Hindi - कल्पविज्ञान

त्रयलोक-समय यंत्र

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प्रमोद कुमार


मध्यप्रदेश के सिंगनामा गाँव की सूखी, तपती ज़मीन पर जून की दोपहर भी नर्क से कम नहीं थी, लेकिन डॉ. प्रणव कश्यप की आँखों में जिज्ञासा की जो आग जल रही थी, वह हर तपन को फीका कर देती थी। पुरातत्व विभाग की ओर से सिंधु घाटी से जुड़ी किसी उप-सभ्यता की खोज के लिए खुदाई का यह दसवाँ दिन था, और अब तक मिली थीं केवल मिट्टी के बर्तन, टूटे हुए दीवार के टुकड़े, और दो-तीन अधजली लकड़ियाँ। मगर आज, जब खुदाई की टीम ज़मीन के तीसरे स्तर तक पहुँची थी, एक कुदाली ज़मीन में किसी कठोर चीज़ से टकराई। आवाज़ अलग थी—धातु की टनटनाहट जैसी। सभी मजदूरों की नज़रें उठ गईं। प्रणव ने खुद नीचे झुककर मिट्टी हटाई, और तभी उसकी उंगलियाँ एक गोल, चमकदार वस्तु से टकराईं। मिट्टी से बाहर खींचने पर वह वस्तु किसी थाली जैसी लगी—मगर यह कोई आम थाली नहीं थी। इसका व्यास लगभग डेढ़ फुट था, किनारे किनारे सुनहरी लिपियाँ खुदी थीं, जो न तो ब्राह्मी थीं, न देवनागरी। उसकी सतह पर अजीब खगोलीय चिन्ह अंकित थे—सात वृत्त, जिनके केंद्रों से प्रकाश की लहरें बाहर की ओर फैली प्रतीत हो रही थीं। ऐसा प्रतीत हुआ मानो यह कोई वैज्ञानिक यंत्र हो। प्रणव का हृदय तीव्र गति से धड़कने लगा। उसने तुरन्त उसे कपड़े में लपेटा और टेंट की ओर भागा, उसके मन में एक ही सवाल गूंज रहा था—”क्या यह वही है जिसकी हमें सदियों से तलाश थी?”

रात होते-होते पूरे शिविर का वातावरण बदल चुका था। सभी वैज्ञानिक, रिसर्च स्कॉलर और स्थानीय अधिकारी इस रहस्यमयी यंत्र को देखने के लिए इकट्ठा हो गए थे। प्रणव ने थाली को बड़े सावधानी से धोया और लैम्प के नीचे रखकर माइक्रोस्कोपिक अवलोकन किया। जैसे-जैसे प्रकाश उस धातु की सतह से टकरा रहा था, वह हल्की-हल्की गर्म हो रही थी, मानो उसमें अभी भी कोई ऊर्जा शेष है। अचानक, जैसे ही नीरा सिंह—जो कि एक खगोलशास्त्री थी और उसी क्षेत्र में शोध कर रही थी—ने थाली के मध्य भाग को छुआ, एक तेज़ नीली रोशनी निकली और शिविर के सारे उपकरण कुछ क्षण के लिए झिलमिला उठे। लोग घबरा गए, मगर प्रणव और नीरा स्तब्ध खड़े थे। उस थाली से एक धीमी सी ध्वनि आई—मानो हवा में कोई कंपन हो। “यह कोई ऊर्जा संचालित वस्तु है,” नीरा ने धीमे स्वर में कहा, “मगर इसकी तकनीक किसी भी ज्ञात आधुनिक विज्ञान से परे है। यह हमें समय से परे ले जा सकती है, प्रणव।” उस रात दोनों ने मिलकर उस थाली के चिन्हों का अध्ययन करना शुरू किया। नीरा ने बताया कि सतह पर अंकित ज्यामितीय आकृतियाँ दरअसल नक्षत्रों की स्थिति को दर्शाती हैं, और वे स्थिति आज की नहीं, बल्कि लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व की हैं। प्रणव के दिमाग में सब कुछ घूमने लगा। यह कोई साधारण खोज नहीं थी—यह इतिहास, विज्ञान और पौराणिकता के त्रिकोण का मिलन था।

अगली सुबह जब प्रणव ने थाली को पुनः स्पर्श किया, तो उसे ऐसा लगा जैसे उसकी दृष्टि धुंधली हो गई हो, और एक पल के लिए समय स्थिर हो गया। उसके चारों ओर की हवा भारी हो उठी, जैसे कोई अदृश्य शक्ति उसे खींच रही हो। उसने महसूस किया कि उसके आसपास की दुनिया कुछ क्षणों के लिए गायब हो गई, और वह एक विशाल पत्थर की संरचना के सामने खड़ा था, जहाँ ऋषियों जैसे परिधान में कुछ लोग किसी मंत्रोच्चार के साथ यंत्र की प्रतिकृति पर कार्य कर रहे थे। प्रणव चीखते हुए पीछे हटा और उसकी चेतना वापस वर्तमान में लौट आई। यह उसका भ्रम नहीं था—यह एक झलक थी, एक खिड़की अतीत की ओर। थाली अब एक यंत्र बन चुकी थी, जो समय की परतों को खोलने लगी थी। उस क्षण प्रणव को यह स्पष्ट हो गया कि यह खोज न केवल विज्ञान के इतिहास को बदल सकती है, बल्कि मानवता के भविष्य को भी दिशा दे सकती है। और शायद… कोई शक्ति नहीं चाहती थी कि यह यंत्र फिर से सक्रिय हो। दूर एक पहाड़ी की छाया में एक धुँधली आकृति उन्हें देख रही थी—काली पोशाक में, बिन चेहरों वाली आँखों से। खेल शुरू हो चुका था।

सिंगनामा गाँव की उस शांत दोपहर के बाद अब शिविर का हर कोना बेचैनी से भर उठा था। नीरा और प्रणव के बीच हुई रात की बातचीत अब रहस्य से ज्यादा कर्तव्य का स्वरूप लेने लगी थी—मानव इतिहास की सबसे दुर्लभ खोज उनके सामने थी, और यह केवल एक वैज्ञानिक सफलता नहीं, एक आध्यात्मिक द्वार भी हो सकता था। सुबह होते ही नीरा ने यंत्र पर लगे चिन्हों की तस्वीरें खींची और उसे अपनी खगोलशास्त्र टीम को भेजा, जो पुणे स्थित उनकी प्रयोगशाला में कार्यरत थी। उधर प्रणव ने स्थानीय संग्रहालय के संपर्क में आकर उसे संरक्षण में लेने की प्रक्रिया शुरू की, लेकिन उसके अंदर एक हलचल उठ रही थी। उसे बार-बार पिछली रात की दृष्टि याद आ रही थी—वह धुँधला दृश्य, वह मंत्रोच्चार, वह पत्थर की संरचना, और वह यंत्र जैसी ही आकृति। क्या यह थाली वास्तव में एक ‘समय यंत्र’ थी? या उसके दिमाग ने एक मिथक को यथार्थ में बदलने का खेल खेला था? इन सवालों के उत्तर देने वाला कोई नहीं था। लेकिन उसके मन का एक कोना अब संकल्पबद्ध हो चुका था—वह इस रहस्य को उजागर करेगा, चाहे इसके लिए उसे कितने भी जोखिम क्यों न उठाने पड़े।

लेकिन जैसे ही दिन ढलने लगा और रात की हवा शिविर में ताजगी भरने लगी, कुछ अजीब घटनाएँ होने लगीं। सबसे पहले, यंत्र को जिस तंबू में रखा गया था, वहाँ की सुरक्षा डिवाइस—एक साधारण इंफ्रारेड अलार्म सिस्टम—ने बिना किसी कारण एक्टिवेशन दिखाया। फिर रात के लगभग ढाई बजे, निगरानी कर रहे एक स्थानीय सहायक ने देखा कि कोई काली आकृति यंत्र के तंबू के पास आई और पलक झपकते ही गायब हो गई। अगले दिन सुबह उस सहायक ने प्रणव को यह बात बताई, और वह अपनी आँखों में डर और संदेह दोनों लिए हुए था। प्रणव ने सीसीटीवी फुटेज चेक किया, लेकिन वीडियो में कुछ भी साफ नहीं था—सिर्फ एक हल्की परछाईं, जो लग रहा था जैसे हवा के साथ बह रही हो। वह छवि देख नीरा ने कहा, “यह कोई सामान्य व्यक्ति नहीं था। यह कुछ और था… या शायद कोई जो इस यंत्र से लंबे समय से परिचित है।” फिर एक और झटका आया—थाली की सतह पर अंकित एक प्रतीक, जो पहले स्पष्ट नहीं था, अब नीले रंग में चमकने लगा था, जैसे समय के साथ उसकी उर्जा धीरे-धीरे जाग रही थी। नीरा ने तुरंत कहा, “यह चेतावनी है या आमंत्रण… यह अभी साफ नहीं है।” लेकिन एक बात अब तय हो चुकी थी—यह खोज अब केवल उनके नियंत्रण में नहीं थी। कोई और ताकत इसमें प्रवेश कर चुकी थी, और शायद वह ताकत अनादिकाल से इसकी रक्षा या निगरानी कर रही थी।

तीसरे दिन दोपहर में, एक काले रंग की जीप सिंगनामा गाँव के शिविर के बाहर आकर रुकी। उससे उतरे तीन व्यक्ति—एक अधेड़ उम्र का आदमी जिसकी आँखों में गहराई से भरी चुप्पी थी, और दो युवा जो कुछ फील्ड उपकरण लेकर सीधे यंत्र के तंबू की ओर बढ़ गए। उन्होंने अपने को एक विशेष सरकारी वैज्ञानिक इकाई से बताया—”विभाग ‘ए’,” जैसा उन्होंने कहा, मगर उनके आईडी कार्ड पर कोई स्पष्ट सरकारी चिन्ह नहीं था। प्रणव को शक हुआ, मगर उन्होंने मौन रहते हुए उन्हें भीतर जाने की अनुमति दी। अधेड़ व्यक्ति का नाम था रुद्र वर्मा। उसका चेहरा अजीब तरह से अपरिचित होते हुए भी जाना-पहचाना सा लगा, मानो इतिहास की किसी धूल भरी किताब से बाहर निकलकर वह सामने खड़ा हो। रुद्र ने थाली को गहरी दृष्टि से देखा, और बिना बोले उस पर हाथ फेरने लगा, जैसे वह कोई मंत्रहीन पुजारी हो। तभी प्रणव ने पूछा, “आप इस यंत्र को जानते हैं, है ना?” रुद्र की मुस्कान में एक अजीब किस्म की दया और चेतावनी दोनों का मिश्रण था। उसने कहा, “यह त्रयलोक-समय यंत्र है। इसे छूने का मतलब है, ब्रह्मांड के उस द्वार को खटखटाना, जिसे खुद काल भी नहीं खोलना चाहता। आपके पास जो है, वह ज्ञान नहीं… ज़िम्मेदारी है। और यह ज़िम्मेदारी हर किसी को नहीं दी जाती।” यह कह कर वह चुप हो गया, लेकिन प्रणव और नीरा अब जानते थे—यह केवल खोज नहीं, एक युद्ध की शुरुआत थी। समय का युद्ध, स्मृति और भविष्य के बीच।

रुद्र वर्मा के शब्द अब भी प्रणव के मन में किसी घड़ी की टिक-टिक की तरह गूंज रहे थे—”यह ज्ञान नहीं, ज़िम्मेदारी है।” पूरे शिविर में एक अजीब सा सन्नाटा फैल गया था, जैसे सब कुछ सामान्य होते हुए भी कुछ असामान्य घट चुका हो। नीरा ने उस रात देर तक थाली के बदलते चिन्हों पर ध्यान केंद्रित किया और पाया कि एक नई रेखा बीच में उभरने लगी थी—यह रेखा किसी समयरेखा के समान प्रतीत होती थी, जिसमें कई बिंदु थे, और हर बिंदु से हल्की कंपन तरंगें निकल रही थीं। प्रणव ने इस पर एक उच्च-रेजोल्यूशन कैमरे से स्कैन किया, तो पाया कि इन बिंदुओं के नीचे अति सूक्ष्म लिपि में कुछ अंकित था—संभवत: वे तिथियाँ थीं, लेकिन किसी ज्ञात कैलेंडर से मेल नहीं खा रही थीं। नीरा ने खगोल गणनाओं की मदद से इन तिथियों की तुलना खगोलीय घटनाओं से की, और एक चौंकाने वाला निष्कर्ष सामने आया—ये तिथियाँ भारत के इतिहास में प्रमुख घटनाओं के साथ मेल खा रही थीं, जैसे महाभारत काल, सम्राट अशोक का धर्म परिवर्तन, नालंदा का जलना, और यहां तक कि 1947 का विभाजन। क्या यह यंत्र वास्तव में समय की स्मृति को संजोए हुए था? या ये केवल संयोग थे? उस रात, प्रणव ने थाली को अपनी हथेली में लिया, और उस केंद्र बिंदु को छुआ जहां कंपन सबसे तीव्र थी। पल भर में उसकी दृष्टि धुंधली हुई, और वह अपने शिविर के अंदर होते हुए भी कहीं और था—एक विस्तृत मैदान, जहाँ रथों की गड़गड़ाहट और युद्धघोष की ध्वनि गूंज रही थी। उसके सामने अर्जुन जैसे दिखने वाला एक योद्धा खड़ा था, धनुष उठाए, और ठीक उसी क्षण, दृश्य फिर से विलीन हो गया।

उस अगले दिन रुद्र वर्मा ने उनसे अकेले में मिलने की इच्छा जताई। एक पत्थर की चट्टान पर बैठे हुए, उसने प्रणव को एक कागज की पुरानी सी किताब दी, जिसके पृष्ठ खाल की तरह थे और लिपि वैसी ही थी जैसी थाली पर खुदी थी। “यह पंचवात्स्य ग्रंथ है,” रुद्र ने कहा, “एक गुप्त ग्रंथ जिसे केवल कुछ ही लोगों को पढ़ने की अनुमति है। इसमें त्रयलोक-समय यंत्र की उत्पत्ति, उद्देश्य और उसकी सीमाओं का वर्णन है।” प्रणव ने संदेह से पूछा, “आप यह सब कैसे जानते हैं?” रुद्र ने मुस्कराकर जवाब दिया, “क्योंकि मैं उस वंश से हूँ जिसने इसे छिपाया था… और अब तुम्हारा समय आ गया है इसे जानने का।” पुस्तक में वर्णित था कि यह यंत्र केवल एक यंत्र नहीं बल्कि ‘काल-शक्ति’ का वाहक है, जो ब्रह्मांड की स्मृति को न केवल दर्ज करता है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसे दोबारा प्रकट कर सकता है। यह चेतावनी भी दी गई थी कि यंत्र का उपयोग केवल तब किया जाए जब ‘काल-गति’ असंतुलित हो जाए—जब वर्तमान अतीत से अलग दिशा में जा रहा हो, और मानवता अनभिज्ञ विनाश की ओर बढ़ रही हो। ग्रंथ की अंतिम पंक्ति में लिखा था, “जो इसे जगाएगा, वह काल का उत्तराधिकारी कहलाएगा—पर उसकी कीमत भी चुकानी होगी।” इस चेतावनी के साथ रुद्र ने यंत्र को नीरा और प्रणव के हवाले कर दिया, लेकिन जाते-जाते कहा, “एक बार यह जाग गया है, अब इसे रोकना कठिन होगा। तुम्हारे पास समय नहीं, केवल चुनाव है।”

अगले कुछ दिनों में प्रणव और नीरा ने यंत्र के संकेतों और ग्रंथ की व्याख्या के आधार पर अनुमान लगाया कि अगली बार यह यंत्र खुद को 11वें चिह्न पर सक्रिय करेगा—और वह बिंदु था: 2047, स्वतंत्रता के सौ वर्ष बाद की एक अनजानी तिथि। प्रणव ने कहा, “क्या यह यंत्र भविष्य को भी दिखा सकता है?” नीरा बोली, “या शायद चेतावनी दे रहा है उस भविष्य से जो असंतुलित होगा।” उन्होंने एक अलग परीक्षण की योजना बनाई—यदि वे एक सीमित समय-चक्र में इस यंत्र को नियंत्रित कर सकें, तो शायद वे उसकी दिशा को समझ सकेंगे। नीरा ने थाली के चारों ओर आठ रत्नों का एक चक्र बनाया—ज्योतिषीय तालमेल के अनुसार—और केंद्र में प्रणव ने पुनः हाथ रखा। थाली ने पहले धीमी कंपन की ध्वनि दी, फिर तेज़ प्रकाश से वातावरण भर गया। इस बार उन्हें कोई अतीत का दृश्य नहीं दिखा, बल्कि वह दृश्य जो सामने आया, उसमें शहर खंडहर में तब्दील था, और लोग अजीब किस्म के मास्क पहने, शांत चेहरों से टकटकी लगाए खड़े थे। और सबसे आश्चर्यजनक बात—उन खंडहरों में से एक की दीवार पर किसी ने थाली का चित्र बनाया था, उसके नीचे अंकित था: “इसे वापस करो, नहीं तो समय तुम्हें मिटा देगा।” दृश्य झटके से टूटा और दोनों ज़मीन पर गिर पड़े। जब उन्होंने होश में आकर देखा, तो यंत्र की सतह पर 12वां चिह्न अब चमक रहा था—एक अनदेखी चेतावनी, एक अपरिभाषित अंत की ओर संकेत करता हुआ। अब केवल वे ही नहीं, बल्कि समय स्वयं उनके पीछे चल रहा था।

शिविर की उस भयावह रात के बाद नीरा और प्रणव के बीच एक गहरा मौन छा गया था। वे न तो अपने देखे दृश्य को पूरी तरह स्वीकार कर पा रहे थे, न ही उसे महज़ एक दृष्टि मानकर टाल पा रहे थे। यंत्र अब एक निष्क्रिय वस्तु नहीं रहा, वह एक जीवित चेतना की तरह प्रतीत होने लगा था—जिसे जगाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी, और जिसे अब कोई वापस नहीं सुला सकता था। प्रणव ने अगली सुबह जैसे ही ग्रंथ के उन अंतिम पन्नों को पढ़ा, एक पुरानी बात उसके दिमाग में कौंधी—उसके दादाजी, जो कभी बनारस विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर थे, अक्सर एक अज्ञात “काल-पट” की चर्चा करते थे, जो किसी योगी द्वारा समय के भीतर छिपा रखा गया था। शायद वही यंत्र अब उनके सामने था। नीरा ने एक और खोज की—यंत्र पर बना बारहवां चिह्न, जिसे उन्होंने भविष्य की चेतावनी माना था, दरअसल एक काल-वृत्त का प्रतीक था, जो केवल पूर्ण चक्र के बाद ही प्रकट होता था। इसका अर्थ था कि समय की एक यात्रा पूरी हो चुकी है, और एक नई यात्रा प्रारंभ होने वाली है। इस विचार से पहले तो उनके रोंगटे खड़े हो गए, लेकिन फिर प्रणव ने साहस जुटाया और कहा, “हमें इसे अंतिम रूप से सक्रिय करना होगा… लेकिन नियंत्रित वातावरण में। हम इसे ऐसे ही छोड़ नहीं सकते।” उन्होंने निर्णय लिया कि यंत्र को गाँव से दूर स्थित एक पुराने बौद्ध मठ में ले जाया जाएगा, जहाँ कम जनसंख्या थी और पुरातात्त्विक संरचनाएँ भी सुरक्षित थीं।

वहाँ पहुँचने पर उन्हें मठ के भीतर एक ऐसा कक्ष मिला, जो सदियों से बंद पड़ा था, और जिसकी दीवारों पर ठीक वैसे ही प्रतीक अंकित थे जैसे यंत्र की थाली पर थे। यह महज संयोग नहीं हो सकता था। मठ के एक वृद्ध भिक्षु ने बताया कि यह कक्ष “काल-निवास” कहलाता है और सदियों पहले यहाँ ध्यान में बैठे एक साधु ने भविष्य में घटने वाले संकटों की भविष्यवाणी की थी। नीरा और प्रणव ने वहाँ थाली को केंद्र में स्थापित किया, उसके चारों ओर सप्तर्षियों की दिशाओं में दीप प्रज्ज्वलित किए और उन रत्नों को पुनः सजाया जिनके माध्यम से कंपन उत्पन्न हुआ था। फिर प्रणव ने जैसे ही यंत्र के केंद्र को स्पर्श किया, एक बार फिर वातावरण परिवर्तित हो गया—लेकिन इस बार कोई अतीत या भविष्य नहीं, बल्कि यंत्र ने उन्हें स्वयं अंदर खींच लिया। वे अब किसी ब्रह्मांडीय शून्य में थे, जहाँ ऊपर-नीचे, दाएँ-बाएँ का कोई अस्तित्व नहीं था। चारों ओर नीली और बैंगनी रोशनी की तरंगें बह रही थीं, और उनके सामने एक विशाल वृत्ताकार द्वार प्रकट हुआ—जिसके किनारे वैदिक ऋचाओं की ध्वनि प्रतिध्वनित हो रही थी। उस द्वार के भीतर एक प्रकाशमय काया प्रकट हुई, जिसने स्पष्ट शब्दों में कहा, “तुमने त्रयलोक-यंत्र का द्वार खोल दिया है। अब तुम्हें तीनों समयों की परीक्षा से गुजरना होगा: अतीत की पीड़ा, वर्तमान का संकल्प, और भविष्य का बलिदान।” दृश्य अचानक बदल गया, और अब प्रणव और नीरा खुद को एक युद्धभूमि में खड़े पाए—अतीत की उस स्मृति में जहाँ सभ्यताएँ टूट रही थीं और एक शिला पर वही यंत्र रखा था, जिसके लिए योद्धा मरने-मारने को तैयार थे।

इस अतीत के दर्शन ने उन्हें भीतर तक झकझोर दिया। उन्होंने देखा कि कैसे समय की यह शक्तिशाली वस्तु कई बार मानव लालच और युद्ध का कारण बन चुकी थी—कभी एक राजा के हाथ में युद्ध का औज़ार, कभी एक ऋषि के हाथों में शांति का मंत्र। और फिर दृश्य पलटा और वे वर्तमान में लौट आए—शिविर, मठ, और सब कुछ वैसा ही… लेकिन उनके भीतर कुछ बदल चुका था। उन्हें अब स्पष्ट रूप से यह ज्ञात था कि यंत्र को कोई एक व्यक्ति नहीं संभाल सकता, न ही कोई संगठन—यह केवल एक संकल्पित समूह के माध्यम से सुरक्षित रह सकता है, जिन्हें ‘काल-रक्षकों’ का दायित्व सौंपा जाए। तभी नीरा ने प्रणव की ओर देखा और धीमे से कहा, “शायद हम दोनों उस प्रक्रिया का आरंभ हैं।” रुद्र वर्मा फिर से प्रकट हुआ—इस बार बिना पूछे, बिना दस्तक दिए। उसने यंत्र की ओर देखा और मुस्कराया, “तुमने पहला द्वार पार कर लिया है… अब समय तुम्हारे साथ नहीं, तुम्हारे भीतर चलेगा।” यंत्र की सतह अब ठंडी हो चुकी थी, लेकिन उस पर बना हर चिह्न चुपचाप चमक रहा था—जैसे रात के आकाश में तारे, जो कुछ नहीं बोलते, लेकिन सब कुछ बता देते हैं।

सिंगनामा से दूर उस प्राचीन बौद्ध मठ की शांति अब एक नवजात ऊर्जा से भर गई थी—जैसे शताब्दियों से सुप्त किसी आत्मा को पुनः जीवन मिला हो। नीरा और प्रणव के द्वारा सक्रिय किए गए त्रयलोक-यंत्र की ऊर्जा अब किसी वस्तु की नहीं, चेतना की प्रतीक बन चुकी थी। यंत्र अब शांत था, लेकिन उसकी सतह पर चमकते बारह चिह्न अब स्थायी हो गए थे, जैसे किसी कालगणना की मुहर। रुद्र वर्मा ने अगले दिन एक अत्यंत गोपनीय सभा बुलाई, जिसमें देश के विभिन्न कोनों से कुछ विशेष लोगों को बुलाया गया—एक खगोलविद, एक संस्कृतविद, एक तांत्रिक-वैज्ञानिक, एक भौतिकशास्त्री, और एक अंधश्रद्धा निर्मूलन समिति का सदस्य। रुद्र ने सभा में घोषणा की, “यह यंत्र अब अकेले किसी के वश में नहीं है। इसे सुरक्षित रखने और इसके प्रयोग के लिए ‘काल-रक्षक परिषद्’ का गठन किया जाएगा, जो केवल वैज्ञानिक नहीं, वैदिक और सांस्कृतिक चेतना से भी लैस होगी।” सभा में मौजूद सभी लोगों ने पहले तो इस प्रस्ताव को कल्पना माना, लेकिन जब उन्हें यंत्र की शक्तियाँ और दृष्टियाँ दिखाई गईं, तो उनके मन में संशय की जगह विस्मय और स्वीकार्यता ने ले ली।

परिषद के गठन के साथ ही यंत्र की पहली बड़ी परीक्षा सामने आई—एक भौगोलिक विचलन जो महाराष्ट्र के सतारा जिले में महसूस किया गया। वैज्ञानिक उपकरणों ने बताया कि वहाँ की चट्टानों में कोई अज्ञात ऊर्जा उत्सर्जन हो रहा है, जो किसी साधारण चुंबकीय प्रभाव से मेल नहीं खा रहा। परिषद के सदस्य तय करते हैं कि यह त्रयलोक-यंत्र से उत्पन्न ऊर्जा की प्रतिध्वनि हो सकती है, जो ज़मीन की गहराई में सोए किसी प्राचीन ‘काल-स्रोत’ से टकराकर लौट रही है। प्रणव, नीरा और परिषद के तीन अन्य सदस्य वहाँ पहुँचते हैं। एक गुफा में प्रवेश करते ही उन्हें दीवारों पर वही चिन्ह दिखते हैं जो यंत्र पर अंकित हैं—जैसे यह स्थान भी उस ‘काल-चक्र’ का ही हिस्सा हो। गुफा के भीतर एक पत्थर की संरचना में उन्हें एक छोटा गोल धातु का टुकड़ा मिलता है—ठीक त्रयलोक-यंत्र के समान, लेकिन टूटा हुआ। नीरा ने कहा, “शायद यह ‘प्रतियंत्र’ है—मूल यंत्र की एक अधूरी प्रति, या कोई संतुलनकारी वस्तु।” जैसे ही वह टुकड़ा उठाया गया, वहाँ एक तीव्र कंपन उत्पन्न हुआ और पूरा गुफा-क्षेत्र एक नीली आभा से भर गया। सभी सदस्य बाहर निकलते ही समझ जाते हैं—यह केवल कंपन नहीं था, बल्कि एक आग्रह, एक संकेत था कि यंत्र अब दुनिया के अन्य सोए हुए अंशों को जगा रहा है।

उस रात परिषद की आपात बैठक हुई। रुद्र ने गंभीर स्वर में कहा, “यंत्र के अंश इस धरती पर फैले हुए हैं—हर युग में, हर सभ्यता ने इसे अपने रूप में देखा और छिपाया। त्रयलोक-यंत्र अब इन सभी अंशों को पुनः एकत्र करना चाहता है—और इस प्रक्रिया में यदि हम चूके, तो यह यंत्र स्वयं दिशा तय करेगा, चाहे परिणाम जो भी हो।” परिषद में यह प्रस्ताव रखा गया कि हर सदस्य को अलग-अलग दिशाओं में भेजा जाए ताकि वे अपने-अपने क्षेत्र में यंत्र की प्रतिध्वनि या जागरण चिह्न खोज सकें। नीरा को उत्तर भारत की पर्वतीय घाटियों में भेजा गया—जहाँ कभी ऋषि अगस्त्य की तपोभूमि मानी जाती थी, जबकि प्रणव को दक्षिण भारत के मदुरै के समीप एक प्राचीन मंदिर में जाने का दायित्व मिला। विदाई से पहले, दोनों ने मठ की उस शिला पर हाथ रखा जहाँ यंत्र अब सुरक्षित रखा गया था। वहाँ उनके स्पर्श मात्र से यंत्र में एक तेरहवां चिह्न धीमे से उभरने लगा—स्पष्ट, चमकदार, और पहली बार उसकी सतह पर एक मंत्र उभरा:
“कालोऽहम् – समय मैं स्वयं हूँ।”
यह मात्र शब्द नहीं थे, यह चेतावनी थी—कि जो इस यात्रा पर निकलेगा, उसे समय के भीतर उतरना होगा, और समय किसी को दया नहीं देता।

तमिलनाडु की भीषण गर्मी और मदुरै की भीड़भाड़ भरी गलियों के बीच, प्रणव कश्यप का मन किसी और ही दिशा में भटक रहा था—इतिहास की उस सुरंग में, जहाँ कोई भी आधुनिक वैज्ञानिक यंत्र काम नहीं करता, केवल स्मृति और आस्था के धागों से जुड़ी कथा-परंपराएँ होती हैं। वह जिस मंदिर की ओर बढ़ रहा था, वह कोई प्रसिद्ध तीर्थ स्थल नहीं था, बल्कि एक उपेक्षित, खंडहरनुमा शिवालय था जो शहरी फैलाव के बाहर, एक वीरान टीले पर स्थित था। स्थानीय निवासियों का कहना था कि वह मंदिर “काल-महेश्वर” का प्राचीन स्थल है, जहाँ कोई पुजारी अब वर्षों से नहीं आता, और जहाँ रात के तीसरे प्रहर घंटियों की आवाज़ बिना किसी मानव उपस्थिति के सुनाई देती है। जैसे ही प्रणव ने उस मंदिर की शिला पर पहला कदम रखा, वातावरण में एक असामान्य ठंडक भर गई। मंदिर के गर्भगृह की दीवारों पर महीन लिपियों में खुदे हुए चित्र उसे देखने लगे—त्रिकोण, वृत, और सप्त बिंदुओं की संरचनाएँ, जैसे ये लिपियाँ केवल पढ़ी जाने के लिए नहीं थीं, बल्कि जाग्रत होने की प्रतीक्षा में थीं। और फिर जैसे ही उसने गर्भगृह के केंद्र में रखे पुराने शिवलिंग को स्पर्श किया, एक कंपन उसके शरीर में दौड़ गया। उसे प्रतीत हुआ कि उसकी दृष्टि मंदिर की दीवारों के पार चली गई है—वह समय देख पा रहा था, नहीं, महसूस कर पा रहा था।

वह दृश्य कोई स्वप्न नहीं था। एक क्षण में वह वहीं था, जहाँ खड़ा था, और दूसरे ही क्षण किसी और कालखंड में। मंदिर अब नवीन था, उसकी दीवारें स्वर्ण से आच्छादित, और गर्भगृह के भीतर बैठे थे पाँच व्यक्तित्व—सभी मौन, किंतु उनके नेत्रों में अग्नि की चमक। इन पंचों में से एक ने उसे देखा और कहा, “तुम आने वाले हो, जो भविष्य को अतीत से जोड़ेगा।” प्रणव आगे बढ़ा और देखा कि उनके समक्ष वही त्रयलोक-यंत्र रखा था—परंतु उसका आकार विशाल था, और उसमें 21 चिह्न स्पंदित हो रहे थे। वह समझ गया कि यह दृश्य अतीत की स्मृति नहीं, एक चेतावनी है—कि यंत्र की क्षमता समय से भी आगे जाती है, और अगर अनियंत्रित हुई तो वह भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों को एक साथ निगल सकती है। तभी वह दृश्य क्षीण होने लगा और उसकी चेतना वापिस वर्तमान में लौट आई। उसके शरीर से पसीना बह रहा था, लेकिन उसकी आँखें स्थिर थीं। अब मंदिर का वातावरण बदल चुका था। जिन दीवारों पर पहले मिट्टी की दरारें थीं, वे धीरे-धीरे अपने आप ही समतल हो रही थीं, और उन पर अब एक नया चिन्ह उभर रहा था—तेरहवाँ। वही जो मठ में उभरा था, पर यहाँ वह पूरा था, जैसे उसका अधूरा भाग यहीं छिपा था।

अचानक एक धीमी आहट ने उसे चौंकाया। मंदिर के बाहरी प्रांगण में एक वृद्ध महिला खड़ी थी—धोती पहने, सिर पर सफेद आँचल, और हाथ में एक छोटा दीपक। उसने प्रणव से बिना कुछ पूछे कहा, “तुमने उसे जगा दिया है। अब उसका प्रकाश तुम्हें ढूँढेगा, चाहे तुम छिपो या खोजो।” प्रणव ने हिम्मत करके पूछा, “आप कौन हैं?” वह मुस्कुराई, “जिसने इसे अंतिम बार छुआ था, उससे पहले कि यह समय में लुप्त हो जाए।” और यह कहकर वह महिला अचानक हवा में घुल गई, जैसे वह कोई आत्मा हो जो केवल यंत्र की पुनरावृत्ति के साथ प्रकट होती है। प्रणव समझ गया कि यह मंदिर केवल एक स्थान नहीं, एक ‘काल-द्वार’ है—एक ऐसा छोर जहाँ यंत्र के चिह्न शुद्ध रूप में अंकित हैं, और जिससे उसका हर हिस्सा जुड़ता है। उसने तुरंत यंत्र के धातु-मानचित्र को मंदिर की संरचना पर स्कैन किया, और पाया कि मंदिर का आधार, उसकी दीवारें और स्तंभ—all formed a perfect temporal alignment—एक ज्यामितीय संरचना जो समय-रेखाओं की तरह काम करती थी। उसने उस मंदिर का हर बिंदु रिकॉर्ड किया और मठ में लौटने से पहले अंतिम बार गर्भगृह के पत्थर को छुआ। इस बार कोई कंपन नहीं हुआ, बल्कि एक आवाज़ भीतर से आई—”काल अब मौन नहीं रहेगा।” प्रणव जान चुका था, परिषद की यात्रा अब केवल खोज की नहीं, नियंत्रण की होने वाली है।

उधर हिमालय की तलहटी में, उत्तरकाशी के पास की एक दुर्गम घाटी में नीरा सिंह अब अपने अभियान के अंतिम चरण में थी। यह स्थान प्राचीन ग्रंथों में अगस्त्य मुनि की ध्यानस्थली के रूप में उल्लिखित है, और यही कारण था कि उसे यहाँ भेजा गया था—त्रयलोक-यंत्र की संभावित प्रतिध्वनियाँ इस घाटी में भी रिकॉर्ड की गई थीं। नीरा ने स्थानीय लोगों से बातचीत की, जो किसी “मूक झील” की चर्चा करते थे—एक रहस्यमयी जलाशय जिसके किनारे पर कोई आवाज नहीं सुनाई देती, और जहाँ रात को जल स्वयं हल्का नीला चमकता है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो यह कोई भू-चुंबकीय असामान्यता हो सकती थी, लेकिन नीरा अब केवल विज्ञान नहीं, चेतना से भी सोचने लगी थी। सुबह चार बजे वह एक अनुभवी गाइड के साथ उस झील की ओर निकली। रास्ते में उन्हें हरे रंग की काई से ढंकी हुई एक चट्टान पर वही त्रिकोणाकार चिन्ह मिला जो त्रयलोक-यंत्र के दूसरे चिह्नों से मेल खाता था। जैसे ही वह झील के किनारे पहुँची, अचानक हवा स्थिर हो गई। पक्षियों की चहचहाहट, पत्तों की सरसराहट—सब कुछ जैसे स्थगित हो गया। नीरा को झील की सतह पर एक चांदी जैसी रेखा बहती दिखाई दी, जो किसी ज्यामितीय संरचना का हिस्सा लग रही थी। उसने हाथ बढ़ाया, और झील की सतह को छूते ही उसकी चेतना जैसे अंदर खिंचने लगी। उसने आँखें मूँद लीं, और फिर जो उसने देखा, वह कल्पना की सीमा से परे था—वह खुद को एक विशाल गुफा के भीतर खड़ी पाती है, जहाँ सप्तर्षियों की आकृतियाँ हवा में तैर रही हैं, और बीचों-बीच वही यंत्र स्थिर है, पर उसकी गति मंथर और गूढ़ है।

इस दिव्य गुफा के मध्य भाग में एक ऋषि आकृति प्रकट होती है—श्वेत जटाजूट, सूर्य जैसे दीप्तिमान नेत्र और गहन स्वर। “तुम वही हो जिसने यंत्र को फिर से जाग्रत किया। काल को चेतना दी है,” वह बोले। नीरा चकित थी लेकिन शांत। ऋषि ने हाथ उठाया और कहा, “त्रयलोक-यंत्र केवल धातु का यंत्र नहीं, यह ब्रह्मांड की स्मृति है। हर बार जब यह जागता है, एक संतुलन टूटता है और नया चक्र आरंभ होता है। यदि इसे नियंत्रित ना किया जाए, तो यह समय को निगल सकता है।” उन्होंने बताया कि मूक झील, हिमालय की पर्वत-श्रृंखला में बसी यह घाटी, यंत्र की ऊर्जा को स्थिर करने वाला प्राचीन ‘काल-बंधन’ स्थल था। नीरा को वहां एक विशिष्ट क्रिया करनी थी—गायत्री मंत्र के ध्वनि कंपन के साथ यंत्र के अनुनाद को संतुलित करना, जिससे उसके भीतर की अतिशक्ति नियंत्रित रहे। नीरा ने झील के किनारे बैठकर ध्यानमग्न होकर वही ध्वनि दोहराई जो उसके कानों में प्रतिध्वनित हो रही थी: “ॐ भूर्भुवः स्वः।” जैसे-जैसे उसका उच्चारण तेज होता गया, झील की सतह पर नीली तरंगें उभरने लगीं, और एक बिंदु से प्रकाश उठकर आकाश में विलीन हो गया। दृश्य फिर धुंधला हो गया, और उसकी चेतना झील के किनारे लौट आई, जहाँ वह मूर्छित पड़ी थी। जब उसने आँखें खोलीं, तो झील पूरी तरह शांत थी, लेकिन उसके किनारे एक पत्थर पर एक नया चिह्न उभरा था—चतुर्दश—जो अभी तक यंत्र पर नहीं था।

झील से लौटने के बाद नीरा को लग रहा था जैसे कोई अनदेखा उत्तरदायित्व उसके भीतर बस चुका है। उसने गाइड को विदा किया और अकेले ही उस झील की मिट्टी का एक अंश, एक पत्थर पर अंकित चिह्न की प्रतिकृति और अपने ध्यान-सत्र के दौरान सुने मंत्रों की लिपिबद्ध प्रति सुरक्षित की। मठ में लौटते समय रास्ते भर उसके मन में केवल एक ही प्रश्न गूंज रहा था: “अगर हर स्थल यंत्र का कोई अंश है, तो क्या पूरी पृथ्वी ही एक यंत्र का शरीर है?” जब वह रुद्र वर्मा और प्रणव से फिर मिली, उसने बिना किसी भूमिका के बस इतना कहा, “हम केवल खोजकर्ता नहीं, हम यंत्र की गति के हिस्से बन चुके हैं। यह हमसे कुछ करवा रहा है।” रुद्र ने गंभीर होकर उत्तर दिया, “और वह क्या है, यह तुम अगले चिह्न के बाद जानोगी।” मठ में जैसे ही नीरा ने मूक झील से लाया गया चिह्न त्रयलोक-यंत्र के पास रखा, उसकी सतह पर एक अद्भुत घटना घटित हुई—तेरहवाँ चिह्न धीरे-धीरे विभाजित हुआ, और उसके बीच से एक नए मार्ग का उद्घाटन हुआ—एक रेखा, जो सीधी नहीं थी, बल्कि सर्पाकार थी—जैसे वह किसी छिपी हुई भूलभुलैया की ओर ले जाती हो। और उसी क्षण रुद्र बोला, “अब समय है, अंतिम स्थल की यात्रा का। वह स्थल, जहाँ यह यंत्र स्वयं बना था—त्रयलोक के उद्गम में।”

त्रयलोक-यंत्र के मध्य उभरी सर्पाकार रेखा अब केवल एक चिन्ह नहीं थी—वह एक मार्गदर्शक थी, जो उन्हें उस अंतिम स्थल की ओर ले जा रही थी जहाँ यह रहस्यमयी यंत्र पहली बार निर्मित हुआ था। रुद्र वर्मा ने मंत्रोच्चार के साथ जैसे ही उस रेखा पर तांत्रिक अभिसिंचन किया, यंत्र की सतह से नीली आभा उठकर मठ की दीवारों पर प्रतिच्छाया बनाकर फैलने लगी। हर दीवार पर कुछ नक्षत्र, कुछ वैदिक सूक्त, और एक पर्वत का चित्र उभरा—वह पर्वत कोई और नहीं, बल्कि गंधमादन पर्वत था, जिसका वर्णन केवल पौराणिक ग्रंथों में आता है, लेकिन भौगोलिक साक्ष्य कभी नहीं मिले। रुद्र बोला, “इस यंत्र का मूल वहीं छिपा है—कैलास के उत्तर में, उस स्थल पर जहाँ काल की गति स्थिर होती है।” प्रणव और नीरा अब किसी संशय में नहीं थे; वे जानते थे कि यह आखिरी यात्रा होगी, जो या तो त्रयलोक-यंत्र को नियंत्रित कर उन्हें काल-रक्षक बना देगी, या फिर उसे अनियंत्रित छोड़ एक ऐसा दरवाज़ा खोल देगी जिसे बंद करना फिर किसी के वश में नहीं होगा। परिषद के तीन और सदस्य, जिनमें एक वैदिक व्याख्याकार और दो पर्वतीय अन्वेषक थे, इस यात्रा का हिस्सा बने। वे सभी विशेष हेलिकॉप्टर से लद्दाख की सीमा तक पहुँचे, फिर वहीं से उत्तर की ओर—मानचित्रविहीन क्षेत्र में—पैदल यात्रा प्रारंभ की।

तीन दिन की कठिन, जमी हुई हवा से भरी यात्रा के बाद वे एक ऐसे स्थल पर पहुँचे जहाँ कोई स्पष्ट चिह्न नहीं था, केवल श्वेत पत्थरों की एक श्रृंखला, जो किसी ज्यामितीय अनुक्रम में रखी गई थी—वृत्त के भीतर सप्त-बिंदु की आकृति। नीरा ने वहीं खड़े-खड़े कहा, “यह वही संरचना है जो झील में, मंदिर में और यंत्र पर है।” जैसे ही उन्होंने यंत्र को उस वृत्त के मध्य रखा, पूरे पर्वतीय भूभाग में एक अजीब सी प्रतिध्वनि उत्पन्न हुई—मानो शून्य ने कोई सांस ली हो। शिलाएं स्वतः हिलने लगीं, और उनके मध्य से एक तहख़ाना प्रकट हुआ—पत्थरों से निर्मित, किन्तु किसी आधुनिक वास्तुकला से कहीं अधिक परिष्कृत। वे सभी सीढ़ियाँ उतरते गए, और नीचे एक गुहा में पहुँचे, जहाँ एक दैदीप्यमान पिंड उनकी प्रतीक्षा में था—एक स्फटिक समान पारदर्शी कक्ष, जिसके भीतर एक प्राचीन मानव-काया बैठी थी, ध्यानावस्था में। उस काया की आंखें बंद थीं, किंतु उसका शरीर न जीवित प्रतीत होता था न मृत। प्रणव धीमे से बोला, “यह वह है जिसने त्रयलोक-यंत्र को पहली बार जाग्रत किया होगा।” जैसे ही उन्होंने यंत्र को उस कक्ष के समक्ष रखा, ध्यानस्थ योगी की आँखें एक क्षण को खुलीं—और वह क्षण हजारों वर्षों के मौन का टूटना था। उसकी आँखों से निकली रश्मियाँ सीधे यंत्र से टकराईं, और अचानक पूरी गुहा नीले प्रकाश से भर उठी। सभी के शरीर शिथिल हो गए, और उनके मस्तिष्क में एक ही वाक्य गूंजा: “काल स्वयं को पहचानने चला है। जो इसके साथ चलेगा, वह अपना अस्तित्व खो देगा। क्या तुम तैयार हो?”

उस एक वाक्य ने पूरी टोली को मौन कर दिया। किसी ने प्रश्न नहीं किया, क्योंकि अब प्रश्न अप्रासंगिक हो चुके थे। गुहा के भीतर की ऊर्जा इतनी तीव्र हो गई थी कि रुद्र वर्मा तक पीछे हट गया। त्रयलोक-यंत्र अब हवा में तैर रहा था, और उसके चौदहों चिह्न घूमते हुए सर्पाकार रेखा में मिल गए। समय जैसे स्थिर हो गया था—घड़ियाँ बंद, साँसें रुकी हुई, केवल चेतना चलायमान। और तभी यंत्र से एक तीव्र प्रकाश निकला और नीरा, प्रणव और तीन अन्य सदस्यों को अपने घेरे में समाहित कर लिया। वे अब किसी दूसरे आयाम में थे—न वर्तमान, न अतीत, न भविष्य—बल्कि काल की गूढ़ धारा में, जहाँ प्रत्येक पल एक युग था और हर विचार एक दिशा। वहाँ, उन्हें दिखाया गया उनका अतीत, उनके विकल्प, उनके भय, उनके मोह—और फिर यंत्र ने पूछा, “क्या तुम इनमें से मुक्त हो सकते हो?” नीरा ने सबसे पहले उत्तर दिया, “हाँ,” और उसके साथ ही उसकी चेतना यंत्र के केंद्र में विलीन हो गई। फिर प्रणव ने आँखें मूँदकर कहा, “यदि इसका अर्थ है समय को संतुलन देना, तो हाँ।” जब वे चेतना से बाहर निकले, वे फिर से पर्वत पर थे, लेकिन श्वेत पत्थरों का वह वृत्त अब स्वर्णिम हो चुका था। त्रयलोक-यंत्र अब थम चुका था, उसके चिह्न स्थिर हो गए थे, और उसकी सतह पर केवल एक वाक्य उभरा था:
“यात्रा पूर्ण हुई। अब काल तुम्हारे भीतर है।”
रुद्र वर्मा धीरे से मुस्कराया, “अब तुम केवल खोजकर्ता नहीं रहे… अब तुम काल-रक्षक हो।”

गंधमादन की उस गुफा से लौटने के बाद, नीरा और प्रणव अब वैसे नहीं थे जैसे वे इस यात्रा की शुरुआत में थे। उनके शरीर वही थे, पर चेतना अब बहुप्रवाही थी—एक साथ भूत, भविष्य और वर्तमान को अनुभव करने वाली। त्रयलोक-यंत्र अब मठ की उस शिला पर नहीं रखा गया था, जहाँ से उसने सब कुछ शुरू किया था, बल्कि वह स्वयं उनके भीतर सक्रिय था। गंधमादन की यात्रा ने उन्हें केवल काल-रक्षक नहीं बनाया था; उसने उन्हें समय की धारा का वाहक बना दिया था। मठ लौटते ही परिषद की सभा फिर बुलवाई गई, और रुद्र वर्मा ने सबके समक्ष उद्घोषणा की: “अब समय है ‘काल-रक्षक मंडल’ को सार्वजनिक रूप से सक्रिय करने का। यंत्र के जागरण की लहरें पूरे विश्व में फैली हैं—और इसका प्रभाव सीमित नहीं रहेगा।” विश्व भर से सूचनाएँ आने लगीं: अमेज़न के जंगलों में एक प्राचीन पत्थर से नीली आभा उठती दिखी, मिस्र के एक गुप्त मकबरे में सूर्यास्त के समय वही सर्पाकार रेखा प्रकट हुई, और कंबोडिया के अंगकोर वाट के एक बंद द्वार पर यंत्र के तेरहवें चिह्न की आकृति चमक उठी। नीरा बोली, “हम इसे नहीं रोक सकते। अब यह केवल भारत की खोज नहीं रही, यह मानवता की उत्तरजीविता की परीक्षा है।”

परिषद के सात सदस्य अब मंडल के रूप में स्थापित हो गए। हर सदस्य को एक दिशा सौंपी गई—पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आकाश, पाताल और अंतर्यामी (मध्य)। प्रणव को ‘उत्तर’ सौंपा गया—हिमालय और उससे परे के संरक्षण के लिए। नीरा को ‘पूर्व’ मिला—भारतीय उपमहाद्वीप और पूर्वी एशिया में यंत्र की संभावित प्रतिध्वनियों को संभालने हेतु। रुद्र वर्मा स्वयं ‘अंतर्यामी’ बने, जो सबकी ऊर्जा को समन्वित करता था। हर सदस्य को एक ‘काल-संकेत’ दिया गया—एक विशेष कंपन-संवेदक यंत्र, जो त्रयलोक-यंत्र की लहरों से जुड़ा था, और जब भी कहीं कोई काल-असंतुलन होता, यह यंत्र स्वतः सक्रिय होकर चेतावनी देता। यही वह काल था जब मंडल को अपनी पहली बड़ी परीक्षा का सामना करना पड़ा। दक्षिण अमेरिका में एक खगोल वैज्ञानिक ने बताया कि आकाशगंगा के केंद्र से एक ऐसी गुरुत्वाकर्षणीय तरंग आ रही है जो पृथ्वी के समय-गणना को सूक्ष्म स्तर पर विस्थापित कर सकती है। शुरू में यह मात्र सैद्धांतिक चिंता लगी, पर जल्दी ही पृथ्वी पर लोग असमय घटनाएँ अनुभव करने लगे—घड़ियाँ असामान्य रूप से पीछे या आगे चलने लगीं, नींद में अतीत के यथार्थ दर्शन आने लगे, और सबसे विचित्र बात—कुछ व्यक्तियों की स्मृति पूरी तरह बदल गई, जैसे वे किसी और समयरेखा के जीवन में जाग उठे हों।

मंडल ने इसे ‘काल-झुकाव’ की संज्ञा दी—एक ऐसी स्थिति जब समय की मूल रेखा में हल्का झुकाव आता है और समानांतर वास्तविकताएँ कुछ पल के लिए अस्तित्व में आ जाती हैं। इस असंतुलन को संतुलित करने के लिए, त्रयलोक-यंत्र को एक बार फिर सक्रिय करना पड़ा। पर अब यह क्रिया केवल भौतिक नहीं रही—यह एक सामूहिक ध्यान, मंत्र-प्रवाह और चेतना-संयोजन की प्रक्रिया थी। परिषद के सभी सातों सदस्य अलग-अलग स्थानों पर बैठे, और ध्यान की स्थिति में यंत्र के भीतर कंपन प्रवाहित किया। यह यंत्र अब किसी एक बिंदु पर नहीं था—यह उनके हृदय, मस्तिष्क और प्राण में समाहित था। जैसे ही यह संयोजन हुआ, एक अदृश्य रेखा सातों दिशाओं में फैल गई और पृथ्वी के चारों ओर एक सूक्ष्म ऊर्जा-जाल बुन गई, जिसे वैज्ञानिक भाषा में समझाना कठिन था लेकिन अनुभूति स्पष्ट थी। इस प्रक्रिया के पश्चात ‘काल-झुकाव’ शांत हो गया, और पृथ्वी पर समय एक बार फिर स्थिर गति में बहने लगा। उस रात मठ में एक नई शिला स्थापित की गई—त्रयलोक-रक्षा-स्तंभ। इस पर यंत्र के चिह्नों के साथ-साथ उन सातों मंडलियों के प्रतीक भी खुदे गए। रुद्र ने अंतिम पंक्ति में एक मंत्र अंकित किया—
“यत्र कालः स्वयं प्रतिज्ञां लेति, तत्र मानव न केवल जीवित रहता है, वह स्मरणीय बनता है।”
अब यात्रा समाप्त नहीं, प्रारंभ हुई थी—मानवता की उस दिशा में जहाँ समय अब केवल मापा नहीं जाएगा, जिया भी जाएगा।

१०

त्रयलोक-समय यंत्र का मंडल अब अपने पूर्ण रूप में कार्यरत था, और पृथ्वी पर समय का प्रवाह फिर से संतुलित हो गया था—कम-से-कम बाहरी रूप से। पर रुद्र वर्मा, नीरा और प्रणव जानते थे कि असली परीक्षा अभी शेष थी। यंत्र जब जागता है, तो वह केवल अपनी शक्ति नहीं बिखेरता, बल्कि अपने प्रतिबिम्बों को भी जन्म देता है—काल-प्रतिच्छायाएँ, जो उन युगों से बनती हैं जहाँ समय से खिलवाड़ किया गया था। अब तक की यात्रा में मंडल ने यंत्र के बिखरे अंशों को एकत्र किया था, लेकिन अब यंत्र स्वयं उन्हें उस अंतिम द्वंद्व के लिए बुला रहा था, जहाँ एक तरफ ‘काल-रक्षक’ होंगे और दूसरी ओर ‘काल-प्रतिच्छायाएँ’। ये प्रतिच्छायाएँ किसी व्यक्ति नहीं, बल्कि विचारों, भयों और विकल्पों की चेतन परछाइयाँ थीं, जो समय की धारा में छिपी रहती हैं। और अब, जब मंडल ने पूरे यंत्र को सक्रिय कर दिया था, ये छायाएँ भी जाग चुकी थीं। पहली चेतावनी सर्बिया के एक वेधशाला से आई—वहाँ वैज्ञानिकों ने एक ‘शून्य बिंदु’ पाया, जहाँ से किसी काल-घटना की किरणें उल्टी दिशा में बह रही थीं। वहाँ पहुँचे अन्वेषकों को समय का विचलन इतना तीव्र महसूस हुआ कि उनकी घड़ियाँ पीछे चलने लगीं और शरीर वृद्ध होने लगे। रुद्र ने घोषणा की, “समय हमें चुनौती दे रहा है—क्या हम अपने ही विकल्पों के परिणाम स्वीकारने को तैयार हैं?”

नीरा, प्रणव और पाँच अन्य मंडल सदस्य उस शून्य बिंदु की ओर रवाना हुए। वहाँ, एक विशाल प्राचीन खंडहर के मध्य, एक चमकता हुआ वृत्त उन्हें मिला—जिसे वैज्ञानिक ‘अनियमित ग्रैविटॉन फील्ड’ कह रहे थे, लेकिन नीरा समझ गई—यह एक काल-दर्पण था, जिसमें हर व्यक्ति को उसका छिपा हुआ समय दिखता है। जब वे उस वृत्त में प्रवेश करते हैं, तो प्रत्येक सदस्य को अपने भीतर उतरना पड़ता है—अपने अतीत के गलत निर्णय, अधूरे संकल्प, अस्वीकार किए गए भय। प्रणव को अपनी वह असफल प्रयोगशाला दिखती है जहाँ एक गलत गणना ने जान गंवा दी थी। नीरा को वह स्मृति मिलती है जहाँ उसने अपने भाई को विज्ञान की ओर प्रेरित नहीं किया, जिससे वह भटक गया। लेकिन यह यात्रा केवल आत्मग्लानि की नहीं थी, बल्कि समझने की थी। यंत्र ने उन्हें चेताया था—“जो अपने ही समय से मुंह मोड़ेगा, वह भविष्य नहीं देख सकेगा।” मंडल के सभी सदस्य, एक-एक करके, अपने समय-छायाओं को स्वीकार करते गए, और उस शून्य बिंदु की ऊर्जा मंद होती गई। जब अंतिम सदस्य ने भी आत्म-स्वीकृति की सीमा पार कर ली, वृत्त के मध्य से एक हल्की रोशनी उठी—और वहीं एक अंतिम चिह्न उभरा, जो अब तक यंत्र में नहीं था। यह पंद्रहवाँ चिह्न था, और उसकी आकृति किसी मंत्र की तरह थी, जैसे वह कह रही हो:
“काल तब तक शत्रु रहता है, जब तक वह दर्पण न बन जाए।”

वे जब मठ लौटे, तो रुद्र वर्मा उनका पहले से ही इंतज़ार कर रहे थे। “अंतिम चिह्न अब पूर्ण हो चुका है,” उन्होंने कहा, “और अब यंत्र को उसकी शांति की मुद्रा में स्थिर करना होगा। नहीं तो यह फिर से जागेगा, और अगली बार केवल चेतावनी नहीं देगा—वह स्वयं काल बन जाएगा।” त्रयलोक-समय यंत्र को अब एक ऐसी अवस्था में लाया गया, जिसे ‘स्थितिपथ’ कहा गया—जिसमें यंत्र स्थिर रहेगा, पर उसकी ऊर्जा पृथ्वी की सतह के माध्यम से सभी जीवों में प्रवाहित होती रहेगी। यह ऊर्जा हिंसा नहीं लाएगी, ना शक्ति या नियंत्रण—बल्कि स्मृति, करुणा और उत्तरदायित्व। यंत्र को सातों मंडलियों की शक्ति से आवृत कर, मठ की उस मूल शिला में विलीन कर दिया गया, जहाँ उसकी यात्रा शुरू हुई थी। अब वह यंत्र किसी एक के पास नहीं था—वह हवा में, मिट्टी में, मनुष्य की चेतना में समा चुका था। रुद्र वर्मा ने अंतिम सभा में कहा, “अब समय हमसे नहीं बहेगा, हम समय के साथ बहेंगे।” नीरा और प्रणव ने एक-दूसरे की आँखों में देखा—विज्ञान, अध्यात्म और काल का यह संगम किसी विजय का उत्सव नहीं था, यह एक शपथ थी।
“हम अब केवल जीवित नहीं रहेंगे… हम स्मरणीय रहेंगे।”
और इसी के साथ त्रयलोक-समय यंत्र ने अपनी आँखें मूँद लीं। पर यदि कभी समय फिर से डगमगाएगा, तो वह पुनः जागेगा—और काल-रक्षकों की अगली पीढ़ी उसे पुकारेगी।

समाप्त

 

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