Hindi - प्रेम कहानियाँ

तेरे नाम की एक शाम

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समीरा खान


पहला भाग: वो शाम कुछ अलग थी

दिल्ली की शामों में एक अजीब सी बात होती है। भीड़भाड़, ट्रैफिक, और गाड़ियों के हॉर्न के शोर के बीच भी कभी-कभी एक ऐसी ख़ामोशी उतरती है जो सीधे दिल तक पहुँचती है। ऐसा लगता है जैसे शहर थम सा गया हो, बस एक धीमा संगीत बचा हो – सड़क पर चलते लोगों के कदमों की थाप, कॉफी शॉप से आती भुनी हुई बीन्स की ख़ुशबू, और हवा में घुली एक अनकही बेचैनी। उस शाम भी कुछ ऐसा ही था – सिर्फ़ थोड़ा और खास।

मैं, आरव मलिक, एक साधारण सा इंसान, जिसकी ज़िंदगी बहुत असाधारण नहीं थी। दिल्ली के एक ऐड एजेंसी में काम करता हूँ – दिनभर स्लोगन लिखना, प्रोडक्ट बेचने के लिए जुमले गढ़ना, और रात को थककर अपने छोटे से पीजी के कमरे में लौट जाना। सपने? हाँ थे, लेकिन धूल भरे ट्रैफिक में कहीं पीछे छूट चुके थे।

उस दिन मैं ऑफिस से थोड़ा जल्दी निकल गया। मन कुछ बेचैन था – न थकान, न आलस, बस कुछ खालीपन सा महसूस हो रहा था। इसलिए सोचा, DLF के उस पुराने कॉफी शॉप में चला जाऊँ जहाँ कभी वीकेंड्स बिताया करता था। वहाँ की खिड़की के पास बैठकर बाहर गिरते सूरज को देखना जैसे किसी पुरानी आदत की तरह सुकून देता था।

जैसे ही मैं अंदर गया, एक जानी-पहचानी-सी महक आई। कॉफी की भी थी, और कुछ और भी – कुछ ऐसा जो याद जैसा लग रहा था। मैंने ऑर्डर दिया – “एक ब्लैक कॉफी, कम शुगर,” और खिड़की के पास वाली टेबल की ओर बढ़ा। लेकिन वहाँ पहले से कोई बैठा था।

वो एक लड़की थी – हल्के नीले रंग का सूती कुर्ता, खुले बाल जो एक ढीले से रबर बैंड में बंधे थे, और सामने लैपटॉप खोला हुआ। उसकी उंगलियाँ तेज़ी से कीबोर्ड पर चल रही थीं जैसे हर शब्द उसके दिल से निकल रहा हो। उसके चेहरे पर ध्यान केंद्रित करने की वह सहजता थी जो कम ही लोगों में होती है। मुझे समझ नहीं आया क्यों, लेकिन मैं कुछ सेकेंड्स के लिए वहीं खड़ा रह गया।

“Excuse me?” उसने अचानक ऊपर देखा। उसकी आँखें गहरे बादामी रंग की थीं – शांत, लेकिन कहीं गहरे में कुछ हिलता हुआ।

“ओह, सॉरी,” मैं थोड़ा हड़बड़ा गया। “मुझे लगा टेबल खाली है।”

“कोई बात नहीं,” उसने मुस्कराकर कहा। “अगर चाहें तो आप भी बैठ सकते हैं। मैं बस थोड़ी देर में निकलने वाली थी।”

मैं बैठ गया। मन में न जाने क्यों हल्की सी राहत हुई।

कॉफी आई, लेकिन आज उसमें वो पुराना स्वाद नहीं था। कुछ अधूरा सा लग रहा था, शायद इसलिए कि अब ध्यान कॉफी में नहीं, सामने बैठी लड़की पर था।

कुछ देर बाद उसका लैपटॉप ब्लैक हो गया। वो परेशान सी उठी और बैग से चार्जर निकालकर देखने लगी।

“प्लग पॉइंट इस तरफ नहीं पहुँच रहा,” उसने कहा, फिर मेरी तरफ देखा, “क्या मैं आपका चार्जर प्वाइंट यूज़ कर सकती हूँ?”

“हाँ, बिल्कुल,” मैंने उसकी ओर इशारा किया। “मैं भी अपना वहीं लगाता हूँ।”

उसने चार्जर लगाया, फिर मुस्कराई – एक धीमी, सधी हुई मुस्कान। “वैसे, मैं सना हूँ,” उसने कहा।

“आरव,” मैंने जवाब दिया। “कॉफी कैसी लगी?”

“कड़वी,” वो हँसी। “लेकिन शायद आज वैसे ही मूड में हूँ।”

हम दोनों हँस दिए। और फिर जैसे कोई अदृश्य दरवाज़ा खुल गया।

बातों का सिलसिला शुरू हुआ – किताबों से लेकर शहर के मौसम तक। उसने बताया कि वो फ्रीलांस राइटर है, कविता और कहानी ब्लॉग करती है, और हाल ही में लखनऊ से दिल्ली शिफ्ट हुई है। मैंने भी अपने अधूरे उपन्यास का ज़िक्र किया – एक ऐसी कहानी जो दो साल से मेरे लैपटॉप में बिना नाम के फाइल बनकर पड़ी है।

“तुम्हें लिखना चाहिए, आरव,” उसने बड़ी गंभीरता से कहा। “ये मत सोचो कि कौन पढ़ेगा। लिखो क्योंकि तुम्हारे अंदर कुछ कहने को है। और जब तक वो बाहर नहीं निकलेगा, तुम्हें चैन नहीं मिलेगा।”

उसकी बातें साधारण नहीं थीं। उनमें एक किस्म की आग थी – वो आग जो बुझी नहीं थी, जो शब्दों से चलती थी।

हम बैठे रहे, जाने कब सूरज ढल गया, कैफे की रोशनी पीली और नर्म हो गई। बाहर सड़कों पर रौशनी की कतारें जल उठीं और अंदर, एक अजनबी से रिश्ता जुड़ता चला गया – बिना नाम के, बिना वादे के।

जब वो उठी तो मैं भी उठ गया। बिल उसने पहले ही दे दिया था।

“कल मिलोगे?” उसने पूछा, जैसे पूछ रही हो – क्या तुम भी वही महसूस कर रहे हो जो मैं?

“अगर तुम बुलाओ, तो हर दिन मिल सकता हूँ,” मैंने जवाब दिया।

उसने कुछ नहीं कहा, बस फिर वही मुस्कान। फिर धीरे-धीरे बाहर निकल गई – उस भीड़ में, जहाँ से वो आई थी।

मैं वहीं बैठा रहा। कॉफी खत्म हो चुकी थी। लेकिन उस शाम ने मेरे अंदर कुछ शुरू कर दिया था। कुछ ऐसा जो अब रुकने वाला नहीं था।
भाग 2: एक पुरानी किताब और एक नया राज़

दिल्ली की सुबहें तेज़ होती हैं – गाड़ियों की आवाज़, रेडियो की खबरें, और लोगों की भागदौड़। लेकिन उस सुबह मेरे लिए सब कुछ धीमा था, जैसे शहर रुक गया हो। शायद इसलिए कि रात की नींद में सना का चेहरा बार-बार लौट रहा था। उसकी वो हल्की मुस्कान, कॉफी की कड़वाहट पर कही गई बात, और सबसे ज़्यादा उसकी वो आँखें – जो कुछ कह रही थीं, पर मैंने सुना नहीं।

सुबह की कॉफी बनाते हुए मेरा हाथ खुद-ब-खुद मोबाइल की ओर बढ़ा। “क्या मैसेज करूँ?” यही सोचता रहा। लेकिन फिर रुक गया। “शायद उसे भी लगे कि मैं बहुत जल्दी excitement में आ गया।” लेकिन उसी पल फोन की स्क्रीन ब्लिंक हुई।

सना: “Good morning. कल की कॉफी के लिए थैंक यू. तुम्हारे साथ बात करके अच्छा लगा। अगर आज फुर्सत हो तो एक जगह दिखाना चाहती हूँ। Interested?”

मैंने बिना एक सेकेंड गंवाए रिप्लाई किया – “Of course. कहाँ मिलना है?”

उसने लोकेशन भेज दी – दरियागंज की एक पुरानी किताबों की दुकान, ‘हज़रत बुक कॉर्नर’। जगह सुनकर दिल थोड़ा खुश हुआ, थोड़ा बेचैन। पुरानी किताबों के बीच जाने का मतलब होता है यादों के जंगल में भटकना। और मैं उस जंगल में खुद को अक्सर खोया हुआ पाता हूँ।

दोपहर 12:03 PM | दरियागंज

मैं पहले पहुँच गया था। किताबों की उस पुरानी दुकान के सामने खड़ा होकर देख रहा था – एक टूटा हुआ बोर्ड, faded अक्षरों में लिखा नाम, और अंदर लकड़ी की पुरानी अलमारियाँ। सना अभी तक नहीं आई थी। मैं धीरे से अंदर गया। किताबों की ख़ुशबू किसी इत्र की तरह नहीं, बल्कि किसी पुराने खत की तरह लगती है – जिससे कुछ भूली हुई बातें लौट आती हैं।

“कहिए भैया, कुछ खास किताब ढूँढ रहे हैं?” एक बूढ़े से दुकानदार ने पूछा।

“नहीं… बस देख रहा था…” मैंने कहा और एक तरफ रखी कविताओं की अलमारी की तरफ बढ़ गया।

तभी पीछे से एक जानी-पहचानी आवाज़ आई, “इन्हें सिर्फ देखिए मत, कभी-कभी पढ़ने की भी कोशिश कीजिए।”

मैं मुड़ा – सना थी। आज उसने सफेद कुरती और ब्लू जीन्स पहना था। बाल खुले, और हाथ में वही लैदर डायरी, जो कल उसके बैग से झाँक रही थी।

“तुम्हारा टेस्ट तो अच्छा है, कविताओं के सेक्शन में मिल गए,” उसने मुस्कराकर कहा।

“और तुम्हारा अंदाज़ हमेशा इतना फिल्मी रहता है क्या?” मैंने पूछा।

“थोड़ा बहुत।” वो हँसी, फिर बोली, “आओ, तुम्हें एक चीज़ दिखाती हूँ।”

हम दुकान के पिछले हिस्से की ओर गए, जहाँ कुछ पुराने लकड़ी के बक्से रखे थे। वो एक बक्से से एक किताब निकाली – पुरानी, धूलभरी, बाँध में धागा लिपटा हुआ।

“ये देखो,” उसने किताब खोलते हुए कहा। “ये मेरी नानी की पुरानी डायरी है। इसमें उसकी अधूरी कहानियाँ हैं। मैं जब भी यहाँ आती हूँ, कुछ नया ढूँढने लगती हूँ – शायद कोई कहानी पूरी हो जाए।”

मैं हैरान था। “तुम्हारी नानी की?”

“हाँ,” उसने धीरे से कहा। “वो कभी इस दुकान में काम करती थीं। जब बंटवारे के समय लाहौर से दिल्ली आई थीं, तो यहीं आकर रुकी थीं। ये दुकान उनके लिए एक पनाह थी। उन्होंने यहीं से दोबारा जीना शुरू किया था – कागज़, कलम और कहानियों के सहारे।”

मैं उसकी आँखों में देख रहा था। वहाँ कुछ चुपचाप बह रहा था – जैसे कोई अनकहा दुख, कोई बिछड़न की लकीर।

“मैं जब भी खो जाती हूँ,” सना बोली, “इस डायरी को पढ़ती हूँ। ऐसा लगता है जैसे नानी मुझसे कह रही हों – मत रुको। लिखो, जियो, और अगर टूटो भी, तो नए सिरे से जुड़ो।”

मैंने किताब हाथ में ली। पन्ने पुराने थे, लेकिन शब्द आज भी धड़कते थे। एक कविता का अंश पढ़ा –

“कुछ बिखरे थे हम, कुछ सँवरे थे तुम,
दो ज़िन्दगियाँ जब एक किताब बनीं।
साँसों की स्याही से लिखा गया था,
तेरे नाम का एक पन्ना कहीं।”

मैंने पूछा, “क्या मैं इसे पढ़ सकता हूँ कभी?”

उसने किताब मुझे दी नहीं, बस मुस्करा कर कहा, “अगर तुम इसे समझ सको, तो तुम्हें पढ़ने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।”

हम बाहर निकले।

बाजार की भीड़ बढ़ चुकी थी। लोग सामान खरीद रहे थे, बच्चे गुब्बारे लिए घूम रहे थे, और हम दोनों किसी दूसरी ही दुनिया में थे। मैंने कहा, “सना, तुम्हारी कहानियाँ सिर्फ डायरी तक सीमित नहीं होनी चाहिए। इन्हें दुनिया तक जाना चाहिए।”

उसने कहा, “और तुम्हारी अधूरी फाइलें भी। एक डील करते हैं – तुम लिखना शुरू करो, मैं एडिट करूँगी। और मैं लिखूँगी, तो तुम पढ़ोगे।”

मैंने सिर हिलाया, “डन।”

“और हाँ,” वो बोली, “कल एक जगह और चलोगे? थोड़ा अजीब है, लेकिन शायद तुम्हें अच्छा लगे।”

“कहाँ?” मैंने पूछा।

“पुरानी दिल्ली। वहाँ एक हवेली है, जिसे मैं बचपन से देखती आई हूँ, लेकिन कभी अंदर नहीं गई। अब चाहती हूँ कि जाऊँ। और शायद तुम्हारे साथ।”

मैं चुप था। वो भी। लेकिन हमारी चुप्पियों के बीच अब एक कहानी चल रही थी – एक पुरानी डायरी से निकलकर आज की दो आत्माओं तक पहुँचती हुई।
भाग 3: पुरानी दिल्ली का एक भूला दरवाज़ा

पुरानी दिल्ली की गलियों में वक़्त सिर्फ़ चलता नहीं, ठहर भी जाता है। दीवारों पर जमी धूल, लोहे के पुराने खंभे, छज्जों से झाँकते गमले, और हर नुक्कड़ पर मौजूद चायवाले की कड़ाही – सब कुछ किसी भूले हुए इतिहास की तरह लगता है। जब सना ने कहा था कि वो मुझे एक हवेली दिखाना चाहती है, मैं जानता था कि कुछ खास होने वाला है। लेकिन मैं ये नहीं जानता था कि उस दरवाज़े के पीछे उसकी ज़िंदगी की एक ऐसी परत छिपी है, जिसे वो शायद खुद भी पूरी तरह समझ नहीं पाई है।

हम चावड़ी बाज़ार मेट्रो स्टेशन से बाहर निकले। भीड़ वैसे ही थी जैसे होती है – तेज़, रंगीन, और शोर से भरी हुई। लेकिन सना आज कुछ शांत थी। उसके चेहरे पर हमेशा जो एक मुस्कुराहट रहती थी, वो कहीं गुम हो गई थी।

“तुम ठीक हो?” मैंने धीरे से पूछा।

उसने हाँ में सिर हिलाया, लेकिन कुछ बोली नहीं। हाथ में वही चमड़े की पुरानी डायरी थी, जिसे वो हमेशा साथ रखती थी।

“बस सीधे चलो,” उसने कहा। “हम मटिया महल की तरफ जा रहे हैं।”

मैंने देखा, वो हर गली के मोड़ को पहचानती थी – जैसे उसके बचपन की रेखाएँ यहीं बिछी हों।

हम एक सँकरी गली में पहुँचे जहाँ धूप ज़मीन तक नहीं आती थी। दाएँ-बाएँ छोटे-छोटे मकान, जिनमें से कुछ तो शायद 19वीं सदी के होंगे। सामने एक दरवाज़ा था – लकड़ी का, भूरे रंग का, जिसके ऊपरी हिस्से पर जालीदार नक़्क़ाशी थी। उसके दोनों तरफ दीवार पर हल्की सी बेल-बूटों की नक्काशी अब भी बाकी थी।

“यही है,” सना ने कहा।

“ये हवेली?” मैंने पूछा।

“हाँ। मेरी नानी बताती थीं कि उनकी माँ यहीं रहा करती थीं। उनका मायका। लेकिन बंटवारे के बाद सब कुछ छूट गया। जब मैं छोटी थी, अम्मी के साथ एक बार यहाँ से गुज़री थी। तभी पहली बार देखा था ये दरवाज़ा। तब से बस मन में रह गया था – एक दिन ज़रूर देखूँगी अंदर से।”

दरवाज़ा थोड़ा खुला था। शायद अंदर कोई रहता नहीं था।

“आओ,” उसने कहा, “चलिए अंदर।”

“बिना पूछे?” मैं थोड़ा हिचकिचाया।

“डरो मत। हवेलियाँ अब लोगों की नहीं, कहानियों की होती हैं। और कहानियाँ कभी किसी से इजाज़त नहीं माँगतीं।”

हमने धीरे से दरवाज़ा धकेला। अंदर एक खुला आँगन था – बीच में एक सूखा कुआँ, दीवारों पर झूलते हुए पुराने झाड़, और टूटी-फूटी खिड़कियाँ। हवेली अब बस एक परछाईं थी – लेकिन उसके भीतर एक अजीब सी ठंडक थी, जैसे दीवारों में अब भी आवाज़ें बची हों।

सना आगे बढ़ी। एक कमरे की ओर इशारा करते हुए बोली, “वो कमरा… मेरी नानी ने बताया था, यहीं से उनकी माँ चुपके से कविताएँ लिखा करती थीं। दादी कहती थीं कि उनके समय में औरतों को लिखने की इजाज़त नहीं थी, लेकिन फिर भी वो लिखती थीं – छुपकर, दीवारों के पीछे, खिड़की की रोशनी में।”

मैं स्तब्ध था। एक पुराना घर, औरतों की चुप आवाज़ें, छुपी हुई कविताएँ – ये सब कुछ मिलकर एक ऐसी कहानी बुन रहे थे जो किसी उपन्यास से कम नहीं थी।

सना ने डायरी निकाली और एक पन्ना खोला।

“ये देखो,” उसने कहा। “ये उनकी लिखी पहली कविता थी – नानी ने डायरी में लिख कर रख दी थी।”

मैंने पढ़ा –

“मैं धूप हूँ छत की,
कभी तेज़, कभी ओस जैसी।
क़लम जब छूती है उँगलियाँ,
घर की दीवारें काँप जाती हैं।”

मैंने उसकी तरफ देखा। “क्या तुम्हें लगता है, तुम जो लिखती हो, वो कहीं न कहीं उन्हीं से मिला है?”

“शायद,” उसने कहा। “शब्द कभी मरते नहीं। वो पीढ़ियों में बहते हैं। नानी की माँ ने जो अधूरी कहानियाँ छोड़ी थीं, नानी ने उन्हें समझा, मैं उन्हें लिख रही हूँ… और शायद तुम भी।”

उसकी यह बात सुनकर मुझे अपनी अधूरी फाइल याद आई – वही उपन्यास जिसे मैंने कभी खत्म नहीं किया। शायद इसलिए नहीं कि समय नहीं मिला, बल्कि इसलिए कि डर था – क्या कोई समझेगा?

“तुम्हारा डर अब भी वैसा ही है?” सना ने पूछा – जैसे मेरे मन की बात पढ़ ली हो।

“हाँ,” मैंने कहा। “डर लगता है कि लोग हँसेंगे, कि मेरे शब्द कमज़ोर होंगे।”

“तो फिर मेरे साथ चलो,” उसने कहा। “हर हफ्ते हम इसी हवेली में बैठकर लिखेंगे। तुम अपने उपन्यास पर काम करोगे, मैं अपनी कहानियों पर। दीवारें गवाह बनेंगी। कोई नहीं टोक पाएगा।”

“तुम्हें लगता है ये हवेली अब भी ज़िंदा है?”

उसने मेरे हाथ को धीरे से छुआ और कहा, “हाँ, क्योंकि ये हवेली हमारी तरह है – टूटी हुई, पर ज़िंदा। और ज़िंदा रहने के लिए कहानियाँ चाहिए।”

शाम तक हम वहीं बैठे रहे।

वक़्त का कोई हिसाब नहीं रहा। सना कभी कुछ लिखती, फिर उठती और कमरे की दीवारों को देखती – जैसे कोई भूली हुई याद खोज रही हो। मैं पहली बार इतने सुकून में था। शब्द खुद-ब-खुद स्क्रीन पर उतर रहे थे।

जब हम बाहर निकले, तो अँधेरा हो चला था।

“कल फिर चलोगे?” उसने पूछा।

“जब भी तुम कहो।”

“ठीक है,” उसने कहा। “पर अब से हर मंगलवार इसी हवेली में मिलेंगे। लिखने का वादा करो।”

मैंने हाथ आगे बढ़ाया, “वादों पर लिखने वाले कभी वादे तोड़ते नहीं।”
भाग 4: तसवीरें जो दीवारों से बात करती हैं

हवेली की दीवारें खामोश थीं, लेकिन उनकी खामोशी में एक पुराना शोर बसा था—बच्चों की हँसी, किसी बीते संगीत की हल्की धुन, किचन से उठती महक और किसी औरत की धीमी सरगम में गुनगुनाई कविता। मंगलवार की वो दोपहर फिर से लौट आई थी, और मैं, आरव मलिक, अब इस हवेली का एक हिस्सा बन गया था। एक ऐसा हिस्सा जो खुद को फिर से जोड़ने की कोशिश में था—टूटी यादों, अधूरी कहानियों और सना की मौन मौजूदगी से।

सना पहले से आई हुई थी। वही सफेद कुर्ती, घुटनों तक जीन्स और बालों में नीला रिबन, जो शायद अनजाने में उसकी माँग की तरह दिखता था—हल्का, लेकिन ध्यान खींचने वाला।

“तुम हमेशा मुझसे पहले कैसे पहुँच जाती हो?” मैंने मुस्कराकर पूछा।

“शब्दों का घर जल्दी बुला लेता है,” उसने दीवार की ओर देखते हुए कहा, “और ये हवेली… इसकी हर ईंट में कोई न कोई कहानी अटकी हुई है।”

मैंने देखा, आज वो हवेली के उस कमरे में थी जहाँ पिछली बार उसने अपनी नानी की माँ की कविता सुनाई थी। कमरे की एक दीवार पर उसने कुछ स्केच चिपका रखे थे—पुराने तसवीरों जैसे, लेकिन पेंसिल से बने हुए।

“ये क्या हैं?” मैं पास गया।

“ये उस औरत की शक्लें हैं,” उसने कहा। “मैंने कभी नहीं देखा उन्हें। पर जो कविताएँ वो लिखती थीं, उनसे एक चेहरा बनता है। और मैंने उसे बनाने की कोशिश की है।”

मैंने देखा—उस पेंसिल स्केच में एक महीन सी मुस्कान थी, आँखों में दृढ़ता, और होंठों पर एक ऐसा मौन जो बोलता था।

“क्या ये तुम्हारी परदादी हैं?” मैंने पूछा।

“शायद। या शायद मैं ही हूँ। कभी-कभी हम जो ढूँढते हैं, वो खुद हमारे अंदर ही होता है।” उसकी आवाज़ धीमी थी, पर उसमें आत्मविश्वास था।

मैंने कहा, “तुम जो हो, वही इस हवेली की सबसे जिंदा कहानी हो।”

सना ने मेरी ओर देखा, और पहली बार मेरी आँखों में थोड़ा ज़्यादा देर तक झाँका। जैसे कुछ कहना चाहती हो, लेकिन रुकी रही।

हमने अपने लैपटॉप खोल लिए। मैं अपने उपन्यास के दूसरे अध्याय पर काम कर रहा था—अब तक का मेरा सबसे ईमानदार लेखन। कोई दिखावा नहीं, बस वही जो दिल में था। और सना? वो फिर से कुछ लिख रही थी, शायद कोई नई कहानी। कभी-कभी उसकी उँगलियाँ रुक जातीं, फिर वो दीवार की ओर देखने लगती—जैसे दीवार कोई पंक्ति फुसफुसा रही हो।

“तुम इतना दीवारों से क्यों बात करती हो?” मैंने मुस्कराते हुए पूछा।

“क्योंकि इंसान हमेशा जवाब नहीं देते,” उसने कहा, “लेकिन दीवारें—अगर ध्यान से देखो—तो वो तुम्हें तुम्हारा ही अक्स लौटा देती हैं।”

मैंने सिर हिलाया। उसकी बातें कभी-कभी कविता जैसी लगती थीं, और कभी किसी पुराने दरवाज़े की चाबी।

थोड़ी देर बाद उसने अपनी डायरी से एक कागज़ निकाला।

“ये पढ़ो,” उसने कहा।

मैंने पढ़ना शुरू किया:

“उस दिन तुम आए थे, और हवेली की सीढ़ियाँ हँस पड़ी थीं।
दीवारों ने पहली बार किसी को भीतर आने दिया था।
शब्दों ने अपनी चुप्पी तोड़ी थी,
और मैं…
मैं फिर से जी उठी थी।”

मैंने उसे देखा, “ये कविता मेरे लिए है?”

उसने नज़रें झुका लीं। “शायद।”

मैं कुछ बोल नहीं पाया। मेरा दिल एक पल को थम गया था। शायद इसलिए नहीं कि किसी ने मेरे लिए कविता लिखी थी, बल्कि इसलिए कि उसने उस एहसास को लिख दिया था जो मैं खुद नहीं कह पा रहा था।

“सना…” मैंने कहा, लेकिन शब्द अटक गए।

वो उठी और हवेली की छत की ओर बढ़ने लगी। मैं भी पीछे-पीछे चल पड़ा।

छत पर एक पुराना लोहे का गेट था, जो शायद सालों से खुला नहीं था। उसने उसे धीरे से धकेला और खुलते ही हवा की एक तेज़ लहर हमारे बीच आ गई। छत से पूरा पुरानी दिल्ली दिखता था—मस्जिद की मीनारें, लाल बलुआ पत्थर की छतें, और दूर किसी गली में सुनाई देता इकतारा।

“ये मेरी पसंदीदा जगह है,” उसने कहा।

“क्यों?”

“क्योंकि यहाँ से सबकुछ दिखता है, लेकिन मैं सबसे छुपी रहती हूँ।”

मैंने एक कोने में बैठते हुए कहा, “तुम हर बात को इतनी ख़ूबसूरती से क्यों कहती हो?”

“शायद इसलिए कि मैं टूटी बातों को जोड़ना चाहती हूँ,” उसने जवाब दिया।

हम दोनों वहीं बैठे रहे—छत पर, खुले आसमान के नीचे, चुपचाप। एक ऐसी चुप्पी जो बोली जा रही थी, हर साँस में।

मैंने उसकी ओर देखा। “क्या तुम जानती हो कि मैं तुम्हें पहली बार देखकर ही बदल गया था?”

“बदलना अच्छा होता है अगर वो भीतर से हो,” उसने कहा।

“और तुम्हारे साथ… मुझे पहली बार अपने शब्दों से प्यार हुआ है।”

अबकी बार उसने मेरी ओर देखा, और एक धीमी मुस्कान के साथ बोली, “मैं भी तुम्हारे साथ थोड़ा जीने लगी हूँ, आरव। और शायद पहली बार किसी की उपस्थिति इतनी सुकूनदेह लगी है।”

हमने छत पर उस दिन ढलते सूरज को देखा। उसकी किरणें दीवारों से टकराकर उन तसवीरों को फिर से चमका रही थीं जो सना ने बनाई थीं।

“कल हवेली नहीं आएँगे,” सना ने अचानक कहा।

“क्यों?”

“क्योंकि कल मैं तुम्हें अपने घर बुला रही हूँ।”

मैं चौंका।

“क्या बात है?” मैंने पूछा।

“कुछ ऐसा है जो तुम्हें जानना चाहिए। और शायद वो कहानी सिर्फ तुम्हारे साथ बाँट सकती हूँ।”

“क्या ये तुम्हारी कहानी है?”

उसने मेरी आँखों में देखा और कहा, “हाँ। और ये कहानी सिर्फ तसवीरों से नहीं, सच्चाई से बनी है।”
भाग 5: जिस शाम सना का सच सामने आया

दिल्ली की शामों में एक खास बात है—जब सूरज धीरे-धीरे पुरानी इमारतों की दीवारों को छूते हुए उतरता है, तो हर चीज़ में एक सुनहरा सन्नाटा घुल जाता है। और उस शाम, जब मैं पहली बार सना के घर जाने वाला था, मेरी धड़कनों में कुछ वैसा ही सुनहरा सन्नाटा था—थोड़ा डर, थोड़ी जिज्ञासा, और ढेर सारी उम्मीद।

उसने मैसेज किया था—“6 बजे आ जाना। दरवाज़ा खुला मिलेगा।”
मैंने जवाब दिया था—“क्या कुछ खास पहनकर आऊँ?”
उसने लिखा—“बस दिल ले आना। बाकी सब यहीं मिल जाएगा।”

6:07 PM | सना का घर – लाजपत नगर

जब मैंने दरवाज़ा खटखटाया, तो सचमुच खुला मिला। अंदर से हल्की रौशनी आ रही थी—न ज़्यादा तेज़, न बहुत मंद। दीवारों पर किताबों की अलमारियाँ, कुछ कैनवास पेंटिंग्स, और मेज पर जलती हुई मोमबत्ती।

“आ जाओ,” उसकी आवाज़ आई, “मैं रसोई में हूँ।”

मैं धीरे-धीरे अंदर गया। वो रसोई से निकल रही थी, हाथ में दो मग—एक मेरी पसंद की ब्लैक कॉफी, और एक उसके लिए हर्बल टी।

“तुम्हें याद था मेरी पसंद?” मैंने हैरान होकर पूछा।

“कुछ बातें याद रखने लायक होती हैं,” उसने मुस्कराकर कहा।

हम सोफ़े पर बैठे। मैं उसके घर को देख रहा था—हर कोना जैसे उसे बयान कर रहा था। खिड़की पर लगे नीले परदे, फर्श पर एक अधखुली किताब, और दीवार पर टंगी एक तस्वीर—जिसमें एक छोटी लड़की थी, सना जैसी आँखों वाली।

“ये तुम हो?” मैंने पूछा।

“हाँ,” उसने तस्वीर की ओर देखते हुए कहा। “और ये घर… ये मेरा नहीं था।”

“मतलब?”

“मतलब,” उसने साँस लेकर कहा, “ये घर किराए का है। मेरी ज़िंदगी की तरह। कुछ भी स्थायी नहीं रहा अब तक।”

मैंने चुपचाप उसकी ओर देखा। शायद वो कुछ बताना चाह रही थी। वो उठी, अलमारी से एक पुरानी लकड़ी की संदूक निकाली और उसे मेरे सामने रख दिया।

“ये है मेरा सच,” उसने कहा।

मैंने संदूक खोला। अंदर एक पुरानी डायरी थी, कुछ तस्वीरें, और एक अस्पताल की फाइल।

“ये क्या है, सना?”

उसने धीमे स्वर में कहना शुरू किया—
“चार साल पहले मैं किसी और की सना थी—सना ताहिर। एक वकील की बीवी। बड़ी कोठी, गाड़ी, रईसी… और चुप्पियाँ। बहुत सारी चुप्पियाँ। शादी हुई थी एक समझौते के तहत—मेरे अब्बू की ज़िद, उनके दोस्त के बेटे से रिश्ता। मैंने मान लिया। सोचा, शायद प्यार बाद में हो जाएगा। लेकिन कभी नहीं हुआ।”

मैं सुन रहा था, जैसे शब्द हवा से टकराकर मेरे अंदर उतर रहे हों।

“वो मुझे बस एक ‘पत्नी’ समझते थे—भावनाओं की कोई जगह नहीं थी। मेरे लिखने पर रोक, मेरी आवाज़ पर संदेह। एक दिन मैंने एक कविता प्रतियोगिता में हिस्सा लिया—छुपकर। जीत भी गई। उन्होंने देख लिया। उन्होंने मेरे हाथ तो नहीं तोड़े, लेकिन मेरे आत्मविश्वास को धीरे-धीरे तोड़ दिया।”

उसकी आँखों से आँसू गिरने लगे, लेकिन आवाज़ में अब भी स्थिरता थी।

“एक रात, जब उन्होंने मेरे लिखने की डायरी फाड़कर फेंकी, तब मैंने निर्णय लिया—अब और नहीं। मैं निकल गई। कुछ नहीं लिया—न गहने, न कपड़े। बस अपनी डायरी, अपनी पहचान और अपने सपनों को लेकर दिल्ली आ गई।”

मैं स्तब्ध था।

“और तब से,” उसने आगे कहा, “मैं सना फातिमा बन गई। अपने नाम में से सब कुछ मिटा दिया, बस आत्मा बचाई। और फिर शुरू किया नए सिरे से—ब्लॉग लिखना, अनाम कविताएँ भेजना, किताबें बेचना… और एक दिन, एक कैफ़े में तुमसे मिलना।”

मैंने धीरे से उसका हाथ पकड़ा। “तुम अकेली नहीं हो, सना। तुम्हारे शब्द अब अकेले नहीं चलेंगे। मैं तुम्हारे साथ हूँ।”

उसने मेरी ओर देखा—उस नज़र में डर भी था, उम्मीद भी।

“क्या तुम मुझे मेरे अतीत के साथ अपना सकते हो, आरव?”

“मैं तुम्हारे अतीत से नहीं, तुम्हारे आज से प्यार कर बैठा हूँ। और तुम्हारा कल… हम मिलकर लिखेंगे।”

कुछ देर हम वैसे ही बैठे रहे। फिर उसने मेरे कंधे पर सिर रख दिया। वो पहली बार किसी पर भरोसा कर रही थी, और मैं पहली बार किसी की कहानी को सिर्फ पढ़ नहीं, जी रहा था।

“कल हवेली चलेंगे?” मैंने पूछा।

“हाँ,” उसने कहा। “अब जब सब कुछ कह दिया है, तो हवेली की दीवारें भी मेरी बात सुनेंगी।”
भाग 6: शब्दों की वो सुबह जहाँ वक़्त थम गया

सुबह की चाय की चुस्की और पुरानी दिल्ली की हवेली की सर्द दीवारें—ये दोनों मिलकर उस दिन एक नई शुरुआत की गवाही दे रही थीं। मैं और सना, पहले से तय किया गया था कि हम मंगलवार को हवेली में मिलेंगे। लेकिन उस दिन कुछ अलग था। अब हम एक-दूसरे के जीवन की अधूरी कहानियों को जान चुके थे। और जब सच्चाई सामने आ जाती है, तो शब्द पहले से ज़्यादा ईमानदार हो जाते हैं।

मैं हवेली पहुँचा, तो देखा सना पहले से ही वहाँ थी। लेकिन आज वो अलग दिख रही थी। सफ़ेद सूती साड़ी, बाल खुले, और आँखों में एक स्थिरता जो अब तक मैंने कभी नहीं देखी थी।

“तुम्हें देखकर लगता है जैसे तुम खुद को पा चुकी हो,” मैंने कहा।

“हाँ,” वो मुस्कराई। “अब कोई डर नहीं है। न किसी के सवालों का, न अपनी ही चुप्पियों का।”

हम अंदर चले गए—उस उसी पुराने कमरे में जहाँ पहली बार उसने अपनी परदादी की कविता सुनाई थी। लेकिन आज वहाँ कुछ बदल गया था। कमरे की दीवारों पर उसने कुछ पोस्टर्स चिपका दिए थे—कविताएँ, स्केचेज़, और एक नोटिस बोर्ड जिस पर लिखा था—

“शब्दों की सुबह” – एक छोटा सा लेखक-अड्डा।
हर मंगलवार यहाँ लिखना, सुनना और बाँटना।
बिना डर के। बिना मूल्यांकन के। बस ईमानदारी से।”

मैं चौंका। “ये क्या है?”

“हमारे जैसे लोगों के लिए जगह,” उसने कहा। “जो बोल नहीं पाते, जिनकी कहानियाँ कभी छपी नहीं, जो डायरी में सिमटे हुए हैं।”

“तो अब ये हवेली सिर्फ हमारी नहीं?”

“नहीं,” उसने कहा। “अब ये सबकी है।”

हमने अपनी जगह ली और लिखना शुरू किया। सना आज कुछ तेज़ी से लिख रही थी। उसकी उँगलियाँ जैसे भावनाओं से बह रही थीं। मैं कभी-कभी उसे देख लेता—उसके चेहरे पर वो एकाग्रता अब मेरी सबसे पसंदीदा चीज़ हो गई थी।

“तुम आज बहुत सुंदर लग रही हो,” मैंने कहा।

उसने बिना रुके जवाब दिया, “जब मन हल्का हो, तो चेहरा खुद-ब-खुद चमकने लगता है।”

मैंने अपनी कहानी की पंक्तियाँ फिर से पढ़ीं—
“वो आई थी मेरी कहानी के पन्नों में, और अब हर पंक्ति उसकी साँसों से महकती है।”

“आरव,” उसने अचानक कहा, “क्या तुम चाहते हो कि हम इस कहानी को एक नाम दें?”

“कहानी को?”

“हमारी कहानी को।”

मैं कुछ पल चुप रहा। फिर कहा, “मुझे लगता है ये कहानी किसी नाम की मोहताज नहीं। लेकिन अगर देना ही है, तो तुम्हारे नाम से बेहतर क्या हो सकता है।”

उसने मेरी डायरी उठाई, और पहले पन्ने पर लिखा—”तेरे नाम की एक शाम”।

“अब ये कहानी हमारी है,” उसने कहा।

शाम तक चार और लोग हवेली में आए। कोई सना का ब्लॉग पढ़कर आया था, कोई उसकी कविता प्रतियोगिता से प्रेरित होकर। एक लड़की ने डरते हुए पूछा, “क्या यहाँ पढ़कर सुना सकते हैं?”

सना ने मुस्कराकर कहा, “ज़रूर। यहाँ डर की कोई जगह नहीं। बस सच्चे दिल की ज़रूरत है।”

उस लड़की ने जब अपनी डायरी खोली और धीमी आवाज़ में पढ़ना शुरू किया, तो हवेली की दीवारों ने एक बार फिर आवाज़ों को समेटना शुरू किया। वहाँ कोई मंच नहीं था, कोई पुरस्कार नहीं—सिर्फ चारदीवारी, खामोश गवाह, और वो सच्चे शब्द जो दिल से निकलते हैं।

हम लौटने लगे तो सना ने मेरा हाथ थाम लिया।

“क्या सोच रहे हो?” उसने पूछा।

“ये कि हम कितनी दूर आ गए हैं… तुम, मैं, ये हवेली… सब कुछ।”

“और फिर भी एक जगह पर खड़े हैं—शब्दों के बीच,” उसने कहा।

“सना,” मैंने रुककर कहा, “अगर मैं कहूँ कि मुझे तुमसे प्यार हो गया है…”

उसने मेरी बात पूरी नहीं होने दी। बस हल्के से मेरा हाथ दबाया और कहा, “मुझे भी। लेकिन हमारा प्यार भी एक कविता की तरह होना चाहिए—धीरे-धीरे उभरता हुआ, बिना ज़ोर दिए, बिना डर के।”

मैंने सिर हिलाया। उस रात जब हम अलग हुए, तो कोई अलविदा नहीं कहा गया। सिर्फ एक नज़दीकी मुस्कान, और वो विश्वास कि अगली सुबह भी शब्दों की ही होगी।
भाग 7: दीवारों पर लटके सपनों के रंग

कहते हैं, जब सपने शब्दों से बाहर आकर रंगों में बदलते हैं, तब दीवारें सिर्फ ईंट-पत्थर की नहीं रहतीं—वो एक आंदोलन बन जाती हैं। पुरानी दिल्ली की उस हवेली की दीवारें अब बदल रही थीं। जिन दीवारों पर कभी चुप्पियाँ टंगी थीं, अब वहाँ कविताएँ झूल रही थीं, चित्र लहर रहे थे, और रंगों में सजे सपनों की महक थी।

मैं, आरव मलिक, अब हर मंगलवार सुबह जागता नहीं था—मैं हर मंगलवार जी उठता था। मेरी ज़िंदगी के सबसे सच्चे पल अब उस हवेली की छत, उसके झरोखों और सना की आँखों में दर्ज हो चुके थे।

उस दिन हवेली में प्रवेश करते ही देखा—सना कुछ बच्चों के साथ बैठी थी। आठ-दस साल के मासूम चेहरे, रंग-बिरंगे कपड़े, और हाथों में ब्रश व क्रेयॉन। दीवारों पर वो फूल बना रहे थे, सूरज की लकीरें खींच रहे थे, और नीचे एक पंक्ति लिखी थी—

“हर दीवार एक कहानी कह सकती है, अगर उसे रंगने दिया जाए।”

मैं पास गया। सना ने मुस्कराकर कहा, “ये सब आस-पास की बस्ती के बच्चे हैं। कल मैं वहाँ गई थी—एक स्कूल में—कविता पढ़ने। फिर सोचा, क्यों न इन्हें भी हवेली का हिस्सा बनाया जाए?”

मैं हैरान था। “सना, तुम ये सब अकेले कैसे कर लेती हो?”

उसने मेरी आँखों में देखते हुए कहा, “मैं अकेली कहाँ हूँ, आरव? तुम हो ना। और अब ये बच्चे भी।”

हम सबने मिलकर उस दिन हवेली की सबसे पुरानी दीवार को नया रूप दिया। एक बच्चे—फरहान—ने कहा, “मैं यहाँ समुंदर बनाऊँगा।”

“लेकिन दिल्ली में तो समुंदर नहीं होता,” मैंने हँसते हुए कहा।

उसने जवाब दिया, “तो क्या हुआ? मेरी दीवार पर तो हो सकता है ना?”

मैं चुप हो गया। उस पल समझ आया—इमेजिनेशन की ताक़त किसे कहते हैं।

एक कोने में बैठी छोटी लड़की, जो नाम से ‘ज़ोया’ थी, चुपचाप अपनी माँ की तस्वीर बना रही थी। पूछने पर बताया—”अम्मी अब नहीं हैं। लेकिन जब हवेली आई तो लगा जैसे वो यहीं कहीं हों। इसलिए बना रही हूँ।”

सना उसे गले से लगाकर बोली, “अब हवेली तेरी अम्मी का घर है। और तू इसकी रौशनी।”

शाम तक हवेली की दीवारें बदल चुकी थीं। एक ओर सूरज, दूसरी ओर समुंदर, एक तरफ एक पेड़ जिसमें कविता की पंक्तियाँ लटकी थीं—

“जहाँ शब्द बोलते नहीं, वहाँ रंग चीखते हैं।
जहाँ आंसू गिरते हैं, वहाँ दीवारें भीगती हैं।
और जहाँ तुम हो… वहाँ मैं अब भी हूँ।”

मैंने सना के पास आकर कहा, “तुम जानती हो, आज पहली बार मैंने अपने भीतर किसी चीज़ को हिलते हुए महसूस किया है। जैसे मेरी आत्मा ने साँस ली हो।”

उसने मेरा हाथ पकड़ा और कहा, “आरव, जब कोई इमारत सिर्फ रहने की जगह नहीं, साँस लेने की जगह बन जाए, तो वो मंदिर हो जाती है।”

“और तुम्हारे लिए ये हवेली क्या है?”

“मेरे लिए ये मेरा पुनर्जन्म है,” उसने जवाब दिया। “यहाँ मैं फिर से सना बनी हूँ, अपने नाम से, अपने काम से—not किसी की पत्नी, न किसी की बेटी। बस, खुद की।”

हम छत पर गए, वही पुरानी जगह जहाँ से दिल्ली का आसमान सबसे साफ़ दिखता था। नीचे से बच्चों की हँसी अब भी आ रही थी। हम दोनों खामोशी में बैठे थे, लेकिन अब वो चुप्पी कोई बोझ नहीं थी—वो हमारी साझी भाषा बन चुकी थी।

“आरव,” सना ने कहा, “क्या तुम कभी डरते हो?”

“अब नहीं। जब से तुम आई हो, डर कहीं चला गया है। लेकिन क्यों पूछ रही हो?”

“क्योंकि मुझे लगता है कि मैं एक और बदलाव के लिए तैयार हूँ।”

“कैसा बदलाव?”

उसने जेब से एक लिफ़ाफ़ा निकाला। “ये देखो।”

मैंने खोलकर देखा—एक पब्लिशिंग हाउस से पत्र था। उनकी कहानी संग्रह छपने जा रही थी। नाम था: “हवेली की खामोश कविताएँ”।

“तुमने मुझे बताया भी नहीं?”

“मैं चाहती थी कि ये ख़बर तुम्हारे सामने खुले। और अब जब ये किताब छप रही है, मैं चाहती हूँ कि तुम्हारा नाम भी इसमें हो—co-author के तौर पर।”

“सना, ये तुम्हारी कहानी है।”

“नहीं, आरव। ये हमारी कहानी है। तुम्हारे बिना मैं ये कहानियाँ जी ही नहीं पाती।”

मैंने उस शाम उसके सामने एक छोटी सी डिब्बी निकाली। कोई अंगूठी नहीं थी उसमें—बस एक काग़ज़, जिस पर लिखा था:

“Will you write the rest of your story… with me?”

उसने वो पर्ची पढ़ी, मेरी आँखों में देखा, और बिना कुछ कहे गले लगा लिया।

“हाँ,” वो फुसफुसाई। “हर दिन। हर पन्ना। हर मौसम।”

भाग 8: तेरे नाम की सुबहें अब मेरी हैं

दिल्ली की सर्द सुबहें अक्सर धुंध में लिपटी होती हैं, जैसे कोई पुरानी कविता अधूरी पड़ी हो और किसी की सांसों से वो धीरे-धीरे मुकम्मल हो रही हो। उस सुबह, जब हवेली में बच्चों की हँसी और शब्दों की हल्की सरगम गूँज रही थी, मैं और सना एक नए दिन का स्वागत कर रहे थे—एक ऐसी सुबह, जो सिर्फ मौसम की नहीं, एक कहानी की भी आख़िरी पंक्ति थी।

हम हवेली में पहुँचे, और देखा दीवारें अब पहले जैसी नहीं रहीं। हर ईंट अब किसी शब्द, किसी रंग, किसी भाव से सराबोर थी। उस पुराने कमरे की अलमारी में अब किताबें थीं—हम दोनों की लिखी कहानियाँ, बच्चों की कविताएँ, और सना की वो डायरी, जिससे सब शुरू हुआ था।

आज खास दिन था। हमारी पहली किताब “हवेली की खामोश कविताएँ” का विमोचन उसी हवेली में होना था, और जो लोग कभी सिर्फ पाठक थे, अब लेखक भी बन चुके थे। मीडिया, समीक्षक, पुराने दोस्त—सबको बुलाया गया था, लेकिन हमारे लिए सबसे ज़रूरी थे वो चेहरे जो हर मंगलवार हवेली को जीवित रखते थे।

सना मंच पर आई, सफेद सिल्क की साड़ी में, हल्का काजल और बाल खुले। उसकी आवाज़ में वो आत्मविश्वास था जो सिर्फ किसी को पूरा जानकर आता है।

“आज मैं कुछ नहीं बोलना चाहती,” उसने कहा, “क्योंकि आज बोलने की ज़रूरत नहीं। आज ये हवेली खुद बोल रही है। आप सब देख ही रहे हैं—कैसे चुप दीवारें अब कविताओं से भर चुकी हैं। ये सिर्फ मेरा नहीं, हमारा आंदोलन है—क्योंकि हम सबने मिलकर ये कहानी लिखी है।”

तालियों की गूंज में वो मंच से उतरी और मेरी तरफ बढ़ी। मुझे इशारा किया कुछ कहने के लिए।

मैं उठकर माइक पर गया, और कुछ पल चुप रहा।

“मैं आरव मलिक,” मैंने कहा, “एक ऐसा लड़का था, जो शब्दों से डरता था। क्योंकि शब्द जब दिल से निकलते हैं, तो दुनिया उन्हें समझने की बजाय जज करती है। लेकिन फिर एक शाम, मैं एक अजनबी लड़की से मिला—जो अपनी चुप्पियों में कविताएँ छुपाकर रखती थी। और उसी ने मुझे सिखाया—कि जो सच होता है, वो डराता नहीं, बल्कि आज़ाद करता है।”

सना ने दूर से मुस्कराकर हाथ हिलाया। उसकी आँखों में कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं थी।

विमोचन के बाद हम दोनों हवेली के पीछे की छोटी छत पर चले आए। बच्चों ने वहाँ फूलों की रंगोली बनाई थी, और बीच में एक छोटी सी मोमबत्ती जल रही थी।

“ये सब बच्चों ने तुम्हारे लिए किया,” सना ने कहा।

“मेरे लिए?”

“हाँ। क्योंकि उनके लिए तुम सिर्फ लेखक नहीं हो। तुम वो हो जिसने मुझे दोबारा जीना सिखाया।”

मैं उसकी ओर मुड़ा। “और तुम मेरे लिए सिर्फ प्रेरणा नहीं हो। तुम मेरी कहानी हो—जिसे मैं हर सुबह नए सिरे से लिखना चाहता हूँ।”

उसने मेरी जेब से वो पुरानी पर्ची निकाली जो मैंने कुछ दिन पहले दी थी—”Will you write the rest of your story with me?”

उसने उसी पर्ची की दूसरी तरफ कुछ लिखा और मुझे लौटाया।

मैंने पढ़ा—”Only if you promise to never put ‘The End’.”

मैं हँसा। “तो अब कोई अंत नहीं?”

“नहीं,” उसने कहा। “अब सिर्फ नई शुरुआतें होंगी।”

उस शाम जब सब लोग चले गए और हवेली फिर से शांत हो गई, मैं और सना वहाँ कुछ और देर रुके रहे। मोमबत्तियाँ बुझ चुकी थीं, लेकिन हवेली अब भी रौशन थी—कविताओं से, चित्रों से, कहानियों से और सबसे ज़्यादा… प्यार से।

हमने दीवार पर एक आखिरी चित्र बनाया—एक खुली किताब, जिसके दोनों पन्नों में दो नाम लिखे थे—सना और आरव। और नीचे एक पंक्ति:

“तेरे नाम की हर सुबह अब मेरी है।”

समाप्त

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