Hindi - क्राइम कहानियाँ

नींद का इंजेक्शन

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संध्या जोशी


रात के ढाई बजे थे। मुंबई की हवा में उमस थी, लेकिन सिटी केयर अस्पताल की ICU यूनिट में एसी की ठंडक के बीच सब कुछ शांत था—कम से कम सतह पर। अंदर गहराई में कुछ हिल रहा था। ICU नंबर 3 में 52 वर्षीय व्यवसायी राजीव भाटिया की एपेंडिक्स सर्जरी खत्म हुए तीन घंटे हो चुके थे। ऐनेस्थेसिया के प्रभाव से उबरने के बाद, उन्हें हल्की नींद देने के लिए Zolaprim नामक एक आम नींद का इंजेक्शन देना था—जो अस्पताल की SOP (Standard Operating Procedure) का हिस्सा था। रात्रि ड्यूटी पर तैनात डॉक्टर कबीर माथुर ने नर्स को आदेश दिया और फिर खुद इंजेक्शन तैयार किया। हाथ अनुभवी था, चेहरा संयमित। मरीज को इंजेक्शन देने के बाद वह रिकॉर्ड्स में कुछ नोट कर ही रहा था कि मॉनिटर की बीप अचानक अनियमित हो गई। नर्स घबराई। पल्स घट रही थी। डॉक्टर कबीर ने CPR और दूसरी मेडिकल कोशिशें तुरंत शुरू कीं, लेकिन कुछ ही मिनटों में मरीज स्थिर हो गया—न कोमा में, न मौत में—बस एक सन्नाटा। कबीर की आंखें कुछ पल के लिए स्क्रीन पर अटक गईं। यह असामान्य था।

अगले हफ्ते में चार और मामले सामने आए। अलग-अलग वॉर्ड, अलग-अलग ऑपरेशन—लेकिन पैटर्न एक ही: ऑपरेशन सफल, मरीज स्थिर, फिर Zolaprim का इंजेक्शन… और फिर अचानक ब्रेन रेस्पॉन्स बंद, गहरी कोमा। अस्पताल की मेन बोर्ड मीटिंग बुलाई गई। मीडिया को भनक लग चुकी थी। “क्या सिटी केयर में हो रही है लापरवाही?” और “कौन दे रहा है मौत की नींद?” जैसे हेडलाइनें चैनलों पर तैरने लगीं। डॉक्टर कबीर, जो हर केस में इंजेक्शन देने वाला मुख्य व्यक्ति था, अचानक शक के घेरे में आ गया। उसका रेज़िडेंट स्टाफ धीरे-धीरे पीछे हटने लगा। फार्मा टीम ने रिपोर्ट देने से मना कर दिया। वरिष्ठ सर्जनों ने बयान दिया कि कबीर “बहुत अच्छा डॉक्टर है लेकिन शायद ओवरवर्क हो गया है।” डीन डॉ. रघुवीर शेट्टी ने एक प्रेस मीट बुलाकर कहा कि “जांच जारी है, और एक डॉक्टर को प्रशासनिक रूप से निलंबित किया गया है।” नाम नहीं लिया गया, लेकिन सभी समझ गए—इशारा किसकी ओर है।

उस रात, कबीर अपने फ्लैट में नहीं मिला। दरवाज़ा अंदर से बंद नहीं था, लैपटॉप और फोन गायब थे, लेकिन पासपोर्ट और वॉलेट वहीं रखे थे। पुलिस को शुरुआत में लगा—वह भाग गया है। लेकिन बहन डॉ. तान्या माथुर ने इंकार किया। “कबीर कभी भागने वालों में से नहीं है,” उसने कहा। वह खुद एक जानी-मानी क्रिमिनल साइकॉलजिस्ट थी, और अब भाई के लापता होने को एक सामान्य घटना नहीं मान रही थी। उसने कबीर का टेबल चेक किया—उस पर वही मेडिकल जर्नल खुला था, जिसमें Zolaprim पर एक लंबा लेख छपा था। कैब ऐप्स में कोई रिकॉर्ड नहीं, CCTV फुटेज अधूरी। जैसे किसी ने जानबूझकर सब मिटाया हो। और तब तान्या ने तय किया—वह खुद इस खेल को समझेगी। यह न सिर्फ कबीर की प्रतिष्ठा की लड़ाई थी, बल्कि अब उसके अस्तित्व की भी थी।

डॉ. तान्या माथुर की कार जैसे ही मरीन ड्राइव पुलिस स्टेशन के सामने रुकी, उसकी आंखें थकान से लाल थीं लेकिन चाल में कोई हिचक नहीं थी। अंदर दाखिल होते ही सिगरेट के धुएं और पुराने कागज़ों की गंध मिली—मानो यहां सच्चाई धुंध में लिपटी हो। रिसेप्शन पर बैठे कॉन्स्टेबल ने उसे ऊपर भेजा—ACP आरव कोहली का केबिन। ऑफिस के भीतर हवा भारी थी, खिड़की से आती हल्की रौशनी धूल के कणों से जूझ रही थी। दीवार पर एक पुरानी गोलीबारी की केस फाइल लगी थी—कहानी बदलती नहीं, बस चेहरे बदलते हैं। “डॉ. तान्या,” आरव ने फ़ाइल पर से नज़र हटाते हुए कहा, “आपके भाई का केस हमारे पास आया है लेकिन वो कोई क्रिमिनल नहीं, मिसिंग पर्सन माना गया है—अभी तक।” उसकी आवाज़ में औपचारिकता थी, पर कोई सहानुभूति नहीं। “ACP साहब,” तान्या ने संयम से जवाब दिया, “अगर आप इसे सिर्फ ‘गायब होने का मामला’ मानते हैं, तो आप वही देख रहे हैं जो सतह पर है।” आरव ने मुस्कराते हुए पूछा, “और आप जो देख रही हैं, वो क्या है?” “एक बहुत ही सुनियोजित साज़िश,” तान्या ने कहा, “जिसमें न सिर्फ एक डॉक्टर, बल्कि पांच बेगुनाह मरीज भी पीड़ित हैं।”

आरव ने धीरे से एक फ़ाइल खींची और टेबल पर रख दी। पाँचों मरीजों के मेडिकल डिटेल्स थे—हर केस में एक बात समान थी: Zolaprim इंजेक्शन देने के 20 से 30 मिनट के भीतर ब्रेन रेस्पॉन्स गिरना शुरू होता था। लेकिन फार्मा कंपनी के रिपोर्ट्स में कोई गड़बड़ी नहीं दिखाई गई। उन्होंने ‘batch cleared’ की मोहर लगा दी थी। “हम इसे ड्रग एलर्जी का मामला भी मान सकते हैं,” आरव ने तर्क दिया। तान्या ने सिर हिलाया। “अगर एक ही डॉक्टर पांच बार एलर्जी-प्रवण मरीजों को एक ही इंजेक्शन देता है, तो या तो वो अक्षम है या जानबूझकर कुछ कर रहा है। लेकिन तीसरा विकल्प भी है—किसी और ने इंजेक्शन बदल दिया।” आरव कुछ पल चुप रहा, फिर धीरे से बोला, “आपको यकीन है कि आपका भाई दोषी नहीं है?” तान्या की आँखें कड़ी हो गईं—“जितना यकीन मुझे अपने होश पर है।” लेकिन जब उसने कबीर के लापता होने की रात के कॉल डेटा मांगे, तो आरव ने सिर्फ इतना कहा, “अभी तक कोई फाउल प्ले का सबूत नहीं मिला है।” बात वहीं ठहर गई। लेकिन तान्या जानती थी—सच सिर्फ पुलिस फाइलों में नहीं होता, कुछ सच्चाइयाँ अस्पताल की दीवारों के भीतर सिसकती हैं।

अगले दिन तान्या सिटी केयर अस्पताल लौटी। सुरक्षा पहले से कड़ी थी। मीडिया को दूर रखा जा रहा था, लेकिन अंदर का स्टाफ बिखर चुका था। कुछ डॉक्टर छुट्टी पर थे, कुछ अचानक ट्रांसफर पर। जब तान्या ICU के नज़दीक पहुँची, तो वहाँ ड्यूटी पर वही नर्स मिली—संध्या चौहान, जो कबीर के साथ अंतिम ड्यूटी पर थी। उसने तान्या को देखा, पहचान लिया, और बस आंखों से एक इशारा किया—‘बोल नहीं सकती’। लेकिन उसके चेहरे पर कुछ ऐसा था जो तान्या को समझ आ गया—डर। कोई बात है, जो उसे चुप करा रही है। फार्माकोलॉजी विभाग में जाने पर डॉ. नील भोसले से तान्या की पहली मुलाकात हुई। उसने मुस्कराते हुए कहा, “डॉक्टरों के केसों में साइकॉलजिस्ट का क्या काम?” तान्या ने मुस्कराकर जवाब दिया, “जब अपराधी सिर्फ चाकू नहीं, सूई से मारता है—तो सोच की सुई से ही पकड़ा जा सकता है।” नील हँसा, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब चमक थी। तान्या की छठी इंद्रिय कह रही थी—ये आदमी कुछ छुपा रहा है। जब वह जाने लगी, तो नील ने हल्के से कहा, “कभी-कभी ज़्यादा जानना भी खतरनाक होता है, डॉ. तान्या।” यह एक चेतावनी थी या धमकी—फिलहाल वह तय नहीं कर पाई। लेकिन इतना तय था, अब यह सिर्फ उसके भाई की बेगुनाही की तलाश नहीं, बल्कि अस्पताल के भीतर छिपे मौत के इंजेक्शन का सच जानने की लड़ाई बन चुकी थी।

मुंबई की बरसाती सुबहें सड़कों पर कीचड़ और मन में बेचैनी छोड़ जाती हैं। डॉ. तान्या माथुर आज अस्पताल नहीं गई। उसने भाई कबीर का फ्लैट एक बार फिर खंगालना शुरू किया—इस बार भावुक बहन नहीं, एक प्रशिक्षित मनोवैज्ञानिक की तरह। कमरे में सब कुछ सुव्यवस्थित था, जैसे कबीर ने घर छोड़ते वक़्त जल्दीबाज़ी नहीं की हो, बल्कि किसी को भ्रम देने के लिए जानबूझकर हर चीज़ करीने से रखी हो। डेस्क पर एक पुराना फ़ोल्डर मिला, जिस पर अस्पताल की मोहर थी लेकिन ऊपर किसी ने हाथ से “न छेड़ें” लिखा था। अंदर कुछ प्रिंटआउट थे—औषधि वितरण के लॉग्स, इंजेक्शन बैच नंबर और सप्लायर फॉर्म। एक फॉर्म पर उसका ध्यान अटक गया—Form 17-B: Medication Batch Replacement Request। यह फॉर्म सामान्यत: तभी भरा जाता है जब अस्पताल पुरानी दवाइयाँ वापस करके किसी नई कंपनी से सप्लाई लेता है। लेकिन फॉर्म में जिस कंपनी का नाम था—Neurochem Labs Pvt. Ltd., वह नाम मेडिकल सर्किट में नया था। तान्या ने तुरंत ऑनलाइन सर्च किया—कंपनी सिर्फ छह महीने पुरानी थी, और उसका रजिस्ट्रेशन पता एक बंद गोदाम में दिखा। कुछ तो गड़बड़ थी।

उसने वही फॉर्म लेकर सीधे अस्पताल की औषधि शाखा का रुख किया। डेस्क पर बैठे फार्मा क्लर्क ने फॉर्म देखकर चौंकने का अभिनय किया लेकिन जल्दी ही संयत हो गया। “मैम, ये तो पुराना रिकॉर्ड है, सब ऑडिट टीम के पास है,” उसने कहा। तान्या ने मुस्कराकर जवाब दिया, “मैंने देखा है, ऑडिट रिपोर्ट में ये फॉर्म है ही नहीं।” क्लर्क ने नजरें चुराईं, जैसे सब कुछ जानते हुए भी बोलना मना हो। तभी पीछे से आवाज़ आई—“कोई खास तलाश रही हैं, डॉ. तान्या?” यह डॉ. नील भोसले था, जो अचानक वहां आ टपका। “बस पुराने रिकॉर्ड देख रही हूँ,” तान्या ने कहा। “यहां जो पुराना होता है, वो या तो फाड़ दिया जाता है या भूल दिया जाता है,” नील ने कहा और चला गया। उसकी बातों में न तो सीधा खतरा था, न राहत—बस एक मूक चेतावनी। तान्या को अब यकीन हो चला था कि इंजेक्शन में कुछ बदला गया है। सवाल सिर्फ यह था—कब, किसने और क्यों?

शाम ढलने से पहले तान्या ने एक आखिरी कोशिश की। वह सीधी ICU यूनिट पहुंची, जहां पांचों कोमा में गए मरीजों की फाइलें रखी थीं। वहां नर्स संध्या चौहान अकेली बैठी थी, उसकी आँखों में भय का स्थायी डेरा था। तान्या ने धीरे से कहा, “मैं कबीर की बहन हूँ… मुझे पता है तुमने कुछ देखा है।” संध्या ने आंखें उठाईं—डरी हुई, लेकिन कुछ कहने को व्याकुल। उसने धीरे से ICU की ओर इशारा किया, फिर बोली, “मैंने खुद नहीं देखा… लेकिन एक बार रात में, ऑपरेशन के बाद, जब कबीर सर इंजेक्शन देने वाले थे, तभी उन्होंने ट्रे बदली हुई पाई… उन्होंने मुझसे पूछा, लेकिन मैंने कुछ नहीं बदला था। मुझे लगा उन्होंने ही किया होगा।” तान्या चौंकी—“तो क्या ट्रे कोई और बदल गया था?” संध्या ने सिर झुका लिया—“हम कैमरे चेक नहीं कर सकते… और जब मैंने रिपोर्ट करने की कोशिश की, तो मुझे सस्पेंड की धमकी दी गई।” तान्या समझ गई—ये सिर्फ इंजेक्शन की नहीं, अस्पताल की आत्मा की भी हत्या थी। अब यह केस उसके भाई की प्रतिष्ठा और जान से बढ़कर था—यह एक ऐसे सिस्टम से टकराने का ऐलान था, जो भीतर ही भीतर ज़हर फैला रहा था… सूई की नोक पर।

अगली सुबह अस्पताल की इमारत वैसी ही थी—चमचमाते काँच, सफेद कोटों की भीड़ और मशीनों की शांत गूंज। लेकिन डॉ. तान्या माथुर की निगाह में यह इमारत अब चिकित्सा का मंदिर नहीं, एक रहस्यमयी भूलभुलैया थी, जहाँ हर दरवाज़े के पीछे साजिशें दबी थीं। वह सीधे सिक्योरिटी कंट्रोल रूम पहुँची, जहाँ अस्पताल के सीसीटीवी फीड रिकॉर्ड होते थे। अंदर बैठा सुरक्षा अधिकारी उसका परिचित था—देव. तान्या ने शांत स्वर में कहा, “देव, मुझे पिछले महीने की ICU यूनिट की फुटेज चाहिए—रात 2 बजे से 4 बजे तक की।” देव पहले तो चौंका, फिर बोला, “मैम, वो फुटेज डिलीट हो चुकी है। डीन ऑफिस से ऑर्डर आया था।” तान्या का चेहरा तनाव में आ गया। “किस डेट को डिलीट हुआ?” उसने पूछा। “उसी दिन, जिस दिन कबीर सर लापता हुए,” देव ने फुसफुसाकर कहा। “मैम, मैं आपको एक बात बताना चाहता हूँ… मैंने उसी रात के वीडियो में किसी को इंजेक्शन ट्रे बदलते देखा था… लेकिन चेहरा धुंधला था। फिर अगले ही दिन सब डिलीट करने का आदेश आया।” तान्या की आँखों में एक भय और क्रोध एक साथ कौंध गया—अब ये साफ था कि फुटेज जानबूझकर हटाई गई थी। क्या कोई इतना बड़ा व्यक्ति इसमें शामिल था कि पूरे सुरक्षा विभाग को चुप करा सके?

तान्या को अब किसी ऐसे शख्स की तलाश थी जो अस्पताल की भीतरी गलियों और रूटीन को बारीकी से जानता हो—किसने कब क्या बदला, कौन सी दवा कब आई, कौन-सी अंधेरी गली में क्या छुपा है। उसे याद आया अर्जुन शुक्ला—एक पुराना वॉर्डबॉय जो हाल ही में रिटायर हुआ था। कबीर अक्सर उसके अनुभवों की तारीफ़ करता था। तान्या ने अर्जुन का पता निकाला और धारावी के पास एक संकरे कमरे में जाकर उसे ढूंढा। झुर्रीदार चेहरा, पतली आवाज़ और आँखों में ठहराव। अर्जुन ने पहले बात करने से इनकार किया। लेकिन जब तान्या ने कबीर का नाम लिया और Form 17-B का ज़िक्र किया, तो वह सन्न हो गया। “आप कबीर की बहन हैं?” उसने पूछा। “हाँ,” तान्या ने कहा। तब अर्जुन ने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया—“मैडम, अस्पताल में बहुत कुछ बदल गया है… पहले मरीज़ की जान सबसे ऊपर थी, अब पैसा है। फार्मा कंपनियाँ इंजेक्शन बदलवाती हैं, साइड इफेक्ट्स छुपाए जाते हैं। कबीर बाबू ने एक रिपोर्ट बनाई थी—उसी कंपनी के खिलाफ जिसने Zolaprim सप्लाई किया था। डीन साहब को रिपोर्ट भेजी, लेकिन कुछ हुआ नहीं। उल्टा कबीर बाबू को चुपचाप चेतावनी मिली।” तान्या साँस रोके सुनती रही। “उन्होंने मुझसे कहा था, अगर कुछ हो जाए, तो ये फाइल बाहर पहुंचाना…” अर्जुन ने एक पॉलिथीन में लिपटी फाइल तान्या को दी—गुप्त दस्तावेज़, जिसमें दवा की साइड इफेक्ट रिपोर्ट्स, शिकायतें और बदली हुई बैच डिटेल्स थीं।

उस फाइल को देखकर तान्या समझ गई कि कबीर सिर्फ एक डॉक्टर नहीं, एक व्हिसलब्लोअर था। उसने फार्मा माफिया और अस्पताल प्रशासन के गठजोड़ पर उंगली रखी थी—और अब वह खुद मारा जा रहा था। उसी रात तान्या ने वह फाइल स्कैन की और डिजिटल बैकअप तैयार किया। वह जानती थी कि अब वह खुद भी निशाने पर आ सकती है। लेकिन डरने का वक्त नहीं था। वह एक साइलेंट वार में उतर चुकी थी—जहाँ हथियार थे इंजेक्शन, और लाशें बनते थे मरीज़। उसे एक अंतिम पुष्टि चाहिए थी—क्या सच में Zolaprim इंजेक्शन की नई बैच में कुछ मिला था जो जानलेवा था? उसे उस वैज्ञानिक से बात करनी थी जो कभी उस दवा के निर्माण में शामिल था। लेकिन उससे पहले, उसे डॉ. नील भोसले के बारे में और जानना था। क्यों कि अस्पताल का सबसे ऊँचा और सबसे साफ दिखने वाला चेहरा ही कभी-कभी सबसे ज़्यादा खून से सना होता है।

फॉर्म 17-B की कॉपी हाथ में लिए डॉ. तान्या माथुर की आंखों में अब डर नहीं, सिर्फ दृढ़ता थी। वह जानती थी—ये कागज़ महज एक औपचारिकता नहीं, बल्कि एक दरवाज़ा है उस रहस्य की ओर, जो उसके भाई की ज़िंदगी और पांच मासूमों की कोमा के पीछे छुपा है। उसने फॉर्म पर लिखे सप्लायर का नाम दोबारा पढ़ा: Neurochem Labs Pvt. Ltd.। कंपनी का पता—Lower Parel के एक औद्योगिक इलाके में स्थित एक बंद बिल्डिंग—शक पैदा करता था। तान्या सीधे उस पते पर पहुंची। लोहे के गेट पर जंग लगी थी, बोर्ड अधूरा और बिल्डिंग खंडहर जैसी दिखती थी। अंदर एक चौकीदार बैठा था—उसने बताया कि कंपनी यहाँ कभी थी, लेकिन अब महीनों से कोई नहीं आया। लेकिन जब तान्या ने नाम लिया—“नील भोसले”—तो चौकीदार ने चौंक कर देखा, “मैडम, वो डॉक्टर साहब कभी-कभी रात को आते हैं, अपनी कार में… कहते हैं मेडिकल स्टोर चेक करने आते हैं।” तान्या समझ गई—डॉ. नील इस सप्लाई चेन से जुड़ा है। और हो सकता है कि यहीं पर इंजेक्शन की बैच में मिलावट हुई हो। उसने आसपास की दीवारों पर लगे पुराने पोस्टरों और पेपर के टुकड़ों की तस्वीरें लीं—एक में Zolavine-X नामक रसायन का उल्लेख था, जो अमेरिका में प्रतिबंधित हो चुका था। शायद यहीं से इस रसायन को Zolaprim इंजेक्शन में मिलाया गया था।

अस्पताल लौटकर तान्या फार्मा स्टोरेज रूम पहुँची। वहाँ उसे वह महिला मिली जो दवाओं की एंट्री रजिस्टर देखती थी—किरण बाई। तान्या ने सौम्य आवाज़ में पूछा, “किरण दीदी, क्या आप मुझे बताएंगी कि कबीर ने आखिरी बार कौन सा इंजेक्शन बैच इस्तेमाल किया था?” वह पहले हिचकी, फिर बोली, “वो बैच तो वापस ले लिया गया था… और कुछ नया आया था… मगर हमें बताया गया कि सिर्फ ‘डेट एक्सपायरी’ की गलती थी।” तान्या ने कहा, “क्या वह रजिस्टर अब भी आपके पास है?” महिला ने चुपचाप एक अलमारी खोली और एक मोटी फाइल निकाली—जिसमें हर सप्लाई की तारीख, बैच नंबर, क्वANTITY और साइन थे। और फिर उसे वह मिला—ZP-X/47 बैच, जिसमें एक हस्ताक्षर थे—डॉ. नील के। और उसी दिन से शुरू हुए थे कोमा के केस। तान्या के होंठ काँपने लगे—यह अब सिद्ध हो चुका था। फॉर्म नंबर 17-B असली था, और वह बैच जानबूझकर बदला गया था। यह कोई मेडिकल भूल नहीं थी—यह एक हत्यारा इनसाइड जॉब था।

उस रात तान्या ने सारे सबूत स्कैन किए, एक सुरक्षित ड्राइव में सेव किया, और एक कॉपी ACP आरव कोहली को भेजने का मन बनाया। लेकिन जब वह पुलिस मुख्यालय पहुँची, तो वहां एक नया मोड़ उसका इंतजार कर रहा था—ACP आरव खुद छुट्टी पर चला गया था, और उनकी जगह एक नया अधिकारी नियुक्त हुआ था जो इस मामले को “घटना से ज्यादा नहीं” मान रहा था। तान्या जान गई—या तो आरव खुद खतरे में है, या उसे हटाया गया है। उसने हार नहीं मानी। उसने अपनी रिसर्च को एक वैज्ञानिक से शेयर करने का फैसला किया—डॉ. मेघा सहगल, जो कभी Zolaprim की मूल टीम का हिस्सा रही थी। वीडियो कॉल पर मेघा ने जब बैच नंबर और Zolavine-X का नाम सुना, तो उसका चेहरा सफेद पड़ गया। “Zolavine-X का Zolaprim में मिलाया जाना अवैध है… ये न्यूरोटॉक्सिन है… ब्रेन को स्लीप मोड में धकेल सकता है… अमेरिकन मेडिकल बोर्ड ने इसे ब्लैकलिस्ट किया है।” तान्या की मुट्ठियाँ भींच गईं—“तो यही ज़हर उन इंजेक्शनों में था।” अब वह जान चुकी थी, कि न सिर्फ उसका भाई निर्दोष है, बल्कि वह एक ऐसे रैकेट के खिलाफ खड़ा हुआ था जो दवा के नाम पर मौत बाँट रहा था। और अब उसकी बारी थी—इस साजिश को उजागर करने की, हर कीमत पर।

रात के दस बज चुके थे। अस्पताल की चौथी मंज़िल पर अंधेरा पसरा हुआ था, और विज़िटर्स कॉरिडोर खाली। पर इसी वीराने में, डॉ. तान्या माथुर सादी वेशभूषा में, एक मेडिकल असिस्टेंट की यूनिफॉर्म पहनकर, ICU की ओर बढ़ रही थी। उसने खुद को एक फॉल्स पेशेंट की अटेंडेंट के रूप में रजिस्टर किया था—नाम बदलकर, पहचान बदलकर। उसकी मंशा अब सीधी थी—जाल बिछाना और असली गुनहगार को रंगे हाथ पकड़ना। ICU में नर्स संध्या चौहान पहले ही उसके साथ थी। “आज रात, जब ट्रे बदलेगी… मैं लाइट्स ऑफ़ कर दूंगी,” संध्या ने फुसफुसाकर कहा, “CCTV आज भी ‘मेंटेनेन्स’ में दिखाया गया है।” तान्या ने सिर हिलाया। ठीक आधी रात को, ICU यूनिट के दाईं ओर एक परछाई दिखाई दी। लंबा कद, सफेद कोट, हाथ में ट्रे। उसने वार्ड में झाँका, फिर धीमे से एक अलमारी खोली और इंजेक्शन ट्रे बदली। सब कुछ इतनी सफाई से किया गया कि कोई संदेह न कर सके। लेकिन तान्या ने सारा दृश्य अपने मोबाइल कैमरे में रिकॉर्ड कर लिया—रातवाले इंफ्रारेड मोड में। जब उस व्यक्ति ने मुड़कर ICU से बाहर निकलना शुरू किया, तो तान्या ने उसके चेहरे की झलक देखी—डॉ. नील भोसले।

अगले दिन सुबह तान्या ने वह वीडियो सीधे ACP आरव कोहली को भेजा। हैरानी की बात यह थी कि आरव, जिसे छुट्टी पर बताया गया था, वास्तव में सस्पेंड कर दिया गया था—उस पर केस की “गलत जांच” का आरोप लगा था। लेकिन जैसे ही उसने वीडियो देखा, उसने बिना समय गंवाए अपने पुराने नेटवर्क को एक्टिव किया और तान्या को सुरक्षा दी। “ये वीडियो सिर्फ एक डॉक्टर नहीं, पूरे अस्पताल सिस्टम के खिलाफ है,” उसने कहा। साथ ही, तान्या ने वह पुरानी फाइल, अर्जुन शुक्ला द्वारा दी गई Zolavine-X रिपोर्ट और फार्म रजिस्टर की स्कैन कॉपी पेश की। केस अब FIR के दायरे में आ चुका था। अदालत से सर्च वॉरंट लेकर, पुलिस और फार्मा कंट्रोल यूनिट की एक संयुक्त टीम ने उसी बंद गोदाम पर छापा मारा, जहाँ Neurochem Labs के नाम की मिलावटी दवाएं तैयार की जाती थीं। वहाँ से कई बैच के नकली इंजेक्शन, केमिकल बोतलें और मशीनें जब्त की गईं। रिकॉर्ड में साफ दिखा कि सप्लाई का ऑर्डर अस्पताल प्रशासन की सहमति से ही हुआ था—और उसमें डीन डॉ. रघुवीर शेट्टी का अप्रूवल सिग्नेचर था।

बॉम्बे हाईकोर्ट के निर्देश पर डॉ. नील भोसले को गिरफ्तार किया गया। पूछताछ में उसने माना कि वह Neurochem Labs के छद्म निदेशक के रूप में काम कर रहा था। “हमने सिर्फ डोज़ मॉडिफाई की,” उसने कहा, “थोड़ा स्ट्रॉन्ग किया… ताकि पेशेंट को गहरी नींद मिले… कुछ ज्यादा ही गहरी हो गई।” यह अपराध अब सिर्फ चिकित्सा त्रुटि नहीं, हत्या की कोशिश और धोखाधड़ी की श्रेणी में जा चुका था। लेकिन जब पुलिस ने उससे पूछा, “और कबीर माथुर? उसने क्या किया था?” तो नील ने हँसते हुए कहा—“वो तो ज़्यादा ही ईमानदार निकला… हम चाहते थे वो सिस्टम का हिस्सा बने, लेकिन उसने रिपोर्ट बना दी… हमने उसे चुप करा दिया।” अब तान्या की सबसे बड़ी चुनौती थी—अपने भाई को ढूंढना, जो अभी भी कहीं कैद था। लेकिन अब उसके पास सारे सबूत थे, और एक टीम जो उसके साथ खड़ी थी। झूठ के चेहरे अब सामने थे, और कहानी अब उस आखिरी सच्चाई की ओर बढ़ रही थी… जहाँ नींद का इंजेक्शन सिर्फ एक दवा नहीं, एक हथियार बन चुका था।

मुंबई की सड़कों पर सुबह की चहल-पहल शुरू हो चुकी थी, लेकिन तान्या माथुर के भीतर समय जैसे रुक गया था। डॉ. नील भोसले की गिरफ्तारी ने केस को एक निर्णायक मोड़ पर ला खड़ा किया था, मगर उसका भाई अब भी लापता था। अस्पताल में जो कुछ हुआ था, वह सामने आ चुका था—अब रहस्य सिर्फ इतना बचा था कि कबीर कहाँ है और किस हालत में है?। ACP आरव कोहली ने बताया कि नील ने कबीर के बारे में अंतिम बयान में बस इतना कहा था—“हमने उसे चुप कर दिया, ताकि वो ज़्यादा बोल न सके।” पर क्या इसका मतलब था कि वह मारा जा चुका है? तान्या यह मानने को तैयार नहीं थी। वह दोबारा अर्जुन शुक्ला के घर पहुँची। बूढ़ा वॉर्डबॉय पहले से ही उसे दरवाज़े पर इंतज़ार करता मिला। उसकी आँखों में गहराई थी, और होंठों पर एक ठोस खबर। “मैडम, आपके भाई ने एक और फाइल दी थी मुझे… कहा था कि अगर मैं गायब हो जाऊँ या किसी को मेरी आवाज़ न मिले, तो इसे मेरी बहन को देना।” अर्जुन ने संदूक खोला, और अंदर से एक पुरानी डायरी और एक लिफ़ाफ़ा निकालकर उसे दिया।

डायरी के पहले पन्ने पर लिखा था—“अगर यह पढ़ रही हो, तो समझो मैं किसी और के बनाए पिंजरे में हूँ।” तान्या की उंगलियाँ कांप गईं। कबीर ने अपनी अंतिम ड्यूटी के दिनों में महसूस कर लिया था कि वह कुछ बड़ा उजागर करने जा रहा है। डायरी में उसने विस्तार से लिखा था कि कैसे Zolaprim इंजेक्शन की आपूर्ति के पीछे फार्मा कंपनियों और अस्पताल प्रशासन का गठजोड़ था, और कैसे उसने अपनी रिपोर्ट डीन को सौंपने से पहले ही तीन जगह इसकी कॉपी भेज दी थी—एक प्रशासनिक अधिकारी को, एक मेडिकल पत्रकार को और एक अपने पुराने दोस्त को—जो अब एक प्राइवेट नर्सिंग होम में काम करता था। सबसे चौंकाने वाला हिस्सा आखिरी दो पेज थे। कबीर ने वहाँ लिखा था—“अगर मुझसे संपर्क न हो सके, तो मेरी खोज अस्पताल के बाहर मत करना… मेरी चुप्पी वहाँ बंद है, जहाँ ‘नींद बेचने वाले’ असली दवा बनाते हैं।” यह सीधा इशारा था Neurochem Labs की उसी बिल्डिंग की ओर, जहाँ से नकली बैच तैयार किए गए थे। लेकिन पुलिस वहाँ एक बार पहले ही छापा मार चुकी थी। फिर भी, तान्या ने फैसला किया—वह वहाँ दोबारा जाएगी, इस बार डॉक्टर नहीं, बहन बनकर।

उसी रात तान्या, आरव और उनकी एक छोटी टीम उस बंद बिल्डिंग पर दोबारा पहुँची। पिछले छापे में जो दरवाज़ा सील किया गया था, उसके पीछे एक तहखाना मिला—लोहे के भारी गेट के पीछे एक छोटा कमरा, जहाँ किसी को ज़बरदस्ती रखा जा सकता था। दरवाज़ा तोड़ने पर अंदर का दृश्य देखकर सब स्तब्ध रह गए—कमरे में बिजली नहीं थी, लेकिन एक कोने में एक स्ट्रेचर पर कोई लेटा था। चेहरा सूखा, बाल बिखरे हुए, और शरीर कमजोर—डॉ. कबीर माथुर। उसकी आँखें खुली थीं, लेकिन वह बोल नहीं पा रहा था। पास में दवा की कुछ खाली शीशियाँ थीं—Zolavine-X के इंजेक्शनों के। तान्या ने उसकी हथेली थामी और फूट-फूटकर रो पड़ी—वह ज़िंदा था, लेकिन गहरी दवा की गिरफ्त में। एंबुलेंस बुलाई गई, और अस्पताल में जब उसे भर्ती किया गया, तो डॉक्टरों ने बताया—“वह ब्रेन-स्लो रेस्पॉन्स में है, लेकिन रिकवर कर सकता है… धीरे-धीरे।” तान्या जानती थी, यह जीत की शुरुआत थी। उसने अपने भाई की जान बचा ली थी, लेकिन इस जीत की कीमत पांच परिवारों के दुःख से चुकानी पड़ी थी। अब जो कुछ बचा था, वो था—सिस्टम को उसके जहर के लिए उत्तरदायी ठहराना।

मुंबई की सिविल कोर्ट की सीढ़ियाँ उस दिन चढ़ते हुए डॉ. तान्या माथुर के पैर थक गए थे, लेकिन उसका इरादा और भी ठोस हो चला था। डॉ. कबीर अब भी ICU में रिकवरी फेज़ में था—बोलने की स्थिति में नहीं, लेकिन होश में था। ACP आरव कोहली ने तान्या को कोर्ट में याचिका दाखिल करने के लिए प्रोत्साहित किया। यह अब सिर्फ एक मेडिकल केस नहीं, बल्कि पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (PIL) बन चुका था—जिसमें पूछा गया था कि “किस अधिकार से एक अस्पताल ने मिलावटी इंजेक्शन की सप्लाई की स्वीकृति दी?” और “क्यों दवा नियंत्रक विभाग ने Zolavine-X जैसे प्रतिबंधित रसायन के खिलाफ कार्रवाई नहीं की?”। कोर्ट में दाखिल डॉक्यूमेंट्स में सब कुछ था—वॉर्डबॉय अर्जुन शुक्ला की गवाही, कबीर की डायरी के पृष्ठ, फार्म 17-B की सत्यापित कॉपी और Zolaprim के बदले बैच की रजिस्ट्रेशन डिटेल्स। मीडिया को जब इस PIL की भनक लगी, तो शहर के सारे चैनल्स पर एक ही ब्रेकिंग थी—”सिटी केयर अस्पताल पर हत्या की साजिश का आरोप”। जनता का आक्रोश भड़क उठा।

कोर्ट में सुनवाई के पहले दिन, डीन डॉ. रघुवीर शेट्टी के वकील ने तर्क दिया कि डीन किसी सप्लाई की जिम्मेदारी नहीं लेते, और यह काम फार्मा डिपार्टमेंट का होता है। लेकिन तान्या की ओर से पेश वकील ने CCTV रिकॉर्ड्स, स्टाफ स्टेटमेंट और सप्लाई ऑर्डर पर डीन के हस्ताक्षर की पुष्टि कर दी। और फिर तान्या ने गवाही दी—संयमित, भावुक लेकिन ठोस। उसने कहा, “मेरा भाई मर सकता था। पाँच लोग अब भी कोमा में हैं। लेकिन सबसे बड़ा अपराध यह है कि एक अस्पताल, जो जीवन देने के लिए बना था, उसने मौन रहकर मौत बाँटी।” उस वक्त कोर्ट रूम में सन्नाटा छा गया। तान्या ने कोर्ट को बताया कि कैसे फार्मा माफिया ने पैसे के बदले दवा बदल दी, और अस्पताल प्रशासन ने उस पर आंखें मूंद लीं। सुनवाई के बाद कोर्ट ने आदेश दिया कि डीन डॉ. शेट्टी को पूछताछ के लिए हिरासत में लिया जाए। उसी दिन शाम को, उन्हें उनके बंगले से गिरफ्तार कर लिया गया—गाड़ी में बिठाते वक्त कैमरों की फ्लैश और भीड़ के गुस्से से वो घबराए हुए दिखे।

पर मामला यहीं नहीं रुका। प्रेस कांफ्रेंस में तान्या ने एक और बड़ा खुलासा किया—Neurochem Labs सिर्फ एक नकली कंपनी नहीं थी, बल्कि एक बड़ी फार्मा चेन की ‘फ्रंट एंटिटी’ थी, जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सस्ते और अनधिकृत रसायनों को भारतीय अस्पतालों में सप्लाई कर रही थी। उन्होंने एक और नाम लिया—डॉ. अमर काले, जो कई वर्षों से भारत और सिंगापुर के बीच ऐसी ही कंपनियाँ चलाता रहा था। तान्या ने कहा, “यह जाँच सिर्फ सिटी केयर की नहीं—देश भर में चल रहे मेडिकल भ्रष्टाचार की शुरुआत है।” उसका बयान वायरल हो गया। सोशल मीडिया पर उसे #JusticeForKabir और #StopMurderByInjection जैसे ट्रेंड्स मिले। अब यह एक आंदोलन बन चुका था—और तान्या, जो कल तक एक लापता भाई की बहन थी, आज मेडिकल सिस्टम की क्रांति की आवाज़ बन चुकी थी। वह जानती थी, अब वापसी नहीं है। अगला कदम था—उन चेहरों तक पहुँचना जो पर्दे के पीछे हैं।

ताज होटल की लॉबी में बैठी डॉ. तान्या माथुर पहली बार खुद को एक डॉक्टर नहीं, एक जासूस की भूमिका में महसूस कर रही थी। उसके हाथ में एक टैबलेट था, जिसमें Interpol की रिपोर्ट खुली थी—”Amar Kale: Alias ‘Dr. A’ — Global Pharma Fraudster operating through shell companies across India, Singapore, and Malaysia.” रिपोर्ट के साथ एक धुंधली सी फोटो थी—धूप का चश्मा, ग्रे सूट, और एक अजीब सी मुस्कान। ये वही आदमी था जिसने Neurochem Labs की प्लानिंग की थी, Zolavine-X को भारत के ग्रामीण मेडिकल मार्केट में धकेला था और अब सिटी केयर अस्पताल जैसे प्रतिष्ठानों को प्रयोगशाला बना दिया था। ACP आरव कोहली अब सीबीआई के साथ समन्वय में काम कर रहे थे, और उन्होंने तान्या को सूचित किया था कि डॉ. अमर काले फिलहाल सिंगापुर में मौजूद है, लेकिन अगले हफ्ते Hyderabad Global Health Summit में हिस्सा लेने भारत आ सकता है—एक गेस्ट स्पीकर बनकर। यह विडंबना थी—एक ऐसा अपराधी, जिसे सैकड़ों की जान से खेलते पकड़ा गया, अब एक ‘विशेषज्ञ’ की तरह मंच पर भाषण देने वाला था। तान्या ने फैसला कर लिया था—अब उसे मंच से नहीं, मंच के पीछे से पकड़ा जाएगा।

CBI की अनुमति से तान्या उस सम्मेलन में Pharma Ethics Specialist के नाम से पंजीकृत हुई। उसी होटल में उसने खुद को रजिस्टर कराया, जहाँ अमर काले ठहरने वाला था—Aurora Grand, Hyderabad. सिक्योरिटी बहुत टाइट थी, लेकिन CBI के एक अधिकारी मेजर शिवेंद्र राठौड़ तान्या के साथ पूरी तरह सहयोग कर रहे थे। रात के तीन बजे, उन्होंने होटल की सर्विलांस टीम से जानकारी जुटाई कि अमर काले अपने रूम से बाहर निकला था और लॉबी बार में किसी फार्मा प्रतिनिधि से मिला था। CCTV फुटेज में साफ दिख रहा था कि वह एक पेन ड्राइव सौंप रहा था—शायद अगली डील की तैयारी थी। उसी दौरान तान्या ने एक बहाना बनाकर सम्मेलन आयोजकों से संपर्क किया और कहा कि वह “अंतरराष्ट्रीय मेडिकल एथिक्स पर एक प्रेजेंटेशन” देना चाहती है। आयोजक उसकी साख से प्रभावित होकर मान गए। अगले दिन सुबह, जब मुख्य स्पीकर डॉ. अमर काले का सत्र शुरू हुआ, तो तान्या ने सामने की कुर्सी से खड़े होकर कहा—“डॉ. काले, क्या आप हमें ये भी बताएंगे कि आपने Neurochem Labs के ज़रिए ज़हर कैसे बेचा?” पूरा हॉल सन्न रह गया।

हॉल में भगदड़ जैसी स्थिति बन गई। अमर काले ने पहले तो तान्या को पहचानने से इंकार किया, लेकिन जब ACP आरव और CBI टीम ने उसके होटल रूम से मिले लैपटॉप, डीलिंग दस्तावेज़ और ट्रांजेक्शन रिकॉर्ड को कोर्ट में पेश किया, तो सब साफ हो गया। उसने मान लिया—वह भारत के 6 राज्यों में मिलावटी दवाओं की डिलीवरी कर चुका था, जिसमें Zolaprim का हाई-डोज़ वर्ज़न भी शामिल था। उसने कबीर को पहचानने से इंकार किया, लेकिन तान्या ने वो ईमेल प्रिंटआउट कोर्ट में पेश किया जिसमें कबीर ने अमर काले को सीधा पत्र भेजा था—“अगर आपने सप्लाई नहीं रोकी, तो मैं इस नेटवर्क का भंडाफोड़ करूंगा।” यह पत्र कबीर की डायरी से मिला था। अमर काले पर भारत में Murder Conspiracy, Corporate Fraud और Medical Homicide के अंतर्गत केस दर्ज हुआ और उसे न्यायिक हिरासत में भेजा गया। इंटरपोल ने भी उसका Red Corner Notice जारी कर दिया। यह तान्या की जीत थी—पर अब उसकी आँखें नम थीं। वह वापस मुंबई लौटी, अस्पताल पहुँची और भाई का हाथ थामा। कबीर ने पहली बार धीरे से मुस्कराते हुए कहा—“कितना लड़ोगी बहन…?” तान्या ने जवाब दिया—“जब तक सूई में ज़हर है, तब तक।”

१०

मुंबई के उस ICU कमरे में, जहां महीनों से सिर्फ मशीनों की बीप गूंजती थी, एक सुबह कुछ और भी जाग उठा—डॉ. कबीर माथुर की चेतना। जब तान्या उसके पास पहुँची, तो वह पहली बार पूरी तरह होश में था। चेहरा भले ही थका हुआ था, पर आँखों में वही जिद और ईमानदारी चमक रही थी जो कभी तान्या की प्रेरणा थी। “मैं गया नहीं था,” वह धीमे स्वर में बोला, “बस… कुछ लोग चाहते थे कि मैं कभी लौटूँ ही नहीं।” तान्या की आंखें छलक पड़ीं। उसने सिर झुकाकर कहा, “तू वापस आया, ये ही सबसे बड़ी बात है।” अगले कुछ दिनों में कबीर की हालत में तेजी से सुधार हुआ, और मीडिया ने इस वापसी को “कॉमा से निकला क्रांतिकारी” कहकर सराहा। अदालत में केस तेजी से आगे बढ़ रहा था—डीन डॉ. शेट्टी, डॉ. नील भोसले, और अमर काले की बेल खारिज हो चुकी थी। ज़हर से जुड़ी सभी इंजेक्शन बैच को सरकार ने जब्त कर लिया, और Zolaprim जैसे ड्रग्स की जांच के लिए एक केंद्रीय समिति गठित की गई। अस्पताल प्रशासन का पुनर्गठन हुआ, और नए डीन के रूप में डॉ. आयुष खन्ना की नियुक्ति हुई—जो स्वयं पीड़ित मरीजों के परिजन थे।

पर तान्या जानती थी कि सच्चा बदलाव सिर्फ एक अस्पताल की सफाई से नहीं आएगा। उसने अपनी मेडिकल डिग्री और मनोविज्ञान की समझ को एक नया रूप दिया—“Project Wake-Up”, एक सार्वजनिक मंच जो देशभर के अस्पतालों, मेडिकल स्टूडेंट्स और नीति-निर्माताओं को जोड़कर Safe Injection Practices, Pharma Transparency और Whistleblower Protection पर काम करता था। पहले महीने में ही 500 से अधिक अस्पताल इससे जुड़े, और WHO ने तान्या को Ethical Health Ambassador के रूप में आमंत्रित किया। कबीर अब इस प्रोजेक्ट का सलाहकार था, और वह अस्पतालों में जाकर लेक्चर देता था—“एक इंजेक्शन, सिर्फ नींद नहीं, मौत भी दे सकता है… पर अगर वही इंजेक्शन सच्चाई के साथ दिया जाए, तो ये ज़िंदगी का सबसे सस्ता इलाज है।” इस पहल ने पूरे देश में हड़कंप मचा दिया। कानून मंत्रालय ने ‘Clinical Accountability Bill’ पास किया, जिससे अब हर अस्पताल को सप्लाई की जानकारी सार्वजनिक करनी होती थी। फार्मा कंपनियों पर निगरानी बढ़ा दी गई, और पहली बार डॉक्टरों की आंतरिक रिपोर्ट को गवाही का दर्जा मिला।

एक साल बाद, जब तान्या न्यूयॉर्क में एक इंटरनेशनल हेल्थ कॉन्फ्रेंस में भाषण दे रही थी, तो उसने एक लाइन कही जो वहाँ बैठे हज़ारों लोगों की आत्मा को छू गई—“My brother was not sleeping. He was silenced. And today, I speak not just for him… but for every patient who was put to sleep without consent.” तालियों की गड़गड़ाहट के बीच, मंच की लाइट्स कबीर की तस्वीर पर पड़ी—जहाँ वह एक ICU बेड से उठकर चलना सीख रहा था। कहानी वहीं खत्म नहीं हुई। ‘नींद का इंजेक्शन’ अब सिर्फ एक केस फाइल नहीं, एक आंदोलन बन चुका था। और इस आंदोलन की अगुआ थी एक बहन—जो डॉक्टर थी, पर जब समय आया, तो तुरंत न्याय की सर्जन बन गई। नींद का वह इंजेक्शन अब एक चेतना में बदल चुका था—जिसने देश को झकझोर कर जगा दिया।

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