कौशिक मिश्रा
१
गांव की सुबहें हमेशा एक सी होती थीं—मुर्गों की बांग, कुएं पर बर्तनों की छनछन, और स्कूल जाने की हड़बड़ाहट। लेकिन उस दिन जैसे सब कुछ रुका हुआ था। चौधरी टोले के नुक्कड़ पर लोग जमा थे, आंखों में डर और होठों पर चुप्पी। पायल, बारह साल की एक होशियार बच्ची, जो हर रोज़ अपनी साइकिल से स्कूल जाती थी, आज सुबह अपने बिस्तर से ही गायब थी। दरवाज़ा अंदर से बंद था, खिड़कियां सलामत, और कमरे में उसकी किताबें सजी थीं जैसे अभी-अभी वो पढ़ाई करके उठी हो। लेकिन सबसे अजीब था उस दरवाज़े के बाहर पड़ा लाल पैर का एक उल्टा निशान—एक अकेला, गाढ़े रंग का, जो किसी इंसान के पैर जैसा दिखता तो था, लेकिन पंजे पीछे की ओर मुड़े थे, जैसे चलने वाला कोई सामान्य प्राणी न हो। लोग पहले तो बोले नहीं, लेकिन फिर धीमे-धीमे फुसफुसाहटें शुरू हुईं—“फिर से वही निशान… सात साल बाद फिर वही घटना…” और फिर सन्नाटा छा गया।
वेद प्रकाश, गांव के स्कूल में विज्ञान का शिक्षक और पायल का प्रिय गुरु, जब स्कूल पहुंचा तो वहां सन्नाटा था। बच्चे गायब थे, अभिभावकों के चेहरों पर चिंता, और पुलिस जीप खड़ी थी। उसने तुरंत मौके पर पहुंच कर सब देखा—निशान को, घर के अंदर की स्थिति को, और पायल की मां कमला की बेसुध हालत को। सब-इंस्पेक्टर मुरारी लाल अपने सिपाहियों के साथ खड़ा था, चेहरे पर वही बेमनाही नकाब जैसे यह सब बस “एक और केस” हो। लेकिन वेद के लिए यह महज़ कोई केस नहीं था। वो जानता था कि पायल सिर्फ उसकी छात्रा नहीं, बल्कि गांव के भविष्य की झलक थी। जब उसने वह निशान देखा, उसकी आंखों में बीते कुछ वर्षों की यादें कौंध गईं—उसका दिल्ली छोड़ कर लौटना, गांव के बच्चों को सही दिशा देने का सपना, और अब… पायल की गुमशुदगी। लेकिन सबसे ज़्यादा चुभती थी लोगों की चुप्पी। कोई कुछ नहीं कहता, कोई सवाल नहीं करता, जैसे सबको इस निशान की आदत हो चुकी थी।
पुलिस ने रूटीन जांच का नाटक किया—कमरे की तस्वीरें लीं, दरवाज़े की जाँच की, और रिपोर्ट में लिखा “अज्ञात परिस्थिति में बालिका गायब”। लेकिन वेद को चैन नहीं मिला। शाम को वह पायल के घर वापस गया, वहां बैठकर खामोश मां-बाप से बातें कीं। कमला की आंखों में दर्द के साए तैर रहे थे—उसने कहा, “साहब, मेरी बेटी किसी के साथ नहीं भागी… उसको कोई ले गया… जैसे पहले और बच्चों को ले जाया गया था।” वेद चौंका—“और बच्चों को?” रमाकांत, पायल के पिता, एक लंबी सांस लेकर बोले, “सात साल पहले, पांच साल की गुड़िया… और उससे पहले लक्ष्मण… तब भी यही निशान मिला था। लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया… बस धीरे से मिटा दिया उसे। लोग डरते हैं कुछ कहने से। कहते हैं ये कोई ‘पुराना शाप’ है।” वेद की आंखों में अब सिर्फ अफसोस नहीं, बल्कि जिज्ञासा और एक गुस्सा था—एक शिक्षक का, एक जिम्मेदार इंसान का, जो सच्चाई जानने के लिए किसी भी हद तक जा सकता था। उसे उस लाल निशान की तह तक जाना था—क्योंकि अब यह सिर्फ एक लापता बच्ची का सवाल नहीं था, बल्कि पूरे गांव की रूह पर लगे पुराने घाव को खोलने की घड़ी थी।
२
पायल की गुमशुदगी के बाद स्कूल एक भूतिया जगह सा लगने लगा था। पहले जहां बच्चों की हँसी-ठिठोली गूंजती थी, वहां अब बस सन्नाटा पसरा था। कुछ अभिभावक अपने बच्चों को स्कूल भेजना ही बंद कर चुके थे, और जो आते भी थे, वे डर की चादर ओढ़े सहमे-सहमे बैठे रहते। वेद प्रकाश ने पहली बार महसूस किया कि ये सिर्फ एक बच्ची की गुमशुदगी नहीं थी—ये एक ऐसा घाव था जो गांव की आत्मा में बहुत गहरे तक उतर चुका था। उसी दोपहर वह स्कूल की पुरानी अलमारी खंगाल रहा था—शायद किसी प्रोजेक्ट फाइल या रिपोर्ट में कोई पुराना संदर्भ मिल जाए। तभी एक धूल भरी नोटबुक उसके हाथ लगी। कवर पर नाम था—शालिनी कुमारी, कक्षा 7वीं—वर्ष: 2011। वेद को याद आया, ये वही छात्रा थी जो आठ साल पहले अचानक स्कूल छोड़ गई थी। नोटबुक के आखिरी पन्नों में जो लिखा था, उसने वेद की रीढ़ में सिहरन दौड़ा दी—”वो जब आता है, पहले सब आवाज़ें बंद हो जाती हैं… फिर दरवाजे के पास गीली मिट्टी में पैर के उल्टे निशान बनते हैं… मां कहती है सपना होगा, लेकिन मैं जानती हूं—वो असली है। वो बच्चों को ही ले जाता है।”
इस अजीब से विवरण को पढ़ने के बाद वेद को यकीन हो चला कि यह समस्या कोई नई नहीं है। उसी शाम वह गांव के कुछ बुज़ुर्गों से मिलने निकल पड़ा। पहले तो लोग टालते रहे, नजरें चुराते रहे, लेकिन आखिरकार एक बूढ़ा चौकीदार, हरिलाल, कुछ बोलने को राज़ी हुआ। उसकी आवाज़ कांप रही थी, जैसे उसके शब्दों के साथ पुराने डर भी सांस ले रहे हों। उसने बताया, “बाबूजी, जब मैं छोटा था, तब भी ऐसे ही बच्चे गायब होते थे। तब भी किसी को कुछ नहीं दिखता था, बस अगले दिन निशान मिलते थे। पुलिस आती थी, मिट्टी के निशान पर प्लास्टिक का ढक्कन रख कर सबूत मिटा देती थी। हमारे दादा कहते थे कि ये सब उस पुराने मंदिर की वजह से है—जो जंगल की तरफ है… ‘वृंदा देवी’ का मंदिर।” वेद ने पूछा, “मंदिर तो बहुत हैं गांव में, इस मंदिर में क्या खास है?” हरिलाल ने कहा, “वो मंदिर अब उजाड़ है… लोग कहते हैं वहां कोई साध्वी रही थी जो बच्चों को देवी बनाने की साधना करती थी… लेकिन कुछ गलत हो गया। उसके बाद से ही गांव पर ये साया है।” वेद को पहली बार एहसास हुआ कि वो किसी आपराधिक घटना से नहीं, किसी पुराने, दफन किए गए रहस्य से भिड़ने जा रहा है।
अगली सुबह वेद स्कूल नहीं गया। वह सीधे चौधरी टोले के पास वाली पुरानी हवेली में रहने वाली दादी गौरी से मिलने गया, जिन्हें लोग ‘पगली गौरी’ कह कर चिढ़ाते थे, लेकिन वेद जानता था कि उनकी बातें सिर्फ भ्रम नहीं, किसी भूले इतिहास के टुकड़े होती हैं। दादी गौरी की आंखें धुंधली थीं लेकिन उनका चेहरा जैसे कुछ और ही देख रहा था—कुछ जो आम लोग नहीं देख सकते। वेद ने चुपचाप बैठकर पायल की गुमशुदगी और निशान के बारे में बात शुरू की, और गौरी दबी आवाज़ में बोलीं, “फिर से वही निशान? बेटा, वो हर सातवें साल आता है… वो खोजता है… सात बच्चे, सात बलियां, तभी उसका व्रत पूरा होता है। हम सब भूल गए थे, लेकिन वो नहीं भूला।” वेद ने पूछा, “कौन? कौन आता है?” और तब दादी ने पहली बार उस नाम का ज़िक्र किया—“वृंदा… तपस्विनी वृंदा… जिसे देवी बनने से पहले राक्षसी बना दिया गया।” वेद के लिए अब यह मामला रहस्य से बाहर निकल कर एक भयावह अध्यात्मिक स्तर पर पहुंच चुका था, और वह जानता था कि अब पीछे हटना संभव नहीं था।
३
बूढ़ी दादी गौरी की कुटिया गांव के आखिरी छोर पर थी, जहां पीपल के पुराने पेड़ के नीचे सन्नाटा तक बोलता नहीं था। वेद जब वहां पहुंचा, तो देखा कि मिट्टी के चूल्हे में राख पड़ी है, और दादी आंखें मूंदे जैसे किसी और समय, किसी और दुनिया से बात कर रही हों। वेद धीरे से उनके पास बैठ गया, बिना कुछ कहे, बस इंतज़ार करता रहा। कुछ क्षण बाद, जैसे किसी अदृश्य घड़ी की टनकार ने उन्हें खींचा, दादी की आंखें खुलीं और उन्होंने धीमे स्वर में कहा, “कितना वक़्त हो गया ना, कोई फिर पूछने आया… वृंदा के बारे में।” वेद सिहर उठा। उसकी आंखों में अब सिर्फ सवाल नहीं, एक बेचैन आग्रह था—”कौन थी वृंदा, और क्यों उसके नाम से लोग कांपते हैं?” दादी ने आसमान की ओर देखा, जैसे रात के चांद में कोई पुरानी स्मृति छिपी हो। “बहुत बरस पहले, जब ये गांव जंगलों से घिरा था, एक तपस्विनी आई थी—वृंदा। वो चमत्कारी थी, उसकी आंखों में आग थी और हाथों में मंत्र। लोग उसे देवी मानने लगे। लेकिन वो देवी बनना नहीं चाहती थी… वो अमर होना चाहती थी।” वेद ने पूछा, “तो उसने क्या किया?” दादी की आंखें धुंधलाईं, और स्वर गहराने लगा, “उसने सात बच्चों की बलि का विधान रचा… हर सातवें साल, सात मासूमों की आहुति… ताकि उसकी आत्मा इस धरती पर बनी रहे… लेकिन सातवां बच्चा उसे कभी नसीब नहीं हुआ। गांववालों ने उसे मंदिर में बंद कर दिया, ज़िंदा… और वहीं से श्राप शुरू हुआ।”
वेद का मन जैसे किसी अंधेरे कुएं में गिर पड़ा। वह सोचता था कि यह सब बस अंधविश्वास है—लेकिन दादी की बातें, स्कूल की डायरी, हरिलाल के अनुभव, और वह लाल निशान… सब एक ही दिशा में इशारा कर रहे थे। “क्या वह मंदिर आज भी है?” वेद ने पूछा। दादी ने धीरे से सिर हिलाया, “हां बेटा… उस जंगल के उस पार… जहां अब कोई नहीं जाता। वहां सिर्फ हवा चलती है… और वो… जो अब भी खोजती है अपने सातों दीप।” उसी शाम वेद ने ठान लिया कि वह उस मंदिर तक जाएगा। लेकिन रास्ता आसान नहीं था। गांववाले उसे पागल कहने लगे, कुछ ने चेतावनी दी कि ‘जो सवाल बहुत गहरे हों, उनके जवाब कभी सतह पर नहीं मिलते।’ मगर वेद अब पीछे नहीं हट सकता था। वह जान चुका था कि यह महज़ एक प्राचीन कथा नहीं, बल्कि जीवित भय की एक सच्चाई थी—जिसे हर सात साल में गांव अनदेखा करता आया है।
अगली सुबह, एक पुराने नक्शे की मदद से, वेद जंगल के उस हिस्से की ओर बढ़ा जहां कोई रास्ता नहीं था—सिर्फ कंटीली झाड़ियां, वीरान झोपड़ियां और एक मौन जो सामान्य नहीं था। दोपहर के वक्त वह उस मंदिर के भग्नावशेषों के पास पहुंचा, जिसे समय ने लगभग निगल लिया था। दीवारों पर उखड़े हुए चित्र थे—एक औरत, पद्मासन में बैठे हुए, उसके चारों ओर बच्चे, और फिर रक्त की धाराएं। मंदिर के गर्भगृह के पास एक टूटा हुआ शिला मिला—जिस पर देवनागरी में लिखा था: “श्रद्धा से शुरू हुआ, लालच में बदल गया। वृंदा अब देवी नहीं रही।” वेद की सांस रुक सी गई। इस जगह की ऊर्जा कुछ और ही थी—कुछ भारी, बोझिल और देखता हुआ। वहां हवा ठहरी हुई थी, लेकिन दीवारों पर अब भी कोई पैर चलने की खरोंचें थीं—जैसे कोई आत्मा अब भी चक्कर काट रही हो, अपने सातवें दीप के इंतज़ार में। वेद जान गया था कि पायल अभी मरी नहीं है… लेकिन अगर कुछ नहीं किया गया, तो यह लाल निशान फिर उभरेंगे… फिर किसी और घर के बाहर।
४
वेद मंदिर से लौटकर सीधे थाने पहुंचा। उसका चेहरा धूल और घबराहट से भरा हुआ था, आंखों में नींद नहीं बल्कि बेचैनी थी। सब-इंस्पेक्टर मुरारी लाल ने उसे देखकर माथा पीटा, “साहब, आप फिर वही बात लेकर आए? गांव में अंधविश्वास पहले ही बहुत है, अब आप पढ़े-लिखे लोग भी मंदिर-शाप वाली बात करेंगे?” वेद ने उसकी बातों को अनसुना कर दिया और सीधा बोला, “मुझे गांव के पुराने गुमशुदा बच्चों के केस दिखाइए। जिनकी फाइलें अब बंद हो चुकी हैं।” पहले तो मुरारी टालता रहा, लेकिन वेद ने जब यह कहा कि वह जिला कलेक्टर से संपर्क करेगा और थाना स्तर पर लापरवाही का मामला उठाएगा, तब वह अनमने भाव से उठा और थाने की कोठरी के पीछे बने रेकॉर्ड रूम की ओर गया। वहां धूल में सने, कीड़े खाए रजिस्टर थे—जिन्हें शायद किसी ने सालों से छुआ भी नहीं था। आधे घंटे की खोजबीन के बाद मुरारी एक पुरानी फाइल लेकर लौटा—जिस पर लिखा था: “Case File No. 44-A | Year: 1923 | Status: Unsolved।” वेद के हाथ कांप उठे।
फाइल के अंदर कुछ पीली पड़ी तस्वीरें थीं। एक में एक मिट्टी का कच्चा घर दिख रहा था, जिसके दरवाज़े के पास एक पैर का निशान था—उल्टा, और वही गाढ़ा लाल रंग। वेद के मुंह से अनायास निकल गया—“यह वही निशान है… बिल्कुल वही।” फाइल के अंदर गवाहों के बयान भी थे—लेकिन सब एक जैसे: “कुछ नहीं देखा”, “आवाज़ नहीं सुनी”, “रात भर सब ठीक था”। एक बूढ़े गवाह का बयान खास था—“ये शैतान का काम है, हम पहले भी देख चुके हैं, मगर बोलने से वह गुस्सा हो जाता है।” आखिरी पन्ने में केस क्लोज करने की रिपोर्ट थी, जिसमें लिखा था: “कोई ठोस साक्ष्य नहीं, संदिग्ध परिस्थितियों में केस बंद किया जाता है।” वेद की आंखों में अब केवल हैरानी नहीं थी, एक क्रोध था—क्योंकि यह स्पष्ट था कि इस गांव में कुछ था, जो पीढ़ियों से दोहराया जा रहा था, और सिस्टम ने हमेशा उसे मिट्टी में दबा दिया। वेद ने मुरारी से पूछा, “क्या 1930, 1940 या 1950 की फाइलें भी हैं?” मुरारी ने धीरे से सिर झुका लिया, “कुछ सालों की फाइलें बाढ़ में बह गईं, और कुछ… शायद जानबूझकर हटा दी गईं।”
उस रात वेद ने अकेले स्कूल की प्रयोगशाला में बैठकर फाइलों को फिर से खंगाला। उसने हर गुमशुदगी की तारीखें एक कागज़ पर लिखीं—1923, 1930, 1937, 1944, 1951, 1958… हर सात साल पर। एक ख़ौफ़नाक पैटर्न उसके सामने उभरने लगा था—हर सातवें साल, एक बच्चा। लेकिन कभी-कभी सात साल में दो या तीन गायब हो जाते, और फिर दो पीढ़ी शांत रहती—जैसे कोई अधूरा कर्मकांड बीच में रुक गया हो। लेकिन पायल वाला साल सातवें चक्र का अंतिम बिंदु लग रहा था। वेद ने यह भी देखा कि जब भी कोई चक्र अधूरा रहा, अगली बार उस वर्ष दो बच्चों की गुमशुदगी हुई। एक और कागज़ में वह नाम जोड़ता गया: गुड़िया, लक्ष्मण, अर्जुन, सीमा… और अब—पायल। सबके घर के बाहर वही लाल निशान मिला था। वेद को अब शक नहीं रहा—यह महज़ संयोग नहीं था। यह एक नियोजित तांत्रिक प्रक्रिया थी, जो किसी शक्ति के पुनर्जागरण से जुड़ी थी। लेकिन कौन कर रहा था यह सब? और सबसे बड़ा सवाल—क्या पायल अब भी जीवित थी?
उसी रात जब वेद स्कूल से बाहर निकला, उसे अचानक ठंडी हवा के बीच एक आवाज़ सुनाई दी—“वो जाग रही है…” उसने चारों ओर देखा—कोई नहीं था। लेकिन स्कूल की पिछली दीवार पर, जो कुछ घंटे पहले साफ थी, अब वहां भी वही लाल उल्टा निशान उभर आया था—जैसे कोई उसे चेतावनी दे रहा हो, या कह रहा हो, “अब तुम बहुत करीब आ गए हो।”
५
अगली सुबह, वेद के भीतर कोई शांत चेतना नहीं बची थी। उसकी नींद अब भूत, शाप और आंखों के पीछे उगते लाल निशानों से भर चुकी थी। वह अब खुद को सिर्फ एक शिक्षक नहीं समझ रहा था—उसका मन एक पुरातत्ववेत्ता, एक अन्वेषक, और कहीं-कहीं एक द्रष्टा जैसा हो गया था। गांव के उत्तर दिशा में जहाँ जंगल शुरू होते थे, वहां से थोड़ी दूर, झाड़ियों के पीछे एक छोटा सा टीला था, जिसे कभी वृंदा देवी मंदिर कहा जाता था। स्थानीय मान्यता के अनुसार, वह स्थान अब अपवित्र था—एक ऐसा स्थल जिसे न देवता अपनाते थे, न इंसान छूते थे। वेद, नक्शे और अभिलेखों के सहारे, उसी ओर बढ़ा। रास्ता कठिन था—बिच्छू-बूटी, नागफनी और चुप्पी से लिपटा एक जंगली रास्ता, जो समय में कहीं पीछे जा रहा था। जब वह मंदिर के सामने पहुंचा, तो सूरज अपनी ऊंचाई पर था लेकिन वहां एक अजीब सी छाया पसरी थी—मानो रोशनी को भी किसी ने वर्जित कर रखा हो।
मंदिर अब सिर्फ एक टूटी हुई संरचना थी—दीवारें भले ही जर्जर हो गई थीं, लेकिन उनमें कुछ ऐसा बचा था जो समय को पछाड़ चुका था। वेद ने जब पहली बार दीवारों को छूआ, तो उसे जैसे झटका सा लगा—ठंडी दीवारों में गर्मी का कंपन, जैसे किसी धड़कते शरीर को छुआ हो। उसने धीरे-धीरे मंदिर की परिक्रमा की, और पश्चिमी दीवार पर एक चित्र देखा—एक स्त्री ध्यानमग्न मुद्रा में, जिसके चारों ओर सात छोटे बच्चे खड़े थे। उसकी आंखें बंद थीं, लेकिन चेहरे पर कोई दैवीय शांति नहीं, एक गहरी पीड़ा थी। अगली ही दीवार पर वही चित्र दूसरी अवस्था में था—अब स्त्री के चारों ओर रक्त की धाराएं बह रही थीं, बच्चे कहीं नहीं थे, और उसकी आंखें खुली थीं—लाल, विकृत, पागलपन से भरी हुई। वेद समझ गया, यह वृंदा थी। मंदिर के गर्भगृह के ठीक ऊपर दीवार में संस्कृत श्लोक खुदे थे:
“यः शिशुबलिदानेन आत्मानं अमरं करोति, सः न देवी, न राक्षसी—केवल श्रापरूपा बन जाती है।”
(जो बालि-दान से स्वयं को अमर करता है, वह न देवी होता है, न राक्षस—वह केवल एक श्राप बन जाता है।)
गर्भगृह के अंदर कदम रखते ही वेद को सांस लेना भारी लगने लगा। वहां न तो धूप थी, न अंधकार—बल्कि एक अस्थिर कंपन था, जो शरीर के अंदर तक घुसता चला जाता था। फर्श पर किसी ने हल्के खून से बनाए हुए कुछ चिह्न बनाए थे—तांत्रिक मंडल जैसे, जिनमें बीच में त्रिकोण के अंदर एक आंख बनी थी। वेद के दिमाग में कौंधा—क्या यहां कोई अब भी पूजा करता है? क्या कोई अब भी इस आत्मा को जागृत रखने की साधना में लगा है? तभी एक कोने में उसे एक छोटा सा छेद दिखा—जैसे हाल ही में खोदा गया हो। वहां से निकली मिट्टी सूखी नहीं थी, ताज़ी थी—और वहां एक कपड़ा पड़ा था… वही स्कूल की यूनिफॉर्म की एक झलक… पायल का स्कर्ट। वेद की सांस थम गई। वह जान गया, पायल ज़िंदा है। लेकिन यह भी स्पष्ट था कि कोई अब भी वृंदा की साधना कर रहा है—और पायल अब एक बलिदान की देहरी पर है। मंदिर की दीवारें अब भी बोल रही थीं—उनका मौन चीखों से ज़्यादा तीव्र था। वेद को लौटना था, गांव को बताना था, लेकिन किसे भरोसा दिलाए? वह मंदिर के बाहर आया, तो मंदिर की सीढ़ियों पर फिर वही लाल उल्टा निशान पड़ा था—लेकिन अब वह गाढ़ा था, ताज़ा था… और अगले निशान का रुख वेद के अपने घर की ओर था।
६
उस रात गांव पर घना सन्नाटा था—पत्तों की भी सरसराहट जैसे डर के मारे छुप गई हो। वेद अकेला स्कूल की प्रयोगशाला में बैठा था, चारों ओर फैली पुरानी फाइलें, मंदिर की तस्वीरें, नक्शे और उन लाल निशानों की छाया उसे घेरे हुए थी। बाहर की हवा अजीब तरह से ठंडी थी, जैसे किसी ने उसके आसपास की नमी चुरा ली हो। वह दीवार पर बने टाइमलाइन को देख रहा था, जिसमें गुमशुदा बच्चों के नाम और वर्षों की कतार थी—पायल उस सूची का आखिरी नाम थी, और वेद जानता था कि अगर इस बार कोई उसे नहीं रोका, तो अगला निशान किसी और दरवाज़े पर होगा। तभी एकाएक वह महसूस करता है—कुछ बदल गया है। वह खिड़की की ओर देखता है, बाहर कुछ नहीं दिखता, लेकिन हवा में एक कंपन है… बहुत महीन… जैसे किसी अदृश्य कांच की सतह पर कोई उंगली फिरा रहा हो। और फिर वह सुनाई देती है—धप… धप… धप—धीमी लेकिन भारी आवाज़ें, जैसे कोई गीली मिट्टी पर चलता आ रहा हो।
वेद कांपते हुए उठता है और खिड़की से बाहर झांकता है—कोई नहीं। लेकिन जब वह मुड़कर दरवाज़े की ओर देखता है, तो उसके पैरों के नीचे ज़मीन खिसक जाती है—दरवाज़े के ठीक बाहर वही लाल उल्टा निशान, इस बार दो नहीं, तीन कदम। वह धीमे से दरवाज़ा खोलता है, और बाहर निकलकर देखता है—स्कूल की दिवारों के पास उन निशानों की कतार बनी है, जैसे कोई उसी के लिए रास्ता बना रहा हो। डर और जिज्ञासा के बीच डगमगाता हुआ वेद उन निशानों के पीछे चल पड़ता है, जो उसे स्कूल के पीछे वाले मैदान तक ले जाते हैं। वहां हवा और भी भारी हो जाती है। एक पुराने पीपल के नीचे, ज़मीन पर जैसे कोई आकृति बैठी हो—लेकिन उसका चेहरा नहीं दिखता। वेद कुछ कदम आगे बढ़ता है और बोलता है, “कौन है वहाँ?” आकृति नहीं हिलती, लेकिन अचानक उसका सिर ऊपर उठता है… और उस क्षण जैसे हवा का बहाव उल्टा हो जाता है। उसकी आंखें लाल नहीं, बल्कि गाढ़े काले रंग की थीं, और चेहरा… पायल का चेहरा था, मगर भाव शून्य, निर्जीव, जैसे कोई और उसमें बस गया हो।
वेद कांपते हुए पीछे हटता है और उसी क्षण आकृति गायब हो जाती है—सिर्फ हवा में एक गूंज रह जाती है, जैसे किसी पुरानी प्रार्थना का टूटा हुआ मंत्र। लेकिन जब वेद मुड़ता है, तो पाता है कि स्कूल की दीवार पर अब रक्त से एक वाक्य लिखा है:
“सातवां दीप जल चुका है।”
उसका मन डोल जाता है। वह समझता है कि वृंदा की शक्ति अब पूर्ण हो चुकी है—पायल उसका सातवां दीप बन चुकी है। सवाल अब यह नहीं था कि पायल जिंदा है या नहीं—सवाल यह था कि किसी इंसान के शरीर में अब वृंदा उतर चुकी है या नहीं। वेद का सामना अब केवल एक श्राप से नहीं था—अब वह उस शक्ति से टकराने वाला था जो देवी से राक्षसी बनने के बीच अधर में अटकी रही और अब पूर्णता पा चुकी थी। और इसी के साथ शुरू होता है वेद का सबसे खतरनाक सफर—एक ऐसी शक्ति के खिलाफ, जो अब निशानों से नहीं, खुद उसके मन में प्रवेश करके लड़ने वाली थी।
७
सुबह होते ही गांव में हड़कंप मच गया। रामदीन का बेटा, छोटू—सिर्फ सात साल का—रात से गायब था। वह बच्चा जो हर दिन अपने पिता के साथ खेत जाता था, आज उसके बिस्तर पर नहीं था। दरवाज़ा अंदर से बंद था, खिड़की खुली थी… और ज़मीन पर वही लाल उल्टा निशान—इस बार चार कदम। यह पहला मौका था जब निशान एक साथ दो बच्चों के लिए बने थे। पूरे गांव में भय व्याप्त हो गया था, और लोग अब वेद को संदेह की दृष्टि से देखने लगे थे—क्योंकि सिर्फ वही था जो रात में स्कूल में था, वही जो मंदिरों में घूम रहा था, वही जो शाप की बातें करता था। चौपाल में कुछ ग्रामीणों ने कहना शुरू कर दिया, “ये सब उसी मास्टर की वजह से हो रहा है… शायद वो खुद कुछ कर रहा है।” वेद ने जब ये सुना, तो अंदर से टूटने लगा—वह जो सच्चाई की खोज में था, वही अब गांव के शक का केंद्र बन गया था। लेकिन उसी क्षण कमला, पायल की मां, उसे ढूंढ़ती हुई आई, हाथ में एक पुरानी चांदी की माला लिए।
उसने कहा, “ये माला उस मंदिर से लायी थी मैं… पायल को पहनाया करती थी, लेकिन गायब होने से दो दिन पहले उसने इसे हटाकर फेंक दिया था। अब लगता है ये माला कुछ छुपा रही थी।” वेद ने माला को हाथ में लिया—उसमें कुछ सामान्य नहीं था। जब उसने उसे पकड़ा, तो उसकी उंगलियों में झनझनाहट होने लगी, जैसे हल्की बिजली दौड़ गई हो। माला पर कुछ लकीरें थीं जो सामान्य नहीं दिखती थीं। वेद उसे अपने स्कूल की प्रयोगशाला में ले गया और माइक्रोस्कोप के नीचे देखा—माला की सतह पर बेहद बारीक तांत्रिक यंत्र उकेरे गए थे, जो नज़र से नहीं, सिर्फ प्रकाश की विशेष तरंगों से दिख सकते थे। यह कोई आम माला नहीं थी—यह एक संरक्षण तंत्र था, शायद वृंदा की ऊर्जा से रक्षा करने के लिए। सवाल ये था—किसने बनाई थी यह माला? और क्या यही एकमात्र बचाव था उस शक्ति से?
उस रात वेद ने वह माला खुद पहन ली। आधी रात को एक अजीब सपना देखा—एक गुफा में, दीयों की कतार, सात बच्चों के धुंधले चेहरे, और उन सबके बीच में एक युवती जो बार-बार मंत्र दोहरा रही थी—“सप्तदीपाः समर्पयामि आत्मलाभाय…” वेद चौंककर उठा, उसका माथा पसीने से भीगा था। खिड़की के बाहर हल्की आहट थी। जब वह जाकर देखता है, तो गांव के उत्तर दिशा की ओर तेज़ धुंध उठ रही थी—और उसमें से कोई आकृति उसे देख रही थी… स्थिर, चुप और अभिमंत्रित। वह जान गया—अगली पूर्णिमा तक वृंदा अपने अंतिम रूप को धारण कर लेगी। अगर तब तक छोटू और पायल को वापस न लाया गया, तो वृंदा की आत्मा सिर्फ मुक्त नहीं होगी, बल्कि किसी बच्चे के शरीर में पूर्ण रूप से बस जाएगी।
अब वेद के पास समय कम था, और साथ कोई नहीं था। गांव उससे मुंह मोड़ चुका था, पुलिस ने केस ठंडे बस्ते में डाल दिया था, और जिस सच्चाई से वह लड़ रहा था, वो अब केवल भौतिक नहीं रही—अब यह लड़ाई उसकी आत्मा की परीक्षा थी। उसने कसम खाई—अगली रात वह फिर उसी मंदिर में जाएगा, लेकिन इस बार एक रक्षक नहीं, एक योद्धा बनकर।
८
वेद ने उस रात चांद की रोशनी में फिर एक बार उस जंगल का रुख किया, जहां वृंदा का मंदिर था—अब तक दो बार जा चुका था, लेकिन हर बार एक दर्शक की तरह। आज वह गया था एक प्रतिकारक बनकर, गले में वही तांत्रिक माला, हाथ में मंदिर की दीवार से चुराया गया एक शंख, और मन में डर से भी बड़ा एक ज्वलंत प्रश्न—वृंदा आखिर क्या थी? देवी, राक्षसी या कुछ और? मंदिर की दीवारें पहले जैसी शांत नहीं थीं—अब वहां एक कंपन था, जैसे कोई बीज अंकुरित हो रहा हो, कोई आत्मा आकार ले रही हो। गर्भगृह के सामने वही सात दीपक रखे थे—अब उनमें से छह जल रहे थे, और सातवां दीप खाली पात्र में अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। तभी गर्भगृह के ठीक पीछे दीवार पर खुद ही एक दरार खुलने लगी—वेद ने जैसे ही शंख उठाया, दीवार के पीछे एक अंधेरी सुरंग नज़र आई। अंदर से गीली सांसों जैसी एक आवाज़ आई—धीमी, लेकिन स्पष्ट… “वेद… तू आ गया…”
वेद ने खुद को समेटते हुए सुरंग में प्रवेश किया। वहां दीवारों पर बच्चों के हाथों के निशान थे—छोटे-छोटे पंजों से बने, जैसे कोई उन्हें ज़बरदस्ती घसीट कर लाया गया हो। सुरंग के अंत में एक गोलाकार कक्ष था, और उसके बीचोंबीच एक तांत्रिक मंडल बना था, जिसके अंदर बैठे थे—पायल और छोटू, आँखें बंद, चेहरा भावशून्य, और मस्तिष्क पर किसी अदृश्य बंधन का प्रभाव। वेद आगे बढ़ा, लेकिन तभी सामने एक धुएँ से बनी आकृति आकार लेने लगी—और फिर एक स्त्री-आकृति उभरी—लंबे बाल, चेहरा अधजला, लेकिन आंखें… उनमें एक सौंदर्य भी था और एक क्रूरता भी। वृंदा। उसका स्वर असहनीय रूप से मधुर था—”तू जानना चाहता है ना, मैं क्या हूँ? मैं वो हूँ जिसे मानवों ने पहले देवी कहा, फिर डायन। जिसने अमरता मांगी, पर मिला सिर्फ श्राप।”
उसने वेद की ओर बढ़ते हुए कहा—”मेरे गुरुओं ने कहा, सात मासूम आत्माएं, और मैं समय से परे हो जाऊंगी। पर हर बार कोई एक दीप अधूरा रह गया… अब देख, सातवां दीप सामने बैठा है… और तू बाधा बन गया है।” वेद ने माला को कसकर पकड़ा और बोला—“तू अमर होना चाहती थी, लेकिन अब तू सिर्फ एक भ्रम है—तू शापित है क्योंकि तूने जीवन को साधना की वस्तु बना दिया।” वृंदा हँसी, “ब्रह्म को पाने के लिए रक्त चाहिए वेद… तुम शिक्षक लोग बस किताबों में पढ़ते हो, हम लोग आत्मा से चढ़ाते हैं।” वेद ने शंख बजाया—मंदिर की दीवारें कांप उठीं, और उसी समय वेद ने वो श्लोक बोला जो उसने दादी गौरी से सुना था—
“यः शक्तिम् तामसां बन्धयेत्, सः नाशयेत् शापवृन्दाम्।”
वृंदा की आकृति चीखने लगी—उसकी आवाज़ अब स्त्री की नहीं, किसी दानव की थी। दीये बुझने लगे, और मंडल के भीतर बने चक्र टूटने लगे। वेद ने पायल और छोटू को उठाया—उनके शरीर हल्के थे, लेकिन जैसे नींद में डूबे हों। पीछे से वृंदा की चीख आई—”एक दीप बाकी है वेद… जब तक वो जल नहीं जाता, मैं समाप्त नहीं हो सकती।” वेद बिना पीछे देखे बाहर की ओर भागा, और मंदिर की दहलीज़ पार करते ही उस सुरंग का मुंह खुद-ब-खुद ध्वस्त हो गया।
लेकिन उसके मन में अब भी वह वाक्य गूंजता रहा… “एक दीप बाकी है…”
क्या वह सातवां दीप अब भी कहीं जल रहा था? या वृंदा सिर्फ रूप बदल चुकी थी?
९
पायल और छोटू अब गांव लौट आए थे—लेकिन वेद की उम्मीद के विपरीत, गांव में कोई उत्सव नहीं हुआ। लोग उन्हें देखकर मुस्कराए ज़रूर, लेकिन आंखों में संशय अब भी था। पायल दिनभर चुपचाप बैठी रहती थी, कभी-कभी अचानक हवा में हाथ हिलाती जैसे किसी अदृश्य चीज़ को टाल रही हो, और छोटू, जो पहले नटखट था, अब अपनी मां को पहचान कर भी चुपचाप सिर झुका देता। वेद ने डॉक्टर से जांच करवाई—शारीरिक रूप से दोनों बिल्कुल स्वस्थ थे। लेकिन उनकी चेतना जैसे अब भी कहीं अंधे अंधेरे में बंधी थी। वेद जानता था कि यह युद्ध खत्म नहीं हुआ—यह महज़ एक अस्थायी विराम था। उस रात जब वह अपनी प्रयोगशाला में बैठा, तो उसने उन दोनों की आंखों की तस्वीरें खींचकर एक माइक्रोस्कोपिक स्कैनर से जांच की—और फिर जो दिखा, उसने उसकी नींद उड़ा दी। पायल की आंखों के रेटिना में एक तांत्रिक आकृति धीरे-धीरे बन रही थी—उसी त्रिकोण वाली जो मंदिर की दीवार पर थी। इसका मतलब साफ था—वृंदा अब पूरी तरह समाप्त नहीं हुई थी।
वेद ने उस रात फिर दादी गौरी से मुलाकात की। दादी की आंखें अब और भी बुझी हुई थीं, लेकिन उनकी आवाज़ जैसे कहीं और से आ रही थी—“सातवां दीप कोई और नहीं, वो है जो पूरी तरह प्रकाश नहीं बना… और पूरी तरह अंधकार भी नहीं।” वेद चौंका—“क्या मतलब?” दादी ने धीरे से उसकी ओर देखा, “बच्चे तो बस माध्यम हैं बेटा… लेकिन जो उसका पूरा चक्र समझे, जो सातवां चिन्ह देखे, वो भी दीप बन सकता है…” वेद का रक्त ठंडा हो गया। उसने खुद ही सातों निशान जोड़े थे, खुद ही मंदिर में प्रवेश किया था, खुद ही वृंदा की दीवारें तोड़ी थीं। क्या वह खुद… सातवां दीप बन गया था? क्या वृंदा अब उसके माध्यम से लौटेगी? उसी क्षण उसे याद आया—जब उसने मंदिर छोड़ा था, तब आखिरी दीया बुझा नहीं था… उसकी बात झूठी थी। और फिर एक और भयावह सच्चाई सामने आई—वह दीया वेद के लिए ही जलाया गया था।
उस रात वेद को नींद नहीं आई। हर दरवाज़े की परछाईं उसे खुद की आकृति सी लगी। जब उसने अपनी हथेली की रेखाएं देखीं, तो उस पर हल्का लाल निशान उभर आया था—जैसे कोई चक्र, कोई उल्टा पदचिह्न उसके हाथ पर खुद गया हो। उसने घबराकर वह चांदी की माला फिर से पहन ली… लेकिन इस बार माला गर्म हो रही थी, जैसे भीतर से जल रही हो। उसकी आंखें झपकीं, और सामने एक दृश्य उभरा—वह मंदिर फिर से जीवित हो गया था, और वृंदा उसी चक्र में बैठी थी, मगर इस बार उसके सामने पायल नहीं, वेद खुद बैठा था। वृंदा की आंखें खुलीं और वह बोली, “अब तू समझ गया… साक्षी वही बनता है जो दीप बनता है।” वेद ने चीख कर आंखें खोलीं—लेकिन सामने, उसकी मेज़ पर रखे शीशे में… वह खुद नहीं, वृंदा का चेहरा था।
वेद अब जान गया—उसने वृंदा को हराया नहीं था, उसे जगा दिया था। अब युद्ध बाहर नहीं, भीतर होने वाला था।
और समय, बहुत कम बचा था…
१०
पूरा गांव अब सामान्य दिखता था—बच्चे स्कूल आने लगे थे, मंदिर के पास की सड़क की मरम्मत हो रही थी, और लोग धीरे-धीरे उस घटना को पीछे छोड़ रहे थे। लेकिन वेद के भीतर अब कोई सामान्यता शेष नहीं थी। उसके चेहरे पर पहले जैसी आत्मीयता नहीं थी—अब वहां एक सर्द स्थिरता थी, जैसे कोई स्थायी विचार उसकी चेतना को घेर चुका हो। उसे सपनों में अब मंदिर नहीं आता था—बल्कि वह खुद वृंदा के स्थान पर बैठा दिखता था, उसी तांत्रिक मंडल के बीच, आंखें बंद, और सात दीये उसके चारों ओर जलते हुए। वह जानता था यह सब झूठ नहीं, एक चेतावनी थी। उसे समय मिल रहा था—पर अब भी तय नहीं था कि वह इससे लड़ पाएगा या नहीं। वह समझ चुका था कि वृंदा का लक्ष्य सिर्फ अमरता नहीं था, वह एक अस्तित्व बनना चाहती थी—शरीर के पार, विचार के भीतर। वेद उस अस्तित्व का माध्यम बन चुका था, और अब निर्णय उसे ही लेना था—या तो वह इस चक्र को यहीं समाप्त करे, या फिर वह सातवां दीप बनकर वृंदा को कालातीत बना दे।
एक रात, पूर्णिमा की रात, वेद ने एक निर्णय लिया—वह मंदिर जाएगा… एक अंतिम बार। लेकिन इस बार, वह तांत्रिक यंत्र नहीं, कोई वैदिक उपाय लेकर गया। उसने आचार्य शंकर की लिखी “अथर्ववेदिक आत्म-शुद्धि साधना” पढ़ी थी, जिसमें आत्मा के भीतर समाई ऊर्जा को ही अपने भीतर ही समाप्त करने का उपाय बताया गया था—”येन मंत्रेण तमसः मूलं छिद्यते, तेन आत्मदीपः शुद्ध्यति।” वेद ने मंदिर के ठीक उस स्थान पर दीप जलाया, जहां सातवां दीया रखा था। वहां बैठकर उसने आंखें मूंदी, और अपने भीतर झांकना शुरू किया। वहां अंधेरा था—गाढ़ा, स्थायी, ठंडा। फिर वह चित्र उभरा—वृंदा की आंखें, उसका हाथ, उसकी आकांक्षा… और अंत में खुद वेद, जो अब उसका दर्पण बन चुका था।
वेद ने श्लोक बोलना शुरू किया, लेकिन हर शब्द पर उसे अपने ही भीतर से प्रतिरोध महसूस हो रहा था। जैसे वृंदा अब उसे बोलने ही नहीं देना चाहती थी। “ॐ अपवित्रः पवित्रो वा…” लेकिन ज़ुबान लड़खड़ाने लगी। तभी उसके गले की माला—जो अब तक सिर्फ धारण थी—प्रज्वलित हो उठी। एक गर्मी उसके हृदय में दौड़ने लगी, और उसके सामने अब वृंदा की आकृति नहीं, एक बच्ची का चेहरा उभरा—पायल का। वह मुस्कराई और बोली—”आपने मुझे बचा लिया था, मास्टरजी… अब खुद को भी बचाइए।” वेद की आंखें डबडबा गईं। उसी क्षण उसने अंतिम श्लोक बोला—”सप्तदीपसंहाराय आत्मविमोचनाय नमः।” मंदिर की ज़मीन कांप उठी, और हवा में जैसे किसी ने शाप को खींच कर बाहर निकाल दिया। दीये एक-एक कर बुझ गए… और वृंदा की अंतिम चीख हवा में बिखर गई—“तूने मुझे प्रकाश में बदल दिया… पर मैं अंधेरे का हिस्सा थी…”
अगली सुबह वेद गांव लौटा—लेकिन अब वह पहले जैसा नहीं था। उसका चेहरा शांत था, आंखों में थकावट थी… लेकिन मन में स्थिरता थी। लोग अब उसकी ओर आदर से देखने लगे। कोई नहीं जानता था क्या हुआ, लेकिन सब मानते थे—वेद अब सिर्फ शिक्षक नहीं था, वह शाप की श्रृंखला को तोड़ने वाला पहला दीप बन चुका था।
गांव के मंदिर में अब एक नई परंपरा शुरू हुई—हर साल पूर्णिमा पर एक दीया वेद के नाम जलाया जाता था।
एक याद के लिए।
एक प्रश्न के लिए।
और एक उत्तर के लिए, जो शायद हर पीढ़ी को खुद ढूंढ़ना होता है।
समाप्त