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पाँचवां कमरा

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कृष्णा तामसी


चारों तरफ बर्फ की सफेद चादरें बिछी थीं और हरे देवदार के पेड़ जैसे किसी पुराने रहस्य को छिपाए खड़े थे। आरव मल्होत्रा की जीप धीरे-धीरे घने कोहरे को चीरती हुई हिमाचल के दुर्गम पहाड़ी रास्तों से गुजर रही थी। मोबाइल नेटवर्क कब का गायब हो चुका था और जीपीएस भी मानो बर्फ में जम चुका था। ड्राइवर संजय, जो गांव का ही था, बिना कुछ कहे बस गाड़ी चलाता जा रहा था। आरव अपने कैमरे से बर्फबारी की फुटेज लेने में मग्न था, जब उसने अचानक पूछा, “संजय भाई, कितनी दूर है वो गेस्ट हाउस?” संजय ने बिना आँख मिलाए कहा, “बस थोड़ी देर और साहब… लेकिन वहाँ का एक कमरा बंद ही रखना… जो सबसे कोने वाला है।” आरव हँसते हुए बोला, “व्लॉग ही तो बनाने आया हूँ, बंद कमरों और भूतों की कहानी दिखाने का मज़ा ही कुछ और है।” लेकिन संजय की आँखों में एक पल के लिए जो डर उभरा, वह किसी बनावटी स्क्रिप्ट से अलग था। कुछ ही देर में गाड़ी एक ऊँचे पत्थरों से बने पुराने गेस्ट हाउस के सामने आकर रुकी। शिखर हाउस — एक अंग्रेजों के ज़माने का दो मंजिला भवन, जिसके ऊपरी हिस्से में बर्फ जमी थी और नीले रंग के खिड़कियाँ बाहर की सर्दी से खुद को ढँकने की कोशिश कर रही थीं। आरव ने कैमरा ऑन किया और बोला, “Guys, welcome to one of the most haunted locations in Himachal — Shikhar House. इस जगह के बारे में कहा जाता है कि यहाँ एक कमरा ऐसा है जो पिछले चालीस सालों से नहीं खुला…”

गेस्ट हाउस के मालिक रघुवीर चौहान एक बुज़ुर्ग लेकिन मजबूत कद-काठी के आदमी थे, जिनकी आंखें जैसे किसी पुराने जख्म को अब भी ढो रही थीं। उन्होंने गर्म चाय का प्याला आरव को थमाते हुए धीमी आवाज़ में कहा, “तुम्हारा व्लॉग देख चुका हूँ, बेटा। बहुत अच्छा काम करते हो, लेकिन ये जगह बाकी जगहों से अलग है। यहाँ खेल नहीं होता।” आरव ने मुस्कराते हुए जवाब दिया, “डर तो यहीं देखने आया हूँ अंकल, लेकिन आपकी मदद चाहिए।” रघुवीर ने सिर हिलाते हुए कहा, “चार कमरे खुले हैं, ऊपर एक बंद कमरा है… नीला दरवाज़ा वाला… उसे मत छेड़ना। वो ‘पाँचवां कमरा’ है।” आरव ने जिज्ञासा से पूछा, “क्यों बंद है वो? अंदर क्या है?” लेकिन रघुवीर ने बिना जवाब दिए बस इतना कहा, “जो यहाँ रहे हैं, वो सब अब नहीं हैं।” आरव को यह लाइन स्क्रिप्ट के लिए परफेक्ट लगी। रात को खाने के बाद वह अपने कमरे में कैमरा सेट करने लगा और तय किया कि सुबह होते ही वह उस पांचवे कमरे के पास जाएगा। बाहर बर्फबारी थम चुकी थी, लेकिन हवाओं में एक अजीब-सी सरसराहट थी — जैसे कोई फुसफुसाकर कुछ कह रहा हो। कमरे की दीवार पर एक पुराना काला-सा फ्रेम टंगा था जिसमें अंग्रेजों के ज़माने की एक तस्वीर थी — वही गेस्ट हाउस, लेकिन खिड़कियों में दिखते चेहरे… जैसे आज भी उस फ्रेम में सांसें बची हों।

सुबह जब आरव बाहर निकला तो गांव की हवा में कुछ ठहराव-सा था। वह अपने कैमरे के साथ गेस्ट हाउस के ऊपर वाले हिस्से की ओर बढ़ा। सीढ़ियाँ लकड़ी की थीं और हर कदम पर जैसे कोई पुराने वक़्त की आहट देती थी। आखिरी मोड़ पर आकर वह उस दरवाजे के सामने खड़ा हुआ — नीला रंग, धुंधली लकड़ी, और उस पर जाले। दरवाजे के ऊपर faded लेटरिंग में कुछ उकेरा हुआ था जिसे आरव ने कैमरे में ज़ूम कर देखा — “Room 105 – Do Not Open.” उसने हौले से दरवाजे को छूने की कोशिश की, लेकिन अचानक पीछे से एक कांपती आवाज़ आई, “मत खोलो उसे।” आरव मुड़कर देखा, तो गांव की एक बूढ़ी दादी माँ, सफेद शॉल में लिपटी, सीढ़ियों के नीचे खड़ी थीं। “उस रात को मत जगा बेटा,” उन्होंने कहा, “वो सो रही है अभी, सोने दे…” आरव कुछ कह पाता, इससे पहले ही रघुवीर चौहान वहाँ पहुँचे और दादी माँ को नीचे ले गए। आरव ने दरवाजे की एक झलक और कैमरे में कैद की और तय किया कि आज रात इस कमरे के सामने कैमरा सेट करेगा। लेकिन उस दिन से ही उसके कैमरे में अजीब-सी गड़बड़ी शुरू हो गई। एक सीन में उसने देखा कि उसके पीछे कोई छाया खड़ी थी, लेकिन वह वहाँ था ही नहीं। एक और फुटेज में दरवाज़ा अपने आप हिलता दिखा, जबकि हवा बिल्कुल बंद थी। आरव को यकीन हो गया — ये सिर्फ कहानी नहीं थी। कुछ तो था वहाँ… कुछ जो जागना नहीं चाहता था। पर आरव ने सोच लिया था — उसका अगला एपिसोड होगा, “Inside the Forbidden Room.”

रात के दस बजे का समय था, और पूरा गेस्ट हाउस मानो किसी अदृश्य चादर में लिपटा हुआ था। बाहर बर्फबारी दोबारा शुरू हो चुकी थी, और दूर के देवदार के पेड़ों से गिरती बर्फ की आवाज़ गूंजती खामोशी को और भी डरावना बना रही थी। आरव ने अपने कमरे में एक छोटा सा कैमरा सेट कर दिया था जो सीधे पांचवें कमरे के दरवाज़े की ओर फोकस कर रहा था। स्क्रीन पर दरवाज़ा साफ दिख रहा था — नीला, जर्जर, और बिल्कुल स्थिर। पर कैमरे की रिकॉर्डिंग में कभी-कभी कुछ ऐसी हलचल दिखती जिसे आँखों से नहीं देखा जा सकता था — जैसे कोई परछाईं दरवाज़े के नीचे से गुजर गई हो, या मानो अंदर से किसी ने दरवाज़े को हल्के से खटखटाया हो। आरव ने अपनी डायरी में लिखा — “यहां की चुप्पी किसी पहाड़ी गांव की सादगी जैसी नहीं लगती, ये चुप्पी दबा हुआ शोर है… जैसे कोई चीख कहीं भीतर बंद है।” उसने लाइट्स बंद की और बिस्तर पर लेटते हुए खुद से कहा, “कल दरवाज़ा खोलकर देखूंगा, चाहे कुछ भी हो।” लेकिन उस रात, उसकी नींद में जो हुआ, वो उसे अगली सुबह तक परेशान करता रहा। एक बेमेल सपना — जिसमें वो सीढ़ियाँ चढ़ता है, दरवाज़ा खुला पाता है, और अंदर एक लड़की खड़ी होती है। उसका चेहरा धुंध में ढँका होता है, लेकिन उसकी आंखें चमक रही होती हैं — और वो बस एक ही बात कहती है, “मैं अब जाग गई हूँ…” और फिर सब कुछ काला पड़ जाता है।

सुबह की पहली किरणों के साथ गेस्ट हाउस जाग उठा, पर आरव की आँखों में नींद नहीं थी — बस बेचैनी थी। उसने कैमरा चेक किया, और देखा कि रात 3:13 पर रिकॉर्डिंग अपने आप रुक गई थी। हैरानी की बात यह थी कि कैमरा पूरी तरह ऑन था, पर उस समय का फुटेज गायब था। उसी समय कमरे के दरवाज़े के पास कुछ गिरने की आवाज़ आई। जाकर देखा तो खिड़की के पास रखा लकड़ी का गुलदान टूटा पड़ा था, जबकि खिड़की भीतर से बंद थी। आरव का दिल तेजी से धड़कने लगा। वह तुरंत कैमरा लेकर नीचे गया, जहाँ रघुवीर चौहान तसले में गर्म पानी भर रहे थे। आरव ने पूछा, “अंकल, कल रात 3 बजे के आस-पास कुछ अजीब सुना आपने?” रघुवीर का चेहरा फीका पड़ गया। उन्होंने बस इतना कहा, “3:13… वही वक़्त है जब हर बार कुछ होता है। जिस रात पांचवा कमरा खुला था, उस रात भी यही वक़्त था।” आरव ने पूछा, “क्या मतलब? वो कमरा पहले खुला है?” रघुवीर ने गहरी सांस लेकर कहा, “साल 1985 में, एक लड़की आई थी यहाँ ठहरने — उसका नाम नेहा था। वही कमरा उसे दिया गया… नीला कमरा। तीसरी रात उसने गला काट लिया अपना। और उसके बाद हर पूर्णिमा की रात कुछ न कुछ होता रहा।” आरव कुछ देर चुप रहा। वह यह तय नहीं कर पा रहा था कि यह सब एक सस्पेंस व्लॉग के लिए परफेक्ट कंटेंट है, या एक डरावना फंदा जिसमें वह खुद फँसता जा रहा है। लेकिन वह वापस जाने वालों में से नहीं था। उसने रघुवीर से पूछा, “उसका फोटो है आपके पास?” रघुवीर ने पुराने स्टोर रूम से एक जली-सी तस्वीर निकाली — एक युवा लड़की, मुस्कुराती हुई, और तस्वीर की एक कोने में नीला दरवाज़ा… खुला हुआ।

उस दिन दोपहर को गांव की वही बूढ़ी दादी माँ फिर मिलने आईं। उन्होंने आरव से बिना पूछे उसके हाथ में एक छोटा-सा डिब्बा रखा — लाल धागे में लिपटा हुआ, जिसके अंदर कपूर और कुछ हरे सूखे पत्ते थे। बोलीं, “इसे साथ रख बेटा… जब वो आए, तो ये आग लगा देगा उसके रास्ते में।” आरव ने हँसते हुए पूछा, “वो कौन?” दादी माँ ने नज़रे उठाईं, “जिसे बंद किया गया था… और जो अब जाग रही है। पाँचवां कमरा कभी सिर्फ एक जगह नहीं रहा, वो एक चेतना है। जो हर उस व्यक्ति में घुस जाती है जो वहाँ झाँकता है।” शाम होते-होते मौसम और बिगड़ गया। आरव अपने कमरे में बैठा रिकॉर्डिंग चेक कर रहा था जब उसने देखा — एक फ्रेम में पांचवें कमरे के दरवाज़े के नीचे से कोई सफेद-सफेद उंगलियाँ बाहर झाँक रही थीं… बस एक पल के लिए। लेकिन जब वह सीढ़ियों पर गया, दरवाज़ा वैसा का वैसा बंद था। पर नीचे उसकी दरारों से कपूर की महक आ रही थी… या शायद सड़ी हुई मांस की। अब आरव को समझ आ रहा था — ये सिर्फ एक बंद दरवाज़ा नहीं था, बल्कि किसी छुपे हुए पाप का द्वार था। और वो खुद से वादा कर चुका था… अगली पूर्णिमा की रात, वह उस दरवाज़े को खोलेगा — और देखेगा कि उस कमरे में वाकई कौन रहता है।

पूर्णिमा की रात थी, और आसमान बादलों से खाली था — एकदम निर्विकार, जैसे किसी अदृश्य आँख से सब कुछ देखा जा रहा हो। पहाड़ों की हवाओं में आज एक अलग सी थरथराहट थी, मानो प्रकृति खुद किसी अशुभ घटना के आने का संकेत दे रही हो। गेस्ट हाउस के हर कोने में सन्नाटा जमा हुआ था, लेकिन उसकी सबसे गहरी परत उस नीले दरवाज़े के पीछे थी — पाँचवे कमरे में, जहाँ आज रात आरव ने प्रवेश करने का निर्णय लिया था। उसने अपने कैमरे, फ्लैशलाइट और लाल धागे वाले डिब्बे को कसकर अपने बैग में रखा। उसके दिल की धड़कनें तेज थीं, लेकिन उसकी आंखों में एक दृढ़ता थी — यह जानने की, देखने की, और साबित करने की कि सच क्या है। 3:00 बजने वाले थे। आरव सीढ़ियाँ चढ़ता गया, हर कदम पर लकड़ी की सीढ़ियाँ कराहती रहीं, जैसे वे जानती हों कि उनका इस्तेमाल आज एक वर्जित दरवाज़े तक पहुँचने के लिए हो रहा है। पाँचवे कमरे के सामने पहुँचकर उसने देखा — दरवाज़ा वैसा ही बंद था, जर्जर, धूल से ढँका, और उस पर जमी जाली अब भी हिल रही थी मानो हवा से नहीं, किसी और हलचल से। उसने पहले कैमरा ऑन किया, रिकॉर्डिंग चालू की और धीमे से दरवाज़े की कुंडी पर हाथ रखा। लेकिन कुंडी अपने आप खुल गई — बिना किसी जोर के, बिना किसी आवाज़ के। वो बस खुल गई… जैसे कोई भीतर से इंतज़ार कर रहा हो।

कमरे के भीतर का अंधेरा गाढ़ा था, पर उसकी ठंडक अलग थी — वह सामान्य बर्फीली सर्दी नहीं थी, यह सर्दी अंदर से जमा देने वाली थी, हड्डियों तक पहुँचती हुई। आरव ने जैसे ही कमरे में कदम रखा, कैमरे की स्क्रीन पर झिलमिलाहट शुरू हो गई — सिग्नल टूटने लगा, और फ्लैशलाइट की रोशनी एक पल चमकती, दूसरे पल बुझ जाती। कमरे में दीवारों पर पुराने चित्र थे — जलते हुए घर, चिल्लाते हुए चेहरे, और एक लड़की जो हर तस्वीर में मौजूद थी, मगर हर बार उसका चेहरा थोड़ा और धुंधला होता जाता। कमरे के बीचोबीच एक लकड़ी का पलंग था, जिस पर एक पुराना कंबल पड़ा था — जैसे किसी को ढँक रखा हो। आरव ने धीरे से पास जाकर कैमरा उस पर फोकस किया, लेकिन कंबल के अंदर कुछ नहीं था। उसने जैसे ही मुड़ने की कोशिश की, कमरे की खिड़कियाँ एकसाथ खुल गईं — ज़ोरदार आवाज़ के साथ — और बाहर से आती रोशनी में आरव को एक क्षण के लिए दीवार पर अपनी परछाईं के पीछे एक और परछाईं दिखी… बिल्कुल स्थिर, लेकिन उसकी आँखें चमक रही थीं। उसने झट से मुड़कर देखा — वहां कोई नहीं था। लेकिन तभी कमरे का दरवाज़ा ज़ोर से बंद हो गया — बिना हवा के, बिना किसी इंसान के। वह कमरा अब एक बार फिर बंद हो चुका था, इस बार आरव को अपने भीतर समेटकर।

अंदर की हवा भारी हो चली थी। आरव को साँस लेना कठिन लग रहा था। उसने जेब से दादी माँ द्वारा दिया डिब्बा निकाला और कपूर को जलाने की कोशिश की, लेकिन माचिस की हर तीली बुझ जाती। तभी कमरे की दीवारों पर लगे चित्रों से रंग उतरने लगे — जैसे खून बह रहा हो। पलंग के नीचे से आवाज़ आई — सिसकी जैसी, धीमी पर दर्दभरी। कैमरा अब रिकॉर्ड नहीं कर रहा था, स्क्रीन पर केवल सिग्नल ब्रेक हो रहे थे और बीच-बीच में एक शब्द फ्लैश होता — “जाग गई हूँ”। आरव ने उस शब्द को देखा और कांप गया — यही शब्द उस लड़की ने उसके सपने में कहे थे। अचानक पलंग के सिरहाने से एक फटी हुई डायरी मिली। आरव ने उसे खोला — पहले पन्ने पर लिखा था, “नेहा… 1985… मैं लौटूंगी।” तभी कमरे में तापमान और गिर गया, और पीछे से एक ठंडी सांस उसकी गर्दन को छू गई। आरव डर से काँप उठा, उसने पलटकर देखा — एक लड़की खड़ी थी, सफेद कपड़ों में, चेहरा धुंध में ढँका हुआ, और उसकी आंखों से आंसुओं की जगह राख बह रही थी। आरव चीख नहीं पाया — आवाज जैसे गले में अटक गई थी। वह जैसे ही भागने को मुड़ा, दरवाज़ा अपने आप खुल गया — लेकिन बाहर अब सीढ़ियाँ नहीं थीं, सिर्फ एक खाली खाई — अंधेरे में डूबी, बिना अंत की। आरव का कैमरा फर्श पर गिर पड़ा… और रिकॉर्डिंग अचानक शुरू हो गई। वीडियो में बस एक धीमी, गूंजती हुई आवाज़ रिकॉर्ड होती रही — “एक बार जो आया… वो यहीं रह गया।” और फिर कैमरा बुझ गया।

अगली सुबह, जब आरव की आँखें खुली, तो वह पूरी तरह से नपुंसक हो चुका था — न केवल शारीरिक रूप से, बल्कि मानसिक रूप से भी। रात को जो कुछ भी हुआ था, वह जैसे एक बुरा सपना हो, मगर उसकी यादें इतनी जीवंत थीं कि वह खुद को विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा था कि यह सब केवल उसके दिमाग का ख्याल था। उसने सीधा कैमरा चेक किया, लेकिन वह पूरी तरह से नष्ट हो चुका था। स्क्रीन पर एक आखिरी रिकॉर्डिंग थी — वह खुद, उसी कमरे में खड़ा, और फिर उसकी आवाज़ में वो फटी-फटी शब्द सुनाई दे रहे थे: “मैं अब नहीं जा सकता…” और फिर एक डरावनी खामोशी। वह सिहर उठा। कैमरा को देखे बिना उसने उसे बैग में डाल दिया। उसे अब डर नहीं था, बल्कि अब वह इस सच्चाई से भागने की कोशिश कर रहा था। लेकिन सच यह था कि वह कहीं नहीं जा सकता था। गेस्ट हाउस में हलचल बढ़ चुकी थी, जैसे कुछ भीतर से बाहर निकलने के लिए तरस रहा हो। जब वह नीचे आया, तो रघुवीर चौहान को गेस्ट हाउस के आंगन में खड़ा देखा। उनका चेहरा बिल्कुल पीला था, जैसे वह कोई बड़ा राज़ छिपा रहे हों। आरव ने उनसे पूछा, “क्या हुआ अंकल? आप ठीक हैं?” रघुवीर ने बिना एक शब्द कहे, सिर हिलाया और फिर एक गहरी सांस लेकर बोले, “आज तुम समझोगे। वह कमरा कभी भी किसी के लिए नहीं था। और जो भी उस कमरे में प्रवेश करता है, वह हमेशा के लिए वहीं रह जाता है।” आरव ने आँखें झपकते हुए कहा, “लेकिन वो लड़की… जो मुझे दिखी थी?” रघुवीर ने उसकी बात काटते हुए कहा, “वो लड़की नहीं थी। वो एक आत्मा थी, जो अपना बदला लेना चाहती थी।” और फिर रघुवीर की आवाज़ में कुछ ऐसा था जो आरव को ठहरने पर मजबूर कर गया। रघुवीर ने कहा, “तुमने जो रात देखा, वो तुम्हारा अंतिम दृश्य नहीं था। अब जब तुम लौटोगे, तब तुम जान पाओगे कि वो लड़की तुम्हारे पीछे कब आ गई थी।”

आरव को अब हर बात उलझी हुई लग रही थी। वह उन शब्दों के मायने समझ नहीं पा रहा था, और उसी वक्त उसे महसूस हुआ कि उसने पूरी रात बिना सोये बिताई थी, फिर भी उसका शरीर थका हुआ था। वह कमरे में लौटते हुए सोच रहा था कि जो कुछ भी हुआ वह सच था या वह अपने ही डर से जूझ रहा था। उसे याद आया कि रघुवीर ने कहा था कि जो उस कमरे में एक बार जाता है, वह कभी बाहर नहीं आ सकता। फिर भी, वह कभी-कभी महसूस करता कि कोई उसके पीछे खड़ा था। उसकी नज़रें चारों ओर घूमने लगीं। गेस्ट हाउस के एक पुराने आईने में उसे अपनी परछाई नहीं दिखी, बल्कि वह लड़की, वही धुंधली सी तस्वीर वाली लड़की, आईने के अंदर थी। उसकी आँखों में वही नफरत थी जो रात को आरव ने महसूस की थी। आरव ने तुरंत मुड़कर आईने से नज़रें हटाईं, लेकिन वह फिर भी देख सकता था कि उसकी परछाई कहीं और खड़ी थी — धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रही थी। आरव ने सोचा कि यह केवल उसका भ्रम है, पर उसके दिल में गहरी घबराहट बढ़ रही थी। वह बाहर जाने की सोच ही रहा था कि अचानक, उसके कानों में एक हल्की सी फुसफुसाहट आई, जैसे किसी ने कहा हो, “तुम वहीं रहोगे…” और फिर वह आवाज़ रुक गई। वह चौंका, लेकिन कमरे में कोई नहीं था। अचानक, बाहर से एक जोर की आवाज़ आई, जैसे दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी हो। आरव ने दरवाजे की ओर देखा — और देखा कि दरवाज़ा हल्का सा हिल रहा था, जैसे कोई अंदर से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा हो। उसने डरते-डरते दरवाज़ा खोला और बाहर की ओर देखा। पूरा आंगन खाली था। कुछ भी नहीं था, सिवाय उस नीले दरवाज़े के, जो पहले से भी ज्यादा जर्जर हो चुका था। उसने अपनी आँखों को तिरछा किया, और देखा कि दरवाजे के नीचे एक किताब पड़ी थी। वह किताब बिल्कुल वही थी — वही डायरी, वही धुंधला नाम — नेहा। आरव ने धीरे से किताब उठाई और जब उसके पन्ने पलटे, तो उसे पुराने, खून से सने हुए पन्ने मिले। उन पन्नों पर कोई शब्द नहीं था, सिवाय एक वाक्य के — “जो आता है, वह कभी नहीं लौटता।” अचानक आरव को समझ में आया कि वह गेस्ट हाउस में अब अकेला नहीं था। उसने अपना बैग कंधे पर डाला और बाहर निकलने की कोशिश की, लेकिन तभी उसने देखा — वह लड़की, वही सफेद कपड़ों वाली, उसकी ओर बढ़ रही थी। उसके चेहरे से आंसू बह रहे थे, और उसकी आँखें… उसकी आँखें अब पूरी तरह से काले धब्बों में बदल चुकी थीं। आरव ने घबराकर पीछे मुड़कर देखा, और एक ही पल में कमरे का दरवाजा फिर से बंद हो गया। वह अब वहां से बाहर नहीं निकल सकता था, क्योंकि वह अब उस लड़की का हिस्सा बन चुका था — उसका एक अंश, और उसकी आत्मा अब वही थी।

गेस्ट हाउस की हवा अब पहले जैसी नहीं रही थी। हर कोने में एक अजीब सी नमी भर गई थी, जैसे दीवारों ने भी कोई दुःख पी लिया हो। आरव अब धीरे-धीरे समझ रहा था कि वह अकेला नहीं है — लेकिन यह अकेलापन ऐसा था जो दिखाई नहीं देता, बस महसूस होता है, छाया की तरह चलता है, सांसों में उतर जाता है, और फिर कभी वापस नहीं जाता। कमरे में रखे पुराने शीशे में वह जब भी झांकता, तो उसमें अपनी परछाईं के साथ एक और परछाईं देखता — पतली, लंबी, स्थिर, और बिल्कुल चुप। लेकिन जब भी वह पलटकर देखता, वहाँ कुछ नहीं होता। यह छाया हर बार उसके कंधे के पीछे खड़ी होती — नज़दीक, बहुत नज़दीक, जैसे उसके कान में कुछ कहना चाहती हो। दादी माँ की दी हुई राख और धागा उसने अब तक संभाल रखा था, पर लगता था कि उसका असर धीरे-धीरे खत्म हो रहा है। कमरे की दीवारें अब चटकने लगी थीं, और उनके अंदर से कभी-कभी आवाज़ें आतीं — धीमे बुदबुदाते शब्द, जैसे कोई नाम पुकार रहा हो। “आरव… आरव…” यह स्वर इतना धीमा होता कि दिमाग को भ्रम हो, पर इतना तीव्र भी कि आत्मा काँप जाए। आरव ने खुद को सम्भालने की कोशिश की, उसने कैमरा दोबारा चलाया, डायरी की फिर से खोजबीन की, पर जितना वह बाहर की चीज़ों में उलझा, उतना ही भीतर कुछ टूटने लगा। अचानक, एक रात उसे महसूस हुआ कि कमरे में कुछ और भी है — एक और उपस्थिति, जो लगातार उसे देख रही थी, और इस बार वह केवल देख नहीं रही थी, बल्कि कुछ कह रही थी… कुछ जो उसके कानों तक आता था, मगर अर्थहीन लगता था, जैसे कोई भाषा जो समय से परे हो।

अगली सुबह, जब वह नीचे आँगन में पहुँचा, तो रघुवीर चौहान वहाँ नहीं थे। उनका कमरा खुला था, बिस्तर अस्त-व्यस्त, और एक कोने में गिरा पड़ा था — एक फोटो फ्रेम, जिसमें रघुवीर, एक महिला और एक छोटी लड़की की तस्वीर थी। लड़की का चेहरा पहचाना हुआ सा लगा — वही आंखें, वही मुस्कान, वही आकृति… नेहा। आरव को जैसे बिजली का झटका लगा। क्या रघुवीर… उसके पिता थे? यह सवाल अभी पूरी तरह खड़ा भी नहीं हुआ था कि तभी उसे पीछे से हल्की सी फुसफुसाहट सुनाई दी — “अब तुम समझे?” वह पलटा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। तभी गेस्ट हाउस के कोने से एक साया बाहर आया — एक बुज़ुर्ग महिला… वही दादी माँ। लेकिन उनकी चाल अब बदल चुकी थी, उनकी आँखें एकटक आरव की ओर देख रही थीं, और उनका चेहरा कठोर था। उन्होंने बिना पलक झपकाए कहा, “जिसे तुम दूसरी परछाई समझ रहे हो, वो अब तुम्हारे भीतर है। नेहा अब बाहर नहीं भटकती… उसने अपना घर चुन लिया है।” आरव पीछे हटने लगा, मगर उसके कदम जैसे ज़मीन से चिपक गए थे। दादी माँ की आँखों से आँसू बहने लगे, और उन्होंने थरथराते स्वर में कहा, “हम सबने कोशिश की उसे रोकने की… पर तुमने दरवाज़ा खोल दिया, बेटा… अब सिर्फ वही बंद कर सकती है, जो भीतर से खोला गया हो।” फिर उन्होंने धीरे से अपनी मुट्ठी खोली और एक पुराने, चांदी के लॉकेट की ओर इशारा किया, जिसमें नेहा की वही तस्वीर थी — जलती हुई आँखों वाली। आरव ने समझ लिया — यह सब सिर्फ रहस्य नहीं था, यह अब उसका जीवन बन गया था, या कहें… मृत्यु की ओर पहला कदम।

उस रात आरव ने पहली बार खुद से बात करना बंद कर दिया। कमरे में बैठकर वह बस सांसें गिनता रहा — एक, दो, तीन… और हर दसवीं सांस पर उसे लगता जैसे कोई उसकी गर्दन के पास आकर फूंक मारता हो। अब वह नींद में नहीं डरता था, क्योंकि अब उसे नींद आती ही नहीं थी। हर बार जब वह आंख बंद करता, एक परछाई उसकी पलकों के नीचे आ बैठती और कानों में धीमी-धीमी भाषा में बुदबुदाती रहती — “जो देखता है, वही बन जाता है…” उसके हाथ खुद-ब-खुद वही पुराने अक्षर लिखने लगते — “मैं लौटूंगी… लौट आई हूँ।” अब डायरी के पन्ने खुद से पलटते थे, और कमरे की घड़ी हर रात 3:13 पर रुक जाती थी। आरव जान चुका था कि वह अकेला नहीं है — और शायद अब वही नेहा है। उसकी पहचान, उसकी आत्मा, उसकी आवाज़ — सब धीरे-धीरे दूसरी परछाई में बदल रही थी। जब वह शीशे में देखता, तो कभी-कभी अपनी जगह उसे नेहा दिखती, मुस्कुराते हुए, लेकिन मुस्कान के पीछे छिपे क्रोध के साथ। अब उसके भीतर कोई द्वंद नहीं था। वह गेस्ट हाउस से बाहर नहीं जाना चाहता था। वह वहाँ रहना चाहता था। उसे अब इस ठंडी हवा, टूटती दीवारों और नीले दरवाज़े से प्रेम हो चला था। और जब अगले दिन एक नया ट्रैवल व्लॉगर, उसी रास्ते से शिखर हाउस की ओर आता दिखा, तो दरवाज़ा अपने आप हल्के से चरमराया — जैसे कोई स्वागत के लिए तैयार हो रहा हो।

सप्ताह बीत चुका था, लेकिन शिखर हाउस की दीवारों में वक्त जैसे जम गया था — घड़ियाँ रुकी रहीं, हवाएँ रुक-रुक कर चलतीं, और खिड़कियाँ अब खुद से बंद नहीं होती थीं, बल्कि जैसे किसी अदृश्य शक्ति की अनुमति से खुलतीं और बंद होतीं। पूर्णिमा का चाँद फिर एक बार आसमान पर पूरी निष्ठुरता के साथ चमकने को तैयार था। गेस्ट हाउस के बाहर के जंगल में उल्लुओं की आवाज़ें और सियारों की सिसकियाँ मिलकर एक अजीब सा संगीत रच रही थीं — एक ऐसा संगीत जो आत्माओं के लिए बजता है, आम इंसानों के लिए नहीं। आरव अब पूरी तरह से बदल चुका था। उसका चेहरा अब भी वैसा ही था, लेकिन उसकी आंखें गहरी, काली और निर्विकार हो चुकी थीं। वह कम बोलता था, ज़्यादा सुनता था — खासकर उन आवाज़ों को जो किसी और को सुनाई नहीं देती थीं। उसके होंठ कभी-कभी खुद-ब-खुद हिलते रहते, जैसे कोई अनदेखी आत्मा उनमें शब्द डाल रही हो। और उसकी सांसें — वे अब धुआँ छोड़ती थीं, यहां तक कि कमरे की गर्मी में भी। रघुवीर चौहान के गायब होने के बाद गेस्ट हाउस की देखभाल अब अनौपचारिक रूप से आरव करने लगा था। गांव वाले दूर से देखकर क्रॉस का इशारा करते, दादी माँ फिर कभी लौटकर नहीं आईं, और अब कोई भी उस गेस्ट हाउस के पास फटकने की हिम्मत नहीं करता था। पर उसी शाम, दूर ढलान से एक लाल रंग की जीप चढ़ती हुई दिखाई दी — उसके शीशे से एक कैमरा लटक रहा था, और गाड़ी चला रहा था एक युवा लड़का… शायद वही, जो ट्रैवल व्लॉगर बनने का सपना लेकर यहाँ आया था।

उसका नाम था नील। और वह ठीक उसी जोश और उत्साह के साथ आया था जैसे एक समय आरव आया था। वह कैमरे में बोलता जा रहा था, “तो दोस्तों, आज हम जा रहे हैं हिमाचल के सबसे रहस्यमयी गेस्ट हाउस में, जहां कहा जाता है कि एक नीला कमरा है… जिसे आज तक किसी ने नहीं खोला।” और ठीक उसी वाक्य के साथ उसके कैमरे में एक अजीब सी झिलमिलाहट दिखाई दी — एक साया, जो तेज़ी से स्क्रीन के पार भागा, लेकिन जब वह मुड़कर देखने लगा, सब साफ था। जीप गेस्ट हाउस के सामने रुकी। अब वह पहले से भी ज़्यादा पुराना लग रहा था — मानो हर ईंट खुद से टूटने को तैयार हो। नील बाहर निकला, अपना बैग उठाया और दरवाज़ा खटखटाया। कुछ देर सन्नाटा रहा, फिर दरवाज़ा धीमे से खुला — और सामने खड़ा था आरव, एकदम शांत, एकदम मुस्कुराता हुआ, लेकिन उसकी आँखें अब भी वैसी ही… खोई हुई, या कहें, किसी और से भरी हुई। नील ने अभिवादन किया, “हाय, मैं नील हूँ। मैंने ऑनलाइन बुक किया था ये जगह।” आरव ने धीमे स्वर में कहा, “पता है। मैं इंतज़ार कर रहा था।” और इतना कहकर उसने नील को अंदर आने का इशारा किया। कमरे वही थे — चार खुले, एक बंद। वही नीला दरवाज़ा, अब थोड़ा और छिल चुका था, उसकी लकड़ी में नई दरारें थीं, और उसकी दरारों से एक नई गंध निकल रही थी — नम सी, जैसे गीली राख… और कुछ जली हुई आत्माओं की सिसकी जैसी।

रात होते ही नील ने अपनी रिकॉर्डिंग चालू की। आरव अब भी एकदम चुपचाप उसके पीछे चलता, जैसे कोई गाइड नहीं बल्कि छाया हो। नील ने पूछा, “आप यहाँ अकेले रहते हैं?” आरव ने मुस्कुरा कर कहा, “अब अकेलापन नहीं लगता।” और उस वाक्य के तुरंत बाद, बिजली एक पल के लिए झपकी और कमरे की खिड़की के शीशे में नील ने तीन परछाइयाँ देखीं — खुद की, आरव की… और एक तीसरी, लंबी, स्थिर, नीली आँचल में लिपटी हुई। वह चौंका, पर तुरंत मुड़कर देखा — कुछ नहीं था। आरव ने धीमे से कहा, “यहाँ सब कुछ दिखता है… अगर तुम देखने की कोशिश करो।” रात के ठीक 3:13 पर, नीले कमरे का दरवाज़ा अपने आप चरमरा कर हिला — जैसे किसी ने उसे अंदर से छू लिया हो। नील घबरा गया, कैमरा उसकी हथेलियों में काँप रहा था। वह बोला, “ये… ये सब… स्क्रिप्टेड तो नहीं है ना?” और तभी, उसके कैमरे में फिर से वही स्वर आया — धीमा, गूंजता हुआ — “मैं जाग गई हूँ।” आरव अब खड़ा नहीं था। वह नीले कमरे के सामने बैठा था, अपनी आँखें बंद किए, मानो किसी अनसुनी प्रार्थना में लीन हो। नील भागने के लिए पीछे मुड़ा, लेकिन दरवाज़ा बंद था। दीवारें हिलने लगी थीं, और फर्श से राख उठने लगी थी। नील ने कैमरे की स्क्रीन पर देखा — और उसमें अब वह खुद नहीं था, बल्कि नेहा थी, वही सफेद कपड़ों में, वही जलती आँखों वाली। और फिर वही आवाज़ आई — “पूर्णिमा का दूसरा चक्र पूरा हुआ। अब अगला इंतज़ार करेगा…”

कमरे की दीवारें अब वैसी नहीं रहीं थीं — हर ईंट में जैसे कोई चेहरा उभर आया था, कोई स्मृति, कोई चीख, कोई प्रार्थना जो कभी पूरी नहीं हुई। नील वहीं ज़मीन पर गिरा पड़ा था, उसका कैमरा ज़मीन पर उल्टा पड़ा था और स्क्रीन पर केवल नीली धुंध दिख रही थी, जिसमें आकृतियाँ तैरती थीं — कभी नेहा, कभी आरव, और कभी वह ख़ाली चेहरा, जो किसी का भी हो सकता था और किसी का नहीं। आरव अब फिर से खड़ा हो गया था, लेकिन उसका चेहरा वैसा नहीं रहा। उसकी त्वचा अब काँच जैसी लगने लगी थी — हल्की पारदर्शी, और उसकी आँखों के पीछे एक अंधेरा घूम रहा था जो इंसान नहीं, केवल आत्मा सह सकती थी। उसने नील की ओर देखा और कहा, “तू आया, क्योंकि तुझे बुलाया गया। यहाँ जो आता है, वह किसी के बुलावे पर आता है — और जब बुलावा आता है, तो वापसी नहीं होती।” नील का दिमाग़ तेज़ी से विचारों में उलझा हुआ था। वह चीखना चाहता था, भागना चाहता था, लेकिन उसके पैर जैसे ज़मीन से चिपक चुके थे, मानो कमरे की आत्मा उसे सोख रही थी। तभी एक खिड़की का काँच टूटा और बाहर से तेज़ हवा कमरे में घुसी, जिसके साथ राख, सूखी पत्तियाँ और एक औरत की धीमी गुनगुनाहट भीतर चली आई — वही, जो नेहा सुनाया करती थी… वही अधूरी लोरी।

नील ने जान लिया था कि वह अब उस गेस्ट हाउस का हिस्सा बन चुका है। रात का तीसरा पहर बीत रहा था, चाँद अब धीरे-धीरे छुपने लगा था, लेकिन नीला दरवाज़ा अब पूरी तरह खुल चुका था। दरवाज़े के भीतर का अंधकार अब कमरे के बाहर फैलने लगा था — दीवारों पर चढ़ रहा था, छत से टपक रहा था, और फर्श के नीचे से नील के पैरों को छूने लगा था। उसकी सांसें तेज़ हो रही थीं, आँखें चौड़ी होती जा रही थीं, और उसकी सोच जैसे किसी अनदेखी सुरंग में खोने लगी थी। आरव ने एक आखिरी बार उसकी तरफ़ देखा और कहा, “अब तू समझेगा कि क्यों मैं यहाँ रह गया… क्यों नेहा नहीं जा सकी… और क्यों रघुवीर ने आत्मा को बंद करने की कोशिश की थी।” नील की आँखें खुली थीं, लेकिन अब उनमें वह चमक नहीं थी जो पहले दिन आई थी। वह अब कमरे के कोने में बैठा था, चुप, स्थिर, और बस एक ही दिशा में ताकता हुआ — नीले कमरे के भीतर, जहां अब से वह अकेला नहीं था। दीवारों पर छायाएँ चलने लगी थीं — बच्चों की हँसी, किसी माँ की चीख, और एक चिट्ठी जो राख बनकर उड़ गई थी। गेस्ट हाउस की घड़ी ने 3:33 बजाया, और उसके बाद उसकी सुइयाँ हिलनी बंद हो गईं — हमेशा के लिए।

अगली सुबह गांव में हलचल हुई। कोई अनजान जीप पहाड़ के नीचे खाई में पड़ी मिली थी — टूटी, कुचली हुई, और उसके भीतर एक कैमरा रखा था, जो अब भी रिकॉर्ड कर रहा था। जब पुलिस ने फुटेज देखी, तो वीडियो में केवल दो शब्द सुनाई दिए — “मैं जाग गई हूँ।” उसके बाद स्क्रीन धुंधली हो गई। गेस्ट हाउस की ओर दो सिपाही गए, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। दरवाज़ा आधा खुला था, कमरे अंदर से खाली थे — सिवाय उस पाँचवें नीले कमरे के, जिसे किसी ने बंद कर दिया था… और दरवाज़े के ठीक बीच में किसी ने खून से लिखा था: “जो देखे, वो रहे। जो लौटे, वो मिट जाए।” गेस्ट हाउस को अब दोबारा बंद कर दिया गया। गांव वाले अब उसकी ओर देखने से भी डरते थे। लेकिन आज भी, हर पूर्णिमा की रात, जब चाँद सबसे ऊँचा होता है, और जब हवा में राख की गंध तैरती है, उस नीले कमरे का दरवाज़ा अपने आप खुलता है — और कोई नया मेहमान उसके भीतर उतरता है, बिना यह जाने कि वह वापसी की राह नहीं पकड़ सकेगा।

तीन वर्ष बीत चुके थे उस रात के बाद जब नील, आरव और नेहा उस गेस्ट हाउस की खामोशियों में खो गए थे। गांव के लोग अब भी उस ओर नज़र उठाकर नहीं देखते थे, और पंचों ने निर्णय लिया था कि गेस्ट हाउस के आसपास सौ मीटर तक कोई न फटके। परंतु कहानियाँ, अफवाहें और वह रहस्यमयी वीडियो — जिसमें केवल “मैं जाग गई हूँ” की आवाज़ सुनाई देती थी — यूट्यूब और सोशल मीडिया पर बार-बार वायरल होती रहीं। यही वीडियो दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा तृषा वर्मा तक पहुँची, जो पैरानॉर्मल रिसर्च और इंडियन हॉन्टिंग्स पर डॉक्युमेंट्री बना रही थी। तृषा को बचपन से ही अंधेरों की ओर एक अजीब खिंचाव महसूस होता था, मानो कोई साया उसे पुकार रहा हो। उसने कई बार सपनों में एक नीला कमरा देखा था — और जब उसने नील का वीडियो देखा, तो उसे यकीन हो गया कि वह वही जगह है। बिना किसी को बताए वह पश्चिम बंगाल के उस गांव में पहुँची। गांव वालों ने पहले तो उसे चेताया, फिर डरा कर भगा देना चाहा, पर तृषा के इरादे पत्थर जैसे मजबूत थे। वह एक रात बैग लेकर अकेले ही उस सुनसान गेस्ट हाउस की ओर निकल गई, उसके पास था केवल एक कैमरा, कुछ मोमबत्तियाँ और उसकी डायरी, जिसमें वह अपने सपनों की घटनाएँ सालों से लिखती आई थी।

गेस्ट हाउस के मुख्य दरवाज़े पर अब जंग की परत थी, लेकिन किसी अनदेखे स्पर्श से वह धीरे से चरमराया और खुल गया। तृषा के पाँवों के नीचे धूल और राख थी, और दीवारों पर अब भी रघुवीर का लिखा ‘ॐ अपराजिताय नमः’ फीका पड़ चुका था, मानो समय ने उसका प्रभाव चुरा लिया हो। वह धीरे-धीरे भीतर गई, कैमरा ऑन किया और हर कमरे की रिकॉर्डिंग करने लगी। चार कमरे पहले जैसे ही थे — चुप, वीरान, लेकिन इंसानी यादों से भरे हुए। पर पाँचवां कमरा… वह अब भी बंद था, मगर तृषा को लगा जैसे अंदर से कोई सांस ले रहा हो, कोई मौजूदगी, जो खुद को छुपाए बैठी है। जैसे ही तृषा ने दरवाज़े पर हाथ रखा, उसके दिमाग़ में झनझनाहट शुरू हुई — वह अब अपने पुराने सपनों के बीच में थी, वही नीला कमरा, वही गाना, वही साया। दरवाज़ा खुद-ब-खुद खुला, और कमरे से एक काली लहर निकलकर तृषा को समेटने लगी। उसने खुद को संभालते हुए भीतर कदम रखा, और देखा कि कमरे के बीचों-बीच एक नीली रेखा अब भी चमक रही थी — वही दायरा जिसमें आत्मा को बाँधा गया था। पर अब वह टूटा हुआ था, और उसकी दरारों से धुआँ उठ रहा था। दीवार पर किसी ने लिखा था — “नींद अब टूट चुकी है, कहानी फिर से शुरू होगी।” तृषा काँपने लगी, लेकिन वह बाहर नहीं भागी — उसने कैमरा ज़मीन पर रख दिया और उस टूटी हुई रेखा के पास बैठ गई। उसी पल कमरे की हवा बदल गई, और एक हल्की सी हँसी गूंज उठी — वह नेहा की थी।

धीरे-धीरे वह कमरा फिर से जिंदा होने लगा। छत से फांसी पर झूलती आकृतियाँ, फर्श पर लहू के निशान, और दीवारों में धंसे चेहरों की परछाइयाँ तृषा के चारों ओर घूमने लगीं। उसने आँखें बंद कर लीं और अपने सपनों की डायरी ज़मीन पर फैलाई — हर पन्ना हवा में उड़ने लगा, और उन पर लिखे सपनों के दृश्य कमरे की दीवारों पर प्रकट होने लगे — जैसे कोई प्रोजेक्टर आत्मा की यादों को चला रहा हो। अचानक एक पन्ना दीवार से चिपक गया, और उसमें लिखा था: “जिसने मुझे बुलाया, वही मुझे मुक्त करेगा।” तृषा ने महसूस किया कि वह केवल शोध करने नहीं, बल्कि कहानी पूरी करने आई थी — वह इस चक्र का अंतिम पात्र थी। उसे समझ आ गया कि आत्मा को मुक्ति केवल उसी से मिल सकती है जिसने उसे देखा, सुना, और समझा। वह धीरे से उठी, पाँचवां कमरा पीछे छोड़ दिया, और बाहर आई। पर अब गेस्ट हाउस वैसा नहीं था — दीवारें ढहने लगी थीं, छत से राख गिर रही थी, और हर कोना जलने लगा था। तृषा भागने लगी — बाहर, खुले में, जहाँ चाँदनी थी, लेकिन पीछे से उसे एक आवाज़ सुनाई दी — “अब मैं सो सकूँगी…” और फिर सब शांत हो गया। सुबह जब गांव वाले आए, तो गेस्ट हाउस पूरी तरह जलकर राख हो चुका था। केवल एक चीज़ बची थी — तृषा का कैमरा, जो अब भी रिकॉर्ड कर रहा था, और उसकी डायरी, जिसके आखिरी पन्ने पर लिखा था:
“कभी-कभी आत्माएं गुस्से में नहीं, इंतज़ार में होती हैं।”

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