समीरा त्रिपाठी
नई दिल्ली के बाहरी इलाक़े में फैला वह अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स पहली नज़र में बिल्कुल साधारण लगता था—ऊँची-ऊँची इमारतें, बच्चों के खेलने का पार्क, गाड़ियों की पार्किंग में जमी धूल और शाम को लौटते दफ़्तरियों की भीड़। लेकिन इमारत नंबर बी–7 का फ्लैट 203 किसी कारणवश हमेशा खाली रहता था। लोगों ने कई बार वहाँ किराएदार देखे थे, लेकिन कुछ ही हफ़्तों में वे सामान समेट कर चले जाते। पड़ोसियों की बातें थीं कि रात के समय उस घर से अजीब आवाज़ें आती हैं—कभी फुसफुसाहट, कभी फर्नीचर खिसकने की, कभी किसी के धीमे-धीमे रोने की। मगर इन सब कहानियों को भूत-प्रेत का वहम कहकर टालना आसान था।
अभिषेक और मीरा शादी के बाद अपने लिए सस्ता और आरामदेह घर ढूँढ रहे थे। जब उन्हें फ्लैट 203 का किराया बाकी अपार्टमेंट्स से आधा सुनाई पड़ा तो दोनों ने बिना ज़्यादा सोचे-समझे हाँ कर दी। “शायद इसलिए खाली होगा कि सब लोग इसे अपशगुन मानते हैं,” ब्रोकर ने हँसते हुए कहा था, “आप जैसे पढ़े-लिखे लोगों को इन बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।” अभिषेक ने भी कंधे उचका दिए और मीरा को देखकर मुस्कराया, “हमें तो बस छत चाहिए, बाकी सब अंधविश्वास।”
पहले दिन सब ठीक ही रहा। कमरे साफ थे, बालकनी से हवा आती थी, और मीरा ने घर सजाने में घंटों लगा दिए। मगर रात होते ही अजीब-सी खामोशी घर में भर गई। बाहर सड़क पर गाड़ियाँ चल रही थीं, ऊपर के फ्लैट में टेलीविज़न की आवाज़ आ रही थी, पर 203 के भीतर ऐसा लगता था जैसे किसी ने सारी ध्वनियाँ निगल ली हों। मीरा ने इसे नए घर की आदत मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया।
दूसरी रात, जब दोनों सोने की तैयारी कर रहे थे, मीरा को लगा जैसे पलंग के नीचे से हल्की-सी खटपट की आवाज़ आई। उसने झुककर देखा, लेकिन वहाँ सिर्फ़ मोटा कार्पेट बिछा था। उसने अभिषेक से कहा, “सुनो, तुम्हें भी आवाज़ आई?” अभिषेक ने हँसते हुए जवाब दिया, “शायद पाइपलाइन होगी, या चूहा। सो जाओ।” मीरा ने खुद को समझा लिया, पर नींद गहरी नहीं थी। रात के किसी पहर उसे लगा जैसे पलंग हल्का-सा हिल रहा हो।
तीसरी रात उसका डर और बढ़ गया। ठीक आधी रात को, जब खिड़की से आती चाँदनी कमरे में बिखरी हुई थी, मीरा ने महसूस किया कि उसके पैरों को किसी ने हल्के से छुआ। ठंडी, बर्फ़ जैसी उँगलियाँ उसके टखनों पर रेंग गईं। वह झटके से उठ बैठी और नीचे झाँका। कार्पेट पर अँधेरा फैला था, लेकिन वहाँ कुछ भी नहीं था। उसने तुरंत अभिषेक को जगाया। “कोई था…किसी ने मुझे छुआ,” उसकी आवाज़ काँप रही थी। अभिषेक ने नाराज़ होकर कहा, “तुम हर छोटी बात को बढ़ा-चढ़ा कर देख रही हो। सोने दो।” मीरा चुप हो गई, लेकिन उसकी आँखें खुली रह गईं।
सुबह होते ही उसने कार्पेट हटाने की कोशिश की। कार्पेट नीचे से गहरा धूसर रंग लिए हुए था, और उसके बीचोंबीच एक हल्का लाल धब्बा दिखाई दिया, जैसे पुराने खून का दाग़ हो। मीरा का दिल ज़ोर से धड़कने लगा। उसने अभिषेक को बुलाकर दिखाया, लेकिन वह बोला, “पुराना दाग़ होगा, पिछले किराएदार ने गिराया होगा कुछ। तुम ज़्यादा मत सोचो।”
शाम को पड़ोस की एक बुज़ुर्ग औरत मीरा से मिलने आई। उसने धीरे से कहा, “बिटिया, यह घर छोड़ दो। यहाँ रहना ठीक नहीं है। इस कमरे में पहले भी बहुत कुछ हुआ है।” मीरा ने हड़बड़ाकर पूछा, “क्या हुआ था?” मगर औरत ने सिर्फ़ इतना कहा, “रात को पलंग के नीचे मत देखना।” और वह लौट गई।
उस रात मीरा नींद में जाने ही वाली थी कि अचानक फिर वही खटपट की आवाज़ सुनाई दी। इस बार आवाज़ कुछ ज़्यादा तेज़ थी—जैसे कोई नाखून से लकड़ी खुरच रहा हो। उसने हिम्मत जुटाकर टॉर्च उठाई और पलंग के नीचे रोशनी डाली। पल भर को उसकी साँस रुक गई। कार्पेट के नीचे से दो आँखें उसे घूर रही थीं—बिलकुल निस्पंद, बिना पलक झपकाए।
मीरा की चीख कमरे की खामोशी चीरती हुई बाहर निकली लेकिन उसी पल उसकी टॉर्च की बैटरी झपक कर बुझ गई। अंधेरे में उसकी साँसें तेज़ हो गईं, दिल धड़क रहा था जैसे सीने से बाहर निकल जाएगा। उसने घबराकर अभिषेक को झकझोरा—“उठो… वहाँ कुछ है… किसी की आँखें!” अभिषेक हड़बड़ाकर उठा, लेकिन जब उसने नीचे झाँका तो पलंग खाली था। सिर्फ़ कार्पेट पर छाया फैली हुई थी। “मीरा, तुम थकी हुई हो, नींद में भ्रम हो रहा है,” उसने समझाने की कोशिश की। लेकिन मीरा की आँखों में डर इतना गहरा था कि वह भी पल भर को चुप हो गया।
सुबह होते ही मीरा ने तय कर लिया कि अब और नहीं। वह पड़ोस की उस बुज़ुर्ग औरत के पास पहुँची। औरत ने दरवाज़ा खोला और मीरा को देखते ही बोली, “मैंने कहा था न बेटा, वहाँ मत रहो। उस फ्लैट में एक लड़की की मौत हुई थी।” मीरा का गला सूख गया, “किसकी मौत?” औरत ने धीमी आवाज़ में कहा, “उसके ही घरवालों ने… बलि दे दी थी। कहते हैं तांत्रिक पूजा के लिए उसे पलंग के नीचे छुपाकर मार डाला गया। उसकी आत्मा अब भी वहीं भटकती है। जो भी उस घर में जाता है, वह अपनी नींद खो देता है… और धीरे-धीरे अपना होश।”
मीरा ने यह सब अभिषेक को बताया, मगर वह हँसकर टाल गया। “लोग कहानियाँ बना लेते हैं। ये सब अंधविश्वास है।” मीरा चुप रही लेकिन भीतर कहीं बेचैनी गहरी हो चुकी थी।
रात होते ही घटनाएँ और डरावनी होने लगीं। उस रात मीरा ने साफ़-साफ़ सुना कि पलंग के नीचे कोई धीमी-धीमी फुसफुसा रहा है—जैसे कोई उसका नाम ले रहा हो, “मीरा… मीरा…” उसका पूरा शरीर ठंडा पड़ गया। उसने अभिषेक को झकझोरा लेकिन उसने कुछ नहीं सुना। “कुछ नहीं है,” वह बड़बड़ाया और करवट बदलकर सो गया।
मीरा ने तय किया कि वह सबूत ढूँढकर रहेगी। अगले दिन उसने कार्पेट पूरी तरह उठा दिया। नीचे की लकड़ी पर कई जगह गहरे खरोंच के निशान थे—जैसे किसी ने नाखूनों से ज़मीन खोदने की कोशिश की हो। सबसे बीचोंबीच एक बड़ा गाढ़ा धब्बा था, जो पोंछने पर भी नहीं मिटा। मीरा ने उस पर हाथ फेरा तो उसे लगा जैसे नीचे से हल्की धड़कन आ रही हो। वह पीछे हट गई, साँस थामे खड़ी रह गई।
शाम को, जब अभिषेक काम से लौटा, मीरा ने सब दिखाया। मगर उसने फिर वही कहा, “ये सब पुराना है। तुम्हें वहम हो रहा है।” मीरा ने ज़िद की कि वे घर बदल लें, मगर अभिषेक ने इंकार कर दिया। “इतना सस्ता और अच्छा फ्लैट कहाँ मिलेगा? और तुम चाहती हो कि लोग हमें डरपोक कहें?” मीरा की आँखों में आँसू आ गए, लेकिन वह चुप रह गई।
उस रात फिर वही खटपट शुरू हुई। इस बार अभिषेक भी जाग गया। उसने ध्यान से सुना और उसकी आँखें चौड़ी हो गईं। “ये… ये सचमुच आवाज़ है…” उसने बुदबुदाया। तभी अचानक पलंग ज़ोर से हिल उठा, जैसे किसी ने नीचे से धक्का मारा हो। दोनों घबराकर बिस्तर से कूद पड़े। कमरे में अँधेरा गहराता जा रहा था और खिड़की अपने आप बंद हो गई।
मीरा काँपती हुई बोली, “वो यहाँ है…” तभी पलंग के नीचे से धीरे-धीरे कोई सरकता हुआ बाहर आया। रोशनी न होने के बावजूद वे साफ़ देख पा रहे थे—एक लड़की, उलझे बाल, सफेद दुपट्टा, और चेहरा बिल्कुल काला जैसे राख से पोत दिया गया हो। उसकी आँखें सीधे मीरा पर टिकी थीं।
मीरा चीख पड़ी और अभिषेक ने उसका हाथ पकड़कर दरवाज़े की ओर भागने की कोशिश की, लेकिन दरवाज़ा अंदर से अपने आप बंद हो गया। लड़की धीरे-धीरे उनकी ओर बढ़ने लगी। उसकी चाल अजीब थी, जैसे घुटनों के बल रेंग रही हो, और हर कदम पर लकड़ी की खरोंचने की आवाज़ गूँज रही थी।
अभिषेक ने ज़ोर से दरवाज़ा पीटना शुरू किया, “कोई है… खोलो!” लेकिन बाहर से कोई जवाब नहीं आया। मीरा ने देखा, लड़की अब बिलकुल करीब थी, और उसके होंठ हिल रहे थे। उसने धीरे-धीरे कहा—“मुझे… वापस… दो।”
कमरे का अंधेरा और घना हो गया था। मीरा के कानों में सिर्फ़ दो आवाज़ें गूँज रही थीं—दरवाज़ा पीटते अभिषेक की बेताबी और उस लड़की की फुसफुसाहट, “मुझे… वापस… दो।” उसका स्वर इतना ठंडा और इतना लंबा था कि लगता था जैसे किसी खाली कुएँ से आ रहा हो। मीरा काँपती हुई पीछे हटती रही, लेकिन उसकी नज़रें उस काले चेहरे से हट नहीं पा रही थीं। लड़की की आँखें अंगारे जैसी जल रही थीं और उसके बाल ज़मीन पर रेंगते हुए साँप की तरह फैल रहे थे।
अचानक, जैसे ही वह औरत और करीब आई, कमरे की दीवार पर लटकी पुरानी कैलेंडर की पन्नियाँ अपने आप फड़फड़ाने लगीं। खिड़की का शीशा चटक कर टूट गया और अंदर ठंडी हवा का झोंका घुस आया। उस हवा में किसी जली हुई चीज़ की बदबू थी। मीरा ने अपनी नाक ढँक ली लेकिन लड़की की आँखें उससे टकराई रहीं। “तुमने मेरा बिस्तर ले लिया है… मेरी नींद छीन ली है…” उसने करवट लेकर ज़मीन पर हाथ पटका और पल भर में पूरा पलंग हिलने लगा।
अभिषेक ने मीरा को अपनी ओर खींचा और ज़ोर से दरवाज़े को धक्का दिया। इस बार दरवाज़ा अचानक खुल गया, जैसे किसी ने बाहर से ताला तोड़ा हो। दोनों हाँफते हुए बाहर भागे और गैलरी में खड़े हो गए। वहाँ चारों तरफ़ अंधेरा था लेकिन उन्हें साफ़ महसूस हुआ कि कोई उनके पीछे-पीछे आ रहा है। मीरा ने काँपते हुए देखा—गैलरी की ट्यूबलाइट एक-एक करके बुझती जा रही थी, जैसे अँधेरा उनका पीछा कर रहा हो।
वे सीढ़ियाँ उतरकर नीचे पहुँचे और बिल्डिंग से बाहर निकल गए। सड़क पर हल्की रोशनी थी, दूर से कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आ रही थी। अभिषेक ने कहा, “हम वापस नहीं जाएँगे, मीरा। कल ही कोई दूसरा घर देखते हैं।” मीरा ने सिर हिलाया लेकिन उसके होंठ अब भी काँप रहे थे।
सुबह होते ही दोनों ब्रोकर के पास पहुँचे। उसने उनकी हालत देखकर हँसते हुए कहा, “लगता है आप दोनों भी डर गए? सब किराएदार यही कहते हैं।” अभिषेक ने गुस्से से कहा, “तुम्हें पहले ही बताना चाहिए था कि उस फ्लैट में क्या हुआ था।” ब्रोकर ने कंधे उचकाए, “मौत तो हर जगह होती है साहब। लेकिन वहाँ… हाँ, वहाँ मामला अलग था। एक लड़की… उसका नाम रंजना था… उसकी बलि दी गई थी।”
मीरा ने तुरंत पूछा, “क्यों? किसने?” ब्रोकर ने आँखें नीची कर लीं। “उसके अपने पिता ने। कहते हैं तांत्रिक साधना के लिए। पलंग के नीचे उसे बाँध दिया गया था, और जब तक पूजा पूरी होती, उसकी साँसें थम चुकी थीं। तब से उसका साया उसी कमरे में भटक रहा है।”
मीरा की रीढ़ में सिहरन दौड़ गई। उसने अभिषेक का हाथ पकड़ा और कहा, “हमें आज ही सामान उठाना होगा।” लेकिन अभिषेक चुप रहा। उसकी आँखों में एक अजीब जिज्ञासा थी। “क्या सचमुच ये सब होता है? या फिर यह हमारी कल्पना?”
रात को वे अपना कुछ सामान लेने 203 में लौटे। मीरा ने मना किया लेकिन अभिषेक ने कहा, “हमारी चीज़ें वहाँ पड़ी हैं। और वैसे भी, मैं इस रहस्य को समझना चाहता हूँ।” दोनों अंदर गए। कमरे में अंधेरा फैला था लेकिन इस बार मीरा को और गहरी खामोशी महसूस हुई। उसने फुसफुसाकर कहा, “जल्दी करो, यहाँ से चलें।”
अभिषेक ने पलंग को हटा दिया और कार्पेट किनारे किया। नीचे ज़मीन पर खरोंच के निशान और गाढ़े धब्बे और भी स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। तभी अचानक नीचे से हल्की रोशनी उठी, जैसे ज़मीन की दरारों से कोई अग्नि झाँक रही हो। और उसी रोशनी में उन्होंने देखा—लकड़ी की दरारों में अटकी हुई एक पुरानी चोटी, जैसे किसी लड़की के बाल काटकर दबा दिए गए हों।
मीरा चिल्लाई और पीछे हट गई। तभी कमरे में वही ठंडी फुसफुसाहट गूँजी, “मेरा… वापस…” और पलंग अपने आप कमरे के बीचोंबीच खिसकने लगा।
अभिषेक जड़ हो गया। उसकी आँखें उस चोटी पर टिकी थीं। “शायद… यही उसका हिस्सा है… यही उसे चैन नहीं लेने देता।” उसने हाथ बढ़ाकर चोटी निकालने की कोशिश की। मीरा चीख पड़ी, “मत छुओ!” लेकिन अभिषेक ने उसकी बात नहीं मानी। जैसे ही उसने चोटी को खींचा, पूरे कमरे में कानफाड़ू चीख गूँज उठी।
कमरे की दीवारें उस चीख से कांप उठीं। खिड़की के शीशे खुद-ब-खुद चटक कर फर्श पर गिर पड़े, पंखा इतनी तेज़ी से घूमने लगा कि उसका पेंच ढीला होकर गिरा और हवा में सड़ी हुई गंध भर गई। अभिषेक के हाथ में वह पुरानी चोटी थी, काले-सफेद उलझे बाल जिनसे मिट्टी और खून जैसी गंध निकल रही थी। उसने डरते हुए मीरा की तरफ देखा लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सम्मोहन था, जैसे वह किसी अदृश्य ताक़त के वश में आ गया हो।
अचानक कार्पेट अपने आप सिकुड़कर किनारे हो गया और लकड़ी की फर्श पर दरारें उभर आईं। उन दरारों से लाल रंग का पानी रिसने लगा, जैसे किसी पुराने जख़्म से मवाद टपक रहा हो। मीरा का गला सूख गया। उसने चीखते हुए अभिषेक का हाथ पकड़ने की कोशिश की, “इसे फेंको! तुरंत फेंको!” लेकिन अभिषेक के होंठ बुदबुदाने लगे—कुछ शब्द, जो मीरा ने पहले कभी नहीं सुने थे। वे शब्द तांत्रिक मंत्र जैसे थे, और हर शब्द के साथ कमरे का अंधेरा और गाढ़ा होता जा रहा था।
तभी पलंग अपने आप दीवार से टकराकर दूर हट गया। उसके नीचे से वही लड़की बाहर निकली—रंजना। उसका चेहरा अब और साफ़ दिख रहा था—गहरे काले धब्बों से भरा, आँखों से खून की बूंदें टपकती हुईं, होंठों पर एक विकृत मुस्कान। उसने धीरे-धीरे हाथ बढ़ाकर अभिषेक की ओर देखा और कहा, “तुमने मुझे… लौटा दिया…”
मीरा ने अभिषेक को खींचकर पीछे करना चाहा लेकिन तभी चोटी अचानक उसकी उंगलियों से फिसलकर सीधे रंजना के हाथों में चली गई। जैसे ही बाल उसकी पकड़ में आए, पूरा कमरा बर्फ़ सा ठंडा हो गया। बल्ब फट गया और अंधेरे में केवल उसकी लाल आँखें चमक रही थीं।
रंजना ने बालों को अपने सिर पर रखा और एक पल के लिए उसकी देह कांप उठी। उसने एक भयानक हँसी छोड़ी और दीवार से सट गई। दीवार पर उसका साया फैलता गया—लंबा, विकृत, जैसे किसी जानवर का। अचानक उस साये ने ही कमरे में आकार लेना शुरू कर दिया। मीरा ने भयभीत होकर देखा कि अब वहाँ दो आकृतियाँ थीं—एक रंजना की और दूसरी उसकी परछाई से बनी हुई, और दोनों एक साथ उनकी ओर बढ़ रही थीं।
मीरा दरवाज़े की ओर दौड़ी लेकिन दरवाज़ा बंद था। उसने पूरी ताक़त से खींचा, थपेड़े मारे, मगर वह हिला तक नहीं। पीछे से रेंगने की आवाज़ आ रही थी, लकड़ी खुरचने की आवाज़, जैसे कोई जानवर पंजे गड़ाकर उनकी तरफ आ रहा हो। अभिषेक अब भी जैसे सम्मोहित था, उसकी नज़रें रंजना पर टिकी थीं।
“अभिषेक!” मीरा चीखी। उसने उसे जोर से झकझोरा। तभी जैसे उसका नशा टूटा और वह हड़बड़ा गया। दोनों ने मिलकर दरवाज़े को धक्का दिया। उसी पल कमरे के कोने में रखा पुराना अलमारी अपने आप खुल गया। उसके भीतर से धूल से ढके कुछ पुराने तांत्रिक ग्रंथ बाहर गिर पड़े। उनमें से एक ग्रंथ अपने आप खुला और पन्ने तेज़ हवा में फड़फड़ाने लगे।
मीरा ने डरते-डरते पढ़ने की कोशिश की। देवनागरी लिपि में लिखा था—“अधूरी साधना का फल अपूर्ण आत्मा है। जब तक बलि का शरीर पूरा न लौटे, आत्मा चैन नहीं पाती।” मीरा ने काँपती आवाज़ में कहा, “अभिषेक… इसका मतलब है… उसे सिर्फ़ बाल नहीं चाहिए… उसे अपना पूरा शरीर चाहिए।”
रंजना अब पलंग पर चढ़ चुकी थी। उसका चेहरा और भी वीभत्स हो गया था, आँखें और गहरी काली, जैसे कोई खाई। उसने हाथ बढ़ाया और कराहते हुए कहा, “मेरा… शरीर…”
अभिषेक और मीरा दोनों पसीने से तर थे। दरवाज़ा अब भी बंद था। बाहर कोई आवाज़ नहीं थी। पूरी बिल्डिंग जैसे सुनसान हो चुकी थी। मीरा ने हिम्मत करके एक मोमबत्ती जलाई जो पास की दराज़ में रखी थी। जैसे ही लौ जली, रंजना ने चीख मारी और कुछ कदम पीछे हट गई।
“शायद… शायद रोशनी से उसे रोका जा सकता है!” मीरा ने कहा। उसने मोमबत्ती हाथ में पकड़कर आगे बढ़ाई। लेकिन तभी अचानक मोमबत्ती अपने आप बुझ गई और कमरा फिर से अंधेरे में डूब गया।
और उसी अंधेरे में, एक ठंडी उँगली ने मीरा की गर्दन को छू लिया।
मीरा के गले पर लगी वह ठंडी उँगली धीरे-धीरे दबाव बनाने लगी, जैसे बर्फ़ की कील त्वचा में धँस रही हो। उसकी साँस रुकने लगी, आँखें बाहर निकलने को थीं। अभिषेक ने झपटकर उसका हाथ पकड़ लिया और पूरी ताक़त से उसे अपनी तरफ खींचा। अचानक दबाव हट गया, मगर मीरा ज़मीन पर गिर पड़ी, हाँफती हुई, चेहरा पीला और आँखों में खून उतर आया। कमरे के बीचोंबीच अब रंजना की आत्मा खड़ी थी—उसका चेहरा पहले से भी विकृत, होंठों से निकलता गाढ़ा काला धुआँ, और बाल ज़मीन पर फैले हुए, जैसे ज़िंदा साँप लहराते हों।
“तुमने मेरी नींद छीन ली…” उसकी आवाज़ गूँजी, “मुझे मेरा शरीर वापस चाहिए।” उसके साथ ही फर्श की दरारें और चौड़ी हो गईं। उन दरारों से हड्डियों जैसी सफेद चीज़ें बाहर झाँकने लगीं—जैसे किसी को ज़मीन के नीचे दफना दिया गया हो और अब वह बाहर निकलने को तड़प रहा हो। मीरा ने काँपते हुए देखा कि यह सचमुच किसी का कंकाल था, अधूरा, टुकड़ों में बँटा हुआ।
अभिषेक ने तुरंत अलमारी से गिरे तांत्रिक ग्रंथ को उठाया और पन्ने पलटने लगा। उसमें लिखा था—“बलि की आत्मा को शांति तभी मिल सकती है जब उसके शरीर के टुकड़े एक स्थान पर मिलकर अग्नि को समर्पित किए जाएँ। अन्यथा आत्मा सदा अधूरी रहेगी।” मीरा ने काँपती आवाज़ में कहा, “इसका मतलब… उसका शरीर अब भी इसी कमरे में दफ्न है।”
जैसे ही उसने ये कहा, रंजना की आत्मा ने एक भयानक चीख मारी और पल भर में कमरे की सारी चीज़ें हवा में उड़ने लगीं—कुर्सियाँ, किताबें, परदे। सब घूमते हुए उनके ऊपर गिरने लगे। अभिषेक और मीरा ने सिर झुका लिया। तभी पलंग हवा में उठा और ज़ोर से जमीन पर गिरा। उसके नीचे से एक और हड्डी बाहर लुढ़क आई। रंजना उस हड्डी की ओर झपटी, जैसे भूखी जानवर अपने शिकार पर टूटता है।
मीरा ने अभिषेक को खींचा, “हमें ये सब इकट्ठा करना होगा, वरना ये हमें कभी नहीं छोड़ेगी।” लेकिन अभिषेक ने उसका हाथ झटक दिया। उसकी आँखें चमक रही थीं, जैसे वह किसी गहरी तंद्रा में चला गया हो। वह बुदबुदाया, “शायद… हमें इसे पूरा करना होगा… अधूरी साधना पूरी करनी होगी…” मीरा सिहर गई। “तुम पागल हो गए हो क्या? ये वही चाहता है जिसने रंजना की बलि दी थी। अगर तुमने ये किया तो वह आत्मा कभी चैन से नहीं जाएगी, वह और ताक़तवर हो जाएगी।”
लेकिन अभिषेक उसकी बात सुन ही नहीं रहा था। वह फर्श से उठी हड्डियाँ हाथ में लेने लगा। जैसे ही उसने पहली हड्डी उठाई, कमरे की दीवारों पर खून जैसा तरल बहने लगा। रंजना ने चीख मारी, पर उसकी आँखों में एक अजीब संतोष भी झलकने लगा।
मीरा ने काँपते हुए अभिषेक को पकड़ा, “सुनो, हमें आग जलानी होगी। यह ग्रंथ कह रहा है कि सिर्फ़ अग्नि ही इसे रोक सकती है।” अभिषेक अचानक ठिठका, उसकी आँखों से सम्मोहन टूटा। उसने चारों तरफ देखा—टेबल पर रखी माचिस उठाई और एक मोमबत्ती जला दी। रोशनी फैलते ही रंजना कुछ पीछे हट गई, लेकिन उसके चेहरे पर अब और भी हिंसक भाव था।
उसने चीखते हुए अपने बालों को आगे बढ़ाया। बालों की लटें मीरा की कमर में लिपट गईं और उसे ज़मीन पर घसीटने लगीं। मीरा ने चिल्लाकर अभिषेक को पुकारा। उसने झपटकर माचिस की जलती तीली फर्श पर गिरे परदे पर छुआ दी। पल भर में परदा धधक उठा और कमरे में आग फैलने लगी।
रंजना की आत्मा ने भयानक चीख मारी। उसकी आकृति धुएँ में बदलकर मरोड़ खाने लगी। फर्श की दरारों से निकली हड्डियाँ धीरे-धीरे जलने लगीं, और उसी आग में उसकी परछाईं झुलसने लगी। लेकिन उसके चीखते शब्द अब भी गूँज रहे थे—“तुमने मुझे जगाया है… मुझे पूरा करना होगा…”
आग तेज़ होती गई। खिड़कियों से धुआँ बाहर निकल रहा था। मीरा और अभिषेक दरवाज़ा तोड़कर बाहर भाग निकले। पीछे मुड़कर देखा तो पूरा फ्लैट जल रहा था, और उस आग में एक काला चेहरा खिड़की से उन्हें देख रहा था।
मीरा काँपती आवाज़ में बोली, “क्या अब वह चली जाएगी?” अभिषेक ने चुप रहकर जलते फ्लैट को देखा और बुदबुदाया, “नहीं… वह अब और ताक़तवर होकर लौटेगी… क्योंकि हमने उसकी अधूरी साधना को छेड़ा है।”
और जैसे ही आग की लपटें आसमान को छूने लगीं, दूर गली से वही फुसफुसाहट फिर सुनाई दी—“मीरा…”
फ्लैट 203 अब राख में बदल चुका था, लेकिन आग बुझने के बाद भी माहौल वैसा ही ठंडा और अजीब बना रहा। दमकल कर्मी और पुलिसवाले आए, रिपोर्ट बनाई, और यह मान लिया कि आग शॉर्ट-सर्किट से लगी। पर मीरा जानती थी कि यह सच नहीं है। वह हर क्षण अपनी पीठ के पीछे किसी की साँसें महसूस कर रही थी, जैसे कोई उसके बिल्कुल पास खड़ा है। अभिषेक भी चुप था, आँखें सुर्ख और बेचैन, जैसे उस पर किसी अनकहे बोझ का पहाड़ रख दिया गया हो।
उस रात दोनों अस्थायी रूप से पास के एक होटल में ठहरे। मीरा ने आँखें मूँदी ही थीं कि अचानक वही खरोंचने की आवाज़ सुनाई दी—धीरे-धीरे बढ़ती हुई, जैसे कोई बिस्तर के नीचे छिपा हो। उसने चौंककर आँखें खोलीं, नीचे झाँकना चाहा, पर डर से उसका गला सूख गया। तभी फुसफुसाहट आई—“मीरा…” मीरा चीख पड़ी और बत्ती जला दी। लेकिन पलंग के नीचे कुछ नहीं था।
अभिषेक ने उसे देखा, फिर बिस्तर से उठकर खिड़की के पास चला गया। उसके होंठ कुछ बुदबुदा रहे थे—वही तांत्रिक मंत्र जो उसने फ्लैट में बोले थे। मीरा ने घबराकर उसका हाथ पकड़ा, “तुम फिर वही क्यों दोहरा रहे हो?” अभिषेक की आँखें पल भर के लिए लाल चमक उठीं। वह ठंडी आवाज़ में बोला, “वो मुझसे बात करती है… कहती है कि अगर मैं उसकी साधना पूरी कर दूँ तो वो मुझे सबकुछ देगी।”
मीरा का खून जम गया। “तुम सुन भी रहे हो अपने शब्द? वो तुम्हें इस्तेमाल कर रही है!” मगर अभिषेक जैसे सम्मोहित था। उसकी आवाज़ गहरी और खोखली हो गई थी, “वो मुझे देखती है… मुझे चुन चुकी है।”
मीरा डर के मारे रोने लगी। उसने रात किसी तरह जागकर काटी। सुबह होते ही वह अकेले ही पास के मंदिर पहुँची और पुजारी से सब बताया। पुजारी का चेहरा गंभीर हो गया। उसने कहा, “यह साधारण आत्मा नहीं। यह तांत्रिक बलि से बंधी आत्मा है। ऐसे प्रेत को सिर्फ़ ‘अग्नि-संस्कार मंत्र’ से मुक्त किया जा सकता है। वरना यह उस पर अधिकार कर लेगा जो उससे सबसे पहले जुड़ जाए।”
मीरा ने काँपते हुए पूछा, “अगर हम कुछ नहीं करें तो?” पुजारी ने धीमी आवाज़ में कहा, “तो वह आत्मा अभिषेक को अपना माध्यम बना लेगी। और धीरे-धीरे उसकी आत्मा को खा जाएगी।”
मीरा वापस लौटी तो देखा, होटल के कमरे में अभिषेक नहीं है। उसका बैग, मोबाइल सब वहीं था, लेकिन वह खुद ग़ायब था। रिसेप्शन पर पता चला कि वह सुबह-सुबह बिना बताए निकल गया। मीरा का दिल धड़कने लगा। उसे अंदाज़ा था कि अभिषेक कहाँ गया होगा।
वह भागती हुई उसी अपार्टमेंट कॉम्प्लेक्स पहुँची। राख और धुएँ से काला पड़ा फ्लैट 203 अब सुनसान था, मगर दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर कदम रखते ही ठंडी लहर उसके शरीर से टकराई। और वहीं, कमरे के बीचोंबीच अभिषेक खड़ा था—चारों ओर राख और जली हुई हड्डियों के बीच। उसके सामने वही चोटी हवा में तैर रही थी और अभिषेक मंत्र पढ़ रहा था।
मीरा ने चीखकर कहा, “अभिषेक, रुक जाओ!” लेकिन उसने उसकी तरफ देखा तक नहीं। उसकी आँखें अब पूरी तरह लाल थीं, और चेहरे पर वहम जैसा संतोष। तभी अचानक फर्श से काले धुएँ का गुबार उठा और उसमें रंजना की आकृति बनने लगी। उसका चेहरा अब और भी भयानक था—आधी जली त्वचा, मुँह से निकलता धुआँ, और खाली आँखों के गड्ढों में चमकती चिंगारियाँ।
उसने अभिषेक के कंधे पर हाथ रखा। और अभिषेक जैसे किसी नशे में मुस्कराने लगा। “मीरा… देखो… उसने मुझे चुना है।”
मीरा काँपती आवाज़ में बोली, “वो तुम्हें चुनी नहीं, वो तुम्हें खा रही है!” लेकिन अभिषेक ने उसकी बात नहीं सुनी।
तभी रंजना की आत्मा ने मीरा की ओर देखा। उसके होंठ हिले—“अब तुम्हारी बारी है…”
और मीरा ने महसूस किया कि कमरे की ज़मीन फिर से काँप रही है। पलंग—जो जल चुका था—अब राख से बनकर फिर आकार लेने लगा। लकड़ी की काली परतें अपने आप जुड़ने लगीं और देखते ही देखते वही पुराना पलंग खड़ा हो गया। उसके नीचे से वही खरोंचने की आवाज़ फिर गूँज उठी।
पलंग राख से उठकर जैसे जीवित हो गया था, उसकी लकड़ी जलने के बावजूद काली चमक लिए फिर से खड़ी थी। मीरा ने अपनी आँखों पर यक़ीन नहीं किया। उस पलंग के नीचे से वही खरोंचने की आवाज़ गूँज रही थी—धीमी, गहरी और लगातार। आवाज़ इतनी तेज़ हो गई कि पूरे कमरे की फर्श काँपने लगी।
मीरा काँपती आवाज़ में बोली, “अभिषेक, बाहर चलो… ये जगह हमें जिंदा नहीं छोड़ेगी।” लेकिन अभिषेक अब पूरी तरह रंजना के वश में था। वह पलंग की ओर बढ़ा और ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ गया, जैसे किसी देवी की आराधना कर रहा हो। उसकी आँखें आधी बंद थीं और होंठ मंत्र बुदबुदा रहे थे।
अचानक फर्श की दरारों से काले कीड़े निकलने लगे—सैकड़ों, हज़ारों। वे दीवारों पर चढ़ते, छत से गिरते और चारों तरफ रेंगने लगे। मीरा ने चिल्लाकर अभिषेक को खींचने की कोशिश की लेकिन उसने उसका हाथ झटक दिया। उसकी आवाज़ गहरी और डरावनी हो गई, “तुम समझती नहीं हो, मीरा। यह शक्ति है। यह मुझे अमर बना देगी।”
तभी पलंग के नीचे से एक हाथ बाहर निकला—सड़ा हुआ, हड्डियों से भरा, जिसकी उँगलियों पर अब भी लाल धागा बँधा था। वह हाथ अभिषेक की ओर बढ़ा। मीरा का खून जम गया। “नहीं!” उसने चीखते हुए पास पड़ी जलती माचिस उठाई और उसे पलंग की तरफ फेंक दिया। लेकिन लौ पल भर में बुझ गई, जैसे अंधेरा उसे निगल गया हो।
रंजना की आत्मा अचानक चीखते हुए आगे बढ़ी। उसके चेहरे पर अब खून की धार बह रही थी। उसने बालों की लटों से मीरा को जकड़ लिया और ज़मीन पर गिरा दिया। मीरा पूरी ताक़त से छटपटाती रही लेकिन बाल उसके हाथ-पैरों पर कसते गए। उसकी आँखों के सामने अँधेरा छा रहा था।
उसी समय तांत्रिक ग्रंथ के पन्ने अपने आप खुल गए। हवा में उड़े पन्नों पर लिखा मंत्र कमरे में गूँजने लगा। मीरा ने पूरी हिम्मत जुटाकर वह मंत्र दोहराना शुरू किया। उसकी आवाज़ काँप रही थी लेकिन जैसे-जैसे वह शब्द बोलती गई, कमरे की दीवारें हिलने लगीं और रंजना की आत्मा तड़पने लगी।
अभिषेक ने गुस्से से मीरा को देखा। उसकी आँखों में अब पूरी तरह आत्मा का कब्ज़ा था। उसने चीखकर कहा, “चुप रहो! तुम उसे नाराज़ कर दोगी!” लेकिन मीरा ने मंत्र और तेज़ बोलना शुरू कर दिया।
अचानक पलंग ज़ोर से काँपा और नीचे से पूरा कंकाल बाहर निकल आया। रंजना की आत्मा उस कंकाल पर झपटी और उस पर सवार हो गई। उसका चेहरा धीरे-धीरे हड्डियों से जुड़ने लगा, जैसे वह फिर से शरीर पा रही हो। मीरा मंत्र पढ़ती रही, आँखों से आँसू बहते रहे।
कमरे में आग की लपटें उठीं, मगर यह आग साधारण नहीं थी। यह ग्रंथ की शक्ति से निकली थी। रंजना ने तड़पकर चीख मारी—इतनी तेज़ कि खिड़कियों के शीशे चटक गए, दीवारों पर पड़ी दरारें फैल गईं। उसके चेहरे की त्वचा आधी लौट आई थी, लेकिन आग ने उसे फिर झुलसाना शुरू कर दिया।
अभिषेक उस दृश्य को देखकर पागलों की तरह चिल्लाया, “रुक जाओ! उसे मत जलाओ!” उसने रंजना की ओर हाथ बढ़ाया, और उसी पल उसके शरीर में आग की लपटें लिपट गईं। वह चीखते हुए ज़मीन पर गिर पड़ा।
मीरा ने मंत्र और तेज़ी से दोहराया। कमरे की हवा इतनी भारी हो गई कि साँस लेना मुश्किल था। पर जैसे ही मंत्र पूरा हुआ, एक तेज़ धमाका हुआ। पलंग टूटकर राख में बदल गया, कंकाल चूर-चूर हो गया और रंजना की आत्मा धुएँ में विलीन होकर कमरे की छत से बाहर निकल गई।
कुछ पल के लिए खामोशी छा गई। राख हवा में उड़ रही थी, फर्श पर केवल अभिषेक पड़ा था—बेसुध, झुलसा हुआ, और आँखें बंद। मीरा ने काँपते हाथों से उसका चेहरा उठाया। वह अब भी साँस ले रहा था, लेकिन उसके होंठ हिल रहे थे—धीमे-धीमे वही फुसफुसाहट, “मीरा…”
अभिषेक की आँखें बंद थीं, लेकिन उसके होंठ अब भी धीमे-धीमे हिल रहे थे। मीरा ने झुककर सुना—वही फुसफुसाहट, वही मंत्र, वही डरावनी आवाज़ जो रंजना की आत्मा बोलती थी। मीरा का दिल बैठ गया। उसने काँपते हुए उसका सिर अपनी गोद में रखा और ज़ोर से कहा, “अभिषेक! मेरी तरफ देखो, प्लीज़!” पर उसकी पुतलियाँ धीरे-धीरे लाल होने लगीं, जैसे किसी और की आँखें उसके भीतर से झाँक रही हों।
अचानक उसने झटका खाया और उठ बैठा। उसका चेहरा राख से काला पड़ा था लेकिन होंठों पर एक अजीब मुस्कान थी। उसने ठंडी आवाज़ में कहा—“मीरा… अब मैं अधूरा नहीं हूँ।” मीरा का खून जम गया। उसकी आँखें फैल गईं, “तुम… तुम अभिषेक हो न?” वह हँसा—एक लंबी, खोखली हँसी, “अभिषेक अब मेरा है। उसके जिस्म में अब मैं हूँ। तुमने मुझे शरीर दे दिया।”
मीरा पीछे हट गई। उसका पूरा शरीर काँप रहा था। उसने तांत्रिक ग्रंथ उठाने की कोशिश की लेकिन अभिषेक—या कहो अब उसमें समाई आत्मा—ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया। उसकी पकड़ लोहे जैसी थी। “अब ये सब बेकार है। साधना पूरी हो चुकी है। अब मैं इस घर से बाहर भी जा सकता हूँ… तुम्हारे साथ… तुम्हारी हर साँस में।”
मीरा चीखते हुए उससे छूट गई और दरवाज़े की तरफ भागी। पर दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। वह पीछे मुड़ी—अभिषेक धीरे-धीरे खड़ा हो रहा था, उसकी चाल बिल्कुल वैसी थी जैसी रंजना की आत्मा की थी। सिर तिरछा, कदम घिसटते हुए, और आँखों से टपकती लाल रोशनी।
“तुम भाग नहीं सकती, मीरा…” उसकी आवाज़ गूँजी, “अब तुम भी मेरी साधना का हिस्सा हो।”
मीरा ने काँपते हुए तांत्रिक ग्रंथ को कसकर पकड़ लिया। उसके पन्ने बुरी तरह जले थे, मगर आखिरी कुछ पंक्तियाँ अब भी बची थीं। उनमें लिखा था—“अगर आत्मा किसी जीवित शरीर में प्रवेश कर ले, तो उसे अलग करने का एक ही मार्ग है—शरीर और आत्मा, दोनों को एक साथ अग्नि में समर्पित करना होगा।”
मीरा का दिल डूब गया। इसका मतलब था कि अभिषेक को बचाने का अब कोई रास्ता नहीं। उसे या तो अभिषेक के शरीर को भी जलाना होगा या रंजना की आत्मा हमेशा के लिए उसी में जिंदा रहेगी।
अभिषेक—या आत्मा—धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगा। कमरे की दीवारों से खून बह रहा था, जैसे कोई अदृश्य नसें फट गई हों। बिजली की ट्यूबलाइट्स फट-फट कर बुझने लगीं और पूरा अपार्टमेंट अंधेरे में डूब गया।
मीरा पीछे हटती रही, लेकिन अचानक उसके पैरों के नीचे फर्श धँस गया। वह गिरते-गिरते बची। नीचे झाँका तो दिखा—अंधेरे गड्ढे में सैकड़ों हाथ हिल रहे थे, जैसे अधूरी आत्माएँ छटपटा रही हों। उनमें से कई हाथ उसकी तरफ बढ़ने लगे।
अभिषेक ने ठंडी मुस्कान के साथ कहा, “देखा मीरा? मैंने दरवाज़ा खोल दिया है। अब ये सब भी मेरे साथ होंगे।” उसकी आवाज़ अब पूरी तरह रंजना की थी।
मीरा की आँखों में आँसू आ गए। उसने काँपते हुए कहा, “अगर तुम्हें शरीर चाहिए, तो मेरा ले लो… उसे छोड़ दो…”
उसकी बात सुनकर आत्मा पल भर को चुप हो गई। फिर हँसी, “तुम सोचती हो मैं तुम्हें छोड़ दूँगी? नहीं… अब तुम दोनों मेरे हो।”
उसने हाथ बढ़ाया और मीरा का गला कसकर पकड़ लिया। मीरा छटपटाने लगी, उसकी साँसें टूट रही थीं। तभी उसने पूरी ताक़त से ग्रंथ को अभिषेक के सीने पर दे मारा। पन्ने फटकर उसके चारों तरफ बिखर गए और उनमें से रोशनी निकलने लगी। आत्मा चीख पड़ी, अभिषेक का शरीर काँपने लगा।
लेकिन उसी पल, अभिषेक की असली आवाज़ गूँजी—कमज़ोर, टूटी हुई—“मीरा… मुझे बचाओ…”
मीरा के हाथ काँप रहे थे। सामने आग लगाने का विकल्प था, मगर इसका मतलब अभिषेक को खो देना। और अगर वह रुकती तो आत्मा हमेशा के लिए उसके भीतर बस जाती।
कमरा भयानक गूँज से भर गया। आत्मा चीख रही थी, अभिषेक दर्द से कराह रहा था, और मीरा की आँखों से आँसू लगातार बह रहे थे। उसने काँपती उँगलियों से माचिस की तीली जलाई। लौ काँपी… और पूरे कमरे में रोशनी फैल गई।
तीली की लौ काँप रही थी, जैसे डर के मारे खुद भी बुझ जाना चाहती हो। मीरा के हाथ काँप रहे थे, आँखें आँसुओं से धुंधली। सामने अभिषेक का चेहरा था—आधा उसका, आधा किसी और का। एक पल में वह उसकी आँखों में झाँकता तो वही पुराना अभिषेक दिखता, जो उसे प्यार से देखता था, और अगले ही पल वही लाल, खूँखार चमक दिखती, जो रंजना की आत्मा की थी।
अभिषेक कराहते हुए बोला, “मीरा… मुझे मत छोड़ो… मैं यहीं हूँ…” उसकी आवाज़ में दर्द था, मगर उसी के साथ एक और आवाज़ गूँजी—खोखली और ठंडी, “जलाओगी तो यह शरीर राख हो जाएगा… और तुम्हारा अभिषेक हमेशा के लिए खत्म।”
मीरा के हाथ और काँपने लगे। उसकी नज़र ग्रंथ पर पड़ी—जले हुए पन्नों पर आख़िरी शब्द अब भी चमक रहे थे: “अग्नि ही मुक्ति है।” उसका दिल चीख रहा था, ‘नहीं, मैं उसे कैसे जला सकती हूँ?’ लेकिन उसके दिमाग़ में रंजना की विकृत हँसी गूँज रही थी, ‘अगर तुमने कुछ नहीं किया तो मैं उसका हर कतरा चूस लूँगी और उसके बाद तुम्हारा।’
कमरा अचानक और सिमटने लगा। दीवारें नज़दीक आने लगीं, फर्श से हाथ बाहर निकलकर उनकी ओर बढ़े, और पलंग फिर से उठकर हवा में तैरने लगा। उसके नीचे वही खरोंचने की आवाज़ और तेज़ हो गई, जैसे पूरी दुनिया अब उस एक आवाज़ में बदल गई हो।
मीरा ज़मीन पर घुटनों के बल गिर पड़ी, हाथ में जलती तीली अब भी थी। आँसू उसके गालों से बहते रहे। उसने काँपती आवाज़ में कहा, “अभिषेक… अगर तुम सच में हो, तो मुझे एक निशानी दो… ताकि मैं यक़ीन कर सकूँ कि तुम अब भी मेरे साथ हो।”
एक पल के लिए अजीब खामोशी छा गई। तभी अभिषेक की आँखों में लाल चमक बुझी और उसने टूटे शब्दों में कहा, “हमारी शादी के दिन… तुमने कहा था… हम हमेशा एक-दूसरे के सपनों में मिलेंगे… याद है?” मीरा की आँखों से और तेज़ आँसू गिरे। यह वही बात थी जो केवल अभिषेक जानता था।
लेकिन तभी आत्मा चीख पड़ी। उसका स्वर बिजली के शोर जैसा था। अभिषेक की देह ऐंठने लगी, उसकी आँखें फिर से लाल हो गईं। वह गुर्राया, “झूठ! यह मेरा शरीर है!” और उसने मीरा की ओर झपट्टा मारा।
मीरा ने बिना सोचे तीली को फर्श पर गिरा दिया। परदा धधक उठा, आग लपटों में फैल गई। आत्मा ने एक भयानक चीख मारी। अभिषेक का शरीर आग में तड़पने लगा। मीरा का दिल फट रहा था—उसका प्रिय आग में जल रहा था, और वह कुछ नहीं कर पा रही थी।
फर्श की दरारें खुल गईं। राख से बने हाथ, हड्डियों के ढाँचे, सब आग में जलने लगे। कमरा भयानक चीत्कार से भर गया। आत्मा धुएँ में मरोड़ खा रही थी, और अभिषेक का चेहरा बीच-बीच में साफ़ दिखता, मदद की गुहार लगाता। “मीरा…”
मीरा चीख-चीखकर रोने लगी। उसने अपनी छाती पर हाथ मारा और बुदबुदाई, “माफ़ करना, अभिषेक… मैं तुम्हें ऐसे दर्द में नहीं छोड़ सकती।” उसने जलती हुई लकड़ी उठाई और पूरी ताक़त से अभिषेक के चारों ओर फैली छाया पर मारी। आग भड़क उठी और आत्मा दर्द से तड़पकर बाहर निकल गई।
एक पल को सब रुक गया। कमरा धधकती आग में घिरा था। अभिषेक ज़मीन पर गिर पड़ा, बेहोश, उसका शरीर जल चुका था लेकिन अब उसमें कोई हरकत नहीं थी। आत्मा धुएँ का गुबार बनकर बाहर निकल रही थी, उसकी चीखें गूँज रही थीं—“तुमने मुझे धोखा दिया… मैं लौटूँगी… लौटूँगी…”
मीरा उसके पास घुटनों के बल बैठ गई। उसने काँपते हाथों से उसका चेहरा उठाया। उसका साँस बहुत हल्का था, मानो बुझती लौ। वह फुसफुसाया, “मीरा… तुमने सही किया… अब मैं आज़ाद हूँ…” और उसकी आँखें धीरे-धीरे बंद हो गईं।
मीरा की चीख कमरे में गूँज उठी। आग ने सब कुछ निगल लिया—पलंग, दीवारें, खून के दाग़, और उसका सबकुछ।
आग बुझ चुकी थी, राख की गंध अब भी हवा में घुली थी। पूरी बिल्डिंग खाली करवा दी गई थी। पुलिस ने रिपोर्ट में सबको समझाने के लिए वही लिखा—“इलेक्ट्रिक फॉल्ट, शॉर्ट सर्किट, हादसा”। लेकिन मीरा जानती थी कि यह सिर्फ़ काग़ज़ों की सच्चाई थी, हकीकत नहीं। उसके सामने राख के ढेर में सिर्फ़ अधजला पलंग पड़ा था और पास ही अभिषेक की राख में बदली देह। वह घंटों वहीं बैठी रही, बिना हिले-डुले, जैसे समय उसके लिए थम गया हो।
उसकी आँखें सूख चुकी थीं, आँसुओं की जगह अब खामोशी थी। उसने सोचा, क्या यह सब यहीं खत्म हो गया? क्या अभिषेक की आत्मा सचमुच मुक्त हो गई? या वह भी उस आग के साथ कहीं फँस गया?
कुछ दिनों बाद मीरा अपने मायके लौट गई। लोग उसे देख कर फुसफुसाते थे—“बेचारी… अभी शादी हुई थी, और पति चला गया।” लेकिन उसे किसी की सहानुभूति की ज़रूरत नहीं थी। उसके भीतर अब भी वही आवाज़ गूँज रही थी—अभिषेक की, या शायद रंजना की—“मीरा…”
रातें सबसे भारी हो जाती थीं। जब वह बिस्तर पर लेटती तो नीचे से कभी-कभी खरोंचने की हल्की-सी आवाज़ सुनाई देती। वह तुरंत उठकर देखती—फर्श साफ़ रहता, कोई निशान नहीं। लेकिन उसके दिल में शक और डर गहराता जाता। क्या आत्मा सचमुच जल गई? या अब उसने उसे अपना निशाना बना लिया है?
एक रात, वह किताब पढ़ते-पढ़ते सो गई। अचानक उसे महसूस हुआ कि कोई उसके पैरों को छू रहा है। वह चौंककर उठी—कमरे में सन्नाटा था। खिड़की से आती हवा पर्दों को हिला रही थी। उसने सोचा शायद सपना था। वह वापस लेट गई। लेकिन तभी उसके कानों में बहुत करीब से एक ठंडी फुसफुसाहट आई—“तुमने मुझे जला दिया… पर मैं खत्म नहीं हुई…”
मीरा का पूरा शरीर ठंडा पड़ गया। उसने काँपते हुए नीचे झाँका। अंधेरे में उसे साफ़ दिखा—बिस्तर के नीचे दो लाल आँखें चमक रही थीं, बिल्कुल वैसी ही जैसी उसने पहली बार फ्लैट 203 में देखी थीं। और उसी पल उसे समझ आया—आग ने उस आत्मा को नष्ट नहीं किया, सिर्फ़ मुक्त कर दिया। अब वह पलंग से बँधी नहीं थी, अब वह कहीं भी उसका पीछा कर सकती थी।
मीरा चीख पड़ी और कमरे की बत्ती जला दी। आँखें ग़ायब हो चुकी थीं। लेकिन उस रात के बाद से उसने महसूस करना शुरू किया—कोई उसकी परछाईं के साथ चलता है, कोई उसके हर साँस के साथ साँस लेता है, कोई उसके हर सपने में घुस आता है।
आख़िरी बार उसने अपने डायरी में लिखा—
“शायद मृत्यु मुक्ति होती है, पर अधूरी आत्माओं की कोई मुक्ति नहीं होती। मैंने अभिषेक को खो दिया, लेकिन असली डर यह है कि अब वह आत्मा मेरे भीतर आ चुकी है। अगर कभी मेरी आँखें लाल हो जाएँ, अगर कभी मेरी हँसी तुम्हें अजीब लगे—तो समझ लेना, मीरा अब मीरा नहीं रही।”
डायरी का वह आख़िरी पन्ना आज भी वहीं मिलता है, लेकिन मीरा कहाँ गई—कोई नहीं जानता। कुछ लोग कहते हैं उसने खुद को मार लिया, कुछ कहते हैं वह शहर छोड़कर चली गई। लेकिन कई लोगों का दावा है कि रात में, अगर तुम अकेले सो रहे हो, तो तुम्हें बिस्तर के नीचे से वही खरोंचने की आवाज़ सुनाई दे सकती है।
और अगर कभी किसी ने तुम्हारा नाम फुसफुसाया—“मीरा…”—
तो समझ लो, पलंग के नीचे अब भी कोई ज़िंदा है।
समाप्त