Hindi - प्रेम कहानियाँ

दुपट्टा और स्टेथोस्कोप

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अन्वी शर्मा


लखनऊ मेडिकल कॉलेज की सुबह हमेशा अलग होती थी—कभी नीले आसमान में सूरज की तेज़ धूप सीधी इमारतों की सफ़ेद दीवारों पर पड़कर चमक उठती, तो कभी बरामदों में टंगे नीले-हरे कोट और सफ़ेद लैब कोट हवा में झूलते रहते। उस सुबह कैंपस में एक अलग ही हलचल थी, क्योंकि नए बैच की कक्षाएँ शुरू हो रही थीं। हॉस्टल से निकलती लड़कियों के समूहों में हंसी-ठिठोली और लड़कों के बीच किताबें और नोट्स के बोझ तले दबे चेहरे—हर जगह एक ताजगी का माहौल था। इन्हीं चेहरों के बीच नायरा खान थी—दूसरे साल की मेडिकल स्टूडेंट, लेकिन नई ऊर्जा से भरी हुई। उसकी पहचान हमेशा की तरह उसका लाल दुपट्टा था, जो उसके सफेद सलवार-कुर्ते के ऊपर लहराता हुआ कैंपस में उसकी उपस्थिति दर्ज कराता था। वह चुलबुली थी, पर ज़िद्दी भी; उसे लगता था कि पढ़ाई केवल किताबों से नहीं होती, बल्कि सोच और अनुभव से भी होती है। उस सुबह जब वह अपनी क्लास की ओर बढ़ रही थी, उसकी आंखों में वही चमक थी जैसे कोई नया सफर शुरू कर रहा हो। वहीं, क्लासरूम में बैठा हर छात्र जानता था कि आज उनकी पहली लेक्चर क्लास असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. अर्जुन सिंह लेंगे—जिन्हें लेकर पूरी कॉलेज में एक ही खौफ़ था। अर्जुन सिंह की छवि हमेशा से सख़्त, अनुशासनप्रिय और बेहद गंभीर प्रोफेसर की रही थी। उनके गले में लटकता स्टेथोस्कोप जैसे उनकी पहचान बन चुका था। किसी भी स्टूडेंट की छोटी सी गलती पर उनकी निगाह ऐसे टिक जाती कि सामने वाला डर के मारे कांप उठे।

क्लास की घड़ी ने जब नौ बजाए, तभी भारी कदमों से डॉ. अर्जुन का प्रवेश हुआ। दरवाज़ा खुलते ही जैसे पूरे कमरे की हवा बदल गई। सफ़ेद कोट, नीली शर्ट, और गले में स्टेथोस्कोप—उनकी उपस्थिति से ही सबको एहसास हो गया कि अब मज़ाक और हल्की-फुल्की बातें थम जाएंगी। उन्होंने अपनी तेज निगाहों से पूरे क्लासरूम को एक बार देखा और बिना कुछ कहे बोर्ड पर लिखना शुरू किया। तभी नायरा थोड़ी देर से, अपने लाल दुपट्टे को ठीक करती हुई अंदर आई। उसकी हंसी-ठिठोली की आवाज़ जैसे दरवाज़े तक गूँज गई थी, लेकिन क्लास के भीतर आते ही उसकी नज़र अर्जुन सर पर पड़ी। कमरे में एकदम सन्नाटा छा गया। अर्जुन की नज़रों में वही कठोरता थी, और नायरा ने पहली बार महसूस किया कि यह आदमी सिर्फ़ किताब नहीं पढ़ाता, बल्कि हर छात्र को परखता भी है। अर्जुन ने बिना आवाज़ ऊँची किए कहा—“मिस खान, क्या मेडिकल कॉलेज की घड़ी आपके घर की घड़ी से अलग चलती है?” पूरी क्लास एक पल के लिए दबे स्वर में हँस दी, लेकिन नायरा को जैसे चुनौती मिल गई। उसने आत्मविश्वास से कहा—“सर, देर तो हुई है, लेकिन अगर पढ़ाई का जुनून हो तो समय मायने नहीं रखता।” यह सुनते ही अर्जुन के चेहरे पर गुस्से और आश्चर्य का मिश्रण आ गया। उन्होंने पहली बार किसी स्टूडेंट को इस तरह जवाब देते सुना था।

उस दिन की क्लास पूरे सख़्ती के साथ चली, पर बीच-बीच में अर्जुन की नज़रें नायरा पर टिक जातीं। वह सवाल पूछते और अक्सर वही नायरा से जवाब मांगते। नायरा ने भी जैसे मन ही मन तय कर लिया था कि चाहे कितना भी कठिन सवाल हो, वह जवाब ज़रूर देगी। उसकी आवाज़ में आत्मविश्वास और आँखों में एक जिद थी, जो अर्जुन की सख़्ती से टकरा रही थी। क्लास के अंत में जब सब छात्र निकल गए, तब अर्जुन ने नायरा को रोक लिया। “आपको लगता है कि मेडिकल पढ़ाई केवल दुपट्टे लहराने और बहस करने से होती है? यहाँ हर गलती किसी की जान ले सकती है।” उनकी आवाज़ में कठोरता थी, लेकिन आँखों में एक अनकहा भाव छुपा हुआ था। नायरा पल भर को चुप रही, फिर बोली—“सर, दुपट्टा सिर्फ़ मेरी पहचान है, मेरी पढ़ाई में रुकावट नहीं। और जहाँ तक जान की कीमत की बात है, उसे समझने के लिए किसी किताब से ज़्यादा इंसानियत की ज़रूरत होती है।” इतना कहकर वह वहाँ से निकल गई, लेकिन जाते-जाते उसके लाल दुपट्टे का सिरा अर्जुन के स्टेथोस्कोप से हल्के से छू गया। अर्जुन कुछ पल के लिए ठिठक गए, जैसे यह अनजाना स्पर्श उनके भीतर कोई पुराना एहसास जगा गया हो। उस पल उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि यह लड़की बाकी सब से अलग है—और शायद यही अलगपन आगे चलकर उनकी ज़िंदगी बदलने वाला है।

लखनऊ मेडिकल कॉलेज का नया दिन शुरू हुआ और क्लासरूम में सबकुछ सामान्य दिखाई दे रहा था, लेकिन नायरा के मन में पिछली दिन की घटना ताज़ा थी। उसे महसूस हुआ था कि डॉ. अर्जुन ने जानबूझकर उसे निशाना बनाया और पूरी क्लास के सामने उसकी इज़्ज़त कम करने की कोशिश की। नायरा के लिए यह सिर्फ़ एक लेक्चर नहीं था, बल्कि आत्मसम्मान का सवाल था। वह जिद्दी थी, और उसकी जिद यही कहती थी कि अगर अर्जुन उसे नीचा दिखाने की कोशिश करेंगे, तो वह और भी तेज़ चमकेगी। उसी दौरान फिज़ियोलॉजी की प्रैक्टिकल क्लास शुरू हुई। प्रैक्टिकल लैब में चारों तरफ़ ग्लास जार, एनाटॉमी मॉडल, माइक्रोस्कोप और मरीजों पर परीक्षण के लिए बने बेड्स लगे हुए थे। हर छात्र छोटे-छोटे समूहों में बाँटा गया और उन्हें किसी न किसी कार्य की ज़िम्मेदारी दी गई। अर्जुन सिंह हमेशा की तरह सफ़ेद कोट में, गले में स्टेथोस्कोप और चेहरे पर सख़्ती लिए लैब में दाख़िल हुए। उनकी तेज़ निगाहें एक-एक छात्र को परख रही थीं। जब उनकी नज़र नायरा पर पड़ी तो हल्की सी भौंहें सिकुड़ीं, मानो उन्हें पहले से पता हो कि आज भी यह लड़की किसी न किसी बहस का कारण बनेगी। उन्होंने आदेश दिया—“मिस खान, आप इस मरीज की जाँच कीजिए और सही डायग्नोसिस लिखकर मुझे बताइए।” पूरी लैब एक पल को शांत हो गई, क्योंकि सबको लगा कि अब फिर कुछ होने वाला है।

नायरा आगे बढ़ी और आत्मविश्वास से मरीज का ब्लड प्रेशर नापने लगी। उसके हाथ थोड़े काँपे लेकिन उसने खुद को संयमित रखा। फिर उसने मरीज से सवाल पूछे, उसकी सांसें सुनी और तुरंत नोटबुक में कुछ लिखा। अर्जुन पास आकर ठिठक गए और उसकी लिखी डायग्नोसिस देखी। “गलत!” उन्होंने तीखे स्वर में कहा। “आपने बिना ध्यान दिए निर्णय ले लिया। मेडिकल साइंस कोई खिलौना नहीं कि जैसे-तैसे कुछ लिख दिया। आपकी इस लापरवाही से किसी की जान जा सकती है।” उनके शब्द नुकीले तीर की तरह चुभे। नायरा ने गहरी सांस ली और उनकी आँखों में सीधा देखा—“सर, आपने मेरी बात पूरी सुनी भी नहीं। मैंने यहाँ सिर्फ़ शुरुआती नोट्स लिखे हैं, पूरा डायग्नोसिस अभी बाकी है। अगर आप मुझे समझाने का मौका देंगे, तो मैं विस्तार से बता दूँगी।” क्लास के कुछ छात्रों ने दबे स्वर में हँस दिया, मानो उन्हें यह बहस पसंद आ रही हो। अर्जुन को लगा कि यह लड़की न केवल बहस करती है, बल्कि उनकी प्रतिष्ठा को चुनौती भी देती है। उन्होंने गुस्से से कहा—“मेडिकल कॉलेज में पहले सीखना पड़ता है, फिर बहस करनी पड़ती है। आपसे जितनी उम्मीद थी, आप हर बार उससे कम ही निकलती हैं।” नायरा की आँखों में गुस्सा तैर गया, उसने दृढ़ स्वर में जवाब दिया—“और मुझे लगता है कि आप मुझसे जितनी नाराज़गी दिखाते हैं, उसके पीछे वजह सिर्फ़ मेरी पढ़ाई नहीं, बल्कि आपका अहंकार है।” इतना सुनकर पूरी लैब में सन्नाटा छा गया। किसी ने भी आज तक अर्जुन सर को इस तरह किसी छात्रा के सामने तिलमिलाते हुए नहीं देखा था।

उस दिन का माहौल कुछ अलग ही था। अर्जुन के चेहरे पर गुस्सा था लेकिन उनकी आँखों में एक अजीब-सा आकर्षण भी झलक रहा था, जिसे शायद वे खुद भी नहीं पहचानना चाहते थे। नायरा ने अपने मन में ठान लिया था कि वह अर्जुन को साबित करके दिखाएगी कि वह सिर्फ़ लाल दुपट्टे वाली लड़की नहीं, बल्कि एक मेहनती और काबिल डॉक्टर बनने की काबिलियत रखती है। प्रैक्टिकल खत्म होने के बाद भी दोनों के बीच की यह तकरार सबके लिए चर्चा का विषय बनी रही। कैंटीन में बैठे छात्र फुसफुसा रहे थे—“यार, यह नायरा तो कमाल की लड़की है, जिसने अर्जुन सर को भी चुप करा दिया।” तो कहीं कोई कह रहा था—“देखना, अर्जुन सर अब और भी सख़्ती दिखाएँगे।” लेकिन सच्चाई यह थी कि अर्जुन जितनी सख़्ती बाहर से दिखा रहे थे, भीतर कहीं न कहीं वे नायरा की जिद और आत्मविश्वास से प्रभावित भी हो रहे थे। उन्होंने अपने करियर में बहुत से छात्रों को देखा था, लेकिन ऐसा सामना पहले कभी नहीं हुआ था। नायरा की आँखों में जो चमक थी, वह उन्हें परेशान भी कर रही थी और आकर्षित भी। वहीं दूसरी ओर नायरा जब अपने हॉस्टल रूम में पहुँची, तो आईने में खुद को देख मुस्कुरा उठी। उसे लगा कि आज उसने अपनी पहचान दर्ज करा दी है। उसके मन में एक आग जल चुकी थी—अर्जुन चाहे जितनी कोशिश कर लें, वह हर कदम पर खुद को उनसे बेहतर साबित करेगी। उसे अभी नहीं पता था कि यह टकराव ही धीरे-धीरे एक अनजानी डोर में बदलने वाला है, जिसकी शुरुआत हो चुकी थी।

अगले हफ्ते मेडिकल कॉलेज का माहौल कुछ और ही था। दूसरी साल के छात्रों को अब सीधे मरीजों के साथ क्लिनिकल प्रैक्टिकल करने का मौका दिया जा रहा था। अस्पताल का वार्ड उन दिनों असली प्रशिक्षण स्थल बन गया था, जहाँ डॉक्टर, नर्स और मेडिकल स्टूडेंट्स सब मिलकर एक-एक केस पर काम करते थे। सुबह-सुबह ही नायरा ने अपने लाल दुपट्टे को संभालते हुए सफेद लैब कोट पहना और नोटबुक हाथ में लेकर वार्ड की ओर बढ़ी। उसे पता था कि वहाँ डॉ. अर्जुन मौजूद होंगे और शायद आज फिर उसकी परीक्षा लेने का कोई मौका ढूंढेंगे। लेकिन इस बार उसने मन ही मन तय कर लिया था कि वह किसी भी हालत में पीछे नहीं हटेगी। वार्ड के भीतर एक बूढ़े मरीज को लेकर हलचल थी। उनकी सांसें भारी चल रही थीं, और नर्सें इधर-उधर दौड़ रही थीं। अर्जुन पहले से वहाँ खड़े थे, चेहरे पर वही गंभीरता और आँखों में वही तेज़ी। उन्होंने सब छात्रों से कहा—“यह केस आसान नहीं है। मैं चाहता हूँ कि तुम सब ध्यान से देखो और सही निर्णय लो।” फिर उनकी निगाह सीधे नायरा पर पड़ी। “मिस खान, आप आगे आइए। आज देखता हूँ कि आपका आत्मविश्वास कितनी दूर तक जाता है।” यह सुनकर सभी छात्रों की नज़रें नायरा पर टिक गईं।

नायरा ने गहरी सांस ली और धीरे-धीरे मरीज के पास गई। उसने ब्लड प्रेशर जाँचा, स्टेथोस्कोप लगाकर छाती की धड़कनें सुनी और मरीज से सवाल पूछे। वह पूरी तन्मयता से नोट्स बना रही थी, तभी अर्जुन उसके बेहद करीब आकर खड़े हो गए। उनके हाथ में स्टेथोस्कोप था, लेकिन जैसे ही उन्होंने उसे आगे बढ़ाया, गलती से उसका सिरा नायरा के दुपट्टे में उलझ गया। उस पल वार्ड में मौजूद सब छात्रों की सांसें थम सी गईं। नायरा ने चौंककर ऊपर देखा तो पाया कि अर्जुन भी उतने ही हैरान हैं। एक पल के लिए दोनों की निगाहें मिलीं—एक कठोरता से भरी हुई, दूसरी जिद्दी आत्मविश्वास से। दुपट्टा और स्टेथोस्कोप का यह उलझाव जैसे एक अजीब-सी डोर का प्रतीक बन गया, जिसे न तो अर्जुन तुरंत छुड़ा पा रहे थे और न ही नायरा। आस-पास खड़े कुछ छात्रों के चेहरों पर हल्की सी मुस्कान उभर आई, लेकिन किसी की हिम्मत नहीं थी कि कुछ कह सके। अर्जुन ने हल्के से स्टेथोस्कोप को दुपट्टे से छुड़ाया और धीमे स्वर में कहा—“ध्यान से काम कीजिए, यह खेल नहीं है।” नायरा ने तुरंत जवाब दिया—“सर, मेरे लिए यह खेल नहीं, जिम्मेदारी है। और आप चाहें जितनी बार मुझे परख लें, मैं हर बार खुद को साबित करूँगी।” उसकी आवाज़ में दृढ़ता थी, लेकिन आँखों में उस पल एक हल्की झलक थी—शायद पहली बार वह अर्जुन को सिर्फ़ सख़्त प्रोफेसर के रूप में नहीं देख रही थी।

उस दिन की क्लिनिकल प्रैक्टिस देर तक चली। अर्जुन ने नायरा से कई मुश्किल सवाल पूछे, और नायरा ने बिना झिझक उनका जवाब दिया। कई बार उसकी बात अधूरी या गलत होती, लेकिन हर बार वह डगमगाने के बजाय और आत्मविश्वास के साथ खड़ी हो जाती। अर्जुन के चेहरे पर पहले चिढ़, फिर आश्चर्य और अंत में एक हल्की-सी स्वीकृति झलकने लगी। बाकी छात्रों ने भी महसूस किया कि आज माहौल अलग है—यह सिर्फ़ डॉक्टर और छात्रा के बीच का संवाद नहीं, बल्कि दो अलग स्वभावों का टकराव है, जो धीरे-धीरे किसी गहरी समझ में बदल रहा है। जब क्लास खत्म हुई, तो नायरा ने अपनी नोटबुक समेटी और बाहर निकलने लगी। अर्जुन ने उसे रोकते हुए कहा—“मिस खान, आपने आज अच्छा काम किया। लेकिन याद रखिए, मेडिकल सिर्फ़ आत्मविश्वास से नहीं, धैर्य और विनम्रता से भी सीखा जाता है।” नायरा ने पलटकर देखा और मुस्कुराते हुए बोली—“सर, शायद आप भूल रहे हैं, धैर्य और जिद—दोनों ही डॉक्टर को पूरा बनाते हैं।” इतना कहकर वह बाहर निकल गई, और अर्जुन देर तक उसे जाते हुए देखते रहे। उनके मन में पहली बार यह खयाल आया कि यह लड़की सचमुच अलग है। दुपट्टा और स्टेथोस्कोप की वह अनजानी उलझन जैसे उनके भीतर कोई ऐसा भाव जगा गई थी, जिससे वे वर्षों से दूर भाग रहे थे।

कॉलेज के आने वाले दिनों में माहौल और भी तनावपूर्ण हो गया। नायरा और अर्जुन के बीच हर दूसरे दिन किसी न किसी बात पर टकराव होना तय था। कभी लेक्चर हॉल में, कभी प्रैक्टिकल लैब में, तो कभी अस्पताल के वार्ड में—जहाँ भी दोनों आमने-सामने होते, वहाँ ज़रूर कोई चिंगारी उठती। नायरा को ऐसा महसूस होने लगा कि अर्जुन जानबूझकर हर वक्त उसकी गलती निकालते हैं, चाहे वह कितनी भी मेहनत करे। एक बार एनाटॉमी की क्लास में जब उसने पूरी तैयारी के साथ एक केस स्टडी प्रेज़ेंटेशन दिया, तो पूरी क्लास ने उसकी तारीफ़ की। लेकिन अर्जुन ने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा—“आपके पॉइंट्स अच्छे थे, लेकिन प्रेज़ेंटेशन में गहराई की कमी थी। एक डॉक्टर के लिए सतही जानकारी किसी काम की नहीं होती।” यह सुनकर नायरा का चेहरा उतर गया। उसे लगा कि अर्जुन उसकी मेहनत को कभी भी स्वीकार नहीं करना चाहते। वह देर रात तक पढ़ाई करती, लाइब्रेरी में बैठकर रिसर्च करती, लेकिन अर्जुन की नज़रों में उसकी कोशिशों का कोई मतलब ही नहीं था। धीरे-धीरे यह भावना उसके भीतर जमने लगी कि अर्जुन उसकी तरक्की रोकना चाहते हैं। हॉस्टल में उसकी सहेलियाँ अक्सर कहतीं—“नायरा, तू जितनी मेहनत करती है, सर उतनी ही बार तुझे नीचा दिखाते हैं। शायद उन्हें तुझसे कोई निजी शिकायत है।” यह सुनकर नायरा का गुस्सा और जिद दोनों बढ़ जाते। उसे लगता कि अब चाहे कुछ भी हो, वह अर्जुन को साबित करके दिखाएगी कि उसकी मेहनत और काबिलियत किसी से कम नहीं।

दूसरी ओर अर्जुन की सोच बिल्कुल अलग थी। उनके नज़रिए से नायरा एक ऐसी छात्रा थी जो पढ़ाई से ज्यादा अपनी छवि और दिखावे पर ध्यान देती थी। हर लेक्चर में उसके लाल दुपट्टे की चर्चा होती, हर क्लास में वह सबसे आगे आकर जवाब देती और अगर कुछ गलत हो जाए तो बहस शुरू कर देती। अर्जुन को यह सब सतही आत्मविश्वास लगता था। उन्हें लगता था कि नायरा डॉक्टर बनने की गंभीरता को नहीं समझती, बल्कि सिर्फ़ सबके सामने खुद को साबित करने की होड़ में लगी रहती है। एक बार अस्पताल में, जब नायरा ने मरीज के सामने ज़ोर से अपने विचार रख दिए, तो अर्जुन ने तुरंत टोका—“मिस खान, एक डॉक्टर को पहले सुनना चाहिए और फिर बोलना। यह मंच नहीं है, जहाँ आप सबको प्रभावित करने की कोशिश करें।” यह सुनकर नायरा तिलमिला उठी और बोली—“सर, अगर मरीज को भरोसा दिलाना दिखावा है, तो शायद आप इंसानियत की परिभाषा भूल गए हैं।” दोनों के बीच का यह तीखा संवाद पूरे वार्ड में गूँज गया। बाकी छात्र हैरानी से देखते रहे कि कैसे एक स्टूडेंट अपने प्रोफेसर के सामने इस तरह डटकर खड़ी हो सकती है। अर्जुन ने गुस्से में कहा—“आपकी यही आदत आपको आगे बढ़ने से रोकेगी।” और नायरा ने पलटकर कहा—“नहीं सर, यही आदत मुझे आगे बढ़ाएगी।” उस दिन से दोनों के बीच की दूरी और भी बढ़ गई।

गलतफहमियों का यह सिलसिला यहीं नहीं रुका। हर छोटी-बड़ी बात अब उनके बीच तकरार का कारण बन जाती। कैंटीन में जब छात्र हँसते-बतियाते, तो अर्जुन और नायरा का नाम बातचीत का सबसे अहम हिस्सा होता। कुछ कहते—“दोनों की लड़ाई दरअसल छिपा हुआ आकर्षण है।” तो कुछ कहते—“नहीं, अर्जुन सर सचमुच नायरा को पसंद नहीं करते।” लेकिन सच्चाई यह थी कि दोनों के बीच अनकहे भाव लगातार गहराते जा रहे थे। नायरा हर बार अर्जुन की डाँट को अपने आत्मसम्मान पर चोट समझती और और भी मेहनत करती, जबकि अर्जुन हर बार उसकी जिद को लापरवाही मानते और सख्ती से पेश आते। दोनों के बीच का यह रिश्ता जैसे एक रस्साकशी बन गया था—जहाँ एक ओर अहंकार और आत्मसम्मान थे, वहीं दूसरी ओर छिपे हुए जज़्बात और अनकहे सवाल। कॉलेज की गलियों में, वार्ड की भीड़भाड़ में, लाइब्रेरी की खामोशी में—जहाँ भी दोनों एक-दूसरे से टकराते, वहाँ हवा में अजीब-सा तनाव तैर जाता। नायरा सोचती, “क्यों हर वक्त मुझे ही निशाना बनाया जाता है?” और अर्जुन सोचते, “क्यों यह लड़की हर बार मेरी बात काटने पर उतारू रहती है?” दोनों अपनी-अपनी गलतफहमियों में उलझे थे, यह समझे बिना कि शायद यह टकराव ही उन्हें धीरे-धीरे एक-दूसरे की ओर खींच रहा है।

मेडिकल कॉलेज में उस हफ़्ते एक बड़ा केस स्टडी प्रोजेक्ट घोषित किया गया। सभी छात्रों को छोटे-छोटे समूहों में बाँट दिया गया था और हर समूह को किसी खास बीमारी से जूझ रहे मरीजों के साथ समय बिताकर उनकी स्थिति पर रिसर्च करनी थी। जैसे ही नामों की घोषणा हुई, पूरा हॉल खामोश हो गया—नायरा और अर्जुन को एक ही ग्रुप में रखा गया था। बाकी छात्रों की निगाहों में उत्सुकता और मुस्कान दोनों झलक रही थीं। सब जानते थे कि ये दोनों जहाँ साथ होंगे, वहाँ बहस ज़रूर होगी। नायरा ने नाम सुनते ही गहरी साँस ली और मन ही मन कहा—“लगता है अब तो हर दिन झगड़े में ही गुज़रेगा।” उधर अर्जुन ने अपनी फाइल उठाते हुए गंभीर स्वर में कहा—“मिस खान, अगर आप इस प्रोजेक्ट में भी बहस को पढ़ाई से ज़्यादा अहमियत देंगी, तो नतीजा अच्छा नहीं होगा।” नायरा ने तुरंत पलटकर कहा—“सर, अगर आप हर बार मेरी मेहनत को नज़रअंदाज़ करेंगे, तो नतीजा चाहे जैसा हो, मैं खुद को साबित करूँगी।” दोनों की इस तल्ख़ बातचीत ने पूरे माहौल को तनावपूर्ण बना दिया, लेकिन प्रोजेक्ट शुरू करना ज़रूरी था। उन्हें एक गरीब परिवार की मध्यम आयु की महिला मरीज के केस पर काम करना था, जो डायबिटीज़ और हृदय रोग से पीड़ित थी।

शुरुआती दिनों में काम करना बेहद मुश्किल साबित हुआ। जहाँ नायरा हर छोटे-बड़े पहलू पर सवाल उठाती, वहीं अर्जुन उसके सवालों को बहस मानकर झुंझला जाते। एक बार नायरा ने कहा—“सर, हमें मरीज से ज्यादा समय बात करने में लगाना चाहिए, ताकि हमें उनकी भावनात्मक स्थिति समझ आए।” अर्जुन ने ठंडे स्वर में जवाब दिया—“डॉक्टर का काम डेटा इकट्ठा करना है, न कि भावनात्मक कहानियाँ सुनना।” यह सुनकर नायरा का चेहरा कस गया। लेकिन जब उन्होंने मरीज के घर जाकर स्थिति देखी, तो धीरे-धीरे परिदृश्य बदलने लगा। वहाँ गरीबी, लाचारी और संघर्ष का संसार था। दवाइयाँ समय पर नहीं मिल पाती थीं, डॉक्टर तक पहुँचने में कठिनाई थी, और सबसे बढ़कर मरीज का आत्मविश्वास धीरे-धीरे टूट चुका था। जब महिला ने आँसू भरी आँखों से कहा—“बेटा, अब तो जीने की हिम्मत भी नहीं बची,” तो अर्जुन का चेहरा पहली बार कठोरता से नरम पड़ गया। उन्होंने उसके हाथ को थामते हुए शांत स्वर में कहा—“आप बिल्कुल ठीक होंगी, हम आपका पूरा ख्याल रखेंगे।” नायरा ने चौंककर अर्जुन को देखा। यही डॉक्टर, जो क्लास में सख़्ती और डाँट के अलावा कुछ नहीं दिखाते थे, यहाँ एक इंसानियत से भरे चेहरे के साथ सामने थे।

आने वाले दिनों में नायरा ने अर्जुन का यह अलग पहलू बार-बार देखा। वह हर विज़िट पर मरीज के लिए अतिरिक्त समय निकालते, दवाइयों की व्यवस्था करवाते, और यहाँ तक कि परिवार को सही खानपान और मानसिक हिम्मत देने के लिए बार-बार समझाते। नायरा के लिए यह अनुभव नया था। उसने सोचा—“क्या यही अर्जुन सर का असली रूप है, जो सबके सामने छिपा रहता है?” धीरे-धीरे उनकी बहस कम होने लगी। जब भी नायरा किसी चीज़ पर अटकती, अर्जुन बिना किसी व्यंग्य या सख़्ती के समझाते। वहीं, नायरा ने भी महसूस किया कि अर्जुन के तरीके भले ही सख़्त हों, लेकिन उनका मक़सद सिर्फ़ मरीज की भलाई और बेहतर सीख थी। एक दिन नोट्स बनाते-बनाते नायरा ने धीमे स्वर में कहा—“सर, मैं मानती थी कि आप मुझे आगे बढ़ने से रोकना चाहते हैं, लेकिन अब लगता है कि आप बस हम सबको और बेहतर डॉक्टर बनाना चाहते हैं।” अर्जुन ने उसकी ओर देखा और हल्की मुस्कान के साथ बोले—“गलतफहमियाँ इंसान को सख़्त बना देती हैं, मिस खान। पर जब इंसान समझ लेता है, तो वही सख़्ती ताक़त बन जाती है।” उस क्षण दोनों के बीच की पुरानी दीवार में पहली दरार पड़ी और उस दरार से झाँकती समझ ने उनके रिश्ते को एक नया मोड़ दे दिया।

उस दिन कॉलेज का माहौल असामान्य रूप से गंभीर था। मेडिकल वार्ड में एक सर्जरी का केस था, जिसमें नायरा और उसके बैच के कुछ छात्रों को ऑब्ज़र्वेशन और असिस्टेंस का मौका मिला था। यह उनके प्रशिक्षण का अहम हिस्सा था, और हर किसी के लिए यह पल उत्साह और घबराहट से भरा हुआ था। सर्जरी की तैयारी के समय नायरा के चेहरे पर आत्मविश्वास तो था, लेकिन भीतर कहीं गहराई में एक अनजाना डर भी था। जब ऑपरेशन थिएटर की ठंडी रोशनी उस पर पड़ी और सामने खून से भरा दृश्य आया, तो उसके हाथ हल्के-हल्के काँपने लगे। उसने कोशिश की कि कोई उसकी घबराहट समझ न पाए, लेकिन अर्जुन की नज़र से कुछ भी छिपा नहीं था। जैसे ही उसने मरीज के टांके पकड़ने की कोशिश की, उसकी उंगलियाँ कांपीं और उपकरण हल्के से गिर पड़ा। कमरे में अचानक सन्नाटा छा गया। बाकी छात्र हड़बड़ा गए, नर्सें चुपचाप खड़ी रहीं, लेकिन अर्जुन ने बिना कुछ कहे तुरंत उसकी मदद की। उन्होंने उपकरण उठाकर धीरे से उसके हाथ में रखा और इतने हल्के स्वर में कहा कि सिर्फ़ नायरा ही सुन पाई—“गहरी सांस लीजिए, आप यह कर सकती हैं।” उस पल नायरा को ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके दिल की धड़कनों को स्थिर कर दिया हो। उसने आँखें बंद कीं, गहरी सांस ली और नए आत्मविश्वास के साथ काम करना शुरू किया।

सर्जरी लंबी और थकाऊ थी, लेकिन अर्जुन पूरे समय उसके पास खड़े रहे। हर छोटे कदम पर वह बिना डाँट-फटकार, बिना कठोरता के, बस अपनी मौजूदगी से उसे सहारा देते रहे। नायरा को यह पहली बार महसूस हुआ कि अर्जुन सिर्फ़ एक सख़्त प्रोफेसर ही नहीं, बल्कि एक ऐसे मार्गदर्शक भी हैं जो चुपचाप किसी का बोझ अपने कंधों पर बाँट सकते हैं। जब सर्जरी सफलतापूर्वक खत्म हुई और मरीज को आईसीयू में ले जाया गया, तो सबने राहत की सांस ली। नायरा ने अपने पसीने से भीगे चेहरे को पोंछते हुए अर्जुन की ओर देखा। इस बार उसकी आँखों में कोई जिद या गुस्सा नहीं था, बस आभार और सुकून था। अर्जुन ने भी उसकी तरफ देखा और हल्के-से सिर हिलाकर कहा—“अच्छा किया।” इतने भर शब्दों ने नायरा के दिल में गहरी छाप छोड़ दी। उसे लगा जैसे पहली बार अर्जुन ने उसकी मेहनत को स्वीकार किया हो। उनके बीच अब न तो कोई बहस थी, न ही दूरी, बल्कि एक अनकही दोस्ती का एहसास था, जो दोनों को भीतर तक छू रहा था।

उस दिन के बाद नायरा का नजरिया बदलने लगा। उसे अर्जुन की सख़्ती में अब कठोरता नहीं, बल्कि देखभाल दिखाई देने लगी। उसकी जिद में जो आग थी, उसे अर्जुन ने पहली बार मासूमियत और समर्पण की तरह देखा। वह समझने लगे कि यह लड़की सिर्फ़ खुद को साबित करने की कोशिश नहीं कर रही, बल्कि सचमुच एक अच्छा डॉक्टर बनने की जद्दोजहद में लगी है। उधर नायरा भी अर्जुन की ठंडी आँखों में अब किसी बेपरवाह प्रोफेसर की दूरी नहीं, बल्कि एक ऐसे इंसान की गर्मजोशी देख रही थी, जो अपने मरीजों और छात्रों के लिए भीतर से नर्मदिल है। उस शाम हॉस्टल लौटते वक्त नायरा ने अपने कमरे की खिड़की से बाहर झाँका और सोचा—“शायद मैं उन्हें अब तक गलत समझती रही।” वहीं दूसरी ओर, अर्जुन अपने केबिन में बैठकर नायरा के नोट्स देख रहे थे, जिनमें उसने सर्जरी के हर स्टेप को बारीकी से लिखा था। उनके होंठों पर एक हल्की मुस्कान आ गई और दिल में यह विचार—“जिद्दी है, पर सच्ची है।” उस दिन से दोनों के बीच की दूरी धीरे-धीरे पिघलने लगी, और पहली बार उन्होंने एक-दूसरे को सिर्फ़ छात्र और प्रोफेसर नहीं, बल्कि दोस्त की तरह देखना शुरू किया।

कॉलेज की लाइब्रेरी उस शाम सामान्य से ज़्यादा शांत थी। बाहर हल्की बारिश हो रही थी और खिड़कियों पर बूंदों की टपटपाहट भीतर की खामोशी को और गहरा रही थी। नायरा रिसर्च पेपर निकालने के लिए किताबों की अलमारी खंगाल रही थी कि तभी उसकी नज़र एक पुरानी, धूल से ढकी फाइल पर पड़ी। जिज्ञासा ने उसे वह फाइल खोलने पर मजबूर किया। अंदर कुछ कागज़ात और तस्वीरें थीं, जिनमें कॉलेज की पुरानी बैच की झलक थी। उसी में अर्जुन की तस्वीर भी थी—युवा, मुस्कुराता हुआ चेहरा, जिसके साथ एक लड़की खड़ी थी। तस्वीर के पीछे लिखा था—“अर्जुन और अनन्या, ग्रेजुएशन डे।” नायरा कुछ पल तस्वीर को देखती रह गई। उसके दिल में सवालों का सैलाब उमड़ पड़ा—यह लड़की कौन थी? और क्यों आज तक अर्जुन के चेहरे पर कभी वह मासूम मुस्कान नहीं दिखी? जिज्ञासा बढ़ी, तो उसने कॉलेज के पुराने स्टाफ से बात करनी शुरू की। एक उम्रदराज़ लाइब्रेरियन ने धीरे-धीरे बताया—“डॉ. अर्जुन बहुत अच्छे छात्र थे, लेकिन कॉलेज के दिनों में उनका दिल टूटा था। अनन्या, उनकी करीबी सहपाठी, अचानक उन्हें छोड़कर विदेश चली गई और वहीं किसी और से शादी कर ली। उस दिन के बाद से अर्जुन ने अपनी निजी ज़िंदगी के दरवाज़े बंद कर लिए। उन्होंने पूरी तरह पढ़ाई और मरीजों की सेवा में खुद को झोंक दिया।” यह सुनकर नायरा स्तब्ध रह गई। अर्जुन के बारे में उसने जितना भी सोचा था, सब उसके सामने धुंधला पड़ने लगा।

उस रात नायरा देर तक सोचती रही। अब उसे अर्जुन की कठोरता की वजह समझ आ रही थी। वह सिर्फ़ सख़्त प्रोफेसर नहीं थे, बल्कि एक ऐसे इंसान थे, जिनके दिल ने कभी गहरा घाव सहा था। उनके हर शब्द, हर व्यवहार में वही दर्द झलकता था, जो उन्होंने बरसों से अपने भीतर दबा रखा था। नायरा को याद आने लगा कि कैसे अर्जुन हर बार छात्रों से दूरी बनाए रखते, कभी निजी सवालों का जवाब नहीं देते और हमेशा एक ठंडी गंभीरता का मुखौटा पहने रहते। वह समझ गई कि यह मुखौटा दरअसल एक सुरक्षा कवच था, ताकि कोई दोबारा उनके दिल तक पहुँचकर उन्हें चोट न पहुँचा सके। नायरा के मन में अर्जुन के लिए सहानुभूति की लहर दौड़ गई। अब जब भी वह अर्जुन को देखती, उसके सख़्त शब्दों के पीछे छिपा दर्द साफ़ महसूस होता। उसने सोचा—“कितना मुश्किल होता होगा इस तरह जीना… हर दिन दूसरों के लिए लड़ना, लेकिन खुद की भावनाओं को दफनाना।” यह सोचते ही उसके दिल में अर्जुन के लिए एक अजीब-सी कोमलता जन्म लेने लगी। वह उन्हें अब सिर्फ़ प्रोफेसर या साथी नहीं देख रही थी, बल्कि एक ऐसे इंसान के रूप में देखने लगी थी, जिसे समझने और संभालने की ज़रूरत है।

आने वाले दिनों में नायरा का व्यवहार बदलने लगा। जब भी वह अर्जुन के साथ किसी केस पर काम करती, तो उसके सवालों में अब ज़िद कम और संवेदनशीलता ज़्यादा होती। अगर अर्जुन सख़्त लहज़े में कुछ कहते, तो नायरा उन्हें नाराज़ होने के बजाय चुपचाप सुन लेती, क्योंकि अब वह जान चुकी थी कि उनके भीतर का गुस्सा दरअसल पुराने दर्द का प्रतिध्वनि है। अर्जुन ने भी इस बदलाव को महसूस किया। उन्हें हैरानी हुई कि यह वही नायरा है जो हर बात पर बहस कर बैठती थी, लेकिन अब उसकी आँखों में तकरार नहीं, बल्कि एक गहरी समझ दिखाई देती है। एक दिन जब दोनों एक मरीज की देखभाल कर रहे थे, नायरा ने धीमे स्वर में कहा—“सर, कभी-कभी ज़िंदगी हमें ऐसे घाव देती है जिन्हें भरने में वक्त लगता है… लेकिन शायद सही इंसान की मौजूदगी उन घावों को थोड़ा आसान बना सकती है।” अर्जुन उसकी ओर चौंककर देखने लगे। उनकी आँखों में कुछ पल के लिए वही पुराना दर्द चमका, लेकिन इस बार उसमें अकेलापन कम और सुकून ज़्यादा था। उस दिन से नायरा और अर्जुन के बीच एक नया रिश्ता बनने लगा—रिश्ता भरोसे और सहानुभूति का, जहाँ नायरा उन्हें सिर्फ़ एक सख़्त गुरु नहीं, बल्कि एक टूटे दिल वाले इंसान के रूप में देखने लगी, और अर्जुन ने भी पहली बार महसूस किया कि शायद कोई है जो उनके अतीत के राज़ को समझ सकता है।

लखनऊ मेडिकल कॉलेज का वार्षिक फेस्ट हर साल धूमधाम से मनाया जाता था, लेकिन इस बार का उत्सव नायरा के लिए कुछ अलग ही मायने रखता था। कैंपस रंग-बिरंगी लाइटों और सजावट से चमक रहा था, छात्र-छात्राएँ अपनी-अपनी प्रस्तुतियों की तैयारी में डूबे हुए थे। मेडिकल ड्रामा, जो इस बार का सबसे खास आकर्षण था, उसमें नायरा को मुख्य भूमिका मिली थी। कहानी एक ऐसे डॉक्टर की थी जो अपने मरीजों के लिए सब कुछ कुर्बान कर देता है, लेकिन खुद की भावनाओं को कभी सामने नहीं आने देता। नायरा के लिए यह रोल किसी चुनौती से कम नहीं था, पर असली झटका तब लगा जब उसे बताया गया कि डॉक्टर का किरदार निभाने के लिए चुना गया नाम कोई और नहीं बल्कि डॉ. अर्जुन सिंह था। यह सुनकर नायरा का दिल एक साथ घबराहट और उत्साह से भर गया। मंच पर अर्जुन के साथ अभिनय करना आसान नहीं था—जहाँ हर छोटी-सी बातचीत में अब तक तकरार और बहस होती आई थी, वहाँ नाटक में उन्हें एक-दूसरे की भावनाओं का इज़हार करना था। रिहर्सल के दौरान दोनों के बीच अक्सर खामोशियाँ छा जातीं। डायलॉग्स बोलते समय नायरा को लगता जैसे उसके शब्द सिर्फ़ स्क्रिप्ट नहीं, बल्कि दिल के भीतर छिपी बातों का आईना हों। और अर्जुन—उनकी गंभीर आँखें हर बार ऐसा आभास देतीं कि मंच और वास्तविकता के बीच की रेखा धुंधली पड़ गई है।

फेस्ट के दिन ऑडिटोरियम खचाखच भरा हुआ था। रोशनी धीमी हुई, पर्दा उठा और नाटक शुरू हुआ। नायरा ने मरीज की भूमिका निभाई, जबकि अर्जुन उसके डॉक्टर बने। जब अर्जुन ने अपना पहला संवाद कहा—“तुम्हारी ज़िंदगी मेरी ज़िम्मेदारी है, मैं तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगा”—तो पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा, लेकिन नायरा का दिल जैसे किसी गहरे झटके से भर उठा। उसे लगा जैसे यह संवाद सिर्फ़ नाटक का हिस्सा नहीं, बल्कि अर्जुन के दिल की अनकही बात है। आगे बढ़ते हुए, हर दृश्य में उनकी नज़दीकियाँ बढ़ती गईं। जब अर्जुन ने उसके हाथों को थामा, तो नायरा के भीतर अजीब-सी गुनगुनाहट उठी। उसकी धड़कनें तेज़ हो गईं, और आँखों में हल्की नमी आ गई। डायलॉग्स तो वही थे जो स्क्रिप्ट में लिखे गए थे, पर दोनों के लहज़े और नज़रें कुछ और ही कह रही थीं। दर्शकों को एक बेहतरीन प्रस्तुति दिखाई दे रही थी, लेकिन नायरा के लिए यह पल पहली बार था जब उसने अपने भीतर के खालीपन में ‘प्यार’ का अहसास महसूस किया। उसे लगा जैसे उसके चारों ओर सब धुंधला हो गया हो और सिर्फ़ अर्जुन की आवाज़ और मौजूदगी सच में बाकी रह गई हो।

नाटक का आख़िरी दृश्य वह था जब डॉक्टर अपने मरीज से कहता है—“कुछ रिश्ते किताबों से नहीं, दिल से सीखे जाते हैं।” जैसे ही अर्जुन ने ये शब्द बोले, उनकी आँखें सीधे नायरा की आँखों में उतर गईं। उस नज़र में इतनी गहराई, इतना सच्चापन था कि नायरा का दिल काँप उठा। दर्शक तालियों की गड़गड़ाहट में खोए हुए थे, लेकिन मंच पर खड़े दोनों के लिए समय जैसे थम गया था। पर्दा गिरा, लोग उनकी अभिनय की तारीफ़ करने लगे, पर नायरा अपने भीतर की हलचल को दबा नहीं पा रही थी। उसने पहली बार महसूस किया कि उसके और अर्जुन के बीच सिर्फ़ गुरु-शिष्या या साथी का रिश्ता नहीं रहा—उसके दिल में कुछ और अंकुरित हो चुका है, जिसे वह ‘प्यार’ कहने से भी डर रही थी। उस रात जब वह हॉस्टल की छत पर अकेली बैठी, तो उसे अर्जुन की हर मुस्कान, हर नज़र याद आने लगी। उसने खुद से स्वीकार किया—“शायद यही इकरार की आहट है… यही वो लम्हा है जहाँ मेरा दिल अब उनसे अलग नहीं हो सकता।”

सर्दियों की ठंडी रात थी, लखनऊ की हवाओं में हल्की नमी और ठिठुरन घुली हुई थी। कॉलेज फेस्ट के बाद नायरा लगातार प्रैक्टिकल्स, लेक्चर्स और रिसर्च वर्क में इतनी व्यस्त हो गई थी कि उसने खुद का ध्यान ही नहीं रखा। थकान और कमजोरी धीरे-धीरे उसके शरीर पर हावी होने लगी। उस शाम हॉस्टल के कमरे में वह अचानक तेज़ बुखार और ठंड से काँपने लगी। उसकी रूममेट ने तुरंत मेडिकल विंग में खबर दी, और वहाँ मौजूद इंटर्न्स ने जब देखा कि मामला गंभीर है तो डॉ. अर्जुन को फोन किया। जैसे ही अर्जुन को यह खबर मिली, उनके दिल में हलचल मच गई। बिना वक्त गँवाए वे हॉस्टल पहुँचे और पहली बार अपने प्रोफेसरी अंदाज़ से हटकर पूरी चिंता के साथ नायरा को देखने लगे। उन्होंने खुद उसके बिस्तर के पास बैठकर तापमान मापा, दवाई दी, और धीरे-धीरे उसके माथे पर ठंडे पानी की पट्टियाँ रखते रहे। उनके लिए यह अब सिर्फ़ एक स्टूडेंट की बीमारी नहीं थी, बल्कि किसी ऐसे इंसान की हालत थी, जिसके लिए उनका दिल अनजाने में धड़कना सीख चुका था।

रात गहराती चली गई, हॉस्टल की लाइटें बुझ गईं, और सब ओर सन्नाटा छा गया, मगर अर्जुन वहीं बैठे रहे। नायरा बार-बार उनींदी आँखों से उन्हें देखती और फिर आँखें बंद कर लेती। उस रात दोनों के बीच की सारी दीवारें धीरे-धीरे गिरने लगीं। नायरा ने धीमी आवाज़ में कहा—“आपको यहाँ रहने की ज़रूरत नहीं है… मैं संभल जाऊँगी।” अर्जुन ने उसकी ओर देखा, उनकी आँखों में ऐसी नर्मी थी जो नायरा ने पहले कभी नहीं देखी थी। वे धीरे से बोले—“कुछ ज़िम्मेदारियाँ सिर्फ़ डॉक्टर की नहीं होतीं… कभी-कभी दिल भी अपनी ज़िम्मेदारी निभाना चाहता है।” यह सुनकर नायरा का गला भर आया। उसे याद आया कि कैसे पहले वह अर्जुन को गलत समझती रही, उन पर कठोर और अहंकारी होने का आरोप लगाती रही, लेकिन इस वक्त वही अर्जुन उसके सिरहाने बैठे थे, जैसे पूरी दुनिया छोड़कर सिर्फ़ उसी की परवाह कर रहे हों। उस पल नायरा को लगा कि सारी गलतफहमियाँ, सारे तकरार मानो एक पल में धुंधले पड़ गए हों और दिल के रिश्ते ने उनकी जगह ले ली हो।

सुबह की हल्की रोशनी खिड़की से भीतर आ रही थी, जब नायरा की आँख खुली। उसने देखा अर्जुन उसी कुर्सी पर बैठे-बैठे थकान से सो गए थे, लेकिन उनका हाथ अब भी उसके हाथ पर था, जैसे पूरी रात उसे संभाले रखा हो। नायरा के दिल में एक अजीब-सी गर्माहट भर आई। उसने पहली बार अर्जुन के चेहरे को इतनी नज़दीक से देखा—उनकी आँखों के नीचे थकी हुई रेखाएँ, लेकिन चेहरे पर वही गंभीरता के पीछे छिपा सुकून। कुछ देर बाद अर्जुन की आँख खुली, और उनकी नज़र सीधे नायरा पर पड़ी। वे हड़बड़ाकर पीछे हटे, लेकिन नायरा ने उनका हाथ कसकर थाम लिया और धीमे स्वर में कहा—“कभी अपने दिल की बात भी कह दीजिए, सर… हर ज़िंदगी सिर्फ़ मरीजों के लिए नहीं जी जाती।” अर्जुन कुछ पल चुप रहे, उनकी आँखों में पुराने घाव और नए एहसास की टकराहट साफ़ झलक रही थी। आखिरकार उन्होंने थरथराते लहज़े में कहा—“नायरा… मैं अब और छुपा नहीं सकता। तुमने मेरे भीतर वो जगह छू ली है, जहाँ मैं खुद भी जाने से डरता था। शायद मैं तुम्हें हमेशा से नापसंद नहीं करता था… बल्कि खुद से डरता था कि कहीं तुम्हारी नज़दीकी मुझे फिर से जीना न सीखा दे।” नायरा की आँखों में आँसू भर आए, मगर होंठों पर मुस्कान थी। उस सुबह दोनों ने एक-दूसरे को बिना किसी औपचारिक इकरार के, बस नज़रों और एहसासों से स्वीकार कर लिया। यह उनका पहला अनकहा स्वीकारोक्ति था, जिसने उनके रिश्ते को एक नई दिशा दे दी।

१०

लखनऊ मेडिकल कॉलेज का दीक्षांत समारोह हमेशा से भव्य होता आया था, लेकिन इस बार का दृश्य कुछ और ही था। विशाल सभागार को फूलों, लाइटों और सुनहरे बैनरों से सजाया गया था। हर ओर छात्रों और उनके परिवारों की चहल-पहल थी। प्रोफेसर, गाउन और टोपी पहने हुए, मंच की गरिमा बढ़ा रहे थे। नायरा ने भी अपनी कड़ी मेहनत के बाद उस पल को हासिल किया था जिसका उसने हमेशा सपना देखा था। वह अपने लाल रंग के दुपट्टे में और भी खूबसूरत लग रही थी—जैसे उस दुपट्टे ने उसके पूरे संघर्ष, उसकी हँसी और आँसूओं को अपने रंग में समेट लिया हो। दूसरी ओर, अर्जुन अपनी सामान्य गंभीरता और सादगी के साथ मंच पर मौजूद थे, गले में स्टेथोस्कोप लटकाए हुए, मानो यह सिर्फ़ उनका पेशा नहीं बल्कि उनकी पहचान हो। उस दिन दोनों का मन सिर्फ़ डिग्री पाने की खुशी में नहीं डूबा था, बल्कि यह सोचकर धड़क रहा था कि अब वह लम्हा आ गया है जहाँ उन्हें अपने दिल की सच्चाई को दुनिया के सामने स्वीकार करना था। पिछले महीनों में दोनों ने गलतफहमियों, दरारों, और फिर धीरे-धीरे पास आने की लंबी यात्रा तय की थी। यह दिन उस सफ़र की मंज़िल जैसा था।

समारोह शुरू हुआ, मुख्य अतिथि ने भाषण दिया, फिर छात्रों को डिग्रियाँ बाँटी जाने लगीं। जब नायरा का नाम पुकारा गया तो तालियों की गड़गड़ाहट के बीच वह मंच की ओर बढ़ी। उसकी आँखें अनायास ही अर्जुन को खोजने लगीं, और जैसे ही उसकी नज़र उनसे मिली, दोनों के बीच एक मौन संवाद हुआ। नायरा ने डिग्री ग्रहण की, और ठीक उसी क्षण उसका लाल दुपट्टा हवा में लहराता हुआ एक ओर खिसक गया। अर्जुन, जो पास ही खड़े थे, आगे बढ़कर सहजता से वह दुपट्टा उठाते हैं और बड़ी संजीदगी से नायरा के कंधे पर रख देते हैं। यह दृश्य इतना स्वाभाविक और इतना गहरा था कि पूरा सभागार एक पल के लिए स्तब्ध रह गया। दर्शकों को यह एक मामूली-सी घटना लगी होगी, लेकिन नायरा और अर्जुन के लिए यह उनके रिश्ते का सबसे खूबसूरत इकरार था। उसी समय, नायरा ने धीरे से कहा—“आज मेरा दुपट्टा आपकी पहचान बन गया है।” अर्जुन ने मुस्कुराते हुए अपने गले में लटके स्टेथोस्कोप को छुआ और बोले—“और यह स्टेथोस्कोप अब सिर्फ़ मेरी नहीं, हमारी जिम्मेदारी का प्रतीक है।” उनकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन उसमें वह दृढ़ता थी जिसे अनदेखा नहीं किया जा सकता था।

इसके बाद अर्जुन ने, अपनी गंभीर छवि को तोड़ते हुए, मंच पर ही सबके सामने नायरा की ओर मुड़कर कहा—“आज जब ये दीक्षांत समारोह हमें डॉक्टर के रूप में नई शुरुआत देता है, मैं चाहता हूँ कि हम दोनों की ज़िंदगी भी साथ-साथ शुरू हो। नायरा, तुम मेरी प्रेरणा हो, मेरी धड़कन हो… और अब मैं यह सच सबके सामने कहने से नहीं डरता।” सभागार तालियों और उत्साह से गूँज उठा। नायरा की आँखों में आँसू थे, लेकिन चेहरे पर वही चमक थी जो जीत और प्यार दोनों की गवाही देती थी। उसने अर्जुन का हाथ थाम लिया और बिना शब्दों के, अपनी नज़र और मुस्कान से ‘हाँ’ कह दी। उस पल, पूरे कॉलेज ने देखा कि कैसे एक लाल दुपट्टा और एक स्टेथोस्कोप—दो अलग-अलग दुनिया की निशानियाँ—मिलकर एक ऐसी कहानी का प्रतीक बन गए जो किताबों और ऑपरेशन थिएटर से आगे, दिल और ज़िंदगी तक फैली हुई थी। दीक्षांत समारोह ने सिर्फ़ डॉक्टर नायरा खान और डॉ. अर्जुन सिंह को विदा नहीं किया, बल्कि एक नए रिश्ते का आगाज़ भी किया—जहाँ अब न कोई तकरार थी, न कोई गलतफहमी… बस प्यार, जिम्मेदारी और साथ का वादा था।

समाप्त

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