Hindi - फिक्शन कहानी

नवंबर की चाय

Spread the love

सुधांशु त्रिपाठी


भाग 1 – पहली ठंडी सुबह

नवंबर का महीना था। दिल्ली की सुबहें धीरे-धीरे धुंध के कपड़े ओढ़ने लगी थीं। पुरानी दिल्ली की सँकरी गलियाँ हों या नई दिल्ली की चौड़ी सड़कें, हर जगह ठंडी हवा का झोंका लोगों को अपनी ओढ़नी कसकर खींचने पर मजबूर कर देता। चौराहों पर, पार्क की बेंचों पर, यहाँ तक कि गली के नुक्कड़ों पर भी एक ही चीज़ की गंध तैर रही थी—उबलती हुई चाय की।

आदित्य अपने किराए के छोटे से कमरे की खिड़की से बाहर झाँक रहा था। खिड़की के शीशे पर धुंध जम गई थी। उसने उँगली से शीशे पर एक छोटा सा गोला बनाया और देखा—बाहर लोग ओढ़नी लपेटे जल्दी-जल्दी चल रहे थे, हाथों में कपड़े का थैला या अख़बार दबाए। कोई दूधवाला साइकिल पर निकल रहा था, तो कोई रिक्शेवाला अपने फेफड़ों से धुआँ छोड़ता हुआ अलसाई सुबह को जगाने की कोशिश कर रहा था।

आदित्य ने घड़ी देखी। सुबह के सात बज रहे थे। ऑफिस जाने से पहले उसने सोचा—“आज पार्क में चाय पी जाए।” चाय पीने का बहाना दरअसल उसका अकेलापन था।

कमरे में गैस पर चाय चढ़ाकर पीने की आदत उसके पास थी, लेकिन पार्क में जाकर मिट्टी की खुशबू के साथ चाय पीना, यह उसे कहीं भीतर से खींच लाता था। जैसे बचपन की सुबहें—जब गाँव में उसकी माँ ताँबे की केतली में चाय बनाती थीं और पूरे घर को उसकी भाप, अदरक-इलायची की महक जगाया करती थी।

वो बरामदे में बैठकर किताबें पढ़ता, और माँ की आवाज़ कान में गूँजती—“आदित्य, ज़रा चीनी तो डाल दे।” फिर माँ के हाथ की चाय पीते हुए लगता कि यह प्याला सिर्फ़ गरमी ही नहीं देता, बल्कि घर-आँगन की सुरक्षा भी देता है।

पर अब, इस बड़े शहर में, वही चाय उसके लिए अकेलेपन का साथी थी।

वह कमरे से निकलकर पास के पार्क की ओर चल पड़ा। हवा इतनी ठंडी थी कि उसकी साँस भी धुएँ की तरह दिखाई दे रही थी। पार्क में धुंध हल्की-हल्की बिछी हुई थी। बेंचें नमी से भीगी हुईं। किनारे एक चायवाला खड़ा था—छोटा-सा ठेला, जिस पर मिट्टी के कुल्हड़ और स्टील के गिलास रखे हुए थे। उबलते दूध से भाप उठ रही थी, और अदरक की खुशबू दूर तक पहुँच रही थी।

आदित्य ने एक कुल्हड़ चाय ली और पास की बेंच पर बैठ गया। कुल्हड़ की गर्मी हथेलियों तक पहुँची तो उसे कुछ राहत मिली। उसने धीरे-धीरे एक घूँट लिया। मिट्टी और चाय का स्वाद मिलकर कुछ ऐसा बना रहा था मानो वह गाँव के बरामदे में वापस चला गया हो।

उसने आँखें बंद कीं और सोचा—“क्या हर मौसम अपने साथ कोई अधूरी याद लेकर आता है? या हम ही हैं जो उन यादों से चिपके रहते हैं?”

तभी उसके पास वाली बेंच पर किसी ने बैठते ही बर्फ़ जैसी ठंडी हवा को तोड़ दिया। उसने आँखें खोलीं—एक लड़की बैठी थी। उसने शॉल कसकर लपेट रखी थी और हाथ में एक किताब थी। चायवाला उससे भी पूछ रहा था—“बेटी, चाय बनाऊँ?”

लड़की ने सिर हिलाकर हामी भरी और मुस्कराते हुए बोली—“हाँ, अदरक ज़्यादा डालना।”

आदित्य को अजीब-सा लगा। उसकी आवाज़ में वह ताजगी थी जो नवंबर की ठंडी हवा में भी किसी को रोक सकती थी। लड़की ने जब कुल्हड़ थामा, तो उसकी हथेलियों की हल्की काँप को आदित्य ने देखा—जैसे ठंड से नहीं, बल्कि किसी अनकही बेचैनी से काँप रही हो।

आदित्य चुपचाप अपनी चाय पीता रहा। पर निगाहें बार-बार उसी की ओर खिंच रही थीं। लड़की किताब के पन्ने पलट रही थी लेकिन बीच-बीच में चाय की चुस्कियाँ ले रही थी। अचानक उसकी नज़र आदित्य पर पड़ी। कुछ सेकंड के लिए दोनों की आँखें मिलीं। लड़की ने हल्की-सी मुस्कान दी और फिर किताब में नज़रें गड़ा लीं।

आदित्य ने मन ही मन सोचा—“अजनबी मुस्कानें भी कभी-कभी कितनी जानदार होती हैं।”

धीरे-धीरे पार्क में लोगों की भीड़ बढ़ने लगी। मॉर्निंग वॉक करने वाले, योग करने वाले, और ठंड से बचने के लिए शॉल लपेटे बुज़ुर्ग। पर आदित्य का ध्यान सिर्फ़ उस अजनबी लड़की पर था। उसने किताब बंद की, आख़िरी घूँट चाय पिया और उठ खड़ी हुई। जाते-जाते उसने एक बार फिर आदित्य की ओर देखा और हल्का-सा सिर हिलाया।

आदित्य ने भी अनजाने में मुस्करा दिया।

वो सुबह अलग थी। चाय का स्वाद उस दिन कुछ और गहरा हो गया था। धुंध, ठंड, और उस अजनबी की मुस्कान मिलकर उसके भीतर कोई नई कहानी बुन रहे थे।

आदित्य ने सोचा—“शायद यह नवंबर की सुबह मेरे लिए खाली नहीं जाएगी।”

भाग 2 – पार्क की बेंच

अगली सुबह आदित्य ने तय कर लिया था कि वह फिर उसी पार्क में जाएगा। पिछली सुबह की वह हल्की-सी मुस्कान उसके भीतर कहीं गहरी उतर गई थी। वह मुस्कान इतनी अनजानी और फिर भी इतनी अपनाई हुई लगी कि उसने खुद से कहा—“आज अगर वही लड़की फिर मिली, तो बात ज़रूर करूँगा।”

सर्द हवा पहले से कुछ और तेज़ थी। पेड़ों की शाखाओं पर ओस की बूंदें लटक रही थीं। पार्क में जाते ही आदित्य ने सबसे पहले उसी बेंच को देखा—वह खाली थी। वह धीमे-धीमे चलते हुए चायवाले के ठेले तक पहुँचा और बोला,
“भैया, वही अदरक वाली चाय देना।”

चाय वाला मुस्कराया, “कल भी आए थे आप। वही सीट पर बैठे थे। अच्छी लगती है यहाँ की चाय?”

आदित्य ने सिर हिलाया। जवाब में बस यही कहा, “हाँ, गाँव की याद दिला देती है।”

कुल्हड़ हाथ में आते ही वह बेंच पर जा बैठा। धुंध अब भी गहरी थी। उसने सोचा शायद आज वह लड़की न आए। तभी पीछे से चायवाले की आवाज़ सुनाई दी—
“बेटी, आज भी अदरक ज़्यादा डाल दूँ क्या?”

आदित्य का दिल एक पल को तेज़ धड़क उठा। उसने गर्दन मोड़कर देखा—वही लड़की। वही शॉल में लिपटी हुई, हाथ में किताब।

वह आकर पास वाली बेंच पर बैठ गई। कुल्हड़ हाथ में लेते ही उसने आदित्य की ओर देखा और मुस्कराते हुए कहा—
“आपको भी अदरक वाली चाय पसंद है?”

आदित्य एक पल के लिए ठिठक गया। फिर हँसते हुए बोला, “हाँ… बचपन से यही पीता आया हूँ। बिना अदरक की चाय अधूरी लगती है।”

लड़की ने कुल्हड़ से भाप उड़ते देखी और धीरे से बोली, “सही कहते हैं आप। मेरे पापा कहते थे कि अदरक वाली चाय सर्दी-जुकाम से बचाती है। पर मुझे तो बस इसकी खुशबू से ही सुकून मिलता है।”

आदित्य ने पहली बार उसकी आँखों में देखा। गहरी, सीधी और कहीं न कहीं अकेली। उसने पूछ लिया, “आप रोज़ यहाँ आती हैं?”

लड़की हल्का-सा मुस्कराई। “रोज़ तो नहीं… लेकिन नवंबर-दिसंबर में यहाँ बैठना अच्छा लगता है। ठंडी हवा, किताब, और गरम चाय—तीनों मिलकर दोस्ती कर लेते हैं।”

आदित्य ने सिर हिलाया। फिर थोड़ी झिझक के बाद बोला, “मैं आदित्य हूँ। पास ही रहता हूँ।”

लड़की ने अपना नाम बताया—“नेहा। यहीं करोलबाग की तरफ़ रहती हूँ।”

कुछ देर दोनों चुप रहे। चुप्पी भी अजीब थी—बिलकुल भारी नहीं। जैसे इस खामोशी में भी कोई बातचीत चल रही हो।

नेहा ने किताब का पन्ना पलटा और बोली, “आपको किताबें पसंद हैं?”

आदित्य मुस्कराया, “काफी… कॉलेज के दिनों से ही। पर अब ज़्यादातर पढ़ने से ज़्यादा लिखता हूँ। डायरी रखता हूँ।”

“वाह,” नेहा की आँखें चमक उठीं। “मैं भी लिखती थी कभी। कविताएँ। अब वक़्त ही नहीं मिलता।”

“क्यों? वक़्त किससे चुरा लिया?” आदित्य ने अनजाने में पूछ लिया।

नेहा ने एक गहरी साँस ली। कुछ कहना चाहकर भी रुक गई। फिर सिर झटककर बोली, “बस… ज़िंदगी ने। पर छोड़िए, ये बातें चाय के साथ भारी लगेंगी।”

आदित्य ने बात बदल दी, “तो आपकी फेवरिट किताब कौन-सी है?”

नेहा ने किताब के कवर पर हाथ फेरा, “गुलज़ार की कविताएँ। उनके शब्दों में भी चाय जैसा सुकून है—धीरे-धीरे गर्म करते हैं, भीतर तक उतर जाते हैं।”

दोनों हँस पड़े। और चाय की चुस्कियों के बीच, समय जैसे धीमा पड़ गया।

धीरे-धीरे पार्क खाली होने लगा। लोग अपनी-अपनी दिनचर्या की ओर लौट रहे थे। नेहा ने आख़िरी घूँट लिया और कुल्हड़ बेंच के पास रख दिया।

“ठीक है, अब चलना चाहिए,” उसने कहा। फिर अचानक रुककर बोली, “कल आएँगे?”

आदित्य ने बिना सोचे जवाब दिया, “हाँ… अगर आप भी आएँगी तो।”

नेहा हल्का-सा मुस्कराई और सिर हिलाकर निकल गई। धुंध में उसकी परछाईं धीरे-धीरे गायब हो गई।

आदित्य कुछ देर वहीं बैठा रहा। उसके हाथों में खाली कुल्हड़ था, लेकिन दिल में एक नई हलचल। उसने महसूस किया—नवंबर की सुबहें अब अकेली नहीं रहेंगी।

भाग 3 – चाय और किस्से

तीसरी सुबह की हवा कुछ और ठंडी थी। पार्क के किनारे नीम के पेड़ों पर हल्की धुंध लिपटी थी और ज़मीन पर ओस की बूंदें ऐसे जमी थीं जैसे किसी ने रात भर काँच बिछा दिया हो। आदित्य ने जैकेट के कॉलर को ऊपर खींचा और उसी बेंच की ओर बढ़ चला। उसके पैरों की आवाज़ भीगती घास पर हल्की-हल्की सरसराहट पैदा कर रही थी।

चायवाले का ठेला आज कुछ जल्दी सज गया था। भाप उठ रही थी, केतली खनक रही थी, और लौ की पीली लपटें ठंडी हवा से जैसे जूझ रही थीं। आदित्य ने मुस्कराकर कहा, “दो चाय बना दीजिए भैया, आज दो लोग हैं।”

चायवाला मुस्कराया, “लगता है दोस्ती हो गई साहब।”

आदित्य बस मुस्करा कर रह गया।

थोड़ी ही देर में नेहा आई। आज उसने हरे रंग की ऊनी शॉल ओढ़ रखी थी और बालों में ठंडी हवा उलझी हुई थी। वह आते ही बोली, “वाह! आज तो आप पहले पहुँच गए।”

“हाँ,” आदित्य ने कहा, “सुबह की ठंड ज़्यादा हो तो चाय भी ज़रूरी हो जाती है।”

दोनों बेंच पर बैठे, कुल्हड़ हाथ में लिए। कुछ देर तक वे बिना कुछ बोले बस चाय की भाप को देखते रहे। फिर नेहा बोली, “आपको पता है, मेरे बचपन की सबसे प्यारी याद चाय से जुड़ी है।”

आदित्य मुस्कराया, “बताइए, मैं तो हर कहानी सुनने को तैयार हूँ, अगर उसमें चाय हो।”

नेहा ने कुल्हड़ में झाँका, जैसे भाप में अपनी यादें ढूँढ रही हो। “हमारा घर देहरादून में था। सर्दियों में सुबह-सुबह पापा चाय बनाते थे। गैस नहीं, लकड़ी के चूल्हे पर। उस धुएँ की खुशबू और चाय की महक—दोनों मिलकर जैसे पूरा घर जगाती थी। मैं स्कूल की ड्रेस पहनकर बरामदे में बैठती, और पापा कहते, ‘नेहा, ज़िंदगी में दो चीज़ें हमेशा गरम रखो—चाय और उम्मीद।’”

आदित्य चुपचाप सुनता रहा। उसकी आँखों में हल्की नमी उतर आई।

“फिर?” उसने पूछा।

“फिर कुछ साल बाद पापा नहीं रहे। लेकिन उनकी वो बात अब तक याद है। जब भी चाय बनती है, ऐसा लगता है वो पास हैं।” नेहा की आवाज़ थोड़ी काँपी, पर वह मुस्कराई। “आप बताइए, आपकी कहानी?”

आदित्य ने गहरी साँस ली। “मेरी कहानी भी कुछ ऐसी ही है। मैं बिहार के छोटे से कस्बे से हूँ। माँ हर सुबह मिट्टी की हांडी में चाय बनाती थीं। जब बारिश होती थी, तो हम बरामदे में बैठकर चाय पीते, और बाहर पानी की बूँदें गिरने की आवाज़ सुनते। माँ कहती थीं, ‘अच्छी चाय वो होती है जो बातों को लंबा कर दे।’”

नेहा ने हँसते हुए कहा, “वाह, तो आपकी माँ तो फिलॉसफर लगती हैं।”

“हाँ,” आदित्य बोला, “और मैं उनकी बात मान भी लेता था। हर बार चाय पीते-पीते बातें इतनी लंबी हो जातीं कि सूरज ढल जाता था। अब जब शहर आया, तो वही चाय साथी बन गई।”

कुछ देर दोनों चुप रहे। पार्क में बच्चों की हँसी गूँज रही थी। पेड़ों की पत्तियों से गिरती ओस जैसे उनके बीच की चुप्पी को हल्का बना रही थी।

नेहा ने धीरे से पूछा, “आप अकेले रहते हैं?”

“हाँ,” आदित्य ने कहा, “दिल्ली में अकेले रहना आसान नहीं, पर शायद आदत हो गई है। आप?”

“मैं भी अकेली हूँ,” नेहा ने कहा, “रूममेट थी, पर अब नौकरी बदल गई है। इस शहर में लोग मिलते बहुत हैं, पर ठहरते कम।”

आदित्य ने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में कोई थकी हुई शांति थी—जैसे बहुत कुछ कहने को हो, पर शब्द अब भरोसेमंद नहीं रहे।

“शायद इसी लिए चाय पीने वाले लोग अलग होते हैं,” आदित्य ने कहा, “वो जानते हैं कि कुछ बातें चुप रहकर भी कही जा सकती हैं।”

नेहा हल्का-सा मुस्कराई, “तो हम दोनों चुप रहने वाले लोग हैं?”

“हाँ,” आदित्य हँस पड़ा, “और हमारी भाषा है—चाय।”

दोनों हँसने लगे। हवा में धुंध थोड़ी और पतली हो गई।

नेहा ने किताब निकाली, “आज गुलज़ार की ये कविता पढ़ी थी—
‘चाय की प्याली में डूबी कुछ बातें,
अब भी अधूरी हैं, पर महकती हैं।’”

आदित्य ने धीमे स्वर में कहा, “कभी सोचा नहीं था कि चाय इतनी खूबसूरत लग सकती है, जब कोई और साथ में हो।”

नेहा ने उसकी ओर देखा—लंबी नज़र, बिना शब्दों की। और उस एक पल में, नवंबर की ठंडी हवा में कुछ गरम होने लगा।

भाग 4 – धुंध में चेहरे

नवंबर अपनी असली ठंड में उतर आया था। सुबहें अब इतनी सफ़ेद धुंध से भर जातीं कि सामने खड़े इंसान का चेहरा धुँधला पड़ जाता। पर उस धुंध में भी आदित्य को हर सुबह कुछ साफ़ दिखने लगा था — एक चेहरा, एक मुस्कान, और एक कुल्हड़ में उठती भाप।

उस दिन भी वह हमेशा की तरह पार्क पहुँचा। पेड़ों से गिरती बूंदें बेंच को ठंडी कर चुकी थीं, पर आदित्य ने बिना परवाह किए वहीं बैठकर अपने नोटबुक का पन्ना खोला। उसने लिखा —

“कुछ चेहरे हवा में भी टिके रहते हैं,
जैसे धुंध में भी पहचान लिये जाते हैं।”

उसके लिखते ही एक परिचित आवाज़ सुनाई दी —
“कविता लिख रहे हैं क्या?”

आदित्य ने सिर उठाया — नेहा थी, नीले शॉल में, और बालों पर धुंध जमी हुई थी।

“हाँ, कुछ वैसा ही,” आदित्य मुस्कराया, “मौसम थोड़ा कवि बना देता है।”

नेहा बैठ गई। चायवाले को आवाज़ दी — “भैया, दो अदरक वाली चाय, ज़रा गरम।”

चाय आने तक दोनों खामोश बैठे रहे। पार्क में आज कम लोग थे। ठंड ने सबको रजाइयों में रोक रखा था। केवल कुछ पक्षियों की चहचहाहट और दूर किसी के रेडियो पर बजता पुराना गीत — कहीं दूर जब दिन ढल जाए…’ — वही आवाज़ें हवा में तैर रही थीं।

नेहा ने कुल्हड़ थामते हुए कहा, “आपकी लिखी लाइन अच्छी लगी। धुंध में चेहरे… सच कहूँ, कभी-कभी चेहरों की धुंध ही ज़रूरी होती है।”

“क्यों?” आदित्य ने पूछा।

“क्योंकि कुछ चेहरे साफ़ दिख जाएँ, तो मन डर जाता है,” उसने कहा, “हर इंसान के भीतर कुछ छिपा होता है। धुंध उस छिपे हिस्से को बचा लेती है।”

आदित्य ने उसकी ओर देखा — उसकी आँखें धुंधली थीं, लेकिन भीतर कोई कहानी थी जो अब तक अधूरी थी। उसने हल्के से कहा, “आपके भीतर भी कुछ है जो आप छिपा रही हैं।”

नेहा ने हँसने की कोशिश की, “आपको भी ना, लोगों को पढ़ने की आदत है। शायद इसलिए अकेले रहते हैं।”

“सही कहा,” आदित्य बोला, “लोगों को पढ़ने की आदत हो जाए, तो साथ निभाना मुश्किल हो जाता है।”

दोनों हँस पड़े, मगर उस हँसी में कहीं एक हल्की उदासी तैर गई।

धीरे-धीरे बातें आगे बढ़ीं। नेहा ने बताया कि वह एक प्रकाशन में काम करती है — किताबों का संपादन, कविताओं की प्रूफरीडिंग, और कभी-कभी अपने शब्दों से दूसरों की भावनाएँ ठीक करना।
“लोग सोचते हैं कि किताबों के बीच रहना आसान है,” वह बोली, “पर असल में सबसे मुश्किल वही है। क्योंकि हर किताब किसी अधूरी कहानी की गवाही होती है। और जब रोज़ अधूरी कहानियाँ पढ़ो, तो अपनी अधूरी बातें और भी भारी लगने लगती हैं।”

आदित्य ने उसकी बात ध्यान से सुनी। “शायद इसलिए तुम्हें चाय पसंद है,” उसने कहा, “क्योंकि वह अधूरेपन को पूरा नहीं करती, बस गर्म रखती है।”

नेहा मुस्कराई, “वाह, यह तो किसी लेखक की लाइन लगती है।”

“हो सकता है,” आदित्य हँसा, “पर तुम्हारे लिए लिखी है।”

नेहा ने नज़रें झुका लीं। कुल्हड़ से भाप उठ रही थी और उसके चेहरे को घेर रही थी। धुंध, चाय की गर्मी, और वो हल्की मुस्कान — सब मिलकर उस पल को किसी कविता की तरह बना रहे थे।

कुछ देर बाद नेहा बोली, “आप अपनी डायरी में क्या लिखते हैं?”

“जो नहीं कह पाता,” आदित्य ने जवाब दिया, “हर दिन एक पन्ना भरता हूँ, कभी मौसम के नाम, कभी किसी चेहरे के।”

“क्या मैं कभी पढ़ सकती हूँ?”

आदित्य कुछ पल चुप रहा। फिर बोला, “कभी। जब तुम्हारी आँखों की धुंध थोड़ी कम हो जाएगी।”

नेहा ने हल्का-सा सिर झुकाया, “ठीक है, सौदा पक्का। लेकिन एक शर्त पर—तुम मुझे अपनी लिखी चीज़ सुनाओगे, और मैं तुम्हें अपनी पसंद की कविता पढ़ूँगी।”

“डील,” आदित्य मुस्कराया।

धुंध अब कुछ छँटने लगी थी। दूर से सूरज की हल्की नारंगी रोशनी झाँक रही थी। नेहा उठी, हाथ में किताब ली और जाने लगी। फिर मुड़कर बोली,
“कल मिलते हैं… वही समय, वही बेंच।”

आदित्य ने सिर हिलाया, “वही चाय।”

वह हँस दी — और धुंध के बीच उसका चेहरा धीरे-धीरे गायब हो गया।

आदित्य की आँखें देर तक उसी दिशा में टिकी रहीं। उसे लगा, हर सुबह अब किसी और धुंध से शुरू होगी — वो धुंध जो चेहरों को नहीं, भावनाओं को छिपाए रखती है।

भाग 5 – नवंबर की बारिश

उस सुबह आसमान कुछ भारी था। हवा में ठंड के साथ एक हल्की नमी थी, जैसे बादल ज़मीन तक उतर आए हों। आदित्य खिड़की के पास खड़ा था, और बाहर देख रहा था—सड़क पर झुके हुए पेड़, बिजली के तारों से लटकती ओस, और लोग जो जल्दी-जल्दी भाग रहे थे, इससे पहले कि बारिश शुरू हो जाए।

उसे अंदाज़ा था—आज बारिश होगी। और उसे यह भी पता था कि नेहा आएगी या नहीं, यह मौसम तय करेगा। पर फिर भी, उसने जैकेट पहनी, नोटबुक उठाई, और निकल पड़ा।

पार्क तक पहुँचते-पहुँचते आसमान ने पहली बूँदें गिरा दीं। शुरुआत में हल्की फुहार, फिर धीरे-धीरे तेज़ धार। लोग दौड़कर छाँव में चले गए, पर आदित्य वहीँ बेंच पर खड़ा मुस्करा रहा था—मानो उसे यही मौसम चाहिए था।

चायवाले ने जल्दी से प्लास्टिक का शेड खींचा और बोला, “साहब, आज तो बेंच भीगी है, वहाँ मत बैठिए।”

“कोई बात नहीं,” आदित्य ने कहा, “आज खड़े होकर चाय पीते हैं।”

उसी वक्त पीछे से एक आवाज़ आई—“तो फिर दो चाय बना दीजिए, भैया।”

आदित्य ने पलटकर देखा—नेहा।
बाल भीगे हुए, शॉल गीली, पर चेहरे पर वही चमक।

“आप तो आईं,” आदित्य ने कहा, “मुझे लगा बारिश आपको रोक लेगी।”

नेहा हँस पड़ी। “बारिश मुझे नहीं रोकती। बस चाय ज़रूर रुकवा देती है।”

दोनों शेड के नीचे खड़े हो गए। बारिश अब ज़ोरों से हो रही थी। मिट्टी की गंध, गीले पत्तों की खुशबू, और अदरक वाली चाय की भाप—तीनों मिलकर हवा को एक नए स्वाद से भर रहे थे।

“आपको बारिश पसंद है?” आदित्य ने पूछा।

“बहुत,” नेहा बोली, “मुझे बारिश में अपने लिए वक़्त मिल जाता है। जैसे कोई पुरानी याद धोकर नई बना दी हो।”

“और मुझे बारिश इसलिए पसंद है,” आदित्य ने कहा, “क्योंकि इसमें हर चीज़ की आवाज़ थोड़ी साफ़ सुनाई देती है। गिरती बूँदें, फिसलती मिट्टी, और किसी के मन की बातें भी।”

नेहा मुस्कराई, “आपके अंदर तो पूरा कवि बैठा है।”

“कवि नहीं,” आदित्य ने हँसकर कहा, “बस कोई है जो ठंडी सुबहों से बातें करता है।”

बारिश थोड़ी कम हुई तो दोनों पार्क की पगडंडी पर टहलने लगे। ज़मीन पर पानी जमा था, पर धुंध के बीच पेड़ों से छनती हल्की रोशनी पूरे पार्क को किसी पुराने सपने जैसा बना रही थी।

नेहा चलते-चलते बोली, “पता है, बचपन में जब बारिश होती थी, तो मैं खिड़की पर बैठकर देखती रहती थी। माँ डरती थीं कि सर्दी न लग जाए, लेकिन मैं छुपकर बाहर निकल जाती। मिट्टी में पैर डालना, भीगना—सब कुछ इतना सच्चा लगता था। अब ऐसा करने की हिम्मत नहीं होती।”

“क्यों?” आदित्य ने पूछा।

“शायद बड़े हो गए हैं,” नेहा बोली, “अब हर चीज़ में डर जुड़ जाता है—बीमार पड़ने का, गीले होने का, या किसी के सामने खुल जाने का।”

आदित्य ने उसकी ओर देखा। “पर आज तो बारिश में तुम भीगी हो। लगता है डर थोड़ा कम हुआ है।”

नेहा ने उसकी आँखों में देखा और मुस्कराई, “शायद आप जैसी संगत में डर भाग जाता है।”

वो पल कुछ देर के लिए थम गया। दोनों चुप हो गए। बस बारिश की बूंदें उनकी जैकेट और शॉल पर गिरती रहीं।

आदित्य ने अपनी नोटबुक खोली और कुछ लिखा। नेहा झाँककर देखने लगी।

“हर ठंडी सुबह में,
कोई चेहरा भाप बनकर उभरता है,
और फिर बारिश में मिट जाता है—
पर उसकी खुशबू नहीं जाती।”

नेहा ने धीरे से कहा, “आप यह मेरे लिए लिख रहे थे?”

“शायद,” आदित्य बोला, “या शायद खुद को समझाने के लिए।”

नेहा ने अपनी हथेली आगे बढ़ाई, बारिश की कुछ बूंदें पकड़ीं, और बोली, “तो फिर ये भी रख लीजिए—कविता की स्याही।”

दोनों हँस पड़े।

कुछ देर बाद बारिश थम गई। हवा में ठंड बढ़ गई थी, पर उनके बीच की दूरी जैसे कम हो गई थी। नेहा ने धीरे से कहा, “जानते हैं, यह शहर मुझे हमेशा पराया लगा। पर आज पहली बार लगा कि यहाँ कोई जगह मेरी भी है।”

आदित्य ने मुस्कराकर जवाब दिया, “शायद वो जगह इस पार्क की बेंच है।”

नेहा ने सिर झुकाया, “या फिर किसी की नोटबुक का एक पन्ना।”

धुंध फिर से उतर आई थी। सूरज दिखा नहीं, पर आसमान में एक हल्की उजली परत थी—उम्मीद की।

नेहा जाने के लिए मुड़ी, पर फिर ठहर गई।
“कल अगर बारिश नहीं हुई,” उसने कहा, “तो चलिए, पुरानी दिल्ली चलते हैं। वहाँ की गली में सबसे अच्छी चाय मिलती है।”

आदित्य ने जवाब दिया, “और सबसे सुंदर यादें भी।”

नेहा हँसी और धीरे-धीरे बारिश से भीगी राह पर चल पड़ी।
आदित्य ने नोटबुक बंद की, और सोचा—
“कभी-कभी चाय किसी रिश्ता नहीं बनाती, बस मौसम को थोड़ा लंबा कर देती है।”

भाग 6 – बीते हुए रिश्ते

अगले दिन आसमान साफ़ था। बारिश के बाद की वह सुबह दिल्ली को एक नया चेहरा दे गई थी—पेड़ों की पत्तियाँ धुल चुकी थीं, हवा में ठंड के साथ एक मीठी नमी थी। पार्क की घास पर ओस चमक रही थी जैसे किसी ने चाँदी बिछा दी हो।

आदित्य हमेशा की तरह बेंच पर पहले पहुँचा। आज उसने अपनी नोटबुक नहीं निकाली। बस दोनों के लिए दो कुल्हड़ चाय मँगाई और सूरज की किरणों को धीरे-धीरे फैलते देखा।

कुछ देर बाद नेहा आई—उसके बाल खुले थे, और नीली ऊनी शॉल के नीचे गुलाबी स्वेटर झाँक रहा था। चेहरे पर मुस्कान थी, लेकिन आँखों में कहीं एक छिपी थकान भी।

“आज धूप निकल आई,” आदित्य ने कहा, “लगता है नवंबर को भी कभी-कभी राहत चाहिए।”

नेहा मुस्कराई, “और हमें भी। बारिश के बाद धूप का एहसास हमेशा किसी पुराने ज़ख्म पर मरहम जैसा लगता है।”

दोनों ने चाय ली। कुछ देर तक खामोशी रही। हवा में सिर्फ़ कुल्हड़ से उठती भाप थी और दूर बच्चों की हँसी। फिर आदित्य ने धीरे से पूछा, “नेहा, तुम्हारी आँखों में आज कुछ भारी है… सब ठीक?”

नेहा ने एक गहरी साँस ली। “कभी-कभी धूप भी बहुत कुछ उजागर कर देती है, आदित्य। जो हम छिपाना चाहते हैं, वो और साफ़ दिखने लगता है।”

“अगर तुम कहना चाहो,” आदित्य ने कहा, “तो सुन सकता हूँ। बिना किसी सवाल के।”

नेहा ने कुल्हड़ को दोनों हाथों में थाम लिया। “जानते हो, जब मैं देहरादून से दिल्ली आई थी, तो सोचती थी—यह शहर मुझे पहचान देगा। पर हुआ उल्टा। मैं खुद को ही खो बैठी। एक रिश्ते में थी… करीब पाँच साल। सोचा था, वही मेरा ठिकाना है। पर कभी-कभी ठिकाने भी थक जाते हैं।”

आदित्य चुपचाप सुनता रहा। हवा थोड़ी ठंडी हो चली थी।

“वो रिश्ता बहुत खूबसूरत था, शुरुआत में,” नेहा आगे बोली, “चाय की तरह—गरम, महकदार। लेकिन वक्त के साथ फीका पड़ गया। उसने कहा, मैं बहुत भावनात्मक हूँ, बहुत सोचती हूँ। शायद वो सही था। लेकिन जब उसने किसी और को चुना, तब मुझे लगा, शायद मैं ही गलत हूँ।”

उसकी आवाज़ काँप गई। “तबसे चाय का कप अकेला हो गया। कभी-कभी मैं खुद से पूछती हूँ—क्या प्यार सच में खत्म हो सकता है, या बस बदल जाता है?”

आदित्य ने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों के कोनों में धूप की परछाईं थी, और भीतर कहीं भरी हुई नमी।

“प्यार खत्म नहीं होता,” आदित्य ने धीरे से कहा, “बस एक रूप से दूसरे रूप में चला जाता है। जैसे चाय ठंडी हो जाए तो भी उसमें खुशबू रहती है। हम उसे गरम नहीं कर सकते, पर याद तो रख सकते हैं।”

नेहा ने हल्की मुस्कान दी, “आप हमेशा शब्दों में सुकून ढूँढ लेते हैं।”

“क्योंकि शब्दों में दर्द छिपाना आसान होता है,” आदित्य ने जवाब दिया। “मैं भी किसी वक्त किसी के बहुत करीब था। सोचा था, लिखने से सब बच जाएगा—रिश्ता, भरोसा, इंसान। पर लेखनी सब नहीं बचा सकती। उसने एक दिन कहा, ‘तुम बहुत चुप हो, तुम्हारे पास देने को बस शब्द हैं।’ और चली गई।”

नेहा ने धीरे से पूछा, “फिर?”

“फिर मैंने बोलना छोड़ दिया,” आदित्य हँसा, “और चाय पीना बढ़ा दिया।”

दोनों मुस्करा पड़े। पर हँसी के नीचे एक साझा दर्द था—वो जो दो अलग कहानियों को एक धड़कन में बाँध देता है।

“शायद इसी लिए हम दोनों को चाय इतनी पसंद है,” नेहा बोली, “क्योंकि इसमें वही गर्मी है जो रिश्तों में कभी थी।”

आदित्य ने सिर हिलाया, “और वही मिठास जो अब यादों में रह गई है।”

कुछ देर तक दोनों खामोश बैठे रहे। हवा में ठंड और भी गहराने लगी थी, पर उनके बीच का मौन अब बोझ नहीं था। वह ऐसा मौन था जिसमें दो लोग अपनी बीती टूटनों को धीरे-धीरे जोड़ रहे थे।

नेहा ने अपनी हथेलियाँ कुल्हड़ पर रखीं और धीरे से कहा, “आपको पता है, जब मैं किसी को याद करती हूँ, तो चाय ज़रूर बनाती हूँ। जैसे उसमें कोई जवाब मिल जाएगा।”

“और क्या मिला कभी?” आदित्य ने पूछा।

“नहीं,” वह मुस्कराई, “लेकिन ये भी समझ आया कि कुछ जवाबों का न मिलना ही ज़रूरी है।”

सूरज अब पेड़ों की शाखाओं के बीच से झाँक रहा था। धूप उसके बालों में फँस गई थी, और हवा में उसका चेहरा जैसे किसी कविता की आख़िरी पंक्ति बन गया था।

आदित्य ने धीमे स्वर में कहा, “नेहा, अगर किसी दिन ये पार्क, ये चाय और ये धूप सब न रहें—तो क्या हम फिर भी बात करेंगे?”

नेहा ने उसकी ओर देखा—लंबी, सधी नज़र से। “अगर सच्ची बात हो, तो जगहें बदलने से कुछ नहीं होता।”

आदित्य ने मुस्कराकर कहा, “तो फिर मैं वादा करता हूँ, जब भी नवंबर आएगा, मैं किसी पार्क में बैठकर चाय ज़रूर पीऊँगा। तुम्हारी याद के नाम।”

नेहा ने हल्के स्वर में कहा, “और मैं भी, किसी गली के नुक्कड़ पर बैठकर सोचूँगी—कहीं कोई होगा जो अब भी नवंबर से बात करता है।”

धीरे-धीरे दोनों उठे। चाय खत्म हो चुकी थी, पर भाप अब भी हवा में थी।

उस दिन जब नेहा चली गई, आदित्य देर तक बेंच पर बैठा रहा। उसने अपनी नोटबुक में बस दो लाइनें लिखीं—

“कुछ रिश्ते चाय की तरह होते हैं,
खत्म होकर भी कप की खुशबू छोड़ जाते हैं।”

भाग 7 – गलियों की चाय

पुरानी दिल्ली की सर्द सुबह में एक अलग ही चहल-पहल होती है। चाँदनी चौक की गलियाँ धुंध से घिरी रहतीं, और हर नुक्कड़ पर उबलती केतलियों से उठती भाप सर्दी के बीच जैसे किसी कहानी का आरंभ करती। उसी सुबह नेहा और आदित्य वहाँ पहुँचे।

नेहा ने कहा था, “आपको असली चाय पीनी है तो यही जगह है।”
आदित्य मुस्कराया, “तो आज की सुबह तुम्हारे नाम और पुरानी दिल्ली के स्वाद के नाम।”

वे दोनों चल रहे थे—गलियों में, जहाँ पुराने मकानों की दीवारों से इतिहास झाँक रहा था। दुकानों के शटर आधे खुले, मसालों की खुशबू हवा में, और साइकिलों की घंटियाँ किसी पुराने गीत की धुन सी लग रही थीं।

नेहा ने एक छोटी दुकान की ओर इशारा किया, “यही है—‘शर्मा टी कॉर्नर’। यहाँ की चाय सिर्फ चाय नहीं, याद है।”

वह दुकान सचमुच छोटी थी—सिर्फ़ तीन स्टूल, एक पुराना तख्ता, और दीवारों पर चाय के दाग़ों का इतिहास। पर भीतर से जो महक आ रही थी, उसने आदित्य को तुरंत बाँध लिया।

चायवाला बोला, “भैया, स्पेशल कटिंग?”
नेहा ने कहा, “दो दे दो, अदरक और तुलसी के साथ।”

दोनों ने चाय ली और पास की गली में एक पुराना पत्थर का चबूतरा ढूँढ लिया। वहाँ बैठकर उन्होंने पहली चुस्की ली। चाय इतनी गरम थी कि उंगलियों से भाप उठ रही थी।

आदित्य ने कहा, “यह जगह तो किसी कविता जैसी है—थोड़ी पुरानी, थोड़ी सच्ची।”
नेहा हँसी, “यहाँ की दीवारें भी कहानियाँ सुनती हैं। जब मैं नई-नई दिल्ली आई थी, तो यही गली मेरी सबसे बड़ी दोस्त थी। हर रविवार मैं यहाँ आती थी, अकेली, एक कप चाय लेकर। तब लगता था, ये भीड़ मुझे निगल लेगी, लेकिन आज…”

वह रुकी।

“आज?” आदित्य ने पूछा।

“आज वही भीड़ अपनेपन जैसी लग रही है,” नेहा बोली, “शायद इसलिए क्योंकि कोई साथ है जो सुन रहा है।”

आदित्य ने मुस्कराकर कहा, “शायद क्योंकि किसी की चुप्पी अब अकेली नहीं है।”

दोनों कुछ देर बिना बोले बैठे रहे। सड़क पर बच्चों का झुंड भागता हुआ गया। कोई हँस रहा था, कोई चायवाले से नमकीन माँग रहा था। एक बुज़ुर्ग शख़्स पुराने रेडियो से लता मंगेशकर का गीत चला रहा था—
अजीब दास्ताँ है ये, कहाँ शुरू कहाँ ख़त्म…”

नेहा ने गुनगुनाते हुए कहा, “कभी-कभी लगता है, हमारी कहानी भी वैसी ही है—कहाँ शुरू हुई, पता नहीं।”
आदित्य ने हँसते हुए कहा, “और शायद कहाँ खत्म होगी, वो भी न पता। लेकिन फिलहाल… इसका एक स्वाद है—चाय जैसा।”

चाय खत्म होने लगी थी, लेकिन बातचीत नहीं। नेहा ने अचानक कहा, “आपको पता है, मुझे गलियाँ इसलिए पसंद हैं क्योंकि इनमें रास्ते खोने का डर नहीं होता। हर मोड़ कुछ नया दे देता है।”

“जैसे जिंदगी,” आदित्य ने कहा, “जिसमें हम हर मोड़ पर किसी को ढूँढते हैं, और कभी-कभी खुद को पा लेते हैं।”

नेहा ने उसकी ओर देखा। “आप खुद को पा चुके हैं?”

“शायद नहीं,” आदित्य बोला, “लेकिन आज लगता है कि तलाश गलत नहीं थी।”

नेहा मुस्कराई। “कभी-कभी कोई साथ मिल जाए तो तलाश भी मंज़िल लगती है।”

पास की दुकान से किसी ने पुकारा—“भैया, दो समोसे और दो चाय और!”
नेहा उठी, “चलो, एक और कप। पुरानी दिल्ली में एक चाय कभी काफी नहीं होती।”

दोनों फिर दुकान पर लौटे। चायवाले ने कहा, “आप लोग पहली बार आए हैं? कपल डिस्काउंट लगेगा!”
नेहा हँस पड़ी, “कपल नहीं हैं, बस… चाय के शौक़ीन हैं।”
आदित्य ने मुस्कराकर कहा, “लेकिन डिस्काउंट अच्छा लगेगा।”

दोनों हँसे। और वह हँसी जैसे गलियों में गूंज गई।

दूसरा कप चाय दोनों ने धीमे-धीमे पिया। आदित्य ने नोटबुक निकाली। “आज कुछ लिख रहा हूँ,” उसने कहा।

“पुरानी गलियों में,
चाय की भाप में छिपी आवाज़ें,
कहती हैं —
कुछ रिश्ते न नए हैं, न पुराने,
बस सही समय पर मिल जाते हैं।”

नेहा ने धीरे से कहा, “यह तुमने मेरे लिए लिखा?”
आदित्य ने उसकी ओर देखा, “शायद… या उस एहसास के लिए जो तुम्हारे आने के बाद से हर चाय में उतर आता है।”

नेहा ने सिर झुकाया। हवा के झोंके से उसके बाल चेहरे पर आए। उसने उन्हें पीछे किया और बोली, “कभी सोचा नहीं था कि एक पार्क की बेंच से शुरू हुई बात मुझे इतनी दूर खींच लाएगी।”

“और अब?” आदित्य ने पूछा।

“अब लगता है, ये गलियाँ भी हमारी कहानी का हिस्सा हैं,” उसने कहा, “यहाँ की हर चाय हमें याद रखेगी।”

सूरज धीरे-धीरे ढलने लगा था। गली की दीवारें सुनहरी हो उठीं। दोनों चुपचाप चलते रहे—एक साथ, पर बिना किसी जल्दबाज़ी के। जैसे वे जान गए हों कि कुछ सफ़र बस चलने के लिए होते हैं, पहुँचने के लिए नहीं।

भाग 8 – सर्दियों की रात

दिसंबर की आहट नवंबर की साँसों में उतर चुकी थी। हवा अब और ठंडी हो चली थी—वो ठंड जो सिर्फ़ शरीर नहीं, ख्यालों को भी जमा देती है। दिल्ली की सड़कों पर पीली रोशनी के नीचे धुंध तैर रही थी। लोगों के कंधों पर ऊनी मफलर, दुकानों पर सजी झालरें, और हर नुक्कड़ पर उबलती चाय की आवाज़ें—शहर अपने सर्द रूप में था।

उस शाम आदित्य ऑफिस से थोड़ा जल्दी निकल आया। उसने अपनी नोटबुक और एक पुरानी जैकेट साथ ली। फोन पर नेहा का छोटा-सा संदेश आया था—

“आज रात थोड़ी ठंडी है। एक कप चाय?”

आदित्य मुस्कराया। यही वो पाँच शब्द थे जो पूरे दिन की थकान मिटा देते थे।

वह पहुँचा, तो पार्क लगभग सुनसान था। हवा में धुंध के साथ रात का नमी भरा सन्नाटा था। चायवाले ने पहचानकर कहा, “साहब, आज देर से आए!”

“कभी-कभी वक्त को भी इंतज़ार करवाना चाहिए,” आदित्य ने जवाब दिया।

बेंच पर पहुँचते ही उसने देखा—नेहा पहले से वहाँ थी। उसकी गोद में वही किताब थी, पर आज वो पढ़ नहीं रही थी। बस चाँदनी और पीली लाइट के बीच कुछ सोच रही थी।

“लगता है आज किताब को भी ठंड लग रही है,” आदित्य ने कहा।

नेहा ने सिर उठाया, मुस्कराई, “हाँ, और उसे अब कहानी सुनाने वाले की ज़रूरत है।”

चाय आ गई। दोनों के हाथों में कुल्हड़, और उनके बीच वही अदरक की भाप जो अब किसी रिश्ते की तरह लगने लगी थी—बिना नाम, बिना परिभाषा, पर गहरी।

कुछ देर तक दोनों चुप रहे। सिर्फ़ सर्द हवा और दूर किसी मंदिर की घंटी बजने की आवाज़। फिर नेहा बोली, “कभी-कभी सोचती हूँ, अगर हम इसी बेंच पर हर शाम बैठते रहें, तो शायद ज़िंदगी आसान हो जाएगी।”

आदित्य ने कहा, “शायद आसान नहीं, लेकिन सच्ची ज़रूर हो जाएगी। यहाँ बातें झूठ नहीं बोलतीं।”

नेहा ने कुल्हड़ से एक चुस्की ली। “आपको पता है,” उसने कहा, “कभी-कभी मुझे लगता है कि हम दोनों वक्त के दो किनारे हैं। बीच में चाय की ये भाप ही पुल है।”

आदित्य ने उसकी ओर देखा। “और अगर ये भाप एक दिन उड़ जाए?”

नेहा ने मुस्कराकर कहा, “तो शायद हवा में मिल जाएगी—जैसे यादें मिलती हैं।”

हवा और ठंडी हो गई थी। उसने शॉल कस ली। आदित्य ने धीरे से कहा, “अगर ठंड ज़्यादा हो रही हो तो ये जैकेट ले लो।”

“नहीं,” नेहा ने सिर हिलाया, “आप पहनिए। मैं ठंड से नहीं डरती।”

“झूठ,” आदित्य हँस पड़ा, “हर कोई किसी न किसी ठंड से डरता है—चाहे मौसम की हो या दिल की।”

नेहा ने उसकी आँखों में देखा। “और आप? किस ठंड से डरते हैं?”

आदित्य ने कुछ पल सोचा, फिर बोला, “उस ठंड से जिसमें कोई आवाज़ नहीं होती। जहाँ सामने कोई हो, पर बात अधूरी रह जाए।”

नेहा चुप रही। उसने कुल्हड़ नीचे रखा और धीरे से कहा, “शायद इसलिए मैं भी हर दिन यहाँ आती हूँ। ताकि कोई बात अधूरी न रहे।”

“फिर एक बात कह दूँ?” आदित्य ने पूछा।

“कहो।”

“तुमसे मिलना किसी कविता के उस हिस्से जैसा है जिसे मैं सालों से लिख नहीं पाया था।”

नेहा ने पलटकर कहा, “और तुम्हें सुनना ऐसा है जैसे पुरानी कविता में नया अर्थ मिल गया हो।”

कुछ देर दोनों के बीच बस सांसों की भाप थी। पार्क के चारों ओर धुंध गहरी हो गई थी, पर उनके बीच कुछ साफ़ होता जा रहा था—जैसे हवा में एक गर्माहट जो नाम नहीं माँगती, बस मौजूद रहती है।

नेहा ने आसमान की ओर देखा। “देखो, चाँद धुंध के पीछे छिपा है।”

“हाँ,” आदित्य बोला, “कभी-कभी रोशनी को भी थोड़ा छिप जाना चाहिए, ताकि हम महसूस कर सकें कि अंधेरा कितना जरूरी है।”

“तुम हमेशा ऐसे बोलते हो जैसे हर बात में एक अर्थ छिपा हो,” नेहा ने कहा।

“और तुम हमेशा ऐसे सुनती हो जैसे हर बात एक एहसास बन जाए।”

नेहा ने उसकी ओर देखा—लंबी, नर्म नज़र से। कुछ कहना चाहा, पर शब्द नहीं मिले। बस हाथों में ठंड बढ़ने लगी। उसने कुल्हड़ को फिर से थामा, और कहा, “जानते हो, मुझे लगता है नवंबर अब मेरा पसंदीदा महीना बन गया है।”

“क्यों?”

“क्योंकि इसने मुझे वो सर्दी दी, जिसमें मैं पहली बार किसी के साथ गर्म महसूस कर रही हूँ।”

आदित्य के होंठों पर मुस्कान आ गई। उसने अपनी नोटबुक खोली और लिखा—

“सर्दियों की रातें भी
अपने भीतर सूरज छुपाए रहती हैं,
बस किसी मुस्कान के आने का इंतज़ार करती हैं।”

नेहा ने हल्के स्वर में कहा, “कभी मैं भी इसमें एक पंक्ति जोड़ दूँगी।”

“क्या?”

“कि कुछ लोग सर्दियों में नहीं,
किसी की आँखों में गरमाहट ढूँढ लेते हैं।”

दोनों हँस पड़े।

रात गहराने लगी थी। नेहा उठी। “चलो, देर हो रही है।”

“हाँ,” आदित्य ने कहा, “पर यह रात यहीं खत्म नहीं होनी चाहिए।”

नेहा ने धीरे से कहा, “नहीं होगी। जब तक चाय की खुशबू रहती है, कहानी चलती रहती है।”

वह चली गई। और आदित्य ने देखा—उसकी परछाई धुंध में घुल गई, पर हवा में उसकी हँसी रह गई थी।

भाग 9 – अनकहा इज़हार

उस सुबह धूप कुछ फीकी थी, पर हवा में अजीब सी मिठास थी। पार्क की बेंचें ठंड से भीगी हुई थीं और पेड़ों की शाखाओं से गिरी पत्तियाँ रास्ते पर सुनहरी चादर बिछाए थीं। आदित्य ने जैसे ही पार्क में कदम रखा, उसकी साँसों में वही जानी-पहचानी खुशबू घुल गई—अदरक, मिट्टी और उम्मीद।

वो जानता था, नेहा आएगी।
पर आज कुछ अलग था। भीतर कहीं एक बेचैनी थी—जैसे कोई अधूरी बात गले में अटकी हो।

चायवाले ने पूछा, “आज भी दो चाय?”
आदित्य मुस्कराया, “हाँ, आज भी दो।”

वह बेंच पर बैठा रहा। ठंडी हवा उसके चेहरे को छूकर जा रही थी। उसने नोटबुक खोली, पर शब्द आज फिसल रहे थे। जैसे दिल की बातें कलम तक पहुँचने से पहले ही काँप जाती हों।

तभी उसने देखा—नेहा आ रही थी।
उसके चेहरे पर हल्की थकान थी, बाल खुले, और आँखों में वही गहराई जो कभी सुकून देती थी, अब सवाल बन गई थी।

“लेट हो गई,” उसने कहा, “ऑफिस में देर तक बैठना पड़ा।”

“कोई बात नहीं,” आदित्य बोला, “सर्दियों में देर से आना भी मौसम का हिस्सा है।”

दोनों ने चाय ली। पहली चुस्की के साथ ही आदित्य ने महसूस किया—आज वो मुस्कान वैसी नहीं थी। कुछ दबा हुआ, कुछ अनकहा उसके चेहरे पर था।

“सब ठीक?” उसने पूछा।

नेहा ने सिर हिलाया, “हाँ, बस… थोड़ा सोच रही थी।”

“किस बारे में?”

“यही कि बातें कब इतनी ज़रूरी हो जाती हैं कि उनके बिना दिन अधूरा लगता है।”

आदित्य ने उसकी आँखों में देखा। “और कब वो बातें कह नहीं पाते, क्योंकि डर लगता है—कहीं सुनने वाला चला न जाए।”

नेहा ने हल्का-सा सिर झुकाया। “तुम्हें भी ऐसा लगता है?”

“हर दिन,” आदित्य ने कहा। “हर बार जब तुम जाती हो, लगता है कुछ कहना रह गया।”

हवा थोड़ी और ठंडी हो गई। चाय की भाप उनके बीच उठ रही थी, जैसे धुंध में लिपटी कोई चुप्पी।

नेहा ने धीरे से कहा, “आदित्य, अगर कभी हम न मिले, तो क्या तुम लिखना छोड़ दोगे?”

“शायद नहीं,” आदित्य ने जवाब दिया, “लेकिन हर पंक्ति में तुम्हारा नाम छिपा रहेगा।”

नेहा मुस्कराई, मगर आँखों में नमी उतर आई। “कभी-कभी सोचती हूँ, अगर हमारी ज़िंदगी किसी कहानी जैसी होती, तो इस वक़्त लेखक लिखता—‘दोनों ने एक-दूसरे को समझ लिया।’ पर हकीकत में, समझने और स्वीकार करने के बीच बहुत फर्क होता है।”

“तो आज फर्क मिटा देते हैं,” आदित्य ने धीरे से कहा।

नेहा ने चौंककर उसकी ओर देखा। “क्या मतलब?”

आदित्य ने साँस भरी, फिर बोला—
“मतलब ये कि अब छिपाने को कुछ नहीं बचा। तुम्हारे साथ बैठकर चाय पीना, बातें करना, ये सब अब आदत से आगे बढ़ गया है। तुम मेरी हर सुबह का हिस्सा बन चुकी हो, नेहा। शायद प्यार भी इसी को कहते हैं—जब किसी के बिना दिन अधूरा लगे, पर उसका नाम लेने से भी डर लगे।”

नेहा की आँखों में ठंडे आसमान की परछाईं थी। कुछ पल के लिए वह कुछ नहीं बोली। हवा के साथ उसकी शॉल उड़ने लगी। उसने उसे कसकर पकड़ लिया और कहा, “आदित्य… तुम जो कह रहे हो, वो सुन्दर है, पर मैं डरती हूँ।”

“किससे?”

“इससे कि प्यार फिर वही कहानी न बन जाए—जिसका अंत मैं पहले ही पढ़ चुकी हूँ।”

आदित्य ने कहा, “मैं कोई अंत नहीं लिखूँगा। हम बस वो पंक्तियाँ लिखेंगे जो अधूरी रहें—जैसे नवंबर की सुबहें, जो कभी पूरी धूप नहीं देतीं, पर फिर भी सुंदर लगती हैं।”

नेहा की आँखें भर आईं। उसने कहा, “तुम्हारे शब्द हमेशा मेरे दिल तक पहुँचते हैं, आदित्य। पर मैं अब शब्द नहीं, सन्नाटा सुनना चाहती हूँ।”

और फिर दोनों चुप हो गए। बस दूर कहीं मंदिर की घंटी और चाय की केतली की सीटी।

नेहा ने कुल्हड़ को धीरे से बेंच पर रखा। “अगर मैं चली जाऊँ एक दिन बिना बताए, तो याद रखना, मैं बस थक गई थी—किसी अंत से डरकर नहीं, बल्कि इस सोच से कि कहानी अगर बहुत सुंदर हो जाए, तो लोग उसे अधूरा छोड़ देते हैं।”

आदित्य ने उसका हाथ छूना चाहा, पर रुक गया। हवा में एक पल को सब कुछ थम गया।

“नेहा,” उसने कहा, “अगर तुम चली भी गई, तो मैं यहाँ रहूँगा—हर सुबह, इस बेंच पर, इस चाय के साथ। क्योंकि कुछ कहानियाँ इंतज़ार से ही पूरी होती हैं।”

नेहा ने उसकी आँखों में देखा—गहराई, सच्चाई, और थोड़ा सा दर्द। उसने हल्के से सिर हिलाया।
“फिर मिलेंगे?”

“नवंबर खत्म होने से पहले ज़रूर,” आदित्य ने कहा।

वो उठी, मुस्कराई, और चली गई—धीरे-धीरे, धुंध में, जैसे किसी कविता की आख़िरी पंक्ति मिट रही हो।

आदित्य ने नोटबुक खोली और लिखा—

“प्यार कहा नहीं गया,
पर हवा जानती है,
हर सुबह की भाप में उसका नाम है।”

उसने चाय की आख़िरी चुस्की ली। स्वाद अब भी वही था—गर्म, मगर हल्का-सा कड़वा।

भाग 10 – नवंबर की आख़िरी चाय

नवंबर का आख़िरी दिन था।
दिल्ली की हवा में अब दिसंबर की दस्तक साफ़ महसूस हो रही थी। सूरज अब जल्दी नहीं निकलता, और जो निकलता भी था, वो धुंध की परतों में कहीं छिपा रहता। पार्क की बेंचें खाली थीं, पत्तियाँ सूखकर ज़मीन पर बिछ गई थीं, और हवा में वो हल्की ठंड थी जो विदाई की तरह लगती है—धीरे-धीरे, पर निश्चित।

आदित्य ने आज भी वही रास्ता पकड़ा। कदम थोड़े भारी थे। पिछले तीन दिन नेहा नहीं आई थी।
हर सुबह वह उसी बेंच पर जाकर बैठता, चायवाले से दो कुल्हड़ मँगवाता—एक अपने लिए, एक उसके लिए—और इंतज़ार करता।
लेकिन नेहा नहीं आई।

आज उसने सोचा, शायद यही आख़िरी दिन है जब नवंबर की कहानी अपने अंत तक पहुँचेगी।
चायवाले ने देखा तो बोला, “साहब, आज भी दो चाय?”
आदित्य ने मुस्कराने की कोशिश की, “हाँ, आज भी दो। पर एक शायद ठंडी रह जाएगी।”

वह बेंच पर बैठा रहा। पेड़ों की शाखाओं से ओस टपक रही थी। हर चीज़ जैसे धीमी हो गई थी—समय भी। उसने नोटबुक खोली। कलम चलानी चाही, लेकिन शब्द किसी जमे हुए तालाब जैसे स्थिर पड़े थे।

अचानक पीछे से आवाज़ आई—
“आज फिर अकेले पी रहे हो?”

आदित्य ने पलटकर देखा—नेहा।
वही चेहरा, वही मुस्कान, पर आँखों के नीचे हल्की थकान की लकीरें।

वह बैठ गई। दोनों ने कुछ देर बिना बोले एक-दूसरे को देखा। फिर नेहा ने कहा, “तीन दिन देर से आई हूँ, पर सोचा था अगर आज न आई तो शायद नवंबर मुझसे नाराज़ हो जाएगा।”

“नवंबर मुझसे भी था,” आदित्य ने धीरे से कहा, “हर सुबह पूछता था—‘वो आएगी या नहीं?’”

चायवाले ने दो कुल्हड़ रखे। भाप उठी। नेहा ने कप हाथ में लिया और कहा, “आपको पता है, जब मैं नहीं आई थी, तब भी मैंने चाय पी थी। पर उसका स्वाद अजीब था। जैसे उसमें कुछ कम था।”

“क्योंकि कुछ रिश्ते सिर्फ़ मौजूदगी से पूरे होते हैं,” आदित्य ने कहा, “शब्दों से नहीं।”

नेहा ने हल्की मुस्कान दी। “आप हमेशा सही बात कह देते हैं, और यही चीज़ मुझे डराती है। इतना सच्चा होना मुश्किल होता है।”

“और तुम्हारा इतना खूबसूरत होना आसान है?” आदित्य ने हँसते हुए कहा।

नेहा ने हँसी दबाई, पर आँखें भीग गईं। “कभी-कभी सोचती हूँ, अगर हम किसी दूसरे वक़्त में मिले होते—जब ना तुम इतने अकेले होते, ना मैं इतनी थकी हुई—तो शायद ये कहानी अलग होती।”

“कहानियाँ वक़्त से नहीं बनतीं,” आदित्य बोला, “उनसे बनती हैं जो चाय की तरह वक्त के साथ बस बेहतर होती जाती हैं।”

हवा अब और ठंडी हो गई थी। नेहा ने अपनी शॉल खींची, और फिर धीरे से कहा, “आदित्य, मैं अगले हफ़्ते देहरादून जा रही हूँ। शायद कुछ महीनों के लिए।”

आदित्य का दिल जैसे एक पल को थम गया। “सिर्फ़ कुछ महीनों के लिए?”

“पता नहीं,” नेहा बोली, “माँ अकेली हैं, उनकी तबियत ठीक नहीं। शायद लौट आऊँ, शायद न आऊँ।”

कुछ देर दोनों खामोश रहे। आसपास के पेड़, धुंध, हवा—सब गवाह बने बैठे थे।

आदित्य ने कुल्हड़ उठाया। “तो ये हमारी आख़िरी चाय है नवंबर की।”

“हाँ,” नेहा ने कहा, “पर कहानी की नहीं।”

आदित्य ने उसकी आँखों में झाँका। “तो फिर वादा करो, अगली बार जब लौटोगी, हम फिर यहीं बैठेंगे। वही बेंच, वही चाय।”

नेहा ने हल्के स्वर में कहा, “अगर नवंबर याद रहा तो ज़रूर।”

“मैं याद रखूँगा,” आदित्य बोला, “हर सुबह जब हवा में धुंध होगी, मैं सोचूँगा कि कहीं कोई देहरादून की खिड़की से वही चाय पी रही होगी।”

नेहा मुस्कराई।
फिर धीरे से कुल्हड़ उठाया और कहा, “आख़िरी चाय तुम्हारे नाम।”

दोनों ने एक साथ घूँट लिया। मिट्टी की खुशबू और चाय की गरमी ने पल को थाम लिया। हवा चल रही थी, पर कुछ स्थिर था—जैसे दुनिया रुक गई हो उस एक भाप के बीच।

नेहा उठी। “चलती हूँ, ट्रेन सुबह की है।”

“रुको,” आदित्य ने कहा, “एक पल।”
उसने नोटबुक खोली और एक पन्ना फाड़कर नेहा को दिया।
“ये क्या है?” उसने पूछा।

“कुछ नहीं,” आदित्य बोला, “बस हमारी कहानी का आख़िरी पन्ना।”

नेहा ने पन्ना खोला। उसमें सिर्फ़ दो लाइनें लिखी थीं—

“हर नवंबर के अंत पर,
एक कप चाय हमें फिर मिलाती है।”

नेहा की आँखों में चमक आ गई। उसने पन्ना मोड़कर शॉल में रखा और कहा,
“अगर कभी तुम भूल भी गए, तो यह पन्ना तुम्हें याद दिलाएगा कि कहानियाँ ख़त्म नहीं होतीं, बस मौसम बदल जाते हैं।”

वह चली गई।
धीरे-धीरे, जैसे धुंध में समा रही हो।

आदित्य बेंच पर बैठा रहा। उसकी चाय ठंडी हो चुकी थी, पर उसकी हथेलियों में अब भी गरमी थी—उस एक मुलाक़ात की, उस आख़िरी मुस्कान की, उस नवंबर की जो अब हर साल लौटेगा… उसकी याद लेकर।

उसने आसमान की ओर देखा और फुसफुसाया—
“कुछ बातें कभी खत्म नहीं होतीं। जैसे चाय की खुशबू, और तुम्हारा नाम।”

फिर उसने नोटबुक में आख़िरी वाक्य लिखा—

“नवंबर खत्म हुआ,
पर उसकी चाय अब भी दिल में उबल रही है।”

 

समाप्त

 

WhatsApp-Image-2025-10-04-at-2.36.44-PM.jpeg

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *