Hindi - क्राइम कहानियाँ

नीली फाइल

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आकाश बर्मा


लखनऊ की उस सुबह में गली के दरवाज़े बंद थे, खिड़कियों के पर्दे आधे खींचे हुए, और लोगों के चेहरे पर अजीब-सा सन्नाटा पसरा हुआ था। सूरज की पहली किरणें जब पुरानी हवेली जैसे बने मकानों की दीवारों से टकराईं, तभी एक चीख ने पूरे मोहल्ले की नींद तोड़ दी। चीख घर के भीतर से आई थी—पत्रकार आरव मेहता के पड़ोसी ने सबसे पहले देखा कि दरवाज़ा आधा खुला है और भीतर से कुर्सी के गिरने जैसी आवाज़ें आ रही हैं। जब लोग धीरे-धीरे दरवाज़े तक पहुँचे तो सामने का दृश्य किसी बुरे सपने जैसा था—कमरे के बीचोंबीच लकड़ी की टेबल पर झुका हुआ, खून से सना हुआ आरव मेहता का शव। सफेद कमीज़ अब लाल हो चुकी थी, पास में टूटा हुआ चश्मा और उलटे पड़े कागज़ बिखरे पड़े थे। अलमारी का ताला टूटा था, और भीतर की सारी फाइलें अस्त-व्यस्त पड़ी थीं, पर एक फाइल गायब थी—वही नीली फाइल जिसकी चर्चा कुछ खास लोगों तक सीमित थी, पर जिसकी अहमियत अब हर कोई समझने लगा था।

पुलिस की गाड़ी कुछ ही देर में आ पहुँची। इंस्पेक्टर और सिपाही पूरे मोहल्ले को घेरकर खड़े हो गए। रिपोर्ट लिखी गई कि “यह मामला साधारण चोरी का है जिसमें विरोध करने पर हत्या हुई।” लेकिन गली के लोग जानते थे कि यह हत्या साधारण नहीं थी। आरव मेहता कोई मामूली आदमी नहीं था। वह तीन दशकों से पत्रकारिता की दुनिया का बड़ा नाम था—ऐसा नाम जिसने कई मंत्रियों को इस्तीफा दिलवाया, कई घोटाले उजागर किए और कई अपराधियों की जड़ें हिला दीं। उसकी बेबाक कलम ने उसे जितनी शोहरत दी, उतने ही दुश्मन भी। यही वजह थी कि उसकी मौत के बाद किसी ने आँसू बहाए, तो किसी ने राहत की साँस ली। मीडिया चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ चलने लगी—“वरिष्ठ पत्रकार की रहस्यमयी मौत… फाइल गायब।” कैमरों के सामने पुलिस बार-बार कह रही थी कि यह “सिर्फ एक डकैती का मामला है,” मगर एंकर, रिपोर्टर और दर्शक सब समझ रहे थे कि मामला कहीं ज़्यादा गहरा है। सवाल यह था कि आखिर कौन-सी फाइल इतनी कीमती थी कि उसकी तलाश में किसी ने आरव मेहता को मौत के घाट उतार दिया?

कमरे का हर कोना इस सवाल का जवाब दे रहा था। दीवारों पर लटके फ्रेम्स टेढ़े हो चुके थे, जमीन पर गिरे कागजों में आधे-अधूरे नोट्स, अधपढ़ी किताबें और कल की चाय के दाग़ अभी भी पड़े थे। उस माहौल में एक भयावह खामोशी थी, मानो दीवारें खुद गवाही दे रही हों कि यहाँ सच को दबाने के लिए खून बहाया गया है। मोहल्ले के लोग धीरे-धीरे छतों और दरवाज़ों के पीछे से झाँकते रहे, कुछ ने फुसफुसाकर कहा कि यह हत्या किसी राजनेता के इशारे पर हुई है, तो किसी ने नाम लिया कि इसमें पुलिस के बड़े अफसर भी शामिल हो सकते हैं। लेकिन हर कोई जानता था कि सच कहना या ज़्यादा बोलना खतरनाक है। सिर्फ नेहा—आरव की बेटी—दूर से खड़ी आँसू रोकते हुए पुलिस की हर हरकत देख रही थी। उसकी आँखों में दर्द के साथ-साथ एक गहरी जिज्ञासा भी थी, मानो वह पहले ही समझ चुकी हो कि उसके पिता की मौत सिर्फ एक हत्या नहीं, बल्कि एक साज़िश है। और यह साज़िश शुरू होती है उस गायब नीली फाइल से, जिसकी तलाश अब सिर्फ पुलिस या अपराधियों तक सीमित नहीं रहने वाली थी—बल्कि आने वाले दिनों में यह पूरी कहानी की धुरी बनने वाली थी।

लखनऊ पुलिस के अपराध विभाग में जब पत्रकार आरव मेहता की हत्या की फाइल पहुँची, तो उसे तुरंत इंस्पेक्टर कबीर सिंह के हवाले कर दिया गया। कबीर को विभाग का तेज़तर्रार और निडर अफसर माना जाता था, मगर उसकी खामोशी और पैनी नज़र के पीछे हमेशा एक दुविधा छिपी रहती थी—क्या सचमुच वह सिस्टम का हिस्सा बनकर निष्पक्ष रह सकता है या फिर उसे भी वही समझौते करने पड़ेंगे जिनसे वह वर्षों से जूझता आया है? आरव मेहता के घर पर कदम रखते ही उसे महसूस हुआ कि यह मामला साधारण कत्ल नहीं है। खिड़कियों पर धूल जमी थी, पर एक खिड़की का पर्दा आधा फटा हुआ था, मानो किसी ने बाहर से झाँका हो। टेबल पर पड़े खून के निशान किसी जल्दबाज़ी का इशारा कर रहे थे और अलमारी की टूटी हुई चौखट साफ बता रही थी कि भीतर से कुछ निकाला गया है। कबीर ने दस्ताने पहनकर जगह-जगह छानबीन शुरू की। उसे एक दराज के नीचे से कुछ नोट्स मिले—आरव की लिखावट में अधूरी बातें, जिनमें “राघव… चुनाव… पुलिस… साज़िश” जैसे शब्द बार-बार दोहराए गए थे। उसी ढेर में आधे फटे हुए दस्तावेज़ भी थे, जिन पर किसी सरकारी प्रोजेक्ट का जिक्र था, मगर आधा हिस्सा ग़ायब था। कबीर के लिए यह दस्तावेज़ किसी चाबी की तरह थे, मगर किस ताले को खोलेंगे, यह अभी अंधेरे में था।

इसी बीच घर के बाहर भीड़ जमा हो चुकी थी और पत्रकारों के कैमरे लगातार फ्लैश कर रहे थे। तभी वहाँ आई आरव की बेटी नेहा मेहता—छब्बीस साल की, आँखों में आँसू, पर चेहरे पर ऐसी दृढ़ता कि खुद पुलिसवाले भी एक पल को ठिठक गए। उसने कबीर से सीधे सवाल किया, “आप लोग इसे चोरी बताकर क्यों टाल रहे हैं? मेरे पापा की हत्या किसी बड़ी वजह से हुई है, और आपको पता है।” कबीर ने संयमित स्वर में कहा कि पुलिस अपने काम में लगी है और सच सामने आएगा, लेकिन नेहा को उसके शब्द खोखले लगे। उसके लिए पुलिस वह संस्था थी जिस पर उसके पिता ने कभी भरोसा नहीं किया, क्योंकि उन्हीं की रिपोर्टिंग में कई बार यही बात सामने आई थी कि पुलिस भी नेताओं के इशारों पर नाचती है। नेहा ने ठान लिया कि वह सिर्फ पुलिस पर निर्भर नहीं रहेगी। अगले ही पल उसने अपने पिता का लैपटॉप और डायरी अपने कब्ज़े में ले ली, ताकि बाद में उसे सुरक्षित तरीके से खंगाल सके। कबीर ने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन नेहा का जवाब सीधा था—“अगर आप सच में ईमानदार हैं, तो आपको डरने की ज़रूरत नहीं। और अगर आप भी इस खेल का हिस्सा हैं, तो मुझे आपके खिलाफ़ भी सबूत जुटाने में देर नहीं लगेगी।” उस टकराव की गूँज पूरे कमरे में फैल गई, और यह साफ हो गया कि आने वाले दिनों में यह जांच दो समानांतर धाराओं पर चलेगी—एक पुलिस की आधिकारिक जांच, और दूसरी नेहा की व्यक्तिगत लड़ाई।

उस शाम जब कबीर रिपोर्ट तैयार कर रहा था, तो उसके भीतर भी हलचल थी। उसे याद आया कि आरव मेहता की एक रिपोर्ट ने कभी उसके विभाग को हिला दिया था, जिसमें कई अफसरों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे। क्या यही वजह थी कि अफवाहें उठ रही थीं कि नीली फाइल में उसका नाम भी हो सकता है? अगर सचमुच ऐसा है, तो नेहा का शक गलत नहीं होगा। वहीं दूसरी ओर, नेहा अपने कमरे में बैठी पिता के मेल और पुराने फोन रिकॉर्ड खंगाल रही थी। उसे एक ईमेल मिला जिसमें आरव ने किसी को लिखा था—“सच सामने आएगा, चाहे इसकी कीमत मुझे जान से चुकानी पड़े।” इन शब्दों ने नेहा को और मज़बूत बना दिया। बाहर शहर की रात हल्की बारिश से भीग रही थी, लेकिन उसके भीतर ज्वाला भड़क रही थी। उसने निश्चय किया कि चाहे कितने भी दुश्मन सामने आएँ, वह अपने पिता के हत्यारों को बेनकाब करेगी। इस तरह जांच की शुरुआत में ही साफ हो गया कि यह सिर्फ एक केस नहीं, बल्कि दो अलग-अलग जिदों की टकराहट है—एक इंस्पेक्टर की जो सच्चाई तक पहुँचना चाहता है लेकिन अपने ही विभाग की परछाइयों से जूझ रहा है, और दूसरी बेटी की जो अपनी हर साँस अपने पिता के खून का बदला लेने में झोंक देने को तैयार है। दोनों रास्ते अलग-अलग दिख रहे थे, पर मंज़िल एक ही थी—गायब हुई नीली फाइल और उस रहस्य का सच जिसने लखनऊ की उस सुबह को खून से भिगो दिया था।

जांच जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, वैसे-वैसे परतें खुलने लगीं और यह साफ होता गया कि आरव मेहता की मौत किसी अचानक हुई डकैती का परिणाम नहीं थी, बल्कि एक सुनियोजित हत्या थी। इंस्पेक्टर कबीर सिंह ने जब आरव के अधूरे नोट्स और आधे फटे दस्तावेज़ों को जोड़कर पढ़ने की कोशिश की, तो उसमें छिपे संकेत धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगे। दस्तावेज़ों में उल्लेख था एक “इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट” का, जिसमें करोड़ों रुपये के गबन का शक था। आरव ने हाल ही में कई राजनेताओं और पुलिस अधिकारियों की गतिविधियों पर नज़र रखी थी। उसने अपने पुराने सहयोगियों और सूत्रों से जानकारियाँ इकट्ठी की थीं—किसी ठेकेदार की फर्जी बोली से लेकर ज़मीन की दलाली में नेताओं और पुलिस अफसरों की मिलीभगत तक। यही नहीं, उसके पास बैंक ट्रांज़ैक्शन और फर्जी कंपनियों के सबूत भी थे। यह सब उस गायब नीली फाइल का हिस्सा था। कबीर ने महसूस किया कि किसी ने बेहद योजनाबद्ध तरीके से आरव को चुप कराया है, और यह कहानी सिर्फ लूट या गुस्से की नहीं बल्कि सत्ता और पैसे के जाल में उलझी एक गहरी साज़िश की है।

दूसरी ओर, नेहा अपनी खोज में लगी थी। पिता के मेल और डायरी पढ़ते-पढ़ते उसने पाया कि हाल के दिनों में आरव बार-बार एक नाम लिख रहे थे—“राघव वर्मा।” यह वही नेता था जो उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी गहरी जड़ों और चालाकी के लिए बदनाम था। आरव ने एक मेल में लिखा था कि “अगर राघव और उसके लोग बच गए, तो आने वाले सालों में इस राज्य की राजनीति पूरी तरह बिक जाएगी।” नेहा ने समझ लिया कि उसके पिता की जान इसी वजह से गई है। लेकिन सिर्फ राघव ही नहीं, डायरी में दो और नाम दर्ज थे—एक था “डीजीपी राठौर,” और दूसरा कोई कोड नाम “ए.के.”। नेहा को लगा कि ये नाम सीधे पुलिस और अपराध जगत की मिलीभगत की तरफ इशारा कर रहे हैं। उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। उसने तय किया कि वह इन नामों के बारे में खुलकर कबीर से सवाल करेगी, लेकिन कबीर खुद दबाव में था। विभाग के बड़े अफसर बार-बार उससे कह रहे थे कि केस को “साधारण हत्या” बताकर बंद कर दो। हर मीटिंग में कबीर को महसूस होता कि ऊपर से आदेश है कि इस मामले की तह में न जाया जाए। ऐसे में नेहा का गुस्सा और अविश्वास बढ़ना स्वाभाविक था। जब उसने कबीर से कहा कि उसके विभाग का भी हाथ इस साज़िश में है, तो दोनों के बीच एक तीखी बहस हुई। नेहा का कहना था कि उसके पिता को एक ऐसी साजिश ने मारा जिसमें पुलिस, राजनीति और माफिया सब शामिल हैं, और कबीर सिर्फ वक्त गँवा रहा है। कबीर चुप रहा, क्योंकि उसके पास भी अब सबूत थे कि हत्या अचानक हुई घटना नहीं, बल्कि पहले से तय की गई स्क्रिप्ट थी।

जांच की दिशा अब पूरी तरह बदल चुकी थी। मोहल्ले में गुपचुप बातें होने लगी थीं—किसी ने बताया कि आरव को मरने से पहले कई धमकियाँ मिली थीं, किसी और ने कहा कि उसकी कार का पीछा किया जाता था। कबीर ने उन सभी बयानों को दर्ज किया और यह साफ किया कि “प्लान्ड मर्डर” का एंगल सबसे मजबूत है। लेकिन सबूत इकट्ठे करना आसान नहीं था, क्योंकि जितने भी गवाह थे, वे या तो डरकर चुप थे या फिर अचानक गायब हो गए। नेहा ने भी देखा कि पिता की हत्या के बाद उनके कुछ पुराने साथी पत्रकारों ने चुप्पी साध ली है, मानो सबको समझ आ गया हो कि यह मामला छेड़ने लायक नहीं है। मगर नेहा पीछे हटने वालों में से नहीं थी। उसने कबीर से कहा—“अगर आप चाहें तो साथ रहिए, वरना मैं अकेली लड़ लूँगी। लेकिन मैं यह साबित करके रहूँगी कि मेरे पापा को मारा नहीं गया, बल्कि उन्हें योजनाबद्ध तरीके से ख़ामोश किया गया है।” इस घोषणा के साथ ही उसने खुद को खतरे में डाल दिया, क्योंकि अब वह सीधे उस साज़िश की राह पर चल पड़ी थी, जिसकी जड़ें सत्ता की गहराइयों और पुलिस के सबसे ऊँचे दरबार तक फैली थीं। कबीर समझ गया कि इस मामले में सिर्फ नेहा की जिद ही नहीं, बल्कि उसका अपना ईमान भी दांव पर है। और अब दोनों के सामने एक ही राह थी—उस नीली फाइल तक पहुँचना, जिसमें इस साज़िश का हर धागा दर्ज था।

जैसे-जैसे जांच गहरी होती गई, लखनऊ की गलियों से लेकर विधानसभा के गलियारों तक एक ही नाम गूंजने लगा—राघव वर्मा। आरव मेहता की हत्या के बाद जब पत्रकारों ने उसकी पुरानी रिपोर्टें खंगालीं, तो सामने आया कि आरव बीते छह महीनों से राघव से जुड़े ज़मीन घोटाले और चुनावी चंदे की गड़बड़ियों की पड़ताल कर रहा था। धीरे-धीरे खबर फैलने लगी कि गायब हुई नीली फाइल में सबसे ज्यादा सबूत राघव के खिलाफ़ ही थे। मीडिया चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज़ चलने लगी—“क्या राघव वर्मा पत्रकार हत्या के असली गुनहगार?” लोग टीवी के सामने बैठकर अनुमान लगाने लगे, सोशल मीडिया पर पोस्ट्स और मीम्स बनने लगे, और राजनीतिक विरोधी पार्टियों ने इसे अपना हथियार बना लिया। मगर राघव वर्मा कोई आम नेता नहीं था। उसके पास अनुभव, करिश्मा और चालाकी थी। कैमरों के सामने वह पूरे आत्मविश्वास के साथ आया और उसने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं निर्दोष हूँ। मेरे खिलाफ़ यह सब झूठा प्रचार है। असली गुनहगारों को पकड़ने की जिम्मेदारी पुलिस की है, और मैं खुद चाहता हूँ कि सच्चाई सामने आए।” उसके शब्दों और ठंडे चेहरे ने लोगों को भ्रमित कर दिया। कुछ ने कहा कि शायद सचमुच वह निर्दोष है, तो कुछ को उसकी मुस्कान में छिपा डर साफ दिखा। लेकिन जो बात सबसे ज्यादा चुभ रही थी, वह यह थी कि पुलिस की जांच हर मोड़ पर राजनीतिक दबाव में धीमी पड़ रही थी।

नेहा इन सबको टीवी पर देख रही थी। उसके दिल में गुस्से की आग जल उठी। वह जानती थी कि उसके पिता राघव के खिलाफ़ ठोस सबूत इकट्ठे कर चुके थे। तभी उसने पिता के लैपटॉप में छिपे हुए मेल्स को पढ़ना शुरू किया। एक मेल में लिखा था—“राघव के पास सबूत मिटाने के साधन हैं, लेकिन मैं समय रहते फाइल सुरक्षित कर दूँगा।” यह वाक्य नेहा के दिल में गूंजता रहा। उसने आगे पढ़ा और देखा कि मेल में बार-बार एक कोडेड नाम लिखा गया था—“A.K.”। शुरू में यह सिर्फ अक्षरों का खेल लगा, लेकिन गहराई से पढ़ने पर नेहा को अहसास हुआ कि यह किसी बड़े अफसर का संक्षिप्त नाम हो सकता है। उसने तुरंत नोटबुक निकाली और पिता के पुराने दस्तावेज़ों से मिलान करने लगी। बार-बार “A.K.” के साथ जोड़े गए शब्द थे—“मीटिंग… पुलिस… सुरक्षा… दबाव।” यह स्पष्ट था कि यह कोई छोटा आदमी नहीं, बल्कि उच्च पदस्थ अधिकारी है, जो राजनीति और पुलिस दोनों के बीच पुल का काम कर रहा था। नेहा को यह भी समझ आया कि यह व्यक्ति सिर्फ राघव का सहयोगी नहीं, बल्कि वह असली खिलाड़ी हो सकता है जो हत्या और फाइल दोनों के पीछे है। उसके दिल में भय और दृढ़ता एक साथ उमड़ पड़ी—भय इस बात का कि इतनी ऊँचाई पर बैठे दुश्मन से टकराना आसान नहीं होगा, और दृढ़ता इस सोच की कि अब पीछे हटने का कोई रास्ता नहीं बचा है।

इधर, इंस्पेक्टर कबीर भी दबाव महसूस कर रहा था। विभाग के आला अफसरों से उसे लगातार फोन आ रहे थे कि केस को “साधारण हत्या” बताकर फाइल बंद कर दो। उसे कहा गया कि “राजनीति में टाँग मत अड़ाओ, वरना तुम्हारा करियर दाँव पर लग जाएगा।” लेकिन कबीर का अनुभव उसे बता रहा था कि यह हत्या राजनीति के साए में ही हुई है। उसने गुपचुप तरीके से अपने विश्वसनीय सूत्रों से जानकारी जुटानी शुरू की। एक पुराने मुखबिर ने कबीर से कहा—“सर, फाइल में सिर्फ नेताओं के ही नाम नहीं हैं, उसमें पुलिसवालों और ठेकेदारों के भी राज़ हैं। यही वजह है कि मामला इतना बड़ा है।” कबीर को याद आया कि नेहा ने भी बार-बार पुलिस की संलिप्तता की ओर इशारा किया था। अब उसके पास मेल्स और सूत्रों की जानकारी एक-दूसरे से मेल खाने लगी। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही था कि “A.K.” आखिर है कौन? क्या यह वही है जिसके नाम पर विभाग में फुसफुसाहट होती है? क्या यह वही है जिसे बचाने के लिए सिस्टम की हर परत सक्रिय हो चुकी है? इस बीच, नेहा और कबीर दोनों ही अपनी-अपनी दिशा में सुराग खोजते रहे—नेहा भावनाओं से भरी हुई जिद के साथ, और कबीर अपने कर्तव्य और दबाव के बीच संतुलन साधने की कोशिश करते हुए। दोनों को एहसास होने लगा था कि राजनीति का यह साया अब सिर्फ जांच को ही नहीं, बल्कि उनकी ज़िंदगियों को भी निगलने के लिए तैयार खड़ा है।

लखनऊ की अंधेरी गलियों और पुराने बाजारों के बीच, कबीर की जांच आखिरकार उसे उस शख्स तक ले आई जिसका नाम सुनते ही लोगों के चेहरे पीले पड़ जाते थे—अंसार खान। वह शहर के अंडरवर्ल्ड का जाना-पहचाना चेहरा था, जिसकी पकड़ शराब, जुआ, हथियार और ज़मीन के सौदों तक फैली हुई थी। पुलिस फाइलों में उसका नाम कई बार दर्ज हुआ, लेकिन हर बार वह सबूतों की कमी या राजनीतिक संरक्षण की वजह से बच निकलता था। कबीर ने तय किया कि इस बार वह सीधे उसके ठिकाने तक पहुँचेगा। जब वह अंसार के इलाके में दाखिल हुआ, तो उसके चारों ओर खामोशी और डर का वातावरण था। वहाँ की दीवारों पर उखड़े हुए पोस्टर और टूटी सड़कें इस बात का सबूत थीं कि कानून का असर यहाँ नाममात्र का है। अंसार का अड्डा एक पुराने गोदाम में था, जहाँ कबीर ने छापा मारा तो कई गुर्गे हथियारों समेत पकड़े गए। पूछताछ में उनमें से एक ने स्वीकार किया कि हाल ही में अंसार को एक “खास काम” करने के लिए बड़ी रकम दी गई थी। लेकिन काम की डील बहुत रहस्यमय थी—ना तो ग्राहक का नाम सामने आया और ना ही पूरा मकसद। गुर्गे ने इतना ज़रूर कहा कि वह रकम किसी बड़े नेता के आदमी के ज़रिए आई थी। यह सुनकर कबीर के संदेह और गहरे हो गए, क्योंकि यह धागा सीधे राघव वर्मा की ओर इशारा करता था।

अंसार खान जब पुलिस की हिरासत में आया, तो उसका आत्मविश्वास बिल्कुल वैसा ही था जैसा उसने हमेशा दिखाया था—निडर, मगर भीतर से चालाक। कबीर ने उससे सीधे सवाल किया—“क्या तूने आरव मेहता को मारा?” अंसार मुस्कुराया और बोला, “साहब, हमें किसी को मारने की ज़रूरत नहीं पड़ी। जो भी करना था, हमने कर दिया—बस धमकी। बाक़ी जो हुआ, वह मेरे हाथ का नहीं।” उसकी यह बात चौंकाने वाली थी। उसने कबूल किया कि उसे आदेश मिला था कि आरव को डराया जाए ताकि वह अपनी पड़ताल बंद कर दे, और इसके लिए उसे बड़ी रकम दी गई थी। उसने अपने गुर्गों को भेजा था ताकि वे आरव की गाड़ी का पीछा करें और घर के बाहर खौफ का माहौल बनाएं। लेकिन अंसार का दावा था कि उसने हत्या का आदेश कभी नहीं दिया। कबीर को लगा कि यह आधा सच है—अंसार की आँखों में उस समय भी एक रहस्यमयी चमक थी, मानो वह जानता हो कि असली कहानी कहीं और है। उसने कबीर को इशारों में कहा—“साहब, हमारे ऊपर उंगली उठाना आसान है, लेकिन असली खिलाड़ी तो आपके सामने बैठते हैं, कुर्सियों पर… हमें तो बस मोहरे की तरह इस्तेमाल किया जाता है।” कबीर समझ गया कि अंसार आधा सच बता रहा है, और आधा छिपा रहा है। सवाल यह था कि अगर अंसार ने सिर्फ धमकी दी थी, तो आरव की हत्या किसने और क्यों की?

इस खुलासे ने मामले को और उलझा दिया। अब यह साफ हो चुका था कि हत्या की पटकथा बहुत बड़े स्तर पर लिखी गई थी। अंसार का बयान दो चीजें स्पष्ट करता था—पहला, कि पत्रकार को डराने-धमकाने की कोशिश पहले से चल रही थी; और दूसरा, कि हत्या किसी ऐसे ने करवाई, जिसके पास शक्ति और संसाधन दोनों थे। कबीर की स्थिति और कठिन हो गई, क्योंकि विभाग के अफसरों का दबाव लगातार बढ़ रहा था कि “अंसार को ही मुख्य आरोपी मानकर केस खत्म कर दो।” लेकिन कबीर जानता था कि यह सच नहीं है। वहीं दूसरी तरफ, नेहा भी अपनी खोज में और गहराई तक जा रही थी। उसे पिता की डायरी में दर्ज एक पंक्ति याद आई—“धमकी तो बस शुरुआत है, असली वार बाद में होगा।” यह पंक्ति अब बिल्कुल सटीक लग रही थी। नेहा ने कबीर से मिलकर कहा, “आप देख रहे हैं ना, मेरे पापा ने पहले ही समझ लिया था कि उन्हें धमकियों के बाद निशाना बनाया जाएगा। और अंसार जैसे लोग बस किसी और की छाया में काम कर रहे हैं।” दोनों अब मान चुके थे कि असली कातिल परतों के पीछे छिपा हुआ है, और उसका चेहरा सामने लाना आसान नहीं होगा। लेकिन यह भी तय था कि अब जांच का अगला कदम सीधे सत्ता और पुलिस तंत्र की गहराइयों में ले जाएगा, जहाँ साज़िश का असली सूत्रधार इंतज़ार कर रहा था।

नेहा ने जब रिया चौधरी से मिलने का फैसला किया, तो उसके मन में कई सवाल उमड़ रहे थे। रिया उसके पिता आरव मेहता की सबसे भरोसेमंद सहयोगियों में से एक थी—एक युवा पत्रकार, जो आरव के मार्गदर्शन में काम करती थी और उसकी कई स्टोरीज़ में छिपा सहारा बनी थी। लेकिन अब जब आरव की हत्या हो चुकी थी और नीली फाइल गायब थी, तो रिया की चुप्पी और दूरी ने नेहा के मन में शक के बीज बो दिए थे। रिया ने मिलने के लिए एक कैफ़े चुना, जो शहर के बीचों-बीच भीड़भाड़ से भरा हुआ था। नेहा जब वहाँ पहुँची, तो रिया की आँखों में थकान और डर साफ़ झलक रहा था। बातचीत की शुरुआत में रिया ने धीमे स्वर में कहा, “तुम्हारे पापा ने जो काम शुरू किया था, वह बहुत बड़ा था… इतना बड़ा कि कई लोग उन्हें रोकना चाहते थे। मुझे भी कई बार धमकी मिली, और इसलिए मैं चुप रही।” उसकी बातों में सच्चाई झलक रही थी, लेकिन फिर भी नेहा के दिल में यह सवाल बार-बार उठ रहा था—क्या रिया ने ही अपने डर या किसी दबाव के कारण कुछ जानकारी लीक कर दी? नेहा ने उसे सीधे पूछ लिया, “क्या तुमने मेरे पापा का राज किसी को बताया था?” रिया की आँखें नम हो गईं, लेकिन उसने नज़रें झुका लीं। इस मौन ने नेहा के संदेह को और गहरा दिया।

उधर, कबीर भी बढ़ते दबाव का सामना कर रहा था। विभाग के भीतर से लगातार आवाज़ें उठने लगी थीं कि वह जांच को गलत दिशा में मोड़ रहा है। कुछ अख़बारों और चैनलों पर यह ख़बर फैलने लगी कि इंस्पेक्टर कबीर का नाम भी “नीली फाइल” में दर्ज है। यह खबर सुनकर कबीर हिल गया—क्योंकि अब सवाल उसके ईमान पर उठ रहा था। उसने महसूस किया कि उसके अपने ही साथी उस पर शक कर रहे हैं, और कोई अदृश्य हाथ उसकी छवि को ख़राब करने की कोशिश कर रहा है। कबीर ने अपने स्तर पर फाइल से जुड़ी जानकारी खोजनी शुरू की और पाया कि वास्तव में उस फाइल में कुछ पुलिस अफ़सरों के नाम दर्ज थे, लेकिन क्या उसमें उसका नाम भी शामिल था? यह रहस्य अभी साफ़ नहीं था। उसने महसूस किया कि जैसे-जैसे वह सच के करीब पहुँच रहा है, वैसे-वैसे कोई साज़िश उसे जकड़ने की कोशिश कर रही है। यह दोहरी लड़ाई थी—एक तरफ असली कातिल और फाइल तक पहुँचने का संघर्ष, और दूसरी तरफ अपनी बेगुनाही साबित करने की जद्दोजहद।

नेहा और कबीर दोनों ही अलग-अलग मोर्चों पर सच तलाश रहे थे, लेकिन उनके बीच विश्वास की डोर बार-बार कसौटी पर कस रही थी। नेहा को लगने लगा कि शायद कबीर भी इस खेल का हिस्सा है—क्योंकि जिस तरह मीडिया में अचानक उसकी छवि को लेकर सवाल उठे, उसमें कहीं-न-कहीं कोई छिपा सच ज़रूर था। उसने कबीर से मुलाक़ात कर सीधा पूछा, “क्या वाकई उस फाइल में तुम्हारा भी नाम है?” कबीर ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा, “अगर मेरा नाम होता, तो क्या मैं खुद ये केस अपने हाथ में लेता? लेकिन किसी ने बड़ी चालाकी से मुझे इसमें फँसाने की कोशिश की है।” नेहा को उसकी बातों पर यक़ीन करने का मन तो हुआ, मगर उसके भीतर का डर और शक उसे रोकता रहा। उधर रिया, जो सच बताने के लिए तैयार नहीं थी, अचानक गायब हो गई। उसके फोन बंद हो गए, और उसका घर सूना मिला। इस गायब होना इस बात का संकेत था कि या तो रिया पर दबाव बढ़ चुका है, या फिर उसने खुद अपने को इस जाल से बचाने के लिए दूरी बना ली है। अब नेहा के सामने दोहरी चुनौती थी—रिया की गुमशुदगी का राज़ और कबीर पर उठते शक का साया। दोनों धागे उसे बार-बार उसी जगह खींच रहे थे जहाँ से यह सब शुरू हुआ था—उस नीली फाइल तक, जिसकी तलाश हर कोई कर रहा था।

कबीर सिंह उस सुबह पुलिस मुख्यालय में डीजीपी शैलेन्द्र राठौर से मिलने पहुँचा तो माहौल असामान्य रूप से भारी था। राठौर की मेज़ पर अख़बार बिखरे हुए थे, जिनकी सुर्खियाँ बार-बार एक ही सवाल उठा रही थीं—“वरिष्ठ पत्रकार की हत्या का राज़ क्यों दबा रही है पुलिस?”। लेकिन राठौर का चेहरा ठंडा और कठोर था। उन्होंने कबीर को भीतर बुलाकर कहा, “इंस्पेक्टर, तुम इस केस में जितना गहरे उतर रहे हो, उतना ही अपने लिए मुश्किलें बढ़ा रहे हो। ये कोई साधारण मर्डर नहीं है। मेरी सलाह है—जो ऊपर से आदेश मिले, उतना करो, ज़्यादा खुदाई मत करो।” कबीर को यह सीधा संकेत था कि जांच को सीमित दायरे में रखने का दबाव है। लेकिन कबीर जैसे-जैसे सच्चाई के करीब पहुँच रहा था, वैसे-वैसे उसके भीतर गुस्सा और जिज्ञासा दोनों बढ़ रहे थे। उसने महसूस किया कि हत्या और नीली फाइल की डोर सीधे विभाग के ऊपरी अफ़सरों और नेताओं तक पहुँचती है। बाहर निकलते समय उसने देखा कि कुछ अफ़सर आपस में धीमी आवाज़ में बात कर रहे थे और उसकी ओर संदेहभरी निगाहें डाल रहे थे। कबीर समझ गया था—अब वह अकेला नहीं है, बल्कि हर कदम पर नज़र रखी जा रही है।

इधर नेहा अपने स्तर पर पिता के पुराने लैपटॉप और ईमेल्स खंगाल रही थी। कई रातों तक बिना सोए उसने हर मेल, हर नोट और हर ड्राफ्ट की छानबीन की। तभी उसे एक फोल्डर मिला, जो पासवर्ड-प्रोटेक्टेड था। पासवर्ड डालने की कई कोशिशों के बाद उसने वह फोल्डर खोल लिया। उसमें दर्ज दस्तावेज़ साफ़ बताते थे कि आरव मेहता किसी बड़े “सिस्टमिक करप्शन” पर काम कर रहे थे, जिसमें पुलिस, राजनेता और बिज़नेस लॉबी तीनों जुड़े थे। इन फाइलों में कई कोडनेम थे, जिनमें से एक नाम नेहा का ध्यान खींचता था—“आर-1।” यह कोडनेम किसी बहुत बड़े अधिकारी का हो सकता था। नेहा ने यह जानकारी कबीर से साझा करने का फैसला किया, हालांकि अभी तक वह उस पर पूरी तरह भरोसा नहीं करती थी। लेकिन जब उसने देखा कि कबीर भी ऊपर से दबाव झेल रहा है और फिर भी केस छोड़ने को तैयार नहीं, तो उसके भीतर धीरे-धीरे विश्वास पनपने लगा। दोनों ने तय किया कि अब वे अकेले नहीं, बल्कि साथ मिलकर इस पहेली को सुलझाएँगे।

एक शाम जब दोनों पुराने केस-फाइलों की छानबीन कर रहे थे, तो कबीर ने कहा, “यह ‘आर-1’ शायद डीजीपी शैलेन्द्र राठौर ही हैं। उनके खिलाफ़ सीधे सबूत तो नहीं हैं, लेकिन जिस तरह वह जांच रोकने की कोशिश कर रहे हैं, उससे सब साफ़ होता है।” नेहा चौंक गई, क्योंकि यह वही अफसर थे जिन्हें पुलिस विभाग का सबसे ईमानदार और कठोर माना जाता था। लेकिन अगर वही इस साजिश के हिस्से हैं, तो इसका मतलब है कि नीली फाइल में दर्ज नाम वाकई बहुत बड़े और खतरनाक लोग हैं। तभी कबीर को आरव के घर से मिले पुराने नोट्स में एक चिट्ठी का टुकड़ा याद आया। उसमें किसी जगह का ज़िक्र था—“सुल्तानगंज वेयरहाउस।” नेहा ने फौरन कहा, “हो सकता है कि पापा ने वहीं कुछ छिपाया हो।” यह पहला असली सुराग था जो उन्हें सीधे नीली फाइल की ओर ले जा सकता था। अब उनके सामने चुनौती थी कि वहाँ पहुँचा जाए, लेकिन बिना इस बात का आभास दिए कि वे किस दिशा में बढ़ रहे हैं। क्योंकि सिस्टम का हर बड़ा खिलाड़ी उनकी हर हरकत पर नज़र रख रहा था। दोनों के बीच अब विश्वास की नई डोर बंध चुकी थी, और यह केस सिर्फ आरव मेहता की हत्या का नहीं रहा—यह लड़ाई बन चुकी थी सच और झूठ, हिम्मत और चालाकी के बीच।

नेहा ने जैसे ही अपने पिता के पुराने ईमेल्स और फाइल्स की छानबीन तेज़ की, उसी रात से उसका फ़ोन बार-बार अज्ञात नंबरों से बजने लगा। पहले तो उसने सोचा यह महज़ एक संयोग होगा, लेकिन जब हर कॉल में सिर्फ़ खामोशी रहती और कभी-कभी किसी अनजान की भारी सांसें सुनाई देतीं, तब उसे समझ आ गया कि कोई उस पर नज़र रख रहा है। धीरे-धीरे कॉल्स धमकियों में बदल गईं—“ज्यादा होशियारी दिखाओगी तो अगला नाम तुम्हारा होगा…”, “फाइल को भूल जाओ वरना तुम भी अपने बाप की तरह खामोश हो जाओगी…”। नेहा को अक्सर लगता कि कोई बाइक पर उसका पीछा कर रहा है, रात को खिड़की के बाहर अंधेरे में परछाइयाँ हिलती नज़र आतीं। यह डर उसे तोड़ सकता था, लेकिन उसके भीतर का संकल्प और मजबूत हो गया। उसने कबीर को यह सब बताया। कबीर ने उसकी सुरक्षा के लिए दो कॉन्स्टेबल तैनात करवाए, मगर वह जानता था कि जब दुश्मन इतने ताक़तवर और रसूखदार हों, तो पुलिस की औपचारिक सुरक्षा बेमानी है।

उधर कबीर पर भी दबाव बढ़ने लगा। विभाग के भीतर से संकेत आने लगे कि अगर उसने केस को तुरंत बंद नहीं किया तो उसका ट्रांसफर किसी दूर-दराज़ थाने में कर दिया जाएगा। कुछ अफसरों ने यहाँ तक कह दिया कि उसका निलंबन भी हो सकता है। यह सब सुनकर कबीर के मन में गुस्सा और आक्रोश उमड़ आया, लेकिन उसने हार मानने के बजाय खुद को और सख़्त बना लिया। नेहा और कबीर अब नियमित रूप से मिलते और केस के हर टुकड़े को जोड़ने की कोशिश करते। एक रात, जब वे दोनों आरव के पुराने लैपटॉप की गहराई से जांच कर रहे थे, तो अचानक एक छिपा हुआ फोल्डर खुल गया। उसमें एक वीडियो फाइल सेव थी। कबीर ने जैसे ही उसे चलाया, स्क्रीन पर आरव मेहता का चेहरा उभर आया। वीडियो की क्वालिटी थोड़ी धुंधली थी, लेकिन उसकी आँखों में बेचैनी और दृढ़ता साफ़ झलक रही थी। उसने धीमी आवाज़ में कहा—“अगर यह वीडियो तुम देख रहे हो, तो समझ लो मुझे सच उजागर करने से रोक दिया गया है। नीली फाइल सिर्फ कागज़ नहीं है, यह उन लोगों का असली चेहरा है जिन पर तुम भरोसा करते हो। अगर मुझे कुछ हुआ, तो याद रखना—हत्यारे बाहर के नहीं, अंदर के हैं। वे लोग जिनसे तुम उम्मीद करते हो, वही असली गुनहगार हैं।”

नेहा और कबीर दोनों स्तब्ध रह गए। यह वीडियो सब कुछ बदल देने वाला था। अब साफ़ था कि हत्या और गायब हुई फाइल के पीछे वही लोग हैं जो खुद को रक्षक बताते हैं—राजनेता, पुलिस अधिकारी और सत्ता से जुड़े चेहरे। नेहा का चेहरा सफेद पड़ गया, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सी आग भड़क उठी। उसने कहा, “अब यह मामला सिर्फ पापा के लिए न्याय का नहीं रहा। यह उन सब नकली चेहरों को बेनक़ाब करने की लड़ाई है।” कबीर ने उसकी ओर देखा और सिर हिलाया। वह जानता था कि इस खुलासे के बाद उनकी ज़िंदगी और भी खतरनाक मोड़ पर पहुँच चुकी है। धमकियाँ अब सिर्फ़ शब्दों तक सीमित नहीं रहेंगी—यह जंग जानलेवा साबित हो सकती है। लेकिन वह यह भी समझ चुका था कि अगर अब पीछे हट गया, तो न सिर्फ़ आरव मेहता की मौत बेकार जाएगी, बल्कि सच्चाई हमेशा के लिए दफ़न हो जाएगी। वीडियो देखते ही उन्हें एक और बात समझ आई—नीली फाइल सिर्फ एक दस्तावेज़ नहीं थी, बल्कि आरव ने उसे अपनी आख़िरी सांस तक सुरक्षित रखने की कोशिश की थी। अब नेहा और कबीर पर यह ज़िम्मेदारी आ चुकी थी कि किसी भी कीमत पर उस फाइल को खोजें और उसके पीछे छिपे साज़िशकर्ताओं को सामने लाएँ।

नेहा और कबीर जैसे-जैसे इस केस में गहराई से उतरते गए, परत दर परत सच सामने आता गया। पहले उन्हें लगता था कि नीली फाइल केवल एक ब्लैकमेल का हथियार थी—आरव ने शायद नेताओं और अधिकारियों की कमज़ोरियों का फायदा उठाने की कोशिश की होगी। लेकिन जैसे ही उन्होंने उस फाइल से जुड़े डिजिटल बैकअप और आरव के अधूरे नोट्स को जोड़ना शुरू किया, एक नया ही चित्र उभरने लगा। आरव ब्लैकमेलर नहीं, बल्कि एक सच्चा पत्रकार था, जिसने अपनी जान की परवाह किए बिना एक बड़ा घोटाला उजागर करने का बीड़ा उठाया था। उसकी डायरी और मेल्स में साफ़ लिखा था कि वह नीली फाइल को किसी सुरक्षित मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपलोड करने वाला था, ताकि देश के सामने भ्रष्ट नेताओं और अफसरों का असली चेहरा आ सके। वह चाहता था कि कोई भी ताक़तवर व्यक्ति इस सच को दबा न पाए। लेकिन नियति ने उससे यह मौका छीन लिया। उसकी हत्या समय से पहले कर दी गई, ताकि सच्चाई दुनिया तक पहुँचने से पहले ही दफ़न हो जाए। नेहा की आँखों में आँसू थे, लेकिन उनमें एक अजीब संतोष भी था कि उसके पिता के इरादे स्वार्थी नहीं बल्कि ईमानदार थे। वहीं कबीर के मन में यह एहसास गहरा गया कि अब यह केस केवल एक हत्या की जांच नहीं, बल्कि आरव के अधूरे मिशन को पूरा करने की लड़ाई है।

जैसे ही सबूतों की कड़ियाँ जुड़ती गईं, तीन बड़े नाम सामने उभरकर आए—राजनेता राघव वर्मा, अंडरवर्ल्ड से जुड़ा अंसार खान और पुलिस विभाग का बड़ा अधिकारी डीजीपी शैलेन्द्र राठौर। यह तिकड़ी किसी भी फिल्मी कहानी से कम खतरनाक नहीं थी। आरव की फाइल में राघव के चुनावी चंदे के घोटालों और हवाला ट्रांजैक्शन्स के पुख्ता सबूत थे। अंसार खान के बारे में जानकारी थी कि उसने अवैध हथियारों की डीलिंग और शहर में रियल एस्टेट माफिया को सपोर्ट किया था। वहीं राठौर पर यह आरोप था कि उसने अपने पद का इस्तेमाल करके इन दोनों की मदद की, केस दबाए और गलत गवाहियाँ तैयार करवाईं। यह एक ऐसा नेटवर्क था जिसमें सत्ता, अपराध और पुलिस—all hand in glove थे। जब नेहा ने पहली बार यह सब दस्तावेज़ पढ़े, तो उसके रोंगटे खड़े हो गए। यह सिर्फ़ उसके पिता के हत्यारे नहीं थे, बल्कि पूरे सिस्टम को खोखला कर देने वाले लोग थे। कबीर ने भी यह मान लिया कि अब इस तिकड़ी को सामने लाना ही उनका सबसे बड़ा मकसद है। मगर वह यह भी जानता था कि जिनके पास इतनी ताक़त है, उन्हें बेनक़ाब करना आसान नहीं होगा।

नेहा और कबीर देर रात तक बैठकर प्लान बनाते। उन्हें एहसास हो गया था कि अगर यह फाइल केवल अदालत या पुलिस तक पहुँची, तो राठौर जैसे अफसर तुरंत इसे दबा देंगे। उन्हें वह रास्ता चुनना होगा जिससे सच सीधे जनता तक पहुँचे—जैसा आरव चाहता था। नेहा का सुझाव था कि किसी भरोसेमंद स्वतंत्र पत्रकार या अंतरराष्ट्रीय मीडिया प्लेटफॉर्म को यह जानकारी दी जाए। कबीर थोड़ा सतर्क था, क्योंकि एक छोटी सी गलती से न केवल फाइल हमेशा के लिए गायब हो सकती थी बल्कि उनकी जान भी खतरे में पड़ सकती थी। इसी बीच, उन्हें आरव के पुराने दोस्तों से पता चला कि उसने अपने एक साथी को बैकअप कॉपी भेजी थी, जो अभी तक सुरक्षित है। यह उम्मीद की किरण थी, लेकिन साथ ही खतरे की घंटी भी—क्योंकि अगर दुश्मनों को यह भनक लग गई, तो उस साथी की जान भी जोखिम में पड़ जाएगी। नेहा ने दृढ़ स्वर में कहा—“पापा का मिशन अब हमारा मिशन है। चाहे जो हो, इस बार सच दबने नहीं दूँगी।” कबीर ने उसकी आँखों में वही आग देखी, जो कभी आरव की आँखों में चमकती होगी। अब दोनों जानते थे कि लड़ाई अपने अंतिम मोड़ पर पहुँच रही है। लेकिन साथ ही यह भी सच था कि जितना करीब वे सच तक पहुँच रहे थे, उतना ही मौत का साया उनके चारों ओर गहरा होता जा रहा था।

१०

यह फाइल केवल एक साधारण दस्तावेज़ नहीं है, बल्कि उसमें दर्ज हैं देश के बड़े-बड़े नाम और उनके रहस्यमय कनेक्शन, जो सीधे या परोक्ष रूप से अवैध गतिविधियों, भ्रष्टाचार, और सत्ता के खेल में लिप्त हैं। नेहा की आँखों में एक अजीब सी चमक है—यह चमक है सच्चाई से सामना करने की, और साथ ही उस खतरे की भी, जो उनकी खोज से उत्पन्न हो सकता है। कबीर, जो हमेशा शांत और नियंत्रित रहने का दिखावा करता रहा है, अब न केवल दस्तावेज़ों की गंभीरता को महसूस करता है, बल्कि यह भी समझता है कि उनकी खोज ने उन्हें एक ऐसी दुविधा में डाल दिया है, जहाँ एक कदम सही और दूसरा कदम गलत साबित हो सकता है। दोनों के सामने सवाल है—क्या वे इन सबको उजागर करें, या किसी की सुरक्षा के नाम पर कुछ हिस्सों को छुपाकर रखें। फाइल का वजन इतना भारी है कि उसका असर सिर्फ उनके जीवन पर नहीं, बल्कि पूरे समाज और मीडिया पर भी पड़ेगा। मीडिया में हलचल तेज़ होती है, पत्रकारिता की दुनिया में यह खबर आग की तरह फैलती है, और कई बड़े लोग कानूनी शिकंजे में फंसते हैं। नेहा और कबीर अपने कामयाबी के क्षण का आनंद तो लेते हैं, लेकिन उनके मन में एक अजीब सा डर भी घर कर जाता है—क्या सच सामने आने के बाद लोग उन्हें दोषी ठहराएंगे, या उनका समर्थन करेंगे?

फाइल की खोज और उसके परिणाम केवल बाहरी घटनाओं तक सीमित नहीं रहते। नेहा और कबीर को अपने व्यक्तिगत और पेशेवर रिश्तों में भी बदलाव महसूस होता है। उनके करीबी मित्र, सहयोगी, और परिवार के लोग इस खबर की गंभीरता को समझते हुए अपने-अपने तरीके से प्रतिक्रिया देते हैं। कुछ उन्हें हीरो मानते हैं, तो कुछ उनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित रहते हैं। इसी बीच, फाइल से जुड़े मामलों में गिरफ्तारी होती है—कुछ लोग सीधे जेल जाते हैं, तो कुछ मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए मानसिक और सामाजिक दबाव का सामना करते हैं। नेहा और कबीर यह अनुभव करते हैं कि न्याय की राह कितनी पेचीदा और जटिल हो सकती है। उनके सामने यह भी एक बड़ा सवाल आता है कि क्या केवल दस्तावेज़ उजागर करना ही पर्याप्त है, या समाज और कानून के ढांचे में गहरी बदलाव की भी जरूरत है। इसके साथ ही फाइल में मौजूद गूढ़ कनेक्शन और छुपी हुई जानकारी उनके मन में लगातार नए सवाल पैदा करती रहती है। यह अनुभूति उन्हें यह समझने पर मजबूर करती है कि सच्चाई सिर्फ़ उजागर करने की चीज़ नहीं, बल्कि उसके परिणामों को समझने और संभालने की भी जिम्मेदारी है।

अध्याय का अंत एक रहस्य की तरह खुलता है। जैसे ही नेहा और कबीर यह सोचते हैं कि खेल खत्म हो गया, वे महसूस करते हैं कि फाइल का एक हिस्सा गायब है। यह छोटा सा लेकिन महत्वपूर्ण हिस्सा अब किसी और के हाथों में है—शायद वह व्यक्ति और भी गहरी साजिशों में लिप्त है। यह दृश्य दर्शकों और पाठकों को यह अहसास कराता है कि कहानी ने केवल एक मोड़ लिया है, समाप्त नहीं हुई। सवाल उठता है—क्या यह खेल सचमुच खत्म हुआ है, या अब एक नई लड़ाई, नए दुश्मन और नई चुनौतियाँ सामने आने वाली हैं? नेहा और कबीर की आंखों में अब सिर्फ़ सच्चाई की चमक नहीं, बल्कि चिंता और सतर्कता भी दिखती है। उनका अनुभव यह बताता है कि कभी-कभी सच्चाई की खोज अंतहीन होती है, और हर खुलासा एक नए रहस्य का जन्म देता है। पाठक के मन में यह जिज्ञासा बनी रहती है कि अगला कदम क्या होगा, कौन होगा अगले खेल का खिलाड़ी, और क्या नेहा और कबीर इस नई चुनौती का सामना कर पाएंगे या नहीं।

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