Hindi - प्रेम कहानियाँ

धड़कनों की दरमियाँ

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नीरज सहाय


भाग 1

सुबह की ठंडी हवा में हल्की-हल्की धुंध तैर रही थी। दिल्ली के पुरानी रेलवे स्टेशन का प्लेटफॉर्म नंबर तीन अपनी चिर-परिचित हलचल में डूबा था। चायवालों की आवाज़, कुलियों की पुकार, और यात्रियों की चहल-पहल के बीच एक कोना ऐसा था जहाँ समय जैसे कुछ देर के लिए ठहर जाता था — वही पुरानी किताबों की दुकान, जिसकी लकड़ी की अलमारी में से स्याही और पुराने कागज़ की मिली-जुली खुशबू आती थी।

अर्जुन वहीं खड़ा था, अपनी आदत के मुताबिक। हर शुक्रवार की सुबह, ठीक दस बजे, वो वहाँ आता और कोई न कोई किताब खरीदकर वहीं पास की बेंच पर बैठकर पढ़ता। उस दिन भी उसकी निगाहें अलमारी में एक विशेष किताब खोज रही थीं — “पलकों के पीछे।”

“माफ कीजिए, क्या आप वो किताब मुझे दे सकते हैं?”
एक नरम, संकोची सी आवाज़ ने उसकी सोच को तोड़ दिया।

अर्जुन ने चौंक कर पीछे देखा। नीली सलवार-कमीज़ में एक लड़की खड़ी थी। हाथ में एक सौ रुपए का नोट, और आँखों में एक अलग सी जिज्ञासा।

“कौन सी किताब?” अर्जुन ने पूछा, थोड़ी झिझक के साथ।
“वो… ‘पलकों के पीछे’… गुलाबी कवर वाली।”

वो मुस्कुराया। “इत्तेफ़ाक देखिए, मैं भी वही ढूंढ रहा था।”
लड़की हँसी। “शायद हम दोनों की पसंद मिलती है।”

“शायद,” अर्जुन ने किताब निकालते हुए कहा, “मैंने इसे पाँच बार पढ़ा है।”
“तो फिर ये मेरी पहली बार होगी।” लड़की ने हल्के से किताब थामी।

“आपका नाम?” अर्जुन ने साहस जुटाकर पूछा।
“सिया। और आप?”
“अर्जुन।”

कुछ पलों तक दोनों के बीच चुप्पी छाई रही। जैसे शब्दों की जगह आँखें काम कर रही थीं।

“आप अक्सर यहाँ आते हैं?” सिया ने पूछा।
“हर शुक्रवार। दस बजे।”
“फिर तो मिलना तय है।” सिया ने हँसते हुए कहा।

ट्रेन की सीटी ने उस क्षण को तोड़ दिया। भीड़ तेज़ हो गई, आवाजें ऊँची हो गईं। सिया ने किताब को अपने बैग में रखा और चलने लगी। फिर एक पल को ठिठकी, मुड़ी और कहा—
“अगर किस्मत ने चाहा, तो अगली बार मिलेंगे।”

“कहाँ?” अर्जुन ने पूछा।
“यहीं। इस किताबों की दुकान के पास।”

ट्रेन के डिब्बे में चढ़ते हुए सिया ने एक आखिरी बार मुड़कर देखा। उसकी मुस्कान में कुछ था— कोई अधूरी बात, कोई छूटी हुई धुन।

अर्जुन वहीं खड़ा रहा। ट्रेन आँखों से ओझल हो गई, लेकिन उसके मन में सिया की आवाज़ गूंजती रही।

अगले शुक्रवार अर्जुन पहले से भी जल्दी पहुँचा। उसके हाथ में एक नई किताब थी — “तुम्हारे नाम की चुप्पी।” उसने हर आते-जाते चेहरे को देखा, लेकिन सिया नहीं आई।

घंटा बीत गया। उम्मीदें धुंध की तरह छंटने लगीं। तभी हवा में उड़ता हुआ एक छोटा सा कागज़ उसके पैरों के पास आकर गिरा। उसने झुककर उसे उठाया।

एक परिचित लिखावट थी—
“अगर किस्मत ने चाहा, तो अगली शुक्रवार मिलेंगे। अगर न मिले, तो जान लेना, ये मुलाकात मेरी ज़िंदगी की सबसे खास सुबह थी। — सिया”

उसका दिल ज़ोरों से धड़क उठा।
“तो ये उसका इरादा था?” उसने बुदबुदाकर कहा।

उस दिन अर्जुन ने किताब नहीं खोली। वह बस बेंच पर बैठा रहा, आस-पास के हर दृश्य को सिया की आँखों से देखने की कोशिश करता रहा।

शाम को घर लौटते हुए, अर्जुन ने पहली बार नोटिस किया कि स्टेशन के बाहर लगे गुलमोहर के पेड़ पर एक चिड़िया चहचहा रही थी। वही चिड़िया, जो हर शुक्रवार सुबह वो अनदेखा कर देता था। उस दिन हर छोटी चीज़, हर हल्की हवा, हर आवाज़ में सिया की झलक मिलने लगी।

रात को उसने अपनी डायरी खोली।
“क्या कुछ मुलाकातें संयोग नहीं, पूर्वनिर्धारित होती हैं? क्या ये सब एक कहानी का हिस्सा है, जो कहीं और पहले ही लिखी जा चुकी है?”

उसने लिखा:
“सिया, तुम आई और मेरी दुनिया में रंग भर गए। सिर्फ एक किताब की वजह से नहीं, बल्कि उस एक मुस्कान की वजह से जो अब मेरे हर ख्याल में है।”

भाग 2

अर्जुन ने अगले शुक्रवार की सुबह एक नई शर्ट पहनी — हल्की नीली, जो सिया की सलवार-कमीज़ जैसी लगती थी। बालों को कंघी से ठीक किया, और किताबों की दुकान पर पहुँच गया वक्त से थोड़ी देर पहले। वहाँ सब कुछ वैसा ही था — वही लकड़ी की अलमारी, वही पुराना स्टूल जिस पर बैठकर दुकानदार चाय पीता था, और वही गुलमोहर का पेड़ बाहर झाँकता हुआ।

पर आज अर्जुन के दिल में एक बेचैनी थी। हर बीतता मिनट जैसे किसी परीक्षा की घड़ी हो।

“भैया, चाय देना,” उसने आवाज़ दी, खुद को व्यस्त करने के लिए।

चायवाले ने काँच के कुल्हड़ में धुँआधार चाय दी। अर्जुन ने धीरे से एक घूंट लिया। उसकी आँखें हर गुजरते चेहरे पर थीं— कोई भी लड़की जो नीली सलवार में हो, उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो जातीं।

पर सिया नहीं आई।

दस बजकर पंद्रह मिनट हुए। फिर तीस। अर्जुन ने बार-बार अपनी घड़ी देखी।
“शायद कोई वजह होगी,” उसने खुद को समझाया।

ग्यारह बजे तक वो समझ गया— आज भी सिया नहीं आएगी।

उसने वही किताब “पलकों के पीछे” निकाली, जिसे वो पहले भी पढ़ चुका था। पर इस बार पन्ने भारी लग रहे थे, शब्दों में कोई रस नहीं था। अचानक किताब से एक सफेद लिफ़ाफा गिरा।

चौंक कर उसने लिफ़ाफा उठाया। सामने लिखा था:
“अर्जुन के लिए।”

अंदर एक छोटा सा खत था, नीले इंक से लिखा गया—

“अर्जुन,
अगर ये पत्र तुम्हें मिला, तो समझना कि मैं तुम्हें भूली नहीं। मैं नहीं जानती कि मैं हर शुक्रवार यहाँ आ पाऊँगी या नहीं। पर तुम्हें देखना, तुमसे बात करना, उस दिन… मेरे लिए भी खास था। शायद मेरी ज़िंदगी में पहली बार किसी ने मेरी किताबों की पसंद को इतनी गंभीरता से लिया।

मैं एक ऐसी जगह से आई हूँ जहाँ सपनों को बस सोचने की इजाज़त है, जीने की नहीं। तुम्हारी आँखों में जो सवाल था, मैं उसे टाल नहीं रही थी, बस उस दिन का जवाब मेरे पास नहीं था।

अगर तुम चाहो, तो एक चिठ्ठी लिख देना और इस किताब के बीच रख देना। दुकानदार को कह देना कि वो मुझे दे दे।

— सिया”**

अर्जुन की साँस जैसे थम सी गई। इतनी धीमी, इतनी सादी भाषा, पर उसमें भावनाओं की गहराई समंदर से भी ज़्यादा थी। उसने खत को फिर से पढ़ा। फिर से। और हर बार उसमें छिपे इशारे, डर, उम्मीदें महसूस कीं।

उसी समय दुकानदार ने पास आकर पूछा,
“भैया, फिर वही किताब पढ़ रहे हो?”
अर्जुन मुस्कुराया, “हाँ… और शायद इस बार कुछ नया भी मिलेगा इसमें।”

उसने जेब से एक छोटा डायरी पन्ना निकाला और कलम उठाई।

“सिया,
मैं नहीं जानता तुम कौन हो, कहाँ से आई हो, या क्या सोचती हो। पर उस दिन जब तुमने मुस्कुराकर ‘पलकों के पीछे’ मांगी थी, मेरी ज़िंदगी में जैसे कोई कविता उतर आई थी।

मैंने कई बार खुद से पूछा, क्या ये सब यूँ ही था? एक इत्तेफ़ाक? या कुछ ज़्यादा? मैं नहीं जानता।

पर हाँ, मैं जानता हूँ कि मैं हर शुक्रवार यहीं रहूँगा। तुम्हारी राह देखूँगा।

अगर तुम चाहो, तो अगली बार कोई और किताब ढूँढना। शायद हम फिर से एक नई कहानी शुरू कर सकें।

— अर्जुन”

उसने चिठ्ठी को उसी किताब के पन्नों के बीच रख दिया, और दुकानदार को समझाया,
“अगर कोई लड़की आए, जिसका नाम सिया हो, या वो ‘पलकों के पीछे’ मांगे, तो यह खत उसे दे देना।”
दुकानदार ने सिर हिलाया, “पक्का भैया।”

अर्जुन उस दिन बहुत देर तक स्टेशन पर बैठा रहा। जैसे हर पल को ज़हन में कैद कर लेना चाहता हो। फिर शाम को धीमे-धीमे कदमों से घर की ओर बढ़ गया।

अगले कुछ दिन अर्जुन के लिए अलग तरह के थे। ऑफिस में वो काम करता, लेकिन मन वहीं स्टेशन की बेंच पर बैठा रहता। शाम को जब वो डायरी में कुछ लिखता, तो हर पन्ना सिया के नाम से शुरू होता।

वो सोचता,
“कैसी होगी उसकी दुनिया? क्या वो भी मेरी तरह इंतज़ार कर रही होगी? या फिर मेरा खत पढ़कर… कुछ और सोचने लगी होगी?”

अगले शुक्रवार फिर वही इंतज़ार। पर इस बार अर्जुन के चेहरे पर बेचैनी नहीं थी, एक अजीब सी उम्मीद थी।
दुकानदार ने उसे देखते ही कहा, “भैया, आपके लिए कुछ छोड़ गई है।”

अर्जुन का दिल धड़क उठा। एक सफेद लिफ़ाफा — इस बार मोती जैसे अक्षरों में लिखा था:
“तुम्हारे शब्दों के जवाब में।”

भाग 3

अर्जुन के हाथ काँप रहे थे। लिफ़ाफा साधारण था, लेकिन उसके भीतर जैसे कोई दुनिया छुपी हो। स्टेशन की बेंच पर बैठते ही उसने उसे धीरे से खोला। भीतर हल्के पीले रंग का कागज़ था, जिस पर वही नीली स्याही से सिया की लिखावट में शब्द चमक रहे थे—

“प्रिय अर्जुन,
तुम्हारे शब्द पढ़कर दिल एक अजीब सी सिहरन से भर गया। जैसे कोई पुराना सपना याद आ गया हो, जिसे मैंने खुद से भी छिपा रखा था।

तुमने मुझसे पूछा कि मैं कौन हूँ, कहाँ से आई हूँ। सच कहूँ तो ये सवाल मैंने खुद से भी कभी नहीं पूछा। मैं किसी छोटे से शहर की रहने वाली हूँ, जहाँ लड़कियाँ चुपचाप बड़ी होती हैं और किसी से ज़्यादा उम्मीद नहीं करतीं। किताबें मेरी दुनिया थीं, और जब तुमसे मिली, तो पहली बार लगा कि कोई उस दुनिया को भी समझता है।

तुम्हारी चिठ्ठी मेरे लिए एक जादू की तरह थी। मैं कई बार उसे पढ़ चुकी हूँ, हर बार किसी नए भाव के साथ।

पर अर्जुन, मैं एक बात बताना चाहती हूँ— मेरी ज़िंदगी इतनी आसान नहीं है। मैं हर शुक्रवार नहीं आ पाऊँगी। कई बार आना चाहकर भी नहीं आ सकूँगी। फिर भी मैं चाहती हूँ कि तुम जानो, उस दिन की मुलाकात, वो बातें, तुम्हारी आँखों में छिपे सवाल… सब मेरे लिए भी उतने ही कीमती हैं।

मैंने अपनी किताब ‘तुम्हारे नाम की चुप्पी’ के भीतर कुछ छोड़ा है। शायद उससे मेरी ज़िंदगी की परतें कुछ और खुलें तुम्हारे लिए।

— सिया”

अर्जुन ने खत को सीने से लगा लिया। कुछ पल के लिए उसकी आँखें भीग गईं। फिर वह उठा और दुकानदार से कहा,
“भैया, ‘तुम्हारे नाम की चुप्पी’ है क्या?”
“हाँ भैया, वो पीछे वाली रैक में है।”

किताब उठाते ही उसकी उँगलियाँ भीतर के कवर पर ठिठक गईं। एक कागज़ मोड़ा हुआ था, और उसमें सिया की एक तस्वीर थी— वो किसी पहाड़ी इलाके में खड़ी थी, बाल बिखरे हुए, आँखों में एक गहराई जो अर्जुन ने महसूस की थी।

तस्वीर के पीछे लिखा था—
“ये तस्वीर मेरी है, तब की जब मैं पहली बार अकेले यात्रा पर निकली थी। शायद उस दिन पहली बार मुझे अपनी आज़ादी का स्वाद मिला था।”

साथ ही एक और कागज़ पर कुछ पंक्तियाँ लिखी थीं—

> “मैंने पंखों को समझने की कोशिश की थी,
जब लोग मेरे पाँवों की ज़ंजीरें गिनवा रहे थे।
और अब जब किसी ने मेरी उड़ान देखी—
तो डर लगा, कि कहीं ये सपना भी मुझसे न छिन जाए।”

उस रात अर्जुन सो नहीं पाया। वो सिया की उन पंक्तियों को बार-बार पढ़ता रहा। हर शब्द में एक चुप्पी थी, एक घबराहट, और साथ ही एक उम्मीद भी।

अर्जुन ने अपनी डायरी में लिखा—

“सिया,
तुम किसी किताब की तरह हो— जितना पढ़ो, उतना और जानने की चाह होती है।
तुमने कहा कि तुम हर शुक्रवार नहीं आ पाओगी। लेकिन क्या अगर हम शुक्रवारों को किसी और चीज़ में बदल दें?
चिठ्ठियों में। किताबों के पन्नों में। उस दुकान की लकड़ी की गंध में।
मैं हर हफ्ते यहीं रहूँगा। सिर्फ मिलने के लिए नहीं, महसूस करने के लिए।
— अर्जुन”

अगले शुक्रवार अर्जुन फिर स्टेशन पर पहुँचा। पर इस बार कोई इंतज़ार नहीं था। वो बस बैठा रहा, किताब पढ़ता रहा, जैसे उस कोने की हवा में सिया की उपस्थिति महसूस कर रहा हो।

कुछ देर बाद, एक लड़की ने आकर दुकान से पूछा,
“क्या ‘अजनबी हवाओं की बात’ है?”

दुकानदार ने किताब निकालते हुए मुस्कुराकर कहा, “हाँ, और इसके बीच में एक चिठ्ठी है अर्जुन के लिए।”

लड़की ने अर्जुन की तरफ इशारा किया, “ये रहे अर्जुन।”

वो लड़की सिया नहीं थी। लेकिन उसके हाथ में जो लिफ़ाफा था, उस पर सिया की लिखावट थी।

अर्जुन ने धीरे से लिफ़ाफा लिया, लड़की को धन्यवाद कहा, और फिर वही बेंच पर बैठ गया। लिफ़ाफा खोला—

“अर्जुन,
तुमने मुझे अपनी डायरी के पन्नों में जगह दी, मैं उसके लिए शुक्रगुज़ार हूँ।
क्या तुम कभी सोच सकते हो कि किसी को सिर्फ दो मुलाकातों और कुछ खतों में इतना अपना सा लगने लगे?

तुम्हारा लिखा हर शब्द मेरे भीतर की चुप्पियों को तोड़ता है।
पर अर्जुन, मेरी ज़िंदगी की कुछ सीमाएँ हैं— पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, सामाजिक बंधन…
इन सबसे ऊपर एक डर है— कहीं मैं तुम्हारी ज़िंदगी में कोई अधूरी कहानी न बन जाऊं।

फिर भी, मैं चाहती हूँ कि तुम जानो— मैं अब हर शुक्रवार तुम्हारी चिठ्ठी पढ़ती हूँ। कभी स्टेशन से, कभी किसी अनजान डाकबक्से से।

शायद हम न मिलें, पर हमारी बातों की आवाज़ हवा में तैरती रहे।
तुम्हारी,
— सिया”

उस पत्र को पढ़कर अर्जुन कुछ देर तक बिल्कुल चुप रहा। फिर उसने आसमान की तरफ देखा— नीला, खुला, विशाल— जैसे उसी में सिया की आत्मा तैर रही हो।

उसने धीमे से कहा,
“मिलना ज़रूरी नहीं… महसूस करना काफी है।”

भाग 4

स्टेशन की वही पुरानी बेंच, वही दुकान, वही हल्की धूप जो छांव से आँखमिचौली खेलती थी। पर अर्जुन अब पहले जैसा अर्जुन नहीं रहा। हर शुक्रवार उसका इंतज़ार एक नई शक्ल लेता जा रहा था—कभी उम्मीद, कभी आदत, और अब शायद एक स्थायी पीड़ा।

उसने महसूस किया था कि सिया अब शब्दों में जी रही थी, मिलने में नहीं। उसने तय किया, आज वो जवाब नहीं लिखेगा। सिया से कहेगा नहीं कि वो फिर से चिठ्ठी भेजे। अगर उसे कुछ कहना होगा, तो वो खुद आएगी।

लेकिन जैसे ही उसने किताब उठाई—”अजनबी हवाओं की बात”—एक और चिठ्ठी फिसल कर ज़मीन पर गिर पड़ी।

इस बार कोई प्रस्तावना नहीं थी, न ही कोई नाम। बस कुछ लाइनें थीं, ताजगी से भीगी, पर भीतर कहीं एक कसक छिपी हुई।

“कभी-कभी लगता है हम वो दो पंक्तियाँ हैं जो किसी अधूरी कविता से बच निकलीं, और अब अपनी जगह ढूंढ रही हैं।
तुम्हारा शहर मुझे अब अपना लगता है,
और मेरा मन हर दिन उस स्टेशन की ओर उड़ जाता है—
लेकिन सिर्फ मन, मैं नहीं।
शरीर बाँध दिए जाते हैं कई नामों से।
मन मगर उन्मुक्त होता है।
तुम पढ़ते रहो मुझे, शब्दों में, हवाओं में,
और मैं भेजती रहूंगी तुम्हारे लिए हर शुक्रवार
एक अनकहा स्पर्श।”

अर्जुन ने बहुत देर तक चिठ्ठी पकड़े रखी, आँखें बंद करके। मन ही मन उसने सोचा—ये प्यार है? या कोई ऐसा रिश्ता जो शब्दों से बंधा है, लेकिन देह से नहीं?

शाम को जब स्टेशन सुनसान हो गया, उसने अपनी डायरी में लिखा—

“सिया,
तुम्हारी चिठ्ठियाँ मेरी सुबहों का सूरज हैं।
लेकिन क्या होगा जब एक दिन मैं स्टेशन ना जा पाऊं?
क्या तब भी तुम भेजोगी अपने जज़्बात किसी किताब के पन्नों में?
या फिर हम दोनों अपनी जगह से हटकर किसी तीसरे स्थान पर मिलेंगे—
एक नई किताब, एक नया शहर, और शायद एक नई शुरुआत?”

अगले शुक्रवार अर्जुन नहीं गया स्टेशन पर।

उसने सोचा, अगर सिया सच में चाहती है, तो वह खुद उसके बारे में पूछेगी। लेकिन अंदर ही अंदर कुछ टूटा। उस रात उसने कोई किताब नहीं पढ़ी, कोई डायरी नहीं खोली। मोबाइल पर लगातार स्टेशन के वीडियो देखता रहा, जहाँ लोग अपने अपने गंतव्य के लिए दौड़ते हैं। कहीं वो भीड़ में सिया तो नहीं?

शनिवार की सुबह अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई।

अर्जुन ने चौंक कर दरवाज़ा खोला। सामने वही चायवाला लड़का खड़ा था जो स्टेशन पर काम करता था।

“भैया, ये चिठ्ठी दीदी ने दी है। कहा, आपको दे आऊं।”

अर्जुन ने जल्दी से लिफ़ाफा पकड़ा। इस बार उस पर सिर्फ एक शब्द लिखा था—”चलो”

भीतर एक नक़्शा था—पुरानी दिल्ली की गलियों का। और नीचे एक सादा सा वाक्य:

“जहाँ कहानियाँ सांस लेती हैं, वहीं चलो। आज, दोपहर तीन बजे।”

अर्जुन के दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। क्या ये वही सिया थी, जो हफ्तों से सिर्फ शब्दों में जिया करती थी? आज… सामने आने की बात कर रही है?

वो तुरंत तैयार हुआ। हल्का नीला कुर्ता पहना, और एक किताब साथ रख ली—“धड़कनों की दरमियाँ।”

वो जगह नक़्शे में चावड़ी बाज़ार के पास की थी—एक पुरानी हवेली, अब एक किताबों की लाइब्रेरी में बदल चुकी थी। दरवाज़े पर झूलती पट्टिका पर लिखा था: “विरासत बुक कैफे”

वहाँ कोई और नहीं था, बस एक लड़की जो दीवार के पास खड़ी किताबों को निहार रही थी।

अर्जुन रुक गया।

वो पल शायद पूरे जीवन की सबसे लंबी एक सेकेंड थी।

वही नीली सलवार, वही बिखरे बाल, और वही मुस्कान जो आँखों से निकलकर सीधे दिल में उतरती थी।

“सिया?” उसकी आवाज़ काँप गई।

लड़की मुड़ी, और चुपचाप सिर हिलाया।

कुछ देर तक कोई कुछ नहीं बोला।

फिर सिया ने कहा,
“तुम्हें पता है, मैं हर शुक्रवार आती थी… लेकिन कभी सामने नहीं आ सकी। डर लगता था, कि तुम कुछ और सोचोगे।”

“क्या सोचता?” अर्जुन ने धीरे से पूछा।

“कि मैं कमज़ोर हूँ… या अधूरी। लेकिन मैं भी इंसान हूँ अर्जुन। मेरी भी इच्छाएँ हैं, मेरी भी सीमाएँ हैं।”

अर्जुन कुछ नहीं बोला। उसने बस अपनी किताब बढ़ा दी।

सिया ने किताब हाथ में ली, और बोली—
“धड़कनों की दरमियाँ… ये नाम मेरे जैसा ही लगता है।”

“हाँ,” अर्जुन मुस्कुराया, “क्योंकि हमारी हर बात एक धड़कन की तरह अधूरी रही—कभी पूरी तरह सुनी नहीं, कभी पूरी तरह कही नहीं।”

दोनों चुपचाप बैठ गए उस लाइब्रेरी के कोने में। बाहर बारिश की बूँदें ज़मीन पर गिर रही थीं। और भीतर… दो आत्माएँ, जो शब्दों के ज़रिये जुड़ चुकी थीं, अब पहली बार एक ही पन्ने पर थीं।

भाग 5

बाहर बारिश ज़ोरों से हो रही थी। हवा में भींगी मिट्टी की खुशबू घुली हुई थी और भीतर, विरासत बुक कैफे के कोने में बैठे अर्जुन और सिया—दो लोग नहीं, दो अधूरी कहानियाँ, जो अब धीरे-धीरे एक-दूसरे की रेखाएँ भर रही थीं।

अर्जुन ने अपनी भीगी हुई हथेली से सिया की तरफ देखा। सिया खिड़की से बाहर झांक रही थी। उसके बालों की कुछ लटें गाल पर गिर आई थीं। उसने उन्हें पीछे करने की कोशिश नहीं की। शायद वो भी चाहती थी कि ये क्षण थोड़ा और रुके।

“बारिश में कुछ है, ना?” सिया ने अचानक पूछा।
“क्या?” अर्जुन ने उसकी तरफ मुड़कर कहा।

“शायद वही, जो अधूरी चिट्ठियों में होता है… एक भीगती हुई सच्चाई, जो शब्दों से ज़्यादा कह जाती है।” उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें ठहराव था।

अर्जुन मुस्कुराया।
“तुम्हारे जैसे।”

सिया हँसी नहीं। बस उसकी आँखें थोड़ी देर तक अर्जुन की आँखों में टिकी रहीं।
“मैं सोचती थी, अगर हम कभी मिलें, तो क्या कहेंगे। पर अब लग रहा है, कुछ कहने की ज़रूरत नहीं।”

“फिर भी कहो,” अर्जुन ने कहा, “जो कहना बाकी था, उसे कह देना चाहिए। नहीं तो वो बारिश बनकर हर शुक्रवार बरसता रहेगा।”

कुछ देर सन्नाटा रहा।

फिर सिया बोली—
“मैं सोलह साल की थी जब मैंने पहली बार घर से भागने का प्लान बनाया था।”
अर्जुन चौंका नहीं। उसने सिर्फ धीरे से सिर हिलाया, सुनने के लिए।

“पापा ने कहा था, पढ़ाई छोड़ दो। माँ ने कहा, तुम अब बड़ी हो गई हो। और मैं बस ये जानना चाहती थी कि बड़ी होकर क्या होता है? क्या सपनों को मारने की उम्र होती है?”

उसने खिड़की के बाहर देखा, फिर कहा—
“मैं नहीं भागी। लेकिन मन वहीं रुक गया। उसके बाद मैंने हर शुक्रवार अपने भीतर एक चिट्ठी लिखी—कभी खुद के लिए, कभी किसी काल्पनिक अर्जुन के लिए। और फिर… स्टेशन पर तुम्हें देखा। उस दिन ऐसा लगा जैसे किसी ने मेरी पुरानी चिट्ठियों को पढ़ लिया हो।”

अर्जुन ने उसकी हथेली धीरे से थाम ली।
“और मैं सोचता था कि मैं बस किताबों का दीवाना हूँ। पर अब समझ आता है—मैं शब्दों में तुम्हें ढूंढता था।”

सिया ने हल्की मुस्कान दी, जो अधूरी नहीं थी इस बार।

बारिश तेज़ हो गई थी। कैफे की छत पर टप-टप गिरती बूँदें किसी पुराने राग की तरह गूंज रही थीं।

“क्या तुम फिर से जाओगी?” अर्जुन ने पूछा।
“जाना तो सबको होता है अर्जुन,” सिया ने कहा।
“पर कहाँ?”
“जहाँ से आई थी… या शायद कहीं और। मैं अब बंधन में नहीं रहना चाहती। लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि मैं तुम्हें छोड़ रही हूँ।”

अर्जुन की भौंहें सिकुड़ गईं।

सिया ने उसकी हथेली पर अपनी उँगलियाँ फिराईं और बोली—
“प्यार कोई स्टेशन नहीं होता जहाँ ट्रेन पकड़नी हो। ये तो वो किताब है, जिसे तुम बार-बार पढ़ सकते हो, हर बार नए मतलब के साथ।”

अर्जुन ने गहरी साँस ली।
“तो क्या हम अब सिर्फ शब्दों में मिलेंगे?”

“नहीं,” सिया बोली, “अब हम खामोशियों में मिलेंगे। मैं जब बारिश में भीगूँगी, जानूँगी तुम कहीं आसमान देख रहे होगे। जब मैं किताब की दुकान पर जाऊँगी, जानूँगी तुमने भी उसी दिन कोई किताब छूई थी।”

वो उठ खड़ी हुई।
“चलो अर्जुन, बाहर चलें। भीगते हैं… क्योंकि ये एकमात्र सच है जो हमें अभी जीना है।”

अर्जुन कुछ नहीं बोला। बस उसके साथ बाहर निकल आया।

बारिश में भीगते हुए दोनों सड़क पर चल रहे थे। दिल्ली की पुरानी गलियाँ पानी से भर गई थीं। ऑटो वाले चिल्ला रहे थे, लोग भाग रहे थे, लेकिन ये दो लोग समय से बाहर थे।

सिया ने एक जगह रुककर अपनी दोनों बाँहें फैला दीं, जैसे बारिश को गले लगा रही हो।

“कभी ऐसा किया है?” उसने पूछा।

“नहीं,” अर्जुन ने कहा।

“तो करो। वरना पछताओगे।”

अर्जुन ने भी बाँहें फैलाईं। पहली बार ऐसा लगा जैसे कोई बोझ उतर गया हो। जैसे दुनिया की आवाज़ें पीछे छूट गई हों।

सिया ने पूछा—
“अगर मैं कल चली जाऊँ, तो?”

“तो मैं हर शुक्रवार स्टेशन जाऊँगा,” अर्जुन बोला।

“अगर कभी चिट्ठियाँ ना आएं, तो?”

“तो मैं फिर भी लिखता रहूँगा। किसी किताब के पन्नों में, किसी कॉफ़ी के कप पर, या हवा में ही…”

“और अगर हम कभी न मिलें?”

अर्जुन ने मुस्कुराते हुए कहा—
“तो हम रहेंगे उन अधूरी कहानियों में, जो सबसे ज़्यादा याद की जाती हैं।”

कुछ देर बाद दोनों पास के एक पुराने मंदिर के चबूतरे पर बैठ गए। सिया ने अर्जुन की तरफ देखा।

“तुम्हें पता है, मेरी जिंदगी में बहुत से लोग आए, पर पहली बार कोई मेरी चुप्पी को पढ़ सका।”

“और मुझे पहली बार किसी ने मेरी बेचैनी को समझा,” अर्जुन ने कहा।

सिया ने उसकी तरफ झुक कर धीरे से कहा—
“शायद यही प्यार होता है।”

अर्जुन ने उसका माथा चूमा। बारिश अब थम गई थी। धूप की एक हल्की किरण मंदिर की घंटी पर पड़ रही थी।

वो क्षण किसी चित्र की तरह स्थिर था।

भाग 6

दिल्ली की सर्दियाँ धीरे-धीरे दस्तक देने लगी थीं। हवा में अब एक खास किस्म की ठंडक थी—वो जो सिर्फ दिसंबर की सुबहें लाती हैं। अर्जुन अपने कमरे की खिड़की से बाहर देख रहा था। सामने वाले पेड़ की टहनियाँ झुक गई थीं, जैसे ठंड ने उन्हें थका दिया हो।

उस दिन से दो हफ्ते हो चुके थे जब सिया के साथ उसने बारिश में भीगते हुए खुद को पहली बार पूरी तरह जीते देखा था। वो मंदिर का चबूतरा, वो हल्की सी धूप, वो चुप्पी में कहा गया ‘शायद यही प्यार है’—सबकुछ अब तक उसकी सांसों में जिंदा था।

लेकिन फिर सिया चली गई। बिना किसी और चिठ्ठी, बिना किसी अंतिम विदा के।

स्टेशन की किताबों की दुकान पर अब अर्जुन हर शुक्रवार जाता तो था, लेकिन अब वहाँ कोई लिफ़ाफा नहीं रखता था, न कोई नक्शा, न कोई कविता। सिर्फ अर्जुन होता था, एक कॉफ़ी का कप, और कभी-कभी कोई अधूरी चिठ्ठी जो उसने लिखी थी लेकिन कभी भेजी नहीं।

उस दिन दुकान के बूढ़े मालिक ने पूछा,
“भैया, वो लड़की अब नहीं आती क्या?”

अर्जुन ने सिर हिला दिया।
“शायद वो अब अपनी कहानी के अगले पन्ने पर जा चुकी है।”

“और आप?”

“मैं… उसी पन्ने पर रुका हूँ।”

सर्दियाँ अपने साथ सन्नाटा लेकर आती हैं। वो सन्नाटा जो शरीर के भीतर घुसकर दिल के कोनों में बस जाता है।

अर्जुन अब कम बोलता था, लेकिन ज़्यादा लिखता था। उसकी डायरी के पन्ने भरते जा रहे थे—कभी सिर्फ एक पंक्ति से, कभी किसी भूली हुई गंध से।

एक रात उसने लिखा—

“सिया,
क्या तुम जानती हो कि सर्दियों की चाय अब पहले जैसी नहीं लगती?
कि वो किताब जिसमें तुम्हारी चिठ्ठी रखी थी, अब हर बार खोलते ही एक आह निकल जाती है?
मैं तुम्हारे जाने को स्वीकार करने की कोशिश कर रहा हूँ,
लेकिन दिल बार-बार उसी स्टेशन पर लौट जाता है जहाँ तुमने पहली बार ‘पलकों के पीछे’ मांगी थी।”

क्रिसमस की सुबह, अर्जुन किताबों की दुकान पर नहीं गया।

वो सीधा गया विरासत बुक कैफे। वहाँ हर मेज़ पर मोमबत्तियाँ जल रही थीं। दीवारों पर गर्म रजाइयों की तस्वीरें और किताबों की सिफारिशें लगी थीं।

कैफे के कोने में वही पुराना स्टूल अब भी था, जिस पर सिया बैठी थी।

वो वहाँ बैठ गया।

वेटर ने पूछा, “सर, वही usual?”

अर्जुन ने मुस्कुराकर सिर हिलाया।

जब चाय आई, तो साथ में एक चिट्ठी भी थी—कैफे की कॉफ़ी-बुक के भीतर रखी हुई।

उसका दिल ज़ोरों से धड़का।

वही स्याही, वही लिखावट—

“प्रिय अर्जुन,
मैंने तुम्हें उस बारिश के बाद नहीं लिखा, क्योंकि मैं डर गई थी।
डर, कि अब जब हमने सच में एक-दूसरे को छुआ है,
तो कहीं शब्दों का जादू टूट न जाए।

पर सच ये है कि जादू टूटा नहीं, बल्कि और गहराया है।

मैं कहीं नहीं गई थी अर्जुन।
मैं वहीं थी—किताबों के बीच, तुम्हारी चुप्पियों के साथ।
पर खुद को समझने का वक्त चाहिए था।
तुमसे मिलने के बाद मैं पहली बार खुद को नज़र भर के देख पाई।

तुमने मुझे शब्दों में नहीं, मेरी खामोशियों में पहचाना।

मैं लौट रही हूँ।
शायद हमेशा के लिए नहीं,
लेकिन उस पन्ने तक ज़रूर जहाँ हमारी अधूरी कहानी रुकी थी।

क्या तुम मुझे वहीं फिर से पढ़ोगे?

— सिया”

अर्जुन की आँखें भर आईं। उसने कैफे के मालिक से पूछा,
“ये चिट्ठी कब आई थी?”

“कल रात कोई लड़की आई थी। बहुत देर बैठी रही। फिर ये किताब मेज़ पर रखकर चली गई।”

अर्जुन ने झटपट कॉफ़ी खत्म की और बाहर दौड़ा।

ठंडी हवा चेहरे पर चुभ रही थी, लेकिन उसे अब परवाह नहीं थी।

वो स्टेशन नहीं गया, किताबों की दुकान भी नहीं। वो पहुँचा राज घाट, जहाँ अक्सर लेखक और कवि चुपचाप बैठकर कुछ लिखते हैं।

क्यों?

क्योंकि उसने अचानक याद किया—सिया ने कभी कहा था,
“अगर कभी खुद को समझना हो, तो राज घाट जाना। वहाँ चुप्पी खुद बोलती है।”

राज घाट की सीढ़ियों पर बैठी एक लड़की हल्के नीले दुपट्टे में थी। उसके पास एक डायरी थी, जिसमें वो कुछ लिख रही थी।

अर्जुन कुछ देर तक चुपचाप उसे देखता रहा।

फिर धीरे से बोला,
“क्या ये वही पन्ना है, जहाँ से कहानी फिर से शुरू हो सकती है?”

लड़की ने सिर उठाया।
सिया।

उसकी आँखों में आँसू नहीं थे—बस एक सुकून था, जैसे बरसों बाद कोई घर लौटा हो।

“तुम आए?” उसने पूछा।

“तुम बुलाओगी और मैं न आऊँगा?” अर्जुन मुस्कुराया।

सिया ने कहा,
“अब मेरी कहानी में तुम्हारा नाम स्थायी रूप से दर्ज हो गया है।”

“और मेरा जीवन अब एक उपन्यास नहीं, एक कविता है… तुम्हारे शब्दों से सजी हुई।”

वे दोनों साथ बैठे। सामने नदी बह रही थी। हवा में ठंड थी, पर भीतर एक गर्माहट।

“अर्जुन?”
“हाँ?”
“तुम्हें क्या लगता है, ये जो हम हैं… ये क्या है?”

अर्जुन ने उसकी तरफ देखा और कहा—
“शायद ये… सर्दियों की सच्चाई है। थोड़ी ठंडी, थोड़ी नंगी, पर सबसे असली।”

भाग 7

फरवरी की सुबहें कुछ खास होती हैं। न जनवरी जैसी कठोर ठंड, न मार्च की गर्म साँसें। ये वो महीना होता है जब मौसम भी प्रेम को धीरे से महसूस करता है—न छूता है, न पूरी तरह छोड़ता है। बस, आसपास बना रहता है।

अर्जुन और सिया अब हफ्तों से मिल रहे थे—कभी राज घाट, कभी बुक कैफ़े, कभी यमुना किनारे की उस पतली सड़क पर जहाँ पेड़ एक-दूसरे की तरफ झुकते थे जैसे किसी पुराने प्रेम को छुपा रहे हों।

हर मुलाकात में कुछ शब्द होते थे, कुछ मौन, और बहुत-सी निगाहें जो वक्त से बातें करती थीं।

पर आज कुछ अलग था।

सिया ने फोन किया,
“क्या तुम आज मेरे साथ चल सकते हो कहीं?”
“कहाँ?”
“जहाँ फरवरी फुसफुसाती है।”
अर्जुन मुस्कुराया,
“फिर तो तैयार होना पड़ेगा कविता की तरह।

दोपहर तीन बजे दोनों मिले दिल्ली के लोधी गार्डन में। हवा में हल्की सी गुलाब की खुशबू घुली हुई थी। पेड़ों की छाँव में बैठी बुज़ुर्ग महिलाएं ऊन बुन रही थीं। बच्चे दूर फुटबॉल खेल रहे थे। और अर्जुन—एक किताब हाथ में, सिया के आने की प्रतीक्षा में।

सिया लाल दुपट्टा ओढ़े पहुँची। उसका चेहरा थका हुआ नहीं था, पर उसमें एक गहराई थी जो अर्जुन की आँखों से छिपी नहीं रही।

“तुम परेशान हो?” उसने पूछा।

सिया ने सिर हिलाया।
“नहीं… बस बहुत कुछ सोच रही हूँ।”

“कह सकती हो।”

“अर्जुन, क्या तुम कभी सोचते हो कि हम जैसे लोग समाज के नक्शे पर कहाँ खड़े होते हैं?”
अर्जुन चुप हो गया।

“हमारे बीच कुछ भी गलत नहीं है, फिर भी कुछ भी आसान नहीं है। मेरी माँ अब जानती हैं कि मैं किससे मिलती हूँ। उन्होंने कुछ नहीं कहा… लेकिन उनकी चुप्पी बहुत भारी थी।”

अर्जुन ने उसका हाथ थाम लिया।
“क्या तुम्हें लगता है हम अपनी जगह के बाहर कोई जगह बना सकते हैं?”

“मुझे लगता है,” सिया बोली, “प्रेम एक नक्शा नहीं होता। ये तो हवा है—जो जब चाहे कहीं भी बह सकती है। लेकिन समाज… वो हर साँस पर कीमत वसूलता है।”

वे दोनों चुपचाप चलते रहे, पुराने कब्रों के पास से गुज़रते हुए, जैसे इतिहास की कहानियों को छू रहे हों।

“देखो,” अर्जुन ने एक कब्र की ओर इशारा किया, “ये रही मीराबाई की छाया।”

सिया हँस दी।
“छाया?”
“हाँ। किसी भी प्रेम कहानी की सबसे ईमानदार गवाही उसकी छाया होती है। जो इतिहास में नहीं लिखी जाती, लेकिन हर जगह साथ रहती है।”

“क्या हम भी एक-दूसरे की छाया बन सकते हैं?”

“हम बन चुके हैं, सिया,” अर्जुन ने कहा, “अब तुम्हारा नाम मेरी सांसों में बसता है। कहीं जाऊँ या न जाऊँ, तुम साथ होती हो।”

वे एक पेड़ के नीचे बैठे। सिया ने अपने बैग से एक छोटा सा डायरी निकाला।

“मैं कुछ लिख रही थी,” उसने कहा।

“क्या मैं पढ़ सकता हूँ?”

सिया ने डायरी खोली और पढ़ने लगी—

“जब तुम मुझे छूते नहीं, फिर भी महसूस करते हो,
तो लगता है प्रेम असल में एक फुसफुसाहट है।
जो शोर नहीं करती, पर सब कुछ कह देती है।

मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि मैं कब से डर में जी रही थी।
लेकिन तुम्हारी बातों ने उस डर को पहली बार आवाज़ दी।

तुमने मुझे एक आईना दिखाया,
जिसमें मेरी अपनी परछाईं नहीं थी,
बल्कि एक पूरी औरत थी—
जिसकी आँखों में उम्मीद, और होठों पर हौसला था।”

अर्जुन कुछ नहीं बोला। उसने धीरे से डायरी ली, उसे बंद किया, और अपने सीने से लगा लिया।

“सिया, क्या तुम्हें पता है, तुमने मेरे भीतर की सर्दियों को फरवरी बना दिया?”

सिया की आँखों में नमी सी उतर आई।

“तुम्हें खोने का डर लगता है,” उसने कहा।

“मुझे तुम्हें न जी पाने का डर लगता है,” अर्जुन ने जवाब दिया।

वे फिर से चलने लगे। गार्डन में सरसों के फूलों जैसा पीला सूरज ढलने को था। हवा में हल्का ठंडापन बढ़ गया था।

“अर्जुन, क्या तुम सोचते हो कि हम एक साथ रह सकते हैं? जैसे सच में? एक छत के नीचे, एक खाने की मेज़, एक अलमारी?”

अर्जुन रुक गया।

“हाँ। लेकिन उसके लिए हमें दुनिया से नहीं, खुद से लड़ना होगा।”

“मैं लड़ना चाहती हूँ,” सिया बोली।

“और मैं तुम्हारे साथ हूँ,” अर्जुन ने दृढ़ता से कहा।

उस शाम, सिया अर्जुन के घर गई पहली बार। छोटा सा फ्लैट, एक दीवार पर किताबों की कतार, और बालकनी में मोगरे का गमला।

“तुम्हारे यहाँ तो पूरा मौसम बसता है,” सिया ने मुस्कुराकर कहा।

अर्जुन ने उसकी ओर देखा,
“और तुम्हारे आने से अब यहाँ फरवरी भी है।”

सिया ने बालकनी में खड़े होकर दिल्ली के आसमान को देखा।
“कभी-कभी सोचती हूँ,” उसने कहा, “कि क्या ये सब सच है? या हम किसी उपन्यास के पात्र हैं जो किसी लेखक की कल्पना में जी रहे हैं।”

“अगर हम उपन्यास हैं, तो मैं चाहता हूँ कि इसका अंत कभी ना आए,” अर्जुन बोला।

“और अगर आए, तो ऐसा हो…” सिया ने उसका हाथ पकड़कर कहा,
“कि लोग उसे पढ़कर रोएं नहीं, बस सोच में पड़ जाएं।”

रात ढल रही थी। दीवार पर टँगी घड़ी ने दस बजाए। चाय की प्यालियाँ अब ठंडी हो गई थीं, पर कमरे में गर्माहट थी—वो जो किसी पवित्र प्रेम की होती है।

सिया उठी,
“अब चलती हूँ।”

अर्जुन बोला,
“रुको… एक पंक्ति और लिख दूं तुम्हारे लिए।”

उसने डायरी खोली और लिखा—

“फरवरी की हर फुसफुसाहट में तुम्हारा नाम है।
जब भी हवा चलेगी, मैं जानूँगा, तुम मेरे पास हो।”

सिया ने वो पंक्ति पढ़ी, फिर अर्जुन को हल्के से गले लगाया।

“अर्जुन… अगली बार जब मिलें, तो हम ‘हम’ बन जाएं?”

“हम पहले ही ‘हम’ हैं, सिया,” अर्जुन ने कान में फुसफुसाया।

भाग 8

सिया चली गई थी, लेकिन उसकी खुशबू अभी भी कमरे में तैर रही थी—मोगरे के फूल जैसी, धीमी और स्थायी। अर्जुन बालकनी में खड़ा रहा देर तक, हवा को छूते हुए, जैसे उस स्पर्श में सिया की हथेली तलाश रहा हो।

उस रात अर्जुन ने पहली बार दीवार पर एक कैलेंडर टाँगा। हर उस तारीख पर सिया से मुलाकात हुई थी, वहाँ उसने एक छोटा सा फूल का चिन्ह बना दिया। फरवरी आधा बीत चुका था। कुछ तारीखें अभी खाली थीं, कुछ में उसके शब्द थे—”उसने कहा था,” “बारिश में भीगा था,” “पहली बार उसने मेरी किताब पढ़ी।”

अगली सुबह सिया का मैसेज आया—

“क्या तुम्हारे घर में कोई खाली कोना है, जहाँ मैं अपने मौसमों को रख सकूँ?”

अर्जुन ने तुरंत जवाब भेजा—

“मेरे पूरे घर में एक ही मौसम है अब—तुम्हारा।”

वे एक छोटे से स्टूडियो फ़्लैट की तलाश में निकल पड़े—दिल्ली के उन हिस्सों में जहाँ सड़कें तंग होती हैं, लेकिन खिड़कियों से आकाश खुला दिखाई देता है। मालवीय नगर, साकेत, और आखिर में हौज खास।

एक पुरानी इमारत की तीसरी मंज़िल पर एक फ्लैट था—छोटा, पर उजला। एक दीवार पूरी खिड़की थी, जिससे झील दिखाई देती थी। वहाँ अक्सर बत्तखें आतीं, और शाम की रोशनी पानी में सोने जैसी चमकती।

सिया ने बालकनी में खड़े होकर कहा,
“यहाँ मैं अपनी चाय पी सकती हूँ। और कविताएँ भी लिख सकती हूँ।”

अर्जुन मुस्कुराया,
“और मैं यहाँ अपनी किताबों को सजा सकता हूँ।”

ब्रोकर ने पूछा, “शादीशुदा हो आप दोनों?”

दोनों एक-दूसरे की तरफ देख कर चुप रहे।

“नहीं,” अर्जुन ने जवाब दिया, “लेकिन हम एक साथ मौसम बाँटना चाहते हैं।”

दोनों ने फ्लैट ले लिया।

पहले दिन एक गद्दा, दो तकिए, एक स्टील का केतली और बहुत सारी किताबें आईं। फ़र्नीचर बाद में आना था, लेकिन दीवारों पर तस्वीरें पहले ही लग गईं—सिया की पहाड़ों वाली, अर्जुन की स्टेशन पर बैठी तस्वीर, और बीच में एक पेंटिंग—जिसमें एक लड़की और एक लड़का बिना चेहरों के, हाथों में छायाएँ थामे खड़े थे।

“हम दोनों की पहचान शब्दों से बनी है,” सिया ने कहा, “चेहरों से नहीं।”

उनका जीवन अब एक नई लय में बहने लगा।

सुबह अर्जुन कॉफी बनाता, सिया खिड़की खोलती।
दोपहर को वो दोनों एक साथ किताबों की दुकान जाते, कभी-कभी साथ बैठकर पढ़ते, और शाम को छत पर टहलते।

शब्दों से भरी दुनिया अब सांस लेने लगी थी।

लेकिन एक शाम, जब सब ठीक लग रहा था, अर्जुन ने पूछा—

“सिया, क्या तुम्हें कभी डर नहीं लगता?”

“डर किसका?” वह बोली।

“कि ये सब… बस एक खूबसूरत सपना है, जो कभी भी टूट सकता है?”

सिया कुछ देर तक चुप रही, फिर बोली—
“मुझे डर लगता है, अर्जुन। लेकिन अब मैं डर से नहीं, प्रेम से जीना चाहती हूँ।”

“और अगर कोई हमारे रिश्ते को नाम देने को कहे?”

“तो कहेंगे, ये वो रिश्ता है जो मौसमों के बीच पैदा हुआ था—बिना शर्त, बिना मांग, बिना शोर।”

मार्च की शुरुआत हुई।

फ्लैट में अब एक डाइनिंग टेबल थी, एक दीवान, और दीवार पर अर्जुन की लिखी एक कविता की फ्रेमिंग—

“जहाँ शब्द रुक जाते हैं,
वहाँ तुम शुरू होती हो।
मेरी खामोशियों में गूंजती हुई,
मेरी साँसों में बहती हुई,
मेरी सबसे सच्ची कविता—तुम।”

एक दिन, सिया ने कहा,

“अर्जुन, क्या हम यहाँ कुछ और लोगों को बुला सकते हैं? हमारी दुनिया के बाहर के लोग?”

“जैसे?”

“मेरी माँ… तुम्हारे दोस्त… हमारी किताबों की दुनिया से बाहर के लोग।”

अर्जुन को लगा जैसे किसी ने कमरे में अचानक खिड़की खोल दी हो, और बाहर की हवा भीतर घुस आई हो।

“अगर वो हमें स्वीकार न कर सकें तो?” उसने पूछा।

“तो हम उन्हें भी धीरे-धीरे पढ़ने देंगे। जैसे हमने एक-दूसरे को पढ़ा।”

सिया की माँ आईं।

शुरुआत में उन्होंने ज़्यादा नहीं बोला। घर देखा, बालकनी में खड़ी रहीं। लेकिन जब सिया ने उनका हाथ पकड़कर कहा,
“माँ, ये अर्जुन है। मेरा साथी। मेरा घर।”

तो उन्होंने धीरे से सिर हिलाया।

“मैंने तुम्हें हमेशा चुप देखा था,” माँ बोलीं, “लेकिन आज तुम्हारी आँखों में कोई बात है। मैं शब्दों को नहीं, उस चमक को समझती हूँ।”

अर्जुन का दोस्त विशाल भी आया। अर्जुन ने उसे वही पुरानी किताब दिखाई—”पलकों के पीछे”—जिससे यह सब शुरू हुआ था।

विशाल ने कहा,
“तुम दोनों को देखकर लगता है जैसे कोई पुरानी कविता फिर से सांस ले रही है।”

एक शाम अर्जुन ने बालकनी में खड़े होकर सिया से पूछा—

“क्या अब तुम्हें लगता है हम सच में एक घर में हैं?”

सिया ने अर्जुन की उँगलियाँ थामते हुए कहा—
“हाँ। ये घर हमारे भीतर बना है। दीवारें सिर्फ बाहरी हैं। असली घर तुम्हारी आवाज़ में है, जब तुम मुझे सुबह ‘गुड मॉर्निंग’ कहते हो। असली घर वो होता है जहाँ मौसम बिना पूछे बदलते हैं, लेकिन साथ रहते हैं।”

अर्जुन ने मुस्कुराकर कहा,
“और मैं अब जानता हूँ—प्रेम सिर्फ एक मौसम नहीं होता, ये एक पूरा घर होता है… जो हमारी साँसों से बना है, और सच्चाई से टिका हुआ।”

भाग 9

अर्जुन की सुबह अब घड़ी की अलार्म से नहीं, खिड़की से आती हल्की रोशनी और रसोई में सिया की चाय की आवाज़ से होती थी। जब वह बिस्तर से उठता, सिया पहले से खिड़की खोलकर बैठी होती—एक कॉफी मग हाथ में, और सामने खुला आसमान।

“तुम हमेशा खिड़की के पास क्यों बैठती हो?” अर्जुन ने एक दिन पूछा था।

सिया ने हल्की मुस्कान के साथ जवाब दिया था, “क्योंकि ये खिड़की कभी बंद नहीं होती। यहाँ से जो रोशनी आती है, वो मुझे याद दिलाती है कि चाहे कुछ भी हो, रास्ते खुले रहते हैं।”

मार्च का मध्य था। दिल्ली के पेड़ अब पीले पत्तों से भर गए थे। हवा में गर्मी की पहली दस्तक महसूस की जा सकती थी। जीवन अपनी सहजता में लौटने लगा था, लेकिन रिश्तों के भीतर जो सवाल दबे रहते हैं, वे कभी-कभी अचानक सिर उठाते हैं।

एक शाम अर्जुन कुछ थका-थका सा लौटा। कंप्यूटर बैग फेंका और सीधे सोफ़े पर गिर गया।

सिया ने पूछा, “क्या हुआ?”

“ऑफिस में मीटिंग थी। क्लाइंट ने पूछा कि मेरी वाइफ क्या करती है।”

सिया कुछ नहीं बोली।

“मैंने कुछ जवाब नहीं दिया,” अर्जुन बोला। “क्योंकि मुझे समझ नहीं आया कि तुम्हें क्या कहूं—मेरी पार्टनर? मेरी प्रेमिका? या बस… वो जिससे मैं मौसम साझा करता हूं?”

सिया ने धीमे से पूछा, “और तुम्हें क्या लगता है मैं क्या हूं?”

अर्जुन ने उसकी ओर देखा, “तुम हो मेरी वो खिड़की, जो हर सुबह खुलती है। लेकिन समाज के लिए खिड़की कोई रिश्ता नहीं होती।”

कुछ दिन दोनों के बीच थोड़ी सी चुप्पी रही। वो चुप्पी जो रिश्तों के भीतर तब आती है जब प्रेम से ज़्यादा पहचान की बात होने लगती है।

एक शाम अर्जुन अकेले टहलने चला गया। झील के पास बैठकर उसने अपनी डायरी खोली:

“सिया,
क्या प्रेम को परिभाषित करना ज़रूरी है?
क्या समाज का स्वीकार हमें हमारी सच्चाई से ज़्यादा चाहिए?
या फिर हमने जो बाँटा है, वही सबसे बड़ा उत्तर है?”

जब वह लौटा, सिया बालकनी में नहीं थी। कमरे की बत्तियाँ बुझी थीं। लेकिन मेज़ पर एक किताब रखी थी, उसके बीच में एक चिट्ठी।

“प्रिय अर्जुन,
कभी-कभी मुझे लगता है, मैं फिर से भागना चाहती हूँ।
लेकिन इस बार डर से नहीं, खोज के लिए।
तुम्हारे साथ जीते हुए मैंने खुद को पहचाना।
पर क्या मैं इतनी परिपक्व हूं कि तुम्हारा पूरा साथ निभा सकूं?

मैं जानती हूं, तुम मुझे अपना घर मानते हो।
लेकिन मुझे खुद को थोड़ा और समझना है।
क्या मैं किसी की परिभाषा बनने लायक हूं?
या फिर मैं सिर्फ एक कविता ही हूं, जो कभी पूरी नहीं होती?

मैं वापस आऊंगी, अर्जुन।
क्योंकि तुम्हारे पास जो खिड़की है, वो हमेशा खुली रहती है।

— सिया”

अर्जुन देर तक उसी कुर्सी पर बैठा रहा। चिट्ठी बार-बार पढ़ता रहा। वह जानता था—सिया भागी नहीं है। वह खोज पर निकली है। शायद खुद की, शायद उनके रिश्ते की।

उसने अगले दिन वही किताब जिसमें चिट्ठी थी, अपने बैग में रखी और स्टेशन गया।

पुरानी किताबों की दुकान पर जाकर वही किताब दुकानदार को दी।

“अगर कोई लड़की आए, जो इसका दूसरा हिस्सा ढूंढे… तो ये देना।”

दुकानदार ने मुस्कुराकर कहा, “अभी भी तुम्हारा भरोसा बाकी है, भैया।”

अर्जुन ने जवाब दिया, “वो लड़की भरोसे से नहीं, प्रेम से जीती है। और प्रेम लौटता है… हमेशा।”

अर्जुन का जीवन फिर से अकेलेपन में लौट आया, लेकिन अब उसमें कोई दुख नहीं था। सिया की उपस्थिति उसकी अनुपस्थिति में भी थी।

हर शुक्रवार वह उस स्टेशन की बेंच पर बैठता, एक नई किताब पढ़ता, एक नई चाय पीता। और हर बार एक नई चिट्ठी लिखता—जो भेजी नहीं जाती थी, बस उसके जेब में रहती।

एक चिट्ठी थी—

“सिया,
खिड़की अभी भी खुली है।
सूरज आता है, चिड़ियाँ चहकती हैं।
और हर शाम, जब मैं अकेले खिड़की से देखता हूँ,
तो तुम्हारी परछाईं दीवार पर पड़ती है—जैसे तुम कभी गई ही नहीं।”

फिर एक दिन, अप्रैल की शुरुआत में, अर्जुन को स्टेशन पर एक चायवाले ने आवाज़ दी।

“भैया, आपके लिए कुछ आया है।”

एक किताब थी—“तुम्हारे नाम की चुप्पी”—और उसमें वही स्याही से लिखा एक पन्ना-

“अर्जुन,
मैं लौट आई हूँ।
इस बार खुद को लेकर, तुम्हें लेकर, और उस खिड़की को लेकर भी
जिसे तुमने कभी बंद नहीं किया।

मैंने समझ लिया है—कोई परिभाषा हमारी कहानी को पूरा नहीं कर सकती।
हम एक कहानी हैं—जो जीती जाती है, नहीं समझाई जाती।

क्या मैं फिर से वही कॉफी मग रख सकती हूँ तुम्हारे मेज़ पर?

— सिया”

अर्जुन दौड़ता हुआ घर पहुँचा। दरवाज़ा खोला, खिड़की की ओर देखा।

सिया वहाँ खड़ी थी, वही नीला दुपट्टा ओढ़े, वही हल्की मुस्कान।

“मैं लौट आई,” उसने कहा।

अर्जुन कुछ नहीं बोला।

वह बस आगे बढ़ा, और सिया को गले से लगा लिया।

उन दोनों के बीच अब कोई सवाल नहीं था।

केवल एक खिड़की थी, जो खुली रहती थी।

भाग 10

खिड़की अब भी खुली थी। लेकिन इस बार, हवा के साथ भीतर आई थी वह लड़की, जो कभी चुपचाप अपनी परछाइयों को पढ़ा करती थी—सिया।

उसकी वापसी चुपचाप नहीं थी, पर वह किसी घोषणा जैसी भी नहीं थी। वह किसी पुराने पन्ने के लौट आने जैसी थी, जिस पर उंगलियाँ अपने-आप फिरने लगती हैं। जैसे किताब खुद ही खुल जाए ठीक वहीं, जहाँ कहानी अधूरी छूट गई थी।

अर्जुन ने सिया को देखा, जैसे पहली बार देख रहा हो।

“क्या इस बार हमेशा के लिए?” उसने पूछा।

सिया की आँखों में जवाब था। उसने कुछ नहीं कहा, बस अपना बैग मेज़ पर रखा, और उसी खिड़की के पास बैठ गई, जैसे कभी गई ही न थी।

अर्जुन और सिया के बीच अब वो ताजगी नहीं रही जो पहले प्रेम में होती है, लेकिन जो था वह उससे कहीं ज़्यादा कीमती था—सहमति, विश्वास, और एक लंबा साँझा मौन।

“मैं वहाँ नहीं भागी थी अर्जुन,” सिया ने दोपहर को कहा, “मैं बस यह देखने गई थी कि मैं तुम्हारे बिना भी रह सकती हूँ या नहीं।”

“और क्या पता चला?” अर्जुन ने पूछा।

सिया मुस्कुराई, “कि मैं रह सकती थी… पर जी नहीं सकती थी।”

उनके बीच अब छोटे-छोटे रिवाज़ बन गए थे। जैसे हर शनिवार की शाम दोनों बाहर नहीं जाते, बस घर में एक दूसरे को पढ़ते थे। कभी किताबों के ज़रिए, कभी हाथ थामकर, कभी खामोशियों में।

एक रविवार को, सिया ने कहा,
“हम कुछ तय नहीं करते न?”

“क्या?” अर्जुन ने पूछा।

“कि हमें अब क्या करना है। शादी? साथ रहना? बच्चे? कोई योजना नहीं। बस इस पल को पूरी तरह जिया जाए।”

अर्जुन ने सिर हिलाया।
“हम कभी भी पारंपरिक नहीं रहे, सिया। और मुझे अब समझ में आया है कि जो प्रेम तुम्हें साँस लेना सिखाए, उसे बाँधने की ज़रूरत नहीं होती।”

अर्जुन की माँ एक बार अचानक दिल्ली आईं। पहले तो थोड़ा चौंकीं, फिर घर का माहौल देखकर कुछ नहीं बोलीं। रात को जब सिया ने उन्हें चाय दी, और खुद जाकर पास बैठी, तो माँ ने पूछा—

“तुम पढ़ती हो?”

“हर दिन,” सिया ने जवाब दिया।

“क्या?”

“खुद को, अर्जुन को, और उस दुनिया को जो हमारे बाहर है।”

माँ थोड़ी देर चुप रहीं, फिर बोलीं,
“अगर पढ़ती हो, तो समझ भी आती होगी। अर्जुन बचपन से अलग था। उसे कोई सांचे में मत ढालना।”

“नहीं आंटी,” सिया ने कहा, “मैं तो बस उसके साथ साँचा छोड़कर बहना चाहती हूँ।”

माँ ने पहली बार सिया की हथेली थामी।

मई की शुरुआत में, उन्होंने मिलकर घर का रंग बदला। दीवारों पर हल्का नीला पेंट हुआ—खिड़की के रंग जैसा। नया पर्दा लाया गया, जिसमें छोटे-छोटे बादल बने थे।

“अब ये खिड़की बादलों की तरफ भी खुलती है,” सिया ने कहा।

एक अलमारी भी आई, जिसमें दोनों ने साथ मिलकर किताबें सजाईं। अर्जुन की डायरी, सिया की कविताएँ, और वो पहली किताब—“पलकों के पीछे”—जिससे सब शुरू हुआ था।

एक दिन, अर्जुन ऑफिस से लौटा और देखा, सिया पूरे कमरे में छोटी-छोटी चिट्ठियाँ चिपका रही थी।

“ये क्या कर रही हो?”

“हमने इतने खत लिखे… इतने शब्दों में जिया। मैं चाहती हूँ कि हमारा घर भी उन शब्दों से भरा रहे।”

उसने एक कागज़ की चिट्ठी दी:

“जहाँ प्रेम ठहरता है,
वहाँ घड़ियाँ नहीं टिक-टिक करतीं।
वहाँ दीवारें कान बन जाती हैं,
और खिड़कियाँ आँखें।
तुम वही जगह हो, अर्जुन।
जहाँ मैं थमती नहीं,
बल्कि बहती हूँ—पूरी तरह।”

अर्जुन ने चिट्ठी पढ़ी, और उसे उस दीवार पर चिपका दिया, जहाँ सुबह की रोशनी सबसे पहले गिरती थी।

उनका जीवन अब कोई परीकथा नहीं था। कभी-कभी बहस भी होती थी, कभी चुप्पियाँ खिंच जाती थीं, और कभी नींद अधूरी रह जाती थी।

लेकिन जो नहीं टूटा, वह था वो रिश्ता, जो मौसमों की तरह बदलता जरूर था, पर हर बार लौटता था।

एक दिन, सिया ने कहा,
“क्या तुम जानते हो, प्रेम किसे कहते हैं?”

“तुम्हीं बताओ,” अर्जुन ने कहा।

“जब कोई तुम्हें बदलना न चाहे, लेकिन फिर भी तुम खुद को बेहतर बना लो… सिर्फ उसके होने की वजह से। यही प्रेम है।”

जून की एक भारी गर्म दोपहर में, बिजली चली गई थी। पंखा बंद, कूलर चुप। अर्जुन पसीने में भीगते हुए रसोई में पानी पीने गया। वापस आया, तो देखा—सिया उसके लिए हाथ से पंखा झल रही थी।

वह हँस पड़ा।
“क्या ज़रूरत थी?”

सिया बोली,
“जब कोई तुम्हें प्रेम करता है, तो ज़रूरतें भी चाह बन जाती हैं।”

और तब, पहली बार, अर्जुन ने वह कहा जो अब तक सिर्फ उसकी डायरी में था—

“सिया,
तुम मेरे जीवन की सबसे सुंदर कविता हो।
मैं चाहता हूँ कि जब मेरा अंत हो,
तो मेरा नाम तुम्हारे नाम के ठीक बाद लिया जाए।”

सिया कुछ देर चुप रही, फिर उसकी ओर बढ़ी,
“और मैं चाहती हूँ,
कि जब कोई पूछे कि प्रेम कैसा होता है,
तो उन्हें हमारा घर दिखाया जाए—
जहाँ खिड़की कभी बंद नहीं होती।”

 

समाप्त

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