Hindi - प्रेम कहानियाँ

धीरे धीरे तुम्हारी ओर

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सौरभ मिश्र


भाग १

नींबू की गंध अक्सर गर्मियों की दोपहर में तेज़ लगती है। मगर उस दिन, जब सपना पहली बार हमारे मोहल्ले में आई थी, नींबू की गंध में कुछ धीमा था, जैसे वो अपनी ही खुशबू से शरमा रही हो। मैं दरवाज़े के पास बैठा था, पीतल के गिलास में नींबू पानी था, और माँ के कहने पर मैंने उसमें काला नमक डाला था। तभी उसने पूछा — “नींबू ज़्यादा है ना?”

मैंने उसे देखा। उसकी आँखें नींबू के रस से नहीं, किसी और ही ख्याल से भरी थीं। मैंने हाँ कहा या ना, ये मुझे याद नहीं। मगर वो मुस्कराई थी। और उस मुस्कराहट में कुछ ऐसा था जो मेरे नींबू पानी को मीठा बना गया।

वो मेरे घर के ठीक सामने रहने आई थी, अपनी मौसी के साथ। मौसी का नाम था विद्यावती, पर मोहल्ले में सब उन्हें ‘सुई वाली मौसी’ कहते थे, क्योंकि वो साड़ी की फॉल सिलती थीं। सपना हर सुबह मौसी के बरामदे में बैठती, एक किताब लेकर। किताब अकसर उलटी होती, और आँखें आकाश की तरफ।

मैंने कई बार देखा — वो पन्ने नहीं पलटती थी, वो हवा को पलटती थी, जैसे पुरानी यादों की डायरी हो।

एक दिन मैंने हिम्मत की और उसे एक कविता दी — “यहाँ की गलियाँ सीधी नहीं हैं, पर तुम्हारी मुस्कान बहुत साफ़ है।”

वो हँसी, मगर ज़ोर से नहीं, बस होठों से। जैसे कोई पत्ते पर गिरा हुआ पानी खुद को सूखने से रोक रहा हो।

मैंने पूछा, “तुम क्या पढ़ती हो?”
उसने कहा, “जो नहीं लिखा गया, उसे पढ़ती हूँ।”

मुझे लगा मैं किसी साधारण लड़की से नहीं, किसी अधूरी किताब से बात कर रहा हूँ।

अगली दोपहरें नींबू जैसी होती गईं — खट्टी, मगर ताज़ा। वो अपने बालों में नींबू की पत्तियाँ रखती थी, कहती थी इससे सिर ठंडा रहता है।

एक दिन मैंने कहा, “अगर तुम्हारे नाम की जगह कोई गंध होती, तो वो नींबू होती।”
उसने जवाब नहीं दिया।

पर उसकी नज़रें मेरी बात में देर तक भीगती रहीं।

मोहल्ले की सड़कें तंग थीं, मगर उस तंगी में भी उसके लिए जगह थी।

मैं साइकिल से उसके घर के सामने से कई बार जाता, धीरे धीरे, जैसे मेरा ब्रेक खराब हो।

माँ ने पूछा, “क्यों रीते रहते हो?”
मैंने कहा, “नींबू खत्म हो गया है।”

पर सच ये था कि अब नींबू पानी में स्वाद नहीं था, क्योंकि सपना की आँखें उसमें नहीं दिखती थीं।

वो अब कम निकलती थी बाहर। मौसी ने बताया, उसकी माँ की तबीयत खराब है, और वो गाँव जाने की सोच रही है।

मैंने नींद में सपना देखा — वो ट्रेन की खिड़की से हाथ हिला रही है, और मैं खड़ा हूँ स्टेशन पर, एक नींबू लेकर।

सुबह नींद खुली तो नींबू नहीं था, पर दिल भारी था।

मैंने सोचा, अगर वो चली गई, तो मेरी दोपहरें खाली हो जाएंगी।

मैंने उसकी किताब में एक कागज़ रख दिया — “अगर तुम जाओगी, तो मेरे नींबू पानी में खटास नहीं रहेगी।”

शायद वो मुस्कराई होगी वो पढ़कर।

पर उसने जवाब नहीं दिया।

अगले दिन वो निकली, एक छोटा बैग लेकर। उसने मुझे देखा, और बस इतना कहा — “नींबू ज़्यादा था, पर तुम्हारा ख्याल मीठा था।”

मैं वहीं खड़ा रहा, जैसे कोई खड़ा पेड़ देखता है — अपने पत्ते गिरते हुए।

वो चली गई।

पर नींबू की गंध रह गई।

उसके जाने के बाद मैंने नींबू पानी पीना बंद कर दिया।

पर जब भी खिड़की खोलता, हवा में नींबू की कोई धड़कन सुनाई देती।

मैं समझ गया, वो पूरी तरह नहीं गई, कोई हिस्सा यहीं रह गया है — मेरे नींबू के गिलास में, किताब के खाली पन्नों में, दोपहर की आलसी हवा में।

भाग २

वो चली गई थी, मगर उसका जाना भी एक तरह का रह जाना था। जैसे कोई पुरानी किताब पढ़कर रख दो, पर उसका एक पन्ना तुम्हारे बिस्तर पर रह जाए, आधा खुला हुआ, आधा तुम्हारी ओर देखता हुआ। मैं अब घर में कुछ ज़्यादा चुप रहने लगा था, माँ कहती, “तुम्हारा चेहरा जैसे किसी किताब के बीच दब गया है, जिसे कोई खोलता ही नहीं।” मैं मुस्करा देता, पर अंदर से नींबू की गंध जैसे किसी बोतल में बंद हो चुकी थी। मैंने उसकी आखिरी बात बार-बार दोहराई — “नींबू ज़्यादा था, पर तुम्हारा ख्याल मीठा था।” उस ख्याल की मिठास अब मेरी चाय में उतर आई थी। मैंने नींबू पानी छोड़ दिया था और अब चाय पीने लगा था, बिना शक्कर के। माँ पूछती, “बिना मिठास के चाय कैसी लगती है?” मैं कहता, “मीठा तो यादों से हो जाता है।”

सपना की मौसी अब भी मोहल्ले में थीं, वही सुई और धागे की दुनिया में उलझी हुई। मैं रोज़ उनके घर के सामने से निकलता, जैसे कोई धागा उसी रास्ते पर लिपटा हुआ हो। एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और पूछा, “क्या सपना ने कुछ दिया था तुम्हारे लिए?” मैंने चौंककर उन्हें देखा। मौसी ने अंदर से एक किताब निकाली, पुरानी और पीली। उसके पहले पन्ने पर लिखा था— ‘जो लिखा नहीं गया, वही सबसे ज़रूरी था।’ और फिर एक छोटा सा कागज़ — शायद वही जो मैंने उसे दिया था, पर अब उस पर दो शब्द और थे, उसके हाथों से लिखे हुए — “मैंने पढ़ा। मैं रह गई।”

मेरे अंदर कुछ टूटने की जगह कुछ जुड़ गया। जैसे कोई टूटी हुई कंघी फिर से बालों में चलने लगे। उस किताब को मैं रोज़ पढ़ने लगा। वो कोई विशेष किताब नहीं थी — कुछ छोटे लेख, कुछ आधे-अधूरे वाक्य, कुछ भूल सुधार, और कुछ ऐसे पन्ने जिनमें केवल रेखाएं थीं, ऊपर से नीचे, बाएं से दाएं। लेकिन हर बार जब मैं उसे पढ़ता, सपना का चेहरा जैसे रेखाओं के बीच उभर आता। मैं किताब को नहीं, उसे पढ़ता था।

उस शाम, जब बारिश हुई, और नींबू का पेड़ मेरे आंगन में पहली बार झुका, तो लगा जैसे वो लौट आई है। वो नहीं थी, पर उसकी बारिश थी, उसकी गंध थी, उसकी चुप्पी थी। मैंने किताब में एक और पन्ना डाला — “अगर तुम कहीं और हो, तो क्या मेरी चाय की भाप वहाँ पहुंचती है?” मैंने सवाल पूछा था, जवाब की उम्मीद किए बिना। अगले दिन किताब के पन्ने पलटे तो उसी पन्ने पर एक छोटी सी रेखा बनी थी, जैसे कोई भाप की लकीर। मैं जानता था, वो जवाब नहीं था, लेकिन शायद वही सबसे सच्चा जवाब था।

मोहल्ले में सब कुछ वैसे ही था — बच्चे दौड़ रहे थे, साइकिल की घंटी बज रही थी, साड़ी की फॉल सिलाई हो रही थी, पर मेरी दुनिया अब दो भागों में बंटी थी — एक वो, जिसमें सपना थी, और एक वो, जिसमें उसकी अनुपस्थिति थी। और मैं हर दिन इन दोनों के बीच झूलता रहा, जैसे किसी पुराने झूले पर बैठा हो, जो अब भी आवाज़ करता है।

मैंने एक दिन मौसी से पूछा, “क्या सपना फिर से आएगी?” उन्होंने सिर हिलाया, ना में, लेकिन आँखें जैसे हाँ कह रही थीं। उस दिन मैंने एक चिठ्ठी लिखी, मगर भेजी नहीं। उसमें लिखा — “मैं अब भी नींबू की पत्तियाँ सूंघता हूँ, और तुम्हारे होने की आहट सुनता हूँ।”

उस रात मैंने सपना को फिर देखा — वही ट्रेन, वही खिड़की, वही हाथ। मगर इस बार उसने नींबू नहीं, एक किताब थामी थी, और मुझे इशारे से बुलाया था। नींद खुली तो हाथ में किताब नहीं थी, मगर मन में एक नया पन्ना जुड़ गया था।

भाग ३

हर चिट्ठी भेजी नहीं जाती, और हर शब्द जो लिखा गया है, वो किसी डाकिए की प्रतीक्षा में नहीं होता। कभी-कभी हम चिट्ठियाँ सिर्फ इसलिए लिखते हैं ताकि कुछ कहा जाए, भले ही वो सुना न जाए। मैंने सपना के जाने के बाद चिट्ठियाँ लिखना शुरू किया। वो चिट्ठियाँ एक पुरानी डिब्बी में रखी थीं, जिसमें पहले माँ सूखे फूल रखती थीं। अब उस डिब्बी में सूखे शब्द थे, जो खिलते नहीं थे, बस महकते थे।

मैं हर शाम एक चिट्ठी लिखता, कभी कविता जैसी, कभी निबंध जैसी, कभी बस दो शब्द — “आज भी याद आई।” उस दिन जब बिजली गुल हो गई थी और आंगन में दीया जलाया गया था, मैंने एक लंबी चिट्ठी लिखी — “तुम्हारे बिना ये घर वैसा ही है जैसे कोई खिड़की हो लेकिन बाहर देखने को कुछ न हो।” और फिर उसी चिट्ठी में लिखा — “तुम्हारे जाने के बाद मैं उस नींबू के पेड़ से बातें करने लगा हूँ, जिसे तुमने एक बार बस देखा था।”

माँ ने देखा, मैं कुछ ज़्यादा ही चुप रहने लगा हूँ। एक दिन उन्होंने पूछ लिया — “क्या तुमने किसी से दिल की बात की थी जो अब दूर चली गई है?” मैंने कहा, “नहीं, मैंने बात की थी, लेकिन वो सुनकर मुस्करा गई, और वो मुस्कान ही मेरे लिए जवाब था।” माँ ने सिर हिलाया, जैसे वो कुछ समझ गईं, जो मैं खुद ठीक से नहीं समझ पा रहा था।

मैंने सपना को आखिरी बार बरसात के मौसम में देखा था। अब बरसात लौट आई थी, और उसके साथ लौट आई थी वो चुप्पी, जो केवल पानी की बूंदों से टूटती थी। मैं खिड़की पर बैठा, किताब के उस पन्ने को देख रहा था जिसमें उसकी रेखा थी — भाप जैसी — और सोच रहा था कि क्या रेखाएँ भी लौटती हैं?

मैंने उसकी मौसी से फिर पूछा, “क्या सपना ने कोई पता छोड़ा?”
उन्होंने कहा, “नहीं, पर एक फोटो है।”
उन्होंने एक पुरानी ब्लैक एंड वाइट तस्वीर दी, जिसमें सपना खड़ी थी, किसी बगीचे के पास, हाथ में वही किताब।

मैंने उस तस्वीर को अपने तकिए के नीचे रख लिया। हर रात वो तस्वीर किसी सपने की तरह बन जाती। एक रात तो ऐसा लगा जैसे तस्वीर में उसकी आँखें हल्के से झपकी हों।

मैं अब किताबों में उससे ज़्यादा मिलने लगा था। मेरी डायरी अब सपना से भरी थी — “आज नींबू पानी फिर पिया, पर स्वाद वही पुराना नहीं था”, “तुम्हारी पसंद की किताब लाइब्रेरी में मिल गई, लेकिन तुम्हारे बिना उसके पन्ने खाली थे।” कभी-कभी लगता, मैं उसे भूल जाऊँगा, मगर फिर कोई गंध, कोई आवाज़, कोई हवा का टुकड़ा उसे फिर से याद दिला देता।

एक दिन डाकिए ने हमारे घर एक लिफ़ाफ़ा दिया — अनाम, बिना किसी पते के। उसमें एक पेज था, जिसमें सिर्फ एक पंक्ति लिखी थी — “चिट्ठियाँ जो नहीं भेजी जातीं, वो भी कहीं पहुँचती हैं।”

मैंने उसे बार-बार पढ़ा। लिखावट सपना जैसी नहीं थी, पर भाव वही थे। मैंने उस पंक्ति को अपनी दीवार पर टाँग दिया। अब वो मेरे कमरे का हिस्सा थी, जैसे सपना मेरी यादों का हिस्सा हो गई थी।

मैंने कभी सपना से ‘प्रेम’ शब्द नहीं कहा। वो शब्द जैसे हमारे बीच खड़ा होता, तो बाकी सारी बातों को धकेल देता। हम दोनों के बीच जो था, वो प्रेम जैसा था, पर उससे थोड़ा धीमा, थोड़ा गहरा, थोड़ा और चुप।

अब हर दिन वही बीतता — चिट्ठी लिखना, किताब पढ़ना, नींबू के पेड़ से बातें करना। मगर एक बात बदल गई थी — अब मैं इंतज़ार नहीं करता था कि कोई लौटे, बस इस बात पर यक़ीन करता था कि कुछ रह गया है, जो कभी नहीं जाता।

भाग ४

कभी-कभी धूप भी चुप होती है। वो कुछ कहती नहीं, बस अपने हल्के हाथों से ज़मीन को छूती रहती है। उस दिन भी धूप ऐसे ही आई थी, जैसे किसी ने चिट्ठी भेजी हो, मगर लिफ़ाफ़ा खोलने की हिम्मत न हो। मैं बरामदे में बैठा था, नींबू का पेड़ सामने था, और धूप उसकी छाया में लुका-छिपी खेल रही थी। हवा धीमी थी, पर यादें तेज़।

मैंने फिर वही किताब खोली — वही, जो मौसी ने दी थी। उसमें एक पन्ना ऐसा था जो थोड़ा फटा हुआ था। उस पन्ने पर कुछ शब्द अधूरे थे — “तुम जब…” और फिर कुछ नहीं। मैं जानता था, वो अधूरापन भी एक तरह का पूरा होना था। क्योंकि सपनों की दुनिया में कुछ भी पूरा नहीं होता, सिर्फ महसूस होता है।

उस दिन मैंने सपना को लिखी एक और चिट्ठी फिर से पढ़ी — “तुम्हारी मुस्कान में एक ऐसा मोड़ था, जैसे किसी पुरानी गली में अचानक कोई दरवाज़ा खुल जाए।” फिर मैंने उसी चिट्ठी के नीचे लिखा — “अगर तुम होती, तो मैं तुमसे कुछ नहीं कहता। बस तुम्हारे पास बैठता, और धूप की तह में तुम्हारा नाम खोजता।”

माँ ने देखा, मैं चुपचाप बरामदे में बैठा हूँ। उन्होंने पूछा — “कुछ सोच रहे हो?” मैंने कहा — “हाँ, एक नाम सोच रहा हूँ, जो हर चीज़ में छुपा है, मगर किसी से कहा नहीं जा सकता।” माँ ने कुछ नहीं कहा, बस मेरे पास आकर बैठ गईं। उनका हाथ मेरे कंधे पर था, जैसे किसी पुराने पंखे की हवा, जो बहुत कुछ कहती है बिना शब्दों के।

मोहल्ले की लड़की ने बताया, “विद्यावती मौसी गाँव चली गईं।” मैं चौंका। “कब?” “परसों। सपना के घर।”

मैंने उस दिन कोई चिट्ठी नहीं लिखी। पहली बार ऐसा हुआ। मैंने सोचा — क्या अब भी ज़रूरत है चिट्ठी लिखने की, जब पता ही नहीं रहा?

शाम को नींबू के पेड़ की नीचे बैठा रहा, बहुत देर तक। मन में सपना का चेहरा नहीं था, सिर्फ एक अहसास था — जैसे वो अभी-अभी कुछ कहकर गई हो, और उसकी आवाज़ दीवारों पर बची हो। मैंने जमीन पर उंगलियों से उसका नाम लिखा — ‘सपना’। और फिर मिटा दिया।

अगली सुबह, दरवाज़े पर एक पुर्जा रखा मिला — एक सफेद कागज़ का टुकड़ा, जिसमें लिखा था — “तुम अब भी चिट्ठियाँ लिखते हो? मुझे एक भी नहीं मिली।”

मैंने पुर्जे को हाथ में लिया, बहुत देर तक देखा। लिखावट अनजान थी, पर अंदाज़ उसका। क्या सपना आई थी रात को? क्या ये कोई मज़ाक था? या कोई और?

मैंने जवाब नहीं दिया। बस एक चिट्ठी और लिख दी — “अगर चिट्ठियाँ खो जाती हैं, तो क्या भावनाएँ भी खो जाती हैं?” और फिर अगले दिन, उसी नींबू के पेड़ के नीचे वो चिट्ठी रख दी।

अगली सुबह, चिट्ठी वहाँ नहीं थी। पर वहाँ एक पंख पड़ा था — छोटा, सफेद, हल्का सा।

मैं अब समझने लगा था कि संवाद कभी-कभी शब्दों से नहीं, प्रतीकों से होता है। और वो पंख, शायद उसका जवाब था।

धीरे-धीरे नींदों में वो फिर आने लगी। कभी बालों में नींबू की पत्तियाँ लगाए, कभी बिना कुछ कहे मेरी ओर देखती हुई। मैंने एक और पन्ना किताब में रखा — “तुम अब भी हो, बस किसी और तह में, किसी और रोशनी में।”

अब चिट्ठियाँ बंद हो गई थीं, और शुरू हो गई थी प्रतीक्षा।

भाग ५

प्रतीक्षा कोई काम नहीं है। ये वो ठहराव है जिसमें समय अपनी साँसें धीमी कर लेता है। मैं अब समय से नहीं, उसकी अनुपस्थिति से घिरा हुआ था। नींबू का पेड़ हर सुबह थोड़ा और पीला हो रहा था, जैसे उसके पत्तों में मेरी यादें उतर आई हों। बरामदे की खिड़की खुली रहती, और मैं वहाँ बैठा रहता — कुछ न करते हुए, बस आँखों से देखता रहता उस दिशा में जहाँ सपना चली गई थी।

एक दिन, बहुत चुप दोपहर में, उस खिड़की पर एक छोटा पक्षी आकर बैठा। उसकी आँखें भूरी थीं, और चोंच पर धूल जमी हुई। वो कुछ नहीं बोला, बस मेरी ओर देखता रहा। जैसे वो कोई पुरानी चिट्ठी हो, जो अब उड़ने आई हो। मैंने मन में कहा, “क्या तुम उसके पास से आए हो?” पक्षी ने सिर झुकाया — या शायद मुझे ऐसा लगा।

मैंने खिड़की की मुंडेर पर एक पन्ना रख दिया — “अगर तुम उसे देखो, तो कहना मैं अब भी चाय बिना शक्कर के पीता हूँ, क्योंकि उसकी यादें बहुत मीठी हैं।” पक्षी उस पन्ने को नहीं ले गया, मगर जब वो उड़ा, तो जैसे हवा में कुछ फड़फड़ाया — शायद एक भावना, जो शब्दों के बिना थी।

अगले दिन बारिश हुई। नींबू के पेड़ की डालियों से पानी टपक रहा था, और उसकी बूंदें छत के टीन पर ऐसे गिर रही थीं जैसे कोई टाइपराइटर पर कविता लिख रहा हो। मैं खिड़की के पास बैठा था, और खिड़की के कांच पर उंगलियों से उसकी शक्ल बना रहा था। गोल-गोल आँखें, आधा मुस्कुराता चेहरा, और बालों में नींबू की पत्तियाँ।

माँ कमरे में आईं और बोलीं — “कभी-कभी जो नहीं लौटते, वो भी घर के किसी कोने में रह जाते हैं।”
मैंने कहा — “हाँ, वो अब मेरे कमरे की हवा में है। मैं हर साँस में उससे मिलता हूँ।”

मैंने किताब की अलमारी खोली। उसमें अब भी वो किताब थी, जिस पर उसकी रेखा बनी थी। पर उस रेखा के नीचे अब धूल की एक पतली परत जम चुकी थी। मैं उसे साफ करने ही वाला था, मगर रुक गया। सोचा, शायद वो धूल ही अब उसकी छाया है।

उस रात मैंने एक सपना देखा — सपना एक पुराने पीले घर में है, जहाँ खिड़कियाँ नीली हैं और दीवारें खामोश। वो मुझे देखती है और कहती है, “मैं अब तुम्हारे सपनों में ही रह पाऊँगी। वहाँ आना कभी-कभी, लेकिन ज़्यादा देर मत रुकना, क्योंकि सपनों में वक्त उल्टा चलता है।”

नींद खुली तो माथा भीगा हुआ था, और मन उस घर की दीवारों में अटका था।

उसके बाद कई दिन तक कुछ नहीं हुआ। कोई पक्षी नहीं आया, कोई पुर्जा नहीं मिला, और नींबू की शाखें भी चुप थीं। लेकिन उस चुप्पी में भी एक आहट थी, जैसे कोई पुराना रेडियो हो जो बहुत धीमे सुर में बज रहा हो।

मैंने फिर से एक चिट्ठी लिखी — नहीं, इस बार नहीं — एक संवाद लिखा, सिर्फ एक पंक्ति — “क्या तुम भी कभी मेरी खिड़की की ओर देखती हो?”

मैंने वो पंक्ति हवा में छोड़ दी — बिना कागज़ के, बिना आवाज़ के — जैसे कोई मोनोलॉग।

अब प्रतीक्षा ही मेरी दुनिया थी। और वो खिड़की — जहाँ बैठा था एक पक्षी, धूल से ढका एक नाम, और मेरी अधूरी मुस्कान।

भाग ६

नाम कभी सिर्फ काग़ज़ पर नहीं होते। कभी-कभी वो किसी की बातों के बीच छुप जाते हैं, या किसी कमरे की दीवार में घुल जाते हैं, या खिड़की से आती हवा में बहते रहते हैं, जैसे कोई भूला हुआ गीत। सपना का नाम अब मेरे कमरे की हवा में था। मैं उसे पुकारता नहीं था, पर वो वहाँ रहती थी, मेरी हर साँस के पास।

उस दिन मैंने एक पुरानी डायरी खोली — वो जिसमें मैंने कभी कविताएँ नहीं लिखीं, सिर्फ शब्द रखे थे, जैसे कोई बीज रखता है कि कभी पनपेंगे। एक पन्ने पर सपना का नाम लिखा था — बस उसका नाम, बार-बार, बिना विराम, बिना वजह। सपना सपना सपना… उस नाम को देखते-देखते जैसे एक तस्वीर उभर आई — उसका चेहरा नहीं, उसकी चुप्पी।

मैंने खिड़की खोली, और बाहर देखा। वही नींबू का पेड़, अब कुछ और झुका हुआ, उसकी टहनियाँ जैसे थक चुकी हों। नीचे ज़मीन पर पत्तियों की चटाई बिछी थी, पीली और हरी, और एक तरफ से कुछ कुचली हुई — जैसे कोई वहाँ बैठा हो, अभी-अभी उठकर चला गया हो।

माँ ने अंदर आकर कहा — “बाहर धूप ठीक से उतर रही है। कुछ देर बाहर बैठो, मन ठीक रहेगा।”
मैंने सिर हिलाया, पर अंदर ही रहा।

मैं अब अक्सर खुद से बातें करने लगा था — धीमी आवाज़ में, जैसे कोई रेडियो जिसमें स्टेशन नहीं मिल रहा हो। एक दिन दीवार पर हाथ फेरा, तो लगा जैसे वहाँ कुछ लिखा है — उंगलियों को गीला किया, हल्की रेखा बनी — सपना।

मैंने नहीं लिखा था। शायद पहले कभी लिखा था, भूल गया। शायद सिर्फ चाहा था, और दीवार ने खुद बना लिया।

मैंने उसी दीवार पर फिर एक नाम लिखा — अपना — और उसके नीचे एक तारीख — जिस दिन वो पहली बार मिली थी। दीवार अब हमारी हो गई थी, बिना फ्रेम के, बिना तस्वीर के।

शाम को जब चाय बनाई, तो पहली बार शक्कर डाली। माँ ने पूछा — “अब मिठास पसंद आ गई?”
मैंने कहा — “हाँ, अब उसका नाम हवा में कम हो गया है। थोड़ा खुद में रखना सीख रहा हूँ।”

लेकिन रात को जब तकिया सीधा किया, तो उसके नीचे एक कागज़ गिरा — वही पुराना पुर्जा, जिस पर उसने लिखा था — “तुम अब भी चिट्ठियाँ लिखते हो?”

मैंने उसे उठाया, और एक और पुर्जा निकाला — अपने मन का। उस पर लिखा — “मैं अब जवाब नहीं चाहता, सिर्फ तुम्हारा नाम हवा में बना रहे, इतना ही काफ़ी है।”

मैंने दोनों कागज़ एक साथ दीवार के उस कोने में चिपका दिए जहाँ पहले धूल थी। अब वहाँ शब्द थे, और उनके बीच एक रिश्ता।

नींद देर से आई, और आई भी तो एक अजीब सपना लेकर — सपना एक बस में थी, खिड़की से बाहर देख रही थी, और मैं दूर किसी मैदान में खड़ा था। उसने मुस्कराकर इशारा किया, और हवा में उंगली से मेरा नाम लिखा — धुंधले अक्षरों में, मगर मैं पढ़ सका।

सुबह उठते ही मैंने एक नया पन्ना लिखा — “नाम अगर सिर्फ उच्चारण होते, तो तुम्हारा नाम मेरे गले में अटक जाता। लेकिन अब वो मेरी हवा है — बाहर भी, भीतर भी।”

अब मैं जानता था, उसकी अनुपस्थिति में भी एक उपस्थिति है। और उसका नाम, जो कहीं लिखा नहीं था, अब मेरी हर चीज़ में था — चाय की भाप में, तकिए के सिलवट में, दीवार की रेखा में, और मेरे अंदर एक छोटी सी जगह में, जहाँ कोई शब्द नहीं रहते — सिर्फ भाव।

भाग ७

बारिश थम गई थी, मगर खिड़की से अब भी बूंदों की आवाज़ आती थी — शायद ये पानी नहीं था, कोई बात थी जो गिरने की हिम्मत कर रही थी। कमरे में ठंडक थी, और उस ठंडक में एक पुरानी गंध। मैं जानता था ये वही गंध थी जो सपना के जाते समय उसकी ओढ़नी में थी — हल्का नींबू, थोड़ा मिट्टी, और बहुत सारा चुप।

मैंने अलमारी से वो किताब निकाली जो कभी उसकी थी — जिसके पहले पन्ने पर उसका लिखा एक वाक्य था — “जो लिखा नहीं गया, वही ज़्यादा सच होता है।” उस दिन मैं उस किताब को पहली बार बिना पढ़े पढ़ने लगा। उसके हर खाली पन्ने में मुझे वो दिखी — कभी खिड़की पर बैठी, कभी मौसी के पीछे छिपी, कभी मेरे नाम को आँखों से बोलती।

मैंने खुद से कहा, “ये कैसी उपस्थिति है जो अनुपस्थिति से ज़्यादा पास है?” और जवाब भी खुद से आया — “ये वही है जिसे प्रेम कहते हैं, बिना कहे, बिना माँगे।”

घर में अब चीज़ें बदल गई थीं। माँ ने पूछा, “तुम अब ठीक हो?”
मैंने कहा, “ठीक होना एक स्थायी चीज़ नहीं है माँ, जैसे चाय में दूध की मात्रा हर दिन थोड़ी अलग होती है।”

माँ ने हँस दिया, पर मैं जानता था, मेरी आँखें अब भी उतनी ही भीगी थीं।

उस दिन बरामदे में बैठा था जब हवा में अचानक कुछ उड़ता हुआ दिखा — एक नींबू की सूखी पत्ती। वो उड़कर मेरे हाथ पर आ गिरी, और मैंने उसे किताब के बीच रख दिया, उसी पन्ने पर जहाँ कभी सपना ने रेखा खींची थी। अब रेखा के ऊपर पत्ती थी — जैसे कोई बात परतों में छुपा दी गई हो।

मैंने एक पंक्ति लिखी — “कुछ रिश्ते बारिश की तरह होते हैं, थमते हैं, लेकिन उनकी गंध देर तक रहती है।”

मोहल्ले के बच्चे अब भी वैसे ही शोर करते थे, पर मैं उनमें सपना की हँसी नहीं खोजता था। शायद अब मैं स्वीकार करने लगा था कि कुछ लोग मिलने के लिए नहीं, याद रहने के लिए आते हैं।

मैंने दीवार पर टँगी उस पुरानी घड़ी को देखा जो अब बंद थी। पता नहीं कब रुकी थी, पर उसमें सपना के जाने का वक्त कैद था — वही वक्त जब उसका ऑटो मोड़ पर मुड़ गया था और मैं बस देखता रहा था।

उस दिन एक कागज़ पर लिखा — “समय रुका नहीं है, बस उसके साथ चलने का मन नहीं करता।”

अब शामें लंबी हो गई थीं, और रातें धीरे-धीरे शांत। सपना अब सपनों में कम आती थी, मगर जब भी आती, बिना बोले बहुत कुछ कह जाती। एक बार आई, और बस मेरी तरफ देखकर बोली — “तुम अब ठीक हो।” मैं कुछ नहीं बोला, पर सपने में भी मेरी आँखें भर आई थीं।

मैंने माँ से कहा — “एक दिन मैं गाँव जाऊँगा।”
माँ चौंकी — “किसके पास?”
मैंने कहा — “किसी के नहीं, बस उसी रास्ते पर, जहाँ वो गई थी।”

शायद मैं जानता था, मैं कभी नहीं पहुँचूँगा। लेकिन जाने का विचार भी एक तरह की राहत था, जैसे कोई इंतज़ार अब खुद चलने लगा हो।

मैंने दीवार की उस जगह को देखा जहाँ उसका नाम धूल से बना था। अब वो नाम हल्का हो गया था, मगर उसकी जगह वैसी ही थी। मैंने वहाँ फिर से एक उँगली से लिखा — “सपना”, और उसके नीचे — “मैं यहाँ हूँ।”

भाग ८

अब मैं बोलता बहुत कम था। जैसे मेरे अंदर की आवाज़ खुद ही थक गई हो, या शायद अब उसे कहने की ज़रूरत नहीं रही। शब्द अब भीतर रहते थे, जैसे पुराने संदूक में रखे कुछ खत — जिन्हें भेजा नहीं गया, पर उनका होना ही पर्याप्त था। सपना की याद अब कोई तीखी चीज़ नहीं थी, वो अब एक धीमी रोशनी थी — धूप के उस टुकड़े की तरह जो हर दिन एक ही कोने में आकर बैठता है।

एक दिन बरामदे में बैठे हुए मैंने देखा — सामने की दीवार पर एक हल्की सी दरार है। मैं धीरे से उठा और पास गया। उँगलियों से दरार को छुआ — वो सीधी नहीं थी, उसमें मोड़ था, जैसे किसी रेखा को लिखते वक़्त हाथ काँप गया हो। मुझे सपना की लिखावट याद आई — उसके शब्द भी सीधी रेखा में नहीं चलते थे, उनमें भी मोड़ होते थे, और उन्हीं मोड़ों में उसकी पूरी आत्मा छुपी होती थी।

मैंने दरार के ठीक नीचे एक पंक्ति लिखी — “कभी कभी हम जो नहीं कह पाते, वो दीवारें सुन लेती हैं।”
और फिर उसी पंक्ति को मिटा दिया — क्योंकि कुछ बातें केवल लिखने के लिए नहीं होतीं।

माँ ने देखा कि मैं अब पुराने अख़बारों को पढ़ता हूँ — उन्हीं में कविता की तरह कुछ खोजता रहता हूँ। माँ ने पूछा — “क्या मिलती है उसमें कोई बात?”
मैंने कहा — “नहीं, लेकिन कुछ बातें ना मिलना ही ठीक है, क्योंकि वो खुद चलकर आती हैं।”

अब जब भी हवा चलती, खिड़की की झिरी से हल्की सी सीटी जैसी आवाज़ आती थी। मैं उसे सुनता, और लगता जैसे कोई पुरानी बात दोहराई जा रही है — “नींबू ज़्यादा है ना?”

उस दिन खिड़की की पट्टी पर धूल जमा थी। मैंने उस पर अपनी उँगली से दो शब्द लिखे — “फिर कब?” और जैसे ही लिखा, हवा चली, और धूल उड़ गई। अब वहाँ सिर्फ लकड़ी बची थी — साफ़, मगर चुप।

मैंने उस शाम एक चिट्ठी लिखी, मगर ये चिट्ठी किसी के लिए नहीं थी। उसमें सिर्फ एक चित्र बनाया — एक घर, एक पेड़, एक खिड़की, और उसमें एक धुँधला चेहरा। ये चेहरा सपना का नहीं था, ये उसका अभाव था। और उस अभाव को देखना अब मेरी आदत हो गई थी।

रात को नींद देर से आई, और जब आई, तो सपने में कोई पुस्तकालय था — बड़ा, शांत, और हर किताब का नाम था “तुम।” मैं एक किताब खोल रहा था, और उसमें सिर्फ एक वाक्य था — “मैं अब भी वहीं हूँ जहाँ तुमने पहली बार देखा था।”

सुबह आँख खुली, तो मन बहुत हल्का था — जैसे कोई सामान जिसे बहुत दिनों से उठाए था, अब उतार दिया हो। मैंने अपनी चाय में पहली बार दो चम्मच चीनी डाली — ज़्यादा नहीं, पर काफ़ी।

नींबू के पेड़ के नीचे अब एक कली थी — नई, पीली, छोटी सी। मैंने उसे देखा और मन में कहा — “तुम फिर आई हो क्या?”
हवा कुछ नहीं बोली, लेकिन उसकी गति में एक इशारा था।

अब मैं जानता था, आवाज़ें हमेशा शब्दों में नहीं होतीं। कभी-कभी वो पत्तियों की हलचल में, दरारों की चुप्पी में, और धूल में उँगलियों से बने अक्षरों में होती हैं।

भाग ९

वो अब लौटने वाली नहीं थी — ये बात मैं अब मान चुका था। मगर इस मान लेने में कोई दुख नहीं था, जैसे कोई गीत पूरा होने के बाद भी कान में उसकी आखिरी ध्वनि बची रहती है। सपना अब मेरे जीवन की कोई व्यक्ति नहीं थी, वो एक अनुभव बन चुकी थी — हवा की तरह, जो दिखती नहीं, पर हर जगह होती है।

उस दिन मैंने पहली बार नींबू के पेड़ को पानी नहीं दिया। नहीं इसलिए कि मैं भूल गया था, बल्कि इसलिए कि बारिश हो रही थी, और पानी की जरूरत पेड़ को नहीं थी, मुझे भी नहीं। मैं बरामदे में बैठकर बारिश को देख रहा था। बूंदें टीन की छत पर गिर रही थीं, और हर एक बूंद जैसे एक स्मृति की दस्तक हो।

मैंने अपनी पुरानी डायरी के एक खाली पन्ने पर लिखा —
“अब जब तुम नहीं हो, तो सब कुछ धीरे हो गया है — चाय ठंडी होती है, घड़ी की सुइयाँ धीमे चलती हैं, और मेरे अंदर का समय तो जैसे बैठ गया है।”

फिर उस पन्ने को मोड़ कर किताब के बीच रख दिया — उसी किताब के जो सपना की थी। अब उस किताब में उसके अलावा मेरी बातों की भी जगह बन गई थी।

एक दिन मौसी लौट आईं — वही, जो कभी सपना को लेकर गाँव गई थीं। मैंने पूछा — “कैसी हैं आप?”
उन्होंने कहा — “ठीक। और तू?”
मैंने कहा — “अब ठीक होने की ज़रूरत नहीं लगती, क्योंकि आदत हो गई है।”

मौसी ने एक कपड़ा लपेटा हुआ मेरे हाथ में दिया — “उसने तुझे भेजा है।”
मैंने हाथ खोला। उसमें एक नींबू की सूखी फाँक थी, और एक पुर्जा —
उस पर लिखा था —
“जो लौटता नहीं, वही सबसे पास रहता है।”

मैं बहुत देर तक कुछ नहीं बोला। पुर्जे को बार-बार पढ़ा, और मन ही मन एक आवाज़ आई — “मैं जानता था, तुम अब भी सुन रही हो।”

उस दिन नींद जल्दी आई, और सपने में कुछ नहीं था। बस नीला आसमान था, और एक खिड़की, और उस खिड़की में मैं खुद बैठा था — किसी को देखते हुए नहीं, बस भीतर की हवा को महसूस करते हुए।

सुबह आँख खुलते ही मैंने दीवार से पहले के सब पुर्जे हटा दिए। अब वहाँ बस एक चित्र लगाया — एक खिड़की, खुली हुई, जिसके बाहर नींबू का पेड़ है, और भीतर कोई नहीं।

मैंने माँ से कहा — “अब मुझे अकेलापन अच्छा लगने लगा है।”
माँ ने सिर हिलाया — “ये भी एक तरह का प्रेम है बेटा, जो किसी की उपस्थिति के बिना भी जीवित रहता है।”

अब हर चीज़ में सपना नहीं दिखती, पर उसकी आदतें छूटती नहीं। चाय अब भी कभी मीठी, कभी फीकी बनती है। किताबें अब भी खाली पन्नों में जादू रचती हैं। और नींबू का पेड़ अब भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है, उसकी छाया अब मेरी छत तक आने लगी है।

उस दिन जब शाम की धूप बहुत कोमल थी, मैंने किताब से एक पुर्जा निकाल कर उसमें लिखा —
“अब कुछ नहीं कहना है, क्योंकि जो कहना था, वो हवा कह चुकी है। अब बस सुनना है — उसी हवा को, जो तुम्हारा नाम लेकर मेरे पास लौटती है।”

भाग १०

अब सब कुछ स्थिर हो गया था, जैसे समय खुद एक लंबी साँस लेकर चुप हो गया हो। नींबू का पेड़ अब और बड़ा हो गया था, उसकी एक शाखा अब मेरी खिड़की तक पहुँचती थी, और जब हवा चलती, तो वो शाखा खिड़की के काँच से हल्के से टकराती — जैसे कोई दस्तक, जिसे जानबूझकर धीरे रखा गया हो।

मैंने अब चिट्ठियाँ लिखना बंद कर दिया था। नहीं इसलिए कि कहने को कुछ नहीं था, बल्कि इसलिए कि अब हर चीज़ में कह देने जैसा कुछ था — चाय की भाप में, धूप की धूल में, और नींद की नमी में।

एक दिन खिड़की पर फिर वही पक्षी बैठा। उसने मुझे नहीं देखा, बस आसमान की ओर मुँह कर कुछ गुनगुनाया। फिर उड़ गया। मैं समझ गया — अब संकेतों की ज़रूरत नहीं रही। जो था, वो है। और जो नहीं है, वो भी किसी और रूप में है।

माँ ने मेरे लिए चाय बनाई, और पूछा — “अब तुम अकेले हो क्या?”
मैंने कहा — “नहीं माँ, अब मैं खुद के साथ हूँ।”

उन्होंने सिर हिलाया और कहा — “तुम्हारा कमरा अब पहले जैसा नहीं लगता।”
मैंने कहा — “क्योंकि पहले उसमें प्रतीक्षा रहती थी, अब स्मृति है।”

उस रात मैंने खिड़की से बाहर देखा — चाँद बिल्कुल नींबू जैसा लग रहा था। मैंने मन में हँसकर कहा — “नींबू ज़्यादा है ना?” और खुद ही उसका जवाब दिया — “हाँ, लेकिन खटास अब मीठी लगती है।”

अब किताबें मैंने बंद कर दी हैं। नहीं पढ़ता, नहीं लिखता। मगर जब भी कोई खाली पन्ना दिखता है, तो उस पर उँगली से एक लकीर खींच देता हूँ — वही जो कभी सपना ने बनाई थी। एक दिन मैंने देखा — उस लकीर में धूल जम गई है, और वो अब दिखती नहीं। लेकिन मुझे वो अब भी याद है।

अब मैं नहीं पूछता “तुम कहाँ हो?” क्योंकि जवाब जानता हूँ — “यहीं कहीं, हर उस जगह जहाँ मैं तुम्हें सोचा करता था।”

मैंने बरामदे की दीवार पर फिर से एक पंक्ति लिखी —
“अब प्रेम कहना नहीं पड़ता, वो खुद चलकर आ जाता है — हवा के साथ, चाय की भाप में, और नींद के दरवाज़े पर।”

और उस दिन पहली बार महसूस किया — सपना चली नहीं गई थी, वो बस एक रूप से दूसरे रूप में बदल गई थी। अब वो नाम नहीं रही, वो एक एहसास है — जो धीरे-धीरे मेरी ओर आया, और वहीं ठहर गया।

समाप्त

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