Hindi - प्रेतकथा

पंचम गली की आत्मा

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नवनीत मिश्रा


बनारस के घाटों से दूर, पुराने शहर के भीतर एक मुड़ी-तुड़ी सी गलियों की भूलभुलैया में बसी थी पंचम गली — एक ऐसी जगह जो शहर के नक्शे में शायद दर्ज भी न हो, पर लोगों की यादों में सदी भर की कहानियाँ समेटे जीवित थी। यहीं पोस्टिंग हुई थी सब-इंस्पेक्टर अर्पित चौधरी की। अपने कंधों पर सख्त बूटों की टकटक, आँखों में यकीन और जेब में पिता का पुराना कम्पास लिए, अर्पित ने पहली बार उस गली में कदम रखा था जब दिन उतरकर संध्या की बाँहों में समा चुका था। गली की हवा में एक अजीब सी नमी और डर की घुली सुगंध थी — जैसे दीवारें खुद साँस ले रही हों। पुरानी खपरैल की छतों से टपकती बूंदें, बंद दरवाज़ों की झिर्रियों से झाँकती निगाहें, और दीवारों पर सालों पुरानी टिकी ‘मौन’ — यह सब कुछ एक अलिखित चेतावनी बन कर सामने खड़ा था। स्थानीय लोगों ने उसे मकान दिलवाया था, लेकिन साथ ही जो बात सबकी ज़ुबान पर थी — “बाबूजी, पंचम गली में रात को बाहर मत निकलिए… और अमावस्या की रात तो भूल के भी नहीं।” अर्पित मुस्कराया था, ऐसे जैसे किसी बच्चे ने भूतों की कहानी सुना दी हो। परंतु उस रात, अमावस्या की पहली हवा के साथ, जब उसकी खिड़की के बाहर अचानक एक नारी स्वर की भीषण चीख गूंजी, तो उसके हाथ से चाय का कप गिर पड़ा था।

अर्पित चौधरी का विश्वास था कि हर रहस्य के पीछे कोई न कोई तार्किक व्याख्या होती है। भूत, आत्मा, टोना—सब उसके लिए समाज की रूढ़ियों की उपज थी। लेकिन उस चीख में कुछ था — एक पीड़ा, एक घुटन, जैसे आत्मा खुद पिघल कर आवाज़ बन गई हो। अगली सुबह जब वह गली में लोगों से उस चीख के बारे में पूछने गया, तो सबने अजीब ढंग से आँखें चुराईं। एक बुज़ुर्ग महिला ने कहा, “बीस साल से हर अमावस्या को ये आवाज़ आती है। यह रूपा की आवाज़ है… जो उस हवेली में गायब हुई थी।” हवेली — गली के अंतिम छोर पर स्थित एक काले रंग की वीरान कोठी, जिसकी खिड़कियाँ टंगी रहती हैं, लेकिन कभी खुलती नहीं। कुछ बच्चों ने कहा, “वो दीदी अब भी हमें देखती है… कभी-कभी…” अर्पित हँसा नहीं। यह पहला अवसर था जब वह खुद उस आवाज़ का गवाह बना था। उसने थाने में लौटकर पुराने केस फाइल देखने की कोशिश की — लेकिन कोई फाइल ‘रूपा’ नाम की नहीं थी। या तो हटा दी गई थी, या कभी दर्ज ही नहीं हुई। जैसे यह पूरी घटना सिर्फ अफवाह भर थी — एक लोककथा जो गलीवालों ने अपने डर से जन्म दी थी। लेकिन उस रात, जब अर्पित नींद में था, उसे अचानक लगा जैसे कोई उसके कान में फुसफुसाया — “मैं अब भी यहीं हूँ।”

तीसरी सुबह तक, अर्पित की जिज्ञासा बेचैनी में बदल चुकी थी। गली की खामोश दीवारें उससे कुछ कहने की कोशिश कर रही थीं। मोहल्ले के पुराने दर्ज़ी फैज़ल मियां ने उसे चुपचाप एक चाय की दुकान पर बैठा कर कहा, “साहब, मत छेड़िए इस गली को। यहाँ की ईंटों में ख़ून समाया है।” लेकिन अर्पित को पीछे हटना नहीं आता था। उसने तहकीकात की ठानी। मगर गली के लोग कोई सीधा जवाब नहीं देते — वे या तो डरते थे या कुछ छुपा रहे थे। और तभी एक शाम तनु मिश्रा नाम की एक स्थानीय पत्रकार ने उससे संपर्क किया। तनु ने बताया कि उसने खुद रूपा केस पर कई साल पहले रिसर्च की थी, लेकिन सारे सबूत धीरे-धीरे ‘गायब’ होते चले गए। “कुछ तो है जो शहर के लोग नहीं चाहते कि सामने आए,” उसने कहा। उसकी आँखों में जुनून था, और शायद एक डर भी। अर्पित को अब यकीन हो चला था कि पंचम गली की आत्मा महज एक डरावनी कल्पना नहीं, बल्कि एक दबी हुई सच्चाई का प्रतीक थी — एक ऐसी सच्चाई जो २० साल से दफन थी, पर हर अमावस्या को खुद को आवाज़ देती थी। उस दिन अर्पित ने निर्णय लिया: “अगर इस गली में कोई आत्मा है, तो मैं उसे सामने लाऊँगा। और अगर कोई हत्यारा है, तो उसे भी।” उसने शायद यह नहीं सोचा था कि इस निर्णय के बाद हर कदम उसे खुद उसकी अपनी चेतना से दूर ले जाएगा — जहां तर्क और भ्रम की रेखा धीरे-धीरे मिटने लगेगी।

थाने की पुरानी इमारत की दीवारें बरसों की नमी और धूल से ढकी हुई थीं। लकड़ी की अलमारियों में जंग लगे ताले और बेढब रूप से ठुंसी हुई फाइलें मानो अपने भीतर राज़ दबाकर बैठी थीं। अर्पित चौधरी ने थानेदार से जब २० साल पहले की मिसिंग रिपोर्ट माँगी, तो जवाब आया—”साहब, पुराने रिकॉर्ड में सबकुछ नहीं मिलता। उस समय कम्प्यूटर भी नहीं थे।” मगर अर्पित हार मानने वालों में नहीं था। उसने थाने के स्टोररूम की चाबी ली और खुद अंदर उतर गया। बिजली की टिमटिमाती ट्यूब लाइट और एक पसीने से भीगी चुप्पी के बीच, वह घंटों फाइलें पलटता रहा — हत्या, आत्महत्या, चोरी, गुमशुदगी। फिर, एक मोटी लाल जिल्द में बंधी, ज़रा-सी टेढ़ी फाइल में उसे मिली “रूपा मिश्रा – गुमशुदगी रिपोर्ट (२००५)”। फाइल की तारीखें अमावस्या के एक दिन बाद की थीं। रिपोर्ट में लिखा था — “उम्र: १८ वर्ष। अंतिम बार देखी गई: पंचम गली की हवेली के पास। कोई सुराग नहीं। परिवार नहीं बचा। केस बंद किया गया।” नीचे साइन था: एस.आई. जगमोहन तिवारी। और बस — दो पेज, तीन लाइनें, और एक गायब लड़की की जिंदगी एक सरकारी ठप्पे में समेट दी गई थी।

उस रात, फाइल लेकर अर्पित तनु से मिला। तनु पहले से ही पुराने अख़बारों की कटिंग्स, स्थानीय कहानियाँ और पंचम गली के लुप्त दस्तावेज़ों के साथ तैयार थी। उसने अर्पित को बताया कि 2005 में उस गली से कई अजीब घटनाओं की खबरें छपी थीं — मवेशियों की गुमशुदगी, बच्चों का बीमार पड़ जाना, और सबसे बड़ा – एक “तान्त्रिक महिला” का वहां कुछ महीने रहना, जो अचानक लापता हो गई। अख़बार की एक कतरन में लिखा था: “पंचम गली में काली शक्तियों का प्रभाव!” तनु ने कहा, “अर्पित, ये सिर्फ मिसिंग केस नहीं है। ये किसी सांस्कृतिक, शायद तांत्रिक अपराध से जुड़ा है। और इस फाइल को इतने साल चुपचाप रखना… ये भी कोई इत्तेफाक नहीं।” अर्पित पहली बार उलझन में पड़ा। अब मामला सिर्फ गली की आत्मा या आवाज़ का नहीं था — ये एक योजनाबद्ध गुमशुदगी, हो सकता है हत्या और तंत्र की साजिश थी। उसने फैसला किया: अगला कदम होगा उस हवेली में जाना, जहाँ से रूपा को अंतिम बार देखा गया था।

अगली दोपहर, सूरज की धीमी रोशनी में अर्पित और तनु पंचम गली के आखिरी कोने की ओर बढ़े — वहीं जहाँ हवेली थी, एक पत्थर की जर्जर कोठी जिसके बाहर काई जमी हुई थी और जंग लगे गेट के ऊपर किसी समय “मिश्रा निवास” लिखा होगा। अब नाम मिट चुका था, बस दर्द बचा था। हवेली को देखकर तनु अचानक रुक गई, उसका चेहरा पीला पड़ गया। “मैं…मैं यहाँ पहले आई हूँ…” उसने धीमी आवाज़ में कहा, जैसे कोई भूली याद उसे अंदर से चीर रही हो। अर्पित ने दरवाज़ा धक्का दिया — अंदर सब कुछ वीरान था। फर्श पर बिखरे पुराने खिलौने, छत से लटकती मकड़ी की जालियाँ और दीवारों पर खुरच कर बनाए गए कुछ चिह्न — त्रिकोण, चक्र और एक स्त्री की आकृति। एक कोना था जहाँ धूप नहीं पहुँचती थी, और वहीं से आई थी एक सर्द हवा की लहर। अर्पित को लगा जैसे कोई वहाँ अब भी मौजूद है — देख रहा है, सांस ले रहा है, और चुपचाप उन्हें छूकर निकल गया। तनु की आँखें भर आईं — “ये वही जगह है… जहां रूपा आखिरी बार गई थी।” और शायद… वही अब भी यहीं है, कहीं उसी कोने में, उसी परछाईं में।

पंचम गली की हवेली से लौटते ही अर्पित को ऐसा लग रहा था जैसे उसकी नसों में दौड़ती गर्म सांसें किसी अनजानी सर्द छाया से टकरा रही थीं। तनु चुप थी, उसकी आंखों में हवेली की छाया अब भी टिकी थी। रात होते-होते गली फिर वैसी ही हो गई — खामोश, संकुचित, और आकाश में अंधेरा बर्फ की तरह उतरता हुआ। मगर अमावस्या नहीं थी, फिर भी हवा में अजीब सी घुटन थी। गली के किसी कोने से नन्हें घंटियों की झंकार और मन्द स्वर में किसी की गुनगुनाहट आती थी — मानो कोई किसी अदृश्य देवता को प्रसन्न कर रहा हो। अर्पित ने गली के कुछ पुराने निवासियों के नाम पता किए, और तब उसे पता चला उस गली में सबसे प्राचीन और अनुभवी व्यक्ति थे – गुड्डन बाबा। 85 वर्षीय बाबा का घर गली के एक ऐसे कोने में था जहाँ दीवारों पर काई नहीं, बल्कि वर्षों पुरानी तुलसी की बेलें फैली थीं, और दरवाज़े के बाहर काले धागों और राख से बनाई गई रेखाएं गड़ी थीं, जैसे किसी पुरानी सुरक्षा प्रणाली की शेष परछाईं।

अर्पित ने बाबा से मिलने का समय माँगा, और उन्हें वही पुराना केस और हवेली के बारे में बताया। बाबा की आँखों में जैसे किसी पुराने दाग की जलन तैर गई। वो चुपचाप एक चौकी पर बैठे, पास में एक धूपदानी धुआँ छोड़ रही थी, और बोले, “तुम वो सब देखना चाहते हो, जिसे इस गली ने भूल जाना सीखा है। बेटा, हर कहानी का अंत नहीं होता… कुछ बस चुपचाप चलते रहते हैं, हवा की तरह। रूपा की कहानी वैसी ही थी।” अर्पित ने पूछा, “क्या आप जानते हैं कि उस रात को क्या हुआ था?” बाबा कुछ देर मौन रहे, फिर बोले, “रूपा उस हवेली में अकेली नहीं गई थी। उसे बुलाया गया था — झूठे प्यार, झूठी आस और तांत्रिक लालच के तहत। लेकिन जिसने उसे बुलाया, उसने उसे छोड़ा नहीं। वो रात अमावस्या थी… और पंचम गली की सबसे डरावनी रात भी।” उन्होंने बताया कि उस रात को लोगों ने कुछ सुना था — नाद, चीखें, और मंत्र। पर पुलिस आई नहीं, और अगली सुबह हवेली खाली मिली। कोई शव नहीं, बस हवा में रह गई उसकी सिसकी। बाबा ने कहा, “हर अमावस्या की रात वो लौटती है — शायद न्याय माँगने, शायद बदला लेने।” फिर, उन्होंने अर्पित की ओर देखकर धीमे पर साफ स्वर में कहा: “जो उसे ढूंढता है, वो खुद खो जाता है।”

अर्पित लौटते समय भीतर से हिल चुका था। बाबा की आँखों में डर नहीं था — बल्कि एक अजीब स्वीकार्यता थी, जैसे वह जानते थे कि समय अपने घाव खुद खोलता है। रास्ते में तनु ने उससे पूछा, “क्या आप मानते हैं, आत्मा वाकई लौटती है?” अर्पित ने पहली बार कुछ नहीं कहा। उस रात, गली की दीवारें उसके सपनों में आईं — खून सनी, साँपों सी लहराती दीवारें, जिनमें से निकलती थी एक लड़की — बिना चेहरा, पर आँखों में अनगिनत सिसकियाँ। उसने अर्पित के कान में फुसफुसाया: “मुझे कोई नहीं ढूंढता… क्या तुम मुझे ढूंढोगे?” सुबह, जब वह पसीने से तर अपने कमरे में उठा, उसकी हथेली पर राख की एक छोटी सी आकृति थी — एक त्रिकोण, बिल्कुल वैसी ही जैसी हवेली में दीवार पर उकेरी हुई थी। और तभी उसे एहसास हुआ — यह सिर्फ एक गुमशुदगी का केस नहीं था। यह एक ऐसे दायरे की शुरुआत थी, जो एक बार खुल गया, तो कभी बंद नहीं होगा।

पंचम गली में अमावस्या के अगले दिन का सूरज हमेशा कुछ फीका लगता था, मानो रात की परछाई अब भी दीवारों से लिपटी हुई हो। मगर इस बार अमावस्या बीते तीन दिन हो चुके थे, फिर भी गली में एक अजीब तनाव मंडरा रहा था। सब-इंस्पेक्टर अर्पित चौधरी ने अपनी जाँच तेज़ कर दी थी—रूपा की कहानी, गुड्डन बाबा की चेतावनी, और हवेली की दीवारों पर बने रहस्यमयी चिह्न सब उसे एक ही ओर खींच रहे थे। लेकिन एक ऐसा मोड़ आने वाला था जो सिर्फ अतीत नहीं, वर्तमान को भी चीर देगा। मोहल्ले का एक नवयुवक, राहुल, जो अक्सर अर्पित से मजाक करता और आत्माओं की कहानियों को बकवास कहता था, अचानक ग़ायब हो गया। उसकी माँ, रोती-बिलखती, अर्पित के पास आई और बोली, “वो कल रात गया था… कह रहा था कि हवेली में जाकर साबित करेगा कि कोई आत्मा नहीं होती। अब सुबह हो गई, पर वो लौटा नहीं।” गली में सन्नाटा छा गया था। एक के बाद एक बंद दरवाज़ों के पीछे से फुसफुसाहटें उठने लगीं—”फिर से वही हुआ?” “अबकी बार जवान लड़का गया है…” और सबकी नज़रें उस हवेली की ओर टिक गईं जो अब जैसे सांस ले रही थी।

अर्पित ने तुरंत थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई और खुद तनु के साथ हवेली की ओर बढ़ा। उसके भीतर गहराती बेचैनी थी—इस बार ये सिर्फ भूतिया कहानी नहीं थी, ये वर्तमान में घट रही घटना थी। हवेली के भीतर कदम रखते ही हवा ठंडी और भारी हो गई। दीवारें अब भी वैसी ही थीं—जैसे किसी ने समय रोक दिया हो। लेकिन इस बार फर्श पर मिट्टी में खिंची रेखाएं थीं—कदमों के निशान, जो भीतर के एक कमरे की ओर जाते थे। वह कमरा जो अब तक बंद था। अर्पित ने दरवाज़ा धक्का देकर खोला—सामने एक कोठरी थी जिसमें धूल, राख और ताजे रक्त की हल्की गंध मिली-जुली थी। कमरे के कोने में राहुल का मोबाइल फोन पड़ा था, स्क्रीन अब भी ऑन थी, जैसे किसी ने हाल ही में वीडियो रिकॉर्ड करने की कोशिश की हो। वीडियो चलाते ही स्क्रीन पर कुछ झिलमिलाया—एक लंबा गलियारा, हिलती रोशनी, और फिर अचानक एक चीख—वही स्त्री की चीख, जो अर्पित पहले सुन चुका था। फिर स्क्रीन काली हो गई।

उस दिन के बाद पंचम गली की हवा और भी भारी हो गई। लोग अपने बच्चों को शाम से पहले घर में बंद कर लेते, खिड़कियों में लटके नींबू-मिर्ची की संख्या दोगुनी हो गई। थाने में अर्पित पर दबाव बढ़ने लगा—राहुल का केस मीडिया तक पहुँच गया, और रिपोर्टर्स सवाल पूछने लगे। लेकिन अर्पित की नज़र अब सिर्फ एक ओर थी—हवेली के उस बंद तहखाने की ओर, जो फर्श के नीचे लकड़ी से ढंका था और जिसके बारे में कोई बात नहीं करता। तनु ने एक बात कही, जो अर्पित के कानों में गूंजती रही—”ये आत्मा नहीं, कोई सजा मांग रही है… शायद रूपा चाहती है कि अब कोई उसका सच देखे, सुने, और बोले।” मगर अर्पित जानता था—इस गली में कोई भी सच बोलता नहीं। और जो बोलता है, वह या तो पागल हो जाता है… या फिर खो जाता है। हवेली ने किसी को फिर निगल लिया था। और अब, शायद अगली अमावस्या तक एक और चीख गूंजेगी — पर सवाल ये था: अगला कौन होगा?

राहुल की गुमशुदगी के तीसरे दिन तक पंचम गली की हवेली सिर्फ एक वीरान इमारत नहीं, बल्कि आतंक का जीता-जागता प्रतीक बन चुकी थी। गली में अब कोई उस ओर नज़र भी नहीं उठाता, मानो हवेली की दीवारें निगाहें चाट लेती हों। मगर सब-इंस्पेक्टर अर्पित चौधरी का मन अब स्थिर नहीं रह पा रहा था। जो बातें अब तक सिर्फ लोककथा लगती थीं, वो अब उसकी वर्दी के भीतर तक घुस चुकी थीं। राहुल का फोन, उसमें रिकॉर्ड की गई आवाज़, और हवेली के बंद कमरे — सबकुछ किसी भूतिया रहस्य की ओर इशारा कर रहे थे। तनु ने उस रात फिर वही सपना देखा — एक युवती, चूड़ियों की खनक, आंखों में गहराई लिए, हवेली के दरवाज़े पर खड़ी होकर कहती है, “मैं यहाँ हूँ… तुमने मुझे देखा, अब बच नहीं सकते।” अगले दिन तनु ने अर्पित को बताया कि उसे हवेली के तहखाने का नक्शा मिल गया है — पुराने नगरनिगम के दस्तावेजों से। उस नक्शे में हवेली के नीचे एक भूमिगत कक्ष दिखाया गया था, जहाँ संभवतः पुरानी तांत्रिक क्रियाएँ की जाती थीं। अर्पित ने तय किया, अब समय आ गया है—हवेली को उसके नीचे तक खंगालने का।

शाम के धुंधलके में, जब गली अंधेरे की चादर ओढ़ने लगी थी, अर्पित और तनु ने फिर से हवेली में कदम रखा। इस बार, उनके साथ दो कांस्टेबल भी थे — पर जैसे-जैसे वो भीतर गए, दोनों कांस्टेबल पीछे हट गए। “सर… कुछ ग़लत है यहाँ,” उनमें से एक कांपते हुए बोला, “यहाँ सांस भी लेनी मुश्किल हो रही है।” अर्पित और तनु आगे बढ़े — उन्हीं कमरों से होते हुए, जहाँ दीवारों पर अब उभर आए थे अजीब से निशान — त्रिकोण, उल्टे दीपक, राख से बनी रेखाएँ, और दीवार पर लाल रंग से लिखा था: “वापस मत जाओ।” फर्श पर एक जगह लकड़ी का एक टुकड़ा दिखाई दिया — जैसे कुछ ढँका हो। तनु के बताने पर अर्पित ने उसे हटाया — नीचे एक लोहा जड़ा दरवाज़ा था, ज़मीन से सटा हुआ। दरवाज़ा खोलते ही नीचे से एक ठंडी हवा का झोंका ऊपर आया — गंध से भरी, जैसे किसी पुरानी किताब की सिलवटों में दबा पन्ना खुला हो। उन्होंने मोबाइल की टॉर्च जलाकर सीढ़ियाँ नीचे उतारीं। नीचे एक बड़ा सा कक्ष था — जहाँ एक पुराने चौकी पर राख की ढेरी, टूटे दीपक, और चूड़ियों के टुकड़े पड़े थे। कमरे के चारों कोनों में रक्त से बने चिह्न अब भी धुंधले दिख रहे थे। और सबसे बीच में — एक स्त्री की लंबी चोटी वाला धुंधला छाया-सा प्रतिबिंब… जो टॉर्च की रोशनी पड़ते ही गायब हो गया।

उस कमरे से निकलते हुए तनु का चेहरा पीला हो गया था। वह बोली, “मैंने उसे देखा… वही रूपा थी।” उसकी आँखें सुन्न थीं। उसी रात, तनु को तेज बुखार चढ़ा और वह बेसुध हो गई। डॉक्टरों ने कहा, कोई इन्फेक्शन नहीं है — यह शायद मानसिक आघात है। लेकिन अर्पित को अब सब साफ दिखने लगा था — यह आत्मा, यह हवेली, यह गली… किसी तंत्र की सजा में जकड़े गए हैं। उसने ठान लिया, अब वह किसी भी हद तक जाएगा — रूपा की मौत के पीछे की सच्चाई को उजागर करने के लिए। लेकिन उस रात जब वह अकेला अपने कमरे में बैठा था, खिड़की के बाहर से वही जानी-पहचानी चीख गूंजी — इस बार पहले से ज़्यादा तेज, ज़्यादा दर्दनाक, और उसमें एक नाम पुकारा गया: “अर्पित…”। पहली बार उसे लगा, अब वह सिर्फ खोज नहीं कर रहा… वो खुद खोजा जा रहा है।

तनु अब भी अर्धचेतन अवस्था में थी — उसकी आँखें खुली थीं, मगर उनमें कोई पहचान नहीं, कोई समय-बोध नहीं था। अस्पताल में डॉक्टरों ने उसे “ट्रॉमेटिक ह্যালुसिनेशन” बताया, लेकिन अर्पित जानता था — यह कुछ और था। उसकी नींद में बुदबुदाहटें अब स्पष्ट होने लगी थीं — “मुझे नहीं जाना था… वो झूठ बोल रहा था… उसने मुझे वहाँ बुलाया…” और बार-बार एक ही शब्द: “शंकर…”। यह वही नाम था जो पहली बार गुड्डन बाबा ने अर्पित को बताया था — शंकर लाल, पंचम गली का पूर्ववर्ती निवासी, जो अब शायद ही किसी से बात करता था। अर्पित ने तुरंत शंकर की तलाश शुरू की। वह अब गली के पास एक खंडहरनुमा मकान में अकेला रहता था — बिखरे बाल, गंदे कपड़े, और नशे से भरी लाल आँखें। उसकी हालत देखकर किसी को यकीन नहीं होता कि यह कभी रूपा का प्रेमी कहा जाता था। अर्पित ने जब उसे रूपा के बारे में पूछा, शंकर पहले तो हँसा — एक टूटी, डरावनी हँसी। फिर बोला, “तू उसे नहीं जानता, साहब… वो सिर्फ मेरी थी… लेकिन उसने मुझे ठुकरा दिया, इसलिए मैंने उसे हवेली भेजा… वो अकेली गई थी… पर वहाँ कोई और पहले से था।”

शंकर ने बताया कि रूपा और वह बचपन के साथी थे, दोनों ने एक-दूसरे से शादी करने की कसमें खाईं थीं। मगर रूपा पढ़ाई में तेज थी, और उसका सपना था बनारस यूनिवर्सिटी में दाखिला लेना। उस बीच, हवेली में एक आयुर्वेदाचार्य के रूप में एक तांत्रिक पुरुष ने आना-जाना शुरू किया था — जिसने खुद को “गुरुजी” कहा। वह गली के लोगों का इलाज करता, पर चुपके से तांत्रिक अनुष्ठान भी करता था। शंकर को लगता था कि रूपा उससे प्रभावित हो रही है। ईर्ष्या में भरकर उसने खुद गुरुजी को रूपा के बारे में बताया — कि वह अकेली है, सुंदर है, और हवेली में पढ़ाने जाती है। और फिर… अमावस्या की रात, जब गुरुजी ने रूपा को एक “शुद्धिकरण अनुष्ठान” के लिए बुलाया, शंकर ने खुद उसे जाने दिया — जानते हुए कि वह शायद कभी लौटेगी नहीं। मगर वह यह नहीं जानता था कि वह रात बलिदान की रात थी — गुरुजी ने तांत्रिक सिद्धि के लिए एक “निर्दोष कन्या” की बलि चढ़ाई। और जब सुबह हुई, हवेली खामोश थी, गुरुजी गायब था, और रूपा… बस हवाओं में रह गई।

अर्पित इस कबूलनामे से अंदर तक हिल चुका था। यह प्रेम नहीं, यह ईर्ष्या में बदला गया नरसंहार था। शंकर रो रहा था — एक टूटी आत्मा की तरह। “मैंने उसे नहीं मारा… पर उसे मरने दिया… और अब वो हर रात मेरे सपनों में जलती है…” उसने अर्पित को अपने सीने पर बने एक गहरे जलने के निशान दिखाए — वही त्रिकोणीय चिन्ह जो हवेली की दीवारों और तनु की हथेली पर दिखाई दिया था। अब अर्पित को यकीन हो गया — यह आत्मा बदले के लिए नहीं, न्याय के लिए भटक रही है। और जब तक उसे वह न्याय नहीं मिलेगा, पंचम गली ऐसे ही हर अमावस्या को किसी को निगलती रहेगी। उस रात जब अर्पित तनु के पास लौटा, उसने देखा—तनु अब जाग रही थी। उसकी आंखें गहरी थीं, और होंठों पर बस एक वाक्य:
“रूपा कहती है, अभी एक और बलि बाकी है…”

तनु की आंखें अब सामान्य नहीं थीं — उनमें कोई और था, कोई ऐसा जो हर वाक्य के पीछे कोई और अर्थ छिपा रहा था। अर्पित ने महसूस किया, वह अब केवल एक पत्रकार नहीं रही — वह अब रूपा की आवाज़ बन चुकी है। जब वह धीमी आवाज़ में कहती, “एक और बलि बाकी है…”, तब उसका चेहरा शून्य की ओर देखता, मानो उसे भविष्य दिखाई दे रहा हो। उस रात अर्पित ने तनु से कोई और सवाल नहीं किए। उसने निर्णय लिया: अब उसे सीधे हवेली की आत्मा से बात करनी होगी। तर्क, कानून और फाइलें अपनी सीमा पार कर चुकी थीं — अब रह गया था सिर्फ साहस और संकल्प। अगली अमावस्या से पहले केवल चार दिन बचे थे। अर्पित ने गुड्डन बाबा से एक आखिरी बार मिलने की ठानी। बाबा अब भी वही धूप से भरा कमरा, वही हड्डियों सी उँगलियाँ और वही गहरी साँसें। उन्होंने अर्पित को देखकर सिर झुकाया और कहा, “अब तुम अंदर उतर चुके हो… अब तुम लौट नहीं सकते। आत्माएँ सिर्फ भटकती नहीं, वो चुनती भी हैं… और लगता है, रूपा ने तुम्हें चुन लिया है।”

बाबा ने पहली बार अर्पित को बताया कि पंचम गली की हवेली कभी एक सिद्ध तांत्रिक की साधना स्थली थी। वहाँ बलिदान की परंपरा थी — “एक कुमारी कन्या, एक विश्वासघात और एक गवाह” की त्रयी में शक्ति जागती थी। रूपा उस त्रयी का पहला हिस्सा बनी। शंकर, जिसने उसे हवेली भेजा, वह विश्वासघाती था। और गवाह? बाबा ने धीमे से सिर झुकाया: “मैं था… मैं जानता था क्या होगा, फिर भी कुछ नहीं किया। उसी रात मेरी आवाज़ चली गई, और तब से मैं सिर्फ देखता हूँ।” अर्पित कुछ कहना चाहता था, लेकिन बाबा की आँखें साफ़ कह रही थीं — वह अब क्षमा नहीं चाहता, बस रूपा के सत्य के सामने झुकना चाहता है। अर्पित की समझ में अब आ गया कि इस हवेली की आत्मा को मुक्ति तभी मिलेगी, जब उसकी कहानी पूरी कही जाएगी — और उसके हत्यारों का नाम, चेहरा, और पाप उजागर होगा। उसे अब हवेली नहीं, उस तहखाने की आत्मा को बाहर लाना था — जहां रूपा अब भी बंधी थी, किसी वचन की तरह।

अर्पित ने तय किया — अगली अमावस्या की रात वह हवेली के उसी कक्ष में फिर उतरेगा, और इस बार वह अकेला नहीं होगा। उसने तनु से अनुरोध किया कि वह साथ चले — और तनु ने मौन सहमति दे दी। वह अब भी आधी जागृत, आधी रूपा से भरी हुई थी। हवेली की दीवारें अब जैसे उन्हें पहचानने लगी थीं — हर बार जब वे भीतर कदम रखते, दीवारों से कोई धीमा नाद उठता, हवा सघन हो जाती, और एक अज्ञात उपस्थिति उनके गिर्द घूमने लगती। अमावस्या की रात वे दोनों फर्श के नीचे बने तहखाने में उतरे। दीपक जलाया गया, त्रिकोण आकृति खींची गई, और रूपा का नाम लेकर पहली बार कोई उच्च स्वर में बोला: “अगर तू यहीं है, तो सामने आ। तेरा सत्य अब दबेगा नहीं।” हवा कांपी, दीपक बुझा, और कोने से उठी वह छाया — अब पूर्णाकार, रूपा जैसी आकृति, जो धीरे-धीरे तहखाने के बीच आई, और फिर तनु के शरीर से टकरा गई। तनु कांपी, फिर सीधा खड़ी हो गई — और उसकी आवाज़ अब रूपा की थी:
“मैं नहीं चाहती कि कोई और खोए… बस मेरी कहानी कह दो… मेरा नाम वापस लिख दो… मुझे इंसाफ चाहिए… और फिर मैं चली जाऊँगी।”
और फिर, हवेली की छत से राख टपकने लगी — मानो कोई शाप टूटने को हो…

अमावस्या की उस रात, तहखाने में रूपा की आत्मा जैसे समय की कड़ी तोड़कर, अंतिम बार बोल रही थी। उसकी आवाज़ तनु के माध्यम से फूट रही थी — टूट-टूट कर, किन्तु तीव्र और स्पष्ट। “मुझे उस हवेली में बंद कर दिया गया… मेरे शरीर को मिटा दिया गया… लेकिन मेरी आत्मा वहीं रह गई, जहां अन्याय हुआ। मैं किसी को मारना नहीं चाहती थी। मैं बस… याद किया जाना चाहती थी।” यह कहते हुए तनु की आँखों से रक्तमिश्रित आँसू बहने लगे। अर्पित ने कांपती उंगलियों से हवेली की फर्श पर लकड़ी के फट्टे हटाने शुरू किए — वह जगह, जहां से राख की गंध लगातार आ रही थी। कुछ खोदने पर उन्हें वहां एक धातु की छोटी पेटी मिली — भीतर चूड़ियों के टुकड़े, एक राख की साड़ी की किनारी, और एक हड्डी का टुकड़ा। उसके साथ एक कागज़ भी था — उस पर लिखा था:
“बलिदान पूर्ण। कुमारी कन्या समर्पित। गुरुजनों के चरणों में सर्प-तंत्र सिद्धि।”

ये वही था जो अर्पित खोज रहा था — प्रमाण। उसने अगले दिन केस दोबारा खोला, दस्तावेज़ सबूत में पेश किए, और स्थानीय प्रशासन को चौंका दिया। 20 साल पहले के बंद केस को अब फिर से खोला गया, और उस पुराने तांत्रिक के काले इतिहास को उजागर किया गया — जो अब दिल्ली के एक आयुर्वेद संस्थान में सम्मानित शिक्षक बन चुका था। मीडिया, कोर्ट, और पुलिस — सब उस हवेली के तहखाने की तरफ़ मुड़े। तनु के माध्यम से ही रूपा की आखिरी गवाही दर्ज की गई — “उसने मुझे मारा, लेकिन मेरा नाम मत मिटाना।” इस केस ने देशभर में हड़कंप मचा दिया — कि कैसे लोककथाएं सिर्फ डर नहीं, अक्सर इतिहास के अनकहे पन्ने भी होती हैं। शंकर लाल को भी गवाह के रूप में बुलाया गया — उसने रोते हुए कबूल किया कि ईर्ष्या में उसने रूपा को मौत की ओर धकेला था। कोर्ट में उसकी गवाही के बाद, रूपा का केस “हत्याकांड” घोषित हुआ और आरोपी को आजीवन कारावास।

मगर कहानी वहीं खत्म नहीं हुई। अर्पित ने खुद पंचम गली की हवेली को सील करवाया, और तहखाने की ज़मीन को ‘स्मृति स्थल’ घोषित कराया। जब वह अंतिम बार हवेली के भीतर गया — खाली, शांत और ठंडी — उसने दीवार पर कुछ लिखा देखा जो पहले नहीं था। राख से उकेरा गया वाक्य:
“धन्यवाद। अब मैं चली।”
और उसी पल, हवेली के भीतर एक हल्की-सी मीठी हवा चली, जैसे किसी ने दीवारों से अलविदा कहा हो। तनु अब स्वस्थ थी — उसे वह रात याद नहीं, मगर उसकी कलम अब और धारदार थी। वह बनारस में ही रुक गई — “अब मैं उन कहानियों की आवाज़ बनना चाहती हूँ, जिन्हें लोग आत्मा समझकर भुला देते हैं।”
पंचम गली अब भी वही है — संकरी, पुरानी, और रहस्यमयी। मगर अब वहां अमावस्या की रात एक नई आवाज़ गूंजती है — डर की नहीं, बल्कि न्याय की।
और जब कोई नए सब-इंस्पेक्टर का नाम पूछता है, तो गली के लोग मुस्कुराकर कहते हैं:
“अर्पित? वो तो अब कहानियों में रहता है… गुम नहीं हुआ, बस एक और आत्मा को मुक्त करने चला गया।”

समाप्त

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