श्रेयांशी वर्मा
फिर से देखना
वाराणसी की वो दोपहर वैसी ही थी जैसी होती है—धूल भरी, हल्की धूप से चकाचौंध, और गंगा की तरफ बहते हवा के छोटे-छोटे झोंकों के साथ एक ठहराव लिए। घाटों के पास बैठा आरव त्रिपाठी, अपनी डायरी की खाली पन्नियों को ताक रहा था, मानो शब्द कहीं खो गए थे। एक दशक से भी ज़्यादा समय हो गया, लेकिन उस शहर की गंध, वो पुराने पत्थर की दीवारें, वो किताबों की दुकानें—सब अभी भी वैसा ही था। बस एक चीज़ बदल गई थी—वो।
संजना मिश्रा।
वो अब भी उसी शहर में थी। वही गलियाँ, वही मोहल्ला, वही स्कूल जहाँ कभी दोनों खिड़की के पास बैठकर कविता लिखा करते थे। आरव अब एक प्रसिद्ध लेखक था, लेकिन उसकी कहानियाँ अब भी अधूरी थीं। कुछ था जो उसने कभी लिखा ही नहीं—संजना की कहानी। उसकी कहानी।
“सर, आप अंदर बैठ सकते हैं। बच्चों की लाइब्रेरी क्लास अभी ख़त्म हुई,” एक शांत सी आवाज़ ने उसे उसकी सोच से बाहर खींच लिया।
आरव ने नज़रें उठाईं। वही चेहरा। हल्की बिंदी, सूती साड़ी, किताबों से भरी बाँहें, और आँखों में एक ठहरा हुआ विश्वास। वक्त ने कुछ झुर्रियाँ छोड़ी थीं, पर वो मुस्कान अब भी वैसी ही थी। ये वही मुस्कान थी जिसने कभी आरव को किताबों से मोहब्बत करवा दी थी।
“संजना…” शब्द खुद ही होंठों से फिसल गया।
उसने क्षणभर देखा, फिर धीमे से मुस्कराई। “आरव?”
कोई औपचारिक नमस्ते नहीं, कोई ‘कैसे हो?’ का दिखावा नहीं। जैसे वक़्त उनके बीच से एक लंबी चुप्पी लेकर गुजर गया और अब वापस लौटा था उसी जगह जहाँ कहानी अधूरी छूट गई थी।
“मैं… यहाँ एक उपन्यास पर रिसर्च कर रहा हूँ। पुराने स्कूल, पुरानी लाइब्रेरी… देखना चाहता था क्या अब भी किताबें वैसी ही खुशबू रखती हैं,” आरव बोला।
संजना ने एक किताब की अलमारी खोली, “कुछ किताबें बदली नहीं, कुछ लोग भी नहीं।”
आरव की नज़रें उसकी उंगलियों पर ठहर गईं, जो पुराने परिचय की तरह पन्नों को सहला रही थीं। कभी वो उंगलियाँ उसके नाम की कविता लिखा करती थीं। अब शायद किसी बच्चे के लिए रवींद्रनाथ पढ़ाती हों।
“चाय मिलती है यहाँ?” आरव ने पूछा।
“लाइब्रेरी में नहीं,” वो हल्के से मुस्कराई, “लेकिन स्कूल की छत पर अब भी मिलती है, जहाँ तुमने पहली बार कहा था—‘तुम्हारी आँखें कविता लिखती हैं।’”
आरव को एक हल्का धक्का-सा लगा। “तुम्हें याद है?”
“हर वो बात याद है जो कहने के बाद तुम डर गए थे कि कहीं ज़्यादा तो नहीं कह दिया,” उसने मुस्कराते हुए कहा और उसकी आँखों में एक गहराई उतर आई।
स्कूल की छत वही थी। पुरानी नीली कुर्सियाँ, टूटी रेलिंग, और दूर से दिखती हुई गंगा। हवा में अब भी वही गंध थी—नींबू पानी की, गर्म पत्थर की, और किसी अनकहे प्यार की।
“तुम शादीशुदा हो?” आरव ने धीरे से पूछा।
संजना ने एक लंबा सास खींचा। “माँ के साथ रहती हूँ। शादी नहीं की। या शायद कहो कि कर नहीं पाई। बहुत कुछ था संभालने के लिए।”
आरव की आँखें नम हो गईं, पर उसने कुछ नहीं कहा। उसकी डायरी अब भी खुली थी, लेकिन कलम रुकी हुई। शायद आज पहली बार वो सचमुच कुछ लिख पाएगा।
“और तुम?” संजना ने पूछा।
“एक रिश्ता था… पर मैं खुद को उसमें नहीं ढूंढ़ पाया। आजकल बस खुद से भागता रहता हूँ। शायद इसीलिए लौट आया।”
कुछ देर दोनों चुप बैठे रहे। गंगा की ओर देखना, जैसे वहाँ कोई जवाब लिखा हो।
“क्या हम फिर से दोस्त बन सकते हैं?” आरव ने पूछा, हिम्मत करके।
संजना ने उसकी ओर देखा। “पल दो पल की बात नहीं थी, आरव। ये तो ज़िंदगी का हिस्सा थी। दोस्ती से पहले, शायद हमें दोबारा देखना सीखना होगा—एक-दूसरे को, खुद को… और वो वक़्त जो बीच में रह गया।”
आरव ने सिर झुका दिया। हवा में चाय की हल्की खुशबू घुली थी, और एक पुरानी अधूरी कहानी—धीरे-धीरे फिर से खुलने लगी थी।
पुरानी गलियाँ, नई परछाइयाँ
वाराणसी की वो गलियाँ, जिनमें कभी आरव और संजना ने सपनों के नक्शे खींचे थे, अब भी वैसी ही थीं—कभी चौड़ी, कभी इतनी सँकरी कि दो छायाएँ भी साथ चलें तो टकरा जाएँ। लेकिन अब उन गलियों में सिर्फ खामोशी नहीं थी, वहाँ यादों की परछाइयाँ भी थीं—हँसी, नाराज़गी, आँखों की भाषा, और वो चुप्पियाँ जो कभी कविता बनती थीं।
दोपहर के बाद आरव स्कूल से निकला तो उसके पाँव खुद-ब-खुद भदैनी की तरफ मुड़ गए, जहाँ संजना कभी किराए के मकान में माँ के साथ रहती थी। उस मकान के बाहर अब ताला नहीं था—दरवाज़ा खुला था, खिड़की पर कपड़े सूख रहे थे। कुछ भी पूछे बिना, वो बस सामने की चाय की दुकान पर बैठ गया।
“चाय?” दुकानदार ने पूछा।
“हाँ… अदरक डालना,” आरव ने कहा। वही स्वाद… जो कभी संजना उसे सर्दियों में पिलाती थी।
“आप बाहर से आए लगते हैं,” चायवाले ने बात बढ़ाई।
आरव मुस्कराया, “हाँ… लेकिन कभी यहीं का था।”
उसी समय, संजना दरवाज़े पर आई, नीली सूती सलवार-कुर्ते में, हाथ में कपड़ों की टोकरी, और आँखों में हल्की थकावट। उसने आरव को देखा, एक पल के लिए ठिठकी, फिर धीरे से मुस्कराई।
“तुम अभी तक गए नहीं?”
“गया था… पर लौट आया,” आरव ने चाय का घूंट लेते हुए कहा।
“कभी तुम जल्दी चले जाते थे। अब क्यों लौट रहे हो?” वो मुस्कराई, पर आवाज़ में हल्का कटाक्ष था।
“क्योंकि उस समय खुद को बचाना ज़रूरी लगा… अब खुद को ढूँढ़ना ज़रूरी है,” आरव ने आँखों में झाँकते हुए कहा।
संजना उसके पास बैठ गई। “तुम्हारी किताबें बहुत पढ़ी हैं बच्चों ने। मगर सबसे ज़्यादा जिस चीज़ की तारीफ़ हुई, वो थी तुम्हारे किरदारों की ख़ामोशियाँ। क्या वो मेरी थीं?”
आरव ने नज़रें नहीं चुराईं। “कुछ तुम्हारी थीं। कुछ मेरी। कुछ उस दोपहर की थीं जब हम बिना अलविदा कहे अलग हो गए थे।”
“मैं अलविदा कहने की हिम्मत नहीं कर पाई थी, आरव। उस दिन पापा की चिता जली थी और साथ ही मेरे सपने भी,” उसने गहरी साँस ली।
आरव ने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया, “क्या कभी लगा कि हम फिर मिलेंगे?”
संजना हँसी। “गंगा किनारे जो रिश्ते बनते हैं, वो बहते नहीं—बस किसी घाट पर दोबारा मिलते हैं।”
थोड़ी देर बाद, दोनों घाट की तरफ चल पड़े। रास्ते में एक मंदिर पड़ा, जहाँ बचपन में संजना मन्नत माँगा करती थी—“आरव हमेशा पास रहे।” अब वो मंदिर भी पुराना हो चला था, पर मन की बात वहाँ अब भी गूंजती थी।
“क्या तुम्हारी माँ अब भी तुम्हारे फैसलों में दखल देती हैं?” आरव ने पूछा।
“नहीं,” उसने जवाब दिया, “अब वो मुझमें अपनी अधूरी ज़िंदगी देखती हैं… और शायद तुम भी।”
आरव ने चौंककर देखा, “क्या तुम अब भी मुझे चाहती हो?”
संजना रुकी, घाट के किनारे बैठ गई, और धीरे से बोली, “चाहना एक बार होता है आरव, उसके बाद तो बस निभाना होता है—भले ही सामने वाला पास हो या नहीं।”
गंगा का पानी उसके पैरों को छू रहा था। आरव वहीं उसके पास बैठ गया। उसके पास कोई शायरी नहीं थी, कोई बड़ा संवाद नहीं। बस एक सन्नाटा था, जिसमें दोनों की धड़कनें शामिल थीं।
“अगर मैं फिर से पास आना चाहूँ…?” आरव ने कहा।
संजना ने गंगा की ओर देखा। “तो पहले इस पानी की तरह बहना सीखो, आरव। रुकोगे, तो सड़ जाओगे। बहोगे, तो शायद किनारा मिलेगा।”
किनारों के बीच एक नाव
गंगा की शामें कुछ अलग होती हैं। सूरज जब पानी में उतरता है, तो लगता है जैसे किसी पुराने ख़त को आग लगाकर कोई बस राख देख रहा हो। आरव और संजना घाट की सीढ़ियों पर बैठे थे, और उनके बीच में वो सब कुछ था जो कभी कहा नहीं गया—नवीनता नहीं, पर उपस्थिति ज़रूर थी।
“तुम्हें याद है?” संजना ने पूछा, “हमने कभी नाव में बैठकर मनचाही दिशा में बहने की बात की थी?”
आरव ने मुस्कराकर देखा, “और तुमने कहा था, ‘हम बह नहीं सकते, हमें रोना होगा’।”
“क्योंकि तब हम डरते थे—दुनिया से, अपने माता-पिता से, समाज से।”
“अब?” आरव की आवाज़ में हल्का काँप था।
“अब डर नहीं है, लेकिन आदत बन गई है,” उसने चुपचाप कहा।
उसी समय घाट पर एक नाव वाला चिल्लाया, “सैर करोगे बाबूजी? संध्या आरती से पहले आखिरी फेरा है।”
आरव ने संजना की ओर देखा, जैसे किसी पुराने गीत का सुर दोबारा मिल गया हो।
“चलें?” उसने पूछा।
संजना कुछ क्षण सोचती रही, फिर धीमे से सिर हिलाया।
नाव में बैठते ही आरव ने महसूस किया कि जीवन के बहुत सारे उत्तर इसी धीमी लहरों में छिपे हैं। संजना ने गंगा को देखते हुए कहा, “कभी-कभी सोचती हूँ, अगर उस दिन तुम मेरे साथ होते, तो क्या मेरी ज़िंदगी कुछ और होती?”
“और कभी-कभी मैं सोचता हूँ, अगर मैं तुम्हारे साथ रह जाता, तो क्या मैं लिख पाता?”
नाव हौले-हौले आगे बढ़ रही थी, जैसे दोनों के सवालों के जवाब खुद गंगा दे रही हो।
“तुम्हारी किताबों में अक्सर एक अधूरी प्रेमिका होती है—जो इंतज़ार करती है, पर बोलती कुछ नहीं। क्या वो मैं थी?” संजना ने पूछा।
आरव ने सीधे उसकी आँखों में देखा, “नहीं… वो तुम नहीं थी। तुम तो वो थी जिसने मुझे शब्द दिए, लेकिन खुद कभी अपनी कहानी नहीं लिखवाई।”
संजना की आँखें नम हो गईं। “तुम्हें पता है, मेरे पास भी एक डायरी है। कभी-कभी उसमें तुम्हारे बारे में लिखती हूँ। लेकिन हर बार बीच में पन्ना फाड़ देती हूँ। क्योंकि मैं डरती हूँ कि तुम वो पढ़कर कहीं फिर से चले न जाओ।”
आरव ने उसका हाथ पकड़ लिया। “अब नहीं जाऊँगा। अगर जाना भी पड़ा, तो तुम्हें साथ लेकर जाऊँगा—कम से कम यादों में तो नहीं छूटेगा कुछ।”
नाव ने धीरे से एक मोड़ लिया, और सामने दशाश्वमेध घाट की आरती शुरू हो चुकी थी। आरव और संजना, दोनों स्तब्ध होकर मंत्रों की गूंज में खो गए। आरव के भीतर कुछ टूटा नहीं, बल्कि कुछ जुड़ने लगा था—जैसे शब्दों को अब दिशा मिल रही थी, जैसे कहानी अब बह रही थी।
“आरव,” संजना ने कहा, “अगर हम फिर से शुरुआत करें… बिना वादों के, बिना परिभाषाओं के… बस वैसे ही जैसे ये नाव बह रही है… क्या तुम तैयार हो?”
आरव ने उसकी ओर देखा। “तैयार तो बहुत पहले से था, बस लौटना नहीं आता था।”
नाव घाट पर वापस लौट आई थी, लेकिन उनके दिलों में अब जो बह रहा था, वो एक नदी से बड़ा था—एक नया रिश्ता, एक नई उम्मीद।
वक़्त की जेब से गिरा ख़त
अगले दिन की सुबह उम्मीद से भरी थी। वाराणसी की गलियाँ अपनी रोज़मर्रा की चहल-पहल में लौट आई थीं, पर आरव की चाल कुछ धीमी थी—जैसे वो हर क़दम के साथ उस बीते वक़्त की कोई गिरी हुई चीज़ ढूँढ़ रहा हो। वो स्कूल नहीं गया, न घाट पर गया। वो सीधे संजना के पुराने घर के सामने रुका, जहाँ अब एक नीली नेमप्लेट लगी थी—“श्रीमती रमा देवी व संजना मिश्रा”।
दरवाज़ा माँ ने खोला। उम्र के साथ झुर्रियाँ गहराई थीं, पर आँखों में वही अपनापन था।
“आप आरव हैं?” उन्होंने पूछा।
“जी, पहचाना आपने?”
“कभी नहीं भूला, बेटा। संजना के चेहरे पर आजकल जो हल्की रौशनी है, वो उसी से पहचान गई,” वो मुस्कराईं और भीतर बुलाया।
आरव बैठा ही था कि माँ ने एक पुराना डिब्बा निकाला। “ये कुछ पुरानी चीज़ें हैं… तुम दोनों के कॉलेज के ज़माने की। संजना कभी नहीं खोलती। शायद तुम्हें देखना चाहिए।”
डिब्बा खोला गया, और उसमें वही था जो वक़्त की जेब में छूट जाता है—पुरानी तस्वीरें, एक टूटे फ्रेम में आरव की हस्तलिपि वाली कविता, और एक कागज़ जो तह करके रखा गया था।
आरव ने कांपते हाथों से वह कागज़ खोला। यह एक ख़त था, संजना की लिखावट में।
**”प्रिय आरव,
उस दिन जब तुम चुपचाप चले गए, मेरे भीतर बहुत कुछ टूट गया था।
पर सबसे ज़्यादा टूटा वो भरोसा था कि तुम लौटोगे।
फिर भी मैंने हर शाम छत से नीचे गली देखी, सोचती रही शायद एक दिन वापस आओगे।
मैं जानती थी, तुम लिखते हो, और मैं चाहती थी कि तुम उड़ो।
पर काश, उड़ने से पहले एक बार मेरा हाथ थामते…
खैर, ये ख़त तुम्हें कभी भेजा नहीं… बस रख लिया, शायद किसी दिन मिलोगे और खुद पढ़ लोगे।
– संजना” **
आरव ने आँखें बंद कर लीं। यह वह वक़्त था, वह ख़त था, जो अगर उस दिन मिल गया होता, तो बहुत कुछ बदल सकता था। लेकिन शायद आज मिलने के लिए ही लिखा गया था।
संजना शाम को स्कूल से लौटी तो आरव वहीं बैठा था, वही ख़त हाथ में।
“तुमने पढ़ा?” उसने पूछा।
“हाँ। और शायद आज पहली बार तुम्हें पूरी तरह समझा,” आरव बोला।
संजना पास आकर बैठ गई। “जानती हूँ, बहुत देर हो गई… लेकिन क्या देर कभी हमेशा की होती है?”
आरव ने उसकी तरफ देखा। “नहीं। कभी-कभी देर ही वक़्त का सही चेहरा होती है।”
उसी क्षण आरव ने अपनी डायरी से एक पन्ना फाड़ा और उसमें कुछ लिखा:
“वो ख़त जो तुमने नहीं भेजा, वही मेरे लौटने की वजह बना।
शायद मोहब्बत हमेशा आवाज़ नहीं लगाती,
कभी-कभी वो बस चुपचाप इंतज़ार करती है
वक़्त की जेब से गिरने के लिए।”
संजना ने चुपचाप वो पन्ना ले लिया, और अपने उसी पुराने डिब्बे में रख दिया—अबकी बार बंद नहीं किया।
शब्दों के बीच जो नहीं लिखा गया
आरव की डायरी अब पहले जैसी नहीं रही थी। उसमें अब भावनाएँ केवल कल्पना नहीं थीं, अब उनमें संजना की मुस्कान का हल्का वक्र था, उसकी आँखों की गहराई थी, और सबसे बढ़कर—वो चुप्पियाँ थीं जो शब्दों से ज़्यादा बोलती थीं।
एक दिन आरव संजना के स्कूल पहुँचा। दरवाज़े पर खड़ा होकर बच्चों को रंग भरते हुए देखता रहा—किसी ने सूरज को नीला रंगा था, तो किसी ने बादलों में दिल बना डाला।
“इतना देर से खड़े हो, अंदर आ जाओ,” संजना की आवाज़ आई।
वो मुस्कराकर भीतर आया। बच्चे अब उसे पहचानते थे—“अरे, यही तो हैं आरव अंकल, जो किताब लिखते हैं!”
“कौन सी किताब लिख रहे हो अभी?” एक छोटे से लड़के ने पूछा।
आरव ने उनकी ओर देखा। “एक ऐसी कहानी, जो कभी पूरी नहीं हुई थी… अब हो रही है।”
बच्चे हँसे, लेकिन संजना ने समझा कि उसके शब्दों में कितनी परतें थीं।
क्लास खत्म होने के बाद दोनों स्कूल की छत पर आ गए। वही पुराना पंखा, वही पुराना कुर्सी का जोड़ा, और वही हवा—जिसमें कभी “मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ” जैसे वाक्य अधूरे रह जाते थे।
“तुमने कभी सोचा कि हम क्यों अधूरे रह गए?” आरव ने पूछा।
“क्योंकि हम उस उम्र में थे जब खुद से ज़्यादा दूसरों की बातों पर यकीन करते थे,” संजना ने जवाब दिया।
“और अब?”
“अब… अब हम उस उम्र में हैं जहाँ दूसरों की चुप्पियों में भी अपने सवाल ढूँढ़ लेते हैं।”
आरव ने अपनी डायरी निकाली और एक पंक्ति पढ़ी:
“तुम्हारी आँखें वो कविता हैं जो मैंने कभी लिखी नहीं,
लेकिन हर बार अधूरा छोड़ दिया… सिर्फ़ इसलिए कि वो पूरी होते ही तुम कहीं खो न जाओ।”
संजना की आँखें डबडबाई, लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
“कभी-कभी लगता है, तुम्हारी चुप्पी ही मेरी सबसे बड़ी प्रेरणा रही है। जो कहा नहीं गया, वही सबसे अधिक लिखा गया,” आरव ने कहा।
“तो क्या अब भी कुछ बाकी है कहने को?” उसने धीमे से पूछा।
आरव कुछ क्षण चुप रहा, फिर बोला, “हाँ… मैं तुमसे फिर से शुरुआत करना चाहता हूँ। कोई वादा नहीं, कोई परिभाषा नहीं। बस हर दिन, हर शाम, हर कहानी तुम्हारे साथ लिखना चाहता हूँ।”
संजना ने धीमे से उसका हाथ थामा। “तब एक वादा मुझे भी चाहिए—जो तुम नहीं लिख सको, वो मुझे कहने दोगे।”
आरव मुस्कराया। “जो तुम कहोगी, वही मेरी अगली किताब होगी।”
और उस शाम छत पर, दो पुराने प्रेमियों ने पहली बार अपने शब्दों के बीच की खाली जगहों को समझा—और तय किया कि अब आगे जो भी लिखा जाएगा, वो दोनों मिलकर लिखेंगे।
आने वाली शामों का नाम
वाराणसी की शामों को कोई नाम नहीं देता। हर शाम अलग होती है—कभी उदासी में लिपटी हुई, कभी उम्मीद की चुप्पी में डूबी हुई, और कभी बस यूँ ही, बिना किसी परिभाषा के। उस दिन की शाम भी वैसी ही थी—नर्म, धीमी, और भीतर कुछ बदल देने वाली।
संजना और आरव अब एक अनकहे समझौते में बँध गए थे। न तो कोई प्रस्ताव रखा गया था, न ही कोई वचन लिया गया था। लेकिन उनकी मुलाकातों में अब एक स्थायीत्व था, जैसे शब्द और मौन एक साथ चलना सीख चुके हों।
“क्या कभी ऐसा हुआ है कि तुमने कोई कहानी इसलिए अधूरी छोड़ी क्योंकि अंत तुम्हें डराता था?” संजना ने पूछा, जब दोनों अस्सी घाट की सीढ़ियों पर बैठे थे, चाय के कुल्हड़ हाथ में लिए।
“हाँ,” आरव बोला। “क्योंकि कभी-कभी अंत में खो देने का डर शुरुआत से ज़्यादा भारी होता है।”
“लेकिन अब?” उसकी आवाज़ में सवाल कम, आमंत्रण ज़्यादा था।
“अब लगता है कि अगर कुछ अधूरा है, तो उसे पूरा करने की जिम्मेदारी मेरी है,” उसने कहा और चाय का आख़िरी घूंट लिया।
पास ही कोई बाँसुरी बजा रहा था। धीमी, मीठी धुन में जैसे कोई बीती उम्र चल रही थी—वो उम्र जिसमें वो दोनों एक-दूसरे से प्रेम तो करते थे, लेकिन अपने भविष्य से डरते थे।
“मैंने माँ से बात की,” संजना ने अचानक कहा।
आरव ने चौंक कर उसकी ओर देखा। “क्या कहा उन्होंने?”
“उन्होंने कहा—’ज़िंदगी एक बार ही मिलती है, लेकिन अगर उस एक बार में दिल की बात दबा दो, तो बाक़ी पूरी ज़िंदगी बेमानी लगती है।’”
आरव चुप हो गया। “और तुम क्या सोचती हो?”
“मैं सोचती हूँ कि अब अगर कुछ बेमानी है, तो वो है तुम्हारे बिना रहना।”
उसने पहली बार संजना की आँखों में वो बात देखी जिसे कभी सिर्फ उसकी कविताओं में ढूँढ़ा करता था।
“तब क्या मैं ये शाम तुम्हारे नाम कर सकता हूँ?” आरव ने पूछा।
संजना हँसी, “शाम नहीं… आने वाली सारी शामें।”
आरव ने उसकी हथेली थाम ली। कुछ राहगीर उन्हें देख कर मुस्कराए, कोई ध्यान दिए बिना आगे बढ़ गया। लेकिन उस एक क्षण में, शहर की सबसे पुरानी शामों के बीच एक नई शुरुआत का बीज पड़ गया था।
“कल एक किताब लॉन्च है मेरी, लेकिन मैंने आयोजकों से कह दिया है—इस बार मंच पर सिर्फ एक चेहरा साथ चाहिए। तुम्हारा,” आरव ने कहा।
संजना कुछ पल चुप रही। “ठीक है। लेकिन इस बार मैं तुम्हारी कहानी की नायिका नहीं… मैं उसकी सह-लेखिका बनना चाहती हूँ।”
आरव की आँखें नम हो गईं। “तब मैं वादा करता हूँ—हर शब्द, हर वाक्य हम साथ लिखेंगे। और अगर कभी मैं चुप हो जाऊँ, तो तुम मुझे पढ़ लेना।”
शाम गहरा रही थी। घाट की बत्तियाँ जल चुकी थीं। नावें लौट रही थीं। और उनके बीच—दो आत्माएँ अब रास्ता नहीं ढूँढ़ रही थीं, वे बस साथ चल रही थीं, बिना नक्शे के।
तुम्हारे नाम का पहला अक्षर
दिल्ली के एक सभागार में बैठा आरव मंच के कोने पर अपना माइक सम्हाल रहा था। किताब के विमोचन की तैयारियाँ पूरी थीं, लेकिन उसके चेहरे पर वो आत्मविश्वास नहीं था जो उसके पिछले लॉन्च इवेंट्स में होता था। शायद इसलिए क्योंकि इस बार मंच अधूरा था—बिना संजना के।
लेकिन तभी दरवाज़े के पास हल्की-सी सरसराहट हुई, और वो आई। हल्के पीले रंग की साड़ी, कान में छोटी-सी बाली, और हाथ में वही पुराना चमड़े का बैग जो वह कॉलेज में लेकर आया करती थी।
आरव ने माइक छोड़ा, एक लंबी साँस ली, और मंच से नीचे उतर गया।
“तुम आई,” वह बोला।
“तुम्हें मंच पर अकेला नहीं छोड़ सकती थी,” उसने हल्के से मुस्कराकर कहा।
लोग तालियाँ बजा रहे थे। किताब का नाम था: “तुम्हारे नाम का पहला अक्षर“ – आरव त्रिपाठी द्वारा… और नीचे छोटा सा नाम: “आवाज़ें – संजना मिश्रा की डायरी से।“
सभी चौंके।
आरव ने माइक उठाया: “इस बार जो किताब आपके सामने है, वो सिर्फ मेरी नहीं है। ये उन खामोशियों की आवाज़ है, जो मैंने नहीं लिखीं, लेकिन किसी ने जिया है। ये कहानी है उस लड़की की जो बोलती नहीं थी, पर हर चीज़ समझती थी। और आज, मैं सिर्फ लेखक नहीं, पाठक हूँ—उसकी डायरी का।”
संजना मंच पर आई। उसने अपनी डायरी से एक छोटा-सा अंश पढ़ा:
“हर बार जब आरव मुझे देखता था, मुझे लगता था मैं थोड़ी और पूरी हो गई। लेकिन जब वो मुझे नहीं देखता था, तब मैं सबसे ज़्यादा खुद को ढूँढ़ती थी।”
श्रोताओं की तालियाँ रुकी ही नहीं। कोई आंसू पोंछ रहा था, कोई मुस्करा रहा था। लेकिन मंच पर दो लोग खड़े थे, जो किसी नाटक का हिस्सा नहीं थे—वे अपने ही अधूरे दृश्य का क्लाइमेक्स जी रहे थे।
बाद में, उसी शाम आरव और संजना छत पर थे—एक नई दिल्ली की बिल्डिंग की छत, जहाँ से दूर-दूर तक सिर्फ रोशनी थी। पर आज उनके भीतर अँधेरा नहीं था।
“क्या तुम्हें डर नहीं लगता था, अपनी डायरी लोगों के सामने लाने में?” आरव ने पूछा।
“डर लगता था… पर अब डर से ज़्यादा यकीन है कि तुम मुझे अधूरा नहीं लिखोगे,” उसने कहा।
आरव ने धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया।
“अब जब तुम्हारा नाम भी किताब पर है, तो अगली किताब का क्या नाम रखोगे?” संजना ने छेड़ा।
आरव मुस्कराया। “‘हम’—एक वचन, दो अर्थ।’”
संजना ने चुपचाप सिर उसके कंधे पर टिका दिया।
शब्दों से कहीं ज़्यादा अब मौन गूंज रहा था।
मौन की अंतिम पंक्ति
दिल्ली की सर्द सुबहें वाराणसी की धूप जैसी नहीं होतीं। वहाँ की हवा में एक अनकही दूरी होती है—कभी भौगोलिक, कभी भावनात्मक। लेकिन इस सुबह, आरव और संजना एक साथ रसोई में थे। चाय खौल रही थी, और कमरे में कुछ नहीं बोलने की साज़िश पल रही थी।
“आजकल तुम कम बोलते हो,” संजना ने टोका।
“शायद इसलिए कि तुम्हारी आँखें अब ज़्यादा कहने लगी हैं,” आरव ने जवाब दिया।
“तो फिर अगली किताब का नायक कौन होगा?”
आरव ने मुस्कराकर कहा, “जो अब भी अपने भीतर तुम्हें ढूँढ़ता है… लेकिन अब जानता है कि तुम उसके साथ हो।”
संजना ने गैस बंद की और दो कप में चाय डाली। उसने एक कप आरव की ओर बढ़ाया। “तुम्हारे शब्दों में अब परिपक्वता है, लेकिन पहले जैसा पागलपन नहीं।”
“वो पागलपन तुम्हारे बिना आता था,” उसने हँसते हुए कहा।
फिर, अचानक, संजना ने एक पुरानी डायरी की प्रति आरव को दी—वो वही डायरी थी जिसे उसने कभी फाड़ दिया था, टुकड़ों में रख दिया था।
“ये क्या है?” आरव ने पूछा।
“मेरी अधूरी किताब। जिसे कभी शुरू किया था, लेकिन तुम्हारे चले जाने के बाद छोड़ दी।”
आरव ने पन्ने पलटे। एक अध्याय का नाम था—“मौन की अंतिम पंक्ति“।
“वो बहुत कुछ कहता था, लेकिन जब मैं उसकी आँखों में देखती थी, तो वहाँ शब्द नहीं होते थे—बस एक तड़प होती थी, जिसे वो कभी स्वीकार नहीं करता था।
और जब वो चला गया, तब मुझे एहसास हुआ कि सबसे भारी वो बातें होती हैं, जो कभी कही ही नहीं जातीं।”
आरव देर तक चुप बैठा रहा। फिर उसने कहा, “इसका अंत मैं लिख सकता हूँ?”
“नहीं,” संजना ने मुस्कराकर कहा, “इस बार अंत हम साथ में लिखेंगे।”
उन्होंने एक नया पन्ना निकाला, एक नई स्याही, और लिखा:
“जब दो लोग एक-दूसरे की चुप्पियों को समझने लगते हैं, तो शब्दों की ज़रूरत कम हो जाती है।
और तब, मौन ही आख़िरी पंक्ति बन जाता है—जहाँ प्रेम किसी कविता की तरह पूरा होता है, बिना बोले।”
आरव ने डायरी बंद की। “तो ये है हमारी नई शुरुआत की अंतिम पंक्ति?”
“नहीं,” संजना ने कहा, “ये अंतिम पंक्ति नहीं… ये पहला वाक्य है उस कहानी का, जो अब हम रोज़ जिएँगे।”
जिन गलियों में हम छूट गए थे
सर्दियों की छुट्टियों में आरव और संजना ने फैसला किया कि वे कुछ दिन वाराणसी वापस जाएँगे। नहीं, किसी आयोजन के लिए नहीं। न किसी किताब के विमोचन, न किसी शोध या शांति की तलाश में। बस यूँ ही, उन गलियों से दोबारा गुज़रने के लिए… जहाँ वे कभी खोए थे।
रेलवे स्टेशन पर उतरते ही हवा ने जैसे दोनों को पहचान लिया। प्लेटफॉर्म के कोने पर वही चाय वाला अब भी था, बस उसकी दाढ़ी सफेद हो चुकी थी।
“अरे! आरव बाबू? इतने साल बाद?” उसने आँखें सिकोड़कर पूछा।
आरव हँस पड़ा। “पहचान लिया?”
“आपके साथ वाली बिटिया नहीं दिखती थी इतने साल। अब आई है साथ?”
संजना ने मुस्कराकर सिर झुकाया। इतने वर्षों बाद साथ लौटना… जैसे शहर के नाम एक ख़त फिर से डाक में डाल दिया गया हो।
वे चुपचाप पैदल चलने लगे—संकरी गलियों, कच्ची छतों, और चूने लगे दीवारों के बीच। गंगा किनारे की वो पहली पत्थर की सीढ़ी, जहाँ आरव ने कभी संजना का नाम हथेली पर उकेरा था, अब भी वहीं थी—बस उस पर अब नए प्रेमियों की तस्वीरें थीं।
“देखो, वो दीवार जहाँ मैंने पहली बार तुम्हारे लिए कविता पढ़ी थी,” आरव ने कहा।
“और वहीं पास में, मैंने तुम्हें पहली बार नज़रअंदाज़ किया था, ताकि माँ देख न लें,” संजना हँसी।
वे दोनों हर उस मोड़ पर गए जहाँ कभी उनकी यादें रुकी थीं। एक खिड़की के नीचे खड़े हुए, जहाँ कभी संजना आरव को चुपके से झाँकती थी।
“क्या हम सच में इतने साल दूर रह गए थे, या बस एक शाम भर का फासला था?” आरव ने पूछा।
“शायद हम कहीं नहीं गए थे,” संजना ने कहा, “हम बस उन गलियों में छूट गए थे, जहाँ हमारी हिम्मत कम पड़ गई थी।”
वे उस मंदिर में भी गए जहाँ संजना ने कभी मन्नत माँगी थी—कि आरव हमेशा उसके पास रहे।
“अब क्या माँगोगी?” आरव ने पूछा।
संजना ने उसकी आँखों में देखा। “अब कुछ नहीं माँगूँगी। अब जो है, वो ही पूरा है।”
वे दोनों कुछ देर मंदिर की सीढ़ियों पर बैठे रहे। पास ही एक छोटा लड़का पतंग उड़ा रहा था, और हवा की एक तीखी फड़फड़ाहट उनके बीच बहती रही।
“अगर हम उन गलियों में कभी न लौटते, तो क्या तुम्हें लगता हमारी कहानी पूरी होती?” आरव ने पूछा।
“नहीं,” संजना ने कहा। “कुछ कहानियाँ तभी पूरी होती हैं जब वे वहीं लौटती हैं जहाँ से अधूरी छूटी थीं।”
शाम होते-होते वे गंगा किनारे की एक पुरानी नाव में बैठे। आरव ने कहा, “अब हम कहीं भी जाएँ, इस बार एक-दूसरे को पीछे नहीं छोड़ेंगे।”
संजना ने उसका हाथ थाम लिया।
नाव बह चली थी, और उनके भीतर अब न कोई अधूरी कविता थी, न कोई अनकहा वाक्य। अब सिर्फ दो आत्माएँ थीं, जो जानती थीं—प्रेम कभी वक़्त से नहीं डरता, वो बस वक़्त के चक्र में अपनी जगह ढूँढ़ता है।
एक साथ, एक आख़िरी बार
दिल्ली लौटने के बाद दिन जैसे पिघलने लगे थे—धीरे-धीरे, बिना आवाज़ के। आरव अब सुबह देर तक सोने लगा था और संजना, जो पहले गहराती चाय में दिन की शुरुआत खोजती थी, अब आरव की नींद के बाद ही कप रखती। दो अकेली ज़िंदगियाँ अब एक रूटीन में बंधने लगी थीं—बिना किसी बंधन के।
लेकिन एक शाम, आरव अचानक बहुत शांत हो गया। उसकी उंगलियाँ डायरी पर घूमती रहीं, लेकिन कलम नहीं चली। बालकनी में बैठा वो नीचे गुजरती कारों को देखता रहा, जैसे वहाँ कुछ ढूँढ़ रहा हो।
“क्या बात है?” संजना ने पूछा।
“कुछ अधूरा-सा लग रहा है,” उसने कहा।
“कहाँ? तुम्हारी कहानी में?”
“नहीं… शायद हमारी कहानी में,” आरव ने धीमे से उत्तर दिया।
संजना घबरा गई, लेकिन कुछ नहीं बोली। बस बैठ गई, पास। आरव ने उसकी ओर देखा, फिर अपनी डायरी से एक पन्ना निकाला और कहा, “मैं आख़िरी पंक्ति लिखना चाहता हूँ। एक वाक्य जो हम दोनों के हिस्से का हो। क्या तुम मेरे साथ लिखोगी?”
संजना ने सिर हिलाया।
आरव ने लिखा:
“अगर ज़िंदगी एक किताब है, तो मैं चाहता हूँ कि उसका आख़िरी वाक्य तुमसे शुरू हो और मुझ पर ख़त्म।”
संजना ने कलम ली और नीचे लिखा:
“और अगर कभी हम अधूरे रह जाएँ, तो हमारा मौन ही तुम्हारी अगली किताब बन जाए।”
आरव ने उसकी ओर देखा, उसकी आँखों में कुछ टूटता भी था और जुड़ता भी। जैसे किसी पुराने वाद्ययंत्र की तारें फिर से कस दी गई हों।
अगले दिन, वे एक साथ अपने घर के पास की पहाड़ी पर गए—जहाँ से पूरी दिल्ली दिखती थी। हवा बहुत तेज़ थी, बादल फटे हुए से थे, और हर ओर जैसे एक निष्कर्ष तैर रहा था।
“क्या तुम अब भी सोचते हो कि अधूरी चीज़ें ही सबसे सुंदर होती हैं?” संजना ने पूछा।
“नहीं,” आरव ने मुस्कराते हुए कहा। “अब लगता है कि पूरी चीज़ों में ज़्यादा साहस होता है—उनमें अधूरेपन से लड़ने की हिम्मत होती है।”
वहाँ से लौटते हुए दोनों ने हाथ थामे रखा—शब्दों के बाहर, पर अर्थ के भीतर।
शाम को आरव ने अपनी नई किताब का आख़िरी पन्ना टाइप किया। शीर्षक था:
“पल दो पल की बात नहीं थी“
— एक प्रेम कथा, जो लौटकर पूरी हुई।
और फिर, आरव और संजना ने एक साथ आख़िरी लाइन पढ़ी—
“कुछ मोहब्बतें वक़्त की मर्ज़ी से मिलती हैं,
लेकिन जीती जाती हैं—अपनी मर्ज़ी से, एक साथ, एक आख़िरी बार।”
समाप्त