संदीप मिश्रा
सुबह की हल्की धूप मोहल्ले की पतली गली में सुनहरी चादर बिछा रही थी। अमरुद के पेड़ों पर बैठी चिड़ियाँ अपनी चहचहाहट से जैसे कोई संदेश दे रही थीं। हवा में सुबह-सुबह खिले गेंदा और गुलाब के फूलों की खुशबू घुली हुई थी। पर आज मोहल्ले में रोज की तरह सुस्ताता सन्नाटा नहीं था। आज हर किसी की नजर एक ही घर की ओर थी — पिंकी के घर की ओर।
पिंकी आठ साल की नटखट, जिद्दी और शरारती बच्ची थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में हमेशा कोई नई शरारत चमकती रहती थी। उसके छोटे से घर का आँगन आज जैसे किसी उत्सव की तैयारी में था। दीवारों पर रंग-बिरंगी झंडियाँ लटक रही थीं, माँ रसोई में बेसन के लड्डू और नमकीन बना रही थीं, और खुद पिंकी दरवाजे पर बैठी थी — अपनी नई साइकिल का इंतजार करती हुई।
“मम्मा, पापा कब आएँगे?” पिंकी ने माँ की ओर देखकर पूछा। उसकी आवाज में उतावलापन और बेचैनी दोनों थे।
माँ ने हाथ में पकड़ी करछुल को कढ़ाई में घुमाते हुए कहा,
“बस बिटिया, अभी आते ही होंगे। तू भीतर चल, तैयार हो जा। और ये बेसन का लड्डू खा ले। इंतजार करते-करते भूखी हो जाएगी।”
पर पिंकी का ध्यान लड्डू पर नहीं था। उसकी आँखें गली के मोड़ पर टिकी थीं। वो हर आती-जाती आवाज पर चौंक जाती। पंखे की आवाज से भी लगता पापा आ गए। दरवाजे पर कोई साइकिल की घंटी बजाता तो वो दौड़ पड़ती देखने।
अचानक गली के मोड़ से किसी साइकिल की घंटी की आवाज सुनाई दी — टिंग-टिंग! पिंकी की धड़कनें तेज हो गईं। मोहल्ले के बच्चे भी इस आवाज पर चौकन्ने हो गए। बिल्लू, राधिका, टिंकू और छोटू अपने-अपने घरों से निकलकर पिंकी के घर की ओर दौड़े।
“आ गए पिंकी के पापा! देखो-देखो, उनकी साइकिल के पीछे क्या बंधा है!” बिल्लू ने चिल्लाकर कहा।
पिंकी की आँखें चमक उठीं। पापा की साइकिल पर पीछे कैरियर पर एक बड़ा सा पैकेट बंधा था, जिस पर एक पुरानी सफेद चादर ढंकी थी। पापा की मुस्कान बता रही थी कि वो पिंकी को चौंकाने का पूरा इरादा रखते हैं।
“पापा! क्या लाए हो?” पिंकी दौड़ती हुई उनके पास पहुंची।
पापा ने साइकिल रोकी, स्टैंड लगाया और मुस्कुराते हुए कहा,
“अरे बिटिया रानी, पहले सांस तो ले ले। और हाँ, खुद ही देख ले।”
पापा ने चादर धीरे-धीरे हटाई। जैसे ही चादर हटी, मोहल्ले के बच्चों के मुँह से एक साथ निकला —
“वाह! क्या साइकिल है!”
चमचमाती लाल रंग की साइकिल, हैंडल पर सिल्वर रंग की घंटी, सीट पर चमड़े का नया कवर और पीछे रंग-बिरंगी झंडियाँ हवा में लहरा रही थीं। टायरों पर सफेद धारियाँ, और पैडल पर अब तक प्लास्टिक की नई पन्नी चढ़ी थी।
पिंकी ने साइकिल को ऐसे देखा जैसे कोई सपना सच हो गया हो। उसने धीरे से हाथ बढ़ाकर घंटी बजाई — टिंग-टिंग! घंटी की आवाज में जैसे उसके दिल की धड़कनें शामिल हो गई हों।
मोहल्ले के बच्चे साइकिल के चारों ओर घूम-घूमकर उसे निहारने लगे। छोटू ने कहा,
“पिंकी, अब तो तू मोहल्ले की रानी बन गई!”
पिंकी के पापा ने कहा,
“तो बिटिया, अब चलाकर दिखाएगी सबको?”
पिंकी ने सिर हिलाया। उसने साइकिल के हैंडल को मजबूती से पकड़ा, सीट पर चढ़ी, दोनों पैरों को पैडल पर रखा और एक झटका देकर साइकिल को आगे बढ़ाया।
शुरुआत में साइकिल थोड़ी डगमगाई, लेकिन पिंकी ने खुद को संभाल लिया। मोहल्ले के बच्चे तालियाँ बजाने लगे। लेकिन तभी सामने एक गमला पड़ा था, जिसमें बिल्लू का अमरुद का पौधा लगा था। पिंकी की नजर उस पर नहीं पड़ी और साइकिल सीधा गमले से टकरा गई। और फिर — धड़ाम!
पिंकी जमीन पर गिर पड़ी। उसके घुटने पर हल्की सी खरोंच आई, पर ज्यादा चोट नहीं लगी। बच्चों की हंसी की आवाज गूंजने लगी।
“अरे पिंकी रानी, पहली सवारी में ही औंधे मुँह गिर गई!” बिल्लू हंसते-हंसते बोला।
राधिका ने हंसते हुए कहा, “अब तो तुझे गिरने की रानी कहेंगे!”
पिंकी थोड़ी देर के लिए चुप रही, फिर खुद भी हंस पड़ी। उसने अपनी साइकिल को उठाया, धूल झाड़ी और बोली,
“कोई बात नहीं! अगली बार नहीं गिरूंगी।”
पापा ने पास आकर उसका सिर सहलाया और बोले,
“बहादुर बिटिया ऐसे ही होती है। गिरती है, संभलती है, और फिर जीतती है।”
उस शाम पिंकी की साइकिल की चर्चा पूरे मोहल्ले में हो रही थी। बच्चे उसके घर आ-आकर साइकिल को देख रहे थे, घंटी बजा रहे थे। पिंकी अपनी साइकिल के पास खड़ी होकर सबको उसकी खूबियाँ गिनवा रही थी —
“देखो, इसकी घंटी कितनी तेज है। और ये झंडियाँ, हवा में कैसे लहराती हैं! और ये देखो, मेरे नाम का स्टीकर भी लगाऊँगी मैं।”
माँ ने मिठाई का डिब्बा खोला और सब बच्चों को लड्डू बांटे। पापा ने साइकिल को दरवाजे के पास खड़ा किया, और पिंकी को प्यार से गोद में उठा लिया।
रात को जब सब सो गए, पिंकी अपनी साइकिल के पास बैठी थी। चाँदनी में साइकिल की घंटी हल्की-सी चमक रही थी। पिंकी ने धीरे से घंटी पर हाथ फेरा और मन ही मन बोली —
“कल से मैं प्रैक्टिस करूंगी। और एक दिन सबसे तेज साइकिल चलाऊंगी!”
उसकी आँखों में सपनों का झिलमिलाता आकाश था, और साइकिल की घंटी की टिंग-टिंग में उसकी जीत की धुन गूंज रही थी।
***
अगली सुबह मोहल्ले की गलियाँ अभी नींद से जाग ही रही थीं। सूरज की सुनहरी किरणें आँगनों में उतर रही थीं और हवा में रात की ठंडक का हल्का एहसास अब भी था। पर पिंकी तो जैसे सूरज से भी पहले जाग गई थी। उसकी आँखें खुलीं तो सबसे पहले उसने दरवाजे की ओर देखा, जहाँ उसकी नयी साइकिल रात भर खड़ी रही थी।
पिंकी धीरे-धीरे अपनी चारपाई से उतरी। उसके पाँवों में जूतियाँ नहीं थीं, लेकिन उसे परवाह नहीं थी। वो दबे पाँव दरवाजे तक गई, जैसे कहीं साइकिल को उसकी आहट से जगा न दे। उसकी लाल साइकिल ओस की बूंदों से भीगी हुई थी, हैंडल पर लटकी घंटी पर छोटी-छोटी बूँदें मोती की तरह चमक रही थीं।
“आज मेरी पहली सवारी का दिन है,” पिंकी ने खुद से कहा और अपनी साइकिल को धीरे से बाहर निकाला।
अभी मोहल्ले में सन्नाटा था। बिल्लू, राधिका, छोटू, सब सो रहे होंगे। ये वक्त पिंकी ने जान-बूझकर चुना था ताकि कोई उसकी पहली प्रैक्टिस पर हँसे नहीं।
पिंकी ने साइकिल की घंटी को प्यार से छुआ, और मन ही मन कहा,
“देख लेना, आज मैं एक बार भी नहीं गिरूंगी!”
उसने साइकिल पर चढ़ने की कोशिश की। एक पैर सीट पर, एक पैडल पर। साइकिल थोड़ी डगमगाई, पर पिंकी ने हैंडल कसकर पकड़ लिया।
धीरे-धीरे साइकिल चलने लगी। पिंकी का चेहरा खुशी से खिल उठा। हवा उसके बालों को छू रही थी, उसकी फ्रॉक हवा में लहरा रही थी।
“वाह! मैं चल रही हूँ! मैं चल रही हूँ!” वो धीरे-धीरे बुदबुदाई।
लेकिन जैसे ही वो ये सोच ही रही थी, साइकिल के आगे अचानक मोहल्ले की गली का मोड़ आ गया। पिंकी घबरा गई। वो ब्रेक पकड़ना चाहती थी लेकिन उलझन में दाएं की जगह बाएं हाथ से घंटी बजा बैठी — टिंग-टिंग-टिंग!
अब साइकिल का संतुलन बिगड़ने लगा। पिंकी की साइकिल सीधे जा रही थी और सामने गली में दूधवाले की साइकिल खड़ी थी, जिस पर दूध के बड़े-बड़े बर्तन रखे थे।
“अरे बाप रे!” पिंकी के मुँह से निकला।
और फिर धड़ाम! साइकिल जाकर दूधवाले की साइकिल से टकराई। दूध का एक बर्तन गिरा और आधा दूध गली में बहने लगा।
पिंकी जमीन पर बैठी थी, साइकिल एक तरफ गिरी हुई थी और दूधवाला भौचक्का खड़ा था।
“अरे बिटिया! ये क्या कर दिया तूने?” दूधवाले चाचा बोले।
पिंकी घबरा कर उठी, अपने घुटनों पर लगी धूल झाड़ी और बोली,
“चाचा… गलती हो गई… मैं तो सीख रही थी…”
दूधवाले चाचा का गुस्सा पिघल गया। वो हंस पड़े,
“अरे बिटिया! कोई बात नहीं, पर अगली बार जरा ध्यान से।”
अब तक मोहल्ले के कुछ बच्चे भी उठ गए थे। बिल्लू ने खिड़की से झाँक कर देखा और बोला,
“अरे देखो, पिंकी फिर गिर गई!”
राधिका और छोटू भी अपनी खिड़कियों से बाहर झाँकने लगे।
“पिंकी की पहली सवारी और पहली गड़बड़!” राधिका ने हंसते हुए कहा।
पिंकी ने अपनी साइकिल उठाई, और धीरे-धीरे वापस अपने आँगन की ओर ले आई। पर इस बार उसके चेहरे पर मायूसी नहीं थी। उसने अपनी साइकिल को खड़ा किया, उसके हैंडल को प्यार से सहलाया और बोली,
“कोई बात नहीं। गिरते-गिरते ही तो सीखते हैं। कल फिर कोशिश करूंगी।”
मोहल्ले की गलियों में दूध की खुशबू फैल चुकी थी। बच्चे अब घरों से बाहर आ रहे थे। पिंकी ने तय कर लिया था कि आज दिन भर प्रैक्टिस करेगी।
दोपहर को पिंकी ने फिर अपनी साइकिल निकाली। इस बार उसने पापा से कहा,
“पापा, मुझे सिखा दो न। मैं अकेले गिर जाती हूँ।”
पापा मुस्कुराए।
“अच्छा, तो अब पिंकी रानी को उस्ताद की जरूरत है?”
पापा ने साइकिल का पिछला हिस्सा पकड़ लिया और पिंकी को सीट पर बिठाकर कहा,
“तू देख, मैं पकड़े रहूंगा, तू पैडल मार।”
पिंकी ने हिम्मत जुटाई। उसने पैडल मारना शुरू किया। साइकिल चलने लगी। पापा धीरे-धीरे हाथ छोड़ने लगे, पर पिंकी को पता नहीं चला। वो पैडल मारती रही, साइकिल चलती रही। मोहल्ले के बच्चे अब गली में तालियाँ बजा रहे थे।
“पिंकी चल रही है!” छोटू चिल्लाया।
“पिंकी नहीं गिरी!” राधिका ने कहा।
पिंकी की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। वो सचमुच चल रही थी — अपनी साइकिल पर, बिना गिरे! लेकिन तभी एक बिल्ली अचानक गली के बीच आ गई। पिंकी घबरा गई। उसने ब्रेक पकड़ने की कोशिश की, फिर वही गलती — घंटी बजा बैठी।
टिंग-टिंग-टिंग!
बिल्ली तो फुर्ती से भाग गई, लेकिन पिंकी की साइकिल दीवार से टकरा गई।
धड़ाम!
इस बार बच्चों की हंसी से गली गूंज उठी। लेकिन पिंकी ने भी हंसकर खुद को उठाया।
“इस बार दीवार ने पकड़ लिया!” वो बोली।
पापा ने उसे गोद में उठा लिया।
“शाबाश बिटिया! अब तू साइकिल सीख ही लेगी। गिरते-गिरते ही सच्चे सवार बनते हैं।”
पिंकी की साइकिल की पहली सवारी और पहली गड़बड़ के किस्से अब मोहल्ले में मशहूर हो चुके थे। बच्चे उससे मजाक करते, पर पिंकी की हिम्मत दोगुनी हो जाती।
उस रात पिंकी ने अपनी डायरी में लिखा —
“आज दो बार गिरी। दूध गिराया, दीवार से टकराई। पर मैंने चलाना सीख लिया। कल फिर प्रैक्टिस करूंगी। और एक दिन सबसे तेज चलाऊंगी!”
चाँद की रोशनी में उसकी लाल साइकिल चमक रही थी, और पिंकी के सपनों में वो साइकिल लेकर पूरे मोहल्ले में रेस जीत रही थी।
***
पिंकी की साइकिल की कहानी अब पूरे मोहल्ले में फैल चुकी थी। जहाँ कहीं बच्चे जमा होते, वहीं पिंकी और उसकी साइकिल का जिक्र छिड़ जाता। कोई कहता, “अरे वो पिंकी, जो दूध गिरा बैठी थी!” तो कोई हंसते-हंसते बताता, “अरे वही, जो दीवार से टकरा गई थी!”
पिंकी को इन बातों से थोड़ी शर्म तो आती, पर उसकी हिम्मत कम नहीं होती थी। उसके मन में तो बस एक ही धुन सवार थी — “अब मैं सबसे अच्छी साइकिल सवार बनकर दिखाऊंगी।”
अगले दिन सुबह-सुबह पिंकी ने अपनी साइकिल निकाली। उसने तय कर लिया था कि आज मोहल्ले की सबसे लंबी गली में प्रैक्टिस करेगी। वो अपनी लाल साइकिल को लेकर निकली, और गली के बीचोबीच खड़ी हो गई।
बिल्लू, राधिका और छोटू खिड़की से झांककर देख रहे थे। बिल्लू ने शरारत भरी मुस्कान के साथ कहा,
“देखो, आज पिंकी की नई करतब क्या होगी!”
राधिका बोली,
“कहीं फिर दूधवाले चाचा न पिटें!”
पिंकी ने इन सबकी आवाजें सुन लीं। पर उसने तय किया कि आज वो किसी को हंसने का मौका नहीं देगी।
उसने हैंडल कसकर पकड़ा, एक गहरी साँस ली और साइकिल पर चढ़ गई। पैडल पर पाँव रखते ही साइकिल चल पड़ी। पिंकी का चेहरा खुशी से चमक उठा।
धीरे-धीरे वो गली के बीच से निकल रही थी। उसकी साइकिल हवा से बातें कर रही थी। बाल बिखर रहे थे, फ्रॉक उड़ रही थी।
लेकिन तभी गली के एक मोड़ पर नंदू काका अपने पालतू कुत्ते शेरू को टहला रहे थे। शेरू पिंकी को देखकर भौंकने लगा।
“भौं-भौं!”
पिंकी घबरा गई। उसने ब्रेक दबाना चाहा, लेकिन फिर वही गलती — घंटी बजा दी।
टिंग-टिंग-टिंग!
शेरू घंटी की आवाज सुनकर और भौंकने लगा। वो साइकिल की ओर दौड़ पड़ा। पिंकी ने डर के मारे साइकिल छोड़ दी। साइकिल खुद ही कुछ कदम आगे गई और एक ठेले से टकराकर गिर पड़ी।
पिंकी खुद भी धड़ाम से बैठ गई।
बिल्लू, राधिका और छोटू की हंसी से गली गूंज उठी।
“अरे पिंकी की सवारी फिर गड़बड़ा गई!”
“शेरू से डर गई पिंकी!”
पिंकी खुद भी अपनी हालत पर हंस पड़ी। उसने शेरू को देखा, जो अब खुद उसकी साइकिल के पास बैठा था और पूँछ हिला रहा था, जैसे कह रहा हो —
“डर क्यों रही थी? मैं तो तेरी सवारी का फैन हूँ!”
पिंकी की हिम्मत कम नहीं हुई। दोपहर को उसने फिर अपनी साइकिल निकाली। इस बार वो गली से बाहर मैदान में गई, ताकि कोई टक्कर न हो।
वहाँ पहले से ही कई बच्चे खेल रहे थे। पिंकी ने अपनी साइकिल चलानी शुरू की। उसने सोचा —
“अब तो गिरने का सवाल ही नहीं!”
पर तभी उसका ध्यान सामने फुटबॉल खेलते बच्चों पर नहीं गया। अचानक एक फुटबॉल उसकी साइकिल के पहिए के पास आ गई। पहिया फंस गया, और साइकिल धड़ाम से गिर पड़ी।
पिंकी फिर जमीन पर। बच्चे फिर हंस पड़े।
“अरे पिंकी दीदी की साइकिल तो फुटबॉल से हार गई!”
पिंकी उठी, खुद को झाड़ा और हंसकर बोली,
“अगली बार फुटबॉल को पहले समझा दूंगी कि मैं आ रही हूँ!”
बच्चों ने तालियाँ बजाईं। अब बच्चे पिंकी के साथ साइकिल चलाने की प्रैक्टिस करने लगे। बिल्लू साइड से दौड़ता और कहता,
“पिंकी, अब सीधे चल!”
राधिका आवाज देती,
“पिंकी दीदी, ब्रेक दबा! घंटी मत बजा!”
पिंकी के चेहरे पर खुशी लौट आई। अब वो धीरे-धीरे बैलेंस करना सीख रही थी।
शाम को जब मोहल्ले के बड़े-बुजुर्ग आँगन में बैठे थे, पिंकी की साइकिल की घंटी फिर सुनाई दी — टिंग-टिंग!
पर इस बार वो घंटी डर की नहीं, खुशी की थी। पिंकी अब बिना गिरे मोहल्ले की गली में साइकिल चला रही थी। बिल्लू, राधिका, छोटू सब उसके साथ दौड़ रहे थे।
पापा ने बालकनी से देखा और मुस्कुराए। माँ ने खुश होकर बेसन के लड्डू निकाले और बच्चों को आवाज दी।
“आ जाओ सब, पिंकी ने साइकिल चलाना सीख लिया!”
बच्चे दौड़े और सबने लड्डू खाए।
पिंकी ने साइकिल के हैंडल पर हाथ फेरते हुए कहा,
“अब रेस भी करूंगी। और देखना, मैं ही जीतूंगी!”
बिल्लू बोला,
“अच्छा पिंकी रानी, देखते हैं तुम्हारी रेस!”
और इस तरह पिंकी की साइकिल मोहल्ले की पहचान बन गई। अब बच्चे पिंकी की हंसी उड़ाने के बजाय उसके साथ सवारी की प्रैक्टिस करने लगे।
पिंकी के सपनों में अब एक ही चीज थी — “मोहल्ले की सबसे बड़ी साइकिल रेस!”
***
पिंकी की साइकिल की सवारी अब मोहल्ले में रोज़ की बात हो गई थी। अब कोई उसकी हंसी नहीं उड़ाता था। बल्कि बच्चे उसकी हिम्मत की तारीफ करते। वो कैसे गिरकर उठती, कैसे मुस्कराकर खुद को झाड़ती और फिर साइकिल पर सवार हो जाती — ये सब बच्चों के लिए किसी फिल्म के हीरो जैसी बात लगती।
एक दिन दोपहर को मोहल्ले के बड़े पीपल के पेड़ के नीचे सब बच्चे जमा थे। बिल्लू ने उत्साहित होकर कहा,
“सुनो-सुनो! क्यों न हम सब एक साइकिल रेस करवाएँ? असली वाली रेस! जिसमें पिंकी भी भाग ले।”
पिंकी की आँखें चमक उठीं।
“हां! रेस!”
छोटू बोला,
“पर रेस होगी कहाँ?”
राधिका ने इधर-उधर देखा और कहा,
“गली से लेकर मैदान तक! और मैदान में तीन चक्कर! जो सबसे पहले पूरी करे, वही जीतेगा।”
बच्चे तालियाँ बजाने लगे। मोहल्ले में मानो रेस का उत्सव शुरू हो गया हो।
अब तो हर घर में रेस की बातें होने लगीं। बच्चे अपनी साइकिलों की सफाई करने लगे। किसी की साइकिल का हैंडल टेढ़ा था तो कोई ब्रेक दुरुस्त करवा रहा था। पिंकी भी अपनी लाल साइकिल को चमकाने में जुट गई।
उसने बाल्टी में पानी भरा, साबुन मिलाया और अपनी साइकिल को धोने लगी। साइकिल धुलकर और भी चमकने लगी। घंटी को रगड़-रगड़ कर साफ किया, ताकि टिंग-टिंग की आवाज दूर तक सुनाई दे।
पापा मुस्कुराते हुए बोले,
“पिंकी रानी, क्या रेस जीतने की तैयारी है?”
पिंकी ने शरारत से जवाब दिया,
“पापा, रेस जीतूँगी भी और मिठाई भी खिलाऊंगी!”
पापा बोले,
“तो फिर जीतने के बाद रसगुल्ले पक्के!”
पिंकी की हँसी गूंज उठी।
रेस से दो दिन पहले से ही मोहल्ले की गलियाँ बच्चों की साइकिल की घंटियों से गूंजने लगीं। सब बच्चे प्रैक्टिस कर रहे थे। पिंकी भी मैदान में रोज जाती। वो बार-बार चक्कर लगाती। शुरुआत में वो थोड़ा लड़खड़ाती, पर अब उसका संतुलन मजबूत हो चुका था।
एक दिन प्रैक्टिस के दौरान पिंकी की साइकिल का चैन उतर गया। वो खुद उतर कर चैन लगाने लगी। उसके हाथ काले पड़ गए लेकिन चेहरे पर मुस्कान थी।
बिल्लू ने मजाक किया,
“अरे पिंकी, साइकिल चलाना है या मेकेनिक बनना है?”
पिंकी ने चिढ़ाने के बजाय हंसकर जवाब दिया,
“जिस दिन जीती, उस दिन तुम्हें भी चैन लगाना सिखा दूंगी!”
बिल्लू चुप हो गया। बच्चों ने तालियाँ बजाईं।
अंततः वो दिन आ गया जब मोहल्ले में साइकिल रेस की घोषणा हो गई। बड़े-बूढ़ों ने तय किया कि रेस का जज मास्टरजी होंगे। मास्टरजी ने घोषणा की —
“रेस कल दोपहर को होगी। सभी प्रतियोगी अपनी साइकिलें ठीक से तैयार रखें। और हाँ, खेल भावना से खेलना। हार-जीत से बढ़कर दोस्ती है।”
बच्चे खुशी से उछल पड़े। पिंकी की माँ ने उसके लिए नया रिबन निकाला, जो उसने अपनी साइकिल के हैंडल पर बाँध दिया।
उस रात पिंकी को नींद ही नहीं आई। वो खिड़की से अपनी साइकिल को देखती रही। चाँदनी में साइकिल की लाल फ्रेम चमक रही थी।
पिंकी ने खुद से कहा,
“कल मैं अपनी स्टाइल में जीतूंगी। चाहे कुछ भी हो जाए।”
उसने सपना देखा — वो साइकिल चला रही है, हवा से बातें कर रही है, और सभी तालियाँ बजा रहे हैं।
अगली सुबह मोहल्ले में जैसे उत्सव का माहौल था। हर घर की छत, हर खिड़की से लोग झाँक रहे थे। मैदान में रंग-बिरंगे झंडे लगाए गए थे। मास्टरजी ने अपनी सीटी तैयार रखी थी।
पिंकी ने अपनी साइकिल को प्यार से सहलाया, उसकी घंटी बजाई — टिंग-टिंग! जैसे कह रही हो,
“चल मेरी सखी, आज हम जीतकर दिखाएंगे!”
रेस शुरू होने से पहले बच्चों की कतार बनी। पिंकी, बिल्लू, राधिका, छोटू और बाकी सब बच्चे साइकिल पर सवार हो गए।
मास्टरजी बोले,
“तैयार… एक… दो… तीन!”
सीटी बजी।
पिंकी ने पैडल मारा। उसकी साइकिल दौड़ पड़ी। बच्चे जोर लगाकर पैडल मारने लगे। गली से मैदान तक धूल उड़ने लगी। तालियों की आवाज गूंज रही थी।
पिंकी ने अपनी साइकिल को पूरे जोर से दौड़ाया। लेकिन तभी उसके सामने एक पत्थर आया। वो थोड़ा डगमगाई। बच्चे हंसने लगे —
“लो, अब पिंकी गिरी!”
पर इस बार पिंकी नहीं गिरी। उसने बड़ी चतुराई से साइकिल को सँभाला और और भी तेज दौड़ाने लगी। बच्चों की आँखें खुली की खुली रह गईं।
पिंकी अब सबसे आगे थी। उसके बाल हवा में लहरा रहे थे, रिबन उड़ रहा था, और घंटी बज रही थी — टिंग-टिंग-टिंग!
तीन चक्कर पूरे हुए। मास्टरजी ने सीटी बजाई।
“विजेता — पिंकी!”
बच्चों ने दौड़कर उसे घेर लिया। तालियाँ बजने लगीं। बिल्लू बोला,
“पिंकी दीदी, तुम सच में सुपरस्टार हो!”
माँ ने दौड़कर पिंकी को गले लगाया।
पापा रसगुल्ले ले आए। सब बच्चों को मिठाई बाँटी गई।
पिंकी ने अपनी साइकिल को चूमते हुए कहा,
“तू ही मेरी असली जीत है!”
***
पिंकी की जीत ने जैसे पूरे मोहल्ले में हलचल मचा दी थी। वो लड़की, जिसकी साइकिल की सवारी पर हर कोई हँसता था, आज वही पिंकी पूरे मोहल्ले की शान बन गई थी। जहाँ पहले बच्चे उसका मजाक उड़ाते थे, अब वहीं बच्चे उसकी तारीफ करते न थकते।
अगले दिन से मोहल्ले के हर नुक्कड़ पर पिंकी की रेस का ही चर्चा था। चाय की दुकान पर बुजुर्ग लोग अख़बार छोड़कर एक-दूसरे से कहते,
“अरे भाई, वो पिंकी देखी कल? कमाल कर दिया लड़की ने!”
बिल्लू के पापा बोले,
“हमारा बिल्लू तो आधे में ही हांफ गया, और वो लड़की तीन चक्कर दौड़ गई!”
उधर, सब बच्चे पिंकी के चारों ओर ऐसे घूमते जैसे वो कोई हीरोइन हो। कोई उसकी साइकिल को छूकर देखता, कोई उसके रिबन की तारीफ करता।
राधिका ने कहा,
“पिंकी दीदी, आपकी साइकिल तो जादुई है। मुझे भी ऐसी चाहिए।”
छोटू बोला,
“नहीं, जादू साइकिल में नहीं, दीदी के हौसले में है।”
पिंकी शरमाकर हँस पड़ी।
पिंकी अब जब साइकिल लेकर निकलती, तो उसका स्टाइल देखने लायक होता। उसने अपनी साइकिल के हैंडल पर रंग-बिरंगे रिबन बाँध दिए थे, और घंटी की आवाज को और सुरीला करने के लिए उसमें छोटी सी घंटी और जोड़ दी थी।
जब भी वो साइकिल चलाती — टिंग-टिंग-टूं-टूं — मोहल्ले में बच्चे दौड़कर उसे देखने आते।
उसका नया स्टाइल था — एक हाथ से साइकिल चलाना और दूसरे हाथ से बच्चों को हाथ हिलाकर नमस्ते करना।
“वाह पिंकी दीदी!” — बच्चे खुशी से चिल्लाते।
अब पिंकी किसी से नहीं डरती थी। न शेरू से, न फुटबॉल से, न मोड़ों से। उसकी साइकिल पर पकड़ अब इतनी पक्की हो गई थी कि वो खुद बच्चों को सिखाने लगी।
एक दिन बिल्लू अपनी साइकिल लेकर पिंकी के पास आया।
“पिंकी, मुझे भी सिखा दो, ऐसे स्टाइल से कैसे चलाते हैं।”
पिंकी ने हँसकर कहा,
“चल, पहले बैलेंस बनाना सीख। फिर स्टाइल अपने आप आ जाएगा।”
अब मोहल्ले के मैदान में पिंकी बच्चों की ट्रेनर बन गई थी। वो सबको लाइन में लगाकर सिखाती —
“हैंडल को कसकर पकड़ो, नजरें आगे रखो, और पैडल धीरे-धीरे मारो। डरना नहीं!”
जब कोई बच्चा गिरता, पिंकी खुद उठाकर उसे हौसला देती —
“अरे, गिरना सीखना भी जरूरी है। तभी उठना आता है!”
बच्चे उसे गुरुजी कहकर पुकारने लगे।
पिंकी की पहल पर मोहल्ले के बच्चों ने “साइकिल क्लब” बनाया। क्लब के नियम थे:
1. हफ्ते में दो बार साइकिल प्रैक्टिस होगी।
2. कोई एक-दूसरे का मजाक नहीं उड़ाएगा।
3. हर महीने एक मिनी रेस होगी।
मोहल्ले के बड़े भी खुश थे कि बच्चे अब एकता और खेल भावना सीख रहे थे।
मास्टरजी ने एक दिन कहा,
“पिंकी, तुमने मोहल्ले को बदल दिया। पहले जहाँ शरारतें होती थीं, अब दोस्ती होती है।”
पिंकी ने मुस्कुराकर कहा,
“मास्टरजी, बस आप सबका आशीर्वाद चाहिए।”
अब पिंकी का सपना बड़ा हो गया था। वो सोचने लगी,
“क्यों न स्कूल की साइकिल रेस में भाग लूँ? क्यों न जिला स्तर पर खेलूँ?”
उसने अपने पापा से कहा,
“पापा, मैं जिला रेस में हिस्सा लेना चाहती हूँ।”
पापा ने सिर सहलाकर कहा,
“जरूर पिंकी! तुम्हारी हिम्मत ही हमारी सबसे बड़ी ताकत है।”
पिंकी ने अपनी साइकिल को देखा और कहा,
“चल साथी, अब हम और ऊँची उड़ान भरेंगे।”
मोहल्ले में पिंकी की जीत की खुशी में मिठाइयाँ बँटीं। हर घर से आवाज आती,
“पिंकी बेटा, ये लड्डू खा लो। ये बर्फी ले लो।”
पिंकी तो हँसते-हँसते मिठाइयाँ खाती रही। और जब कोई पूछता —
“पिंकी, अगला कारनामा क्या है?”
तो वो शरारत से कहती,
“अगली रेस की तैयारी!”
***
पिंकी की मोहल्ले की रेस जीतने के बाद उसकी कहानी अब सिर्फ गली-मोहल्ले तक सीमित नहीं रही। उसकी साइकिल चलाने की धाक स्कूल तक पहुँच गई। स्कूल की प्रिंसिपल मैम ने पिंकी को बुलाकर कहा —
“पिंकी, इस बार स्कूल की सालाना साइकिल रेस में तुम्हें ही हिस्सा लेना है। हमें पूरी उम्मीद है कि तुम स्कूल का नाम रोशन करोगी।”
पिंकी के दिल की धड़कन तेज हो गई। वो तो बस मोहल्ले की सड़कों पर साइकिल दौड़ाती थी। अब तो स्कूल की रेस थी — बड़े मैदान, और बड़े-बड़े साइकिल सवार!
स्कूल के नोटिस बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था —
“वार्षिक खेल प्रतियोगिता — साइकिल रेस (कक्षा 5-7 के लिए)। मैदान की परिधि पर 5 चक्कर।”
बच्चों की भीड़ नोटिस पढ़ रही थी। सबकी नजरें पिंकी पर टिक गईं।
“अरे वही पिंकी! मोहल्ले वाली रेस जीतने वाली। देखना ये जरूर जीतेगी।”
पिंकी के मन में खुशी भी थी और घबराहट भी। घर लौटकर वो सीधे अपनी साइकिल के पास गई। उसने हैंडल पकड़ा और कहा,
“अबकी बार हमें और मेहनत करनी होगी। ये स्कूल की रेस है। यहाँ गलती की कोई जगह नहीं है।”
पिंकी ने अगले ही दिन से अपनी ट्रेनिंग शुरू कर दी। वो सुबह सूरज उगने से पहले उठ जाती। जब मोहल्ला सो रहा होता, वो अपनी साइकिल लेकर निकल पड़ती।
वो स्कूल के बड़े मैदान में प्रैक्टिस करती। धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास बढ़ने लगा। अब वो एक हाथ से पैडल मारते हुए घंटी भी बजाती। मैदान की मिट्टी उड़ती, उसके बाल हवा में लहराते।
मोहल्ले के बच्चे भी उसका हौसला बढ़ाने आने लगे। छोटू दौड़ता हुआ आता और कहता,
“दीदी, आज तो आपकी रफ्तार और भी तेज थी!”
राधिका तालियाँ बजाती,
“हमारी पिंकी दीदी तो स्कूल रेस भी जीतेंगी।”
पिंकी हंसती और कहती,
“अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है।”
पिंकी ने अपनी साइकिल की अच्छी तरह मरम्मत करवाई। पापा उसे साइकिल की दुकान ले गए। मेकेनिक ने साइकिल का चैन तेल से चमका दिया, ब्रेक कसा और टायरों में हवा भरी।
पिंकी ने साइकिल को देख कर कहा,
“अब तुम पूरी तरह तैयार हो साथी!”
उसने साइकिल के फ्रेम पर छोटे-छोटे स्टार स्टिकर लगा दिए, जो धूप में चमकते।
रिसेस के समय एक दिन स्कूल के सबसे तेज साइकिल सवार विकास ने पिंकी से कहा —
“रेस में हिस्सा लेना आसान है, जीतना मुश्किल। मैदान में मैं हूं, और मेरा रिकॉर्ड कोई नहीं तोड़ सकता।”
पिंकी ने शांति से जवाब दिया,
“देखेंगे विकास, रेस में ही फैसला होगा।”
उसकी आवाज में आत्मविश्वास था। विकास ने हँसकर कहा,
“तैयार रहना!”
अब पिंकी की मेहनत और भी बढ़ गई।
पिंकी रात को अपनी खिड़की से चाँद की रोशनी में साइकिल को देखती। वो आँखें बंद कर मैदान की कल्पना करती — वो कैसे मोड़ लेगी, कैसे स्पीड बढ़ाएगी, कैसे संतुलन रखेगी।
एक रात पापा ने देखा कि पिंकी चुपचाप खिड़की पर बैठी है।
“क्या सोच रही हो, बेटी?”
पिंकी ने कहा,
“पापा, जीतना चाहती हूँ। स्कूल का नाम रोशन करना चाहती हूँ।”
पापा ने कहा,
“जीत हार तो किस्मत पर होती है। पर जो दिल से कोशिश करता है, वो कभी हारता नहीं।”
स्कूल के मैदान को झंडियों से सजाया गया। बच्चों में उत्साह था। रेस में हिस्सा लेने वाले अपनी साइकिलों को चमका रहे थे।
पिंकी भी अपनी लाल साइकिल लेकर पहुँची। उसके साइकिल की चमक और रिबन की लहराती पट्टियाँ बच्चों का ध्यान खींच रही थीं।
मास्टरजी ने कहा,
“पिंकी, तैयार हो?”
पिंकी ने सिर हिलाया,
“जी सर!”
पिंकी ने रेस से एक दिन पहले आखिरी प्रैक्टिस की। इस बार वो पूरे मैदान के पाँच चक्कर दौड़ी। कहीं नहीं डगमगाई, कहीं नहीं रुकी।
बच्चे तालियाँ बजा-बजाकर बोले,
“हमारी पिंकी दीदी तो पक्का जीतेंगी!”
पिंकी ने खुद से कहा,
“अब डर की कोई जगह नहीं। कल बस जीत की दौड़ है।”
***
सूरज की पहली किरणों के साथ ही स्कूल का मैदान बच्चों की चहल-पहल से गूंज उठा। हर ओर रंग-बिरंगे झंडे लहरा रहे थे, और चारों ओर से आवाजें आ रही थीं —
“आज की रेस देखने का मज़ा ही कुछ और होगा!”
बच्चों के माता-पिता, शिक्षक और स्कूल के स्टाफ सब मैदान की बेंचों पर बैठने लगे। मैदान के किनारे पर सफेद चूने से बनी रेखाएँ रेस के लिए तैयार थीं।
पिंकी ने अपनी लाल साइकिल को प्यार से पोंछा और एक नज़र मैदान पर डाली। उसके दिल में एक अजीब सी धड़कन थी।
रेस में कुल आठ प्रतियोगी थे। सब अपनी साइकिलों को लाइन पर खड़ा कर रहे थे। विकास अपनी चमचमाती रेसिंग साइकिल पर बैठा और पिंकी की ओर देखकर मुस्कुराया —
“तैयार हो छोटी रेसर?”
पिंकी ने भी मुस्कराकर जवाब दिया —
“हां विकास, और तुम?”
रेस के रिफरी ने सीटी उठाई और सबको अंतिम निर्देश दिए —
“रेस में कोई धक्का-मुक्की नहीं करेगा। पाँच चक्कर पूरे करने होंगे। पहले आने वाला विजेता घोषित होगा।”
बच्चे तालियों से मैदान गूंजा उठा।
“पों!” — सीटी बजते ही साइकिलें बिजली की तरह दौड़ पड़ीं। पिंकी ने पूरे दम से पैडल मारा। उसका मन बस एक ही बात पर केंद्रित था —
“अपना संतुलन बनाए रखना और स्पीड पकड़ना।”
विकास और दो अन्य लड़के शुरुआत में ही आगे निकल गए। पिंकी चौथे नंबर पर थी। लेकिन उसका हौसला बरकरार था।
पहले चक्कर के बाद मैदान में बच्चों की तालियाँ गूंज उठीं। पिंकी ने देखा कि विकास का अंदाज कुछ अजीब है — वो अपनी साइकिल को मोड़ों पर बहुत तेजी से घुमा रहा था।
दूसरे चक्कर में पिंकी ने अपनी रफ्तार थोड़ी बढ़ा दी। वो अब तीसरे स्थान पर आ गई थी। मैदान में उसका नाम गूंजने लगा —
“पिंकी दीदी! पिंकी दीदी!”
तीसरे चक्कर की शुरुआत में विकास ने मोड़ पर इतना तेज मोड़ा कि उसकी साइकिल का अगला टायर कीचड़ में फिसल गया। वो धड़ाम से गिरा और उसके चेहरे पर मिट्टी लग गई। बच्चे हँसी से लोट-पोट हो गए —
“अरे विकास भाई, रेस कर रहे हो या मिट्टी में स्नान?”
पिंकी ने मौके का फायदा उठाया और रफ्तार बढ़ा दी। अब वो दूसरे स्थान पर थी।
पिंकी जानती थी कि मोड़ों पर कैसे बैलेंस बनाए रखना है। वो चौथे चक्कर में मोड़ों को बड़ी चालाकी से काटती रही। उसके हाथ की पकड़ हैंडल पर इतनी मजबूत थी कि वो जैसे हवा से बातें कर रही थी।
विकास ने हड़बड़ी में अपनी साइकिल उठाई और फिर से रेस में शामिल हुआ, लेकिन अब वो काफी पीछे हो चुका था।
पाँचवां चक्कर शुरू होते ही पिंकी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। उसके पैर बिजली की गति से पैडल मार रहे थे। उसकी लाल साइकिल की रिबनें हवा में ऐसे लहरा रही थीं जैसे कोई झंडा लहरा रहा हो।
पूरा मैदान तालियों और “पिंकी दीदी ज़िंदाबाद!” के नारों से गूंज रहा था।
आखिरी मोड़ पर पिंकी ने अपनी साइकिल को बड़ी सफाई से घुमाया और जब फिनिश लाइन पर पहुँची तो उसने अपने दोनों हाथ हवा में उठा दिए —
“मैं जीत गई!”
रेफरी ने घोषणा की —
“विजेता — पिंकी शर्मा, कक्षा 6!”
बच्चे दौड़कर पिंकी को घेरने लगे। किसी ने उसके कंधे पर थपकी दी, किसी ने उसकी साइकिल को छुआ। राधिका मिठाई का डिब्बा लेकर आई —
“पिंकी दीदी, ये आपकी जीत की मिठाई!”
मास्टरजी ने कहा,
“पिंकी, तुमने स्कूल का नाम रोशन कर दिया।”
रात को पिंकी अपनी खिड़की से चाँद को देखते हुए सोचने लगी —
“अब अगला कदम जिला रेस में हिस्सा लेने का होगा। मेरी साइकिल और मैं दोनों तैयार हैं नई उड़ान के लिए।”
***
स्कूल रेस जीतने के बाद पिंकी की कहानी अब स्कूल और मोहल्ले की दीवारों से निकल कर पूरे शहर में फैल चुकी थी। हर कोई उस छोटी लड़की की चर्चा कर रहा था जिसने अपनी सादगी और जिद के दम पर स्कूल की रेस जीती।
एक दिन स्कूल की प्रिंसिपल मैम ने पिंकी को अपने कमरे में बुलाया। उनकी मेज पर एक सुनहरी निमंत्रण पत्र रखा था।
“पिंकी, ये जिला स्तर की साइकिल रेस का आमंत्रण है। तुम्हें हमारे स्कूल की तरफ से हिस्सा लेना है।”
पिंकी की आँखें चमक उठीं। ये तो उसके सपने की शुरुआत थी। लेकिन साथ ही उसका दिल धक-धक करने लगा। जिला रेस! मतलब शहर के सबसे बेहतरीन साइकिल सवार उसके सामने होंगे।
पिंकी ने निश्चय किया कि अब वो अपनी ट्रेनिंग को और मजबूत करेगी।
वो सुबह सूरज की पहली किरण के साथ उठती और स्कूल के बड़े मैदान से लेकर नदी किनारे की पगडंडियों तक अपनी साइकिल दौड़ाती।
पापा ने उसके लिए नया हेलमेट और घुटनों पर लगाने वाली सुरक्षा पट्टियाँ लाकर दीं।
“बेटी, अब ये तुम्हारी सुरक्षा कवच है। जीतना तो तुम्हें ही है, लेकिन सुरक्षित रहना और भी जरूरी है।”
पिंकी ने अपनी साइकिल को अच्छे से तैयार किया। टायर में हवा भरी, ब्रेक की कसावट देखी और घंटी को सही किया।
रेस में भाग लेने वालों की सूची आई तो पिंकी ने देखा कि विकास भी उसमें शामिल था। वो स्कूल की हार का बदला लेना चाहता था।
साथ ही उसमें शहर के सबसे तेज राइडर — राघव का नाम था, जो पिछले दो साल से जिला रेस जीतता आ रहा था।
पिंकी ने खुद से कहा,
“डर कर नहीं, समझदारी से रेस लड़नी होगी।”
रेस का दिन आया। जिला स्टेडियम सजे हुए झंडों और पोस्टरों से भरा था। हर ओर रेसर्स अपनी साइकिल को अंतिम बार देख रहे थे।
पिंकी की लाल साइकिल पर चमचमाते स्टार स्टिकर सबका ध्यान खींच रहे थे। बच्चों की भीड़ पिंकी को देखकर तालियाँ बजा रही थी —
“वो देखो पिंकी दीदी!”
पिंकी ने हेलमेट पहना, साइकिल पर बैठी और गहरी सांस ली।
रेफरी ने झंडा हिलाया और रेस शुरू हो गई।
सभी साइकिलें बिजली की रफ्तार से दौड़ीं। पिंकी ने शुरुआत में ही मोड़ों पर रफ्तार संभाल कर रखी। वो जानती थी कि रेस लंबी थी — पूरे 10 चक्कर।
पहले तीन चक्करों में राघव और विकास आगे थे। पिंकी चौथे स्थान पर थी लेकिन घबराई नहीं।
पाँचवे चक्कर में रेस का कठिन मोड़ आया जहां मिट्टी गीली थी। राघव तेजी से मोड़ते हुए थोड़ा फिसला। पिंकी ने वहीं अपनी चालाकी दिखाई — उसने ब्रेक हल्का सा दबाया और मोड़ को आराम से काट लिया।
विकास ने भी जल्दबाजी की और धड़ाम से गिर गया। बच्चे हँसने लगे —
“विकास भाई फिर गिरे!”
छठवें से आठवें चक्कर तक पिंकी धीरे-धीरे दूसरे स्थान पर आ गई। अब बस राघव उससे आगे था।
पिंकी के कानों में तालियों की आवाज गूंज रही थी। उसका दिल कह रहा था —
“पिंकी, अब बस ये मोड़, और जीत तुम्हारी होगी।”
नवां चक्कर आते ही पिंकी ने अपनी रफ्तार बढ़ा दी। वो राघव के बराबर पहुँच गई। राघव हैरान था —
“ये लड़की इतनी तेज कैसे!”
आखिरी मोड़ पर पिंकी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी। उसकी साइकिल की रिबनें हवा में ऐसे लहराईं जैसे कोई ध्वज उड़ रहा हो। वो राघव से आगे निकल गई और आखिरी रेखा पार करते ही उसका नाम गूंज उठा —
“पिंकी शर्मा — जिला रेस विजेता!”
पिंकी को मंच पर बुलाया गया। जिलाधिकारी ने उसे गोल्डन ट्रॉफी दी। बच्चे, शिक्षक, पापा-मम्मी सब खुशी से पिंकी को गले लगा रहे थे।
पिंकी ने माइक पर कहा —
“ये जीत सिर्फ मेरी नहीं, मेरी साइकिल, मेरे दोस्तों और मेरे परिवार की है। सपने पूरे होते हैं अगर हम सच्चे दिल से कोशिश करें।”
रात को पिंकी अपनी ट्रॉफी को देखकर सोच रही थी —
“अब अगला सपना — राज्य रेस जीतना।”
उसकी साइकिल खामोश थी लेकिन जैसे वो भी कह रही थी —
“चल साथी, नए सफर पर!”
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