अध्याय 1: आगमन
वाराणसी, प्राचीनता की जीवित परिभाषा।
गंगा की गोद में बसी यह नगरी, समय के प्रवाह में भी स्थिर जान पड़ती है — जैसे हर पत्थर, हर मोड़, हर गली ने सदियों की कहानियाँ अपने भीतर समेट रखी हों। सुबह की आरती, शाम की गूंजती घंटियाँ, घाटों पर बैठे साधु, और तंग गलियों में झूलती रंग-बिरंगी साड़ियाँ — सब मिलकर एक ऐसा माहौल रचते हैं, जो किसी की आत्मा को झकझोर सकता है।
और इसी शहर की एक पुरानी गली में, एक टूटी-फूटी टैक्सी रुकती है। दरवाज़ा खुलता है।
एक लम्बा, दुबला-पतला युवक बाहर निकलता है — कंधे पर एक बड़ा सा कैनवास बैग, आँखों में थकावट, और चेहरे पर एक अजीब-सी बेचैनी। ये था नवीन मिश्रा — एक कलाकार, जो शांति की तलाश में दिल्ली से भाग आया था।
“भैया, यही है न गुप्ता हवेली?” उसने ड्राइवर से पूछा।
“हाँ साहब, यही है। लेकिन… इसमें कोई नहीं रहता। आप यहीं रहेंगे?” ड्राइवर ने आश्चर्य से पूछा।
नवीन मुस्कराया, “हाँ। सस्ती जगह चाहिए थी… और अकेलापन भी।”
गली के आख़िरी छोर पर खड़ी थी वह हवेली — तीन मंज़िला, जर्जर, लेकिन अपनी उम्र को गौरव की तरह ओढ़े हुए। उसके दरवाज़े पर जंग लगे हुए किवाड़ थे, जिन पर किसी ज़माने में की गई लकड़ी की नक़्क़ाशी अब धुंधली पड़ चुकी थी। दरवाज़ा चरमराया और खुल गया।
अंदर घुसते ही धूल की एक परत नाक में भर आई, लेकिन उस बदबू में भी कुछ आकर्षण था — जैसे पुराने कागज़ों और यादों की महक।
कमरे बड़े थे, छत ऊँची थी, और खिड़कियों से छनती धूप कमरे को एक चित्र की तरह रोशन कर रही थी। दीवारों पर फटी हुई तस्वीरों के निशान थे, मानो किसी ने उन्हें जबरन उतारा हो।
“बिलकुल वैसा ही जैसा मैं चाहता था…” नवीन ने खुद से कहा।
नवीन ने शहर छोड़ने का फैसला कई महीनों तक अंदर ही अंदर पलती बेचैनी के बाद लिया था। दिल्ली की चकाचौंध में उसका रंग फीका पड़ता जा रहा था। आर्ट गैलरीज़ में प्रशंसा तो थी, लेकिन भीतर की संतुष्टि गायब थी।
उसकी अंतिम प्रदर्शनी को समीक्षकों ने ‘खोखला’ कहा था।
वो शब्द उसके कानों में अब भी गूंजते थे।
“तुम सिर्फ रंगों को भरते हो, भावनाओं को नहीं।”
उसने निर्णय लिया — कुछ समय अकेले बिताना है, खुद से जुड़ने के लिए।
और वाराणसी… वह जगह थी जहाँ वह बचपन में अपने दादा-दादी के साथ आया करता था। वही घाट, वही संकरी गलियाँ, वही रहस्य की छाया।
हवेली की पहली रात आई। बिजली की व्यवस्था ठीक-ठाक थी, लेकिन दीवारों के पीछे से आती आवाज़ें — जैसे लकड़ी के दरवाज़ों का खुद से खुलना और बंद हो जाना — उसे बेचैन करने लगीं।
“पुरानी हवेली है, आवाज़ें तो होंगी,” उसने खुद को समझाया।
वह ऊपर की मंज़िल पर स्थित कमरे में सोया। कमरे में एक बड़ा सा शीशा लगा था, दीवार से जुड़ा हुआ, शायद पुराने ज़माने की सजावट का हिस्सा।
बिस्तर पर लेटते ही उसकी नज़र उस शीशे में अपने प्रतिबिंब पर पड़ी। वह थका हुआ था, लेकिन कुछ था उस प्रतिबिंब में जो उसे अजीब लगा।
जैसे उसकी आँखें… उससे कुछ कहना चाह रही हों।
वह करवट बदल कर सो गया।
सुबह की चाय के साथ नवीन छत पर गया। वाराणसी का दृश्य सामने था — धुएँ में लिपटा हुआ, गंगा किनारे बजती आरती, दूर से आती मंदिर की घंटियाँ।
वहीं बैठकर उसने अपना कैनवास खोला और चित्र बनाना शुरू किया।
उसने घाटों का दृश्य बनाना शुरू किया, लेकिन उसका हाथ अपने आप एक अलग दिशा में चलने लगा। चित्र में वो घाट नहीं बन रहा था जो वह देख रहा था, बल्कि एक जली हुई, वीरान सी जगह उभर रही थी।
चित्र बनाते-बनाते उसके माथे पर पसीना आ गया।
“ये मैं क्यों बना रहा हूँ?” उसने बुदबुदाया।
उसने ब्रश नीचे रखा और दूर आकाश की ओर देखने लगा।
रात को फिर से वही शीशा…
इस बार उसने देखा कि जब वह खड़ा था, उसकी परछाईं कुछ देर स्थिर रही… और फिर हिली।
नवीन ने झटके से पीछे मुड़कर देखा। कमरे में कोई नहीं था।
वह शीशे के पास गया, खुद को गौर से देखा।
“शायद थकान है…”
लेकिन भीतर एक गूंज उठी — “या कुछ और?”
अगले दिन वह बाजार की ओर गया, कुछ सामान लेने। वहीं उसकी मुलाकात एक बूढ़े दुकानदार पांडे जी से हुई।
पांडे जी ने जब सुना कि वह गुप्ता हवेली में रह रहा है, उनके चेहरे की चमक एकदम फीकी पड़ गई।
“अकेले? वहाँ?” पांडे जी ने पूछा।
“हाँ, क्यों?” नवीन ने सहजता से कहा।
पांडे जी ने कुछ देर मौन रखा और फिर बोले, “वो हवेली बहुत पुरानी है… वहाँ एक ज़माने में जगतराम नाम का चित्रकार रहता था। बहुत गहरी कला थी उसमें… लेकिन फिर वो पागल हो गया। कहता था कि उसकी परछाईं उससे बात करती है।”
नवीन हँस पड़ा, “अच्छा! ये तो कहानी जैसी लगती है।”
पांडे जी ने गंभीरता से कहा, “बेटा, कहानियाँ कभी-कभी सच्चाई छुपाती हैं।”
रास्ते में नवीन सोचता रहा — क्या सिर्फ कहानी थी वो? या कोई चेतावनी?
शाम को जब वह हवेली लौटा, तो देखा कि उसके बनाए गए चित्र में एक नई आकृति उभर आई थी — उसने तो उसे नहीं बनाया था।
वो आकृति धुंधली थी, लेकिन मानो किसी की परछाईं थी।
और कैनवास के कोने में, उसने अपनी हस्तलिपि में लिखे शब्द देखे: “शुरुआत हो चुकी है।”
अध्याय 2: छाया की पहली चाल
घाटों की ओर बहती गंगा जब ढलते सूरज की नारंगी रोशनी में नहाती है, तो पूरा शहर किसी दूसरी दुनिया का हिस्सा लगता है। लेकिन नवीन की दुनिया में, अब शांति के रंग धीरे-धीरे धुंधले पड़ने लगे थे।
हवेली की दरारों से आती अजीब सी सरसराहटें, दरोदीवार पर पड़ी छायाएँ, और उसकी खुद की परछाईं का अलग चाल चलना — ये सब कुछ उसके मन में एक हलचल पैदा कर रहे थे, जो दिन-ब-दिन गहराती जा रही थी।
उस दिन दोपहर को वह अपने कमरे में बैठा था — धूप सीधे खिड़की से आ रही थी और कमरे को हल्के सुनहरे रंग में रंग रही थी। नवीन ने कैनवास खोला और एक नई पेंटिंग शुरू की — इस बार घाट का एक साधु।
लेकिन जब उसने ब्रश उठाया, तो उसे एक झटका लगा।
उसके हाथों की छाया, जो दीवार पर पड़ रही थी, ब्रश पकड़ने की मुद्रा में थी… लेकिन ज़रा सी देर से।
जैसे छाया खुद को एडजस्ट कर रही हो।
नवीन ने फौरन ब्रश नीचे रखा और दीवार को घूरने लगा।
“ये… ये कैसा मज़ाक है?” उसने बुदबुदाया।
परछाईं स्थिर हो गई। लेकिन उसकी मुद्रा अलग थी — उसके असली हाथों से थोड़ी सी मुड़ी हुई, थोड़ी असामान्य।
उसी शाम उसने एक स्व-चित्र (self-portrait) बनाने की कोशिश की — एक अभ्यास जो वह लंबे समय से करता आ रहा था। लेकिन इस बार कुछ अलग हुआ। जब उसने अपनी आँखें कैनवास पर केंद्रित कीं, और ब्रश को चलाना शुरू किया, तो चित्र में उसका चेहरा एकाएक बदल गया।
भौंहें थोड़ी ऊपर उठीं, होंठों के किनारे खिंच गए — जैसे एक रहस्यमय मुस्कान हो।
उसने ब्रश रोक दिया।
“मैंने ऐसा नहीं बनाया,” उसने खुद से कहा।
वह चित्र को ध्यान से देखने लगा। उसमें वही आंखें थीं… लेकिन उनमें जीवन कुछ अलग था — एक ऐसा जीवन जो जैसे उसे देख रहा था।
रात को वह नींद में बड़बड़ाया। उसने खुद को कुछ कहते सुना — “मैं ज़िंदा हूँ… अब मेरी बारी है…”
और फिर, जब उसने आँखें खोलीं, तो सामने शीशे में खुद को देखा।
लेकिन वह खुद लेटे हुए नहीं, खड़ा हुआ दिखा।
घबराकर वह उठ बैठा — शीशा फिर सामान्य हो गया।
उसका दिल ज़ोरों से धड़क रहा था। वह पानी पीने उठा, लेकिन कमरे से बाहर निकलते ही उसके पाँव किसी कागज़ पर पड़े।
नीचे देखा — एक स्केच।
उसका चेहरा… लेकिन आँखें बंद।
पीछे लिखा था — “तैयारी शुरू है।”
अगली सुबह वह नीचे के हिस्से में झाड़ू लगाने वाले एक बूढ़े से मिला, जो कभी-कभी हवेली के पुराने हिस्सों की सफाई कर जाता था।
“बाबूजी, आप अकेले रहते हैं?” उसने पूछा।
नवीन ने सिर हिलाया, “हाँ। क्यों?”
वह आदमी कुछ देर चुप रहा, फिर बोला, “इस हवेली में जो आखिरी आदमी रहा था, वो भी ऐसे ही धीरे-धीरे चुप हो गया था। खुद से बातें करता था… और कहता था, उसका ‘साया’ उससे ज़्यादा समझदार है।”
नवीन का दिल धड़कने लगा।
“आप उसका नाम जानते हैं?”
“जगतराम,” बूढ़ा बोला। “बहुत बड़ा चित्रकार था… लेकिन एक दिन सब खत्म कर गया। लोगों ने कहा, उसने अपनी आत्मा अपने ही चित्र में क़ैद कर दी।”
अब नवीन हर चीज़ पर शक करने लगा था। जब भी वह चलता, उसे लगता कोई और साथ चल रहा है। उसकी परछाईं दीवारों पर अलग सी हरकत करती — कभी मुड़ती नहीं, कभी अजीब सी आकृतियाँ बनतीं।
उसने कोशिश की कि पेंटिंग से कुछ दिन दूर रहे, लेकिन हर बार उसे ऐसा महसूस होता जैसे उसके अंदर कुछ बेचैन हो रहा है — कुछ जो कैनवास पर आना चाहता है।
एक दिन, उसने अचानक दीवार पर कुछ रेखाएँ खींच दीं — बिना सोचे, बिना योजना के।
कुछ ही देर में वह आकृति बन गई — दो इंसानों के बीच खिंची एक छाया, जो दोनों को खींच रही थी।
अब वह नियमित रूप से जगता था — आधी रात को।
हर बार उसे लगता कि कोई उसे देख रहा है।
एक रात जब उसने शीशे की ओर देखा, तो देखा कि उसकी परछाईं का चेहरा… उसका नहीं था।
वह कोई और था।
बाल बिखरे, आँखें गहरी, और होंठों पर एक अजीब-सी मुस्कान।
वह काँपने लगा। उसने शीशा तोड़ना चाहा, लेकिन जैसे ही हाथ बढ़ाया, उसका ही प्रतिबिंब ज़ोर से चिल्लाया — “रुक जा!”
वह पीछे गिर पड़ा।
अब उसे लगने लगा था कि हवेली खुद ज़िंदा है।
कमरे बदल जाते थे। जिन जगहों पर उसने सफाई की थी, वहाँ फिर से धूल जम जाती थी। पुराने स्केच अपने-आप दीवारों पर लौट आते थे।
एक दिन, उसने एक कोने में पुरानी तिज़ोरी जैसी कोई चीज़ देखी। उसने खोला — अंदर कागज़ों का बंडल था।
हर कागज़ पर एक ही स्केच — परछाईं का। और नीचे एक ही पंक्ति: “मैं अब तुम हूँ।”
उस रात, जब वह अपने बिस्तर पर गया, उसने दीवार पर अपनी परछाईं को देखा।
पर इस बार वह उसकी हरकतों का अनुसरण नहीं कर रही थी।
वह खुद चल रही थी।
धीरे-धीरे दीवार से उतरी, और फर्श पर खड़ी हो गई।
नवीन स्तब्ध।
परछाईं ने उसकी ओर देखा — मुस्कराई — और कहा:
“शुरुआत हो गई है, नवीन। अब तू सिर्फ रंग है। मैं आकार बन चुकी हूँ।”
अध्याय 3: गुज़रे कल की परछाई
“कभी-कभी परछाइयाँ अतीत से आती हैं… और वर्तमान को निगल जाती हैं।”
ये पंक्ति नवीन के दिमाग में बार-बार गूंज रही थी। जब से उसने अपनी परछाईं को दीवार से उतरते देखा था, उसकी चेतना का आधार ही हिल गया था। वह अब यह सोचने लगा था कि क्या उसका पागलपन शुरू हो चुका है… या फिर यह सब सच है।
लेकिन अगर सच है — तो हवेली का इतिहास उसे जानना होगा।
अगली सुबह वह सीधे पांडे जी की दुकान पर गया। वही पुराने, झुर्रियों भरे चेहरे वाला आदमी, जो अब उसे पहले से ज़्यादा गंभीर लगा।
“पांडे जी, मुझे जगतराम के बारे में सब कुछ जानना है,” नवीन ने कहा।
पांडे जी ने चाय की प्याली रखी और धीरे से बोले, “अब पूछ ही लिया… तो सुन।”
“उसका असली नाम था जगतराम वर्मा,” पांडे जी ने कहना शुरू किया। “आज से करीब पैंतीस साल पहले आया था यहाँ। जवान, ऊर्जावान, और बहुत गहरा चित्रकार।”
“शहर के लोग उसकी कला से हैरान थे। उसके बनाए चित्र ऐसे लगते जैसे अभी बोल पड़ेंगे। खासकर उसके आंखों वाले पोर्ट्रेट — उनमें कुछ था… कुछ जीवित।”
नवीन ध्यान से सुन रहा था।
“लेकिन धीरे-धीरे उसके चित्र बदलने लगे। रंग गहरे होने लगे, चेहरे डरावने। उसने हवेली में खुद को बंद कर लिया। महीनों तक बाहर नहीं निकला। लोग कहते हैं, उसने किसी तांत्रिक से संपर्क किया था — आत्मा को चित्र में बाँधने की विद्या सीखने के लिए।”
“उसका मानना था कि अगर वो किसी इंसान की ‘छाया’ को क़ैद कर ले, तो उसकी आत्मा अमर हो सकती है।”
नवीन सिहर गया।
पांडे जी ने कहा, “एक दिन अचानक वो गायब हो गया। दरवाज़ा अंदर से बंद था। जब तोड़ा गया, तो उसके कमरे की दीवार पर सिर्फ एक चित्र था — खुद का।”
“लेकिन वो चित्र मुस्करा रहा था, जबकि असली जगतराम कभी मुस्कराता नहीं था।”
“लोग कहते हैं, वो खुद अपनी छाया बन गया।”
पांडे जी की बातों से एक नई जिज्ञासा जाग उठी। नवीन ने तय किया — उसे हवेली के हर हिस्से को खंगालना होगा।
शाम होते-होते वह हवेली के सबसे नीचे वाले हिस्से में गया — जहाँ लकड़ी की सीढ़ियाँ सीलन और अंधेरे से भरी थीं। उसने टॉर्च ली और नीचे उतरने लगा।
नीचे एक पुराना कमरा मिला — छोटा, लेकिन चारों ओर चित्रों से भरा।
हर चित्र में एक ही चेहरा — जगतराम का। लेकिन हर बार अलग-अलग भाव — डर, खुशी, क्रोध, दुःख… और एक ऐसा भाव जिसे नवीन पहचान नहीं सका — शायद आत्मसंतोष? शायद विजय?
कमरे के बीचोंबीच एक लकड़ी की पुरानी मेज़ थी, जिस पर एक मोटी डायरी पड़ी थी।
डायरी में जगतराम की लेखनी थी। कुछ हिस्से धुंधले हो चुके थे, लेकिन कई बातें साफ थीं:
“मैंने देखा — परछाईं सिर्फ प्रकाश की अनुपस्थिति नहीं है। वह चेतना है।
वह हर पल हमारे साथ है, लेकिन कभी अलग होना चाहती है।”
“मैंने उसे पुकारा… और उसने उत्तर दिया।”
“अब हम दोनों एक-दूसरे को देख सकते हैं। मैं उसे चित्र में उतार रहा हूँ। लेकिन वह अब मेरे बाहर रहना चाहती है।”
“आज वह बोली — ‘अब मैं तुम्हें रंग दूँगी।’”
नवीन का गला सूख गया।
कमरे के कोने में एक पुराना, टूटा हुआ आईना पड़ा था — वही डिज़ाइन, जैसी हवेली के ऊपर कमरे में शीशे की थी।
उसने जब ध्यान से देखा, तो आईने में खुद की जगह उसे जगतराम दिखा। पर अगले ही पल दृश्य बदल गया।
“मुझे क्या हो रहा है?” उसने खुद से पूछा।
लेकिन जवाब किसी और ने दिया — एक धीमी फुसफुसाहट में:
“तू अब देख नहीं रहा… तू अब बन रहा है।”
अचानक उसे अहसास हुआ कि कमरे के सारे चित्र — अब उसकी ओर देख रहे हैं।
जैसे उनमें कुछ जाग उठा हो।
वह घबरा गया। कमरे से निकलने के लिए दौड़ा, लेकिन एक चित्र की कोहनी उसकी कमीज़ से सचमुच उलझ गई।
वह चौंका — उस चित्र की कोहनी दीवार से बाहर निकली हुई थी।
“नहीं… यह भ्रम है,” उसने खुद से कहा और दौड़कर ऊपर आया।
जब वह ऊपर आया, तो हवेली उसे अलग लगी।
कमरे की संरचना बदल गई थी।
जिन खिड़कियों से रोशनी आती थी, वे अब बंद थीं। जिन दीवारों पर उसने खुद के चित्र बनाए थे, वहाँ अब जगतराम की परछाईं थी — एक जैसी मुद्रा में, जैसे वह हर बार उसकी नकल कर रही हो।
उसे लगा वह पागल हो रहा है।
लेकिन फिर… उसने दीवार पर खुद के बनाए स्केच में अपना नाम नहीं देखा।
वहाँ लिखा था —
“JAGATRAM LIVES.”
वह छत पर गया, खुद को संभालने।
गंगा दूर चमक रही थी — लेकिन उसकी सतह पर उसकी परछाईं दिख रही थी।
परछाईं… उसे देखकर मुस्करा रही थी।
नवीन ने पीछे देखा — वह अकेला था।
फिर नीचे देखा — अब परछाईं ने हाथ से इशारा किया।
“आ जा…” जैसे आमंत्रण दे रही हो।
उस रात नवीन ने डायरी के अंतिम पृष्ठ पर लिखा:
“मैं जानता हूँ कि मैं अब अकेला नहीं हूँ।
वो अब मेरे भीतर है।
और मैं धीरे-धीरे ‘मैं’ नहीं रह रहा…”
अध्याय 4: दरारें मन में
“मन कभी पूर्ण नहीं टूटता — वह दरारों में छिपकर चीखता है।”
नवीन अब वही नहीं था जो कुछ सप्ताह पहले वाराणसी आया था। उसके चेहरे पर बेचैनी की रेखाएँ थीं, आँखों के नीचे गहरे काले घेरे, और उसके कैनवस अब उसकी आत्मा के नहीं, किसी और की इच्छा के प्रतिबिंब बन गए थे। हवेली का हर कोना, हर दर, हर परछाईं — जैसे अब उसे पहचानती थी। और वह खुद… जैसे भूलता जा रहा था कि वह कौन है।
उस दिन सुबह होते ही उसने आईने में झाँका — और रुक गया।चेहरा वही था, लेकिन आँखों में कोई और था। वो ‘दूसरा’ जो मुस्करा रहा था।
उसकी परछाईं अब हरदम कुछ सेकंड देर से चलती — जैसे अपने निर्णय खुद ले रही हो। और कभी-कभी, वह अपनी जगह से हटकर खिड़की के पास चली जाती, वहां खड़ी होकर बाहर देखती।
“तुम क्या देख रही हो?” नवीन ने पूछा।
कोई उत्तर नहीं मिला।
लेकिन उसका दिल कह रहा था — वह कुछ खोज रही है। रातें अब बोझ बन चुकी थीं। हर बार वह सोने की कोशिश करता, तो उसे किसी की फुसफुसाहट सुनाई देती।
“तू थक गया है न?”
“मैं संभाल लूंगी सब।”
कई बार वह नींद में खुद को चलता हुआ पाता — हवेली के गलियारों में, चित्रों को छूते हुए। सुबह जब उठता, तो उसके हाथ रंगों से सने होते — लाल, काले, और गहरे नीले।
लेकिन उसने तो कोई चित्र नहीं बनाया होता।
या शायद… उसे याद नहीं।
अब वह जगतराम की डायरी को पढ़ने लगा था, जैसे उसमें से जवाब निकालना चाहता हो। पन्ने अब खुद-ब-खुद पलटते, जैसे हवेली उसे कुछ दिखाना चाहती हो।
“जब छाया तुम्हारे भीतर आ जाए, तब चेतना की सीमाएँ मिटने लगती हैं।
तुम उसे रोक नहीं सकते। तुम बस गवाह बनते जाते हो।”
“मैंने खुद को खो दिया था — और तब जाकर वो मुझे पूरी तरह पा सकी।”
नवीन को ये पंक्तियाँ अब परिचित लगती थीं। जैसे कोई उसके अनुभवों को पहले ही लिख गया हो।
एक दिन उसने खुद से बात करने की कोशिश की।
“मैं कौन हूँ?” उसने आईने में पूछा।
पर जवाब आईने से नहीं आया।
जवाब उसके भीतर से आया — लेकिन किसी और की आवाज़ में।
“नवीन एक नाम था। अब वह सिर्फ याद है। अब मैं हूँ।”
उसके रोंगटे खड़े हो गए।
उसने ज़ोर से चिल्लाया, “मैं ज़िंदा हूँ! तुम नहीं हो!”
पर उसके पीछे से उसकी परछाईं ने कहा — “तू ज़िंदा है, क्योंकि मैं तुझे जीने दे रही हूँ।”
हवेली के पास के मुहल्ले में एक मनोचिकित्सक थीं — डॉ. सुमेधा। वह पहले भी कुछ स्थानीय कलाकारों के केस देख चुकी थीं।
नवीन उनसे मिलने गया।
“आप क्या अनुभव कर रहे हैं?” उन्होंने शांत स्वर में पूछा।
नवीन ने सब बताया — परछाईं, चित्र, आईना, आवाज़ें…
सुनते-सुनते डॉ. सुमेधा की आँखों में कुछ कौंधा।
“क्या आपको पता है, कि जो हवेली आपमें रह रहे हैं — उसमें पहले भी एक केस आया था? तीस साल पहले।”
“जगतराम?” नवीन ने पूछा।
वह चौंकी।
“हाँ। आप कैसे जानते हैं?”
नवीन कुछ नहीं बोला। बस बोझिल आँखों से उनकी ओर देखा।
“आपका दिमाग़ शायद डिपरसन और क्रिएटिव आइडेंटिटी डिसऑर्डर से जूझ रहा है,” सुमेधा ने कहा। “या फिर, यह कोई सायकोजेनिक ट्रान्स स्टेट हो सकता है।”
नवीन ने धीरे से कहा, “या शायद… मैं वो बन रहा हूँ जो पहले कोई और बन चुका था।”
वो चुप हो गईं।
“अगर ऐसा है,” उन्होंने कहा, “तो आपके पास समय बहुत कम है।”
वापस हवेली लौटने पर नवीन ने तय किया — वह अंतिम चित्र बनाएगा।
एक ऐसा चित्र जो सच और भ्रम के बीच की दीवार को पार कर जाए।
उसने कैनवस खोला, और ब्रश उठाया।
इस बार उसका हाथ कांप नहीं रहा था।
उसके मन में एक ही उद्देश्य था — खुद को वापस पाना।
रंग उसके हाथों से ऐसे बह रहे थे जैसे आत्मा से निकल रहे हों।
आख़िरी स्ट्रोक डालते ही, उसने देखा — चित्र में दो चेहरे थे।
एक उसका।
और दूसरा — वही मुस्कराती परछाईं। अगली रात जब वह सोया, तो सपने में वह एक दरवाज़े के सामने खड़ा था। दरवाज़े के दूसरी तरफ वही परछाईं खड़ी थी। उसने कहा — “एक बार खोल देगा… तो फिर तू बाहर नहीं जा सकेगा।”
नवीन ने पूछा, “क्या होगा अगर मैं इनकार कर दूं?”
“तो मैं खोल दूँगी। क्योंकि अब यह दरवाज़ा तेरे बाहर नहीं… भीतर है।”
अब नवीन को हर आवाज़, हर ध्वनि, हर अनुभूति पर संदेह होने लगा था। क्या वह अभी भी जागा हुआ है?
क्या वह अब खुद है?
क्या उसकी सोच अब भी उसकी है — या अब वह सिर्फ एक मेज़बान है?
रात के अंधेरे में, जब हवेली शांत हो जाती, तो कहीं से धीमे स्वर में कोई गुनगुनाता… “तू नहीं, तू नहीं, अब मैं हूँ तेरी छाँव में।”
अध्याय 5: अंतिम दर्पण
“जब आत्मा दो हिस्सों में बँट जाए, तब आईना यह तय करता है कि असली कौन है।”
हवेली में अब शांति नहीं थी — वह एक सन्नाटा था जो साँसों की भी आवाज़ निगल जाता था। नवीन को अब हर क्षण लगने लगा था कि वह केवल देख नहीं रहा… उसे देखा जा रहा है। और अब, परछाईं का इरादा साफ़ था — उसकी जगह लेना।
लेकिन क्या यह सब एक मानसिक भ्रम था? या सचमुच कोई अलौकिक शक्ति थी जो उसके भीतर धीरे-धीरे घर बना रही थी?
दरवाज़ा जो भीतर खुलता है
उस रात, वह फिर उसी सपने में पहुँचा।
वही दरवाज़ा।
इस बार दरवाज़े पर लिखा था — “स्वयं में प्रवेश करें।”
दरवाज़ा अब खुला था। और भीतर… एक कमरा, जिसकी दीवारें शीशे से बनी थीं।
हर दीवार पर उसका प्रतिबिंब था — लेकिन हर शीशा अलग भाव लिए हुए। कोई हँस रहा था, कोई रो रहा था, और एक — बस देख रहा था। निर्मम, ठंडा, चुपचाप।
वहीं बीच में थी परछाईं — इंसानी रूप में, अब पूरी तरह नवीन जैसी दिखती हुई।
उसने कहा, “अब निर्णय का समय है। या तो तू मुझे दे दे, या मैं ले लूँगी।”
नवीन घबराकर उठ बैठा। सुबह का समय था। वह दौड़कर फिर सुमेधा के पास पहुँचा।
“मेरे अंदर अब कोई और है,” वह बोला। “मैं उसे महसूस कर सकता हूँ।”
सुमेधा ने गंभीरता से कहा, “हमारे भीतर एक छाया होती है — Jungian shadow — जिसे हम अनदेखा करते रहते हैं। लेकिन कभी-कभी, वह इतनी बड़ी हो जाती है कि हमारी चेतना पर हावी होने लगती है।”
“आपके केस में… यह छाया शायद सिर्फ मानसिक नहीं है। अगर वह एक विचार से ज़्यादा है — एक इकाई बन चुकी है — तो उसे रोकने के लिए आपको अपनी पूरी ‘इच्छा’ जगानी होगी।”
“कैसे?” नवीन ने पूछा।
सुमेधा ने धीमे स्वर में कहा —
“उसे उसी के घर में हराओ — आईने में।”
नवीन ने निर्णय लिया — वह अब भागेगा नहीं। उसी कमरे में जाएगा जहाँ से सब शुरू हुआ था — हवेली के ऊपर वाला आईना कक्ष।
वहाँ एक गोलाकार शीशा था, जो दीवार से छत तक फैला था। उसके केंद्र में एक लाल धब्बा — शायद ख़ून का, शायद रंग का, या शायद… कुछ और।
जब वह कमरे में दाखिल हुआ, तो दरवाज़ा खुद-ब-खुद बंद हो गया। और फिर सामने प्रकट हुई — वह परछाईं।
अब वह केवल परछाईं नहीं थी — पूरी तरह इंसान का आकार ले चुकी थी। लेकिन उसकी आँखों में कोई चमक नहीं थी — सिर्फ गहराई।
नवीन ने कहा, “तुम मुझे क्यों चाहिए?”
परछाईं मुस्कराई — वही मुस्कान जो अब उसके सपनों की हिस्सा बन गई थी।
“क्योंकि तू जिंदा है। और मुझे बस एक शरीर चाहिए… जिसमें मैं अपना अस्तित्व महसूस कर सकूं।”
“तू मेरी रचना है,” नवीन ने कहा।
“नहीं,” परछाईं बोली, “मैं उस चित्रकार की रचना हूँ… तू तो सिर्फ अगला माध्यम है।”
“तू कलाकार है, पर कला अब तुझ पर हावी है।”
आईना चमकने लगा। कमरे में हवाएं चलने लगीं। कैनवस दीवारों से फटने लगे, चित्र चटकने लगे।
नवीन ने आंखें बंद कीं — और अपनी चेतना पर ध्यान केंद्रित किया।
“मैं हूँ… मैं हूँ… मैं हूँ…” उसने दोहराया।
लेकिन तभी — एक ज़ोर का झटका लगा।
आईने में अब दो प्रतिबिंब थे — दोनों नवीन।
एक वास्तविक, एक छायात्मछायात्ষ।
आईने से एक ध्वनि आई — एक पुराना मंत्र:
“जिसका आत्मबल स्थिर, वही शुद्ध;
जिसका अभिप्राय स्पष्ट, वही असली।”
दोनों नवीन अब आमने-सामने खड़े थे।
अचानक छायात्मक नवीन ने कहा —
“तू डरता है। मैं नहीं। यही मेरी शक्ति है।”
नवीन ने कहा —
“लेकिन तू चाह कर भी नहीं रो सकता। यही मेरी इंसानियत है।”
आईना चटकने लगा।
फिर एक तेज़ रोशनी फैली।
और जब धूल छंटी —
कमरे में सिर्फ एक नवीन खड़ा था।
कमरे के टूटे हुए आईने में उसने खुद को देखा।
चेहरा वही था।
पर आंखें…
थोड़ी ठंडी, थोड़ी गहरी।
वह मुस्कराया।
लेकिन फिर मुस्कराना छोड़ दिया — और धीरे से कहा:
“अब मैं हूँ…”
कई हफ्तों बाद…
हवेली फिर शांत है।
एक नई किरायेदार आई है — एक लेखिका, प्रेरणा की तलाश में।
हवेली उसे पसंद आई है।
वह जब कमरे में गई, तो देखा — दीवार पर एक पुराना स्केच है।
एक आदमी खड़ा है — और उसकी परछाईं मुस्करा रही है।
वह मुस्करा कर बोली, “अजीब है… यह परछाईं असली सी लगती है।”
पीछे से एक धीमी आवाज़ आई:
“यहाँ परछाइयाँ कभी पीछे नहीं होतीं…”
समाप्त