Hindi - फिक्शन कहानी

धुंध में सिंहासन

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अनिरुद्ध तिवारी


भाग १: खामोशी की हलचल

धरणपुर की सुबहें शांत होती थीं—कम से कम बाहर से देखने पर। लेकिन जो लोग सत्ता के गलियारों में रहते थे, उन्हें मालूम था कि यहां की चुप्पी अक्सर किसी तूफान से पहले की खामोशी होती है। चुनाव छह महीने दूर थे, पर मुख्यमंत्री सुरेश राजे का चेहरा जैसे पहले ही हार मान चुका था। काले घेरे उनकी आंखों के नीचे गहराते जा रहे थे और पार्टी के भीतर बगावत की आवाज़ें तेज़ होने लगी थीं।

इसी बीच धरणपुर के जिला कलेक्टर राघव त्रिपाठी को एक गुप्त चिट्ठी मिली। सफेद लिफाफा, बिना किसी नाम या मोहर के। अंदर सिर्फ एक लाइन—“रामगढ़ के पास की झील में कुछ दफ़न है, जो धरणपुर की सत्ता को हिला देगा।”

राघव पढ़ते ही सिहर उठे। उनके पिता, जो एक समय खुद विधायक रह चुके थे, उन्हें हमेशा कहते थे—“धरणपुर की राजनीति में जितना दिखता है, उससे ज्यादा छिपा होता है।” और अब ये चिट्ठी… क्या किसी ने उन्हें चेतावनी दी थी, या कोई साजिश का हिस्सा बनाना चाहता था?

वो सीधे रामगढ़ झील पहुंचे, दो पुलिसकर्मियों के साथ। झील शांत थी, जैसे सदियों से सो रही हो। पर एक कोने में, जहां कीचड़ ज्यादा था, कुछ अजीब सा दिखा। खुदाई करवाई गई, और वहां से निकला एक लोहे का बक्सा—जंग खाया हुआ, भारी और अजीब ढंग से बंद।

बक्सा थाने लाया गया और जब खोला गया, तो सबकी सांसे थम गईं। अंदर थे ढेर सारे दस्तावेज़—पुराने फोटोग्राफ, नोटबुक्स, और एक फ्लैश ड्राइव। एक तस्वीर में मुख्यमंत्री सुरेश राजे थे—पर ये तस्वीर उनकी किसी चुनावी रैली की नहीं थी। वो किसी अज्ञात कमरे में एक व्यक्ति के साथ खड़े थे, जो एक कुख्यात माओवादी नेता के रूप में पहचाना गया।

फ्लैश ड्राइव में थे कुछ वीडियो क्लिप्स—जिनमें सुरेश राजे को गुप्त मीटिंग्स में देखा जा सकता था, जहां वे अवैध खनन और हथियारों के लेन-देन पर चर्चा कर रहे थे। राघव समझ गए, ये सिर्फ किसी साजिश का हिस्सा नहीं था—ये था सत्ता के शीर्ष पर बैठे एक आदमी का कच्चा चिट्ठा।

पर सवाल ये था—किसने भेजा? क्यों अब? और क्या वे इसे उजागर कर सकते हैं, बिना खुद को खतरे में डाले?

राघव ने अपने विश्वस्त पत्रकार मित्र, सिया सक्सेना, से संपर्क किया। सिया तेज़, निर्भीक और कटाक्ष करने वाली पत्रकार थी। जब उसने दस्तावेज़ देखे, उसकी आंखें चमक उठीं—“ये तो टाइम बम है, राघव। पर इसे फोड़ा कैसे जाए, ये हमें सोचना होगा।”

उसी रात, धरणपुर की विधान सभा के सामने एक कार ब्लास्ट हुआ। मरने वाला कोई आम आदमी नहीं था—वो था नवीन व्यास, मुख्यमंत्री का निजी सचिव। पुलिस ने इसे आतंकी हमला बताया, पर राघव को शक था कि ये ब्लैकमेल और सबूत मिटाने की शुरुआत थी।

उधर, मुख्यमंत्री सुरेश राजे ने गुप्त बैठक बुलाई। सिर्फ चार लोग आमंत्रित थे—उनके सबसे करीबी सहयोगी, जिन पर उन्हें पूरी तरह भरोसा था। लेकिन कमरे में कैमरे और माइक्रोफोन पहले से फिट थे। और वो सारा फीड पहुंच रहा था उसी इंसान के पास, जिसने चिट्ठी भेजी थी।

इस खेल में प्यादे बहुत थे—पर राजा सिर्फ एक था। और कोई छाया में बैठा उस राजा को हिलाने की योजना बना रहा था।

भाग २: परदे के पीछे की आग

धरणपुर की रातें अब पहले जैसी नहीं रही थीं। नवीन व्यास की मौत ने पूरे जिले में खलबली मचा दी थी। मीडिया में इसे आतंकी हमला बताया जा रहा था, पर कुछ पत्रकारों की नजरें गहराई से खोजबीन कर रही थीं। सिया सक्सेना उन्हीं में से एक थी।

सिया अपने न्यूज़रूम में बैठी वीडियो क्लिप्स की समीक्षा कर रही थी। फ्लैश ड्राइव में एक क्लिप था, जिसमें सुरेश राजे और नवीन व्यास किसी अंधेरे कमरे में बैठे हथियारों की खेप के बारे में बात कर रहे थे। दोनों के चेहरे गंभीर थे, और बैकग्राउंड में एक आवाज़ सुनाई दे रही थी—”पैकेज कल रात ही पहुंच गया, बस पुलिस से नजरें बचानी होंगी।”

“ये सिर्फ भ्रष्टाचार नहीं, राष्ट्रद्रोह है,” सिया बुदबुदाई। उसने तुरंत राघव को फोन मिलाया।

“हमें इसे बाहर लाना होगा,” उसने कहा।

“समझता हूं,” राघव ने जवाब दिया, “लेकिन अगर एक सचिव को दिनदहाड़े उड़ा दिया गया है, तो हम दोनों के लिए भी खतरा कम नहीं है।”

दूसरी ओर मुख्यमंत्री सुरेश राजे ने अपने राजनीतिक सलाहकारों के साथ रातभर मीटिंग की। उन्होंने साफ शब्दों में कहा, “हमें जल्द ही एक बलि का बकरा चाहिए—कोई ऐसा चेहरा जिसपर इल्ज़ाम डालकर हम जनता का ध्यान भटका सकें।”

उनकी नजरें रुकीं अपने युवा और महत्वाकांक्षी विधायक, विक्रम भंडारी पर। विक्रम, जो अपनी तेज़ बुद्धि और जनता में पकड़ के लिए जाना जाता था, अचानक उनके लिए खतरा बन गया था।

“अगर विक्रम कल पार्टी से निलंबित होता है, तो मीडिया उसी की खबर चलाएगा,” मुख्यमंत्री बोले, “बाकी हम निपट लेंगे।”

इधर, राघव और सिया ने फैसला किया कि मीडिया को धीरे-धीरे जानकारी दी जाएगी। सिया ने अगले दिन एक लेख छापा—“धरणपुर की राजनीति में छिपी परछाइयाँ।” उसमें किसी का नाम नहीं था, लेकिन इशारे इतने स्पष्ट थे कि जानकार लोग समझ गए कि निशाना किस पर है।

इस लेख के छपते ही, मुख्यमंत्री के बंगले में हड़कंप मच गया।

“ये लड़की बहुत बोल रही है,” एक अधिकारी ने फुसफुसाते हुए कहा।

“चुप करवा दो,” सुरेश राजे ने ठंडे स्वर में कहा, “हमेशा के लिए।”

उसी रात, सिया के घर के बाहर एक बाइक रुकती है। दो नकाबपोश युवक नीचे उतरते हैं। एक के हाथ में पेट्रोल की बोतल, दूसरे के पास माचिस। लेकिन जैसे ही वो बोतल उछालने ही वाला था, एक तेज़ सायरन की आवाज़ गूंजती है। पुलिस की जीप वहाँ आकर रुकती है, और दोनों भाग जाते हैं।

“मैंने पहले ही ऐहतियातन सुरक्षा बढ़वा दी थी,” राघव ने सिया को मैसेज किया।

सिया को एहसास हुआ, ये अब व्यक्तिगत हो गया है। अब सिर्फ सत्ता की बात नहीं, बल्कि ज़िंदगी की जंग बन चुकी थी।

अगली सुबह, पार्टी प्रवक्ता ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और विक्रम भंडारी के ऊपर अनुशासनहीनता और ‘पार्टी विरोधी गतिविधियों’ का आरोप लगाकर निलंबन की घोषणा कर दी।

विक्रम हैरान था। उसने अपने करीबी को फोन मिलाया, “मुझे बलि का बकरा बनाया जा रहा है। पर अब मैं चुप नहीं रहूंगा।”

उसने अपने पास जमा कुछ दस्तावेज़ निकाले, जो सुरेश राजे की योजनाओं को और गहरा उजागर कर सकते थे।

अब मैदान में एक और खिलाड़ी कूद चुका था—और उसके पास भी कुछ ऐसा था जो सिंहासन की नींव हिला सकता था।

धरणपुर की राजनीति अब सुलग रही थी। कोई चुपचाप धुएं में घी डाल रहा था।
और खेल अभी शुरू ही हुआ था…

भाग ३: दस्तावेज़ों की धमक

विक्रम भंडारी के लिए ये निलंबन सिर्फ एक राजनीतिक झटका नहीं था, ये था धोखे का चाबुक। जिसने उसे पाला, सिखाया, सत्ता की सीढ़ियों तक पहुंचाया—उसी ने उसे धकेल दिया अंधेरे में। लेकिन विक्रम जानता था, वो सिर्फ मोहरा नहीं था। उसके पास ऐसे दस्तावेज़ थे जो खुद मुख्यमंत्री को कटघरे में खड़ा कर सकते थे।

उसने अपने बचपन के दोस्त और वकील, प्रतीक नागर से संपर्क किया। प्रतीक कभी राजनीति में आना चाहता था, लेकिन कानून में उसकी पकड़ इतनी मजबूत थी कि उसे अपना रास्ता मिल गया। विक्रम ने जब सबूतों का पुलिंदा सामने रखा, प्रतीक कुछ पल चुप रहा—फिर बोला, “अगर ये सही हैं, तो सुरेश राजे सिर्फ सीएम की कुर्सी ही नहीं, शायद आज़ादी भी खो देंगे।”

उधर सिया सक्सेना ने एक विशेष कॉलम की तैयारी शुरू कर दी थी—एक एक्सपोज़े जो धरणपुर की नींव हिला सकता था। पर उसका नेटवर्क उसे आगाह कर रहा था—“सिया, बहुत गहरे जा रही हो, बहुत तेज़ी से।”

लेकिन सिया का जवाब एक ही था—“अगर हम डरेंगे तो सच बोलेगा कौन?”

उसी रात, धरणपुर के पुराने कलेक्टरेट भवन के पीछे एक गाड़ी धीमे से रुकी। दो नकाबपोश लोग उतरे और एक पुरानी दीवार के नीचे कुछ गाड़ने लगे। शायद दस्तावेज़ों को छुपाने की कोशिश, या शायद कुछ ऐसा जो कोई देख ना पाए। लेकिन किसी ने देख लिया—एक बूढ़ा चायवाला, जो वहां सालों से दुकान लगाता था।

“रात में खुदाई? कुछ तो गड़बड़ है,” उसने मन ही मन सोचा, और अगले दिन सीधे थाने पहुंच गया।

राघव त्रिपाठी को ये सूचना मिली तो उसका दिमाग दौड़ गया। उसी झील के पास, फिर से खुदाई? क्या ये भी किसी बड़े राज़ का हिस्सा था?

वो टीम लेकर पहुंचा, और खुदाई शुरू करवाई। इस बार निकली एक पुरानी डायरी—जिसमें तारीखें, नाम, खनन साइट्स और पैसे के लेन-देन की सूची थी। और हर पन्ने के अंत में एक हस्ताक्षर—“V.B.” यानी विक्रम भंडारी।

राघव उलझन में था। विक्रम तो दावा कर रहा था कि वो सुरेश राजे की साजिश का शिकार है, लेकिन ये डायरी तो उसके खिलाफ थी। क्या ये सबूत असली थे, या मुख्यमंत्री की एक नई चाल?

राघव ने सिया को फोन किया—“हमें जल्दी मिलना होगा, ये खेल अब तीन तरफा हो गया है।”

सिया आई, दस्तावेज़ देखे, और बोली, “ये सबूत विक्रम के खिलाफ लगाए गए हैं, पर हस्ताक्षर नकली हो सकते हैं। अगर राजे को लगा कि विक्रम के पास असली दस्तावेज़ हैं, तो उसे फंसाने की कोशिश की जा सकती है।”

अब तीन मोहरे सामने थे—मुख्यमंत्री सुरेश राजे, बागी विधायक विक्रम भंडारी, और सच का पीछा करती सिया। लेकिन पर्दे के पीछे कोई और था—जो इन तीनों को अपने हिसाब से मोड़ रहा था।

उसी शाम, एक और धमाका हुआ—पर इस बार फिजिकल नहीं, डिजिटल। एक गुमनाम ईमेल सिया के पास पहुंचा। विषय था—“The Real Game Begins Now।” और अटैचमेंट में था एक वीडियो—मुख्यमंत्री और एक केंद्रीय मंत्री के बीच की बातचीत, जिसमें खुलेआम चुनाव फंड के गलत इस्तेमाल की बात हो रही थी।

सिया काँप उठी। ये तो सिर्फ धरणपुर नहीं, दिल्ली तक की नींव हिला सकता था।

उधर, सुरेश राजे को पता चला कि कोई भीतर से उन्हें धोखा दे रहा है। उसने अपने सबसे करीबी आदमी—हिंदाल मीणा को बुलाया। “किसी भी कीमत पर पता करो, ये वीडियो बाहर कैसे पहुंचा,” उसने कहा।

अब सिर्फ बयान नहीं, बंदूकें भी सामने आने लगी थीं।

धरणपुर अब सुलगने नहीं, जलने को तैयार था।
असली खेल अब शुरू हो रहा था…

भाग ४: शिकार और शिकारी

धरणपुर की हवाओं में अब सिर्फ गर्मी नहीं, बारूद की गंध भी घुल चुकी थी। हर अखबार, हर चैनल सिया सक्सेना की रिपोर्ट का इंतजार कर रहा था। लेकिन सिया जानती थी, सिर्फ रिपोर्ट छापना काफी नहीं होगा—उसे बचकर भी रहना होगा।

दूसरी ओर, मुख्यमंत्री सुरेश राजे की परेशानी बढ़ती जा रही थी। उनके कानों में अब हर आवाज़ साजिश जैसी लगती थी। उनकी आंखों में हर चेहरा संदेहास्पद। उन्होंने हिंदाल मीणा को खुलेआम निर्देश दे दिया था—“जिसने भी वीडियो भेजा, उसे जिंदा या मुर्दा—but I want a name.”

हिंदाल, एक पूर्व सेना अधिकारी, अब मुख्यमंत्री का छाया सैनिक बन चुका था। वो जानता था कि इस लड़ाई में नैतिकता की कोई जगह नहीं थी। उसने सबसे पहले शक की सुई सिया और राघव पर टिकाई।

वहीं राघव त्रिपाठी ने अपने ऑफिस में सिया और विक्रम को बुलाया। तीनों के सामने अब वो डायरी, वीडियो, और फ्लैश ड्राइव थी। एक टेबल पर सच बिखरा पड़ा था, लेकिन कौन किस पर भरोसा करे—ये तय करना मुश्किल हो गया था।

“अगर ये वीडियो बाहर गया, तो सिर्फ मुख्यमंत्री नहीं, पूरा सिस्टम डूब जाएगा,” विक्रम बोला।

“तो क्या हम रुक जाएं? डर के मारे सच छिपा लें?” सिया ने तीखे लहजे में पूछा।

राघव ने बीच में कहा, “हमारी सुरक्षा भी ज़रूरी है। सिस्टम को हिलाना है, मगर खुद को मिटाकर नहीं।”

उसी रात, राघव के घर के बाहर अजीब सी हलचल हुई। एक बाइक वाला उसकी कार के नीचे कोई डिवाइस लगा गया। सुबह जब राघव गाड़ी स्टार्ट करने वाला था, उसके ड्राइवर ने नीचे कुछ चमकती चीज़ देखी। पुलिस आई, और पाया कि वो एक रिमोट एक्टिवेटेड बम था।

राघव समझ गया, अब पीछे हटने का कोई विकल्प नहीं था। ये सिर्फ दस्तावेज़ों की लड़ाई नहीं रह गई थी—ये अब जान की कीमत पर सच कहने का इम्तिहान बन चुका था।

इधर, हिंदाल मीणा को एक सूत्र ने खबर दी—“विक्रम के पास एक दूसरा पेनड्राइव भी है, जो उसने छुपाकर रखा है। वो शायद दिल्ली भेजने की तैयारी में है।”

हिंदाल ने तुरंत एक टीम भेजी। विक्रम की कोठी पर छापा पड़ा, लेकिन वो पहले ही निकल चुका था—सिया की मदद से।

दोनों अब एक पुराने गेस्टहाउस में छिपे थे। बाहर पुलिस की गाड़ियां घूम रही थीं। मोबाइल नेटवर्क बंद था। इंटरनेट कटा हुआ। लेकिन उनके पास एक आखिरी हथियार था—एक सेटेलाइट इंटरनेट डिवाइस, जिसे सिया आपातकालीन समय के लिए लायी थी।

विक्रम ने पेनड्राइव प्लग किया और वीडियो को एक सुरक्षित सर्वर पर अपलोड कर दिया। साथ में एक शेड्यूल सेट किया गया—अगर अगली सुबह तक सिया या विक्रम ने सर्वर से लॉगिन नहीं किया, तो वीडियो अपने आप देश के १५ प्रमुख मीडिया हाउस को ईमेल हो जाएगा।

“अब हमारे मरने से भी कुछ नहीं रुकेगा,” विक्रम बोला। उसकी आंखों में पहली बार संतोष दिखा।

लेकिन तभी दरवाजे पर धमाका हुआ।

“खोलो! पुलिस!” एक रौबीली आवाज़ गूंजी।

“हमारी कहानी अभी खत्म नहीं हुई है,” सिया ने कहा और लैपटॉप बंद किया।

वो जानती थी—अब जो होने वाला है, वो सिर्फ सत्ता की नहीं, आत्मा की लड़ाई थी।

भाग ५: बंद दरवाज़ों के पीछे

गेस्टहाउस की दीवारें कांप रही थीं। पुलिस का धमाका इतना तेज़ था कि कमरे में रखी पुरानी लकड़ी की अलमारी खुद ही डगमगाने लगी। सिया और विक्रम, जो अभी कुछ मिनट पहले तक सिस्टम को झकझोरने की तैयारी कर रहे थे, अब खुद को बचाने की जद्दोजहद में फंस चुके थे।

सिया ने तुरंत लैपटॉप और सेटेलाइट डिवाइस को एक छोटे से बैग में डाला, और खिड़की की ओर इशारा किया। “पीछे से निकलना होगा। सामने से अगर गए, तो जिंदा नहीं बचेंगे।”

गेस्टहाउस के पीछे एक पुराना किचन गेट था, जिसे शायद सालों से खोला नहीं गया था। दोनों ने मिलकर उसे धक्का दिया—जंग लगी कुंडी कराहती हुई खुली, और वे पीछे के खेतों में भाग निकले।

उधर, पुलिस कमरे में घुसी। उन्हें खाली चाय के कप, एक चालू पड़ा पंखा और दीवार पर लटकती गांधीजी की पुरानी तस्वीर के सिवा कुछ नहीं मिला।

हिंदाल मीणा को जब खबर मिली कि शिकार फिर फिसल गया, उसने फोन तोड़ा और गुस्से में कहा—“अब बहुत हुआ। अगली बार खुद जाऊंगा।”

रात के अंधेरे में, सिया और विक्रम एक खेत के किनारे बैठे सांस ले रहे थे। सिया ने बैग से डिवाइस निकाली, देखा—अपलोड ८५% तक पहुंच चुका था। “बस कुछ और मिनट,” उसने फुसफुसाते हुए कहा।

विक्रम की आंखें झील सी शांत थीं। “मुझे नहीं लगा था कि राजनीति से बाहर निकलकर ये रास्ता पकड़ना पड़ेगा। पर शायद ये ही असली रास्ता है।”

उसी समय, दिल्ली में एक और दृश्य चल रहा था। केंद्रीय मंत्री अरुण आहूजा अपने ऑफिस में बैठे सिगार पी रहे थे। उन्हें वीडियो की भनक लग चुकी थी। उन्होंने एक गुप्त कॉल किया—“धरणपुर अब हमारे लिए रिस्क बन चुका है। ऑपरेशन ‘मास्क’ शुरू कर दो।”

ऑपरेशन ‘मास्क’—एक योजना जिसमें मीडिया में फर्जी खबरों का जाल बिछाकर असली मुद्दों को दबा दिया जाता था। अगले ही दिन, हर चैनल पर चलने लगा—“विक्रम भंडारी पर देशद्रोह का आरोप, आतंकी संपर्क की जांच शुरू।”

सिया और राघव एक दूसरे से फोन पर जुड़े रहे, लगातार लोकेशन बदलते हुए। लेकिन तभी एक कॉल आया जिसने सबको झकझोर दिया—“प्रतीक नागर को किडनैप कर लिया गया है।”

विक्रम चौंक गया। “प्रतीक? लेकिन क्यों?”

राघव ने जवाब दिया, “वो तुम्हारा सबसे करीबी है, और उन्होंने उसे ही मोहरा बना लिया।”

अब शर्तें बदल रही थीं। अब ये सिर्फ डेटा का खेल नहीं था—अब दिल, रिश्ता और ज़िंदगी दांव पर थी।

विक्रम ने एक निर्णय लिया। “मैं खुद जाऊंगा। प्रतीक को छुड़ाना होगा। जो होगा देखा जाएगा।”

सिया ने उसका हाथ पकड़ा। “अगर तुम गए, तो खुद को खो दोगे। ये वो लोग हैं जो इंसान नहीं, परछाइयों से लड़ते हैं।”

विक्रम की आंखों में आग थी। “और मैं अब परछाई नहीं, आग बनना चाहता हूं।”

इधर मुख्यमंत्री सुरेश राजे को एहसास हो गया था कि जाल बहुत टेढ़ा हो गया है। उन्होंने एक नई मीटिंग बुलाई—इस बार सिर्फ दो लोग थे कमरे में—सुरेश राजे और हिंदाल मीणा।

“वक़्त आ गया है कि बचे हुए सबूतों को जलाया जाए,” सुरेश ने कहा।

“और जो लोग सबूत हैं?” हिंदाल ने पूछा।

मुख्यमंत्री का चेहरा पत्थर जैसा हो गया। “उन्हें भी।”

धरणपुर अब किसी नक्शे का हिस्सा नहीं रहा था। वो अब एक रणभूमि बन चुका था—जहां सच, झूठ और खून का रंग एक जैसा दिखने लगा था।

भाग ६: आग के घेरे में

धरणपुर की गलियों में अब अजीब सा सन्नाटा था। पहले जहां शाम को पान की दुकान पर बहसें होती थीं, अब वहां डर पसरा हुआ था। लोग आंखें चुराकर चलते थे, अखबार जल्दी पढ़कर फेंक देते थे। क्योंकि अब हर खबर में बारूद था।

विक्रम भंडारी, जिसने कभी सत्ता की सीढ़ी चढ़ी थी, अब अंडरग्राउंड था। उसके पास अब कोई गाड़ी, बंगला या सुरक्षाकर्मी नहीं था—बस एक पेनड्राइव, जिसमें वो सच था जो एक शासन को गिरा सकता था।

सिया सक्सेना ने तय कर लिया था—अगर अगली सुबह तक कुछ नहीं हुआ, तो वह खुद प्रेस क्लब में प्रेस कॉन्फ्रेंस करेगी। लेकिन उससे पहले प्रतीक को बचाना था, और वो आसान नहीं था।

राघव त्रिपाठी ने अपने एक पुराने पुलिस संपर्क से पता लगाया कि प्रतीक को एक पुरानी जेलनुमा फार्महाउस में रखा गया है, जो धरणपुर से पंद्रह किलोमीटर दूर है। फार्महाउस मुख्यमंत्री के एक रिश्तेदार के नाम पर रजिस्टर्ड था—एक और कड़ी जुड़ गई।

“हमें खुद जाना होगा,” विक्रम ने कहा। सिया विरोध में थी। “ये कोई फिल्म नहीं है विक्रम। अगर हम गए तो जिंदा नहीं लौटेंगे।”

“अगर हम नहीं गए, तो कल हम खुद खबर बन जाएंगे,” उसने जवाब दिया।

रात के दो बजे, एक जीप फार्महाउस की ओर बढ़ी। अंदर विक्रम, सिया और राघव थे। जीप बिना हेडलाइट के, खेतों के रास्ते से चली। उनके पास सिर्फ एक मैप, एक पिस्तौल और ढेर सारा हौसला था।

उधर फार्महाउस में प्रतीक को एक कुर्सी से बांधा गया था। उसका चेहरा सूजा हुआ था, होंठ फटे हुए। लेकिन आंखों में अब भी गुस्सा था।

हिंदाल मीणा वहां खुद पहुंचा।

“तू बहुत जानता है प्रतीक,” वो बोला। “अब भूलना शुरू कर दे, नहीं तो तेरी आखिरी सांस भी गवाही बन जाएगी।”

पर तभी फार्महाउस के पीछे एक विस्फोट हुआ—छोटा लेकिन ध्यान भटकाने वाला। राघव ने ध्यान भटका कर सुरक्षाकर्मियों को बाहर निकाला और विक्रम खिड़की से अंदर घुसा।

मिनटों के भीतर, विक्रम ने प्रतीक की रस्सियां काट दीं।

“चल, यहां से निकलते हैं।”

“पर ये सबूत?” प्रतीक ने पिटे हुए स्वर में पूछा।

“तेरी जान सबसे बड़ा सबूत है अभी,” विक्रम ने कहा।

बाहर राघव और सिया इंतज़ार कर रहे थे। सभी खेतों के रास्ते से वापस भागे। लेकिन जब वे मुख्य सड़क पर पहुंचे, तो सामने एक एसयूवी आकर रुकी। अंदर से उतरे हथियारबंद लोग। उनमें सबसे आगे था हिंदाल मीणा।

“खेल खत्म,” उसने कहा।

लेकिन उसी वक्त पीछे से पुलिस की गाड़ियों का काफिला आ पहुंचा—नीली बत्तियों के साथ। राघव ने पहले ही अलर्ट कर दिया था। इंस्पेक्टर सरीन ने तुरंत चारों ओर घेराबंदी की और हिंदाल और उसके आदमियों को गिरफ्तार कर लिया।

“काफ़ी रात कर दी आप लोगों ने,” सरीन ने मुस्कराकर कहा।

हिंदाल को ले जाया गया। लेकिन उसकी आंखों में कोई पछतावा नहीं था। सिर्फ एक ठंडी चेतावनी—“जो सच को जगाता है, उसे नींद कभी नहीं मिलती।”

वापसी में, सिया ने पेनड्राइव को देखा। “अब ये सामने जाएगा। कल सुबह प्रेस क्लब में।”

विक्रम ने आसमान की ओर देखा—सुबह होने वाली थी। लेकिन धरणपुर की ये सुबह कैसी होगी, कोई नहीं जानता था।

भाग ७: उजाले से पहले की रात

धरणपुर की सुबह हर बार की तरह नहीं थी। ये सुबह थी एक तूफ़ान के पहले की शांति जैसी—बिलकुल चुप, मगर भीतर से कांपती हुई। प्रेस क्लब के बाहर मीडिया वैनों की लाइन लग चुकी थी, कैमरे सेट हो रहे थे, और हर पत्रकार की आंखों में एक सवाल था—क्या आज कोई सरकार गिरेगी?

विक्रम, सिया और प्रतीक—तीनों प्रेस क्लब के पीछे एक छोटे से कमरे में बैठे थे। मेज़ पर पड़ी पेनड्राइव अब बस एक उपकरण नहीं, एक आग थी। सिया ने गहरी सांस ली और कहा, “ये सिर्फ करियर या खबर नहीं, ये वक़्त है जब सच बोलने की कीमत चुकानी पड़ती है।”

विक्रम कुछ पल चुप रहा, फिर मुस्कराया, “अगर आज हम गिरे, तो कम से कम खड़े होकर गिरेंगे।”

दोपहर ठीक बारह बजे सिया ने माइक संभाला। हॉल खचाखच भरा था। कैमरे चालू थे। वो कुछ पलों तक चुप रही, फिर कहा, “धरणपुर सिर्फ एक जिला नहीं, ये एक आईना है—जिसमें हम सबको झांकना चाहिए।”

उसने वीडियो प्ले किया—सुरेश राजे और केंद्रीय मंत्री अरुण आहूजा की बातचीत, जिसमें पैसे, बंदूकें और चुनावी हेराफेरी की योजनाएं खुल कर सामने आईं। फिर दूसरे वीडियो, जिसमें राजे की मुलाकात माओवादी सरगनाओं से हो रही थी। और अंत में वो दस्तावेज़—डायरी की स्कैन कॉपी, बैंक ट्रांसफर डिटेल्स और कॉल रिकॉर्डिंग्स।

पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया। किसी ने खांसी तक नहीं की। जैसे सच ने सबको जड़ कर दिया हो।

प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म होते ही सोशल मीडिया पर भूचाल आ गया। #धरणपुरसत्य #राजेप्रकट जैसे हैशटैग ट्रेंड करने लगे। न्यूज़ चैनल्स में हेडलाइन चली—“मुख्यमंत्री की कुर्सी डगमगाई”, “धरणपुर से दिल्ली तक हिल गई सत्ता।”

उधर, मुख्यमंत्री सुरेश राजे अपने बंगले में टीवी के सामने बैठा था। चेहरा पीला, होंठ सूखे। उसके पास अब कोई फोन नहीं बज रहा था। कोई मंत्री नहीं आ रहा था। वो जान गया था—खेल उसके हाथ से निकल चुका है।

उसने धीरे से अपनी जेब से एक पुराना लॉकेट निकाला। उसमें उसकी मां की तस्वीर थी। वो बुदबुदाया, “तुमने कहा था बेटा, राजनीति सेवा है। मैंने उसे व्यापार बना दिया।”

दोपहर होते-होते राज्यपाल भवन से राजे का इस्तीफा मांगा गया। पार्टी आलाकमान ने बयान जारी किया—“पार्टी की छवि बचाने के लिए कठोर कदम ज़रूरी हैं।”

लेकिन बात सिर्फ इस्तीफे तक सीमित नहीं रही। ईडी, सीबीआई और इनकम टैक्स की टीमों ने उनके घरों, दफ्तरों और सहयोगियों पर छापे मारने शुरू कर दिए।

सिया अपने ऑफिस लौटी तो उसके सहकर्मियों ने तालियों से स्वागत किया। लेकिन उसकी आंखों में खुशी नहीं, एक थकावट थी—वो थकावट जो तब आती है जब कोई युद्ध खत्म हो जाए।

विक्रम ने प्रतीक के कंधे पर हाथ रखा। “तेरे बिना मैं शायद हिम्मत ही नहीं जुटा पाता।”

प्रतीक मुस्कराया, “और तेरे बिना मैं ज़िंदा नहीं होता।”

पर ये कहानी अभी पूरी नहीं हुई थी।

रात के अंधेरे में एक SUV एक सुनसान सड़क पर तेज़ी से जा रही थी। ड्राइवर ने फोन पर कहा—“फेज़ टू शुरू करने का आदेश मिल गया है।”

फोन के दूसरे छोर से आवाज़ आई—“राजे गया, लेकिन धरणपुर अभी जिंदा है। और जिंदा है उसकी भूख—सत्ता की।”

धरणपुर का सिंहासन खाली हो चुका था,
लेकिन जो उसे पाने निकले थे…
वो कहीं और ज्यादा खतरनाक थे।

भाग ८: सिंहासन के नए दावेदार

धरणपुर की सड़कें अब शांत थीं, लेकिन उस शांति में कुछ खुरदुरा था। जैसे हर दीवार के पीछे कोई कान लगाए बैठा हो, जैसे हर खामोशी में कोई सौदा चल रहा हो। मुख्यमंत्री सुरेश राजे अब एक गुमनाम बंगले में नज़रबंद थे, और जनता को लगा कि तूफान गुजर चुका है।

लेकिन सत्ता कभी खाली नहीं रहती। सिंहासन का ताज जैसे ही ज़मीन पर गिरा, कई हाथ उसकी ओर लपके—कुछ सफेदपोश, कुछ छायाओं में छिपे हुए।

पार्टी ने अंतरिम मुख्यमंत्री के तौर पर वरिष्ठ नेता बालकृष्ण माथुर को नियुक्त किया। बालकृष्ण एक शांत चेहरा, लेकिन भीतर से उतना ही चतुर और भूखा। प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कहा, “हम जनता की भावनाओं का सम्मान करते हैं। जो भी दोषी हैं, उन पर कार्रवाई होगी।”

लेकिन उस रात, उन्होंने दिल्ली के एक गुप्त चैनल से संपर्क किया और कहा, “अब धरणपुर को नई स्क्रिप्ट चाहिए। एक नई कहानी। और उसमें हीरो मैं होऊंगा।”

सिया सक्सेना ने सब कुछ देखा, लेकिन रिपोर्ट नहीं किया। अब वो खुद को किसी जीत का हिस्सा नहीं समझ रही थी, बल्कि एक चक्रव्यूह में फंसी अर्जुन की तरह महसूस कर रही थी।

“हमने एक भ्रष्ट को गिराया, पर क्या अगला उससे बेहतर होगा?” उसने खुद से पूछा।

उधर विक्रम भंडारी को अब नायक के रूप में देखा जाने लगा। उसकी फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हो रही थी—‘सत्य का योद्धा’, ‘धरणपुर का सच्चा बेटा’। लेकिन विक्रम जानता था, ये चमक स्थायी नहीं होती।

राघव त्रिपाठी ने उसे समझाया, “अब जब तू हीरो बन गया है, तो लोग तुझसे चमत्कार की उम्मीद करेंगे। एक भी गलती, और वही लोग तुझे राक्षस बना देंगे।”

“तब क्या करूं?” विक्रम ने पूछा।

“राजनीति में लौटो,” राघव ने कहा। “लेकिन इस बार अपने नियमों से।”

सिया ने ये सुना और भीतर तक कांप गई। “क्या तुम भी उसी कुर्सी के पीछे जाओगे, जिसके लिए तुम्हारा इस्तेमाल हुआ?”

विक्रम की आंखों में अजीब सा संयम था। “सिया, अगर सही लोग पीछे हट जाएंगे, तो बचेगा कौन?”

इसी बीच, प्रतीक को एक अजीब मेल आया—एक अनजान आईडी से। उसमें सिर्फ दो लाइनें थीं—
“राजे सिर्फ चेहरा था। असली खिलाड़ी अभी जिंदा है।”
“देखो, तुम्हारे पीछे कौन खड़ा है।”

प्रतीक ने जैसे ही मेल ट्रेस करने की कोशिश की, स्क्रीन ब्लैक हो गई। और तभी बाहर गेट पर एक काली गाड़ी आकर रुकी।

“गाड़ी में कौन है?” राघव ने पूछा।

एक लंबा आदमी उतरा, सफेद कुर्ता, नीला नेहरू जैकेट, और आंखों पर काला चश्मा।

“मेरा नाम अविनाश जोशी है,” उसने कहा। “मैं सीबीआई से नहीं हूं, न पार्टी से। मैं बस एक बात बताने आया हूं—ये कहानी जहां आपने खत्म की, वहीं से असली कहानी शुरू होती है।”

सब चुप हो गए।

“आप तीनों अब मोहरे नहीं हैं। आप तीनों अब खिलाड़ी हैं। और खिलाड़ी को खुद तय करना होता है—वो राजा बनेगा, या राक्षस।”

धरणपुर का खेल बदल चुका था।

कुर्सी अब भी खाली थी।
लेकिन अब उसे पाने की होड़ में…
सच और झूठ की शक्ल एक जैसी होने लगी थी।

भाग ९: चेहरों के पीछे की सत्ता

धरणपुर की दीवारों पर अब नए पोस्टर चिपकने लगे थे। एक ओर विक्रम भंडारी की मुस्कराती तस्वीर के साथ नारा—”युवा नेतृत्व, नया रास्ता।” दूसरी ओर बालकृष्ण माथुर का शांत, अनुभवजन्य चेहरा—”विश्वास की विरासत।” लेकिन इन पोस्टरों के नीचे, दीवारों की दरारों में जो लिखा था, वो कोई नहीं पढ़ पा रहा था।

प्रेस, जनता, पार्टी—हर कोई इन दो चेहरों के बीच सत्ता की नई जंग को देखने में व्यस्त था। लेकिन अविनाश जोशी की वह एक लाइन अब तक गूंज रही थी—“राजे सिर्फ चेहरा था।”

सिया ने उस रात अपनी नोटबुक में लिखा—“हम किसे उजागर कर रहे हैं? चेहरे को, या व्यवस्था को?”
विक्रम उसके पास आया, बोला, “मैं चुनाव लड़ने जा रहा हूं। लेकिन तुम्हारी सहमति चाहिए।”

सिया ने उसकी ओर देखा—थका हुआ लेकिन दृढ़ चेहरा, आंखों में ईमानदारी और भीतर कहीं एक स्याही, जो अब तक अंधेरे को सोख रही थी।

“अगर तुम वही बन जाओ जिससे हम लड़े थे, तो मैं सबसे पहले तुम्हारे खिलाफ लिखूंगी,” उसने कहा।

विक्रम मुस्कराया। “मेरे पास यही गारंटी चाहिए थी।”

इधर प्रतीक लगातार उस ईमेल के पीछे की कड़ियां जोड़ने की कोशिश कर रहा था। पुराने फाइलों, मंत्रालय की टेंडर डिटेल्स, जमीन घोटाले की फाइलें—एक धागा जुड़ता गया। और फिर उसे मिला एक नाम—विनोद सांघवी, एक उद्योगपति, जो दिल्ली से लेकर धरणपुर तक की सियासत में अदृश्य हाथ की तरह काम करता था।

विनोद सांघवी—जिसका नाम कभी पब्लिक में नहीं आता, लेकिन जिसकी मर्जी के बिना कोई सीमेंट प्लांट, खनन परियोजना या बिजली का टेंडर पास नहीं होता।

और दस्तावेज़ बताते थे—सांघवी ही था जिसने सुरेश राजे को मुख्यमंत्री बनने से पहले फंड किया था। वही था जो अब बालकृष्ण माथुर के लिए रास्ता बना रहा था।

प्रतीक ने वो डाटा सिया को सौंपा।

“ये सिर्फ मुख्यमंत्री की लड़ाई नहीं, ये सत्ता के पर्दे पर लिखी स्क्रिप्ट की लड़ाई है,” सिया बोली।

“तो क्या करें?” राघव ने पूछा।

सिया ने कहा, “हम फिर से लड़ेगें—इस बार सिर्फ एक नाम के खिलाफ नहीं, एक पूरी परछाई के खिलाफ।”

वहीं एक आलीशान दिल्ली बंगले में, विनोद सांघवी व्हिस्की का गिलास लेकर टीवी पर विक्रम का इंटरव्यू देख रहा था।

“बहुत बोलने लगा है ये लड़का,” उसने बुदबुदाया।
फिर फोन उठाया—“उसकी टीम में जो लड़का आईटी देखता है, उसका नाम क्या है?… ठीक है, उसका अपहरण करो। सिस्टम में छेद वहीं से शुरू करते हैं।”

उस रात, विक्रम के एक सहायक को अज्ञात नकाबपोशों ने उठा लिया।

सुबह विक्रम को एक लिफाफा मिला—उसमें सिर्फ एक पेंड्राइव थी और एक लाइन—
“राजनीति सिर्फ बहस नहीं होती, कभी-कभी बलिदान भी मांगती है।”

धरणपुर का चुनाव अभी दूर था।
पर युद्ध शुरू हो चुका था—
और इस बार दुश्मन बिना चेहरा वाला था।

भाग १०: अंतिम चाल

धरणपुर में चुनाव की तारीख़ घोषित हो चुकी थी। हवा में नारे गूंज रहे थे, झंडे लहरा रहे थे, और हर नुक्कड़ पर चर्चा हो रही थी—विक्रम या बालकृष्ण? लेकिन सच्चाई ये थी कि असली लड़ाई पोस्टर और भाषणों से कहीं आगे निकल चुकी थी। पर्दे के पीछे एक ऐसी जड़ें थीं, जिन्हें काटना सिर्फ चुनाव जीतने से संभव नहीं था।

विक्रम के आईटी हेड के अपहरण की खबर बाहर नहीं आई। सिर्फ उसकी मां को एक कॉल आया—“अगर बेटे को देखना चाहती हो, तो चुप रहो।”
विक्रम भीतर से टूटने लगा। लेकिन सिया ने उसका कंधा पकड़ा और कहा, “अगर अब रुके, तो हम सिर्फ एक सीट नहीं हारेंगे, पूरी उम्मीद खो देंगे।”

उसी रात प्रतीक और राघव ने विनोद सांघवी की कंपनियों पर की गई फर्जी डील्स के डेटा को डिकोड किया। उनके पास अब प्रमाण थे—टेंडर से लेकर ट्रांसफर तक सब सांघवी के इशारों पर होता था। और सबसे बड़ी बात—धरणपुर की एक खदान, जो आदिवासियों के विरोध के बावजूद खोली गई, उसमें मंत्री और सांघवी की साझेदारी थी।

सिया ने इन सभी दस्तावेज़ों को एक प्रेस डोजियर में बदल दिया—नाम, तारीखें, लेन-देन के बैंक ट्रांसफर, ईमेल कॉन्वर्सेशन, कॉल रिकॉर्ड्स। और अंतिम पन्ने पर सिर्फ एक सवाल—

“क्या लोकतंत्र अब भी जनता के हाथ में है?”

चुनाव से दो दिन पहले, सिया ने लाइव टेलीकास्ट किया। उसका भाषण न तो नाटकीय था, न उत्तेजक—बस शांत, तथ्यात्मक और चुभता हुआ।

“अगर आप वोट देने जा रहे हैं, तो पहले जानिए कि आप सिर्फ एक उम्मीदवार नहीं चुनते—आप तय करते हैं कि अगले पांच साल कौन आपके बच्चों की हवा बेचेगा, पानी लुटाएगा, और ज़मीर का सौदा करेगा।”

विनोद सांघवी उस रात दिल्ली में था। उसने टीवी ऑफ किया और आदेश दिया—“अब खेल खत्म। इस लड़की को हमेशा के लिए चुप कराओ।”

पर देर हो चुकी थी।

अगली सुबह सिया के टेलीग्राम चैनल पर लाखों लोगों ने सबूत डाउनलोड किया। #सांघवीएक्सपोज़, #धरणपुरक्रांति, #वोटबिफोरव्यू जैसे ट्रेंड वायरल हो गए।

चुनाव हुआ।
जनता ने अपनी चुप्पी तोड़ी।
बालकृष्ण माथुर हार गए।
विक्रम भंडारी भारी बहुमत से जीतकर धरणपुर के नए मुख्यमंत्री बने।

शपथ ग्रहण के दिन मंच पर जब वो बोले, तो कहा—
“मेरे पास कोई जादू की छड़ी नहीं,
लेकिन एक संकल्प है—
कि हर कुर्सी अब जनता की निगरानी में होगी।”

राघव, प्रतीक, और सिया भी मंच के एक कोने में खड़े थे।
पर किसी की आंखों में खुशी नहीं, सिर्फ एक सवाल था—
“क्या सच में यह अंत है, या अगली शुरुआत?”

उस रात, एक पुराना नौकर सांघवी के बंगले के तहखाने में घुसा।
एक अलमारी में एक नई फाइल थी।
उसपर लिखा था—
“Operation: Revival”

धरणपुर को एक नया चेहरा मिल गया था।
पर परछाइयाँ अब भी वहीं थीं—
बस रंग बदलकर।

समाप्त

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