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पूर्णिमा की रात

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श्रुति चतुर्वेदी


अध्याय १: चाँदनी और लोककथा

कुमाऊँ की पहाड़ियों में बसा वह छोटा सा गाँव अपनी ठंडी हवाओं, चीड़ के ऊँचे-ऊँचे वृक्षों और सदियों पुरानी लोककथाओं के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। बरसों से बुजुर्गों की कहानियों में एक रहस्य जिंदा था—पूर्णिमा की रात एक सफेद साड़ी में लिपटी औरत की परछाईं तालाब की ओर जाती दिखती थी, जिसके होठों पर एक उदास लोकधुन होती थी। गाँव के बच्चों को पालने की कहानियों में, जवानों को चेतावनी के रूप में और बूढ़ों के डरावने अनुभवों में यह परछाईं बार-बार आती थी। कहते थे, जो भी उस गीत के पीछे गया, वह कभी लौटकर नहीं आया। पर समय के साथ जैसे-जैसे पीढ़ियाँ बदलती गईं, यह कथा भी कुछ लोगों के लिए बस एक डरावनी कहानी बनकर रह गई थी। लेकिन उस रात, जब चाँदनी ने पूरे गाँव को अपनी चादर में लपेट लिया था, तब पुजारी की बेटी सौम्या के दिल में यह कहानी फिर से धड़क उठी। मंदिर के आँगन में खड़ी होकर, उसने तालाब की दिशा में देखा, जहाँ से धीमे-धीमे वह करुणा से भरी लोकधुन उसके कानों तक आ रही थी, जैसे सदियों से उसका इंतजार कर रही हो। सौम्या की बड़ी-बड़ी काली आँखों में डर कम, जिज्ञासा ज्यादा थी; वह जानना चाहती थी कि आखिर कौन है वह, क्यों हर पूर्णिमा को तालाब की राह पकड़ती है, और क्यों कोई लौटकर नहीं आता।

सौम्या अपने पिता पंडित हरिदत्त की इकलौती संतान थी। बचपन से ही वह मंदिर के प्रांगण में भगवान की मूर्तियों को फूल चढ़ाना, दिया जलाना और पूजा की थालियाँ सजाना सीखती आई थी। उसकी माँ बचपन में ही चल बसी थी, और पिता के चेहरे पर कभी न उतरने वाली गम्भीरता का कारण भी वही था। पर सौम्या के मन में हमेशा से कुछ अनकहे सवाल थे—वह सब जानना चाहती थी, जो उसके पिता ने कहानियों में छुपा दिया था या जिनके उत्तर देने से वह बचते थे। गाँव की पगडंडियों पर चलते हुए जब भी तालाब का जिक्र होता, पिता की आँखों में डर की झलक दिखती और वे बात बदल देते। पर आज, पूर्णिमा की रात, चाँद की उजली रोशनी में, सौम्या का मन और भी बेचैन था। बचपन से जिन लोकगीतों को उसने सुना था, वे आज पहली बार सजीव लग रहे थे। उसे तालाब के पास जाने की इच्छा हो रही थी, मानो उस सफेद साड़ी वाली परछाईं की पुकार सिर्फ उसी के लिए हो। पर फिर भी, उसके कदम ठिठके हुए थे, क्योंकि बचपन से उसने अपने पिता की कही एक बात गहरे मन में बैठा रखी थी—कुछ रहस्य, रहस्य ही रहते हैं, उन्हें जानने की कोशिश इंसान को भारी पड़ती है।

गाँव के बुजुर्ग अक्सर कहते कि यह लोकधुन असल में किसी रूह की पुकार नहीं, बल्कि अधूरी मोहब्बत का विलाप है। पर यह भी सच था कि पिछले कुछ वर्षों में कुछ युवक जो तालाब की दिशा में उस गीत के पीछे-पीछे गए, वे सच में कभी वापस नहीं लौटे। लोगों ने उनके बारे में कई कहानियाँ गढ़ीं—कोई कहता रूह ने उन्हें अपने साथ ले लिया, कोई कहता उन्होंने खुद ही डर के मारे तालाब में कूदकर जान दे दी। सौम्या ने इन कहानियों को हमेशा सुना था, पर अब वह सिर्फ सुनना नहीं चाहती थी, वह देखना और समझना चाहती थी। चाँद की रोशनी में तालाब की ओर फैला घना जंगल किसी रहस्य की तरह उसे अपनी ओर खींच रहा था। उस पल में, मंदिर के आँगन में खड़ी सौम्या को पहली बार लगा कि उसकी किस्मत उसी सफेद साड़ी वाली परछाईं से जुड़ी हुई है। कौन थी वह स्त्री, क्यों हर पूर्णिमा की रात वह गीत गाती है और क्यों किसी को उसका सच जानने की इजाज़त नहीं? इसी सवालों की गूंज के साथ सौम्या की आँखें धीरे-धीरे बंद हुईं, पर दिल में ठान लिया कि वह इस रहस्य से परदा हटाकर ही दम लेगी।

अध्याय २: तालाब की पुकार

पूर्णिमा की अगली रात जब चाँद फिर से अपनी पूरी रोशनी में पहाड़ियों पर उतर आया, तब गाँव में वही सिहरन की लहर दौड़ पड़ी जिसे बुजुर्गों ने वर्षों से हर बार महसूस किया था। हवा में ठंडक के साथ एक अजीब सी नमी भी थी, जैसे हर पेड़, हर पत्ता किसी अनजानी घबराहट को छुपाए बैठा हो। सौम्या अपने कमरे की खिड़की से बाहर देख रही थी, जहाँ चाँदनी से भीगे हुए चीड़ के पेड़ रहस्यमय परछाइयाँ बना रहे थे। उसका दिल जोर से धड़क रहा था; वह तय कर चुकी थी कि इस बार वह उस परछाईं को नज़दीक से देखेगी। मंदिर की पुरानी सीढ़ियों से उतरकर वह चुपचाप गाँव की पगडंडी की ओर बढ़ी, जहाँ से तालाब की राह जाती थी। हर कदम पर उसके मन में डर और जिज्ञासा की लहरें आपस में टकरा रही थीं। दूर कहीं से वही लोकधुन की धीमी-धीमी ध्वनि हवा में घुली आ रही थी, जो सुनने में करुणा से भरी थी पर साथ ही उसमें एक ऐसी पुकार भी थी, जो दिल के किसी कोने को हिला देती थी। सौम्या की साँसें तेज हो गईं, उसकी आँखों में डर की जगह एक अलग सी तड़प थी—उसकी आत्मा उस गीत में कुछ खोज रही थी, शायद किसी पुराने दुःख का सच या किसी भूली हुई कहानी का सिरा।

जैसे-जैसे सौम्या तालाब के पास पहुँची, चाँद की रोशनी और भी उजली होती गई, और उसकी आँखों के सामने तालाब की काली सतह पर चाँद का प्रतिबिंब चमक उठा। तालाब के किनारे पर खड़ी वह परछाईं अब पहले से ज़्यादा साफ दिख रही थी—सफेद साड़ी में लिपटी एक औरत, जिसके लंबे खुले बाल हवा में हौले-हौले हिल रहे थे, और जिसकी पीठ सौम्या की ओर थी। वह औरत धीरे-धीरे तालाब की ओर बढ़ रही थी, जैसे किसी अदृश्य शक्ति से खिंचती चली जा रही हो। उसके होंठों पर वही करुणा से भरा लोकगीत था, जिसे सुनकर रूह काँप उठे, पर जिसकी मिठास में कोई अनजानी व्यथा भी छुपी थी। सौम्या का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा; उसके पाँव ज़मीन से जैसे चिपक से गए थे, पर आँखें उस औरत से हटने का नाम नहीं ले रही थीं। वह कुछ कह नहीं पा रही थी, कुछ पूछ नहीं पा रही थी, बस देख रही थी और उस लोकधुन को अपने दिल में महसूस कर रही थी।

तभी अचानक सौम्या के कंधे पर किसी ने जोर से हाथ रख दिया, और वह डर के मारे पीछे मुड़ी—वहाँ अर्जुन खड़ा था, जिसकी साँसें भी तेज़ थीं और आँखों में डर के साथ-साथ गुस्सा भी। उसने फुसफुसाकर कहा, “तू पागल हो गई है क्या, सौम्या? तुझे पता भी है लोग क्यों नहीं लौटते?” सौम्या कुछ कहना चाहती थी पर शब्द गले में अटक गए। अर्जुन ने उसका हाथ पकड़ा और पीछे खींचने की कोशिश की, पर सौम्या की नज़रें अब भी उस सफेद साड़ी वाली परछाईं पर टिकी थीं, जो धीरे-धीरे तालाब की सतह के करीब पहुँच चुकी थी। तालाब के पानी पर चाँदनी का प्रतिबिंब हिल रहा था, और ऐसा लग रहा था जैसे वह स्त्री उसमें समा जाने को तैयार हो। अर्जुन की पकड़ मजबूत होती गई, और वह सौम्या को वापस पगडंडी की ओर खींचता चला गया। दिल के किसी कोने में सौम्या को दुख सा हुआ, जैसे किसी अधूरी कहानी से अचानक दूर खींच लिया गया हो। पर उसने मन ही मन ठान लिया कि यह आखिरी बार नहीं होगा, वह फिर आएगी, उस गीत की पुकार को फिर सुनेगी—और तब शायद वह उस रहस्य का सच जान सकेगी, जो पीढ़ियों से इस गाँव की रातों को डर और करुणा में लपेटे हुए था।

अध्याय ३: बूढ़ी गौरी दादी की कथा

अगली सुबह गाँव की गलियों में हल्की धुंध फैली हुई थी, और रात का डर अब भी लोगों की आँखों में ठहरी थी। सौम्या मंदिर के आँगन में बैठी थी, पर उसका मन शांति में नहीं था; उसकी आँखों के आगे बार-बार वही सफेद साड़ी में लिपटी परछाईं घूम रही थी, और कानों में वही करुणा से भरी लोकधुन गूंज रही थी। वह जानती थी कि अगर उसे सच जानना है, तो उसे उस औरत के बारे में और जानना पड़ेगा। उसे याद आया कि गाँव में सिर्फ एक ही इंसान है जिसने बरसों पहले उस परछाईं को अपनी आँखों से देखा था—बूढ़ी गौरी दादी। उम्र के बोझ से झुकी हुई, पर आँखों में अब भी बीते ज़माने की कहानियों की चमक लिये गौरी दादी गाँव के सबसे पुराने घर में रहती थीं। सौम्या ने तय कर लिया कि वह आज ही उनके पास जाएगी, चाहे पिता नाराज़ हों या अर्जुन मना करे, उसकी जिज्ञासा किसी भी डर से बड़ी थी।

दोपहर की धूप में वह धीरे-धीरे गौरी दादी के आँगन तक पहुँची, जहाँ एक पुरानी खाट पर बैठी दादी पीतल की कटोरी में तुलसी के पत्ते चुन रही थीं। उनकी झुर्रियों से भरी आँखें जैसे सौम्या को आते ही पढ़ गईं। बिना कुछ पूछे ही दादी ने धीमे स्वर में कहा, “फिर किसी ने गीत सुना है, है न?” सौम्या कुछ पल के लिए चुप रही, फिर धीरे से सिर हिलाया। दादी ने एक लंबी साँस ली, और आसमान की ओर देखते हुए बोलने लगीं, “बरसों पहले की बात है बिटिया… उसका नाम रेवती था, गाँव की सबसे सुंदर और सजीव लड़की। उसकी हँसी में जैसे पहाड़ी झरनों की आवाज़ होती थी। रेवती को गाँव के ही एक युवक से प्रेम हो गया था, जो काठगोदाम से पढ़कर आया था। लोग कहते थे उनकी जोड़ी पर खुद चाँद भी हँसता था। लेकिन युद्ध छिड़ा और वह युवक कभी वापस नहीं लौटा। इंतज़ार करते-करते रेवती की आँखों का उजाला बुझ गया, और एक पूर्णिमा की रात, वह उसी तालाब में चली गई जहाँ से अब सिर्फ उसकी लोकधुन लौटती है।”

 

दादी की आँखों में एक क्षण को आँसू झिलमिलाए, फिर उन्होंने अपनी रुकती साँसों के बीच कहा, “कहते हैं, रेवती की आत्मा आज भी उसी प्रेमी को बुलाती है, हर पूर्णिमा की रात। उसकी पुकार में मोहब्बत है, पर अधूरी मोहब्बत की पीड़ा उसे चैन नहीं लेने देती। जो भी उस गीत की गहराई को समझने की कोशिश करता है, वह भी उस दर्द में डूब जाता है—और कभी लौटकर नहीं आता।” सौम्या स्तब्ध होकर सुनती रही; उसका दिल रेवती के दर्द से जैसे बंध गया था। वह जानती थी, यह सिर्फ डर की कहानी नहीं थी, इसमें कोई ऐसा सच था, जिसे महसूस करना ज़रूरी था। और उस क्षण, बूढ़ी गौरी दादी की काँपती आवाज़ के बीच, सौम्या ने अपने मन में ठान लिया कि वह रेवती की कहानी को दुनिया के सामने लाएगी, चाहे इसके लिए उसे फिर से उस तालाब की ओर खींचने वाली पुकार का सामना क्यों न करना पड़े।

अध्याय ४: पिता का भय

उस शाम मंदिर के आँगन में हवा में हल्की ठंडक थी और घंटियों की आवाज़ दूर तक गूंज रही थी, पर सौम्या के दिल की बेचैनी अब और भी गहरी हो चुकी थी। गौरी दादी की बातें बार-बार उसकी स्मृतियों में लौटकर आ रही थीं, जैसे हर शब्द में कोई अनकहा दर्द छुपा हो। जब सौम्या घर लौटी तो पिता, पंडित हरिदत्त, मंदिर की दीवार से टेक लगाकर ध्यान में बैठे थे। उनकी आँखें खुलीं तो उन्होंने बेटी के चेहरे पर छाया असमंजस देख लिया। कुछ पल तक दोनों के बीच मौन पसरा रहा, फिर पंडित जी की आवाज़ में गम्भीरता के साथ-साथ चिंता भी घुली हुई थी, “कहाँ गई थी तू, सौम्या?” सौम्या ने रुकते हुए धीमे स्वर में कहा, “गौरी दादी के पास…” यह सुनकर पंडित जी का चेहरा कुछ पल में ही सख्त हो गया, जैसे किसी पुराने जख्म पर फिर से परत खुल गई हो। उन्होंने काँपते स्वर में कहा, “मैंने तुझसे कहा था उस तालाब के बारे में पूछताछ मत कर… तुझे समझ नहीं आता, कुछ रहस्य इंसानों के जानने के लिए नहीं होते।”

सौम्या की आँखों में कुछ कहने की कोशिश थी, पर पिता की आँखों में जो डर था, उसने उसकी हिम्मत को रोक दिया। पंडित हरिदत्त का चेहरा जैसे बरसों पुरानी यादों से भारी हो उठा, और उनकी आवाज़ में एक दर्द भी था, “तुझे पता है, मेरी माँ… तेरी दादी भी एक बार उस गीत के पीछे चली गई थी… फिर कभी वापस नहीं आई। मैं बच्चा था तब, पर उस रात की याद आज भी नींद में डराकर जगा देती है।” कहते-कहते उनके हाथ काँपने लगे। सौम्या पहली बार अपने पिता को इस तरह टूटा हुआ देख रही थी। उस क्षण उसने महसूस किया कि पिता के डर के पीछे सिर्फ लोककथाओं का भय नहीं, बल्कि उनका खुद का गहरा जख्म भी छुपा था। उसकी आँखों में आँसू आ गए, पर उसके दिल की जिज्ञासा अब भी शांत नहीं हुई थी। उसने चाहा कि वह पिता को समझाए कि रेवती की आत्मा शायद किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं चाहती, बस अपनी व्यथा किसी को सुनाना चाहती है। पर शब्द गले में अटक गए; पिता की आँखों में जो भय था, वह किसी तर्क या दिलासे से मिटने वाला नहीं था।

 

उस रात सौम्या देर तक मंदिर के प्रांगण में बैठी रही, चाँदनी से भीगी सीढ़ियों पर, जहाँ से तालाब की दिशा में धुंधली रोशनी दिखाई देती थी। हवा में अब भी जैसे वह करुणा से भरी लोकधुन बसी हुई थी। पिता के डर और अपने दिल की पुकार के बीच वह खुद को बँटा हुआ महसूस कर रही थी। पर भीतर कहीं गहरे में उसने तय कर लिया था—वह रुकने वाली नहीं थी। उसके लिए यह सिर्फ एक आत्मा का रहस्य नहीं, बल्कि अधूरी मोहब्बत की कहानी थी, जिसे पूरी तरह सुने बिना वह कभी चैन से नहीं बैठ पाएगी। चाँद की रोशनी में उसके चेहरे पर भय की छाया कम और एक अदृश्य साहस की झलक ज़्यादा थी, जैसे उसकी किस्मत उसे बार-बार उसी तालाब की ओर बुला रही थी।

अध्याय ५: प्रेम और परछाईं

अगले कुछ दिनों तक गाँव में हलचल कम हो गई, पर सौम्या का मन भीतर ही भीतर और भी बेचैन होता गया। पिता की चेतावनी उसके दिल पर बोझ की तरह थी, पर दिल की पुकार कहीं गहरी और ज़िद्दी थी। रातों को उसे नींद नहीं आती, और खिड़की के बाहर जब भी चाँदनी तालाब की दिशा में गिरती, उसकी आँखों में वही सफेद साड़ी वाली परछाईं तैरने लगती। इन ही दिनों में अर्जुन, जो बचपन से उसका सच्चा दोस्त था, उसकी बेचैनी को देख कर और भी चिंतित हो गया। वह बार-बार उसे समझाता, “सौम्या, लोग यूँ ही नहीं डरते… अगर तू भी उस रास्ते पर जाएगी तो…” पर उसके शब्द अधूरे रह जाते, क्योंकि सौम्या की आँखों में सिर्फ एक ही सवाल था—क्या किसी की आत्मा सच में इतनी निर्दयी हो सकती है, या यह सब किसी अधूरी कहानी का नतीजा है? अर्जुन की चिंता में प्रेम था, पर प्रेम से ज़्यादा डर था—डर कि कहीं वह भी उसी तरह खो न जाए जैसे बाकी लोग खो गए।

एक शाम, जब चाँद फिर से आसमान में अपने पूरे सौंदर्य में खिला, तब सौम्या मंदिर के आँगन में बैठी थी और सोच रही थी कि वह फिर से तालाब जाएगी। उसकी साँसें तेज़ थीं, पर दिल में अब डर से ज़्यादा तड़प थी—रेवती की अधूरी पुकार को सुनने की तड़प। तभी अर्जुन वहाँ आ गया, उसकी आँखों में गुस्सा और डर दोनों थे। “क्या तू फिर से तालाब जाने की सोच रही है?” उसने कड़े स्वर में पूछा। सौम्या ने उसकी आँखों में देखा और धीमे से कहा, “अर्जुन, मैं उस परछाईं को समझना चाहती हूँ… वह किसी को मारती नहीं है, वह तो किसी को सुनाना चाहती है।” अर्जुन ने उसकी बात को काटते हुए कहा, “और अगर तू भी नहीं लौटी तो? तेरे पिता… वो सब कैसे सहेंगे?” उस पल सौम्या का दिल दर्द से भर गया, पर उसकी नज़रों में अब भी वही जिद थी। अर्जुन की आवाज़ थरथरा रही थी, “तुझे पता भी है मैं तुझसे…” पर उसने अपना वाक्य अधूरा छोड़ दिया। वह जो कहना चाहता था, वह सौम्या की आँखों में लिखा था—वह उससे प्यार करता था, पर शब्दों में कह नहीं पाया।

 

उस रात, सौम्या ने आखिरी बार अर्जुन की ओर देखा और फिर तालाब की दिशा में चल पड़ी। रास्ते में चाँदनी पेड़ों की शाखाओं से छनकर ज़मीन पर पड़ रही थी, जैसे किसी ने सफेद फूल बिछा दिए हों। हवा में वही लोकधुन हल्के स्वर में बह रही थी, मानो किसी अनसुनी व्यथा की गवाही दे रही हो। तालाब के किनारे पहुँचते ही सौम्या की आँखों के सामने वही परछाईं आई—सफेद साड़ी में, बाल हवा में उड़ते हुए, और होंठों पर करुणा भरी धुन। सौम्या की आँखों में डर कम और दर्द ज़्यादा था, जैसे वह उस आत्मा के दुख को देख पा रही थी। कुछ पल के लिए लगा, जैसे रेवती की आत्मा ने भी उसे देख लिया हो—उसकी आँखों में एक पल को हल्की सी नमी और पहचाने जाने की झलक थी। पर फिर सब कुछ वैसा ही रह गया—गीत चलता रहा, चाँदनी बिखरती रही, और सौम्या का दिल और भी गहराई से उस दर्द में डूबता चला गया, जिसे लोग सदियों से सिर्फ डर कहकर टालते आए थे।

अध्याय ६: तालाब का रहस्य

चाँदनी रात में तालाब का पानी शांत था, पर उस शांति में भी एक अनकहा दर्द तैर रहा था। सौम्या ने धीरे-धीरे कदम बढ़ाए, पत्तों की सरसराहट के बीच उसकी साँसों की आवाज़ और तेज़ सुनाई देने लगी। तालाब के किनारे खड़ी वह स्त्री अब पहले से भी साफ दिख रही थी—सफेद साड़ी में लिपटी, लंबे खुले बाल, पीठ सौम्या की ओर और वही करुणा भरी लोकधुन। कुछ क्षण के लिए सौम्या को ऐसा लगा जैसे उसकी धड़कनें रुक गई हों, जैसे पूरी कायनात थम गई हो। फिर उसने साहस जुटाया और औरत के कुछ और करीब गई। हवा की ठंडक ने उसकी त्वचा को छूकर डर और जिज्ञासा को और गहरा कर दिया, पर उसके कदम नहीं रुके। तभी अचानक वह स्त्री मुड़ी—चेहरे पर अधूरी पीड़ा की छाया, आँखों में सूनी सी तलाश, और होंठों पर वह गीत, जो अब भी थमा नहीं था। सौम्या की आँखें भर आईं; उस क्षण उसे डर नहीं लगा, बल्कि लगा जैसे सामने खड़ी आत्मा भी इंसान ही थी—किसी की प्रेमिका, किसी की बेटी, किसी की कहानी।

कुछ पलों तक दोनों की आँखें मिलीं, और सौम्या को लगा कि रेवती कुछ कहना चाहती है—शायद अपनी व्यथा, शायद अपनी अंतिम इच्छा। पर शब्द कभी आत्माओं के पास नहीं होते, बस आँखों में बस जाते हैं। सौम्या की साँसें तेज़ हो गईं, और दिल में एक बोझ उतर आया कि यह आत्मा किसी को नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं भटक रही, बल्कि इसलिए कि उसकी आवाज़ सुनी जाए, उसकी कहानी जानी जाए। तालाब के काले पानी पर चाँदनी का प्रतिबिंब अब भी हिल रहा था, जैसे उसमें भी कोई राज़ छुपा हो। अचानक हवा ने पेड़ों की शाखाओं को हिलाया, और रेवती की परछाईं भी कुछ क्षण के लिए धुंधली होकर फिर स्पष्ट हो गई। सौम्या ने धीमे से हाथ बढ़ाकर कुछ कहने की कोशिश की, पर शब्द फिर से गले में अटक गए। उसकी आँखों में आँसू थे, पर डर नहीं था—सिर्फ समझने की तड़प थी।

 

रेवती ने कुछ नहीं कहा, बस वही लोकधुन गाती रही, और धीरे-धीरे तालाब की ओर बढ़ गई। पानी की सतह पर उसके कदमों की परछाईं लहरों में टूटती-बिखरती चली गई, और फिर सब शांत हो गया। सौम्या वहीं खड़ी रही, दिल में भारीपन और आँखों में वह तस्वीर लिए जिसे शायद कोई और कभी नहीं देख पाएगा। उस क्षण उसे एहसास हुआ कि रेवती की आत्मा सच में किसी को बुला नहीं रही थी, वह तो बस अपने प्रेमी को पुकार रही थी, हर पूर्णिमा की रात, उस दिन के इंतज़ार में जो कभी नहीं आएगा। और जो लोग उस पुकार को सुनकर लौटकर नहीं आए, शायद वे भी डर से नहीं, बल्कि उसी पीड़ा में खो गए, जिसे सौम्या ने आज पहली बार इतने करीब से महसूस किया था।

अध्याय ७: अधूरी प्रेम कहानी

उस रात के बाद सौम्या का दिल और भी बेचैन हो गया, जैसे रेवती की सूनी आँखों ने उसके भीतर कोई दीपक जला दिया हो, जो अब बुझने का नाम नहीं ले रहा था। अगले दिन मंदिर के पुराने कक्ष में रखी धूल भरी पांडुलिपियों, ताम्रपत्रों और पीले पड़ चुके दस्तावेज़ों के बीच वह सच्चाई की तलाश में उतर गई। हर पन्ने पर उसे उम्मीद थी कि रेवती की अधूरी कहानी का कोई सिरा मिलेगा, कोई शब्द जो उस आत्मा के विलाप को समझने में मदद करेगा। घंटों की खोज के बाद उसे एक पुरानी हस्तलिखित किताब मिली, जिसमें गाँव की कहानियाँ और लोकगाथाएँ दर्ज थीं। काँपते हाथों से सौम्या ने पन्ने पलटे, और उसकी आँखें उस पंक्ति पर ठहर गईं जहाँ लिखा था—“रेवती, गाँव की सबसे सुंदर कन्या, जिसने प्रेम में धोखा पाकर स्वयं को तालाब में समर्पित कर दिया। कहते हैं, उसकी आत्मा हर पूर्णिमा की रात अपने प्रेमी को पुकारती है, पर वो पुकार कभी पूरी नहीं होती।”

यह पढ़ते ही सौम्या की आँखों में धुंध सी छा गई, और दिल में अजीब सी टीस उठी। वह समझ गई कि रेवती की आत्मा किसी को मारने या डराने के लिए नहीं भटकती; वह तो बस उस अधूरे प्रेम की पीड़ा से मुक्त होना चाहती है। उसी दिन सौम्या ने बूढ़ी गौरी दादी से फिर मिलने का निश्चय किया, ताकि वह कहानी के अधूरे टुकड़े जान सके। गौरी दादी की आँखों में उम्र की थकान थी, पर रेवती का नाम सुनते ही उनमें पुरानी स्मृतियों की चमक जागी। धीमे स्वर में उन्होंने कहा, “रेवती का प्रेमी युद्ध में मारा गया था, पर गाँववालों ने समझा कि वह उसे छोड़कर चला गया। इस अपमान और वियोग में रेवती ने तालाब को अपनी चिता बना लिया। तभी से उसकी आत्मा उसी प्रेमी को बुलाती रहती है, जिसे वह आज भी भूल नहीं पाई है।”

 

सौम्या की आँखों में नमी थी, पर मन में एक ठान भी—अगर वह इस कहानी को लोगों तक पहुँचाएगी, तो शायद रेवती की आत्मा को भी शांति मिलेगी। उसे अब समझ आ चुका था कि जो लोग लौटकर नहीं आए, वे रेवती के गीत में खोकर उसके दर्द का हिस्सा बन गए—डर से नहीं, बल्कि उस पुकार से जिसे कोई भी संवेदनशील दिल अनसुना नहीं कर सकता था। उस रात मंदिर के आँगन में चाँदनी की सफेद चादर बिछी थी, और सौम्या ने उसी चाँद की ओर देखते हुए मन ही मन कहा, “रेवती, मैं तेरा गीत सुन चुकी हूँ… और मैं इसे दूसरों तक भी पहुँचाऊँगी।” उस क्षण उसे लगा जैसे दूर तालाब की ओर से कोई धीमी सी मुस्कुराहट की हवा आई, और चाँद की रोशनी थोड़ी और कोमल हो गई—जैसे रेवती की आत्मा ने पहली बार किसी को सुना हुआ महसूस किया हो।

अध्याय ८: मुक्ति की रात

पूर्णिमा की अगली रात जब गाँव की पगडंडियों पर चाँदनी चुपचाप उतर आई और तालाब के काले पानी पर चाँद का प्रतिबिंब हल्का-हल्का揺ने लगा, सौम्या के दिल में भी एक अजीब सी शांति और साहस उमड़ आया। उसके भीतर अब डर की जगह वह संकल्प था, जो रेवती की अधूरी कहानी को पूरी करना चाहता था। मंदिर की सीढ़ियों से उतरते समय उसने एक बार पीछे मुड़कर देखा, जहाँ पिता का चेहरा अब भी चिंता से भरा था, पर उनकी आँखों में पहली बार एक मौन स्वीकृति की झलक भी थी—शायद उन्होंने भी समझ लिया था कि कुछ सवालों के जवाब खोजे बिना आत्मा को भी चैन नहीं मिलता। हवा में वही करुणा भरी लोकधुन घुली हुई थी, जो हर पूर्णिमा की रात गाँव के दिल में सिहरन भर देती थी, पर इस बार सौम्या की चाल में डर नहीं था—केवल अपनापन था, जैसे वह किसी पराई आत्मा से नहीं, बल्कि अपनी ही छाया से मिलने जा रही हो।

तालाब के पास पहुँचकर सौम्या की नज़रें उसी सफेद साड़ी में लिपटी परछाईं पर टिक गईं, जो तालाब के पानी की ओर बढ़ रही थी। उसकी चाल में वही पुराना दर्द था, पर उसकी आँखों में आज कुछ अलग सा भी झलक रहा था—जैसे वह सौम्या की उपस्थिति को पहचान गई हो। सौम्या ने अपने भीतर की हिम्मत समेटकर धीमे स्वर में कहा, “रेवती, मैं तुझे सुन चुकी हूँ… और अब मैं तेरी कहानी सबको सुनाऊँगी, ताकि तुझे फिर पुकारना न पड़े।” उस क्षण हवा जैसे ठहर सी गई, तालाब का पानी हल्की सी लहरों में काँपा, और रेवती की आँखों में पहली बार कोई करुण मुस्कान तैरती दिखी—जैसे वर्षों से ठहरा दर्द किसी ने पहली बार सुना हो। लोकधुन के सुर थोड़े हल्के हुए, और फिर वह परछाईं धीरे-धीरे चाँदनी में विलीन होने लगी, मानो उसे अब किसी से कुछ कहने की ज़रूरत न रही हो।

सौम्या की आँखों से आँसू बह निकले, पर दिल में एक हल्कापन भी था। तालाब के पानी पर चाँद का प्रतिबिंब अब भी झिलमिला रहा था, पर इस बार उसमें डर की जगह एक कहानी की पूरी होती तस्वीर झलक रही थी। गाँव में सदियों बाद पहली बार पूर्णिमा की रात बिना किसी भय के गुज़री; लोग कहते हैं उस रात लोकधुन की आवाज़ भी हल्की थी, जैसे आत्मा को आखिरकार शांति मिल गई हो। सौम्या ने वादा निभाया—उसने रेवती की अधूरी प्रेम कहानी को गाँव के हर दिल तक पहुँचाया, ताकि लोग सिर्फ डर नहीं, बल्कि उस आत्मा की वेदना और मोहब्बत भी समझ सकें। और उस रात से गाँव में पूर्णिमा की रातें डर की नहीं, एक सच्चे प्रेम की स्मृति की रातें बन गईं—जहाँ चाँद की रोशनी में रेवती की मुक्ति की अनकही कथा हमेशा के लिए अमर हो गई।

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