Hindi - प्रेतकथा

नासिक का शिकारी

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आदित्य राणे


जंगल की चेतावनी

नासिक की सुबहें अंगूर के बाग़ों और पहाड़ियों की धुंध से शुरू होती हैं। सूरज की पहली किरणें जब त्र्यंबक के जंगलों पर गिरतीं, तो पूरा इलाका सुनहरी चादर से ढक जाता। लेकिन उसी सुंदरता के भीतर छुपा था एक ऐसा रहस्य, जिसके बारे में गाँव के लोग फुसफुसाते थे—सुपारीवान जंगल।

सुपारीवान का नाम सुनते ही बुज़ुर्गों की आँखें भय से सिकुड़ जातीं। वे कहते—“दिन में यहाँ पेड़ों की सरसराहट अलग होती है, लेकिन रात में… रात में ये जंगल अपने असली रूप में ज़िंदा हो उठता है।”
गाँव के छोटे बच्चे जब खेलते-खेलते उस दिशा में भागते, तो उनकी माताएँ घबराकर पुकारतीं—“वहाँ मत जाना! शिकारी की छाया पकड़ लेगी।”

लेकिन सबकी तरह रघुनाथ पाटिल इन बातों को हंसी में टाल देता।

 

रघुनाथ का स्वभाव

रघुनाथ गाँव का जाना-माना किसान था, पर शिकार उसका जुनून था। जंगल उसके लिए डरावना नहीं, बल्कि रोमांचक था। उसके पिता पुराने समय में बंदूक रखते थे और उन्हीं से रघुनाथ ने जानवरों के निशान पढ़ना सीखा।
बचपन से ही वह तेंदुए की दहाड़ और सियारों की हुआँ–हुआँ को चुनौती समझता। गाँव में जब भी कोई जंगली जानवर मवेशियों पर हमला करता, लोग रघुनाथ को बुलाते।

वह मुस्कुराकर कहता—
“जंगल का डर सिर्फ़ कायरों को लगता है। जिसने एक बार बंदूक उठाई, उसके लिए सब जानवर शिकार हैं।”

 

बुज़ुर्गों की चेतावनी

एक शाम गाँव के चौपाल पर बैठे सभी लोगों के बीच बुज़ुर्ग भाऊसाहेब ने कहानी सुनाई। उनकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन हर शब्द दिल में उतर रहा था।

“बहुत साल पहले, सुपारीवान में एक शिकारी आया था। उसने वहाँ हर बड़े जानवर को मार दिया। लेकिन एक रात वह खुद शिकार बन गया। कहते हैं, उसकी आत्मा आज भी जंगल में घूमती है। जो भी आदमी अहंकार में वहाँ जाता है, वह लौटकर नहीं आता।”

गाँव के लोग चुपचाप सुनते रहे। और वहीं बैठा रघुनाथ हँस पड़ा—
“भाऊसाहेब, ये सब पुराने ज़माने की कहानियाँ हैं। आत्मा-वात्मा जैसी कोई चीज़ नहीं होती। अगर है भी, तो मैं उसका भी शिकार कर लूँगा।”

लोगों ने उसे घूरा। एक महिला बोली—“रघु, मत जाना उस जंगल में। वहाँ जाने वाले का अंत बुरा ही होता है।”

लेकिन रघुनाथ का चेहरा और चमक उठा। डर उसे और उकसाता था।

 

अमावस्या की तैयारी

दिन गुज़रे। फसल कट चुकी थी और गाँव में आराम का मौसम था। लेकिन रघुनाथ के मन में बेचैनी थी। वह तय कर चुका था—इस अमावस्या की रात वह अकेला सुपारीवान में जाएगा।

उसने अपनी पुरानी बंदूक साफ़ की, टॉर्च में नई बैटरी डाली और पेटी में कारतूस रखे। घरवालों ने पूछा—
“कहाँ जा रहे हो?”
उसने बस इतना कहा—“शिकार करने।”

रात गहराने लगी। आसमान में तारे तो थे, लेकिन चाँद गायब था। गाँववालों ने दरवाज़े बंद कर दिए। हर कोई जानता था कि अमावस्या की रात जंगल सबसे ज़्यादा जिंदा हो उठता है।

 

पहला कदम जंगल में

रघुनाथ ने अपने कदम पगडंडी पर रखे। सुपारीवान का रास्ता संकरा था और चारों ओर पेड़ों की दीवारें थीं। जैसे-जैसे वह आगे बढ़ा, हवा भारी होने लगी। पत्तों की सरसराहट अजीब थी, मानो पेड़ आपस में कुछ कह रहे हों।

दूर कहीं उल्लू की आवाज़ आई। फिर अचानक एक औरत की धीमी हँसी सुनाई दी।
रघुनाथ ठिठका। टॉर्च की रोशनी इधर-उधर घुमाई, लेकिन वहाँ कोई नहीं था।
उसने खुद से कहा—“शायद हवा की आवाज़ होगी।”

 

गाँव से आती पुकार

जब वह और अंदर बढ़ा, तो उसे लगा कोई उसके पीछे से उसका नाम पुकार रहा है—“रघु… रघु…”
वह पलटा, पर पीछे सिर्फ़ अंधेरा था।
उसकी साँसें तेज़ हो गईं, लेकिन उसने मन ही मन ठान लिया कि अब वापस नहीं लौटेगा।

जैसे-जैसे कदम गहरे जंगल में जाते, वैसे-वैसे उसका अहंकार और चुनौती बढ़ती जा रही थी।
वह सोच रहा था—“गाँव वाले मुझे डरपोक समझते हैं। अब देखेंगे, मैं अकेला अमावस्या की रात भी लौटकर आऊँगा।”

लेकिन उसे पता नहीं था कि सुपारीवान ने उसके हर कदम को महसूस करना शुरू कर दिया है।

अमावस्या की रात

जंगल के भीतर अंधेरा इतना गाढ़ा था कि टॉर्च की रोशनी भी मुश्किल से दस कदम आगे तक पहुँच रही थी। रघुनाथ ने बंदूक को कसकर पकड़ा और मन ही मन हिम्मत जुटाई। हवा में नमी थी, लेकिन साथ ही एक अजीब-सी सड़ांध भी थी—जैसे कहीं पास ही कोई जानवर सड़ रहा हो।

हर बार जब वह कोई टहनी तोड़ता या सूखी पत्तियों पर पाँव रखता, तो आवाज़ पूरे जंगल में गूंज जाती। उसे लग रहा था कि यह जंगल उसका मज़ाक उड़ा रहा है।

 

अनजानी आवाज़ें

जैसे-जैसे वह आगे बढ़ा, ध्वनियाँ बदलने लगीं। पहले उसने बच्चों की रोने की आवाज़ सुनी। वह रुक गया, टॉर्च इधर-उधर घुमाई, लेकिन सिर्फ़ पेड़ों की परछाइयाँ दिखीं।
अगले ही पल, वही रोना औरत की धीमी हँसी में बदल गया।

“कौन है वहाँ?” रघुनाथ ने जोर से पूछा।
जवाब में सन्नाटा मिला—और फिर अचानक कहीं से भारी साँसों की आवाज़ आने लगी, मानो कोई उसके पीछे-पीछे चल रहा हो।

उसने पलटकर देखा। टॉर्च की रोशनी में सिर्फ़ धुंध थी।

 

पहली झलक

कुछ दूरी पर उसे दो लाल चमकती आँखें दिखाई दीं। ऐसा लगा जैसे कोई जानवर झाड़ियों में छुपा है।
“शेर होगा।” उसने मन ही मन कहा और बंदूक तान दी।

ट्रिगर दबाते ही गोली की गूँज से पूरा जंगल कांप उठा। लेकिन आँखें वहीं जमी रहीं, बिना हिले। और अगले ही पल वे धीरे-धीरे ऊपर उठने लगीं—इतनी ऊँचाई तक, जितना कोई इंसान भी खड़ा नहीं हो सकता था।

रघुनाथ की रीढ़ में ठंडा पसीना दौड़ गया। उसने टॉर्च गिरा दी, लेकिन अंधेरे में भी उसे वो आँखें अब और करीब आती दिखाई दीं।

 

मंदिर की झलक

घबराकर वह भागने लगा। दौड़ते-दौड़ते उसे सामने एक टूटा हुआ पत्थर का ढांचा दिखा। जब पास पहुँचा, तो समझ आया कि यह कोई पुराना मंदिर है। दरवाज़े पर काई जमी थी, लेकिन भीतर दीपक जैसा टिमटिमाता प्रकाश दिख रहा था।

वह सावधानी से अंदर गया। दीवारों पर चित्र बने थे—शिकारियों के। हर चित्र में एक आदमी बंदूक या भाला पकड़े खड़ा था और उसके पीछे वही लाल आँखों वाली छाया।

रघुनाथ ने ध्यान से देखा तो उसके रोंगटे खड़े हो गए—एक चित्र हूबहू उसकी शक्ल से मिलता था।

 

रक्त का चढ़ावा

मूर्ति के पास उसने देखा कि ताज़ा रक्त चढ़ा था। किसी ने अभी-अभी बलि दी हो, ऐसा प्रतीत हो रहा था। ज़मीन पर अधजली अगरबत्तियाँ और टूटे नारियल पड़े थे।

उसे अचानक महसूस हुआ कि मंदिर के भीतर भी वही भारी साँसों की आवाज़ गूंज रही है।
उसने काँपती आवाज़ में कहा—“कौन है वहाँ?”

तभी दीवारों पर बने चित्र धीरे-धीरे हिलने लगे। हर शिकारी अपनी आँखें घुमाकर उसे देखने लगा। और उन सबके पीछे वही लाल आँखें चमक उठीं।

 

मौत की सरगोशियाँ

रघुनाथ डर से पसीने-पसीने हो गया। उसकी साँसें तेज़ चलने लगीं। उसने बंदूक को कसकर पकड़ा और मंदिर से बाहर भाग निकला।
लेकिन बाहर आते ही उसे लगा कि जंगल अब बदल चुका है। रास्ता जिसे वह पहचानता था, गायब हो चुका था। हर दिशा एक जैसी लग रही थी—काले पेड़, झाड़ियाँ और गहरी धुंध।

पेड़ों की शाखाएँ आपस में टकरा रही थीं, मानो कोई मंत्र जप रही हों। और हवा में फुसफुसाहटें गूंज रही थीं—
“भाग नहीं पायेगा… तू अब शिकार है…”

रघुनाथ ने खुद को संभालने की कोशिश की, पर उसके पैर काँप रहे थे।

 

पीछा

अचानक पीछे से टहनियाँ टूटने की तेज़ आवाज़ आई। कोई उसका पीछा कर रहा था। उसने टॉर्च उठाई और रोशनी डाली—पर कुछ भी नहीं दिखा।
फिर भी कदमों की आवाज़ और तेज़ होने लगी।

वह पूरी ताक़त से दौड़ा, लेकिन जितना दौड़ता, उतना ही जंगल गहराता चला गया। उसके गले से चीख निकलने ही वाली थी कि तभी सामने एक पेड़ पर गहरी खरोंचें दिखीं—मानो किसी ने नाखून से काटा हो। उन खरोंचों से ताज़ा खून टपक रहा था।

 

अंत का संकेत

रघुनाथ ने खून को छूने की कोशिश की, लेकिन तभी उसके पीछे से किसी ने उसका नाम पुकारा—
“रघु…”
उसकी रगों में बर्फ दौड़ गई।

वह पलटा, पर वहाँ कोई नहीं था।

लाल आँखों की छाया

जंगल में सन्नाटा इतना भारी था कि रघुनाथ को अपने दिल की धड़कन भी कानों में गूंजती सुनाई दे रही थी। हर साँस जैसे किसी अदृश्य दीवार से टकराकर लौट रही थी। उसके पैरों के नीचे गीली मिट्टी और सूखे पत्ते दबकर चरमराते, लेकिन उस आवाज़ में भी एक अजीब-सा कंपन था—जैसे कोई और उसके कदमों की नकल कर रहा हो।

 

छाया का पीछा

वह धीरे-धीरे पीछे मुड़ा। टॉर्च की रोशनी झाड़ियों पर पड़ी और वहीं, धुंध के बीच, वे लाल आँखें तैर रही थीं। इस बार आँखें स्थिर नहीं थीं। वे धीरे-धीरे इधर-उधर हिल रही थीं, मानो किसी अदृश्य शरीर पर जड़ी हों।

रघुनाथ ने घबराकर बंदूक तानी और गोली चलाई। आवाज़ इतनी तेज़ थी कि पास के पेड़ काँप उठे।
धुआँ छंटा, लेकिन आँखें वहीं थीं—जैसे गोली ने उन्हें छुआ तक न हो।

फिर, अगली ही पल वे आँखें एकदम गायब हो गईं।

उसने राहत की साँस ली, लेकिन तुरंत महसूस किया कि कोई उसके ठीक पीछे खड़ा है। उसकी गरदन पर ठंडी साँस का झोंका पड़ा। वह बिजली-सी तेजी से पलटा—पर वहाँ कोई नहीं था।

 

पेड़ों की फुसफुसाहट

जंगल अब और भी अजीब हो चला था। पेड़ों की टहनियाँ एक-दूसरे से रगड़ खाकर सरसराहट नहीं, बल्कि फुसफुसाहट पैदा कर रही थीं।
“रघु… रघु… भाग नहीं सकता…”

रघुनाथ ने कान बंद कर लिए, लेकिन आवाज़ उसके भीतर गूंज रही थी।

अचानक एक पेड़ की छाल पर उसकी नज़र पड़ी। वहाँ गहरे नाखूनों से लिखा था—
“तेरा नंबर आ चुका है।”

उसका शरीर सुन्न हो गया।

 

मरी हुई आवाज़ें

आगे बढ़ते ही उसे किसी के कराहने की आवाज़ सुनाई दी। मानो घायल जानवर दर्द से तड़प रहा हो।
वह सावधानी से झाड़ियों की ओर बढ़ा। वहाँ ज़मीन पर खून फैला था, लेकिन जानवर नहीं—बल्कि एक आदमी का फटा हुआ जूता पड़ा था।

जूता पहचानते ही उसकी आँखें फैल गईं। यह गाँव के हरिपंत का था, जो कुछ महीने पहले लापता हो गया था।

“नहीं… यह झूठ है,” रघुनाथ ने खुद से कहा।

पर तभी झाड़ियों से वही कराहती आवाज़ और तेज़ हुई। और जब उसने टॉर्च डाली, तो देखा—एक अधजला चेहरा, आँखें खोखली, होंठ सिले हुए। वह हरिपंत ही था, लेकिन इंसान नहीं, आधी जली हुई आत्मा।

 

लाल आँखों का हमला

रघुनाथ चीखते हुए पीछे हटा। तभी उसके सामने फिर वही लाल आँखें प्रकट हुईं।
इस बार वे स्थिर नहीं रहीं। तेजी से उसकी ओर बढ़ने लगीं। जैसे-जैसे वे पास आतीं, जंगल और अंधेरा होता जाता।

उसने बंदूक दुबारा तानी, लेकिन ट्रिगर दबाने से पहले ही बंदूक उसके हाथ से छूट गई। अदृश्य ताक़त ने उसे ज़मीन पर धक्का दे दिया।

उसने महसूस किया कि कोई भारी चीज़ उसके सीने पर बैठ गई है। उसका गला दब रहा था। साँसें रुक रही थीं।
धुंधली नज़र में उसे बस वही लाल आँखें दिखीं—अब इतनी करीब कि वह उनकी चमक में अपना चेहरा देख पा रहा था।

 

छाया का रूप

अचानक आँखों के पीछे एक धुंधला शरीर उभर आया। पहले वह सिर्फ़ धुआँ लगा, फिर धीरे-धीरे रूप लेने लगा—लंबा कद, चौड़े कंधे, फटे कपड़े, और हाथों में लंबे नुकीले नाखून।

उसने खुरदुरी आवाज़ में कहा—
“मैं वही शिकारी हूँ… जिसने यहाँ सबको मारा था। अब तेरा नंबर है।”

रघुनाथ के शरीर में खून जम गया। उसे समझ आया कि यह वही श्रापित आत्मा है, जिसके बारे में बुज़ुर्ग कहते थे।

 

मंदिर की ओर खिंचाव

छाया ने उसका गला छोड़ दिया और इशारे से मंदिर की दिशा बताई।
“चल… तुझे भी तेरे शिकार की तस्वीर दीवार पर बनानी है।”

रघुनाथ ने चीखते हुए भागने की कोशिश की, लेकिन उसके पैरों ने उसका साथ नहीं दिया। ऐसा लगा मानो जंगल की जड़ें उसके टखनों को पकड़कर खींच रही हों।

धीरे-धीरे उसका शरीर खिंचता हुआ फिर उसी खंडहर मंदिर की ओर बढ़ने लगा।

 

दीवार का नया चित्र

मंदिर में पहुँचते ही दीवारों पर बने चित्र एक बार फिर जीवित हो उठे। हर शिकारी की आँखें लाल चमकने लगीं।
रघुनाथ ने देखा कि अब वहाँ एक नया चित्र बन रहा है—उसी की शक्ल का।

उसने अंतिम कोशिश में बंदूक उठाने की कोशिश की, लेकिन तभी छाया ने गुर्राकर कहा—
“अब तू शिकार है, शिकारी नहीं।”

और अगले ही पल रघुनाथ की तस्वीर पूरी हो गई। उसके चेहरे पर वही डर उभर आया था, जो अभी-अभी उसकी आँखों में था।

 

खंडहर मंदिर

रघुनाथ के पैर काँप रहे थे। मंदिर की दीवार पर उभरती उसकी तस्वीर उसे यह यकीन दिला चुकी थी कि अब यह जंगल उसे छोड़ने वाला नहीं है। लाल आँखों वाली छाया जैसे उसकी आत्मा तक उतर चुकी थी।

 

टूटी मूर्तियों का भय

मंदिर के भीतर अंधेरा और भी गाढ़ा था। छत टूट चुकी थी, मगर दीवारें अब भी किसी अदृश्य शक्ति से टिकी थीं। बीच में टूटी-फूटी मूर्तियाँ थीं—गणेश, शिव, काली—लेकिन सबकी आँखें खुरच दी गई थीं।
रघुनाथ को लगा कि यह सिर्फ़ खंडहर नहीं, बल्कि बलि का स्थान है।

दीवारों पर फैले खून के धब्बे ताज़ा लग रहे थे। उसने हाथ लगाया तो उंगलियाँ लाल हो उठीं। वह काँप गया।

 

अतीत की आवाज़

अचानक मंदिर के भीतर से आवाज़ आई—
“शिकारियों ने मेरी पूजा की, मेरी बलि दी… अब मैं उनकी आत्माओं का मालिक हूँ।”

रघुनाथ ने टॉर्च उठाई। रोशनी टूटे स्तंभों पर पड़ी और वहाँ पर छायाएँ हिलने लगीं। हर छाया किसी शिकारी की थी—भाला, तलवार, बंदूक पकड़े हुए। और उन सबकी आँखें चमक रही थीं।

रघुनाथ ने बंदूक कसकर पकड़ी और चिल्लाया—
“मैं तुमसे नहीं डरता!”

आवाज उसके मुँह से निकली, लेकिन गूंजकर लौटते ही वह खुद उसे झूठ लगने लगी।

 

दीवार का जादू

दीवार पर बनी उसकी तस्वीर अब और साफ़ हो चुकी थी। उसमें वह बंदूक ताने खड़ा था, मगर उसके पीछे लाल आँखों वाली छाया पंजे फैलाए खड़ी थी।

चित्र से खून टपकने लगा। बूंदें धीरे-धीरे ज़मीन पर गिर रहीं थीं और जहाँ गिरतीं, वहाँ छोटे-छोटे नाखून उग आते।

रघुनाथ ने बंदूक तानी और दीवार पर गोली चला दी।
धड़ाम!
गोली दीवार पर लगी और पूरा मंदिर हिल उठा। मगर तस्वीर वहीं की वहीं रही, बस उसके चेहरे पर और ज़्यादा डर उतर आया।

 

छाया का खेल

पीछे से वही गुर्राती आवाज़ आई—
“भाग कहाँ जाएगा? यह जंगल तेरा शिकारी है।”

रघुनाथ ने पलटकर देखा। लाल आँखों वाली छाया अब और स्पष्ट थी। उसका शरीर लंबा और हड्डियों से भरा हुआ, जैसे किसी ने उसका मांस नोच लिया हो। हाथों में धारदार नाखून और होंठों पर विकृत मुस्कान।

वह धीरे-धीरे रघुनाथ की ओर बढ़ने लगी।
हर कदम पर ज़मीन काँप रही थी।

 

पुकार

तभी अचानक बाहर से किसी ने आवाज़ लगाई—“रघु! रघु!”
यह आवाज़ उसकी माँ की थी।
वह सिहर उठा। माँ तो गाँव में थी, यहाँ कैसे आ सकती थी?

वह आवाज़ और करीब आई।
“घर चल बेटा, रात बहुत हो गई है।”

रघुनाथ की आँखें भर आईं। वह टॉर्च लेकर बाहर भागा। लेकिन बाहर पहुँचते ही देखा—वहाँ कोई नहीं था। बस एक सूखा पेड़, जिसकी शाखाओं पर कपड़े के टुकड़े लटक रहे थे। उन पर खून के धब्बे थे।

और हवा में वही आवाज़ गूँज रही थी—
“घर चल बेटा…”

 

बलि का सच

वह मंदिर की ओर लौट आया। छाया अब मूर्ति के सामने खड़ी थी। उसके हाथ में एक टूटा हुआ खंजर था।
“हर शिकारी ने अपने खून से मुझे बलि दी। अब तेरी बारी है।”

रघुनाथ ने काँपते हुए कहा—
“मैंने किसी की बलि नहीं दी… मुझे छोड़ दे!”

छाया हँस पड़ी। उसकी हँसी पूरे मंदिर में गूंजने लगी, जैसे सैकड़ों शिकारी एक साथ हँस रहे हों।
“तेरे आने से पहले भी सब यही कहते थे। अब वे सब मेरी सेना का हिस्सा हैं।”

 

आख़िरी कोशिश

रघुनाथ ने बंदूक उठाई और पूरी ताक़त से फायर किया। गोली सीधा छाया के सीने में लगी।
एक पल के लिए वह पीछे हटी, मगर अगले ही पल फिर सीधी खड़ी हो गई।
उसकी आँखें और तेज़ लाल हो उठीं।

“गोली से शिकार नहीं होगा, रघु। तेरी आत्मा ही असली इनाम है।”

रघुनाथ का शरीर काँपने लगा। उसने महसूस किया कि मंदिर की दीवारें धीरे-धीरे उसके चारों ओर सिमट रही हैं।

 

कैद

दीवार पर उसका चित्र अब पूरी तरह तैयार था। उसमें उसका चेहरा खून से लथपथ था और उसके पीछे लाल आँखों वाली छाया पंजे फैलाए खड़ी थी।

जैसे ही चित्र पूरा हुआ, रघुनाथ के शरीर ने अचानक हरकत करना बंद कर दिया।
वह ठिठककर वहीं खड़ा रह गया, टॉर्च ज़मीन पर गिर गई और रोशनी बुझ गई।

मंदिर में सिर्फ़ लाल आँखें चमक रही थीं।

शिकार या शिकारी

मंदिर की दीवार पर उसका चेहरा जैसे जीवित हो उठा था। लाल आँखों वाली छाया उसके पीछे पंजे फैलाए खड़ी थी और रघुनाथ उस चित्र को देखता हुआ समझ नहीं पा रहा था कि वह जीवित है या पहले से ही कैद हो चुका है। उसकी साँसें भारी हो रही थीं, दिल तेजी से धड़क रहा था।

 

शिकारी का अहंकार

रघुनाथ ने खुद को संभालने की कोशिश की। उसके भीतर अब भी वही पुराना अहंकार बाकी था।
“मैंने कभी किसी जानवर से हार नहीं मानी… किसी भूत से भी नहीं हारूँगा।”

उसने ज़मीन से टॉर्च उठाई और चारों ओर रोशनी फैलाई। लेकिन मंदिर की दीवारों पर जो परछाइयाँ नाच रही थीं, वे उसकी अपनी नहीं थीं। वे दर्जनों शिकारियों की थीं—सब अलग-अलग हथियार लिए हुए, सबकी आँखें लाल, सब उसे घेरते हुए।

वह डरकर पीछे हटा।
“नहीं… ये सब माया है।”

 

शिकार का खेल

अचानक उसकी बंदूक अपने-आप उठ गई। किसी अदृश्य ताक़त ने उसे पकड़ लिया था। बैरल अब उसकी ओर मुड़ चुका था।
“क्या…” वह चीखा, “ये कैसे हो रहा है?”

छाया की गुर्राहट गूँजी—
“शिकारी वही है जो दूसरों को निशाना बनाए। आज तुझे समझ आ गया होगा कि असली शिकारी कौन है।”

ट्रिगर खुद-ब-खुद दब गया। गोली उसके कान के पास से निकलकर दीवार से टकराई। रघुनाथ ज़मीन पर गिर पड़ा।

 

जंगल की गवाही

मंदिर से बाहर आते ही उसने देखा कि पूरा जंगल ज़िंदा लग रहा था। पेड़ों की जड़ें हिल रही थीं, शाखाएँ साँपों की तरह मुड़कर उसका रास्ता रोक रही थीं।

हर दिशा से आवाज़ें आ रही थीं—
“भागो मत… शिकार यहाँ खत्म नहीं होता।”
“तेरा नाम भी हमारी दीवार पर लिखा जाएगा…”

रघुनाथ काँप गया। उसने टॉर्च बंद की और अंधेरे में भागने लगा।

 

अतीत की झलक

भागते-भागते वह अचानक ठोकर खाकर गिर पड़ा। ज़मीन पर एक पुराना डायरी जैसा बंडल पड़ा था। उसने कांपते हाथों से खोला।
अंदर पीली पड़ चुकी कागज़ पर लिखे थे शब्द—

मैं भी कभी शिकारी था। मैंने सोचा था भूत जैसी कोई चीज़ नहीं होती। पर जब मैंने पहली बार लाल आँखें देखीं, तब समझा कि यह जंगल अपना हिसाब खुद लेता है। मैं अब बच नहीं पाऊँगा। जो भी ये पढ़े, सावधान रहना। तू अगला होगा।”

डायरी के नीचे नाम लिखा था—गणपत जोशी।
रघुनाथ की याददाश्त कौंधी—यह वही शिकारी था जो दशकों पहले रहस्यमय ढंग से गायब हो गया था।

 

अदृश्य पंजे

उसने डायरी गिराई और उठने की कोशिश की, तभी उसकी पीठ पर किसी ने नुकीले पंजों से वार किया। खून उसकी कमीज़ से बहने लगा।
वह चीख पड़ा।
मुड़कर देखा—वहाँ कुछ नहीं था। पर हवा में पंजों की गंध, खून और सड़ांध घुली हुई थी।

अब उसका अहंकार धीरे-धीरे डर में बदल रहा था।

 

भाग या सामना

रघुनाथ दोराहे पर खड़ा था—या तो जंगल से बाहर भागे, या इस भूत का सामना करे।
उसने खुद से कहा—“अगर भागा तो ये मेरी पीठ में वार करेगा। अगर लड़ा तो शायद बच जाऊँ।”

उसने खून से भीगी शर्ट फाड़ी, घाव दबाया और बंदूक फिर से हाथ में ली।

“आ जा! दिखा अपना असली रूप!” वह चिल्लाया।

 

शिकारी और शिकार

चारों ओर अंधेरा गहराया। लाल आँखें अब दर्जनों थीं। हर पेड़ के पीछे, हर झाड़ी के भीतर, हर धुंध में वे चमक रहीं थीं।
अचानक एक आँखें और तेज़ होकर उसके सामने प्रकट हुईं। उसी लंबी छाया ने फिर आकार लिया।

वह गरजती आवाज़ में बोली—
“तू खुद को शिकारी समझता था… अब तुझे भी समझ आ जाएगा कि शिकार कैसा लगता है।”

छाया ने पंजा उठाया और रघुनाथ पर झपटी।
वह ज़ोर से चिल्लाया और गोली चला दी।

 

अनिश्चित अंत

गोली सीधा छाया के चेहरे से आर-पार निकल गई। एक पल के लिए लाल आँखें बुझीं, और फिर पूरा जंगल गूंज उठा।
पेड़ हिलने लगे, ज़मीन काँपी, हवा में राख उड़ने लगी।

रघुनाथ समझ नहीं पा रहा था—क्या वह जीत रहा है, या सिर्फ़ और गहरे फँस गया है।

उसके कानों में अंतिम फुसफुसाहट गूंजी—
“अब तू भी हममें से एक है…”

 

भ्रम का जाल

रघुनाथ के कानों में गूंजती आख़िरी फुसफुसाहट—अब तू भी हममें से एक है…”—अभी तक उसके दिल को जकड़े हुए थी। वह मंदिर से बाहर निकल चुका था, लेकिन जंगल पहले जैसा नहीं था।

 

रास्तों का बदलना

जहाँ पहले साफ़ पगडंडी थी, अब वहाँ सिर्फ़ धुंध और उलझी झाड़ियाँ थीं। हर रास्ता एक जैसा लग रहा था, हर पेड़ दूसरे की तरह।
वह दाएँ मुड़ा, फिर बाएँ, फिर सीधा चला—लेकिन हर बार वह उसी जगह लौट आता जहाँ उसकी बंदूक की फायरिंग की गूँज अभी भी फंसी हुई थी।

उसने खुद से कहा—
“नहीं… यह जंगल मेरे दिमाग़ से खेल रहा है। यह सब बस धोखा है।”

लेकिन उसकी सांसें खुद उसकी बात को झुठला रही थीं।

 

हवा की चाल

हवा अचानक ठंडी हो गई। इतनी ठंडी कि उसकी साँसें भाप बनकर निकलने लगीं।
उसी हवा में धीमे स्वर उभरने लगे।
“शिकार… शिकार… शिकार…”
वह आवाज़ें दूर से आतीं और अचानक उसके कान के बिलकुल पास गूंज उठतीं।

उसने कान बंद कर लिए, लेकिन आवाज़ उसके भीतर, उसकी हड्डियों में बस गई थी।

 

भ्रम की परछाइयाँ

टॉर्च की रोशनी में अचानक उसे अपनी ही परछाई दिखी।
पर यह परछाई उसके हावभाव की नकल नहीं कर रही थी। वह अलग से हँस रही थी, हाथ हिला रही थी, और धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ रही थी।

रघुनाथ का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसने टॉर्च बंद कर दी।
लेकिन अंधेरे में भी वह परछाई मौजूद थी—और अब तो दर्जनों थीं। हर दिशा में, हर पेड़ के पीछे, उसकी अपनी ही शक्लें उसे घूर रहीं थीं।

 

भूले हुए शिकार

अचानक उसकी नज़र ज़मीन पर पड़ी। वहाँ कई खोपड़ियाँ पड़ी थीं—कुछ इंसानी, कुछ जानवरों की।
सबके दाँत बाहर निकले हुए, जैसे चीखते हुए मर गए हों।

और तभी उसे लगा कि वे खोपड़ियाँ हिल रही हैं। उनकी खोखली आँखों से धुआँ निकल रहा था और वह धुआँ धीरे-धीरे इंसानी चेहरों का आकार ले रहा था।

चेहरों में उसने गाँव के उन लोगों को पहचाना जो सालों पहले गायब हो चुके थे—हरिपंत, गणपत जोशी, और कई अन्य।
उन सबकी आँखें लाल थीं।

 

माँ की पुकार

“रघु बेटा… घर लौट आ…”
उसने फिर वही आवाज़ सुनी। यह उसकी माँ की थी।

वह पागलों की तरह उस दिशा में दौड़ा।
झाड़ियों को चीरकर जब वह आगे पहुँचा, तो देखा—उसकी माँ खड़ी थी, सफेद साड़ी में, मुस्कुराती हुई।
उसकी आँखों से आँसू निकल पड़े।
“आई! तुम यहाँ कैसे…?”

वह पास आया और माँ के हाथ पकड़ने ही वाला था कि अचानक टॉर्च की रोशनी उसके चेहरे पर पड़ी।
वह माँ नहीं थी—वह आधी जली हुई औरत थी, जिसकी आँखें खाली थीं और मुँह से कीड़े निकल रहे थे।

रघुनाथ चीखते हुए पीछे हट गया।

 

समय का फंदा

अब उसे लग रहा था कि रात कभी खत्म ही नहीं होगी।
उसने आसमान की ओर देखा। अमावस्या का काला आकाश वैसा ही था, लेकिन सितारे एकदम अलग लग रहे थे। कुछ तारामंडल ऐसे थे जिन्हें उसने पहले कभी नहीं देखा था।

उसके दिमाग़ में आया—
“क्या मैं किसी और समय में आ गया हूँ? या यह जंगल ही समय को बदल देता है?”

 

शिकारी का नया खेल

अचानक पेड़ों से खून टपकने लगा। पत्तों से लाल बूंदें गिरकर ज़मीन को भिगोने लगीं।
वह भागा, लेकिन जहाँ भी जाता, पेड़ वही खून टपकाते।

और तभी वह आवाज़ फिर आई—
“भाग कहाँ तक भागेगा? यह जंगल तेरे भीतर है।”

रघुनाथ ने महसूस किया कि उसका शरीर भारी हो रहा है, जैसे कोई उसे ज़मीन में खींच रहा हो।

 

आत्मा की झलक

वह घुटनों के बल गिर पड़ा। उसकी आँखों के सामने वही लाल आँखें फिर प्रकट हुईं।
पर इस बार उनमें सिर्फ़ भय नहीं था—बल्कि दर्प था।
छाया ने कहा—
“हर शिकारी यहाँ आता है, सोचता है कि वह जंगल को जीत लेगा।
पर अंत में जंगल उसे जीत लेता है। अब तू सोच—शिकार कौन है और शिकारी कौन।”

 

रघुनाथ का संकल्प

उसका दिल डूब रहा था, पर कहीं भीतर अब भी जिद बाकी थी।
“नहीं… अगर जंगल मुझे जीतना चाहता है, तो पहले उसे मेरा आख़िरी वार सहना होगा।”

उसने बंदूक उठाई, खून से लथपथ हाथों से कारतूस भरा और सीधा उन आँखों पर तान दी।

“आ… कर देख! मैं अब भी शिकारी हूँ!”

गोली चली और पूरा जंगल बिजली की तरह चमक उठा।

आख़िरी गोली

गोली के छूटते ही पूरा जंगल एक पल के लिए रोशनी से भर गया। जैसे आकाश में बिजली चमकी हो और पेड़ों की हर शाखा, हर पत्ता, हर जड़ अचानक साफ़ दिखने लगे। उस क्षणिक चमक में रघुनाथ ने देखा—सैकड़ों लाल आँखें उसे घेर रही थीं। कुछ ज़मीन पर, कुछ शाखाओं पर, कुछ हवा में तैरती हुईं।

गोली जिस ओर चली थी, वहाँ धुआँ उठ रहा था। लेकिन छाया गायब नहीं हुई, बल्कि और भी बड़ी हो गई। उसकी आकृति अब मानो पूरे जंगल पर हावी थी।

 

घाव और थकान

रघुनाथ की छाती धौंकनी की तरह चल रही थी। उसके कंधे और पीठ पर पड़े गहरे ज़ख़्म से खून लगातार बह रहा था। उसने शर्ट फाड़कर घाव दबाने की कोशिश की, लेकिन खून मिट्टी में बहता जा रहा था।

“नहीं… अभी नहीं हार सकता,” उसने खुद से कहा।

पर उसके पैर भारी हो चुके थे। बंदूक अब बोझ जैसी लग रही थी।

 

जंगल का रूप बदलना

उसके चारों ओर जंगल मानो रूप बदल रहा था। पेड़ों की शाखाएँ लहराकर पंजों में बदल गईं। ज़मीन से जड़ें निकलकर साँपों की तरह सरकने लगीं। धुंध गहरी होकर चेहरे बनाने लगी—गाँववालों के चेहरे, शिकारियों के चेहरे, सबकी आँखें लाल।

हर चेहरा एक ही वाक्य कह रहा था—
“तेरा समय आ गया है।”

 

आख़िरी सामना

रघुनाथ अब भागना छोड़ चुका था। वह जानता था कि अगर यह उसकी आख़िरी रात है, तो उसे मरते दम तक शिकारी बने रहना होगा।
उसने बंदूक कसकर पकड़ी और चिल्लाया—
“आ जा! एक गोली बची है। या तो तू गिरेगा, या मैं!”

अचानक धुंध चीरकर लाल आँखों वाली छाया सामने आई। उसका शरीर अब इंसानी नहीं रहा था—लंबे हाथ, पंजों जैसी उँगलियाँ, कंकाल-सा चेहरा और छाती में काले गड्ढे।

वह गर्जना करते हुए आगे बढ़ा।

 

गोली का वार

रघुनाथ ने ट्रिगर दबा दिया।
धाँय!

गोली सीधा छाया के माथे से होकर निकली। एक पल के लिए उसकी आँखें बुझ गईं। पूरे जंगल में सन्नाटा छा गया।

रघुनाथ ज़मीन पर गिर पड़ा, थकान और खून से बेहाल। उसने सोचा—
“शायद… जीत गया।”

 

अजीब सन्नाटा

लेकिन सन्नाटे में अचानक धीरे-धीरे ताली बजने की आवाज़ गूंजी।
“वाह… अच्छा शिकार किया।”

रघुनाथ ने नज़र उठाई। छाया फिर खड़ी थी, पर इस बार उसके साथ और भी आकृतियाँ थीं—हर शिकारी जिसने कभी इस जंगल को ललकारा था। सबकी आँखें लाल थीं, सब मुस्कुरा रहे थे।

उनमें से एक चेहरा रघुनाथ को पहचान में आया—गणपत जोशी।
उसने हँसते हुए कहा—
“अब तू हमारा साथी है।”

 

आत्मा का खिंचाव

रघुनाथ चीखने लगा। लेकिन उसके शरीर ने हरकत करना बंद कर दिया। उसे लगा जैसे उसका खून अब उसकी नसों में नहीं, बल्कि ज़मीन में बह रहा है।

उसके आसपास का जंगल चमकने लगा। पेड़, जड़ें, पत्ते सब धुंध में बदल गए। और उस धुंध में वह खुद को देख रहा था—दीवार पर बनी अपनी तस्वीर जैसा।

उसकी आत्मा धीरे-धीरे शरीर से अलग हो रही थी।

 

शिकारी से शिकार

छाया ने उसके कान में फुसफुसाया—
“हर शिकारी सोचता है कि वह जंगल को जीत लेगा। पर अंत में जंगल ही शिकारी है। तू भी अब इसी का हिस्सा है।”

रघुनाथ की आँखें खुली रह गईं। उसकी सांसें थम गईं। लेकिन दीवार पर उसका चित्र मुस्कुराने लगा।

अब वह शिकारी नहीं रहा। वह भी शिकार बन चुका था।

नया शिकारी

अमावस्या की रात बीत चुकी थी। गाँव में सुबह का उजाला फैल रहा था। लोग अपने खेतों की ओर निकलने लगे, और औरतें कुएँ पर पानी भरने। मगर चौपाल पर एक सन्नाटा पसरा था। हर कोई चिंतित था—क्योंकि रघुनाथ रात को जंगल गया था और अब तक लौटा नहीं था।

भाऊसाहेब ने गहरी साँस ली और कहा—
“मैंने पहले ही चेतावनी दी थी। सुपारीवान किसी को नहीं छोड़ता।”

 

खोज

कुछ गाँववाले हिम्मत जुटाकर जंगल की ओर निकले। सूरज की रोशनी पेड़ों के बीच मुश्किल से छनकर आ रही थी। पर जैसे-जैसे वे भीतर गए, हवा ठंडी और भारी होती चली गई।
पत्तों के बीच से अजीब-सी फुसफुसाहटें सुनाई देती थीं, जैसे कोई उन्हें वापस लौट जाने को कह रहा हो।

आख़िरकार, वे उस खंडहर मंदिर तक पहुँचे।

 

दीवार पर नया चित्र

मंदिर की दीवारों को देखकर सबके पैरों तले ज़मीन खिसक गई। वहाँ एक नया चित्र बना था—रघुनाथ का।
उसके हाथ में बंदूक थी, चेहरा डर और घबराहट से भरा हुआ, और पीछे वही लाल आँखों वाली छाया पंजे फैलाए खड़ी थी।

गाँववालों ने डरकर नज़रें फेर लीं।
एक औरत सिसकते हुए बोली—“हे भगवान, ये सच है…”

 

अधूरी लाश

दीवार के पास ही उन्हें रघुनाथ की बंदूक और फटी हुई कमीज़ मिली। ज़मीन पर खून के धब्बे थे, मगर शरीर कहीं नहीं था।
ऐसा लगा जैसे ज़मीन ने उसे निगल लिया हो।

भाऊसाहेब ने काँपती आवाज़ में कहा—
“अब रघु भी उनका हिस्सा बन गया। उसकी आत्मा भी इसी जंगल में फँस गई।”

 

जंगल की खामोशी

गाँववाले भागते हुए वापस लौट आए। उन्होंने तय कर लिया कि अब कोई भी उस जंगल का नाम नहीं लेगा। बच्चों को भी वहाँ जाने से सख़्ती से मना कर दिया गया।

लेकिन सच को कोई कितनी देर छिपा सकता है?

रात को गाँव में अक्सर किसी के कान में फुसफुसाहट सुनाई देती—
“मैं रघु हूँ… मैं लौट आया हूँ…”

 

नया शिकारी

अगली अमावस्या की रात, एक चरवाहा अपनी बकरियाँ खोजते-खोजते जंगल की ओर चला गया।
सुबह उसकी बकरियाँ लौट आईं, पर वह नहीं।

जब गाँववाले उसे ढूँढने गए, तो मंदिर की दीवार पर एक और चित्र उभर चुका था—चरवाहे का।

और चित्र के बगल में अब रघुनाथ का चेहरा मुस्कुरा रहा था। उसकी आँखें लाल चमक रही थीं।

 

आख़िरी फुसफुसाहट

कहते हैं, अब जो भी रात में सुपारीवान जंगल के पास जाता है, उसे झाड़ियों में लाल आँखें चमकती दिखती हैं।
कभी वह आँखें पीछा करती हैं, कभी कानों में फुसफुसाती हैं।

और कई लोगों ने कसम खाकर कहा है—
“हमने रघुनाथ को देखा है… अब वह इंसान नहीं, बल्कि जंगल का नया शिकारी बन चुका है।”

समाप्त

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