अन्वेषा सिन्हा
१
निहारिका की दुनिया बहुत सीमित थी—एक पुराना, ऊँची छतওয়ाला कमरा जिसमें मोटे-मोटे परदे हर खिड़की को ढँके रखते थे, और दीवारों पर हल्की नमी और एक अधूरी राग की गूँज बसी रहती थी। दिल्ली के बांग्ला साहिब रोड के पुराने इलाके में स्थित उस मकान की छत पर कभी-कभी धूप उतनी बेधड़क आ जाती कि पर्दे के भीतर भी उसका सुनहरा स्पर्श टपकने लगता, और तब निहारिका की आंखें अनायास सिकुड़ जातीं। उसके पास अपनी पीड़ा का नाम था—”फोटोफोबिया”—एक ऐसा डर जो सिर्फ आंखों से नहीं, भीतर की आत्मा से जुड़ा था। वह उजाले से भागती थी, नहीं चाहती थी कि रोशनी उसे खोलकर रख दे, उसकी दरारों में झाँक ले, और किसी भूले हुए दुख को फिर से जागृत कर दे। दिन के अधिकांश समय वह अपने कमरे में रागों के पीछे भटकती रहती, कभी राग मल्हार की उदासी में भीग जाती, तो कभी शिवरंजनी की कँपकँपी में खुद को समेट लेती। उसके सुरों में ठहराव था, एक ऐसा खालीपन जो किसी पुराने धूप के आँगन को याद करता हो। और फिर हर दिन की तरह, उस दिन भी वह शाम के धुंधलके में पास के पार्क में टहली, लेकिन उस दिन का दृश्य कुछ और ही था।
पार्क की पुरानी पगडंडी पर चलते हुए, निहारिका को पहली बार वह दिखाई दिया—अनय। वह आदमी अकेला बैठा था, पेड़ों की झिरी-झिरी धूप में, अपने कैनवास के सामने पूरी तन्मयता से झुका हुआ। उसके चारों ओर जैसे समय थम गया था—शाम की हल्की रोशनी उसके बालों और अंगुलियों पर पिघल रही थी, और कैनवास पर वह शायद कोई पेड़, कोई दीवार या कोई चेहरा नहीं, बल्कि खुद धूप को ही पकड़ने की कोशिश कर रहा था। निहारिका वहीं कुछ दूर रुक गई। उसे समझ नहीं आया कि वह क्यों रुकी, या किस खिंचाव ने उसे रोक लिया, लेकिन उसकी आंखों में एक अनकहा संगीत बज उठा—वह जो उसने पहले कभी नहीं सुना था। अनय का चेहरा शांत था, पर उसमें एक बेचैनी भी थी—जैसे वह हर रेखा के साथ खुद को खोज रहा हो। वह उसे देखता नहीं था, लेकिन निहारिका को लगा कि वह खुद को उसी नजर से देख रहा है, जिससे वह देखती है—अधूरी, पर गहरी। उस दिन कुछ नहीं कहा गया, पर दोनों की नजरों के बीच जो चुप्पी तैरी, वह एक राग की तरह थी—अनसुनी, लेकिन स्थायी।
अगले कई दिनों तक निहारिका ने उसकी उपस्थिति को एक आदत की तरह महसूस करना शुरू कर दिया—वह धूप में होता, और वह छाया में। वह उसे रोज़ देखती, दूर से, लेकिन कुछ बोलने की हिम्मत नहीं होती। उसने ध्यान दिया कि वह हमेशा धूप में ही चित्र बनाता है—कभी आधे उजाले में भी नहीं। कभी-कभी जब हल्की बदली छा जाती, तो वह अपनी ब्रश रख देता और आकाश की ओर देखने लगता, जैसे सूरज के बिना वह अधूरा है। और तब निहारिका सोचती—कैसा होगा उसका संसार, जिसमें उजाला ही ज़रूरी है? कैसा होगा वो प्रेम, जो सिर्फ प्रकाश में सांस लेता है, और छाया से डरता नहीं? क्या कोई ऐसा भी हो सकता है, जो उसके विपरीत होकर भी उसकी आत्मा को छू सके? ये सारे प्रश्न उसकी धड़कनों में घर करने लगे। और फिर एक शाम, किताबों की एक पुरानी दुकान में दोनों की मुलाकात हो गई—सामने-सामने, धूप और छाया। वह पहली बार उसकी आंखों में सीधे देखती है, और अनय हल्की मुस्कान के साथ कहता है, “तुम्हारी आंखों में कोई राग छुपा है… शायद राग धूप।” निहारिका कुछ नहीं कहती, सिर्फ मुस्कुरा देती है—क्योंकि इतने वर्षों में पहली बार कोई उसकी आंखों में डर नहीं, बल्कि संगीत ढूंढ रहा था।
२
दुकान की उस मुलाकात के बाद कई चीज़ें बदल गईं, कम से कम निहारिका की दुनिया में। वह अब भी अपनी खिड़कियों पर पर्दे खींचे रखती थी, रोशनी से वैसे ही डरती थी, लेकिन अनायास उसका ध्यान अब अक्सर उस आदमी की ओर चला जाता—जिसने बिना अधिक बात किए, उसकी आंखों में एक राग सुन लिया था। अनय नाम था उसका—यह बात उसे किताबों की दुकान वाले अरेबिंद बाबू से पता चली, जिन्होंने मुस्कुराते हुए कहा था, “वो बहुत अजीब है बिटिया, दिन के उजाले में ही पेंट करता है… और सूरज छिपने के बाद किसी से बात तक नहीं करता।” अनय अब उसे अजनबी नहीं लगता था, लेकिन अब भी वह किसी खुली किताब की तरह सामने नहीं था—वह रंगों में बसा एक रहस्य था। निहारिका कई बार चाहती कि उससे बात करे, पूछे कि वह ऐसा क्यों है, लेकिन फिर वह अपने डर में लौट जाती—कहीं उजाला उसे फिर से तोड़ न दे, कहीं वह जो बुन रही है वो अनछुए ही बिखर न जाए। वह अपने संगीत में लौट जाती, पर अब उसमें भी एक अनकहा रंग भर आया था—जैसे सुरों के बीच कोई छाया चल रही हो, कोई अधूरी आकृति जो धूप को समझना चाहती है।
एक दिन देर दोपहर, जब धूप मद्धम पड़ रही थी और बादलों की एक पतली परत आसमान पर फैली थी, निहारिका ने साहस करके पार्क की उसी पगडंडी पर कदम रखा, जहां वह अक्सर अनय को देखती थी। वह वहीं था, बैठा हुआ, लेकिन इस बार वह चित्र नहीं बना रहा था। उसके सामने कैनवास तो था, लेकिन उस पर सिर्फ एक अधूरी रेखा थी—जैसे चित्र आरंभ तो हुआ हो, पर किसी विचार ने उसे बीच में रोक दिया हो। निहारिका कुछ कदम और करीब आई, लेकिन कुछ बोली नहीं। अनय ने उसकी आहट सुनी, लेकिन बिना मुड़े हुए कहा, “आज सूरज छिपा है, इसलिए मैं अधूरा हूँ।” यह वाक्य साधारण नहीं था, उसमें एक निजी दुख की परछाईं थी, और निहारिका ने महसूस किया कि शायद अनय भी उतना ही अकेला है जितना वह। थोड़ी देर बाद वह उसकी बगल में बैठ गई, थोड़ी दूरी बनाकर, और उसकी आंखों में देखे बिना पूछा, “क्या हर रंग को धूप चाहिए?” अनय ने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा, “कुछ रंग सिर्फ उजाले में ही दिखाई देते हैं… जैसे कुछ राग सिर्फ सुबह गाए जाते हैं।” यह वाक्य निहारिका के भीतर तक उतर गया। उन्होंने पहली बार खुलकर बात की—कलाओं की, धूप की, डर की, और स्मृतियों की। अनय ने कहा, “मैं कभी छाया में चित्र नहीं बनाता, वहां रंग झूठ बोलते हैं।” निहारिका ने उसकी बात को चुपचाप ग्रहण किया—क्योंकि वह खुद छाया में जीती थी, और वही उसकी सच्चाई थी।
बातचीत का वह क्षण किसी संगीत की तरह अंत में शांत हो गया, लेकिन उसका कंपन भीतर रह गया। निहारिका जानती थी कि यह कोई साधारण परिचय नहीं था—यह कोई धीरे-धीरे खुलती खिड़की थी, जो शायद धूप को अंदर आने दे सकती है, अगर वह खुद चाहे। दो दिन बाद, अनय ने उसे एक छोटा निमंत्रण दिया—उसने कहा, “कल मेरे स्टूडियो आना, तुम्हें एक चित्र दिखाना है।” लेकिन समय था—सुबह ग्यारह बजे। निहारिका के लिए यह चुनौती थी, भय और संभावना का मेल। क्या वह उस उजाले में जाएगी? क्या वह उस दुनिया का हिस्सा बन पाएगी जो अब तक उसे डराती रही? लेकिन भीतर कहीं कोई सुर बजा—शायद राग बिहाग की तरह मधुर और साहसी। उसने सिर हिलाया—स्वीकृति में। उस रात वह सो नहीं सकी, खिड़की के पर्दे थोड़े सरका दिए, और पहली बार चाँदनी उसके कमरे की दीवार पर ठहरी रही। उसने अपनी आंखों को खुला रखा—जैसे देखना सीख रही हो। अगली सुबह, पहली बार, वह धूप में बाहर निकलने की तैयारी कर रही थी।
३
निहारिका सुबह जल्दी उठ गई थी, लेकिन वह उठना किसी नींद से नहीं, बल्कि किसी बहुत पुराने भय से बाहर आने जैसा था। वह खिड़की के पर्दे की दरार से झाँक रही थी—धूप धीरे-धीरे आँगन पर उतर रही थी, जैसे पीतल के घुंघरू किसी थके राग में चुपचाप खनक रहे हों। उसकी आंखें अभी भी उस उजाले से डरती थीं, लेकिन आज उनमें एक अजीब सी उत्सुकता थी—एक ऐसा आग्रह जो वर्षों से जमा भय के ऊपर पंख फैला रहा था। उसने आंखों पर हल्के रंग का चश्मा लगाया, स्कार्फ को सिर पर ढका, और आत्मा को जैसे कसकर बाँध लिया—क्योंकि आज उसे उस आदमी से मिलने जाना था, जो रेखाओं में धूप की भाषा पढ़ता था। वह रास्ते भर खुद से सवाल करती रही: “क्या वह मेरी आँखों की छाया देख पाएगा? क्या मैं उसके रंगों को समझ पाऊँगी?” स्टूडियो की इमारत एक पुराना हवेलीनुमा ढाँचा था—ऊँची छतें, लकड़ी के दरवाज़े, और हर ओर रौशनी की परतें। सीढ़ियाँ चढ़ते समय उसे हर रोशन खिड़की एक चुनौती जैसी लगी। लेकिन जब वह अंतिम मोड़ पर पहुँची, तो सामने का दरवाज़ा पहले से खुला था—जैसे कोई उसका इंतज़ार कर रहा हो।
अनय ने उसे बिना किसी औपचारिकता के अंदर बुलाया। उसकी आवाज़ में शांति थी—वह किसी शिक्षक की तरह नहीं, बल्कि किसी पुराने परिचित की तरह बात कर रहा था। कमरे में चारों ओर धूप बिखरी हुई थी—कैनवास, ब्रश, स्केचबुक, सब उस उजाले में जैसे नहा रहे थे। लेकिन कोने में एक सफेद कैनवास अकेला खड़ा था—उस पर कोई रंग नहीं, कोई आकृति नहीं, बस एक हल्की पेंसिल रेखा, जो ऊपर से नीचे तक खिंची थी। अनय ने उसकी ओर इशारा किया, “ये तुम्हारे लिए है।” निहारिका कुछ बोल नहीं सकी। उसने धीरे से पूछा, “पर ये तो अधूरा है?” अनय मुस्कुराया, “क्योंकि तुम अब तक धूप से दूर थी। मैं तुम्हारी छाया देखना चाहता था—बिना किसी चेहरे के।” फिर उसने उसे बैठने को कहा, और धीरे-धीरे स्केच बनाना शुरू किया—लेकिन उसकी दृष्टि निहारिका के चेहरे पर नहीं, उसके चारों ओर फैलती छाया पर थी। यह अजीब था, अजनबी-सा, पर निहारिका ने खुद को विचलित नहीं होने दिया। उसने खुद को उन रेखाओं में बहने दिया, जो अनय उसके इर्द-गिर्द खींच रहा था। जैसे उसकी पहचान अब किसी चित्र की परत में बँध रही थी—न चेहरा, न मुस्कान, सिर्फ एक उपस्थिति। उस क्षण, उसने पहली बार महसूस किया कि उजाला उसे नष्ट नहीं कर रहा, बल्कि उकेर रहा है।
स्केच पूरा होते ही अनय कुछ देर शांत रहा, फिर चित्र को दीवार से टिकाकर पीछे हट गया। “देखो, यह तुम हो,” उसने कहा। निहारिका ने उस चित्र को देखा—वह कोई स्पष्ट आकृति नहीं थी, पर उसमें एक झलक थी, एक छाया जो दीवार से निकलकर मानो धूप की रेखाओं में घुल गई थी। वह खुद को उस चित्र में पहचान नहीं सकी, लेकिन उसे लगा जैसे वह वहाँ है—बिना किसी सांचे के, बिना किसी मुखौटे के। “तुम्हारी धूप शायद तुम्हारी परछाईं में ही छिपी है,” अनय ने कहा, और कमरे में एक मौन फैल गया—गहरा, लेकिन मधुर। उस दिन, निहारिका वापस लौटी तो उसकी चाल कुछ धीमी थी, पर मन पहले से कहीं ज़्यादा हल्का। उसे पहली बार लगा कि शायद उजाले से डरना ज़रूरी नहीं है—कभी-कभी धूप भी हमारे सबसे छुपे राग को पहचान सकती है। और जब वह घर पहुँची, तो खिड़की का पर्दा थोड़ा खुला छोड़ दिया—जैसे कोई वादा कर रही हो, अगले दिन फिर लौटने का।
४
अगली सुबह की धूप औरों से कुछ अलग थी—तेज़, तीखी और झुलसाने वाली नहीं, बल्कि एक उत्सुक बच्चे की तरह खिड़की पर दस्तक दे रही थी। निहारिका जब उठी, तो सबसे पहले उसने वही पर्दा देखा, जिसे पिछली शाम वह अधखुला छोड़ आई थी। धूप उसकी तकिये की चादर पर एक हल्का टुकड़ा छोड़ गई थी, जैसे कोई मौन निमंत्रण हो—कल जो शुरू हुआ, वह अधूरा नहीं रहना चाहिए। अनय ने जाते-जाते कहा था, “कल फिर आओ, इस बार मैं तुम्हें रंग दिखाऊँगा… वो जो तुमने अपने भीतर छुपा रखे हैं।” निहारिका अब भी उस वाक्य में डूबी हुई थी। उसने कभी नहीं सोचा था कि कोई उसके भीतर छुपे रंगों को पहचान पाएगा—वह तो खुद उन्हें भूल चुकी थी। लेकिन अनय ने न सिर्फ देखा, बल्कि उन्हें अपनी रेखाओं में जगह दी। यही कारण था कि आज वह फिर जा रही थी, एक बार फिर धूप के करीब, और शायद खुद के भी। उसने अपने स्कार्फ को ठीक किया, अपनी आंखों पर फिर वही हलका चश्मा चढ़ाया, और एक बार फिर अपने डर को ललकारा। रास्ता अब उतना कठिन नहीं लग रहा था—शायद इसलिए क्योंकि मंज़िल में अब कोई इंतज़ार कर रहा था।
अनय का स्टूडियो आज और भी उजला था—कमरे की दीवारों पर ढेरों कैनवास लगे थे, और हर कैनवास पर धूप की छाया इस तरह फैली थी जैसे रंग खुद चमक रहे हों। निहारिका चुपचाप भीतर दाखिल हुई, और अनय ने बिना किसी भूमिका के उसे एक चित्र के सामने खड़ा किया। चित्र में एक लड़की थी—उसका चेहरा अस्पष्ट, लेकिन उसकी आंखों से निकलती रेखाएं रंगों में बदल रही थीं। पृष्ठभूमि में हल्की धूप और मध्यम छाया का मिश्रण था—जैसे वह लड़की कहीं दो दुनियाओं के बीच टिकी हो। “ये क्या है?” निहारिका ने धीमे स्वर में पूछा। “ये तुम्हारा संगीत है,” अनय ने कहा। “मैंने तुम्हारी आवाज़ को रंगों में सुना है। हर राग जो तुमने गाया, उसने कोई रंग चुना।” निहारिका अवाक रह गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि उसका गाया संगीत किसी चित्र का आधार बन सकता है। लेकिन चित्र उसकी आत्मा को छू रहा था, जैसे वह जानता हो कि वह किस दर्द में जीती है, किस भय से भागती है, और किस छाया में वह अब तक अपने रागों को पालती आई है।
कुछ देर बाद, अनय ने एक नया कैनवास निकाला और कहा, “आज मैं नहीं, तुम रंग भरोगी।” यह अप्रत्याशित था। “मैं?” वह हिचकी। “मैंने कभी ब्रश तक नहीं उठाया।” अनय मुस्कराया, “और मैंने कभी राग नहीं गाया… लेकिन तुम्हारे संगीत ने मुझे चित्र बनाना सिखाया। अब तुम भी अपने डर को रंगो से जीत सकती हो।” वह उसे धीरे-धीरे रंग थमा देता है—गुलाबी, हल्का नीला, केसरिया। “तुम्हारे भीतर धूप है निहारिका… बस वो तुम्हें दिखे, इसके लिए तुम्हें खुद उसे बाहर लाना होगा।” यह वाक्य किसी मंत्र की तरह भीतर उतर गया। निहारिका ने धीरे से ब्रश उठाया, हाथ काँप रहे थे, पर आत्मा स्थिर थी। पहली बार, उसने खुद को उजाले में कुछ रचते हुए देखा। उसके हाथ से बना पहला आड़ा ब्रश-स्ट्रोक कोई रूप नहीं बनाता, लेकिन वह जैसे भीतर की दीवार तोड़ देता है। वह ब्रश चलाती रही, और कमरा जैसे उसकी साँसों के साथ गूँजने लगा। अनय कुछ नहीं बोला, बस पीछे खड़ा रहा—जैसे वह जानता था, यह यात्रा अब उसकी नहीं, निहारिका की है। जब वह लौटी, तो उसका चेहरा थोड़ा थका हुआ था, आंखें थोड़ी नम… पर वह मुस्कुरा रही थी। आज पहली बार, उसकी आंखों में धूप चुभ नहीं रही थी—वो उसमें घुल गई थी।
५
उस दिन के बाद निहारिका जैसे कुछ बदल गई थी। अब वह हर सुबह दरवाज़े की दरार से झाँककर देखती थी कि धूप कितनी तीखी है—नफरत से नहीं, जिज्ञासा से। वह अपने भीतर पहली बार उजाले को महसूस कर रही थी—नर्म, धीमा, और आत्मीय। संगीत अब उसके लिए केवल राग नहीं रहा था, वह अब हर रंग में, हर ध्वनि में खुद को ढूँढने लगी थी। और अनय? वह अब भी वैसा ही था—कम बोलने वाला, लेकिन उसकी आँखों में अब हर बार मिलने पर एक नई गहराई होती, जैसे हर दिन वह उसे थोड़ा और समझने लगा हो। एक सुबह उसने निहारिका को अपने स्टूडियो बुलाया, कुछ असहज संकोच के साथ। “आज मैं तुम्हारी परछाईं बनाना चाहता हूँ,” उसने कहा। यह अजीब-सा अनुरोध था। “मेरा चेहरा नहीं?” निहारिका ने पूछा। “नहीं, सिर्फ तुम्हारी परछाईं… क्योंकि शायद वहीं वो हिस्सा है जिसे तुम सबसे ज़्यादा छुपाना चाहती हो।” निहारिका कुछ पल चुप रही—यह वाक्य सीधे उसकी आत्मा में लगा। वो हिस्सा जो वो कभी सामने नहीं लाती, जो धूप से डरता है, जो रोशनी में खुद को खो देने से घबराता है—उसे अगर कोई चित्रित करना चाहता है, तो क्या वह तैयार है?
स्टूडियो के कोने में एक सफेद दीवार पर वह खड़ी थी, उसके पीछे एक बड़ी खिड़की से धीमी धूप भीतर आ रही थी, और अनय ने उसकी परछाईं को कैनवास पर उतारना शुरू किया। यह अनुभव अजीब था—निहारिका वहाँ मौजूद थी, लेकिन चित्र उसके बिना था, बस उसकी छाया थी, लंबी, स्थिर, और सधी हुई। चित्र बनते-बनते निहारिका को अपना पुराना घर याद आया—वह कमरा, जिसमें खिड़की के बाहर बरगद का पेड़ था, और जिस पर कभी-कभी दोपहर की धूप आ गिरती थी। वह बचपन का दृश्य था जब उसकी माँ ने उसे पहली बार कहा था, “धूप में मत जाया कर, तुझे नज़र लग जाएगी।” शायद वहीं से यह डर शुरू हुआ था—उजाले से, खुलने से, दिख जाने से। अनय की ब्रश चलती रही, और निहारिका की यादें उसके भीतर बहती रहीं—जैसे हर रेखा किसी एक दबे पल को बाहर निकाल रही हो। अनय ने बिना कुछ कहे उसकी परछाईं को विस्तार दिया—उसकी झुकी गर्दन, उसके शरीर की मद्धम झलक, और सबसे अंत में, उसकी आंखों से गिरती एक रेखा—एक आँसू की तरह, पर धूप में सूखती हुई।
जब चित्र पूरा हुआ, तो निहारिका ने उसे देखा—वह वहाँ नहीं थी, पर फिर भी थी। वह चित्र, उसकी छाया, उसका डर—सब वहाँ मौजूद थे। यह चित्र सुन्दर नहीं था, यह सच्चा था। “ये मैं हूँ?” उसने धीमे से पूछा। “तुम्हारी वह परत, जिसे तुम खुद से भी छुपाती हो,” अनय ने उत्तर दिया। निहारिका की आंखें भर आईं, लेकिन वह हँसी—एक हल्की, टूटती हँसी। “शायद अब मैं खुद को देख सकती हूँ… बिना चश्मे के, बिना पर्दों के,” वह बोली। वह पहली बार किसी चित्र में खुद को देखकर डर नहीं रही थी—उसे स्वीकार कर रही थी। स्टूडियो से लौटते समय वह एक पुरानी दीवार के सामने रुक गई, जिस पर धूप से एक लहरदार परछाईं बनी हुई थी। उसने अपनी हथेली फैलाई और देखा कि उसकी उंगलियों की छाया दीवार पर थिरक रही है। और उस पल उसने पहली बार महसूस किया—छाया भी धूप का ही हिस्सा होती है।
६
उसके बाद के दिनों में जैसे दोनों की दुनिया एक-दूसरे की परिधियों में शामिल होने लगी। निहारिका अब अनय के स्टूडियो में अधिक समय बिताने लगी थी—कभी चुपचाप बैठी, उसकी चित्रकारी को देखती, तो कभी अपनी राग-संगीत की डायरी में कुछ नई बंदिशें जोड़ती। अनय को उसका संगीत किसी पवित्र जादू जैसा लगता—कोई ऐसा स्पर्श जो रंगों को सांस देना जानता हो। एक दिन जब वह एक कैनवास पर हल्के पीले रंग से किसी सूर्यास्त को पकड़ने की कोशिश कर रहा था, निहारिका ने अचानक राग भीमपलासी गाना शुरू किया—धीमे, गहरे, और बेहद आत्मीय सुरों में। अनय की ब्रश थम गई। वह कुछ नहीं बोला, बस चुपचाप उसे सुनता रहा, जैसे रेखाओं के पार भी कोई गूंज उसे अपने भीतर खींच रही हो। संगीत और रंग उस पल एक हो गए थे—सरीले और निर्बाध। जब निहारिका गाना खत्म कर चुकी थी, अनय ने कहा, “अगर कभी धूप की भी कोई आवाज़ होती… तो शायद यही होती।” वह मुस्कुरा दी। उन्होंने उस दिन तय किया—अब से वे साथ मिलकर एक नई श्रृंखला बनाएँगे, एक ऐसा साझा प्रोजेक्ट जिसमें रागों के रंग और रंगों के सुर एक-दूसरे से मिलें।
इस साझेदारी में एक अनोखी लय थी—निहारिका सुबह कोई विशेष राग गाती, और अनय उसी राग के आधार पर एक चित्र बनाता। जैसे राग मारवा के लिए उन्होंने केवल केसरिया, राखी और स्लेटी रंगों का प्रयोग किया—उसमें संध्या का अवसाद और आने वाली रात की व्याकुलता थी। वहीं राग देश पर बने चित्र में हल्की फुहारें थीं, नर्म हरी लकीरें और छतरी की तरह फैली नीली छाया। निहारिका ने पहली बार देखा कि उसका संगीत किसी और की कला में इतना गहराई से प्रवेश कर सकता है। और अनय? वह कहता था कि उसके चित्रों में अब एक आवाज़ आ गई है—एक लय, जो पहले कभी नहीं थी। यह साझेदारी अब केवल कला नहीं रही, यह एक संवाद बन गई थी—उसके और निहारिका के बीच, उजाले और छाया के बीच। एक दिन अनय ने मज़ाक में कहा, “तुम्हारे सुर अब मेरे रंग चुराने लगे हैं।” निहारिका ने जवाब दिया, “और तुम्हारे रंग मेरे सुरों में छिपे मौन को खोलने लगे हैं।” दोनों हँस पड़े, लेकिन उन्हें पता था, यह हँसी सिर्फ मज़ाक नहीं थी—यह दो टूटे लोगों के जुड़ने की नमी थी।
एक शाम दोनों छत पर बैठे थे—आसमान में सूरज अस्त हो रहा था, और हल्की सुनहरी किरणें चारों ओर फैल रही थीं। निहारिका ने धीरे से चश्मा उतारा, और पहली बार बिना किसी परदे या बाधा के सूरज को देखा। उसकी आंखों में हल्की नमी थी, पर कोई तकलीफ़ नहीं। “क्या तुम हमेशा ऐसे ही उजाले में जीते हो?” उसने पूछा। अनय ने कहा, “नहीं… मैं उजाले से बातें करता हूँ, लेकिन उसमें जीना अब सीख रहा हूँ… शायद तुम्हारे साथ।” निहारिका चुप रही। उसने महसूस किया कि उसका डर अब एक आदत नहीं रहा, बल्कि एक पुराना अंश था, जिसे अब वह पहचानती है, पर उससे बंधी नहीं। उसी क्षण उसने एक नया राग गाना शुरू किया—राग जोग—धीरे-धीरे, जैसे एक आत्मा खुद से बोल रही हो। अनय ने उसकी ओर देखा—सूरज की आखिरी किरण उसके चेहरे पर पड़ी थी, और वह धूप के साथ गा रही थी। उस दिन, धूप और सुर, रंग और छाया—सब मिलकर एक नया राग रच रहे थे, जिसका नाम शायद दोनों ही नहीं जानते थे… पर वह प्यार के किसी बहुत गहरे रंग में लिखा जा चुका था।
७
वह सुबह जैसे हर आम सुबह की तरह थी—हल्की धूप, खामोश कमरा, और निहारिका की अलमारी में रखी संगीत की डायरी पर पड़ी धूल की पतली परत। लेकिन इस सुबह में एक चुप्पी ज़्यादा गहरी थी। अनय ने पिछले दो दिन से कोई संदेश नहीं भेजा था, न कोई कॉल, न किसी कैनवास की तस्वीर, न कोई छोटा-सा मज़ाक जिसमें वह कहता, “तुम्हारे सुर मेरे रंग छीन ले गए।” पहले दिन निहारिका ने सोचा होगा व्यस्त होगा, दूसरे दिन लगा होगा शायद किसी चित्र में डूबा है। लेकिन तीसरे दिन, जब वह खुद उसके स्टूडियो पहुँची और दरवाज़ा खोलने पर देखा कि पूरा कमरा धूल में डूबा पड़ा है—तो एक सिहरन उसके भीतर दौड़ गई। रंग बिखरे थे, ब्रश सूखे हुए, और कोने में पड़ी कुर्सी खाली। जैसे कोई अचानक सब कुछ अधूरा छोड़कर चला गया हो। भीतर की एक मेज़ पर उसकी पुरानी स्केचबुक रखी थी—वह जो वह किसी को छूने नहीं देता था। लेकिन आज वो खुली थी… और उसमें एक अधूरी चिट्ठी पड़ी थी, निहारिका के नाम।
उस पत्र में लिखा था—
“अगर मैं लौटकर न आ सकूं, तो समझना कि मैंने तुम्हारी परछाईं में अपनी आखिरी धूप को समेट लिया था। कभी अगर खुद से मिलने की इच्छा हो, तो मेरी अधूरी पेंटिंग पूरी करना। वह जिसमें तुम्हारी आंखें अब तक रिक्त हैं—क्योंकि मैंने उन्हें कभी देख नहीं पाया, सिर्फ महसूस किया।”
नीचे किसी जगह का नाम लिखा था—”पिपलिया घाट, उज्जैन के पास।”
निहारिका देर तक उस पत्र को थामे बैठी रही—उसकी आंखों में कोई आँसू नहीं थे, पर एक ऐसी बेचैनी थी, जो किसी लय को थाम नहीं पा रही थी। उसने स्टूडियो की दीवार पर निगाह डाली—वहाँ एक चित्र टँगा था, अधूरा, अनगिनत रंगों की उलझन में डूबा हुआ। चित्र में एक स्त्री की आकृति थी—चेहरा अस्पष्ट, और उसकी आंखें पूरी तरह रिक्त—सफेद कैनवास पर दो खाली वृत्त, जो जैसे देखने के लिए बने हों, पर देख ही न सकें। यह वही पेंटिंग थी, जिसका ज़िक्र पत्र में था। अनय अब कहाँ गया, क्यों गया—इसका कोई उत्तर नहीं था। लेकिन यह चित्र, यह चिट्ठी… और वह रिक्त आंखें निहारिका को खींच रही थीं। ऐसा लग रहा था जैसे वह उससे कह रही हों—“तुम्हें चलना होगा, देखना होगा।”
उस रात निहारिका ने खुद से पहली बार कहा—”मैं उजाले में जाऊँगी। अकेली।”
अगली सुबह वह ट्रेन में थी—उज्जैन के रास्ते पिपलिया घाट की ओर। पहली बार, धूप उसकी आंखों पर बिना स्कार्फ के पड़ी, और उसने खुद को उससे नहीं छुपाया। रास्ते भर उसकी हथेलियों में स्केचबुक की चिट्ठी की सिलवटें महसूस होती रहीं, और मन में उस अधूरी पेंटिंग की आंखें तैरती रहीं। उसका डर अब भी था, लेकिन पहली बार वह डर उसकी दिशा नहीं तय कर रहा था—उसकी इच्छा कर रही थी। शायद यह प्रेम नहीं था, या शायद था ही केवल प्रेम—जिसमें कोई दूसरे को ढूंढने नहीं, खुद को पूर्ण करने निकलता है। और जैसे हर राग की एक अंतर्निहित पीड़ा होती है, वैसे ही हर रंग की एक अधूरी प्यास होती है। उस दिन, निहारिका सिर्फ अनय को नहीं ढूँढ रही थी—वह उस हिस्से को ढूंढ रही थी, जो कभी उजाले से भागता था, लेकिन अब उसकी तलाश में निकल पड़ा था।
८
पिपलिया घाट तक का रास्ता धूलभरा था—ट्रेन के बाद की लोकल बसें, फिर एक जीप, और अंत में एक ऊबड़-खाबड़ पगडंडी जो किसी पुराने समय की तरह सन्नाटे में डूबी थी। निहारिका के कदम थके हुए थे, पर भीतर की कोई ऊर्जा उसे पीछे लौटने नहीं दे रही थी। चारों ओर पीले सरसों के खेत फैले थे, हवा में गाय की घंटियों की टुन-टुनाहट, और कहीं दूर मंदिर की घंटियाँ धीमे स्वर में गूंज रही थीं। पिपलिया घाट नाम की यह जगह अब भी समय से अनछुई थी—और शायद अनय की स्मृतियाँ भी यहीं कहीं धूप में दबकर बसी थीं। गांववालों से पूछताछ करते हुए वह एक पुराने मकान तक पहुँची—मिट्टी की दीवारें, और खिड़की से छनकर आती सूरज की लकीरें। वहीं बैठी थी एक वृद्धा—अनय की मौसी, जो वर्षों से उसी घर में रहती थीं। उन्होंने निहारिका को देखा और चुपचाप उसे भीतर बुला लिया, जैसे उसका आना पहले ही तय हो।
मौसी ने बहुत कम शब्दों में अनय की कहानी कही—उसकी मां का जल्दी चले जाना, एक लंबी बीमारी, और सूरज की ओर उसका अजीब आकर्षण। “बचपन में वो धूप में लेटा रहता था… कहता था, मां की गंध सूरज में बसती है।” उसकी मां मरने से पहले एक बात कह गई थी, जो अनय कभी भूल नहीं पाया: “अगर कभी तू मुझे याद करे, तो धूप में मेरी छाया देख लेना।” शायद वहीं से शुरू हुई थी उसकी उजाले की लत—हर चित्र, हर रेखा, उसकी मां की स्मृति से जुड़ी हुई। निहारिका चुप रही—अब उसे समझ आने लगा था कि अनय की कला सिर्फ सौंदर्य नहीं थी, वह स्मृति की राख से बनी एक अस्थि-चित्र थी, जिसमें हर रंग, हर ब्रश-स्ट्रोक, उसकी मां को ढूंढने का एक तरीका था। मौसी ने उसे वह पुराना स्टूडियो दिखाया—जिसके पीछे एक बगीचा था, जहाँ अनय धूप में बैठकर स्केच बनाता था। वहाँ एक पत्थर की चौकी थी, और उस पर खींची गईं थीं कुछ अधूरी रेखाएँ—शायद आखिरी बार अनय यहीं बैठा था, और यहीं धूप में उसकी माँ से कोई चुप्पी साझा की थी।
उस शाम निहारिका उस बगीचे में देर तक बैठी रही। उसने स्केचबुक खोली, अनय की अधूरी पेंटिंग निकाली, और एक टॉर्च की मदद से आंखों के उन रिक्त वृत्तों पर रोशनी डाली। उसने पहली बार खुद से पूछा—क्या मैं उन आंखों को पूरा कर सकती हूँ? क्या मैं उसके प्रेम की अधूरी भाषा में अपना स्वर जोड़ सकती हूँ? तभी उसे याद आया राग तोड़ी—एक सुबह गाया जाने वाला राग, जिसमें विरह की पीड़ा होती है, लेकिन वह कभी पूर्ण दुख में नहीं डूबता—उसमें आशा की एक पतली रेखा हमेशा जलती रहती है। उसने धीमे-धीमे गुनगुनाना शुरू किया—ठीक वहीं, धूप से गरम हुई ज़मीन पर, अनय के अधूरे स्केच के सामने। और फिर, पहली बार, उसने रंग उठाया। कोई चित्रकार नहीं थी वह, पर उस प्रेम की वारिस थी जिसने उसे खुद को पार करने की शक्ति दी। उसने धीरे से पेंटब्रश को आँखों की रेखाओं पर चलाया—हल्का केसरिया, थोड़ा धूसर, और एक बहुत ही महीन, हरेपन की छाया। और जब वह ब्रश रखने लगी, उसे लगा जैसे उसकी ही आंखों में कोई आंसू आकर जम गया हो—नम, लेकिन जलता हुआ। क्योंकि वह जानती थी, यह प्रेम अब केवल प्रतीक्षा नहीं था, यह क्रिया बन चुका था—एक अग्नि, जो जलती है… लेकिन उजाला भी देती है।
९
तीन दिन बीत चुके थे पिपलिया घाट में, और हर दिन निहारिका को अनय की अनुपस्थिति में उसकी उपस्थिति और भी घनी लगती थी। वह उसकी स्केचबुक में डूबी रहती, अधूरी रेखाओं को पढ़ती, हर कैनवास को जैसे कोई राग की तरह समझने की कोशिश करती। लेकिन चौथे दिन सुबह, जब वह पुराने बगीचे में बैठी थी, उसकी पीठ पीछे से किसी की आहट आई—धीमी, संकोची, जैसे कोई लौटना चाहता हो लेकिन यकीन नहीं हो रहा हो कि उसे स्वीकार किया जाएगा। निहारिका ने धीरे से पलटकर देखा—अनय था। धूल भरे कुर्ते में, बाल बिखरे हुए, आँखों के नीचे हल्के साये, लेकिन उसकी आँखों में वही शांति थी… वही उजाला, जो निहारिका को कभी भयभीत करता था और अब जैसे उसे सहला रहा था। दोनों कुछ पल चुप रहे। फिर अनय ने धीरे से कहा, “मैं भागा नहीं था… बस खुद को टुकड़ों में बिखरा देख रहा था… और जब तुमने मेरी परछाईं को पूरा किया, मैं लौट आया।” निहारिका ने जवाब नहीं दिया—बस उसकी ओर देखा, और उस पेंटिंग की ओर इशारा किया जिसमें आंखें अब रिक्त नहीं थीं।
वे दोनों उस दोपहर एक साथ बैठे—पहली बार, न एक चित्रकार और न एक गायिका होकर, बल्कि दो ऐसे लोग बनकर जो एक-दूसरे की भाषा को महसूस करते थे। अनय ने उस पेंटिंग को देखा—जिसे निहारिका ने अधूरे कैनवास पर पूरा किया था—और उसकी आंखों में कुछ भर आया। “तुमने मेरी मां की आंखों को पहचान लिया…” उसने कहा, और निहारिका के हाथ थाम लिए। फिर दोनों ने मिलकर एक नया कैनवास निकाला। यह वह अंतिम चित्र होना था, जिसमें कोई रेखा अधूरी न रहे, कोई रंग केवल एक ओर न झुके। वे दोनों साथ बैठकर चित्र बनाने लगे—निहारिका की आवाज़ में राग यमन गूंज रहा था, और अनय की ब्रश उस राग की बंदिश को रंगों में पिरो रही थी। इस पेंटिंग में न निहारिका का चेहरा था, न अनय का… बल्कि उसमें केवल दो आकृतियाँ थीं—एक छाया और एक उजाला—जो हाथ थामे एक पेड़ की छांव में बैठे थे, और उनके पीछे एक खुली खिड़की से धूप के टुकड़े भीतर आ रहे थे। यह चित्र प्रेम नहीं कहता था, वह प्रेम को जीता था।
जब चित्र पूरा हुआ, दोनों ने कुछ नहीं कहा—केवल देर तक उसे देखा। फिर निहारिका ने पूछा, “अब जब सब पूरा हो गया है, क्या तुम कभी फिर से भागोगे?” अनय ने सिर हिलाया, “अब नहीं… अब जब मैं जानता हूँ कि मेरी परछाईं में कोई संगीत है, और तुम्हारी धूप में कोई रेखा।” उस शाम पिपलिया घाट की पहाड़ियों पर बैठकर उन्होंने सूरज को धीरे-धीरे अस्त होते देखा, और निहारिका की आंखों में अब कोई चश्मा नहीं था। वह उजाले को सीधा देख रही थी, मुस्कान के साथ। उसने खुद को देखना सीख लिया था—धूप के टुकड़ों में, और उस प्रेम की रेखाओं में जो अब सिर्फ किसी कैनवास पर नहीं, उसके जीवन में था।
१०
काफी दिनों की मेहनत और अनगिनत रंगों की गूँज के बाद, निहारिका और अनय का वह अंतिम चित्र आखिरकार एक छोटी सी आर्ट गैलरी की दीवार पर टंगा हुआ था। गैलरी में घुसते ही लोगों की निगाहें उस चित्र पर ठहर जातीं—जिसमें छाया और उजाला हाथों में हाथ डाले, एक दूसरे के करीब, एक पत्ते के नीचे खड़े थे, और उनके बीच धूप के टुकड़े जैसे कोई सुनहरी किरणें बरस रही हों। कई लोग कुछ समझ पाते, तो कई बस उस ताजगी और सुकून में खो जाते। निहारिका और अनय दोनों भी वहीं थे—निहारिका एक कोने में खड़ी, आंखों में चमक के साथ, और अनय उसके पास चुपचाप खड़ा। पर इस बार कुछ अलग था—निहारिका ने आज पहली बार बिना चश्मे के, बिना पर्दे के, सीधे उजाले की ओर देखा था। वह उस उजाले को स्वीकार कर रही थी, जो कभी उसका डर था। गैलरी में लगी उस पेंटिंग ने न सिर्फ उनके प्रेम की कहानी सुनाई, बल्कि यह भी बताया कि कैसे डर, छाया और उजाले को जोड़कर सुंदरता बनाई जा सकती है।
समारोह के अंत में जब निहारिका मंच पर आई, तो पूरे माहौल में एक नर्म, लेकिन गहरी ख़ामोशी छा गई। उसने अपने गले में लगे हार से माइक लिया, और अपने दिल के सबसे अंदरूनी सुरों को बाहर आने दिया—राग भैरव की मधुर, शांत, लेकिन शक्तिशाली तान। उसकी आवाज़ गैलरी की हर दीवार से टकरा रही थी, हर चित्र के पीछे छुपी भावनाओं को जागृत कर रही थी। वह पहले कभी इस तरह से नहीं गा पाई थी—ना छिपते हुए, ना डरते हुए। आज वह पूरे उजाले में थी, और उसके सुरों के रंग दर्शकों के दिलों को छू रहे थे। अनय की नजरें उसकी ओर थीं, और निहारिका जानती थी कि अब उनकी कहानी सिर्फ दो दिलों की नहीं रही—यह उन तमाम धूप के टुकड़ों की थी जो कहीं अंधेरों में दबे थे, पर अब बाहर निकलने को तैयार थे।
गाने के खत्म होते ही, पूरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी। निहारिका ने मुस्कुरा कर अनय की ओर देखा, और उसकी आंखों में वही चमक देखी—जिसने उसे उस पहले दिन पार्क में छिपी धूप जैसी जादू भरी मुस्कान दी थी। इस कहानी का अंत नहीं था, बल्कि एक नई शुरुआत थी—जहाँ छाया और उजाला, भय और प्रेम, कला और संगीत एक साथ चलने लगे थे। और निहारिका ने जान लिया था कि असली धूप वह नहीं, जो आंखों को चुभती है, बल्कि वह है जो दिल को रोशन करती है। धूप की आंखें, अब पूरी तरह खुली थीं।
-समाप्त-