सुरभि
जब भी बारिश होती है, मेरी यादों की खिड़की अपने आप खुल जाती है। स्कूल की वो पुरानी इमारत, गीली ज़मीन से उठती मिट्टी की खुशबू, और एक लड़की—सादगी में लिपटी कोई कविता सी। उसका नाम था नेहा। और मेरा—अंशुमान।
हम दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते थे—राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, जयपुर। क्लास १०-बी। मैं हमेशा पीछे की बेंच पर बैठता था, किताबों के बीच गुम, और वो हमेशा दूसरी लाइन की खिड़की के पास, बालों को क्लिप से बांधकर, कभी-कभी दूर आसमान में ताकती हुई।
मुझे पहली बार जब उसके बारे में कुछ महसूस हुआ, वो इतिहास की एक उबाऊ क्लास थी। टीचर इंडस वैली सिविलाइज़ेशन पढ़ा रही थीं, और मैं हरियाली के बीच किसी कविता को ढूंढ़ रहा था—दरअसल, नेहा को देख रहा था। उसके पेंसिल की नोक टूटी, और उसने मुझसे इशारे में पेंसिल मांगी। बस, वही एक पल था, जिसने मेरे दिल में कुछ बो दिया।
“थैंक यू,” उसने मुस्कराकर कहा था। और उस मुस्कान ने मेरी पूरी हाज़िरी की परवाह ही खत्म कर दी।
उसके बाद, मेरा हर दिन कुछ अलग हो गया। मैं वक्त से स्कूल पहुंचता, यूनिफॉर्म में इस्त्री होती, बाल ठीक से संवारता—ताकि वो मुझे देखे, शायद मुस्कराए, शायद कुछ कहे। लेकिन हम दोनों के बीच कभी कोई बात नहीं होती। बस कुछ चुप्पियां थीं, जो बातें करने लगी थीं।
मिड-टर्म एग्ज़ाम्स के ठीक पहले स्कूल में एक प्रोजेक्ट मिला—”भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर समूह प्रस्तुति।” मैं आमतौर पर किसी भी ग्रुप में नहीं होता था, लेकिन इस बार कुछ अजीब हुआ। नेहा ने खुद आगे बढ़कर कहा—”मैम, मैं अंशुमान के साथ करना चाहती हूँ।”
मेरे कान सुन्न हो गए। मुझे लगा मैं सुन नहीं रहा, सपने में हूँ। लेकिन वो सच था। उसने मुझे ग्रुप में लिया, और हम दोनों का पहला साथ वहीं से शुरू हुआ।
हमने मिलकर सुभाष चंद्र बोस पर प्रेजेंटेशन बनाने का प्लान किया। वो किताबें लाती, मैं स्लाइड्स बनाता। कभी-कभी लाइब्रेरी में मिलते, तो कभी स्कूल के पीछे के बरगद के नीचे। और उन सबके बीच, कुछ और भी बन रहा था—जो पढ़ाई की किताबों में नहीं लिखा था।
“तुम बहुत अच्छे से समझाते हो,” उसने एक दिन कहा।
“और तुम बहुत अच्छे से सुनती हो,” मैंने जवाब दिया। हमारे बीच पहली बार एक लंबी नज़र ठहरी थी।
फिर वो दिन आया, जब प्रेजेंटेशन था। नेहा थोड़ी नर्वस थी। उसकी आवाज़ कांप रही थी। मैंने उसका हाथ पकड़कर कहा—”तुम कर लोगी। मैं यहीं हूँ।”
उसने मेरी आँखों में देखा, और एक सुकून से भरी मुस्कान दी। प्रेजेंटेशन बहुत अच्छा हुआ। क्लास ताली बजा रही थी, लेकिन मैं बस नेहा की तरफ देख रहा था—जैसे वही मेरा इनाम हो।
उस दिन के बाद, बारिश थोड़ी मीठी लगने लगी, स्कूल की दीवारें थोड़ी ज्यादा अपने जैसी लगने लगीं।
एक दिन, हम दोनों स्कूल की छत पर अकेले थे। परीक्षा के बाद का आखिरी दिन। नेहा चुप थी, बाल हवा में उड़ रहे थे।
“क्या तुम कुछ कहना चाहती हो?” मैंने पूछा।
“तुम्हारे बिना स्कूल खाली लगेगा,” उसने धीमे से कहा।
मुझे नहीं पता था क्या कहना चाहिए। मैंने बस उसके पास जाकर कहा—”मुझे भी। बहुत ज़्यादा।”
हम दोनों छत पर खड़े थे, दो अनकहे इज़हारों के बीच, और कहीं न कहीं, पहली बार प्यार का बीज अंकुरित हो चुका था।
***
परीक्षा के बाद स्कूल कुछ दिन के लिए बंद हो गया था। गर्मियों की छुट्टियाँ शुरू हो चुकी थीं, लेकिन मेरे मन में एक अलग ही बेचैनी थी। वो सुबह की घंटी, क्लास में बैठना, ब्लैकबोर्ड पर टीचर का लिखना—सब बेमानी लगने लगा था। दरअसल, मैं नेहा को मिस कर रहा था।
हमारा कोई नंबर एक्सचेंज नहीं हुआ था। न कोई फोटो, न कोई सोशल मीडिया। जैसे एक अधूरी कविता, जो बस दिमाग में रह जाती है, काग़ज़ पर कभी उतर नहीं पाती।
मैं दिन में कई बार स्कूल के पास से गुजरता। शायद वो मिल जाए, शायद कुछ कह पाए। लेकिन हर बार खाली हाथ लौटता।
एक दिन, माँ ने कहा—”क्यों नहीं किसी समर कैंप में नाम लिखवा देते? घर में बैठे-बैठे क्या करेगा?”
मुझे कोई दिलचस्पी नहीं थी। लेकिन अगले ही दिन मुझे स्कूल के नोटिस बोर्ड की याद आई—जहाँ लिखा था: “ग्रीष्मकालीन सांस्कृतिक कार्यशाला—ड्रामा, संगीत, चित्रकला। स्थान: स्कूल सभागार।” और सबसे नीचे—नेहा का नाम था। ड्रामा सेक्शन में।
मैंने बिना कुछ सोचे माँ से हाँ कह दी।
जब मैं स्कूल पहुँचा, वो पहले से वहाँ थी। लाल रंग की कुर्त्ती, खुले बाल और एक हाथ में स्क्रिप्ट। मुझे देखकर वो मुस्कराई, और कहा—”तुम भी आए?”
“हाँ,” मैंने जवाब दिया, कोशिश करते हुए कि मेरी धड़कनें ज़्यादा तेज़ न सुनाई दें।
“कौन सा सेक्शन लिया?” उसने पूछा।
मैंने तुरंत जवाब दिया—”ड्रामा, तुम्हारे साथ।”
वो हँसी, “ओह, अच्छा किया। मुझे भी किसी अच्छे को-एक्टर की ज़रूरत थी।”
उस दिन पहली बार हमने स्क्रिप्ट पढ़ी साथ में। ये एक स्कूल नाटक था—’शकुंतला’। और दिलचस्प बात ये थी कि उसे शकुंतला का किरदार मिला, और मुझे—दुष्यंत का।
वो रिहर्सल्स के दिन कुछ अलग थे। एक कहानी को निभाते-निभाते जैसे हम दोनों की अपनी कहानी भी आगे बढ़ रही थी। वो जब डायलॉग बोलती—”क्या आपको मेरी याद नहीं?”—तो लगता जैसे मुझसे ही पूछ रही हो।
एक बार रिहर्सल के बाद बारिश शुरू हो गई। सारे बच्चे भाग गए, लेकिन हम दोनों स्कूल के गेट के पास खड़े रह गए।
“तुम्हें बारिश पसंद है?” मैंने पूछा।
उसने मुस्कराकर कहा, “बहुत। बारिश में सब कुछ धुल जाता है—गलतियाँ, ग़म, डर… बस कुछ यादें रह जाती हैं।”
मैंने धीमे से कहा, “और अगर यादें भीग जाएँ तो?”
“तो शायद वो और गहरी हो जाएँ,” उसने जवाब दिया।
हम दोनों खामोश हो गए। बारिश की बूंदें छत की टीन पर गिर रही थीं। एक मीठा संगीत सा। और उस संगीत में, हमारी चुप्पी भी बोल रही थी।
वो मुझसे थोड़ी दूर खड़ी थी। लेकिन उस दिन जो फासला था, वो बाहर से ज़्यादा अंदर कम हो गया था।
रिहर्सल के आखिरी दिन, उसने कहा—”कल प्रस्तुति है। डर लग रहा है।”
मैंने उसकी तरफ देखा और कहा—”मैं तुम्हारे साथ हूँ। भूल जाओ सब, बस मुझे देखो।”
अगले दिन सभागार भरा हुआ था। अभिभावक, शिक्षक, छात्र—हर तरफ शोर। मंच पर हम दोनों। लेकिन जैसे ही रोशनी जली, सब कुछ गायब हो गया। बस नेहा थी, और मैं।
नाटक खत्म हुआ, और ज़ोरदार तालियाँ बजीं। लेकिन मेरी नजरें सिर्फ एक जगह थीं—उसकी आँखों में।
वो पर्दे के पीछे आई, मेरी तरफ देखा और कहा—”थैंक यू। दुष्यंत बनकर तुमने मुझे शकुंतला बना दिया।”
मैंने कुछ नहीं कहा। बस उसके पास गया, और पहली बार, उसका हाथ थामा।
उसने कुछ नहीं कहा। कोई प्रतिरोध नहीं, कोई सवाल नहीं। शायद उसका भी यही जवाब था।
***
नाटक के बाद की शाम किसी उत्सव से कम नहीं थी। सभागार के बाहर हँसी, चहल-पहल, फूलों की मालाएँ और कैमरों की चमक थी। माता-पिता अपने बच्चों की तस्वीरें खींच रहे थे, टीचर्स तारीफों के पुल बाँध रहे थे, और हमारे नाटक की हर जगह चर्चा हो रही थी।
लेकिन मेरे लिए, सबसे खूबसूरत पल वो था जब नेहा ने धीरे से मेरे हाथ में एक छोटी सी कागज़ की चिट पकड़ा दी। भीड़ में खोने से पहले वो फुसफुसाई—”घर जाकर पढ़ना।”
मैं सारा समय उस चिट को जेब में छुपाए रहा, जैसे कोई खज़ाना हो। घर पहुँचकर दरवाज़ा बंद किया, पंखा बंद किया, और धीमे से उस चिट को खोला।
सिर्फ चार शब्द लिखे थे—”तुम्हारे साथ अच्छा लगता है।”
दिल की धड़कनें अचानक तेज़ हो गईं। मैंने उस कागज़ को किताबों के बीच नहीं, तकिए के नीचे रखा—जैसे कोई सपना हो जिसे सोते समय भी साथ रखना हो।
अगले दिन जब हम स्कूल पहुँचे, कुछ बदल चुका था। आँखें पहले से ज़्यादा टिकी रहतीं, मुस्कानें लंबी होतीं, और बातें—कम लेकिन गहरी।
अब छुट्टियाँ खत्म हो रही थीं, और स्कूल खुलने वाला था। नया सत्र, नई क्लास, और एक डर—कि कहीं हमें अलग सेक्शन में न डाल दिया जाए।
पहले दिन जब नोटिस बोर्ड देखा, तो दिल बैठ गया। मैं ११-सी में था, और नेहा—११-ए में।
मैंने कुछ नहीं कहा, लेकिन शायद मेरे चेहरे से सब समझ में आ गया था। नेहा पास आई और बोली—”सेक्शन भले अलग है, दोस्ती थोड़ी बदलेगी क्या?”
मैंने मुस्कराकर कहा, “नहीं, लेकिन… मिलने का बहाना ढूंढना पड़ेगा।”
उसने शरारत भरी नजरों से कहा—”बहाने नहीं, अब तो वजह बन चुके हो।”
हमने तय किया—हर बुधवार लंच ब्रेक में लाइब्रेरी में मिलेंगे। बिना किसी को बताए, बस हम दो लोग। किताबों की अलमारियों के बीच, वो एक छोटा सा कोना हमारा बन गया।
पहली बार जब हम वहाँ मिले, मैं एक कविता की किताब ले आया। “राहुल सांकृत्यायन की कविताएँ।”
नेहा ने चिढ़ाते हुए कहा—”वाह! अब तुम कवि बन गए हो?”
“नहीं,” मैंने कहा, “पर किसी को सुनाने का मन करता है।”
मैंने एक कविता पढ़ी, और वो चुपचाप सुनती रही। उसके बाद वो बोली—”अब मेरी बारी।” उसने एक पुरानी डायरी निकाली, और खुद की लिखी एक कविता पढ़ी।
“कुछ बातों को शब्द नहीं चाहिए,
बस एक नज़र, और सब कह दिया।
जब तुम होते हो पास मेरे,
तो जैसे वक़्त भी थम गया।”
मैं स्तब्ध रह गया। नेहा सिर्फ सुंदर नहीं थी, वो भीतर से भी उतनी ही कोमल थी। पहली बार मैंने महसूस किया कि ये दोस्ती अब महज स्कूल की नहीं रही—ये कुछ और है, शायद पहला प्यार।
उस दिन के बाद, हर बुधवार हमारी एक दुनिया होती। लाइब्रेरी के कोने में किताबों से बातें होतीं, और उन बातों के पीछे हम दोनों खुद को ढूंढते।
लेकिन जैसे हर कहानी में कोई मोड़ आता है, हमारी कहानी भी एक मोड़ की तरफ बढ़ रही थी—जिसके बारे में हमें ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था।
***
उस बुधवार जब मैं लाइब्रेरी पहुँचा, नेहा नहीं आई। पहली बार। हर घड़ी उसकी राह देखता रहा, लेकिन दरवाज़ा खुला ही नहीं। घंटी बजी, लंच ख़त्म हुआ, और मैं खाली मन से क्लास लौट आया।
मन में एक अजीब सी बेचैनी थी। क्या हुआ? कहीं नाराज़ तो नहीं? कोई बात तो नहीं कह दी?
अगले दिन भी वो स्कूल नहीं आई।
तीसरे दिन, मैं खुद को रोक नहीं पाया और उसकी एक क्लासमेट से पूछा—”नेहा नहीं आई क्या?”
“हां,” उसने बताया, “उसकी दादी की तबीयत बहुत खराब है। वो गांव चली गई है कुछ दिनों के लिए।”
मन में राहत मिली कि वो नाराज़ नहीं है, लेकिन साथ ही एक खालीपन भी था। लाइब्रेरी अब अकेली लगने लगी थी, लंच ब्रेक अब लंबा हो गया था।
नेहा के बिना स्कूल जैसे रंगहीन हो गया।
तीन हफ़्ते बीत गए।
और फिर, एक सोमवार सुबह, मैं क्लास में घुसा तो खिड़की के पास वही चेहरा। वो मुस्करा रही थी, जैसे बारिश के बाद धूप।
मैं सीधा उसके पास गया—”कैसी हो?”
“अब ठीक हूँ,” उसने कहा, “दादी अब भी बीमार हैं, लेकिन थोड़ा बेहतर है।”
फिर एक ठहराव। आँखें मिलीं, और उसके बाद धीमे से उसने पूछा—”क्या तुमने इंतज़ार किया?”
मैंने बस एक शब्द कहा—”हर दिन।”
उसने किताब खोल ली, कुछ कहा नहीं। लेकिन उसके चेहरे की मुस्कान बता रही थी कि वो जवाब उसे पसंद आया।
फिर से हमारी Wednesdays लौट आए। लाइब्रेरी की अलमारी के उस कोने में, हम दोनों हर बार कुछ नया खोजते—कभी कविता, कभी कहानी, कभी एक-दूसरे की चुप्पी।
एक दिन, उसने मुझे एक स्केच दिखाया—मेरी तस्वीर, जो उसने अपनी डायरी में पेंसिल से बनाई थी। मैं चौंक गया।
“ये कब बनाया?”
“जब तुम नहीं थे, लेकिन तुम्हारी याद थी,” उसने कहा।
मैंने डायरी को धीरे से बंद किया और पूछा—”कभी सोचा है, कि ये जो है हमारे बीच… ये क्या है?”
वो कुछ देर चुप रही, फिर बोली—”शायद एक अधूरा इज़हार।”
मैंने कहा—”तो क्या हम इसे पूरा करें?”
उसने आँखें झुका लीं, लेकिन मुस्कराई।
उस दिन पहली बार मैंने उसके हाथ को अपने हाथ में पूरी तरह से लिया, जैसे कोई उत्तर मिल गया हो।
लेकिन हमारी ये दुनिया ज़्यादा दिनों तक छुपी नहीं रह सकी।
एक दिन, जब हम लाइब्रेरी से बाहर निकले, प्रिंसिपल सर सामने खड़े थे।
“तुम दोनों यहाँ क्या कर रहे हो?” उनकी आवाज़ सख़्त थी।
हमने झूठ कहा—”असाइनमेंट पर काम कर रहे थे।”
लेकिन उनके चेहरे पर यकीन की कोई झलक नहीं थी।
अगले दिन मेरे घर एक नोटिस आया—”आपके बेटे के व्यवहार पर विचार किया जाए।”
पापा ग़ुस्से में थे। “तू पढ़ाई करने जाता है या नाटक?”
मैं चुप। कुछ कह नहीं पाया।
मम्मी ने बचाने की कोशिश की, “बच्चे हैं, दोस्त हैं शायद…”
लेकिन पापा का निर्णय साफ था—”अब ट्यूशन जाना होगा। स्कूल से सीधा घर। कोई लाइब्रेरी-वाइब्रेरी नहीं।”
मुझे पहली बार प्यार की कीमत समझ में आई।
मैंने नेहा को अगले दिन बताया। उसकी आँखों में नमी थी, लेकिन आवाज़ में मजबूती—”हम फिर भी मिलेंगे। चाहे जैसे भी।”
मैंने कहा—”हर बुधवार नहीं, लेकिन हर दिल में ज़रूर।”
***
अब हमारी मुलाक़ातें बंद हो गई थीं, लेकिन बातचीत कभी रुकी नहीं। स्कूल में क्लासेज के बीच, गलियारों में, कभी छत पर जाते हुए या पानी पीते वक्त—नेहा और मैं नज़रों से बातें कर लेते थे। अब शब्दों की ज़रूरत नहीं थी, एक चुप मुस्कान ही काफी होती।
मैं ट्यूशन जाने लगा था, घर से सीधे क्लास, फिर वापस। पापा का चेहरा दिन-ब-दिन और सख़्त होता गया, और मम्मी का चेहरा—चुप। लेकिन मेरा मन अब भी उसी लड़की के इर्द-गिर्द चक्कर काटता रहता, जो एक वक्त लाइब्रेरी में मेरी दुनिया हुआ करती थी।
एक दिन शाम को ट्यूशन से लौटते वक्त एक चौक पर स्कूटी से उतरती हुई एक लड़की दिखी। वो नेहा थी। उसके साथ उसकी मम्मी भी थीं।
मैं थोड़ा हिचकिचाया, लेकिन नेहा ने मुझे देख लिया। उसने इशारे से रुकने को कहा, फिर अपनी मम्मी से कुछ कहकर मेरे पास आई।
“तुम यहाँ?” उसने पूछा।
“ट्यूशन,” मैंने हल्के से कहा।
“मैं म्यूजिक क्लास जाती हूँ यहीं पास में,” उसने बताया, “सोचा तुमसे बात कर लूँ।”
हम सड़क किनारे थोड़ी देर चुपचाप खड़े रहे।
“तुम्हें मुझसे दूर रखा जा रहा है न?” उसने पूछा।
मैंने धीरे से सिर हिलाया।
“तो क्या अब हम…” वो बोलते-बोलते रुक गई।
“नेहा,” मैंने उसकी बात काटी, “तुम मेरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत चीज़ हो। जो दो कदम साथ चली, वही काफी है। लेकिन अगर ये साथ और भी लंबा हो, तो मैं लड़ना चाहता हूँ, हालात से। खुद से।”
उसकी आँखें भर आईं। “मैं भी लड़ूँगी,” उसने कहा।
हमारे बीच अब एक वादा था। कोई प्रेम पत्र नहीं, कोई अंगूठी नहीं—बस एक नज़र, जिसमें आने वाले सालों की उम्मीद छुपी थी।
लेकिन मुश्किलें यहीं खत्म नहीं हुईं।
अगले हफ्ते, स्कूल में ‘वार्षिक माता-पिता शिक्षक मिलन’ का आयोजन हुआ। और मेरे दुर्भाग्य से, नेहा के पापा और मेरे पापा आमने-सामने आ गए। किसी ने कुछ कह दिया, किसी ने कुछ सुन लिया। और अचानक, दो परिवारों के बीच एक अदृश्य दीवार खड़ी हो गई।
घर लौटकर उस रात पापा ने मेरी डायरी पढ़ ली, जिसमें नेहा के बारे में कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं।
“तू अब भी उससे मिलता है?” उनकी आवाज़ भारी थी।
मैंने चुप रहना बेहतर समझा।
“कल से स्कूल बंद। अब तू दूसरे स्कूल में पढ़ेगा,” उन्होंने ठंडे स्वर में कहा।
मुझे लगा जैसे किसी ने मेरा पूरा स्कूल, क्लासरूम, लाइब्रेरी, और वो कोना जहाँ नेहा की खुशबू रहती थी—सब मुझसे छीन लिया।
मैंने मम्मी की ओर देखा, पर वो भी कुछ नहीं बोलीं।
उस रात, मैंने नेहा को एक खत लिखा।
“नेहा,
कभी सोचा नहीं था कि स्कूल बदलना इतना भारी होगा। लेकिन तुमसे जो सीखा, जो महसूस किया, वो कोई स्कूल नहीं सिखा सकता। मैं नहीं जानता हम फिर मिलेंगे या नहीं, लेकिन अगर किसी दिन तुम अकेली बैठी हो, और हवा अचानक तुम्हारे बालों को छुए… तो समझना, वो मेरा प्यार है, जो अब भी तुम्हारे आसपास है।
– तुम्हारा अंशुमान”
मैंने वो चिट स्कूल की लाइब्रेरी के उसी कोने में जाकर रख दी जहाँ हम मिलते थे। शायद किसी दिन वो आए, और उसे पा ले।
***
नए स्कूल का पहला दिन किसी सज़ा से कम नहीं था। नए चेहरे, नई क्लासरूम, नई किताबें—सब कुछ अनजाना। लेकिन सबसे अजनबी था मेरा अपना दिल, जो अब भी किसी पुराने पते पर धड़क रहा था।
यहाँ कोई नेहा नहीं थी। न वो लाइब्रेरी का कोना, न उसकी मुस्कराहट, और न वो चुपचाप बातों का सिलसिला। मैं क्लास में सबसे पीछे बैठा रहता, जवाब न देता, दोस्तों से कटा-कटा सा। टीचर ने कई बार टोका भी—“तुम यहाँ पढ़ने आए हो या खोए रहने?”
लेकिन मेरे लिए सवाल पढ़ाई का नहीं था, सवाल उस अधूरी कहानी का था, जो बिना अंत के बीच रास्ते में छोड़ दी गई थी।
एक दिन लंच ब्रेक में मैं अकेले स्कूल के गेट के पास खड़ा था, जब मेरा फोन बजा। स्क्रीन पर कोई नंबर नहीं था, सिर्फ “Private Number”।
कॉल उठाया तो दूसरी तरफ एक धीमी आवाज़ आई—”तुम ठीक हो?”
ये वही आवाज़ थी, जिससे मेरी हर सुबह शुरू होती थी—नेहा की।
“तुमने कैसे फोन किया?” मैंने हैरानी से पूछा।
“तुम्हारा नंबर एक दोस्त से लिया। बहुत मुश्किल से।” वो बोली।
कुछ देर दोनों तरफ चुप्पी रही, फिर उसने कहा—”मैं हर बुधवार लाइब्रेरी जाती हूँ… तुम्हारे खत के बाद।”
मैं सन्न रह गया। “तुमने… पढ़ा?”
“हर शब्द,” उसने कहा। “मैं अब भी उस कोने में बैठती हूँ, तुम्हारे शब्दों के साथ।”
मैं बोल नहीं सका। बस आँखें भीग गईं।
उसने फिर कहा—”क्या तुम आ सकते हो… एक बार?”
“कैसे?” मैंने कहा, “यहाँ से बहुत दूर है अब। पापा घर से बाहर भी नहीं निकलने देते।”
“तो मैं आऊँ?” उसने हौले से पूछा।
“क्या?”
“तुम्हारे स्कूल के पास। अगले शनिवार। दोपहर ३ बजे। बस एक बार मिलना है, बात करनी है। कुछ भी नहीं, सिर्फ देखना है तुम्हें।”
मैंने कुछ पल सोचा, फिर बोला—”अगर तुम आ रही हो, तो मैं भी आऊँगा। चाहे जो हो जाए।”
उस शनिवार मेरे अंदर बवंडर चल रहा था। झूठ बोलकर घर से निकला—कहा कि स्कूल प्रोजेक्ट है, और सीधे स्कूल के बाहर आ गया।
और वहाँ, दूर एक पेड़ के नीचे, सफेद सूती कुर्ता पहने, बालों में हल्की सी क्लिप लगाए, वो खड़ी थी—नेहा।
हम दोनों कुछ देर यूँ ही खड़े रहे। दूर से। जैसे किसी पुराने चित्र में कैद हो गए हों।
फिर धीरे-धीरे पास आए।
“तुम बदल गए हो,” उसने कहा।
“तुम नहीं बदली,” मैंने जवाब दिया।
“तुम्हें देखने की बहुत ज़रूरत थी,” उसने कहा।
“और मुझे तुम्हें महसूस करने की,” मैंने जवाब दिया।
हम वहीं पेड़ के नीचे बैठ गए। पास-पास, लेकिन अब भी थोड़ी दूरी पर।
“क्या अब भी वो सब महसूस होता है?” उसने पूछा।
मैंने उसकी तरफ देखा और कहा—”हर रोज़। हर साँस में। हर खामोशी में।”
वो थोड़ी देर चुप रही, फिर एक छोटा सा लिफ़ाफ़ा मेरी तरफ बढ़ाया।
“ये मेरी तरफ से।”
मैंने खोलकर देखा—एक छोटा स्केचबुक था, जिसमें पहली पन्ने पर लिखा था:
“कुछ कहानियाँ पूरी नहीं होती,
पर अधूरी रहते हुए भी
वो सबसे प्यारी होती हैं।”
मैंने स्केचबुक सीने से लगा ली।
वक़्त कम था, डर ज़्यादा था, लेकिन प्यार… वो अब भी हमारे बीच था।
नेहा उठी, मुस्कराई और बोली—”अगली बार कब?”
मैंने कहा—”जब दिल पुकारे, और हालात इजाज़त दें।”
वो चली गई। मैं वहीं बैठा रहा, उसके जूतों की आहट तक सुनता रहा, जब तक वो पूरी तरह ओझल नहीं हो गई।
***
उस मुलाकात के बाद दिन जैसे ठहर गए। मैं रोज़ उस स्केचबुक को पढ़ता, बार-बार। उसके बनाए स्केच, उसकी लिखी चंद लाइनें, और वो पहली कविता—हर चीज़ मेरी दुनिया बन चुकी थी।
स्कूल अब भी पहले जैसा था, लेकिन मैं वैसा नहीं रहा। अब मैं क्लास में जवाब देता, ट्यूशन में ध्यान देता, और घर में ज़्यादा चुप नहीं रहता। शायद क्योंकि अब मेरे पास उम्मीद थी। नेहा से मिलने की, उससे फिर कोई अधूरी बात पूरी करने की।
एक दिन, मम्मी ने धीरे से पूछा—”तुम कुछ छिपा रहे हो क्या?”
मैं मुस्कराया, “शायद नहीं… अब नहीं।”
मम्मी ने मेरी ओर गौर से देखा। “तुम खुश लगते हो… लेकिन कहीं और खोए हुए भी।”
मैंने मम्मी को पहली बार नेहा के बारे में बताया। सब कुछ नहीं, पर इतना ज़रूर कि उन्होंने मेरी आँखों में कुछ सच्चा देखा।
उन्होंने गहरी साँस लेकर कहा—”अगर दिल सच्चा हो, तो रास्ता अपने आप बन जाता है।”
वो पहली बार था जब किसी बड़े ने मेरे और नेहा के बीच की उस मासूम डोर को गलत नहीं माना।
अगले शनिवार, फिर से वही जगह, वही पेड़, और वही हम। लेकिन इस बार, नेहा के चेहरे पर हल्की चिंता थी।
“क्या हुआ?” मैंने पूछा।
उसने कहा—”पापा को शक हो गया है। पिछले हफ्ते उन्होंने मेरा फोन चेक किया था। कुछ नहीं मिला… पर अब ज़्यादा सावधानी रखनी होगी।”
मैं चुप रहा। फिर पूछा—”क्या फिर नहीं मिल पाएंगे?”
“नहीं,” उसने धीमे से कहा, “मिलेंगे… लेकिन अब और मुश्किल से।”
हम दोनों उस पेड़ के नीचे चुपचाप बैठे रहे। मेरे हाथ में उसकी उंगलियाँ थीं, और आँखें दूर कहीं देखने में व्यस्त। शायद हम दोनों जानते थे कि कुछ न कुछ बदलने वाला है।
उसने जेब से एक छोटा सा लिफ़ाफ़ा निकाला—”इसमें मेरी कुछ कविताएँ हैं।”
“तुम चाहती हो मैं इन्हें रखूं?”
“हाँ,” उसने कहा, “जैसे तुम मुझे अपने अंदर रखते हो… वैसे ही इन्हें भी रखना।”
मैंने लिफाफ़ा जेब में रख लिया, लेकिन दिल में कुछ और भी रख लिया—उसकी बेचैनी, उसकी कोशिश, और हमारा एक अधूरा वादा।
उस दिन जब नेहा जाने लगी, उसने अचानक मुड़कर पूछा—”क्या तुम अब भी मुझसे उतना ही प्यार करते हो?”
मैंने बिना सोचे कहा—”हर बार पहले से ज़्यादा।”
वो रुकी नहीं, बस हल्की मुस्कान देकर चल दी।
उस दिन के बाद उसका फोन बंद हो गया। कोई कॉल नहीं, कोई मैसेज नहीं। और मेरे लिए हर दिन एक खाली पन्ना बन गया।
मैं रोज़ वही कविताएँ पढ़ता, वही स्केचबुक पलटता, और हर दिन स्कूल से लौटकर उस पेड़ के नीचे कुछ देर बैठता।
पर नेहा नहीं आई।
समझ में नहीं आ रहा था—क्या ये कहानी अब यहीं खत्म हो रही है?
या फिर कोई आखिरी मोड़ बाकी है?
***
नेहा के चले जाने के बाद ज़िन्दगी जैसे सर्द हो गई थी। स्कूल की घंटी, टिफिन की आवाज़, ब्लैकबोर्ड पर लिखे शब्द—सब कुछ एक जैसे, लेकिन सब कुछ अजनबी। मेरी डायरी में अब भी उसका नाम लिखा जाता, लेकिन कोई उत्तर नहीं आता।
मैंने कई बार कॉल करने की कोशिश की। हर बार वही संदेश—“This number is currently switched off.” लगता जैसे उसने खुद को दुनिया से काट लिया हो… या सिर्फ मुझसे।
मैं रोज़ उस पेड़ के नीचे कुछ मिनट ज़रूर बैठता, जहाँ हम मिलते थे। धीरे-धीरे पत्तियाँ सूखने लगी थीं, मौसम बदल रहा था, लेकिन मेरा इंतज़ार नहीं।
फिर एक दिन, स्कूल के बाहर अचानक एक चिट्ठी मेरे हाथ में आई। मेरे नाम। कोई पता नहीं, कोई नाम नहीं। लेकिन कागज़ की खुशबू वही थी, और लिखावट… नेहा की।
“प्रिय अंशु,
माफ करना कि बिना कुछ कहे चली गई। पापा ने मेरा फोन छीन लिया था। उन्होंने स्कूल बदल दिया, और अब घर से बाहर जाना भी मुश्किल है। मैं जानती हूँ, तुम इंतज़ार करते रहे हो, शायद अब भी कर रहे हो।
पर मैं ये नहीं चाहती कि मेरा साथ तुम्हारे लिए एक कैद बन जाए। तुम्हारी उड़ान रुके नहीं, तुम्हारे सपने मेरी छाया में छोटे न पड़ें।
तुम्हारा प्यार मेरी अब तक की सबसे सुंदर चीज़ है। पर शायद, कुछ कहानियाँ बस दिल में रहती हैं, किताबों में नहीं छपतीं।
तुम्हारी,
नेहा”
मैंने चिट्ठी पढ़ी, फिर से पढ़ी, और फिर सीने से लगा ली। उसमें कोई विदाई नहीं थी, कोई रोना-धोना नहीं। बस एक सधी हुई चुप्पी, जो बहुत कुछ कह गई।
उस शाम मैंने पहली बार अपनी डायरी बंद की। लेकिन अपने दिल का वो पन्ना खुला ही रखा—जिसमें नेहा अब भी थी, जैसे पहली बार मिली थी, जैसे पहली बार मुस्कराई थी।
समय बीतता गया।
बारहवीं की परीक्षा नज़दीक थी। मैं अब पढ़ाई में मन लगाने लगा, लेकिन दिल के एक कोने में वो नाज़ुक धागा अब भी बंधा था।
फिर, परीक्षा के एक दिन पहले, स्कूल के गेट पर एक जाना-पहचाना चेहरा दिखा। वही आँखें, वही चाल, लेकिन अब और परिपक्व। नेहा थी। अकेली नहीं थी—उसके साथ उसकी माँ थी।
मैंने चौंककर देखा। क्या ये सपना है?
नेहा की माँ ने मेरी ओर बढ़कर कहा—”तुम अंशुमान हो?”
मैंने सिर हिलाया।
“नेहा बहुत जिद कर रही थी तुमसे एक बार मिलने की। हमने सोचा, एक आखिरी बार…”
नेहा सामने आई। उसकी आँखों में वही चमक थी, लेकिन गहराई अब और ज़्यादा थी।
“कैसे हो?” उसने धीमे से पूछा।
मैं कुछ बोल नहीं पाया। बस हल्के से मुस्कराया।
“मैंने तुम्हें बहुत याद किया,” उसने कहा।
“मैंने भी,” मैंने कहा, “हर दिन, हर कविता में।”
उसने मेरी ओर एक छोटी सी नोटबुक बढ़ाई।
“मेरी नई कविताएँ। अब तुम रखो।”
मैंने नोटबुक थामी। हम दोनों कुछ देर यूँ ही खड़े रहे—बिना कुछ कहे, लेकिन बहुत कुछ कहकर।
फिर उसकी माँ ने इशारा किया, और नेहा ने जाने से पहले मेरी ओर देखा और कहा—
“शायद ये आखिरी मुलाकात हो… या फिर नई शुरुआत।”
***
उस आखिरी मुलाक़ात के बाद, कुछ बदल गया था। मुझे पहली बार ऐसा लगा कि मैं किसी अधूरे मोड़ पर नहीं, एक दहलीज़ पर खड़ा हूँ—जहाँ से कहानी आगे बढ़ सकती है, अगर हम चाहें।
परीक्षा खत्म हुई। रिज़ल्ट आया। मैं अच्छे अंकों से पास हुआ। घर में सब खुश थे। पापा के चेहरे पर भी हल्की सी संतोष की झलक थी, और माँ ने पहली बार कहा—”अब कॉलेज चुनने की बारी है, सोच समझकर चुनना।”
कॉलेज… एक नई शुरुआत। लेकिन कहीं न कहीं मन के किसी कोने में अब भी नेहा का नाम लिखा था। उसकी कविताओं की वो नोटबुक अब मेरी ताक़त बन गई थी। हर पन्ना जैसे मुझे आगे बढ़ने की वजह देता।
एक दिन, कॉलेज की काउंसलिंग के लिए मैं सिटी सेंटर गया। बहुत सारे स्टॉल्स, ब्रोशर, पर्चे… और एक कोना, जहाँ साहित्य संस्था का एक छोटा सा बूथ लगा था। मैं उत्सुकतावश वहाँ गया।
जैसे ही मैंने पर्चा उठाया, सामने से एक आवाज़ आई—”कविताओं में दिल रखने वाले आजकल बहुत कम हैं।”
मैंने चौंककर देखा। सामने खड़ी थी—नेहा।
अब की बार न स्कूल का गेट था, न डर। सिर्फ दो पुराने दोस्त, जिनके बीच एक अधूरी कहानी थी, और एक नई शुरुआत की संभावना।
“तुम यहाँ?” मैंने पूछा।
“मैंने लिटरेचर में एडमिशन लिया है,” उसने बताया, “और अब लिखना थोड़ा और सीरियसली ले रही हूँ। तुम?”
“मैंने भी यहीं अप्लाई किया है। शायद फिर से साथ पढ़ने का मौका मिले।”
हम दोनों मुस्कराए। इस बार वो हिचकिचाहट नहीं थी, वो ‘क्या कहेंगे लोग’ वाली फिक्र नहीं थी। अब हम दो किशोर नहीं थे—अब हम दो यंग एडल्ट्स थे, जो जानते थे कि प्यार सिर्फ भावनाओं का नाम नहीं, बल्कि समय, समझ और साथ का भी है।
नेहा ने कहा, “मैंने तुम्हें फिर से खोजा… उस पेड़ के नीचे नहीं, अपनी कविताओं में।”
मैंने जवाब दिया, “और मैंने तुम्हें पाया… हर उस चुप्पी में, जो शब्द बनने का इंतज़ार करती थी।”
उस शाम हम सिटी सेंटर के कैफे में बैठे। पहली बार एक साथ, खुलकर, बिना डर। मैंने उससे पूछा—
“क्या तुम अब भी मानती हो कि कुछ कहानियाँ अधूरी रहनी चाहिए?”
उसने कॉफी की चुस्की ली, और कहा—”शायद नहीं। शायद कुछ अधूरी कहानियाँ… जब दो लोग तैयार होते हैं, तो फिर से शुरू हो सकती हैं।”
मैंने धीरे से उसका हाथ थामा, इस बार पूरी तरह।
“तो चलो,” मैंने कहा, “कहानी को दोबारा शुरू करते हैं। इस बार, पूरे मन से।”
उसने सिर हिलाया।
बाहर हल्की बारिश शुरू हो गई थी। जैसे आसमान भी हमारी नई शुरुआत पर मुहर लगा रहा हो।
***
कॉलेज की शुरुआत किसी नई दुनिया के दरवाज़े की तरह थी—नई दोस्तियाँ, नए विषय, और एक नया रिश्ता… जो अब नाम के बिना भी बहुत कुछ था।
नेहा और मैं अब रोज़ मिलते। क्लास के बाद, लाइब्रेरी में, कभी कैफेटेरिया में, कभी किसी किताब की दुकान पर। अब कोई रोक-टोक नहीं थी, न घरवालों की नाराज़गी, न स्कूल के नियम। हमने अपना एक छोटा सा संसार बना लिया था—शब्दों का, कविताओं का, और सच्चाई का।
मैंने अब लिखना शुरू किया था। कहानियाँ, जो हम दोनों के अनुभवों से निकली थीं। एक बार मैंने अपनी डायरी में लिखा—
“तुम्हें खोकर जो पाया था,
उसे फिर पाकर मैं बदल गया हूँ।
अब इश्क़ सिर्फ इंतज़ार नहीं,
अब ये साथ चलने का नाम है।”
नेहा ने जब पढ़ा, उसने धीरे से कहा—”अब तुम मुझे समझने लगे हो, जैसे मैं खुद को भी कभी नहीं समझ पाई थी।”
कॉलेज के पहले साल की वार्षिक साहित्य प्रतियोगिता में मैंने अपनी और नेहा की कहानी एक लघु कथा के रूप में भेज दी—बिना नाम बदले, बिना कुछ छुपाए। शीर्षक था: “पहला पहला प्यार”
वो कहानी प्रथम स्थान पर आई।
स्टेज पर जब मुझे बुलाया गया, मैं माइक के सामने खड़ा हुआ, और कहा—
“ये सिर्फ एक कहानी नहीं है, ये उस रिश्ते की जीत है जो डर, दूरी और वक़्त से लड़कर भी जिंदा रहा। इस कहानी में दो लोग हैं—एक जो कभी लाइब्रेरी के कोने में छिपकर अपने प्यार को देखता था, और दूसरी जो अपनी डायरी में उसका स्केच बनाती थी। आज वो दोनों यहां हैं, बिना किसी पर्दे के, बिना किसी डर के।”
लोगों ने तालियाँ बजाईं। लेकिन मेरे लिए सबसे खास तालियाँ वो थीं, जो नेहा की आँखों से आईं—चुपचाप, भीगी हुईं, लेकिन सबसे सच्ची।
उस शाम हमने साथ चलते हुए एक फैसला लिया—अब हम एक-दूसरे के प्रेम पात्र नहीं, साथी बनेंगे। सपनों में नहीं, सच में।
समय बीतता रहा। कॉलेज खत्म हुआ। करियर की राहें शुरू हुईं। कुछ दिन अलग शहरों में भी रहे, लेकिन अब रिश्ते की जड़ें इतनी गहरी थीं कि दूरी सिर्फ शारीरिक थी, मन से नहीं।
और फिर एक दिन, एक और चिट्ठी…
लेकिन इस बार, न पेड़ के नीचे, न छुपकर।
डायरेक्ट, खुले दिल से—
नेहा ने दी मुझे एक कविता और एक सवाल।
“अब जब तुम्हारी कहानियों में मैं हूँ,
क्या मेरी ज़िन्दगी में तुम हमेशा रहोगे?”
मैंने उसकी ओर देखा, और वही जवाब दिया—
“तुम ही मेरी कहानी हो।
अब हर पन्ना तुम्हारे नाम का है।”
समाप्त