Hindi - प्रेतकथा

पूर्वकथा का शाप

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अनामिका तिवारी


अध्याय : वह शिलालेख

धूप की किरणें पहाड़ की चोटियों को छूते हुए नीचे बसे गाँव को जगाने लगी थीं। पहाड़ी हवा में अभी भी रात की ठंडक बाकी थी। गाँव का नाम था “बद्रीनगर” — सघन देवदारों के बीच बसा एक छोटा-सा अज्ञात गाँव, जहाँ समय मानो रुक गया हो।

बद्रीनगर की सबसे पुरानी विरासत थी — कालेश्वर मंदिर, जो गाँव से कुछ दूरी पर पहाड़ी की चोटी पर स्थित था। यह मंदिर न सिर्फ अपने स्थापत्य के लिए, बल्कि वहाँ लिखे एक शिलालेख के कारण भी प्रसिद्ध था — वह शिलालेख, जिसे कोई नहीं छूता, कोई नहीं पढ़ता, बस डरता है।

गाँव में यह मान्यता थी कि शिलालेख को देखने मात्र से शाप फैल सकता है। कहते हैं, उस पर देवता द्वारा दिया गया एक पूर्वकथन अंकित है — “जिसने इसे पढ़ा, वह अपने वंश के अंत को स्वयं निमंत्रण देगा।”

गाँव में उस मंदिर तक जाना तो दूर, उसका ज़िक्र करना भी अशुभ माना जाता था। लेकिन उसी गाँव में उस दिन एक अजनबी आया — कंधे पर झोला, हाथ में पुरानी डायरी, और आँखों में अतीत को जानने की लालसा।

उसका नाम था रुद्र प्रताप

रुद्र कोई साधारण यात्री नहीं था। वह एक युवा पुरातत्व शोधकर्ता था, जिसने भारत के अनेक प्राचीन मंदिरों का अध्ययन किया था। परन्तु कालेश्वर मंदिर के विषय में उसने केवल एक धुँधली कथा अपने दादाजी से सुनी थी, जो इस गाँव के मूल निवासी थे।

रुद्र का उद्देश्य स्पष्ट था — उस शिलालेख को पढ़ना, समझना और सत्य को उजागर करना।

गाँव के लोग उससे कतराने लगे। कोई उसका सवालों का उत्तर नहीं देता, कोई उसकी तरफ देखता तक नहीं। केवल एक व्यक्ति — एक वृद्ध — ने उसे अपने घर बुलाया।

वह वृद्ध थे — पंडित वशिष्ठ, जो गाँव के पूर्व पुजारी थे, और अब समाज से दूर, मंदिर के नीचे एक टूटी झोपड़ी में रहते थे।

पंडित वशिष्ठ ने धीमे स्वर में कहा, “बेटा, वह शिलालेख कोई साधारण पत्थर नहीं है। वह हमारे पूर्वजों की पीड़ा, अपराध और पश्चाताप का प्रतीक है।”

रुद्र ने प्रश्न किया, “परंतु पंडितजी, यह अभिशाप कैसे हो सकता है? क्या सचमुच किसी शिलालेख में इतनी शक्ति होती है?”

पंडितजी ने अपनी धुँधली आँखों से दूर पहाड़ी की ओर देखा और बोले, “कभी-कभी, शब्दों में देवताओं का आशीर्वाद नहीं, उनका क्रोध भी छिपा होता है। उस शिलालेख में जो लिखा है, वह सिर्फ भविष्यवाणी नहीं, एक श्राप है — देवता द्वारा दिए गए दंड का दस्तावेज।”

रुद्र ने कहा, “मैं उसे पढ़ूंगा, पंडितजी। अगर वह शाप है, तो मुझे उसका मर्म जानना है।”

पंडितजी ने गहरी साँस ली, “ठीक है, पर याद रखो, जब कोई पूर्वकथा टूटती है, तब समय स्वयं बदलने लगता है।”

रुद्र ने उसी रात निर्णय लिया। अगली सुबह, जब सूरज की पहली किरण मंदिर के कलश पर पड़ेगी, वह मंदिर जाएगा।

लेकिन रात में, जब वह अपनी झोंपड़ी में था, तभी उसने एक सपना देखा।

वह स्वयं मंदिर में खड़ा था। शिलालेख उसके सामने था। जैसे ही उसने उस पर हाथ रखा, पूरे मंदिर में घंटियों की ध्वनि गूंजने लगी। एक भयावह आवाज़ आई — “तू ही वंश का अंतिम दीपक है। जो तूने छुआ, वह तेरा भविष्य नहीं, तेरे पूर्वजों का अपराध है।”

रुद्र की नींद खुल गई। पसीने से लथपथ उसका शरीर काँप रहा था।

क्या यह मात्र सपना था? या वास्तव में किसी अदृश्य शक्ति ने उसे चेतावनी दी थी?

अगली सुबह, गाँव के लोग जब अपने-अपने खेतों की ओर बढ़ रहे थे, रुद्र चुपचाप मंदिर की ओर निकल पड़ा।

उसके कदम तेज थे, पर हृदय में एक अजीब-सी घबराहट थी।

ऊपर मंदिर की शिखा उसे बुला रही थी। समय की धारा जैसे थम गई थी।

वह नहीं जानता था कि आज वह न सिर्फ एक शिलालेख को पढ़ने जा रहा है, बल्कि पूर्वकथा के शाप को भी जगाने वाला है।

अध्याय : शब्दों की छाया

कालेश्वर मंदिर की ओर जाती संकरी पगडंडी पर रुद्र अकेला चला जा रहा था। हर कदम के साथ हवा और ठंडी होती जा रही थी। देवदार के वृक्ष आपस में फुसफुसा रहे थे मानो उसे रोकना चाह रहे हों। उसकी जेब में वह पुरानी डायरी थी, जिसमें उसके दादाजी ने मंदिर के बारे में अधूरी बातें लिखी थीं।

जब वह मंदिर के प्रांगण में पहुँचा, तब सूरज की किरणें मंदिर के शिखर से टकरा रही थीं। पत्थरों पर उग आई काई और बेलों के बीच मंदिर अब भी भव्य दिखाई दे रहा था, मानो समय ने उसे छुआ ही न हो।

वह सामने बढ़ा — जहाँ वह शिलालेख था।

एक बड़ा काले पत्थर का फलक, जिस पर अक्षर खुदे हुए थे — गहरे, तीव्र और डरावने। कोई भाषा नहीं, कोई संकेत नहीं — बस प्रतीकात्मक लिपि जो देखने में अत्यंत प्राचीन प्रतीत हो रही थी।

रुद्र ने हाथ बढ़ाया।

उसने पत्थर की सतह को छुआ — जैसे ही उसकी उंगलियाँ उस पर पड़ीं, एक तेज़ झोंका उसकी पीठ से टकराया। मंदिर के भीतर की घंटियाँ स्वयं बजने लगीं, बिना किसी छेड़छाड़ के।

रुद्र चौंक गया, पर उसने अपने को संयमित रखा। उसने अपनी डायरी निकाली और उस लिपि की नकल उतारनी शुरू की।

लेकिन तभी…

शिलालेख के नीचे से हल्की धुंध उठने लगी। पत्थर की सतह पर कुछ नए शब्द प्रकट हुए — वे शब्द पहले वहाँ नहीं थे।

वे शब्द थे —
पुनर्जन्म की शर्तें पूर्ण हुईं। वंशदोष जागृत हुआ।

रुद्र सिहर उठा।

वह जानता था कि वह कोई सामान्य शोधकर्ता नहीं है। उसकी रगों में वही रक्त बह रहा है, जिसने एक समय यह शाप अर्जित किया था।

वह नीचे बैठ गया। पसीना उसके माथे से बह रहा था, और मंदिर के भीतर की हवा भारी होती जा रही थी।

तभी, पीछे से एक स्वर आया —
“तूने छुआ उसे, जिसकी रक्षा हमने सदियों तक की। अब वह जाग चुका है।”

रुद्र ने पलट कर देखा — वही वृद्ध पंडित वशिष्ठ खड़े थे, हाथ में त्रिशूल और माथे पर राख का तिलक।

“आप यहाँ कैसे?” रुद्र ने पूछा।

“मैं तुम्हें रोकना चाहता था, लेकिन नियति ने मुझे अनुमति नहीं दी,” पंडितजी ने कहा। “अब मुझे बताना होगा — उस पूर्वकथा का रहस्य, जिसे हम पीढ़ियों से छिपाते आए हैं।”

रुद्र ने आग्रह किया, “कृपया, बताइए। मैं जानना चाहता हूँ कि यह सब कैसे शुरू हुआ।”

पंडितजी ने गहरी साँस ली और बोले —
“सैकड़ों वर्ष पहले, इस मंदिर में एक राजा आया था — राजा जयवर्धन। वह यज्ञ कराना चाहता था ताकि उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हो। लेकिन जब यज्ञ हुआ, तो ब्राह्मणों ने बताया कि उसे संतान का अधिकार नहीं है — क्योंकि उसके पूर्वजों ने किसी ऋषि की कन्या के साथ छल किया था।”

“क्रोधित होकर, राजा ने ब्राह्मणों को मृत्युदंड दे दिया। तभी आकाशवाणी हुई — और यह शिलालेख लिखा गया, उसी के रक्त से।”

रुद्र हक्का-बक्का रह गया।

“तो क्या वह राजा मेरे पूर्वज थे?” उसने पूछा।

पंडितजी ने सिर हिलाया, “हाँ। और इसीलिए तुम्हारे दादाजी इस मंदिर के पास कभी नहीं आते थे। वे जानते थे कि तुम्हारी पीढ़ी में कोई न कोई इस शिलालेख को छूने जाएगा। और यही पूर्वकथा थी — ‘वंश का अंतिम दीपक ही वंशदोष को जगाएगा।’”

रुद्र की साँसें तेज़ हो गईं। “अब क्या होगा?”

पंडितजी बोले, “अब तुम्हें पूरी कथा जाननी होगी — और एक अंतिम निर्णय लेना होगा। तुम्हें अतीत की गलती सुधारनी होगी, वरना यह शाप न केवल तुम्हारे लिए, बल्कि पूरे गाँव के लिए विनाश का कारण बनेगा।”

रुद्र की आँखों में एक चिंगारी जागी — भय से नहीं, बल्कि सत्य जानने की जिद से।

उसने कहा, “मैं जानना चाहता हूँ। बताइए मुझे सबकुछ।”

पंडितजी बोले, “तो सुनो…”

और वहीं से कथा ने मोड़ लिया — अब केवल शोध नहीं, बल्कि आत्मबोध का समय आ गया था।

अध्याय : विरासत की आग

मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर रुद्र पंडित वशिष्ठ की आँखों में झाँक रहा था। सूरज अब ऊपर चढ़ चुका था, लेकिन मंदिर के चारों ओर छाया का साम्राज्य था। जैसे कोई अदृश्य शक्ति धूप को वहाँ पहुँचने से रोक रही हो।

पंडितजी ने अपनी रुखी हथेलियों को आपस में रगड़ते हुए कहना शुरू किया, “जिस समय राजा जयवर्धन ने ऋषि की कन्या पर अत्याचार किया था, उस समय आकाश से एक मंत्र गूंजा था। उसे किसी ने नहीं लिखा, पर शिलालेख पर वह मंत्र स्वतः उभर आया — वह पूर्वकथा थी। देवताओं ने राजा के कुल को शापित किया — ‘तेरा वंश तब तक जीवित रहेगा जब तक कोई उसका रहस्य नहीं जानता। जिस दिन कोई उसे जान जाएगा, उस दिन वंश का अंत निश्चित है।’”

रुद्र धीरे से बोला, “तो क्या अब मेरा जीवन, मेरा अस्तित्व ही उस शाप की अग्नि में घिर चुका है?”

पंडितजी बोले, “हाँ। और तुम्हारे लिए केवल दो मार्ग हैं — या तो तुम इस रहस्य को पुनः भुला दो, लौट जाओ और किसी को कुछ न बताओ। या फिर, तुम इस विरासत के अपराध को स्वीकार कर, उसका प्रायश्चित करो।”

रुद्र की आँखें बंद हो गईं। वह भीतर से टूट चुका था। क्या वह वाकई अपराधी था किसी और के पाप का? क्या वह अपने वंश के अंत का कारण बन जाएगा?

तभी मंदिर के गर्भगृह से एक विचित्र सी गंध उठी — जली हुई धूप, गीली मिट्टी और रक्त की मिली-जुली गंध। रुद्र उठा और भीतर गया।

वहाँ, मूर्ति के पीछे, एक और शिला रखी थी। पहले किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया था। लेकिन अब उस पर कुछ लिखा था — ताज़ा लिखा हुआ, मानो अभी उकेरा गया हो।

जिसने दोष को स्वीकारा, वही अग्नि में प्रवेश कर शुद्ध होगा। पर यदि उसने मुक्ति चाही, तो अग्नि उसे भस्म करेगी।

रुद्र ने काँपते स्वर में पूछा, “क्या मुझे अग्नि में प्रवेश करना होगा?”

पंडितजी ने सिर झुकाकर कहा, “तुम्हें उस पवित्र अग्निकुंड में बैठना होगा, जो इस मंदिर के नीचे छिपा है। वहीं से सब आरंभ हुआ था। वहीं उसका अंत भी संभव है। या तो तुम्हारा शरीर शुद्ध होकर बचेगा, या राख बन जाएगा। यह उसी पर निर्भर है, जो निर्णय तुमने लिया है — अपने पूर्वजों के पापों को स्वीकार कर प्रायश्चित करना, या उन्हें ठुकरा देना।”

रुद्र की सांसें तेज़ हो गईं। वह जानता था, अब कोई तीसरा मार्ग नहीं।

उसने मंदिर के कोने में रखा तांबे का पात्र उठाया, उसमें जल भरा, और देवता के चरणों में चढ़ाया। फिर वह झुका और आँखें बंद कर बोला,
“हे देव, मैं दोषी नहीं हूँ, पर मैं उत्तरदायी हूँ। मेरे पूर्वजों ने जो किया, उसका परिणाम मैं भोगने को तैयार हूँ। मेरी आहुति स्वीकार हो।”

तभी मंदिर की ज़मीन काँप उठी। एक पत्थर हटा और नीचे की ओर सीढ़ियाँ खुल गईं — अंधेरे की ओर जाती एक सुरंग।

पंडितजी बोले, “अग्निकुंड तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है, पुत्र।”

रुद्र ने दीपक उठाया और अंधेरे में उतर गया।

नीचे की हवा गरम थी, साँस लेना कठिन हो रहा था। लेकिन जैसे-जैसे वह नीचे बढ़ता गया, दीवारों पर चित्र उभरने लगे — राजा जयवर्धन, ऋषि की कन्या, शाप की आकाशवाणी, और रक्त से भीगे शब्द।

आख़िरकार, वह वहाँ पहुँचा — एक गोल चबूतरा, जिसके बीचों-बीच अग्नि जल रही थी — न तेज़, न मंद — बस स्थिर, गंभीर।

रुद्र चुपचाप चबूतरे पर बैठ गया। उसका शरीर काँप रहा था, पर उसकी आत्मा स्थिर थी।

उसने आँखें बंद कीं और मंत्र जपने लगा — वही मंत्र, जो उसकी दादी ने बचपन में सुनाया था, जिसका अर्थ वह तब नहीं समझता था।

तभी अग्नि की लपटें ऊपर उठीं — उसे छूने लगीं, उसके वस्त्र जलने लगे, शरीर तपने लगा।

पर रुद्र हिला नहीं। वह बैठा रहा, स्थिर।

और फिर, एक प्रकाश फूटा — दीपक जैसा, परंतु उससे सहस्त्र गुणा तेज़।

मंदिर के ऊपर, आकाश में इंद्रधनुष बना — और उसी क्षण, गाँव की हवा बदल गई।

पर नीचे… रुद्र बेहोश पड़ा था। उसका शरीर झुलस चुका था, पर वह जीवित था।

शायद, उसने शाप को तोड़ दिया था। या शायद, वह अभी जागने वाला था किसी नई पूर्वकथा की ओर।

अध्याय : धुएँ से लिखी स्मृतियाँ

रुद्र जब होश में आया, तब उसने स्वयं को एक अज्ञात कक्ष में पाया। दीवारें पत्थरों से बनी थीं, परंतु उन पर अंकित चित्र जीवंत प्रतीत हो रहे थे। चित्रों में अग्निकुंड, यज्ञ, अश्रुपूरित नेत्रों वाली एक युवती और राजा जयवर्धन की कठोर मूर्ति दिखाई दे रही थी। हर चित्र मानो उसकी चेतना को झकझोर रहा था।

वह उठ बैठा, पर शरीर में पीड़ा थी। वस्त्र जले हुए थे, किन्तु शरीर सुरक्षित था। केवल उसकी हथेलियों पर एक आकृति उभर आई थी — अग्नि और कमल का मिश्रित चिह्न।

तभी द्वार पर पायल की हल्की झंकार सुनाई दी।

एक युवती भीतर आई — सफेद वस्त्रों में, सिर पर हल्का घूंघट। उसकी आँखों में शांति थी, परंतु चेहरे पर गहन वेदना। उसने रुद्र के पास आकर कहा, “आपने शुद्धिकरण स्वीकार किया, इसलिए देवता ने आपको जीवित रखा। अब अगला चरण आरंभ होगा।”

रुद्र ने काँपते स्वर में पूछा, “आप कौन हैं?”

उसने उत्तर दिया, “मेरा नाम सिया है। मैं इस मंदिर की सेविका हूँ। पीढ़ियों से हमारा परिवार मंदिर की रक्षा करता आया है — विशेषकर उस रहस्य की, जो अभी भी पूर्ण रूप से प्रकट नहीं हुआ।”

रुद्र ने कहा, “मुझे सब जानना है, सिया। मुझे पूरी कथा जाननी है।”

सिया ने दीपक जलाया और कहा, “तो सुनिए — जब राजा जयवर्धन ने ऋषि की कन्या को अपमानित किया था, तब केवल शाप नहीं मिला था। वह कन्या — जिसका नाम था अर्णिका, स्वयं एक शक्तिशाली साध्वी थी। उसने केवल देवताओं से न्याय की प्रार्थना नहीं की थी, बल्कि अपनी आत्मा को कालेश्वर की अग्नि में समर्पित कर शुद्धि की माँग की थी। उसी रात आकाश फटा और शिलालेख स्वयं उभर आया।”

रुद्र विस्मित था, “तो यह केवल देवताओं का शाप नहीं था, बल्कि एक स्त्री की आत्मा की पुकार थी?”

सिया ने सिर हिलाया, “हाँ। और वह पुकार अब तक मौन नहीं हुई है। वह आत्मा अब भी इस मंदिर में वास करती है। जब-जब कोई उसके दोषी वंश का व्यक्ति इस मंदिर में आता है, वह जागती है — सत्य जानने के लिए, प्रायश्चित देखने के लिए।”

रुद्र ने कहा, “मैंने प्रायश्चित किया। अग्निकुंड में प्रवेश किया। क्या वह आत्मा अब शांत हो जाएगी?”

सिया की आँखों में आँसू थे। उसने कहा, “शांत तभी होगी, जब उसकी कथा सबको सुनाई जाएगी। जब कोई उसका सच स्वीकार करेगा — उसे सिर्फ एक शापित पात्र नहीं, बल्कि एक योद्धा समझेगा, जिसने अन्याय के विरुद्ध अपने अस्तित्व को समर्पित किया।”

रुद्र के हृदय में एक नया संकल्प जगा। उसने कहा, “मैं उसकी कथा लिखूँगा। उसे इतिहास के पन्नों में वह स्थान दूँगा, जो उससे छीन लिया गया था।”

सिया मुस्कराई। फिर बोली, “एक कार्य और बचा है। आपको शिलालेख का अंतिम भाग पढ़ना होगा — वह जो केवल अग्नि-स्नान के पश्चात प्रकट होता है। वहीं से तय होगा कि आपकी पीढ़ी का भविष्य क्या होगा।”

रुद्र ने सिर हिलाया। वह अब थक चुका था, पर भीतर एक अग्नि जल रही थी — सत्य की अग्नि।

सिया ने उसे सहारा दिया और मंदिर की सीढ़ियों तक लाकर छोड़ा। सूर्य अस्त हो रहा था। आकाश सिंदूरी रंगों से भर गया था।

मंदिर के प्रांगण में अब भी वही शिलालेख था — पर अब उसमें एक नई पंक्ति जुड़ गई थी।

जिसने अग्नि में प्रवेश किया और सत्य स्वीकारा, वही वंश को नया जीवन देगा। पर यदि वह पीछे हटा, तो युगों तक वंश विलुप्त रहेगा।

रुद्र ने आँखें बंद कर दीं।

वह जान गया था — अब उसका कार्य केवल मंदिर तक सीमित नहीं था। उसे गाँव, नगर, देश — सबको यह कथा सुनानी होगी। शाप को इतिहास की गलियों से निकालकर न्याय के रूप में स्थापित करना होगा।

उसने पंडित वशिष्ठ और सिया की ओर देखा। दोनों मौन थे, पर उनकी आँखों में स्वीकृति थी।

अब आगे था अंतिम पथ — जिसमें वह न केवल अपने वंश को पुनर्जीवित करेगा, बल्कि धुएँ में लिखी उस स्त्री की स्मृति को अमर करेगा।

अध्याय : काल का हस्ताक्षर

अगले दिन प्रातः रुद्र ने मंदिर की घंटी को धीरे से छूकर अपनी यात्रा आरंभ की। यह यात्रा शारीरिक नहीं, आत्मिक थी। वह गाँव की पगडंडियों से होते हुए पुनः पंडित वशिष्ठ के कक्ष में पहुँचा।

वहाँ पहले से ही पंडितजी और सिया उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे।

पंडितजी बोले, “अब जबकि तुमने अग्नि को स्वीकारा और शिलालेख का रहस्य जान लिया, अंतिम चरण आरंभ होता है — काल का हस्ताक्षर।”

रुद्र ने धीरे से पूछा, “यह क्या है?”

सिया आगे आई और बोली, “हर पूर्वकथा में एक मोहर होती है — जो अंतिम निर्णय पर लगती है। यदि तुम वंश को आगे ले जाना चाहते हो, तो तुम्हें काल के उस हस्ताक्षर को पढ़ना होगा, जो मंदिर की सबसे गुप्त गुफा में छिपा है।”

पंडितजी ने आगे कहा, “उस गुफा में कोई प्रवेश नहीं करता, क्योंकि वहाँ समय की रेखाएँ टूटी हुई हैं। वहाँ प्रवेश करने वाले को अपने ही अतीत का साक्षात्कार होता है। परन्तु वह आवश्यक है, क्योंकि केवल वही रुद्र, जो स्वयं को पहचान चुका है, उस मोहर को देख सकता है।”

रुद्र मौन रहा। कुछ देर बाद उसने सिर हिलाया।

सिया उसे मंदिर के पीछे ले गई, जहाँ एक सूखी जलधारा के नीचे एक छोटा सा द्वार था। पत्थरों से ढँका हुआ, जिसे खोलते ही एक तीव्र सन्नाटा भीतर से उमड़ पड़ा।

“यह द्वार एक बार खुलता है,” सिया ने कहा। “जो भीतर गया, वह या तो पूर्ण सत्य लेकर लौटता है… या सदा वहीं रह जाता है।”

रुद्र ने दीपक लिया, और बिना कुछ कहे, भीतर प्रवेश किया।

गुफा की दीवारें ठंडी थीं, पर भीतर हवा गर्म थी — जैसे वहाँ समय थमा नहीं, जला रहा हो।

कुछ कदम चलने के बाद, उसे सामने एक विशाल दीवार दिखाई दी, जिस पर खुदे थे कई चेहरे — राजा जयवर्धन, अर्णिका, और कई अनजान चेहरे। पर उन सभी के बीच एक चेहरा और था — रुद्र स्वयं का।

वह अचंभित रह गया।

चेहरे के नीचे लिखा था —
यह वही है, जो समय की परछाईं में अपनी पहचान देखेगा और निर्णय करेगावंश का भविष्य या स्वयं का अस्तित्व।

तभी, गुफा की दीवार पर एक प्रकाश उभरा। उसमें दिखने लगा एक दृश्य — अतीत का।

राजा जयवर्धन सभा में बैठा था। उसके समक्ष अर्णिका खड़ी थी — रोती, काँपती, परन्तु निडर।

वह कह रही थी, “राजन, मैंने आपको देवता का रूप समझा, आपने मुझे एक वस्तु बना दिया। इस अपराध का मूल्य न केवल आप, बल्कि आपके वंशज भी चुकाएँगे।”

और फिर, राजा के हाथ में खड्ग उठा, और अर्णिका का स्वर विलीन हो गया।

रुद्र के नेत्र भर आए। उसने दीवार पर हाथ रखा और बोला,
“अर्णिका, मैं तुम्हारा अपराधी नहीं हूँ, पर तुम्हारा उत्तरदायी हूँ। तुम्हारी पीड़ा को मैं अपनी लेखनी में उतारूँगा। तुम्हारा नाम, तुम्हारा यश, तुम्हारा दुःख — सब अमर रहेगा। मैं तुम्हें शापित नहीं, स्वतंत्र मानूँगा।”

तभी दीवार पर एक और पंक्ति उभरी —
हस्ताक्षर पूर्ण हुआ। काल ने साक्षी दी।

दीवार से प्रकाश निकला और रुद्र के माथे को छू गया।

एक पल के लिए समय रुक गया। अग्नि, जल, वायु, आकाश — सब उसकी आत्मा से जुड़ गए।

जब वह बाहर निकला, तो उसके शरीर से मंद ज्योति निकल रही थी। सिया और पंडितजी ने उसे देखा — वह अब केवल रुद्र नहीं था। वह अब पूर्वकथा का उत्तर था।

अध्याय : एक नई कथा

मंदिर के शिखर पर सूरज की पहली किरण जब पड़ी, तब रुद्र प्राचीन सीढ़ियों से उतर रहा था। उसके चेहरे पर तेज था, पर आँखों में कोई घमंड नहीं — केवल शांति, जैसे कोई ऋषि समाधि से लौटा हो। उसके मन में कोई प्रश्न नहीं बचा था, केवल उत्तर — जो अब उसे दूसरों को देने थे।

सिया ने धीमे स्वर में पूछा, “क्या आपने काल के हस्ताक्षर को देख लिया?”

रुद्र ने मुस्कराकर उत्तर दिया, “हाँ। मैंने उसे देखा, समझा, और स्वीकार किया। अतीत अब बोझ नहीं रहा, वह अब एक उत्तरदायित्व है — जिसे मैं पूरा करूँगा।”

पंडित वशिष्ठ ने अपनी काँपती हथेली उसके माथे पर रखी और कहा, “तुमने वंश का ऋण चुकाया, रुद्र। अब यह भूमि तुम्हारी नहीं, तुम्हारी कथा की है।”

रुद्र ने उत्तर दिया, “यह कथा अब केवल मेरी नहीं। यह अर्णिका की कथा है, उस स्त्री की जिसने अन्याय के विरुद्ध अपने प्राण दे दिए। अब वह शाप नहीं, एक चेतावनी है — समय का न्याय सदा उपस्थित होता है।”

कुछ दिन बाद, रुद्र गाँव छोड़ने की तैयारी में था। उसके पास कुछ पांडुलिपियाँ थीं — जिनमें वह सब कुछ लिख चुका था। अतीत, अपराध, शाप, अग्नि, शुद्धिकरण — और सबसे महत्त्वपूर्ण — एक स्त्री की मौन पुकार, जो अब शब्दों में बदल चुकी थी।

गाँव के लोग अब उससे आँख मिलाकर बात करते थे। जो कल तक उसे अजनबी मानते थे, आज उसे अपनी विरासत का प्रहरी समझते थे।

सिया उसे मंदिर के द्वार तक छोड़ने आई। हवा में अब भी मंदिर की घंटियों की मधुर ध्वनि थी, पर वह भय नहीं देती थी, बल्कि जैसे आशीर्वाद की तरह बज रही थी।

रुद्र ने सिया से कहा, “क्या तुम मेरे साथ चलोगी? यह कथा केवल मेरी कलम से नहीं, तुम्हारी आँखों से भी जानी जानी चाहिए।”

सिया ने मुस्कराकर कहा, “नहीं रुद्र। मेरा स्थान इस मंदिर में है। तुम्हारी कथा जब पुस्तक बनकर लौटेगी, तब मैं उसे पहली पाठक बनूँगी।”

रुद्र ने सिर झुकाया, और फिर पगडंडी की ओर बढ़ चला।

वर्षों बाद…

एक पुस्तक आई —
पूर्वकथा: एक स्त्री की अनकही गाथा
लेखक — रुद्र प्रताप

यह पुस्तक केवल एक शोध नहीं थी, न ही मात्र इतिहास का दस्तावेज़। यह एक न्याय था, एक नई दृष्टि — जिससे लोगों ने अतीत को नए नज़रिए से देखना शुरू किया।

विद्यार्थियों ने पढ़ा, शिक्षकों ने सिखाया, और स्त्रियों ने गर्व से कहा — “यह हमारी कथा है।”

और उस गाँव में, मंदिर की छाया में, अब कोई भय नहीं रहता था।

हर पूर्णिमा को वहाँ दीप जलते थे — अर्णिका की स्मृति में।

और हवा में गूँजता था एक मंत्र —
जिसने सत्य को स्वीकारा, उसी ने भविष्य को रचा।

पूर्वकथा समाप्त हो चुकी थी।

पर…

एक नई कथा आरंभ हो चुकी थी।

समाप्त

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