड़की से आती उस रोशनी ने मानो उनके दिल में भी एक नया उजाला भर दिया। दोनों जानते थे कि रास्ता अब भी आसान नहीं होगा—अतीत की परछाइयाँ बार-बार लौटेंगी, डर फिर सिर उठाएगा—लेकिन उन्होंने फैसला कर लिया था कि अब वे डरकर नहीं, बल्कि लड़कर जीएँगे। यह टकराव उन्हें तोड़ने के लिए नहीं, बल्कि और मज़बूत बनाने के लिए आया था। उस शाम जब वे कैफ़े से बाहर निकले, तो उनके कदम पहले से ज़्यादा पक्के थे, जैसे उन्होंने एक-दूसरे को खोने के बजाय फिर से पा लिया हो।
१०
सुबह का आसमान सुनहरी रोशनी से नहा रहा था। रात की ठंडी हवा अब एक हल्की गर्माहट में बदल चुकी थी, जैसे प्रकृति खुद भी किसी नए अध्याय की शुरुआत कर रही हो। अन्विता और राघव शहर के पुराने पार्क में साथ-साथ चल रहे थे। उनके कदम धीमे थे, लेकिन उनमें एक अजीब-सी शांति थी। रास्ते पर गिरे फूलों की पंखुड़ियाँ उनके पैरों के नीचे बिखरी थीं, जैसे किसी अदृश्य हाथ ने उनके लिए एक स्वागत की चादर बिछा दी हो। न कोई जल्दबाज़ी थी, न कोई शोर—सिर्फ़ चिड़ियों की चहचहाहट और उनकी साँसों की तालमेल। दोनों की चुप्पी अब वैसी नहीं रही थी जैसी उनकी पहली मुलाक़ात में थी; यह चुप्पी अब डर और झिझक की नहीं, बल्कि समझ और सुकून की थी। राघव ने पहली बार बिना कुछ कहे अन्विता का हाथ थाम लिया। अन्विता ने भी बिना हिचकिचाए उस स्पर्श को स्वीकार कर लिया। यह कोई वादा नहीं था, यह कोई शपथ नहीं थी, बल्कि बस एक स्वीकार—कि वे दोनों अब एक-दूसरे की ज़िंदगी का हिस्सा बनने के लिए तैयार हैं। उनकी आँखों में कोई अधूरी बेचैनी नहीं, बल्कि एक भरोसा था कि जो भी आएगा, वे मिलकर उसका सामना करेंगे।
रास्ते में चलते हुए अन्विता ने देखा कि धूप पेड़ों की शाखाओं से छनकर ज़मीन पर पड़ रही है, जैसे हर किरण उसके दिल को नई ऊर्जा दे रही हो। उसे याद आया कि कभी उसने सोचा था कि उसकी ज़िंदगी हमेशा अंधेरों में ही कटेगी। विवेक की छाया, उसका डर, उसकी चुप्पी—सब कुछ मानो उसकी पहचान बन गए थे। लेकिन आज, इस सुबह, वह अपने भीतर एक नया साहस महसूस कर रही थी। उसके चेहरे पर वर्षों बाद एक स्थायी मुस्कान थी, जो किसी आभूषण से ज़्यादा चमकदार थी। राघव भी बदल चुका था। कभी तलाक़ की कड़वी यादों में डूबा हुआ आदमी आज हल्का महसूस कर रहा था, जैसे उसका बोझ किसी ने उसके कंधों से उतार दिया हो। उसने अन्विता की तरफ देखा और मन ही मन सोचा कि प्यार शायद दूसरा मौका नहीं देता, बल्कि इंसान को खुद दूसरा मौका लेने की हिम्मत देता है। यह सफ़र अभी लंबा था, चुनौतियाँ अभी भी बाकी थीं, लेकिन आज की यह सुबह उन्हें यह यक़ीन दिला रही थी कि अब वे अकेले नहीं हैं। वे एक-दूसरे के सहारे खड़े हैं, और यही सहारा उनकी सबसे बड़ी ताक़त है।
जब वे पार्क के उस मोड़ तक पहुँचे जहाँ से सूरज पूरी तरह सामने उगता हुआ दिखाई दे रहा था, तो दोनों ने बिना कुछ कहे रुककर उस दृश्य को देखा। सूरज की लालिमा ने पूरे आसमान को रंग दिया था, और उनके दिलों को भी। राघव ने धीरे से कहा—“शायद यही वो नई सुबह है, जिसका हम इंतज़ार कर रहे थे।” अन्विता ने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा और जवाब दिया—“हाँ, इस बार डर नहीं, भरोसा हमारा साथ देगा।” दोनों ने महसूस किया कि उन्हें अब किसी वादे की ज़रूरत नहीं है। रिश्ते कभी वादों से नहीं चलते, बल्कि भरोसे से टिके रहते हैं। और उनके बीच यह भरोसा अब पनप चुका था। पार्क से बाहर निकलते हुए उनके कदमों की रफ़्तार एक जैसी थी, जैसे उनकी ज़िंदगी की दिशा अब एक हो गई हो। कोई शर्त नहीं थी, कोई उम्मीद नहीं थी, बस यह एहसास था कि इस बार उनका प्यार उन्हें टूटने नहीं देगा। और यही एहसास उनकी सबसे बड़ी जीत थी। सुबह की धूप की तरह उनका रिश्ता भी अब उजाले की ओर बढ़ चुका था। यह सचमुच “प्यार का दूसरा मौका” था—एक ऐसा मौका, जहाँ अतीत का बोझ पीछे छूट गया और भविष्य की राहें साथ-साथ खुल गईं।
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