राघव अग्रवाल
मुंबई के कोलाबा स्थित प्रसिद्ध रंगमंच “रंगदीप” की दीवारों पर हल्की सी सीलन की परत थी, पर भीतर माहौल हमेशा जीवंत और रचनाशील रहता था। उस शाम भी, मंच पर एक नया नाटक “अंधेरे के चेहरे” का अभ्यास चल रहा था। लेकिन इस बार, मंच पर सिर्फ अभिनय नहीं, असली मौत भी छिपी थी। जैसे ही अंतिम दृश्य के संवाद गूंजे और रोशनी मद्धम हुई, प्रकाश लौटने पर दृश्य ठहर गया—कलाकार विवेक माथुर, जो नाटक का मुख्य पात्र था, स्टेज पर लुढ़का पड़ा था। पहले तो सबने सोचा ये प्रदर्शन का हिस्सा है, लेकिन जब निर्देशक ने दौड़कर उसके शरीर को छुआ, तब हॉल में चीख उठी—उसका शरीर बर्फ जैसा ठंडा था, आँखें खुली की खुली, और चेहरा ढका था एक अजीब, घिसे हुए लकड़ी के थिएटर मास्क से। मंच पर कोई खून नहीं था, कोई संघर्ष के निशान नहीं, पर उसकी साँसें थम चुकी थीं। अगले ही पल नाटक, दर्शक, कलाकार—सब छूट गया, और रंगदीप में पहली बार मंच की बजाय मौत ने अभिनय किया।
इस खबर की गूंज जल्द ही पूरे शहर में फैल गई। हर न्यूज़ चैनल पर वही हेडलाइन: “थिएटर में रहस्यमयी मौत: कलाकार के चेहरे पर मिला नकाब।” इस गुत्थी को हल करने के लिए क्राइम ब्रांच के तेज़तर्रार अधिकारी इंस्पेक्टर रघुवीर पाटिल को बुलाया गया, जिनकी ख्याति थी कि वो सबसे उलझे हुए मामलों को भी सुलझा लेते हैं। वह सीधे रंगदीप पहुंचे, मंच को देखा, मास्क को जब्त किया और पूरे कलाकार दल से अलग-अलग पूछताछ की। विवेक एक मंझा हुआ कलाकार था, जिसकी किसी से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी। मंच पर काम करने वालों ने बताया कि उस दिन उसकी तबीयत एकदम ठीक थी, और वह अपने संवादों के लिए खासा उत्साहित था। लेकिन पोस्टमार्टम की रिपोर्ट में कोई ज़हर या चोट के निशान नहीं मिले—उसकी मौत बस “सामान्य हृदयाघात” के तौर पर दर्ज की गई। पर रघुवीर को कुछ और महसूस हुआ—यह कोई आम मौत नहीं थी। मास्क, उसकी बनावट, उसका एक खास किस्म का मंचीय रूप… ये कोई इत्तिफ़ाक नहीं हो सकता था।
आकाश ठाकुर, रंगदीप के मालिक और निर्देशक, उस दिन चुपचाप ऑफिस में बैठा रहा। एक पुराना रेडियो बज रहा था, लेकिन उसका ध्यान कहीं और था। विवेक उसकी नाट्य संस्था का उभरता सितारा था, जिसे वह एक दिन राष्ट्रीय मंचों पर देखना चाहता था। पर उससे भी गहरी बात यह थी कि उस मास्क को देखकर आकाश सिहर गया था। वह मास्क उसे कहीं देखा हुआ लगा—कहीं बहुत पीछे, बीते वर्षों के किसी धुंधले कोने में। उसने खुद को तर्कों से समझाने की कोशिश की कि यह सब महज़ एक दुर्घटना है, लेकिन दिल में कुछ और ही चल रहा था। रंगदीप की दीवारों ने न जाने कितनी कहानियाँ देखी थीं—कुछ मंच पर, कुछ मंच के पीछे। लेकिन अब जो हो रहा था, वह मंच की सीमाओं से बाहर एक नए किस्म का ‘नाटक’ था—जहाँ संवाद नहीं, बस मौतें थीं।
अगली सुबह जब आकाश अपने कैबिनेट में विवेक की फाइलें देख रहा था, तभी एक कॉल आया। संध्या मेहता—मुंबई क्राइम वॉच की पत्रकार, जो तेज़ रिपोर्टिंग और गहरे रिसर्च के लिए जानी जाती थी। उसकी आवाज़ में संयम था, पर भीतर आक्रोश भी। “मैं इस केस पर स्टोरी कर रही हूँ,” उसने कहा, “और मुझे पता है ये केवल एक हादसा नहीं है। मेरे भाई की मौत भी दो साल पहले इसी तरह हुई थी—चेहरे पर वही मास्क, कोई ज़हर नहीं, कोई निशान नहीं।” आकाश सन्न रह गया। क्या ये कोई पैटर्न है? कोई सीरियल किलर? कोई अदृश्य हाथ जो कला की दुनिया में अपनी कोई अनदेखी पटकथा लिख रहा है? फोन कट गया, पर आकाश को यकीन हो चला था—ये महज़ एक मौत नहीं, बल्कि उस मंच का पहला पर्दा गिरा है, जिसके पीछे छिपा है एक भयावह और मास्कपोश सच।
अध्याय 2: नकाब की पहली परत
मुंबई क्राइम ब्रांच का मुख्यालय उस सुबह बाकी दिनों से ज्यादा तनाव में था। इंस्पेक्टर रघुवीर पाटिल अपनी टेबल पर विवेक माथुर की रिपोर्ट्स फैला कर बैठा था—पोस्टमार्टम, फोन रेकॉर्ड, CCTV फुटेज, सब कुछ। लेकिन जितना ज़्यादा वह इन तथ्यों में गहराई से जाता, उतना ही यह मामला एक सामान्य केस से बाहर लगता। उसका पुलिसिया अनुभव कह रहा था कि यह कोई निजी झगड़े या ईर्ष्या की वजह से हुई हत्या नहीं थी। यह कुछ और था, कोई संकेत, कोई कला से जुड़ा हुआ कोड। उस मास्क की बनावट पर गौर करने पर पता चला कि वह मास्क “मिस्टर लायनहार्ट” नामक एक पुराने मराठी नाटक में इस्तेमाल होता था—जो करीब दो दशक पहले रंगदीप थिएटर में ही खेला गया था। उस नाटक का क्लाइमेक्स ठीक उसी मुद्रा में होता था, जिसमें विवेक का शव मिला था। यह महज़ संयोग नहीं हो सकता था।
उसी समय संध्या मेहता अपने ऑफिस के एडिटिंग रूम में बैठी अपने भाई की मौत से जुड़ी क्लिपिंग्स और रिपोर्ट्स पलट रही थी। उसका भाई, आदित्य मेहता, भी थिएटर से जुड़ा हुआ था और एक स्थानीय नाटक में “साइलेंट क्लाउन” का किरदार निभा रहा था, जब एक रिहर्सल के दौरान वह मृत पाया गया—चेहरे पर एक मुखौटा, और मौत का कोई स्पष्ट कारण नहीं। तब केस को ‘स्वाभाविक हृदयाघात’ मानकर बंद कर दिया गया था। लेकिन अब विवेक की मौत ने उस पुराने जख्म को फिर कुरेद दिया। संध्या ने तुरंत दोनों केसों के बीच समानताएं नोट कीं: दोनों कलाकार, दोनों थिएटर एक्टर्स, दोनों की मौत मंच पर, और सबसे अहम—वही थिएटर मास्क। अब वह सिर्फ एक रिपोर्टर नहीं, बल्कि एक बहन बन गई थी—जिसे अपने भाई के लिए न्याय चाहिए था। उसने निर्णय लिया—वह इंस्पेक्टर रघुवीर से मिलेगी, चाहे उसे थाने में घुसने के लिए तीन बार दरवाज़ा खटखटाना पड़े।
दोपहर में रंगदीप में सन्नाटा पसरा हुआ था। पहले जिस मंच पर गूंजते संवादों की गूंज होती थी, अब वहां डर का साया मंडरा रहा था। आकाश ठाकुर अकेले अपने दफ्तर में बैठा, एक पुराने ट्रंक से पन्ने निकाल रहा था—पुराने नाटकों की स्क्रिप्ट्स, फोटो, और मुखौटों की डिज़ाइन। तभी उसका हाथ एक पीले पड़े स्केचबुक पर रुका—उसमें नकाबों की डिटेलिंग बनी हुई थी, और एक विशेष पृष्ठ पर वही ‘लायनहार्ट’ मास्क स्केच किया गया था। उस पृष्ठ के नीचे लिखा था—”पात्र जो मंच पर कभी पहचान नहीं पाया।” आकाश का चेहरा पीला पड़ गया। यह स्केच उसके एक पुराने साथी, समीर नायर ने बनाया था, जो वर्षों पहले रंगदीप से विवाद के बाद गायब हो गया था। क्या यह सब उससे जुड़ा है? या यह बस एक और गुमनाम नाम है जो रंगदीप की अंधेरी गलियों में खो गया?
उसी शाम, इंस्पेक्टर रघुवीर और संध्या की पहली मुलाकात हुई। रघुवीर उसे पहले एक जिद्दी रिपोर्टर समझ रहा था, लेकिन जब संध्या ने आदित्य के केस की फाइलें और मास्क की तस्वीरें निकालीं, तो रघुवीर चौंक गया। दोनों केसों में समानता इतनी स्पष्ट थी कि अब इनकार करना संभव नहीं था। वह तुरंत समझ गया—यह कोई व्यक्तिगत मामला नहीं, बल्कि कोई सोच-समझकर की जा रही सीरियल हत्याओं की शुरुआत है। दोनों ने मिलकर केस को गहराई से खंगालने का फैसला किया। अगला कदम था—रंगदीप के पुराने नाटकों के कलाकारों की सूची खोजना, जिन नाटकों में ऐसे मास्क इस्तेमाल हुए थे, और उन सभी लोगों की जानकारी इकट्ठा करना जो इन नाटकों से कभी भी जुड़े थे। और सबसे बड़ा सवाल: क्या अब भी कोई मंच के पीछे छिपकर अभिनय कर रहा है, जिसे किसी ने कभी नहीं देखा, पर जो हर दृश्य को नियंत्रित कर रहा है?
अध्याय 3: मंच के पीछे की परछाइयाँ
रंगदीप थिएटर के पीछे की संकरी गलियों में हर रात कलाकारों की गूंज रहती थी—संवादों की प्रैक्टिस, तालियों की कल्पना, और मंच के लिए सपनों का रंग भरते चेहरे। लेकिन अब इन गलियों में एक अजीब सी चुप्पी थी। आकाश ठाकुर, जो कभी हर नवोदित कलाकार के लिए प्रेरणा का स्रोत था, अब खुद एक अनजाने डर की गिरफ्त में था। पुराने सहयोगी दूर हो चुके थे, नए कलाकार असहज थे, और अब उसे हर चेहरे पर शक होने लगा था। उस दिन उसने थिएटर के टेक्निकल डायरेक्टर से पुराने CCTV फुटेज मंगवाए—विवेक की मौत से एक दिन पहले की रिकॉर्डिंग। देर रात जब सब जा चुके थे, एक धुंधली परछाई को थिएटर के भीतर घूमते देखा गया—कंधे पर कुछ भारी और चेहरा अस्पष्ट। चेहरा साफ नहीं दिखा, पर उसकी चाल में अजीब सा आत्मविश्वास था, जैसे वह जगह उसकी अपनी हो।
इंस्पेक्टर रघुवीर और संध्या उस वीडियो को देखकर और भी गंभीर हो गए। अब यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि यह व्यक्ति थिएटर से बहुत अच्छी तरह परिचित है—शायद वह किसी वॉरड्रोब सेक्शन या प्रॉप्स स्टोर के भीतर लंबे समय से छिपा हो सकता है। रघुवीर ने थिएटर के कर्मचारियों से बात की, और एक नाम सामने आया: शिवम मल्होत्रा, एक युवा कलाकार जो हाल ही में रंगदीप से जुड़ा था और तेजी से नाटकों में अहम भूमिकाएं पा रहा था। वह दिखने में तेज़, आत्मविश्वासी और आकर्षक था, लेकिन उसके बारे में एक बात सभी ने कही—“कुछ तो है उसमें जो छिपा हुआ है।” संध्या ने जब उससे अनौपचारिक बातचीत की, तो उसने खुलकर कहा, “मैं जानता हूँ कि अगला नंबर मेरा है। मैं मरना नहीं चाहता। कोई है जो इन चेहरों को खत्म कर रहा है… वो जो कभी खुद मंच पर नहीं आ पाया।”
संध्या उसकी बात सुनकर हैरान रह गई। शिवम मानो किसी ऐसे रहस्य की छाया में जी रहा था, जिससे वो भाग नहीं पा रहा था। उसने बताया कि रंगदीप में एक पुराना रिवाज़ था—हर नए नाटक से पहले, पुराने मुखौटे और वेशभूषाएं बाहर निकाली जाती थीं और “नाट्य–पूजन” होती थी। लेकिन पिछले कुछ महीनों से हर बार किसी न किसी पुराने मास्क के गायब होने की शिकायत हुई थी—कोई गंभीरता से नहीं लेता था, पर अब लगता था कि हर गायब हुआ मास्क, एक मौत का संकेत बन गया है। शिवम ने एक नाम लिया—“कन्हैया”, एक असिस्टेंट जो एक समय रंगदीप के हर नुक्कड़ से वाकिफ़ था, पर कुछ साल पहले एक दुर्घटना के बाद गायब हो गया था। आकाश ने तब उसे निकाल दिया था, और यह बात थिएटर के कुछ पुराने कर्मचारियों को आज भी याद थी।
उसी रात, संध्या रंगदीप के पुराने रिकॉर्ड्स खंगाल रही थी जब उसे एक dusty फोल्डर मिला—“विस्मृत कलाकारों की सूची”। उसमें कई नाम थे जिन्हें रंगदीप में जगह नहीं मिली, या जिन्हें नाटकों से निकाल दिया गया था। हर नाम के आगे एक टिप्पणी थी—”अपर्याप्त अभिनय”, “अनुशासनहीन”, “भूमिका में असफल”। और उनमें से एक नाम पर आकाश ठाकुर की लिखावट में लाल रंग से गोल घेरा बना था: “समीर नायर – प्रतिभाशाली, लेकिन अस्थिर।” वहीं दूसरी ओर उसी समीर के लिखे कुछ नोट्स थे—”एक दिन मेरी भी बारी आएगी। नकाब सब पर चढ़ेगा।” संध्या सिहर गई। क्या समीर ही नकाबपोश है? क्या वह रंगदीप के हर कलाकार को उसी अभिनय से खत्म कर रहा है, जिसमें उसे कभी जगह नहीं मिली? क्या वह खुद को ही एक नाटक का लेखक, निर्देशक और क़ातिल मान बैठा है?
अध्याय 4: स्मृति की आँच
रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे, पर आकाश ठाकुर अपने ऑफिस में अकेले बैठा खिड़की के बाहर झांक रहा था। खामोशी से भरे रंगदीप थिएटर की दीवारें उस पर जैसे झुक आई थीं। मेज पर रखी पुरानी स्क्रिप्ट की एक फाइल खुली थी, जिस पर धूल की पतली परत जमी थी—वही नाटक जिसमें समीर नायर ने आखिरी बार भूमिका निभाई थी। उसका किरदार “लायनहार्ट” था—एक ऐसा व्यक्ति जो समाज से अस्वीकार किए जाने के बाद एक-एक कर अपने दुश्मनों को मुखौटे पहनाकर मारता है। आकाश को याद आया, समीर उस किरदार में इतना डूब गया था कि रिहर्सल के बाद भी घंटों तक उस मास्क को पहने घूमता रहता था। एक रात, मंच पर संवाद के दौरान समीर असहज होकर गिर पड़ा था। कहा गया था कि उसे दौरा पड़ा था, लेकिन कुछ कलाकारों ने दावा किया था कि वह जानबूझकर “ड्रामा” कर रहा था। उसके बाद आकाश ने उसे थिएटर से निकाल दिया—बिना किसी चेतावनी के, बिना किसी अफसोस के।
इसी बीच, संध्या मेहता को एक और क्लू हाथ लगा। उसने पुराने प्रेस आर्टिकल्स और थिएटर समीक्षाओं की कटिंग्स खंगाली और एक लेख में पाया कि समीर नायर ने नाटक के दौरान एक संवाद में बदलाव कर दिया था—जिसे किसी ने नोटिस नहीं किया। उसने कहा था, “जिसे तुमने नजरअंदाज किया, वो तुम्हारी सबसे बड़ी कथा बनेगा।” यह संवाद स्क्रिप्ट में नहीं था। यह जैसे एक चेतावनी थी, एक पूर्वाभास। संध्या ने तुरंत इंस्पेक्टर रघुवीर से संपर्क किया और समीर नायर के परिवार की जानकारी मांगी। पता चला, समीर का कोई रिकॉर्ड अब नगर निगम के पास नहीं था—न तो आधार, न राशन कार्ड, और न ही कोई मोबाइल नंबर। मानो वह शहर के नक्शे से गायब हो गया हो। लेकिन रंगदीप की परछाइयों में शायद वह अब भी मौजूद था—एक छाया बनकर, एक अभिनेता जो अब सिर्फ मौत के दृश्य रच रहा था।
इंस्पेक्टर रघुवीर ने अब केस को व्यक्तिगत रूप से लेना शुरू कर दिया। उसने रंगदीप के हर स्टोर रूम, प्रॉप्स हॉल, मेकअप रूम की तलाशी खुद लेनी शुरू की। एक कमरे में उसे एक टूटा हुआ लकड़ी का बॉक्स मिला, जिसमें पुरानी वेशभूषाएं और मुखौटे रखे थे—लेकिन उनमें से तीन मास्क गायब थे। और हर गायब मास्क का डिज़ाइन किसी न किसी पुराने नाटक से मेल खाता था। रघुवीर समझ गया कि हत्यारा उन पुराने नाटकों को फिर से मंचित कर रहा है—मगर कलाकारों के जीवन की कीमत पर। अब उसकी सबसे बड़ी चिंता थी—अगला मास्क किस चेहरे पर चढ़ेगा? तभी संध्या ने बताया कि अगले हफ्ते रंगदीप में एक नया नाटक “दर्पण के पीछे” का मंचन होना है, जिसमें शिवम मल्होत्रा मुख्य भूमिका निभा रहा है। और इस नाटक की स्क्रिप्ट भी समीर नायर ने कभी लिखी थी—जिसे आकाश ने कभी मंच पर नहीं आने दिया।
उधर, शिवम अपने ग्रीनरूम में लगातार बेचैनी महसूस कर रहा था। हर बार उसे लगता, कोई उसके कमरे के बाहर खड़ा है। उसके दरवाज़े के नीचे से किसी ने एक कागज़ का टुकड़ा सरकाया था—उस पर सिर्फ एक लाइन लिखी थी: “मुखौटा तय हो चुका है। अभिनय शुरू होगा।” शिवम घबरा गया। उसने यह बात आकाश को बताई, लेकिन आकाश ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा कि यह सिर्फ डर का असर है। पर भीतर से आकाश खुद कांप रहा था—क्योंकि वह जानता था, इस संवाद को कभी समीर नायर ने लिखा था… और उसके बाद मंच से गायब हो गया था।
अब सिर्फ एक रास्ता बचा था—इस “नाटक” का पर्दा खुद आकाश को खोलना था, चाहे इसके लिए उसे अपने अतीत की राख को भी खंगालना पड़े।
अध्याय 5: आकाश का अतीत
रात के तीन बजे थे। आकाश ठाकुर अब भी रंगदीप के पिछले कमरे में बैठा पुराने स्क्रिप्ट बॉक्स की परतें पलट रहा था। हर पन्ने पर कोई न कोई छवि उभरती थी—किसी कलाकार का सपना, किसी दृश्य का अधूरा संवाद, और कहीं-कहीं उन दिनों की हल्की-सी गंध जब रंगदीप सिर्फ एक मंच नहीं, बल्कि एक परिवार था। पर उन स्मृतियों में एक ऐसा चेहरा बार-बार लौट आता था—समीर नायर। नाटकों की दीवानगी, संवादों की गहराई और अभिनय में डूब जाने की उसकी आदतों ने पहले तो सबको आकर्षित किया था, पर धीरे-धीरे वह “ज़्यादा करने की कोशिश” के आरोपों का शिकार बनने लगा। आकाश खुद उसकी प्रतिभा का कायल था, लेकिन उसे कभी समझ नहीं पाया। और जब “लायनहार्ट” के मंचन के दौरान समीर ने मंच पर सचमुच खुद को ज़ख्मी कर लिया, तब आकाश ने उसे एक “खतरनाक सनकी” कहकर संस्था से निकाल दिया। ना माफी, ना बात। बस एक चिट्ठी—”आप रंगदीप के लिए नहीं बने।”
उस घटना के बाद समीर जैसे गायब ही हो गया। किसी को नहीं पता वो कहां गया, किस हाल में है। कुछ ने कहा वो बंगलुरु चला गया, कुछ ने माना उसने थिएटर ही छोड़ दिया। लेकिन आकाश के मन में आज भी एक कसक थी। वह खुद उस रात को नहीं भूला था जब समीर उसके ऑफिस में आया था—आखिरी बार—और कहा था, “मंच का सबसे बड़ा अपराध ये नहीं कि उसने मुझे निकाल दिया, बल्कि ये कि उसने मुझे देखा ही नहीं।” उस वक्त आकाश ने उसकी बात को घमंड समझ कर नज़रअंदाज़ कर दिया था, लेकिन आज जब एक-एक कर कलाकार मारे जा रहे थे, और उनके चेहरे उन्हीं नाटकों के मास्क से ढके मिल रहे थे जिनमें समीर ने भूमिकाएँ निभाई थीं—तब आकाश को लगने लगा था कि वह सिर्फ एक पुराना निर्देशक नहीं, बल्कि शायद इस त्रासदी का सूत्रधार है।
संध्या मेहता भी अब केस की परतों में पूरी तरह उतर चुकी थी। उसने पुराने थिएटर समीक्षकों और रिटायर्ड कलाकारों से बात की। एक वृद्ध अभिनेता, श्रीधर घोष, ने बताया कि समीर सिर्फ अभिनय नहीं करता था—वह हर चरित्र को आत्मा की तरह जीता था। और वह मानता था कि “हर नाटक तभी पूरा होता है जब उसका अंत असली हो।” श्रीधर ने एक और बात बताई—एक बार समीर ने रंगदीप की दीवार पर कोयले से एक वाक्य लिखा था: “मंच पर जो न दिखे, वही सबसे बड़ा दृश्य रचता है।” आकाश की धड़कनें तेज़ हो गईं। समीर शायद आज भी रंगदीप में मौजूद है—न पर्दे पर, न दर्शकों में, बल्कि उनके बीच, एक छाया की तरह। वो मास्कपोश जो कभी मंच से निकाला गया, अब मंच पर ही सबको खत्म कर रहा है।
इस बीच इंस्पेक्टर रघुवीर ने थिएटर की फाइलों से आकाश की पुराने दिनों की तस्वीरें निकलवाईं। उनमें से एक ग्रुप फोटो में सभी अभिनेता थे—समीर, आकाश, श्रीधर, और कुछ अन्य युवा कलाकार। लेकिन रघुवीर की नज़र गई उस एक कोने में खड़े उस अभिनेता पर जिसे बाकी तस्वीरों से हमेशा काट दिया गया था—समीर नायर। हर फोटोग्राफ में उसकी जगह अधूरी थी, जैसे किसी ने जानबूझकर उसे ‘फ्रेम से बाहर’ रखा हो। रघुवीर ने गौर किया कि समीर के हर संवाद, हर भूमिका में “अदृश्य होने” का भय छुपा था—मानो पूरी दुनिया से मिटा दिए जाने का डर। और अब, वह इसी मिटा दिए गए अस्तित्व को दुनिया के सामने मास्क के पीछे से चीख़-चीख़ कर जिंदा कर रहा था।
अध्याय 6: आत्माओं की गूंज
मुंबई की बरसात उस रात कुछ ज्यादा ही बेचैन लग रही थी। रंगदीप थिएटर की छत पर लगातार टपकती बूंदें मानो भीतर के सन्नाटे को और गहरा कर रही थीं। थिएटर के भीतर, ग्रीनरूम की दीवारों पर कुछ पुरानी तस्वीरें हिल रही थीं—जैसे कोई अदृश्य हाथ उन्हें धीरे-धीरे सरका रहा हो। उसी कमरे में अकेला बैठा था शिवम मल्होत्रा। उसके चेहरे पर थकान से ज्यादा डर था। उसकी आंखें उन परछाइयों को खोज रही थीं जो कभी कमरे में घुसतीं, फिर खुद को अंधेरे में छुपा लेतीं। दो दिन पहले उसके मेकअप बॉक्स में एक पुराना मास्क मिला था—फटा हुआ, जला हुआ, और उस पर लिखा था: “तू अगला है।” शिवम ने पुलिस में शिकायत की, लेकिन रघुवीर को कोई ठोस सुराग नहीं मिला। अब सब जानते थे—नकाबपोश फिर से लौट आया है।
उस रात एक प्रैक्टिस सेशन के दौरान बिजली अचानक चली गई। मंच की सभी लाइटें बुझ गईं, और अंधेरे में किसी ने शिवम की ओर कुछ फेंका। जब लाइट लौटी, तो सभी ने देखा—शिवम के सामने एक खूबसूरत लेकिन डरावना मास्क पड़ा था। उसके बगल में एक पुराना स्क्रिप्ट का पन्ना था—“दर्पण के पीछे” का वही अंतिम दृश्य जिसमें लायनहार्ट अपना चेहरा जला देता है। ये सिर्फ डराने की कोशिश नहीं थी—ये एक दृश्य था, एक ‘रिहर्सल’। रघुवीर को यकीन हो चला था कि नकाबपोश न केवल कलाकारों को मार रहा है, बल्कि हर मौत को एक नाटकीय रूप भी दे रहा है। वह हर हत्या को एक अधूरा अभिनय मानता है—जो उसे खुद ‘पूर्ण’ करना होता है।
इस बार केस अब सिर्फ सीरियल किलिंग नहीं, बल्कि परफॉर्मेंस बन चुका था।
एक भयानक परफॉर्मेंस, जिसे केवल मौत से पूरा किया जा सकता था।
संध्या अब इस रहस्य को सिर्फ एक रिपोर्ट की तरह नहीं देख रही थी। उसके दिल में समीर नायर को लेकर एक अजीब जिज्ञासा पैदा हो चुकी थी। उसने समीर के जीवन के बारे में और जानकारी इकट्ठा करनी शुरू की। पता चला, समीर एक अनाथ था—उसे बचपन में एक ड्रामा स्कूल ने पाला, जहां वह ‘परफॉर्मेंस थेरपी’ में प्रशिक्षित हुआ। उसे बचपन से ही मंच पर जीने की आदत थी। पर जब थिएटर से निकाला गया, तब उसके पास खुद को साबित करने का कोई और मंच नहीं बचा। एक अभिनेता जो हर किरदार को जीता था, अब अपने ‘मुख्य किरदार’ की तलाश में था। शायद उसे वो किरदार अब मिल चुका था—‘नकाबपोश’।
संध्या ने महसूस किया कि समीर की हत्या की ये श्रृंखला बदले से कहीं ज्यादा गहरी थी—यह एक आवाज़ थी, एक चीख जो सालों तक दबाई गई, और अब मुखौटे के पीछे से बाहर आ रही थी।
रघुवीर ने एक योजना बनाई। उन्होंने रंगदीप में अगले नाटक के मंचन की घोषणा करवाने दी—“दर्पण के पीछे”। उन्होंने शिवम को मुख्य भूमिका में ही रखा, और सुरक्षा को सादी वर्दी में थिएटर के भीतर फैला दिया। उनके पास बस एक ही मौका था नकाबपोश को पकड़ने का—उसे उसके ही बनाए दृश्य में फँसाकर। मंचन की रात, रंगदीप में सब सामान्य लग रहा था—दर्शक हॉल में बैठे थे, पर्दा उठने ही वाला था। लेकिन ठीक पहले, स्टेज के पीछे, एक नकाबपोश आकृति ग्रीनरूम में दाखिल हुई। उसने शिवम को पीछे से पकड़ने की कोशिश की, पर रघुवीर पहले से वहाँ मौजूद था। एक संघर्ष हुआ, नकाबपोश लगभग बच निकला—but just before he could flee, मंच की ओर भागते समय उसका मास्क गिर गया।
कुछ पल के लिए सब ठहर गया।
चेहरा किसी ने देखा नहीं—लेकिन जो मास्क गिरा, उस पर लिखा था:
“अब अंतिम अभिनय बाकी है।”
अध्याय 7: संध्या की खोज
उस रात के बाद संध्या मेहता को चैन नहीं आया। मंच पर गिरे उस मास्क की आंखें उसे लगातार घूर रही थीं—मानो वो चुपचाप बोल रहा हो, कह रहा हो कि “मैं यहीं हूँ, लेकिन तुम मुझे नहीं समझोगी।” रघुवीर और उसकी टीम उस नकाबपोश का पीछा कर रहे थे, लेकिन उसके पास अब एक अलग रास्ता था—मन की गहराई में उतरने का। उसे यकीन हो चुका था कि समीर नायर अब कोई साधारण हत्यारा नहीं, बल्कि एक ‘जीवित प्रतीक’ बन चुका है—एक ऐसे कलाकार का जो कभी देखा नहीं गया, सुना नहीं गया, पहचाना नहीं गया। और अब वह दुनिया को यह बताने लौटा है कि पहचान केवल संवाद से नहीं, बल्कि मौन से भी आती है।
उसने तय किया—वो समीर के अतीत में जाएगी, जहाँ यह नकाब पहली बार बना था।
संध्या ने दिनभर मुंबई के थिएटर अभिलेखागार खंगाले, ड्रामा स्कूल्स के पुराने रजिस्टर देखे और अंत में पहुंची—“शांताराम नाट्य प्रशिक्षण केंद्र”, जहाँ समीर नायर ने 15 वर्ष की उम्र में दाखिला लिया था। स्कूल अब बंद हो चुका था, लेकिन उसका केयरटेकर, बुजुर्ग रामभाऊ, अब भी वहाँ कुछ दस्तावेज संभाले हुए था। उसने संध्या को एक पुराना संदूक खोल कर दिखाया, जिसमें समीर की बनाई हुई पेंटिंग्स, स्क्रिप्ट्स और मास्क के स्केच थे। हर स्केच के नीचे समीर का छोटा सा नोट था—“जो दृश्य नहीं मिला, वो खुद रचूंगा।” एक ड्राइंग में समीर ने खुद को “छाया अभिनेता” कहा था—एक ऐसा कलाकार जो मंच पर होता है, पर उसे कोई पहचानता नहीं। संध्या ने पहली बार महसूस किया कि समीर का दर्द सिर्फ अस्वीकार किए जाने से नहीं, बल्कि अदृश्य बना दिए जाने से था।
रामभाऊ ने एक और चौंकाने वाली बात बताई। समीर को जब नाटक से बाहर किया गया था, तब वो लंबे समय तक इसी स्कूल की एक पुरानी दीवार के पीछे बने कोठरी में अकेले रहने लगा था। उसने वहां एक पूरा “मंच” बनाया था—कागज़ की कठपुतलियाँ, मास्क, और खुद से संवाद करता एक अकेला कलाकार। एक बार रामभाऊ ने देखा, समीर एक मास्क पहनकर खुद से संवाद कर रहा था, और खुद को ही मार रहा था, फिर उसी चेहरे को आईने में देख मुस्कुरा रहा था। वो कोई सनकी नहीं था—वो अपना ही दर्शक, लेखक, और आलोचक था। संध्या सिहर उठी। नकाबपोश केवल शरीर नहीं मारता, वह पहचान मिटाता है—जैसे किसी चरित्र को पटकथा से काट देना। वह हर बार उसी मास्क को चुनता है जिसे दुनिया ने “नकारा हुआ” समझा।
संध्या ने रामभाऊ से समीर की लिखी एक अधूरी स्क्रिप्ट ली—जिसका शीर्षक था: “आखिरी दृश्य”। स्क्रिप्ट में हर दृश्य एक कलाकार की मौत से खत्म होता था—और अंतिम दृश्य में लिखा था: “सबके नकाब गिरेंगे, पर आखिरी चेहरा मेरा होगा।” यह स्पष्ट था कि समीर ने वर्षों पहले ही इस ‘नाटक’ को अपने भीतर जीना शुरू कर दिया था। वो मर चुका था, पर उसकी आत्मा नहीं—वो मंच पर अब भी जीवित थी। संध्या ने तय कर लिया—अब वो केवल एक रिपोर्टर नहीं, इस नाटक की सह-कलाकार बनेगी। उसने स्क्रिप्ट को पढ़ते हुए उसकी पैटर्न को समझा, और रघुवीर को बताया: “अगली हत्या कहाँ और कैसे होगी, इसका इशारा इस स्क्रिप्ट में है।”
अध्याय 8: रघुवीर का रहस्य
इंस्पेक्टर रघुवीर पाटिल अपने कैबिन में चुपचाप बैठा उस अधूरी स्क्रिप्ट को पढ़ रहा था, जो संध्या ने “शांताराम नाट्य प्रशिक्षण केंद्र” से लाकर दी थी—“आखिरी दृश्य”। हर पंक्ति उसे जैसे किसी पुराने दरवाज़े की ओर धकेल रही थी, एक ऐसा दरवाज़ा जिसे उसने अपने जीवन में कभी खुलने नहीं दिया था। “सबके नकाब गिरेंगे, पर आखिरी चेहरा मेरा होगा”—इस पंक्ति पर उसकी उंगलियाँ ठहर गईं। उसकी आंखों में अतीत की धुंध उतर आई। कोई नहीं जानता था, लेकिन एक समय में वह भी रंगदीप थिएटर से जुड़ा हुआ था। कॉलेज के दिनों में वह एक अच्छा अभिनेता था—उतना ही भावुक, जितना समीर नायर। और ठीक उसी दौर में उसकी मुलाकात समीर से हुई थी। वे दोनों एक ही नाटक “चौथा परदा” में साथ काम कर रहे थे। पर एक प्रतियोगिता में समीर को रोल मिलने पर रघुवीर को बाहर कर दिया गया था। आकाश ठाकुर ने तब कहा था—“समीर मंच पर जलता है, तुम उसकी परछाई हो।”
रघुवीर ने अभिनय छोड़ पुलिस की राह पकड़ ली। वह मंच से दूर तो हो गया, पर हर क्राइम सीन को आज भी किसी ‘प्रसंग’ की तरह देखता था—हर बयान, हर एविडेंस, उसके लिए एक डायलॉग की तरह होता। जब वह समीर के हत्याओं के पैटर्न को समझ रहा था, तो शायद कहीं ना कहीं उसे यह भी लग रहा था कि ये समीर की नहीं, खुद उसकी अधूरी कथा है। वह जानता था, समीर अभिनय से नहीं, मंच से नहीं, बल्कि अस्वीकृति से टूटा था। एक कलाकार को जब नजरअंदाज किया जाता है, तब वह केवल गुमनामी में नहीं जाता—वह धीरे-धीरे एक और किरदार बन जाता है, जो सिर्फ एक दिन मंच पर लौटकर बाकी सबकी कहानी खत्म करता है।
इसलिए अब रघुवीर ने तय किया—वह सिर्फ पुलिस नहीं रहेगा। वह इस आखिरी अभिनय को उसी भाषा में समझेगा जिसमें समीर सोचता है—नाटक की भाषा में।
उसने संध्या से कहा—”समीर का आखिरी दृश्य क्या कहता है?”
संध्या ने स्क्रिप्ट का अंतिम हिस्सा खोला:
“जब आखिरी अभिनेता मंच पर बचेगा, तब मास्क गिरेगा—और सच्चाई चिल्लाकर कहेगी: मैं ही कथा था।”
रघुवीर चौंक गया। स्क्रिप्ट में सभी कलाकारों की मौत का क्रम वर्णित था—और उसमें एक भूमिका थी: “द साइलेंट ऑब्जर्वर”। स्क्रिप्ट में लिखा था कि वह सब कुछ देखता है, पर कभी मंच पर नहीं आता। संध्या ने ध्यान दिलाया—“ये तुम हो, रघुवीर।”
उस क्षण रघुवीर की आंखों में जो डर था, वो किसी केस का नहीं, बल्कि पहचान का था।
कहीं ये सब समीर ने उसके लिए ही तो नहीं लिखा था?
रघुवीर अब समझ गया था कि नकाबपोश उसे अंत तक ज़िंदा रखना चाहता है—क्योंकि हर नाटक में एक गवाह जरूरी होता है, जो दर्शकों के लिए कहानी को सत्य बनाता है। वह “गवाह” अब सिर्फ पुलिस नहीं था—वह अब एक पात्र बन चुका था, इस खूनी नाटक का एक जरूरी चेहरा।
और ये मास्कपोश अब आखिरी चेहरे के लिए आ रहा था—जिसे वो सबसे अंत में उजागर करेगा।
आकाश ठाकुर, शिवम, और संध्या अब रघुवीर की नज़र में सिर्फ संभावित शिकार नहीं, बल्कि इस स्क्रिप्ट के जीवित किरदार थे।
अध्याय 9: नकाब की दरारें
रंगदीप थिएटर के भीतर सब कुछ अपनी पुरानी जगह पर था—दीवारों पर जड़े मास्क, प्रॉप्स की अलमारियाँ, मंच पर पड़ा वो वही लाल परदा। लेकिन अब हर वस्तु किसी रहस्य की तरह लग रही थी। रघुवीर, संध्या और आकाश ने तय किया कि समीर को बाहर लाने के लिए उन्हें खुद इस “नाटक” को पूरा करना होगा—जैसा उसने अपनी स्क्रिप्ट में लिखा है। “आखिरी दृश्य” का मंचन करने की योजना बनाई गई, लेकिन दर्शकों में आम लोग नहीं, बल्कि सादी वर्दी में पुलिस वाले बैठाए गए। शिवम को मुख्य भूमिका में फिर से उतारा गया—इस बार वह डरा हुआ नहीं, बल्कि चुनौती देने को तैयार था। मंच तैयार था, अभिनय शुरू होने वाला था—और सब जानते थे, आज नकाबपोश जरूर आएगा।
मंचन के बीच, जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ा, साउंड और लाइट्स से सजी संध्या की रिपोर्टिंग की शैली में स्टेज पर सजीवता घुल गई। लेकिन तभी—नाटक के दूसरे भाग में, एक पात्र के डायलॉग के समय, अचानक लाइट्स बंद हो गईं। कुछ सेकेंड के अंधेरे में मंच पर शोर हुआ, और जब स्पॉटलाइट लौटी—तो एक कलाकार मंच पर बेसुध पड़ा था, उसके चेहरे पर वही नकाब। पर कुछ बदला हुआ था—इस बार नकाब टूटा हुआ था। एक कोने से उसका एक हिस्सा गायब था, और भीतर से किसी की आंख झांक रही थी। पुलिस हरकत में आई, लेकिन तब तक नकाबपोश फिर हवा हो गया।
पर यही दरार—नकाब की ये पहली ‘फिजिकल क्रैक’—समीर के मन की दरार का प्रतीक थी।
वो अब डराने नहीं, खुद को उजागर करने लगा था।
रघुवीर ने जब नकाब का टूटा हुआ हिस्सा उठाया, तो उस पर लिखी एक बात ने उसे चौंका दिया—“रघु, तूने भी मुझे नहीं देखा।”
ये वाक्य सिर्फ एक दोस्त की शिकायत नहीं, बल्कि एक सच्चाई की चीख़ थी। समीर जानता था कि रघुवीर ही वो आखिरी व्यक्ति था जिसने उससे अभिनय में प्रतिस्पर्धा की थी, जिसने उसका सबसे गहरा डर जिया था—कि वो कभी ‘मुख्य पात्र’ नहीं बनेगा। संध्या ने तुरंत पुराने फुटेज खंगाले, और एक सीसीटीवी क्लिप में उन्होंने देखा—रंगदीप के एक भूल चुके स्टोररूम में, कोई हर रात आता है, कुछ मिनटों तक मंच की ओर देखता है, फिर वापस अंधेरे में चला जाता है। कैमरा उसकी तस्वीर नहीं पकड़ पाया, लेकिन चाल और कद वही था—समीर नायर।
अब उन्हें यह भी शक था—क्या वो अब भी इंसान है?
या एक अभिनय की आत्मा जो मरने के बाद भी मंच छोड़ने को तैयार नहीं?
आकाश ठाकुर के लिए यह सब किसी आत्मग्लानि से कम नहीं था। उसे याद आया कि समीर की स्क्रिप्ट “आखिरी दृश्य” को उसी ने पहली बार फाड़कर कूड़े में फेंका था—क्योंकि उसे “ज़्यादा गहरा” और “कमर्शियली डार्क” लगा था। लेकिन वह यह नहीं समझ पाया था कि एक कलाकार की सबसे बड़ी पीड़ा यह नहीं कि उसकी रचना न चली, बल्कि यह कि उसे कभी पढ़ा ही नहीं गया। आज समीर उसी रचना को सच्चाई बना रहा है—हर मृत्यु, हर मास्क उसी कहानी का हिस्सा है।
अब सिर्फ एक दृश्य बचा था।
नकाबपोश की आत्मा ने खुद अपने चेहरे पर पहली दरार डाल दी थी।
पर सवाल यह था—क्या अंतिम दृश्य में वो खुद मंच पर आएगा?
या सबके अभिनय के बाद भी वह केवल एक ‘अदृश्य निर्देशक’ बनकर ही रहेगा?
अध्याय 10: आखिरी अभिनय
स्टेज पर सब कुछ तैयार था। रंगदीप थिएटर की भीड़ भले सीमित थी, लेकिन हर आंख, हर सांस, हर परछाईं उस रात एक ही चीज़ का इंतज़ार कर रही थी—नकाबपोश का अंतिम प्रवेश। आकाश ठाकुर, जो वर्षों तक इस मंच के निर्माता और निर्देशक रहे थे, आज खुद मुख्य अभिनेता की तरह बैठे थे। उनके भीतर अपराधबोध, पछतावा और डर एक साथ उमड़ रहा था। रघुवीर और संध्या दर्शकों की भीड़ में निगरानी कर रहे थे, शिवम स्टेज पर पूरी स्क्रिप्ट के हिसाब से संवाद बोल रहा था।
लेकिन सभी जानते थे—आज कोई स्क्रिप्ट पूरी नहीं होगी, क्योंकि आज नाटक नहीं, हकीकत का अंतिम दृश्य खेला जाने वाला था।
चौथा दृश्य चल रहा था, शिवम ने जैसे ही वो संवाद बोला—”जो मंच से निकाला गया, वही मंच को खत्म करेगा”—तभी अचानक स्टेज के ऊपर का परदा फटा। मंच की ऊपरी छत से एक आकृति धीरे-धीरे नीचे उतरी—सफेद कपड़ों में लिपटा हुआ, चेहरे पर वही आधा टूटा मास्क।
नकाबपोश।
मंच, दर्शक, पुलिस—सब एक क्षण के लिए बर्फ हो गए।
नकाबपोश सीधे शिवम की ओर बढ़ा। लेकिन शिवम पीछे नहीं हटा, उसने आंखों में आंखें डाल कर पूछा—“क्या तुम समीर हो?”
कुछ नहीं कहा नकाबपोश ने। उसने जेब से एक कागज निकाला और शिवम को पकड़ाया—वो “आखिरी दृश्य” की वही स्क्रिप्ट थी, पूरी तरह से हाथ से लिखी, खून के धब्बों से सनी हुई। और जैसे ही शिवम ने वो पढ़ी—बत्तियाँ बुझ गईं।
अंधेरे में एक गोली चली। एक चीख़ गूंजी। भीड़ घबराकर उठ खड़ी हुई। जब लाइट वापस आई, नकाबपोश मंच पर गिरा हुआ था। रघुवीर दौड़कर उसके पास पहुँचा—और मास्क को धीरे-धीरे हटाया। चेहरा देखकर सब सन्न रह गए।
वो समीर नायर था—जीवित, थका हुआ, पर शांत।
उसके चेहरे पर कोई क्रोध नहीं, कोई डर नहीं।
केवल एक सुकून। मानो आखिरी दृश्य पूरा हो गया हो।
रघुवीर ने उसके हाथ में वो स्क्रिप्ट देखी—आखिरी पंक्ति अब साफ लिखी थी:
“अब जब सबने मुझे देखा है, मैं अंत में मुक्त हूँ।”
समीर ने मुस्कराकर कहा—”नाटक खत्म नहीं होता… जब तक आखिरी दर्शक न उठ जाए।”
समीर को गिरफ़्तार किया गया, लेकिन कोर्ट में उसने खुद को दोषी नहीं बताया—उसने कहा, “मैंने कोई हत्या नहीं की। मैंने केवल अधूरे अभिनय को पूरा किया।” मेडिकल रिपोर्ट्स में वह मानसिक रूप से अस्थिर घोषित हुआ। पर थिएटर की दुनिया में उसका नाम एक “कहानी” बन चुका था—एक ऐसा कलाकार जो कभी मंच से निकाला गया, पर अंत में मंच को ही अपना अंतिम संवाद बना गया।
आकाश ने रंगदीप छोड़ दिया। वह अब कहीं नहीं दिखा, बस एक बार संध्या को एक चिट्ठी भेजी जिसमें लिखा था:
“मुझे एक बार फिर देखना है—वह दृश्य जो मैंने कभी पढ़ा नहीं, वो चेहरा जिसे मैंने कभी समझा नहीं।”
संध्या ने उस स्क्रिप्ट पर आधारित एक डॉक्युमेंट्री बनाई—“नकाबपोश: आखिरी अभिनेता”, जिसने थिएटर के उस स्याह कोना उजागर किया जहाँ सपनों से ज़्यादा मौन होता है।
और रघुवीर?
उसने फिर कभी कोई केस नहीं लिया। अब वह एक थिएटर स्कूल में ‘अभिनय और अपराध-मनशास्त्र’ पढ़ाता है। कभी-कभी मंच के पीछे जाकर खड़ा होता है… चुपचाप… जैसे कोई दर्शक जो अब मंच का हिस्सा बन गया हो।
समाप्त।




