मिताली गुप्ता
१
दिल्ली की सुबहें कुछ अलग नहीं होतीं — ट्रैफिक का शोर, भागती हुई भीड़, गाड़ियों के हॉर्न और मेट्रो स्टेशनों पर गूंजती उद्घोषणाओं की आवाज़ें। लेकिन निहारिका की सुबहें उन सब से थोड़ी अलग थीं। वह हर सुबह ठीक 8:12 की ब्लू लाइन मेट्रो पकड़ती थी — द्वारका सेक्टर 9 स्टेशन से राजीव चौक तक का सफर। उसका कोच वही होता, वो खिड़की के पास की वो एक सीट तक पहुँचने का अभ्यास उसके पैरों को आदत हो गया था। चेहरे बदलते रहते थे लेकिन कुछ एक यात्री रोज़ मिलते थे — एक बुज़ुर्ग जो रामायण पढ़ते रहते थे, एक कॉलेज की लड़की जो हर बार अपनी आईलाइनर ठीक करती थी, और एक युवक जो हर स्टेशन पर गिटार के ऑडियो में खोया रहता था। निहारिका इस भीड़ में चुप रहती थी, जैसे शब्दों से कुछ नाराज़गी हो। उसके लिए मेट्रो का सफर एक तरह का रूटीन ध्यान बन चुका था — वो चुप बैठती, हाथ में अपनी डायरी रखती और कभी-कभी कुछ स्केच कर लेती। वो किसी से बात नहीं करती थी, किसी की बात नहीं सुनती थी, लेकिन उसकी निगाहें चुपचाप सबको पढ़ती थीं। उसे यह पसंद था — यह मौन, यह रोज़ दोहराया जाने वाला अजनबीपन, जिसमें कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती।
लेकिन उस दिन कुछ अलग था — शायद मौसम का असर था या शायद उसकी नींद अधूरी थी, लेकिन वह मेट्रो में चढ़ते ही रुक गई। सीटें भर चुकी थीं, लेकिन उसकी खिड़की वाली जगह खाली थी — और ठीक सामने बैठा था एक नया चेहरा। लगभग उसकी उम्र का युवक, हल्की बेतरतीब दाढ़ी, हल्की नीली शर्ट और हाथ में एक किताब — The Little Prince। वह किताब निहारिका की प्रिय किताबों में से थी। लेकिन किताब से ज़्यादा उसकी आँखों ने ध्यान खींचा — वो गहराई जिसमें सवाल नहीं थे, सिर्फ एक शांत स्वीकार था। युवक ने सिर उठाया, एक पल के लिए निहारिका की ओर देखा और फिर मुस्कुरा दिया — हल्की, बेहद हल्की मुस्कान — मानो ये उसका पहला दिन नहीं, बल्कि जैसे वो हर रोज़ उसका इंतज़ार कर रहा हो। निहारिका को थोड़ा अजीब लगा, लेकिन वह चुपचाप बैठ गई, डायरी खोली और पन्नों में एक नया कोना बना दिया — जिसमें वह चेहरा धीरे-धीरे उतरने लगा। मेट्रो सरकती रही, स्टेशन बदलते रहे — जनकपुरी, राजौरी, करोल बाग… लेकिन निहारिका की नज़र उस किताब पर थी, उसके पन्नों पर, और उस युवक की उंगलियों की हलचल पर। कई बार वह सोचती कि कोई मुसाफिर इतना शांत क्यों दिखता है, जैसे वक़्त का कोई असर ही न हो। कुछ शब्द उसके मन में चलने लगे — “क्या यह कोई संयोग है? या एक नया किरदार जिसे मेरी सुबहें अब पहचानेंगी?”
राजीव चौक का स्टेशन जैसे हर बार की तरह भीड़ से भर गया, लोग उतरने लगे और कुछ जल्दी में चढ़े। युवक अपनी किताब बंद करके खड़ा हो गया — निहारिका ने अनजाने में उससे नज़रे मिलाईं, लेकिन फिर तुरंत नज़रें हटा लीं। वो उसे देखने लगी जैसे कोई कहानी अधूरी रह गई हो — लेकिन उस चेहरे पर कोई हड़बड़ी नहीं थी, सिर्फ शांति। जैसे वो जानता हो कि अगली सुबह फिर मुलाक़ात होगी। और यही तो सबसे खूबसूरत बात थी — कोई ऐसा, जो आपके रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ऐसे उतर जाए कि लगे जैसे हमेशा से वहीं था। उस दिन ऑफिस पहुँचकर निहारिका का ध्यान पूरे दिन भटका रहा — उसने वो किताब अपने लैपटॉप बैग से निकालकर कुछ पुराने अंश पढ़े और मुस्कुराई — “It is only with the heart that one can see rightly; what is essential is invisible to the eye.” शायद यही बात उस सुबह के मुसाफिर ने उसे बिना बोले सिखा दी थी। और उसे अब अगली सुबह का इंतज़ार था — जैसे मेट्रो अब सिर्फ मंज़िल तक पहुँचने का ज़रिया नहीं, बल्कि किसी अनदेखी कहानी की शुरुआत बन गई हो।
२
अगली सुबह निहारिका ने अपने तैयार होने की गति कुछ और तेज़ कर दी थी, मानो कोई अनकही दौड़ थी जिसे उसे जीतना था। बालों को ज़्यादा सँवारने की कोई खास वजह नहीं थी, लेकिन फिर भी उसने अपनी वही चांदनी सफ़ेद कुर्ती पहनी जिसे पहनकर वह खुद को थोड़ी सजीव महसूस करती थी। मेट्रो स्टेशन पर कदम रखते हुए उसकी नज़र बार-बार घड़ी पर जा रही थी, और दिल में कहीं एक छोटा सा डर भी था — क्या वह आज भी आएगा? या वो कल महज़ एक संयोग था? कोच के भीतर जैसे ही वो चढ़ी, उसकी धड़कनें कुछ तेज़ हो गईं। खिड़की की वह सीट, और सामने — वही चेहरा, वही किताब, वही शांत मुस्कान। यशवर्धन आज भी वहाँ था, जैसे कोई कहानी कल जहाँ रुकी थी, वह वहीं से आगे बढ़ने को तैयार हो। लेकिन आज कुछ अलग था — उसकी किताब इस बार थोड़ी झुकी हुई थी, कुछ यूँ कि उसका एक पन्ना साफ़-साफ़ निहारिका की ओर झाँक रहा था। निहारिका ने देखा — एक पंक्ति हाइलाइट की हुई थी: “You – you alone will have the stars as no one else has them… In one of them I shall be living. In one of them I shall be laughing.” उसकी साँस थमी-सी रह गई। क्या यह इत्तफाक़ था? या कोई अनकही कोशिश, जो बिना आवाज़ के संप्रेषित हो रही थी? उसे पहली बार ऐसा लगा कि कोई उसकी चुप्पियों को पढ़ रहा है, उसकी अपनी भाषा में।
सफ़र शुरू हो चुका था, लेकिन आज समय जैसे खड़ा हो गया था। हर स्टेशन एक पृष्ठ बनता जा रहा था, और हर रुकने का पल एक विराम चिह्न। यश ने बीच-बीच में नज़रें उठाकर निहारिका की ओर देखा, लेकिन वह कुछ नहीं बोला — न शब्द, न इशारा। जैसे दो कलाकार बिना संवाद के एक दृश्य को जी रहे हों। निहारिका अब किताब से ज़्यादा उसके हावभाव पढ़ रही थी — जिस तरह वह उंगलियों से पन्ने पलटता, जिस सहजता से मुस्कुराता और जिस शांति से खुद में डूबा रहता, उसमें उसे अपने भीतर की कोई अधूरी कविता मिलती थी। उसे याद आया, कॉलेज में उसकी दादी कहती थीं — “सबसे सुंदर प्रेम वही होता है, जिसमें शब्द कम हों और अहसास ज़्यादा।” शायद यश वैसा ही कोई किरदार था, जिसे शब्दों की ज़रूरत नहीं थी। निहारिका ने अपनी डायरी निकाली और अनजाने में कुछ शब्द लिख दिए — “कभी-कभी कुछ लोग मिलते हैं जिनसे बात करना ज़रूरी नहीं होता, उन्हें महसूस करना ही काफी होता है।” उसने खुद को महसूस करते हुए पहली बार जाना कि मेट्रो का यह छोटा सा डिब्बा, यह रोज़ का सफ़र, किसी गहरे जुड़ाव की धरती बन चुका था।
जब राजीव चौक आया, तो निहारिका को पहली बार स्टेशन के नाम से खेद हुआ। वो चाहती थी कि सफ़र कुछ और लम्बा हो, कुछ और क्षण उस किताब और उन निगाहों के साथ बीतें। यश खड़ा हुआ, किताब को बंद करते हुए, और निहारिका की ओर देखा — आज उसकी मुस्कान थोड़ी और साफ़ थी। निहारिका ने भी हल्के सिर हिला कर उसका अभिवादन किया — पहली बार, खुलकर। वो क्षण बेहद छोटा था, लेकिन उसमें इतनी बात छुपी थी जितनी शायद एक लंबा संवाद भी न कह सके। यश उतर गया, और भीड़ में कहीं खो गया — लेकिन निहारिका को अब उसकी आदत पड़ने लगी थी। वो जानती थी कि अब अगले दिन भी वह उसी समय, उसी किताब, और शायद किसी नए हाइलाइटेड पंक्ति के साथ लौटेगा। और उस दिन से, उसके लिए दिल्ली मेट्रो सिर्फ एक परिवहन नहीं रही, वो एक किताब बन चुकी थी — जिसका हर पन्ना यशवर्धन नाम के एक मुसाफिर के साथ खुल रहा था।
३
अब दिल्ली मेट्रो की हर सुबह निहारिका के लिए सिर्फ यात्रा नहीं रही थी — यह एक नर्म धागा बन चुकी थी जो उसे किसी अनकहे एहसास से बाँधे जा रहा था। यशवर्धन अब मेट्रो के उस रूटीन का हिस्सा था जो पहले सिर्फ भीड़ और मशीन की आवाज़ों से भरा होता था। पर अब, हर स्टेशन, हर रुकावट एक नई उम्मीद जगाती थी — जनकपुरी वेस्ट का वो धीमा ब्रेक, कीर्तिनगर के बाद की वो थोड़ी-सी धड़कन, और राजौरी गार्डन की भीड़ में वो नज़रें जो एक पल को उसे ही देखती थीं। यश कभी कुछ नहीं कहता था, लेकिन उसकी हर हरकत, हर दिन की किताब में एक नई हाइलाइटेड पंक्ति जैसे कोई संदेश होती। एक दिन उसने पन्ना इस तरह मोड़ा था कि निहारिका साफ़ पढ़ सके: “It is the time you have wasted for your rose that makes your rose so important.” निहारिका के लिए यह एक चुपचाप बयान था, जैसे कह रहा हो — “मैं रोज़ आता हूँ, सिर्फ तुम्हारे लिए।” वो अब डायरी में हर दिन के स्टेशन के पास उन पंक्तियों को नोट करने लगी थी, जैसे कोई गुप्त संवाद चल रहा हो दोनों के बीच।
एक सुबह, जब मेट्रो कुछ मिनट लेट हो गई, निहारिका को बेचैनी होने लगी। कहीं यश चला न गया हो? या कोई और उस सीट पर बैठ गया हो? लेकिन जैसे ही ट्रेन प्लेटफॉर्म पर पहुँची, उसकी नज़र सीधी खिड़की के पास पड़ी — यश वही था, वही किताब, वही मुस्कान — लेकिन आज उसने आँखें ऊपर उठाकर निहारिका को देखकर हल्के से सिर झुकाया। ये नया था — जैसे एक औपचारिक ‘नमस्ते’, लेकिन बिना किसी शब्द के। निहारिका का मन मुस्कुरा उठा, और वो भी हल्के से सिर झुकाकर बैठ गई। दोनों के बीच अभी भी कोई बातचीत नहीं हुई थी, लेकिन अब हावभाव में एक नज़दीकी थी। स्टेशन दर स्टेशन, वे दोनों एक ऐसी लय में बंध चुके थे जहाँ शब्दों की जरूरत महसूस ही नहीं होती थी। कभी-कभी जब मेट्रो कुछ सेकंड्स के लिए रुक जाती, उनकी निगाहें थोड़ी देर टिक जातीं — जैसे दोनों ये स्वीकार कर रहे हों कि अब यह कोई तात्कालिक आकर्षण नहीं, बल्कि एक लचीला लेकिन मजबूत रिश्ता बनता जा रहा है।
फिर एक दिन कुछ अलग हुआ। यश मेट्रो में पहले से बैठा था, पर किताब उसकी गोद में बंद थी। निहारिका थोड़ा हैरान हुई — क्या आज कुछ खास है? क्या वह कुछ कहने वाला है? लेकिन यश ने चुपचाप बैग से एक छोटा नोटबुक निकाला, और उसमें कुछ लिखने लगा। उसकी उंगलियाँ तेजी से चल रही थीं, मानो दिल किसी काग़ज़ पर उतर रहा हो। वह पन्ना फाड़ा, उसे मोड़ा, और जब निहारिका उतरने को उठी, यश ने धीमे से उसकी सीट पर वह पन्ना रख दिया। निहारिका ने बिना कुछ कहे पन्ना उठाया और भीड़ में उतर गई — दिल जैसे बहुत धीरे-धीरे धड़क रहा था। जब उसने उस पन्ने को खोला, उसमें सिर्फ एक लाइन लिखी थी — “क्या तुम भी मेरे स्टेशन हो सकती हो?” और उस पल, दिल्ली की भागती दुनिया में, निहारिका को लगा जैसे समय रुक गया हो, और हर स्टेशन अब सिर्फ एक मंज़िल की तरफ नहीं, बल्कि किसी दिल के गहराई की ओर बढ़ रहा हो।
४
निहारिका ने वह पन्ना कितनी बार पढ़ा, वह गिन नहीं सकी। “क्या तुम भी मेरे स्टेशन हो सकती हो?” — एक पंक्ति जो किसी कविता की तरह उसके ज़ेहन में गूंजती रही, दिन भर, रात भर। उसने जवाब नहीं लिखा, कोई संकेत नहीं दिया, लेकिन उसका मन अब हर सुबह एक अनकहे उत्तर के लिए तैयार हो जाता था। अगले दिन जब वह मेट्रो में चढ़ी, तो यश वहीं था — लेकिन दोनों के बीच एक हल्का संकोच था, एक मधुर झिझक। निहारिका मुस्कुराई, और उसकी मुस्कान में एक स्वीकृति थी — जो यश ने पढ़ ली। किताब इस बार नहीं थी, या शायद जानबूझकर नहीं खोली गई थी। दोनों की नज़रें कभी आसपास की भीड़ में जातीं, फिर लौट आतीं, एक-दूसरे के चेहरे पर ठहरतीं और चुपचाप बातें करतीं। कुछ रिश्ते शब्दों से टूट जाते हैं, लेकिन कुछ चुप्पियों से जुड़ते हैं — जैसे इन दोनों के बीच एक मौन संगीत चल रहा हो, जिसकी लय बस उन्हें ही सुनाई दे रही हो। खिड़की के पार की दुनिया, स्टेशन की हलचल, उद्घोषणाओं की आवाज़ें — सब जैसे किसी दूर के दृश्य की तरह लगने लगे थे। यश की आँखों में आज पहली बार थोड़ी बेचैनी दिखी, जैसे वो पूछना चाहता हो — “क्या तुमने पढ़ा वो पन्ना?” लेकिन वह कुछ नहीं बोला।
निहारिका ने अपने बैग से अपनी डायरी निकाली, और उसके पिछले पन्ने में एक छोटी-सी स्केच बना रखी थी — दो मुसाफिर, मेट्रो की खिड़की के सामने बैठे, बीच में कोई शब्द नहीं, बस एक साझा मौन। उसने वह पन्ना धीरे से मोड़ा और यश की किताब के ऊपर रख दिया, जो आज उसके बैग की बगल में थी। यह उसका उत्तर था — न ‘हाँ’, न ‘ना’ — बस एक साझा स्वीकृति कि यह जो भी है, जो बन रहा है, वह सच्चा है। यश ने पन्ना देखा, और जब उसने स्केच को ध्यान से पढ़ा, उसकी आँखों में एक धीमा भाव उभरा — वह मुस्कराया नहीं, पर उसकी आँखें चमक उठीं। जैसे किसी ने उसकी भाषा में उत्तर दे दिया हो। अगले कई दिनों तक, यह ‘चुप्पियों का संवाद’ चलता रहा — कभी कोई लाइन यश की किताब में, कभी कोई स्केच निहारिका की डायरी में। दोनों ने कभी अपने नाम तक नहीं पूछे, कभी एक-दूसरे से बात नहीं की, लेकिन अब वे जान गए थे कि मेट्रो का यह रोज़ का सफर सिर्फ यात्रा नहीं, एक कहानी बन चुका है।
एक दिन, स्टेशन पर मेट्रो अचानक रुक गई — तकनीकी कारणों से देरी हो रही थी। कोच के भीतर गर्मी थी, लोग बड़बड़ा रहे थे, लेकिन यश और निहारिका एक अजीब शांति में बैठे थे। यश ने अपनी जेब से एक छोटा सा इयरफ़ोन का जोड़ा निकाला, एक साइड निहारिका की ओर बढ़ाया — पहली बार उनका कोई स्पर्श हुआ। निहारिका ने बिना बोले इयरफ़ोन लिया, और कान में लगाया। गाने की धुन आई — “तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं…”। आँखें मिलते ही दोनों मुस्कुराए — यह पहला ‘कहा गया’ पल था, लेकिन बिना बोले। उस पल निहारिका को यकीन हो गया था कि कुछ कहानियाँ ऐसी होती हैं, जिनमें शब्द बस बाधा बन जाते हैं। और उस दिन, उसकी दादी की कही एक बात फिर से याद आई — “अगर किसी की चुप्पी तुम्हें पढ़ने लग जाए, तो समझो इश्क़ हो गया है।”
५
वो जुलाई की एक सुबह थी जब बादल कुछ ज़्यादा ही भारी लग रहे थे, और हवा में वो नमी थी जो बारिश के पहले अक्सर छा जाती है। निहारिका थोड़ी भीगी हुई-सी मेट्रो स्टेशन पहुँची, छाते की पकड़ ढीली थी और मन की गिरहें उलझी हुई। लेकिन जैसे ही वह प्लेटफ़ॉर्म पर पहुँची, उसकी आँखों में एक अलग चमक दौड़ गई — यश पहले से वहाँ था, खड़ा, और पूरी तरह भीग चुका था। उसकी नीली शर्ट कंधों से चिपकी थी, बाल बिखरे हुए, पर किताब अब भी हाथ में थी — प्लास्टिक की थैली में लिपटी हुई। उसने निहारिका को देखा और हल्के से सिर हिलाया, जैसे कह रहा हो — “बारिश से भी बचा लाया हूँ तुम्हारी कहानी।” निहारिका ने भी मुस्कराहट से उत्तर दिया, लेकिन आज उसकी मुस्कान में चिंता थी, बेचैनी थी, और एक अनकहा सवाल — “इतना भीग कर क्यों आए?” मेट्रो आई, और दोनों हमेशा की तरह आमने-सामने बैठे। पर आज उनकी चुप्पी के बीच एक अलग किस्म की गूंज थी — जैसे कोई उलटफेर हो रहा हो। यश ने पहली बार किताब नहीं खोली, बल्कि खिड़की के बाहर देखते हुए कुछ सोचता रहा। निहारिका के दिल में हल्की-सी आशंका ने जन्म लिया — क्या यह उस कहानी का मोड़ है जहाँ कोई किरदार दूर जाने की तैयारी करता है?
मेट्रो स्टेशन दर स्टेशन आगे बढ़ रही थी, लेकिन वक्त जैसे ठहरा हुआ था। निहारिका ने अपनी डायरी खोलकर एक पंक्ति लिखी: “कभी-कभी खामोशियाँ भी चीखने लगती हैं, जब कोई अपना कुछ ज़्यादा चुप हो जाए।” उसने वह पन्ना धीरे से फाड़ा और यश की सीट की ओर सरकाया। यश ने पढ़ा, फिर खिड़की से नज़रें हटा कर उसकी ओर देखा — गहराई से, जैसे कुछ कहना चाहता हो। उसकी आँखों में हल्का-सा दर्द था, कोई ऐसा भाव जिसे शब्दों में डालना मुश्किल होता है। उसने जेब से एक छोटा लिफाफा निकाला और निहारिका की डायरी के ऊपर रख दिया। निहारिका ने लिफाफा देखा — उस पर कुछ नहीं लिखा था। राजीव चौक आते ही यश खड़ा हुआ, लेकिन इस बार वह नहीं मुस्कुराया, सिर्फ धीमे से सिर झुकाकर मेट्रो से उतर गया। निहारिका ठगी-सी बैठी रह गई, लिफाफा हाथ में लिए। बाकी मुसाफिरों के बीच वह एकदम अकेली लग रही थी — जैसे भीड़ ने अचानक उसे उसकी कहानी से अलग कर दिया हो।
ऑफिस पहुँचने तक वह लिफाफा खोलने की हिम्मत नहीं कर सकी। पूरे दिन मन बार-बार वहीं लौटता रहा — यश का भीगा चेहरा, उसकी खामोश निगाहें, और वह अनकहा विदा। शाम को, घर की छत पर चाय की प्याली लिए, उसने अंततः लिफाफा खोला। उसके भीतर एक छोटा सा पन्ना था, जिस पर सिर्फ चार पंक्तियाँ थीं —
“हर रोज़ तुमसे मिलना मेरी सबसे सच्ची आदत बन गई थी।
पर कुछ कहानियाँ अधूरी ही रह जाती हैं — शायद इसलिए कि वे सच्ची होती हैं।
मैं कुछ दिनों के लिए शहर छोड़ रहा हूँ, शायद हमेशा के लिए।
पर अगर कभी ये मेट्रो फिर से साथ लाए — तो समझना कि कहानी ख़त्म नहीं हुई।”
उस पन्ने को पढ़ते हुए निहारिका की आँखें भीग गईं। हवा में बारिश की नमी घुली हुई थी, और छत के कोने से एक बूँद उसकी डायरी के खुले पन्ने पर गिर पड़ी — जैसे यश की विदाई को खुद आसमान ने भी महसूस कर लिया हो।
६
अगली सुबह जब निहारिका द्वारका सेक्टर ९ स्टेशन पहुँची, उसके कदम धीमे थे और आँखें बार-बार भीड़ में एक ही चेहरा खोज रही थीं — लेकिन यश नहीं था। कोच का वही कोना खाली था, खिड़की के पास की सीट अब किसी और ने ले ली थी, और किताब की जगह आज बस उदासी बैठी थी। मेट्रो की रफ्तार वही थी, उद्घोषणाएँ वही थीं, लेकिन हर स्टेशन अब सिर्फ पत्थर लगने लगे थे — उनमें वो जादू नहीं था जो यश की मौजूदगी से जुड़ गया था। निहारिका चुपचाप बैठी रही, डायरी उसके घुटनों पर रखी थी, लेकिन पेन उसके हाथ में नहीं था। उस सुबह वो कोई स्केच नहीं बना सकी, कोई पंक्ति नहीं लिख सकी — सिर्फ खिड़की के बाहर बदलते दृश्य उसकी आँखों से गुजरते रहे, जैसे जीवन अचानक रंगहीन हो गया हो। राजीव चौक पर जब ट्रेन रुकी, वह पहली बार नहीं उतरी, बल्कि अगले स्टेशन तक चली गई — जैसे सोच रही हो कि शायद वो कहीं और मिल जाए, किसी और कोच में, किसी और दुनिया में।
अगले कुछ दिन उसकी दिनचर्या बदल गई थी, पर उसकी उम्मीद नहीं। हर सुबह वह जल्दी निकलती, कई बार पिछले स्टेशन तक जाती — बस इस उम्मीद में कि कहीं, किसी मोड़ पर यश लौट आए। लेकिन हर बार सिर्फ भीड़ दिखती थी, अजनबी चेहरे, और कोलाहल — जिसमें उसकी चुप आवाज़ दबकर रह जाती। एक बार उसने लक्ष्मीनगर स्टेशन के आसपास एक किताबों की दुकान में The Little Prince को हाथ में लेकर देखा, और बेचैनी से दुकानदार से पूछा, “क्या कोई नियमित ग्राहक है जो यह किताब हमेशा लेता है?” दुकानदार ने सिर हिलाया, “बहुत लोग हैं मैडम, ये तो बच्चों की भी पसंदीदा किताब है।” वह बिना कुछ कहे लौट आई, लेकिन उसकी आंखों में नमी थी — क्योंकि उसके लिए वह किताब अब कोई सामान्य पुस्तक नहीं, एक रिश्ता बन चुकी थी। दफ्तर में उसका मन नहीं लगता, सहकर्मी पूछते, “तुम कुछ खोई-खोई सी लगती हो,” और वह बस मुस्कुरा देती। वह जानती थी कि उसने शब्दों से परे की एक दुनिया में प्रवेश किया था — और जब वह दुनिया अचानक छूटती है, तो खालीपन बेहद गहरा होता है।
एक शाम उसने अपनी पुरानी डायरी निकाली — जिसमें यश की किताबों की पंक्तियाँ, इयरफोन में साझा गाने, और उन स्केचों की गंध बाकी थी जो कभी बिना कहे संवाद करते थे। पन्ने पलटते-पलटते उसका हाथ उस पहले स्केच पर जाकर रुका — दो मुसाफिर, खिड़की के सामने बैठे, बीच में चुप्पी। लेकिन आज वो चुप्पी कुछ और कह रही थी — अधूरापन। उसने उसी पन्ने के नीचे एक नई पंक्ति जोड़ी: “कुछ लोग कहानी में नहीं लौटते, लेकिन उनकी छाया हर पन्ने पर बनी रहती है।” निहारिका ने फिर उसी खिड़की के कोने में बैठना शुरू किया, हर दिन, उसी समय। वह जानती थी यश शायद कभी न लौटे, लेकिन उसकी अनुपस्थिति अब किसी की प्रतीक्षा नहीं थी, बल्कि स्मृति बन चुकी थी — जो हर रोज़ की यात्रा में साथ चलती थी। कभी-कभी, कोई युवक अगर The Little Prince पढ़ता दिखता, तो वह एक पल के लिए सिहर जाती — पर फिर खुद को समझा लेती, “यह किताब अब सबकी है, पर कहानी मेरी थी।”
७
कई हफ्ते बीत गए, और दिल्ली की गर्मियों ने निहारिका की उम्मीदों को एक चुप आग की तरह भीतर ही भीतर जलाया था। यशवर्धन अब जैसे एक याद नहीं, बल्कि एक आदत बन गया था — एक ऐसी आदत जिसकी जगह कोई और नहीं ले सकता था। रोज़ मेट्रो का वही कोच, वही सीट, वही टाइमिंग — पर अब उसकी नज़रों में बस खालीपन था। खिड़की से बाहर गुजरते स्टेशन अब सुने-सुनाए संवाद की तरह लगते थे, जैसे हर प्लेटफॉर्म कुछ कह रहा हो, हर रुकने वाला पल कुछ पूछ रहा हो — “क्या वो फिर आएगा?” एक दिन, ऑफिस से निकलते वक्त निहारिका ने अचानक तय किया कि उसे यश को ढूँढना ही होगा। वह जानती थी कि वह कहाँ रहता है, कहाँ से चढ़ता है, ये सब नहीं जानती — लेकिन उसके अंदर एक बेचैनी थी जो अब रुकने वाली नहीं थी। उसने वो सभी स्टेशन दोहराने शुरू किए जहाँ यश उतर सकता था, वो सभी किताबों की दुकानें टटोलीं जहाँ वो जाता होगा, और यहाँ तक कि एक दिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कैंपस तक भी पहुँची — जहाँ शायद वो पढ़ता था।
जेएनयू की गलियों में उसकी आँखें बस एक ही चीज़ खोज रही थीं — हल्की नीली शर्ट, हाथ में किताब, और वो अधूरी मुस्कान। उसने कैंटीन के बाहर बैठकर एक कॉफ़ी पी, और अंदर के सूचना बोर्ड पर एक नजर डाली — वहाँ एक पोस्टर लगा था: “Literature and Memory” – Seminar by Dr. Yashvardhan Malik (Dept. of History)। वह पोस्टर पुराना था — शायद दो सप्ताह पहले का, लेकिन इतना था कि निहारिका का दिल फिर धड़क उठा। “तो यश कोई और नहीं, डॉ. यशवर्धन मलिक है… और वो यहीं था… बहुत पास,” वह बुदबुदाई। उस शाम दिल्ली की सड़कें उसे पहले से ज़्यादा भारी लगीं। मेट्रो की भीड़ अब उसे काटती थी, उसके सामने जो भी लोग बैठते, वह अनायास उनकी किताबों पर निगाह डालती, उनकी उंगलियों की हरकतें पढ़ती, और फिर खुद को वापस उसी अधूरे पन्ने पर पाती, जहाँ से उसकी कहानी रुक गई थी। अब यश एक चेहरा नहीं रहा था — वो एक प्रतीक बन चुका था, एक प्रश्न, एक अनुत्तरित ख़त। कई बार वो सोचती कि उस लिफाफे में कोई संपर्क जानकारी होती, कोई ईमेल, कोई ठिकाना — पर नहीं, यश ने सिर्फ एहसास छोड़ा था, किसी संवाद की गुंजाइश नहीं।
एक शाम, जब सूरज हल्के नारंगी रंग में ढल रहा था और हवा में थोड़ी ठंडक आ गई थी, निहारिका इंडिया गेट के पास एक बुक स्टॉल पर पहुँची — बस यूं ही, शायद किसी संयोग की उम्मीद में। वहाँ की धूल भरी किताबों के ढेर में, अचानक उसकी नज़र The Little Prince की एक पुरानी प्रति पर पड़ी। उसने किताब उठाई — और चौंक गई। उसके भीतर, एक पन्ने पर पेंसिल से लिखा था: “हम वो लोग हैं जो मिलने के लिए बने थे, पर शायद वक़्त ने हमें अलग पटरियों पर डाल दिया है।” नीचे सिर्फ एक इनीशियल लिखा था: – Y. निहारिका की आँखें भीग गईं — उसने किताब को उसी पन्ने पर खोल कर सीने से लगा लिया। शायद यश उसे कहीं-न-कहीं ढूँढ रहा था, या शायद उस किताब को वही छोड़ गया था — एक संकेत, एक संकेत जो भीड़ में भी सिर्फ निहारिका के लिए था। दिल्ली के इस अथाह शोर में, जहाँ लाखों लोग रोज़ सफ़र करते हैं, कहीं एक चेहरा आज भी उसकी तलाश में था — और यह उम्मीद ही उसके अगले दिन की सुबह को एक नये उजाले से भर रही थी।
८
उस रात जब निहारिका अपने कमरे में अकेली बैठी थी, तो बाहर से आती धीमी हवा की सरसराहट और खिड़की के काँच पर पड़ती स्ट्रीटलाइट की रोशनी मिलकर एक अजीब सन्नाटा पैदा कर रही थी — ठीक वैसा ही सन्नाटा जैसा अब उसके दिल में रहने लगा था। किताबों की शेल्फ से The Little Prince की वो प्रति उसने निकाली जो इंडिया गेट की बुकस्टॉल से लाई थी — वही जिसमें यश की लिखावट थी। उसने धीरे से पन्ने पलटे, उन शब्दों को फिर-फिर पढ़ा, और फिर उसके हाथों ने अचानक खुद-ब-खुद डायरी उठा ली। आज वह कुछ कहना चाहती थी — कोई स्पष्टीकरण नहीं, कोई शिकायत नहीं — सिर्फ एक चिट्ठी, जिसे शायद कभी भेजा नहीं जाएगा। उसने धीरे-धीरे काग़ज़ पर लिखना शुरू किया: “प्रिय यश, पता नहीं ये चिट्ठी कभी तुझ तक पहुँचेगी या नहीं, लेकिन फिर भी लिख रही हूँ… क्योंकि कुछ अहसास ऐसे होते हैं जिन्हें कह देना ज़रूरी होता है, चाहे सामने वाला सुने या न सुने। तुम मुझसे कभी नहीं बोले, और मैंने भी कभी सवाल नहीं किया… लेकिन हमारी खामोशियाँ साथ बोलती थीं — हर रोज़, हर स्टेशन पर, हर उस पन्ने के ज़रिए जो तुम मेरी तरफ मोड़ते थे…”
वो चिट्ठी कोई औपचारिक संवाद नहीं थी, न ही कोई प्रेम-पत्र। वह एक आत्मस्वीकृति थी, एक गहराई से लिखा गया मन का लेखा-जोखा, जिसमें निहारिका ने उन सभी अनकहे लम्हों को सहेजा था जो यश के साथ बीते थे। उसने लिखा कि कैसे उसकी सुबहें अब भी मेट्रो के उसी कोच में शुरू होती हैं, कैसे उसकी आँखें अब भी भीड़ में एक चेहरा ढूँढती हैं, और कैसे हर बार जब The Little Prince के कोई शब्द सामने आते हैं, तो उसका दिल हल्का काँप उठता है। उसने लिखा कि यश की चुप मुस्कान ने उसे बोलना सिखाया, कि उसकी किताबों ने निहारिका की स्केचबुक में रंग भरे, और उसकी गैरहाज़िरी ने अब उसकी आत्मा में एक शून्यता पैदा कर दी है — जो भरता नहीं, सिर्फ बहता है। लेकिन सबसे खास, उसने लिखा: “मैंने कभी तुमसे कुछ माँगा नहीं, न कोई नाम, न कोई वादा। मैं बस चाहती हूँ कि अगर कभी तुम फिर लौटो, तो इस बार हम बैठें — दो मुसाफिर नहीं, दो इंसान बनकर… और कुछ शब्दों की जगह दे उस चुप्पी को, जिसने हमें अब तक बाँधे रखा है।”
जब उसने लिखना पूरा किया, तो पन्ना कई जगह भीग चुका था — बारिश से नहीं, आँखों से। उसने वह पत्र मोड़कर डायरी के पन्नों में छुपा दिया — कहीं बीच में, जहाँ वो यश की दी हुई पंक्तियों के आसपास रहे। बाहर रात गहरी हो चुकी थी, लेकिन निहारिका की आँखों में अब हल्का उजास था। वो जानती थी कि ये पत्र शायद कभी पोस्ट नहीं होगा, शायद यश कभी पढ़ेगा भी नहीं। लेकिन उसे राहत थी कि उसने कह दिया — दिल की वो बात जो महीनों से भीतर बाँध कर रखी थी। वह खिड़की के पास बैठी रही देर तक, और पहली बार उसे लगा कि यश की अनुपस्थिति अब कोई खालीपन नहीं, बल्कि उसके होने का सबसे गहरा प्रमाण बन चुकी है। और कहीं न कहीं, मेट्रो की एक सीट अब भी उसका इंतज़ार कर रही थी — एक नई शुरुआत के लिए, एक और सफर के लिए।
९
सितंबर की उस सुबह में एक अलग ठंडक थी — वह ठंडक जो बारिश के बाद की मिट्टी में मिल जाती है, जो हवा में चुपचाप घूमती है और पुराने ज़ख्मों पर नए फूलों की तरह गिरती है। निहारिका रोज़ की तरह मेट्रो स्टेशन पर पहुँची, लेकिन आज कुछ अलग था। उसके कदम हल्के थे, आँखें थकी हुई नहीं थीं, और मन में एक गहराई से भरा हुआ संतुलन था — मानो उसने इंतज़ार को स्वीकार कर लिया हो। वह अब भी ब्लू लाइन के उसी कोच में चढ़ती थी, उसी सीट के पास खड़ी होती थी, और कभी-कभी अपनी डायरी से कोई पुराना स्केच निकालकर बस उसे देखती थी। लेकिन आज, जैसे ही वह मेट्रो में चढ़ी, उसकी धड़कन एक पल को रुक गई — खिड़की की उसी सीट पर, हल्की नीली शर्ट में, एक चेहरा बैठा था… और उसके हाथ में वही किताब थी — The Little Prince।
कुछ देर के लिए समय ठहर गया। निहारिका ने आँखें मिचका कर देखा, शायद भ्रम था… पर नहीं, वह वही था — यशवर्धन। वही शांति, वही गहराई, और अब उसमें कुछ और था — जैसे वर्षों पुराना कोई सूरज फिर से लौट आया हो, थोड़े अधिक पीलेपन और पूरी गर्मी के साथ। यश ने उसकी तरफ देखा, और इस बार कोई झिझक नहीं थी — उसने मुस्कुराकर हाथ से इशारा किया कि वह सामने बैठे। निहारिका की आँखें भर आईं, लेकिन वह मुस्कुराई, और धीरे-धीरे चलकर उस सीट पर बैठ गई। कई स्टेशन गुज़र गए, पर दोनों में कोई शब्द नहीं हुआ — ज़रूरत ही नहीं थी। मेट्रो के भीतर की हलचल उनके लिए बंद हो चुकी थी, और उनके चारों ओर एक निजी बबल बन चुका था — जिसमें सिर्फ दो धड़कनों की आवाज़ थी। फिर यश ने किताब खोली, और एक पन्ना मोड़कर उसकी तरफ किया — उस पर लिखा था: “तुम मेरी कहानी की वो सवारी हो, जो हर रोज़ आती रही — और मैं उसके लिए हर रोज़ लौटने की वजह ढूँढता रहा।”
निहारिका ने किताब धीरे से अपने हाथ में ली, और उसी पन्ने के नीचे पेंसिल से एक शब्द जोड़ा: “मैं आज भी उसी स्टेशन पर हूँ… जहाँ तुमने मुझे छोड़ा था।” यश की आँखें हल्के से भीग उठीं। फिर, पहली बार, उसने धीरे से अपना हाथ बढ़ाया — और निहारिका ने बिना हिचकिचाए उसे थाम लिया। कोच अब भी भीड़ से भरा था, उद्घोषणाएँ चल रही थीं, स्टेशन पास आ रहे थे और पीछे छूट रहे थे — लेकिन निहारिका और यश के लिए आज मेट्रो की ये सुबह एक नई यात्रा बन चुकी थी। ऐसा नहीं था कि सब कुछ बदल गया था — बल्कि यही कि सब कुछ वही था, लेकिन अब पूरा था। दिल्ली मेट्रो की इस भीड़ में, दो मुसाफ़िरों ने आखिरकार अपनी गंतव्य पा ली थी — न किसी वादे के साथ, न किसी शर्त के साथ — बस एक मौन स्वीकृति के साथ।
१०
अब दिल्ली मेट्रो की वो सुबहें पहले जैसी नहीं रहीं। वही रूट, वही स्टेशन, वही सीटें — लेकिन उनमें अब एक स्थिरता थी, जैसे कोई कहानी अपनी जगह पा चुकी हो। निहारिका और यशवर्धन अब रोज़ साथ सफर करते थे — पहले की तरह बिना ज़्यादा शब्दों के, लेकिन अब मौन के भीतर भी एक संवाद स्थायी रूप से बस चुका था। किताब अब भी रहती थी, मगर पन्ने साझा हो चुके थे। कभी-कभी निहारिका पढ़ती और यश पेंसिल से कोई पंक्ति रेखांकित कर देता, और कभी निहारिका मुस्कराकर एक पुराना स्केच उसकी हथेली पर सरका देती। वे अब भीड़ में बैठते थे, लेकिन जैसे एक निजी संसार में रहते थे — जहाँ सुबहों की शुरुआत कॉफ़ी से नहीं, मुस्कान से होती थी। राजीव चौक अब उनके लिए सिर्फ एक ट्रांज़िट पॉइंट नहीं था, वह एक पड़ाव बन गया था — जहाँ अनकही बातें हर दिन कुछ और गहराई से खुलती थीं। एक बार, मेट्रो में सफर करते हुए, यश ने पूछा, “तुमने कभी सोचा था कि एक किताब और एक खिड़की हमें इतना जोड़ सकती है?” निहारिका ने हल्के से सिर हिलाया और कहा, “शायद इसीलिए कुछ कहानियाँ स्टेशन पर नहीं उतरतीं — वे सफ़र करती रहती हैं।”
वे न तो प्रेम में दीवाने थे, न ही उनके बीच फिल्मी किस्म की मुलाक़ातें होती थीं। वे दोनों शहर की भागती ज़िंदगी के हिस्से थे — फाइलों, ईमेल, डेडलाइन्स और थकान से भरे दिन के बीच बस मेट्रो का वह सफर उन्हें सांस लेने की जगह देता था। और यही जगह उनकी दुनिया बन गई थी। एक दिन, जब ट्रेन थोड़ी देर से चली, दोनों साथ खड़े थे — और यश ने निहारिका के हाथ में एक पृष्ठ थमाया, जिसे उसने खुद टाइप किया था। उसमें लिखा था:
“कभी सोचा नहीं था कि एक अजनबी चेहरा इतने अपनेपन से भर जाएगा।
तुम्हारी आँखों में मैंने वो कहानी देखी, जिसे मैं हमेशा पढ़ना चाहता था।
अगर ज़िंदगी एक मेट्रो है, तो तुम वो स्टेशन हो —
जिससे मैं कभी नहीं उतरना चाहता।”
निहारिका ने वो पन्ना पढ़ा, फिर उसकी ओर देखकर मुस्कुराई — कुछ भी बोले बिना। और यश ने वही किया जो वो सबसे बेहतर करता था — उसने खामोश रहकर उसका हाथ थाम लिया। कोई घोषणा नहीं हुई, न कोई वादा, पर उस दिन पहली बार दोनों ने एक-दूसरे के जीवन की मंज़िल को साझा रूप में स्वीकार कर लिया।
समय बीतता रहा, मौसम बदले, पर वे दोनों अब भी ब्लू लाइन की उसी सीट पर सफर करते हैं। आस-पास की भीड़ अब बदलती रहती है — चेहरे आते हैं, जाते हैं, पर उनके बीच का रिश्ता स्थिर है। एक बार, एक छोटे लड़के ने यश से पूछा, “आप रोज़ एक ही जगह बैठते हो?” यश ने मुस्कराकर जवाब दिया, “क्योंकि मेरी कहानी यहीं शुरू हुई थी।” और वह लड़का कुछ समझे बिना मुस्कराकर चला गया। निहारिका की डायरी अब भर चुकी है — स्केच, पंक्तियाँ, टिकट्स, और वो चिट्ठी जो उसने कभी भेजी नहीं। लेकिन अब वह जानती है — कहानियाँ उन पन्नों में नहीं रहतीं, वे उन सफ़रों में रहती हैं जो हम जीते हैं, और उन लोगों में, जो बिना शोर किए हमारे जीवन का हिस्सा बन जाते हैं। और इसलिए, दिल्ली मेट्रो का वह डिब्बा अब उनके लिए सिर्फ एक सवारी नहीं, एक घर बन गया है — जहाँ कहानियाँ उतरती नहीं, बस चलती रहती हैं… साथ-साथ।
[समाप्त]




