आरव मेहता
भाग 1 : मुलाक़ात की ख़ामोशी
दिल्ली की भीगी दोपहर थी। बरसात का मौसम हमेशा ही लोगों को अपने भीतर छिपे हुए जज़्बातों से मिलाता है। मेट्रो स्टेशन के बाहर लोग अपने-अपने रास्ते भाग रहे थे, किसी के हाथ में छाता था, किसी के कंधे पर बैग। उसी भीड़ में खड़ी थी आर्या, नीली सलवार-सूट पहने, बालों से टपकते पानी की बूँदें जैसे उसकी आँखों में चमक को और गहरा बना रही थीं।
वह लाइब्रेरी से लौट रही थी, हाथ में किताबों का ढेर था। अचानक किसी ने पीछे से पुकारा—
“सुनिए… आपकी किताब गिर गई।”
आर्या ने पलटकर देखा। एक लंबा-सा लड़का, हल्की दाढ़ी, सफेद शर्ट और जींस पहने, हाथ में उसकी पसंदीदा किताब — “ग़ालिब की ग़ज़लें”। उसकी आँखों में हल्की शरारत और मुस्कान थी।
“थैंक्यू,” आर्या ने संक्षिप्त-सा जवाब दिया।
लड़के ने किताब थमाते हुए कहा—
“वैसे… ग़ालिब को पढ़ना आसान नहीं होता। आप तो गंभीर लगती हैं।”
आर्या चौंककर उसे देखने लगी।
“गंभीर? नहीं, बस शौक़ है।”
“शौक़ अगर इतना गहरा है तो शायद किस्मत भी कुछ कहना चाहती है,” उसने हल्की हँसी में कहा।
उसकी बात सुनकर आर्या ने कुछ नहीं कहा। लेकिन उसके चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान ज़रूर आई।
भीड़ और बारिश के शोर में वह मुलाक़ात जैसे एक अलग जगह ठहर गई थी।
“वैसे, मेरा नाम विराज है,” लड़के ने हाथ आगे बढ़ाया।
“आर्या,” उसने बिना झिझके हाथ मिलाया।
भीड़ में खोते-खोते दोनों ने एक-दूसरे को देखा। बस कुछ ही पल, लेकिन उन पलों में जैसे अनगिनत अधूरी बातें छिपी थीं।
बरसात और भी तेज़ हो चुकी थी। विराज ने अपना छाता आगे बढ़ाते हुए कहा—
“अगर आप चाहें तो मैं आपको बाहर तक छोड़ दूँ।”
आर्या ने पहले मना किया, फिर चुपचाप उसके साथ चल पड़ी। छाते के नीचे दोनों का सन्नाटा बोल रहा था। किताबें, बारिश और दो अनजान दिलों की धड़कनें — यही थी उनकी पहली मुलाक़ात की ख़ामोशी।
सुबह की बारिश थम चुकी थी, पर हवा में अब भी गीली मिट्टी की खुशबू तैर रही थी। आर्या ने खिड़की खोली और देखा कि गुलमोहर की शाखों से बूँदें धीरे-धीरे गिर रही हैं। उसे रात की वह मुलाक़ात अनसुने गाने की तरह याद आई—छाते के नीचे खामोशियाँ, ग़ालिब की किताब, और एक अजनबी की मुस्कान। उसने खुद से कहा, यह तो बस संयोग था, पर दिल ने जवाब दिया, कभी-कभी संयोग सबसे पक्की कहानियाँ लिख देते हैं।
लाइब्रेरी की ओर जाते हुए उसकी चाल में हल्की बेचैनी थी। शायद वह उम्मीद कर रही थी कि विराज फिर दिख जाएगा। मेट्रो खुली तो हवा का झोंका आया; किसी ने कहा, “सॉरी!” भीड़ आगे बढ़ गई। फोन पर नोटिफिकेशन चमका—कॉलेज के लिटरेचर क्लब में शाम को “इश्क़ और आधुनिका” पर चर्चा। उसने सोचा, वहाँ जाना चाहिए।
दोपहर बाद आकाश साफ़ था। कैंपस के बरगद तले कुर्सियाँ लगी थीं; मंच पर बैनर—“कविता, प्रेम और नया शहर।” आर्या ने रजिस्ट्रेशन किया ही था कि पीछे से आवाज़ आई, “फिर मिल गए?”
वह पलटी—विराज। नीली डेनिम जैकेट, गले में कैमरा। “तुम यहाँ?”
“वर्कशॉप लेने,” उसने कैमरा थपथपाया, “फोटोग्राफ़ी और शब्द का रिश्ता।”
“शब्दों का भी चेहरा होता है?”
“कभी धुंधला, कभी बिजली-सा साफ़,” वह मुस्कुराया, “जैसे आज।”
सत्र शुरू हुआ। प्रोफ़ेसर प्रेम कविताओं पर बोल रहे थे—मीर की तड़प, शहर का शोर, नई भाषा की धड़कन। विराज बीच-बीच में तस्वीरें लेता; हर क्लिक के बाद उसकी नज़र जैसे एक पतली डोरी की तरह आर्या तक आ टिकती। उसे लगा, शब्दों के चेहरे सच में होते हैं—और उनमें से एक अभी उसकी तरफ़ देख रहा है।
ब्रेक में दोनों कैंटीन पहुँचे। स्टील के गिलास में चाय, प्लेट में समोसे, चारों ओर बातचीत।
“फोटोग्राफ़ी कब से?” आर्या ने पूछा।
“स्कूल से,” उसने कहा, “शौक़ रोटी बन गया। अब फ्रीलांस—मैगज़ीन, शादी, इवेंट। पर असल में मैं शहर की धड़कनें पकड़ता हूँ।”
“धड़कनें?”
“हाँ, मेट्रो से उतरते चेहरे—मिलन, विदा। और तुम्हारी आँखों में…” वह रुका।
“क्या?”
“एक रुका हुआ मोड़। जैसे कोई किताब आधी खुली हो।”
आर्या ने नज़र झुका ली। “किताबें अक्सर खुली रह जाती हैं। बस कोई पन्ना पलट दे, तो कहानी आगे बढ़ती है।”
“क्या मैं वह पन्ना पलटूँ?”
वह मुस्कुराई। “शर्त यह कि तुम कॉफ़ी बनाओगे।”
शाम होते-होते दीये जल गए। विराज ने उसे बरगद के नीचे तस्वीर में बाँधा—बालों में हवा, आँखों में एक छोटी-सी चिंगारी। “देखो,” उसने स्क्रीन पर दिखाया, “यह तुम्हारे शब्दों का चेहरा है।”
“और तुम?”
“मैं बस उसका पाठक।”
इवेंट के बाद दीवारों पर प्रोजेक्टर से पुरानी दिल्ली चमकने लगी—गलियाँ, जामा मस्जिद की सीढ़ियाँ, बर्फ़ी के पीले टुकड़े, मोची की हथौड़ी। आर्या ने कहा, “इन जगहों पर चलोगे?”
“क्यों नहीं, कल सुबह।”
“इतनी जल्दी?”
“कहानियाँ इंतज़ार नहीं करतीं,” उसने हँसकर कहा, “उन्हें भीड़ से पहले पकड़ना पड़ता है।”
अगली सुबह वे चाँदनी चौक पहुँचे। हल्की धूप, उठते शटर, मसालों की खुशबू। एक गली में अगरबत्ती, दूसरी में चाय की भाप। विराज तस्वीरें लेता रहा; आर्या दीवारों पर उँगलियाँ फेरती रही—जैसे किसी भूली लिखावट को पढ़ रही हो।
“क्या ढूँढ रही हो?”
“कथा का पहला वाक्य।”
“मिला?”
“अभी नहीं,” वह हँसी, “पर लगता है, तुम साथ रहोगे तो मिल जाएगा।”
एक छोटी दुकान में वे जलेबी खाने रुके। चाशनी के धागे से उँगलियाँ फिसलीं तो दोनों हँस पड़े। विराज ने कैमरा नीचे रख दिया, “तुम्हारे साथ समय धीमा हो जाता है।”
“धीमा?”
“पुरानी घड़ी-सा। जिसका टिक-टिक किसी कविता का छंद बन जाए।”
वह चुप रही। भीतर कहीं एक पुरानी चोट थी—एक रिश्ता जो बिना वजह टूट गया; कुछ अधूरी बातें, जो उसने अपने तक सीमित रखीं। उसने सोचा, कहना चाहिए? फिर देखा, विराज उसके कहे बिना भी उसकी चुप्पी सुन लेता है।
“चलो, ख़तों की गली देखते हैं,” उसने कहा।
टपरी पर बूढ़ा दुकानदार पुराने पोस्टकार्ड बेच रहा था—फीके पते, धुँधले टिकट, दूर देश की याद। आर्या ने एक कार्ड उठाया—पीछे लिखा था, “तुम्हारे बिना मेरा शहर अधूरा है।”
वह मुस्कुराई। “छोटी लाइन, पर कितना बड़ा शहर,” उसने कार्ड बढ़ाया।
“तुम्हारे बिना,” विराज ने धीरे से दोहराया, “मेरा शहर भी अधूरा है।”
आँखें झुक गईं, पर उनमें एक चमक थी—जैसे किसी ने परदा खींचकर धूप भीतर आने दी हो।
दोपहर को वे दरियागंज की किताबों की मंडी पहुँचे। धूल-धूसरित पन्ने, सस्ते दाम, पुराना शोर। एक किताब से गुलाब की सूखी पंखुड़ी गिर पड़ी।
“किसी का रखा हुआ मौसम,” वह बोली।
“या किसी का इंतज़ार,” उसने जोड़ा।
पुराने पुल पर दोनों रुके। नीचे से शहर का शोर, ऊपर कबूतरों का मंडराना।
“क्या हम दोस्त हैं?” विराज ने पूछा।
“शायद,” उसने कहा, “या उस मोड़ पर जहाँ दोस्ती और प्रेम एक-दूसरे को पहचानते हैं।”
“अगर कहूँ कि तुम्हारे साथ यह शहर नए सिरे से दिखता है—तो?”
“तो मैं कहूँगी, शहर को देखने का तरीका ही प्रेम है,” वह बोली, “और तुमने मुझे तरीका दिया।”
कुछ देर खामोशी रही। फिर उसने कैमरा उसे थमा दिया, “एक तस्वीर तुम लो। जैसे तुम मुझे देखती हो।”
आर्या ने लेंस के पीछे से उसे देखा। क्लिक—एक बार, फिर दो।
“दो क्यों?”
“पहली में तुम,” उसने कहा, “दूसरी में तुम्हारी अनकही बातें।”
साँझ उतर गई। वे मेट्रो की ओर लौटे। बाहर वही भीड़, वही शोर, पर भीतर कुछ बदल चुका था—जैसे किसी ने किताब का पन्ना सचमुच पलट दिया हो।
“कल?”
“कल,” उसने कहा, “और परसों भी।”
“उसके बाद?”
“कहानी बताएगी।”
दरवाज़े बंद होने को थे। जाने से पहले आर्या ने मुड़कर कहा, “अगर शब्दों का चेहरा होता है, तो शायद तुम्हारा चेहरा मेरे शब्दों का पहला अक्षर है।”
वह मुस्कुराया, “और तुम मेरी तस्वीर की वह रोशनी, जो बिना दिखाई भी सब कुछ दिखा देती है।”
काँच पर धुंध जमी। उस धुंध में दोनों ने उंगलियों से एक छोटा-सा दिल बनाया और अपने-अपने रास्तों को लौट गए—पर इस बार उनकी अधूरी बातें थोड़ी कम अधूरी थीं।
रात को कमरे में लौटकर आर्या ने पोस्टकार्ड अपनी डायरी में चिपका दिया और नीचे लिखा—“शहर को नया नाम मिल गया है।” दूसरी ओर, विराज ने कैमरे से निकली तस्वीरें टाँगीं और एक फ्रेम दीवार पर टिका दिया। उसने बुदबुदाया, “यह फ्रेम उस दिन के लिए, जब अनकही बातें ज़ुबान चाहेंगी।” नींद उतरते हुए दोनों के दरम्यान एक पुल बना रहा—जिस पर उनके कदम यक़ीन से चल रहे थे। धीरे।
अगली सुबह शहर ने अपनी खिड़कियाँ धूप की पतली परत से खोल दीं। हवा में रात की नमी अभी भी ठहरी हुई थी, पर पेड़ों की पत्तियों पर झिलमिल करती किरणें किसी नए पृष्ठ का वादा कर रही थीं। आर्या ने डायरी खोली—कल चिपकाए गए पोस्टकार्ड के नीचे उसने एक पंक्ति और लिख दी: “शहर को नया नाम मिल गया है—धीमी रोशनी।” लिखते-लिखते उसे याद आया कि विराज ने कहा था—“कहानियाँ इंतज़ार नहीं करतीं।” उसने फोन देखा। एक छोटा-सा संदेश था: “लोदी में सुबह की कॉफ़ी? कैमरा तुम्हारे हाथ।”
लोदी गार्डन के पुराने पत्थरों पर ओस अब भी मोतियों की तरह सजी थी। दौड़ते पैरों, खिंचती साँसों और दूर कहीं बाँसुरी की धुन के बीच वे मिले। विराज ने कैमरा उसके कंधे पर टिका दिया, “आज तुम दुनिया को जैसे देखो, वैसी ही क़ैद करो। किसी नियम की ज़रूरत नहीं—बस अपनी धड़कनों की। ”
“अगर धड़कनें ग़लत फ्रेम चुन लें तो?” आर्या ने शरारत से पूछा।
“तो वही तुम्हारा सच होगा,” उसने हँसकर कहा, “फोटोग्राफ़ी में सबसे भरोसेमंद चीज़ वही है जो पल भर में तय हो जाए।”
वे पेड़ों के नीचे चलते गए—कभी सूखी पत्ती, कभी किसी अनजान कुत्ते की जम्हाई, कभी किसी बेंच पर बैठे बुज़ुर्ग दंपती की हथेलियों का सुकून। आर्या ने शटर दबाया तो क्लिक का स्वर कुछ वैसा ही लगा जैसे मन में अचानक कोई बात साफ़ हो जाए। एक जगह वे ठिठक गए—एक बूढ़े साहब अपनी पत्नी को चश्मा पकड़ा कर पुराने ख़त पढ़ रहे थे; उन ख़तों के किनारों पर पीली पड़ चुकी तहें थीं, जैसे समय ने उन्हें अपनी उंगलियों से कई बार छुआ हो।
“क्या तुम भी ख़त लिखती हो?” विराज ने बेंच की पीठ पर उँगलियाँ फेरते हुए पूछा।
“पहले लिखती थी… अब डायरी में लिखती हूँ,” आर्या बोली, “कभी-कभी अपने ही नाम।”
“अपने नाम?”
“हाँ, जैसे कोई दूर शहर में रहने वाली मैं—जिसे मैं सब कुछ कह सकती हूँ।”
“और क्या वह तुमको जवाब देती है?”
“कभी नहीं,” उसने मुस्कुरा कर कहा, “पर आज शायद दे दूँ… किसी और को।”
धूप धीरे-धीरे तपी और पेड़ों की छाँह चौड़ी होने लगी। एक तितली अचानक उनके बीच से उड़ती हुई निकली; आर्या ने कैमरा ऊपर उठाया, पर क्लिक होने से पहले तितली उँगलियों की पहुँच से बाहर थी। वह हँसी—“कुछ पल हमेशा तस्वीरों के बाहर रहना चाहते हैं।”
“ठीक वैसे जैसे कुछ बातें,” विराज ने जोड़ा।
वे झील के किनारे पहुँचे। जल पर चाँदी की लकीरें थीं और हवा में हल्की-सी ठंडक। पास ही एक लड़का नाव की जंजीर सुलझा रहा था। विराज ने कहा, “चलो एक चक्कर लगाते हैं, कैसा?” आर्या ने सिर हिलाया। नाव हिली, पानी ने पतवार को अपने अर्थ दिए। आर्या ने कैमरा गोद में रखा और सन्नाटा सुना—वह सन्नाटा जिसमें किसी की सांसें एक-दूसरे की लय समझने लगती हैं।
“तुम्हारी कोई ऐसी जगह है जहाँ पहुँचते ही सब ठीक लगने लगता हो?” उसने पूछा।
“चाँदनी चौक के बादल,” वह बोला, “और जंगपुरा की एक छोटी बालकनी—जहाँ शाम को शहर ऐसा दिखता है जैसे रात से पहले का एक लंबा वादा।”
“बालकनी किसकी?”
“मेरा किराए का कमरा,” उसने हँसकर कहा, “तुम्हें दिखाऊँगा।”
नाव किनारे लौटी। वे घास पर बैठ गए। आर्या ने कैमरा देखते-देखते अचानक ठिठककर पूछा, “ये जो बूढ़े दंपती थे, क्या मैंने उनकी हथेलियों का सुकून पकड़ लिया है?”
“तुमने उनके बीच गिरती धूप पकड़ ली,” विराज बोला, “हथेलियाँ तो बस बहाना थीं।”
हवा तेज़ हुई तो पेड़ों से पत्ते गिरने लगे। उसी वक़्त विराज का फोन बजा—हाथ के इशारे से उसने माफ़ी माँगी और थोड़ी दूर जाकर बात करने लगा। लौटकर आया तो उसकी आँखों में उत्साह का एक अनगढ़-सा उजाला था। “जैपुर का कॉल था,” उसने कहा, “तीन दिन की असाइनमेंट—हेरिटेज होटलों की शूटिंग। अगर मंज़ूर करूँ तो परसों निकलना होगा।”
“परसों?” आर्या के भीतर कुछ धीमा-सा खिंचा, जैसे किसी ने नाज़ुक धागे से गाँठ बाँध दी हो।
“पैसे भी ठीक मिलेंगे… बस,” उसने हल्की साँस ली, “यह शहर कुछ दिनों के लिए फ़्रेम से बाहर हो जाएगा।”
“शहर को देखने का तरीका ही प्रेम है,” उसने कल कही अपनी बात याद की, “और शायद प्रेम कभी-कभी शहर बदलकर भी लौट आता है।”
“तुम चलोगी?” उसने अचानक पूछा, उसके स्वर में हिम्मत और हिचक दोनों था।
“कॉलेज… लिट क्लब…,” वह रुकी, “और शायद मैं इस बार शहर को यहीं से देखने का तरीका सीखूँ। तुम जाओ। और लौटकर मुझे एक कहानी सुनाओ—तस्वीरों के बीच की।”
विराज ने सिर हिलाया। “वादा।”
वो दोपहर एक छोटी-सी कॉफ़ी शॉप में घुल गई। उन्होंने खिड़की के पास मेज़ ली—काँच पर नमी, कागज़ी कोस्टर पर उनकी उँगलियों के गोल निशान। विराज ने बैग से एक छोटी-सी प्रिंट निकाली—आर्या की बरगद के नीचे वाली तस्वीर। “यह तुम्हारे लिए,” उसने कहा, “इसका नाम रखो।”
“पहला वाक्य,” आर्या ने बिना सोचे कहा, “क्योंकि इस तस्वीर से कहानी की शुरुआत होती है।”
“कहानी का पहला वाक्य अक्सर सबसे मुश्किल होता है,” उसने मुस्कराकर जोड़ा, “और सबसे सच।”
कॉफ़ी खत्म होने से पहले एक छोटे-से हादसे ने उनकी हँसी को चौंका दिया—आर्या कैमरा मेज़ पर रख रही थी कि पट्टा फिसल गया; कैमरा कुर्सी की बाँह से टकराकर फर्श पर जा गिरा। एक पल के लिए दोनों की साँस थम गई। विराज झुका, डिवाइस उठाया, चालू किया—स्क्रीन जली, पर एक क्लिक में एरर ने आँख दिखाई। उसकी भौंहें सिकुड़ीं। “लेंस थोड़ा शिफ्ट…”
“सॉरी,” आर्या की आवाज़ पतली पड़ गई।
विराज ने मुस्कुरा कर सिर हिलाया, “तस्वीरें कभी-कभी हादसों के बाद सबसे साफ़ आती हैं। इसे ठीक कर लूँगा। चिंता मत करो।”
बाहर आसमान अचानक गहरा हुआ; बूंदें शुरू हो गईं। रास्ते में आते हुए उन्होंने एक छोटी दुकान से पारदर्शी रेनकोट खरीदे—हँसते हुए, भीगते हुए, भागते हुए। मेट्रो स्टेशन तक साथ चले। भीड़ के बीच चुप्पियाँ अब परिचित थीं। प्लैटफ़ॉर्म पर, ट्रेन आने से ठीक पहले, विराज ने धीरे से कहा—“फ़ोन करूँगा।”
“और अगर मैं न उठा पाई तो?” उसने आँखों से शरारत की थोड़ी परत हटाकर पूछा।
“तो तुम्हारे नाम एक पोस्टकार्ड लिखूँगा,” वह बोला, “कम से कम ख़तों को ट्रेन मिस नहीं होती।”
ट्रेन आ गई। दरवाज़े के बीच वे कुछ कहकर, कुछ सुनकर, कुछ छुपाकर अपने-अपने डब्बों में चढ़ गए। बाहर बारिश की सड़कें चमक रही थीं—जैसे शहर ने ख़ुद को धोकर नया चेहरा पहन लिया हो।
रात में हॉस्टल का कॉरिडोर लम्बा और सन्नाटे से भरा था। कमरे की बत्ती बुझी तो खिड़की से आती सड़क की रोशनी दीवार पर चौकोर कतरन बनकर रह गई। फोन वाइब्रेट हुआ—अनजान नंबर: “तुम कैसी हो, आर्या? मैं दिल्ली में हूँ। बात करनी है।” नाम—निहाल। उसकी उँगलियाँ तन गईं। कुछ पुराने महीनों की आवाज़ें फिर से कानों में बज उठीं—बातें जो कहनी थीं पर रह गईं, वादे जो किए गए पर निभे नहीं। उसने स्क्रीन बुझा दी, फिर थोड़ी देर बाद दो शब्द टाइप किए—“मैं ठीक हूँ”—और भेजने से पहले रुकी। साँस की चोटी पर उलझा वह संदेश आखिर ‘ड्राफ्ट’ बनकर रह गया।
वह उठी, डायरी खोली, एक ख़ाली पन्ने पर लिखा: “कभी-कभी शहर के पुराने मोहल्ले रात में ख़ुद को हमारी जेब में रख देते हैं—हम बेचैन होकर चलते रहते हैं, और वे भीतर झनझनाते रहते हैं।” उसने पन्ना मोड़ा, और उसी पोस्टकार्ड के पीछे धीरे से वह पंक्ति लिख दी जो सुबह से उसके भीतर घूम रही थी—“अगर तुम शहर हो, तो मैं तुम्हारे फूटपाथों की बारिश हूँ।”
दूसरी ओर, जंगपुरा की उस छोटी बालकनी में विराज ने कैमरे का लेंस खोलकर टेबल पर फैला दिया। ड्राइवर स्क्रू, माइक्रोफाइबर कपड़ा, एक छोटी टॉर्च। उसने सावधानी से रिंग वापस फिट की; क्लिक—जैसे किसी जटिल वाक्य का व्याकरण अचानक समझ आ जाए। कमरे की दीवार पर उसने नई-नई प्रिंटें टाँगीं—बेंच पर बैठा दंपती, पानी पर तैरता प्रकाश, और एक तस्वीर जिसमें आर्या की आँखें बारिश से पहले की खिड़की जैसी थीं। फोन उठाया—एक संदेश टाइप किया: “कल रात बालकनी पर चाँद उतरे तो समझ लेना, मैंने जेपुर के लिए बैग पैक कर लिया है।” भेजने से पहले वह रुका, फिर मुस्कराकर लिख दिया—“पहला वाक्य संभालकर रखना।”
अगले दिन कैंपस में लिट क्ल्ब की मीटिंग थी—“प्रेम और शहर” शीर्षक से एक ओपन माइक। आर्या अंदर गई तो कुछ छात्र पंक्तियाँ पढ़ रहे थे—किसी ने कहा, “प्रेम वह बत्ती है जो पावरकट में भी आँखों तक रोशनी पहुँचाती है।” किसी ने कहा, “शहर वह है जहाँ दो लोग किसी तीसरे के इंतज़ार में भी एक-दूसरे को ढूँढ लेते हैं।” आर्या को लगा जैसे उसके भीतर कोई दरवाज़ा खुल गया है। उसने हाथ उठाया और अपना नाम पुकारा—“आर्या सेन, एक बहुत छोटा-सा गद्यांश।”
मंच पर खड़े होकर उसने पढ़ा: “जब शहर तुम्हें नया नाम देता है, तो सड़कें तुम्हारे पाँवों के लिए अपने मोड़ों की नमी बचाकर रखती हैं। और जब कोई तुम्हें देखने का तरीका सिखाता है, तो तुम्हारी आँखें उसकी अनुपस्थिति में भी रोशनी पहचान लेती हैं।”
हॉल में थोड़ी चुप्पी, फिर हल्की तालियाँ। वह मंच से उतरी तो दरवाज़े के पास खड़े विराज की आँखें उसे मिलीं—वह चुपचाप मुस्कुरा रहा था। “जाना परसों है,” उसने धीरे से कहा, “और लौटकर मैं हर तस्वीर के पीछे एक पंक्ति लिखूँगा—तुम्हारी लिखी हुई।”
“तुम्हारे पोस्टकार्ड का पहला जवाब,” आर्या ने कहा, “आज रात मेरी तरफ़ से जाएगा।”
“किस पते पर?”
“बालकनी, जंगपुरा,” वह हँसी, “जहाँ रात से पहले का लंबा वादा रहता है।”
जुदाई की हल्की परत शाम में घुलती रही। पर उस परत के आर-पार वे दोनों देख पा रहे थे—जैसे काँच पर जमी धुंध में उँगलियों से बनाए दिल के भीतर से एक साफ़ रास्ता निकल आता है। निहाल का संदेश अब भी ड्राफ्ट में ठहरा था; शायद वह अपने आप मिट जाएगा या किसी और दिन कहानी की ज़रूरत बनकर लौटेगा। फिलहाल, आर्या ने एक नया पोस्टकार्ड निकाला और लिखा: “प्रिय शहर, तुम्हें देखने का तरीका मिल गया है।” उसे विश्वास था—यह ख़त ज़रूर पहुँचेगा, क्योंकि इस बार उसका पता किसी गली का नहीं, किसी दिल का था।
सुबह की हवा में हल्की-सी बेचैनी थी। हॉस्टल के कॉरिडोर में लड़कियाँ चहल-पहल कर रही थीं—क्लास, असाइनमेंट, गपशप। लेकिन आर्या का मन किताबों में भीगने के बजाय खिड़की पर टिका हुआ था। उसने रात भर पोस्टकार्ड लिखा था—छोटे अक्षरों में, जैसे हर शब्द सांस रोककर निकला हो:
“प्रिय शहर,
तुम्हें देखने का तरीका मिल गया है। अब तुम्हारी गलियों में मैं अकेली नहीं चलती, तुम्हारे मोड़ों पर कोई साथ चलता है। और अगर वह कहीं दूर चला जाए, तो भी उसकी परछाई खामोश होकर मेरे पीछे चलती रहती है।”
पोस्टकार्ड उसने सुबह की क्लास जाते वक्त कैंपस के पास वाले पुराने डाकबक्से में डाल दिया। लाल बॉक्स की धातु पर जंग लगी थी, पर उसके भीतर रखी चिट्ठी चमक रही थी।
दूसरी ओर, विराज ने अपना बैग पैक कर लिया था। कैमरे, ट्राइपॉड, लेंस, नोटबुक। जंगपुरा की बालकनी में खड़े होकर उसने शहर की धुंध देखी और खुद से कहा—“परसों लौट आऊँगा, बस कुछ ही दिनों की दूरी।” मगर मन के भीतर एक अनजानी बेचैनी थी। कभी वह सोचता, अगर आर्या ने हाँ कर दी होती तो वह उसे भी साथ ले जाता—पुराने किलों, हवेलियों और रंग-बिरंगी गलियों के बीच उसकी मुस्कान और तस्वीरें दोनों मिलकर एक नई दुनिया बना देते।
ट्रेन की खिड़की से बाहर सरकते खेत, छोटे-छोटे स्टेशन और गेंहूँ की बालियाँ उसके कैमरे के लेंस से गुजरती रहीं। हर क्लिक में उसे आर्या का चेहरा दिखता—बरगद के नीचे, किताबों के बीच, कॉफ़ी की भाप के पार।
कैंपस में शाम को लिट क्लब की मीटिंग थी। आर्या ने जाने से पहले फोन उठाया। स्क्रीन पर निहाल का ड्राफ्ट मैसेज अब भी अटका हुआ था। उसने दो सेकंड के लिए सोचा—“भेज दूँ?” फिर खुद से बोली—“नहीं, अतीत के पन्ने पलटना और भविष्य का इंतज़ार करना दोनों एक साथ नहीं हो सकते।” उसने ड्राफ्ट डिलीट कर दिया। दिल हल्का हो गया, जैसे कोई पुराना बोझ हट गया हो।
ओपन माइक में आज का विषय था—“अनुपस्थिति की कविता।” जब उसका नाम पुकारा गया तो वह धीरे से मंच पर पहुँची। उसने पढ़ा:
“कभी-कभी किसी की दूरी
शहर को और करीब ला देती है।
जैसे स्टेशन से छूटती ट्रेन
अपने पीछे धुआँ छोड़ जाती है—
वही धुआँ
दिल की खिड़की पर परदा बनकर उतरता है।
और हम,
उस धुएँ में चेहरा ढूँढते रहते हैं।”
तालियाँ बजीं। पर मंच से उतरते वक्त उसकी आँखें गीली थीं।
जयपुर पहुँचे विराज ने तुरंत असाइनमेंट शुरू किया। हवेली की जालीदार खिड़कियाँ, गुलाबी रंग की दीवारें, हवा महल की छायाएँ—सब उसने फ्रेम में कैद किया। पर हर तस्वीर में उसे अधूरापन लगता, जैसे उस फ्रेम से कोई ज़रूरी रंग गायब हो। रात को होटल की बालकनी से उसने फोन उठाया और मैसेज टाइप किया:
“आज हवा महल की खिड़कियों से शहर को देखा। वहाँ से तुम्हारा नाम पुकारा तो हवा ने जवाब दिया—‘वह तुम्हारे कैमरे में नहीं, तुम्हारे दिल में है।’”
भेजने के बाद वह देर तक स्क्रीन देखता रहा, जैसे इंतज़ार करता हो कि सामने से तुरंत कोई पंक्ति लौट आए।
आर्या को मैसेज मिला, उसने पढ़ा, मुस्कुराई, पर तुरंत जवाब नहीं लिखा। उसने सोचा—“इंतज़ार भी तो प्रेम का हिस्सा है।” फिर डायरी में एक पंक्ति दर्ज की—“हवा का जवाब वही होता है जो दिल पहले से जानता है।”
अगले दिन आर्या क्लास के बाद लाइब्रेरी गई। शेल्फ से किताब निकालते वक्त उसकी नज़र टेबल पर पड़े एक पुराने पन्ने पर पड़ी। किसी ने कविता लिखी थी—“मैं यहाँ हूँ, मगर तुमसे दूर हूँ। मेरी परछाई इस शहर में घूमती है।” उसने पन्ना उठा लिया। दिल में अजीब-सा ख्याल आया—क्या निहाल ने छोड़ा? या फिर यह बस संयोग? उसने पन्ना बैग में रखा, पर मन में साफ़ था—अब उसकी तलाश किसी और के शब्दों में नहीं, अपनी कहानी में है।
जयपुर की शूटिंग खत्म होते-होते विराज ने ढेरों तस्वीरें लीं। पर हर रात उसने एक-एक प्रिंट चुनी और उसके पीछे एक वाक्य लिखा—
“यह खिड़की तुम्हारे इंतज़ार जैसी है।”
“यह दरवाज़ा तुम्हारी मुस्कान जितना खुला है।”
“यह गली तुम्हारी चुप्पियों की तरह लंबी है।”
वह सोचता, लौटकर ये सारी प्रिंट्स आर्या को देगा—जैसे तस्वीरों की जगह चिट्ठियाँ हों।
आर्या के दिन अब पोस्टकार्ड और डायरी के बीच बीतने लगे। उसने खुद से वादा किया कि जब विराज लौटेगा, तब वह पहली बार खुले शब्दों में कहेगी—“हाँ, मैं तुम्हारे साथ इस शहर को देखना चाहती हूँ।”
पर उसी शाम निहाल कैंपस में दिख गया। गलियारे में अचानक सामने खड़ा। उसके चेहरे पर वही आत्मविश्वास, वही बेफिक्री। उसने कहा—“आर्या, एक बार बात कर लो। हम गलत थे, पर अब सही हो सकते हैं।”
आर्या कुछ पल चुप रही। फिर बोली—“कुछ रिश्ते किताब के बीच रखी सूखी पंखुड़ी जैसे होते हैं। दिखते सुंदर हैं, पर उनका मौसम जा चुका होता है।” उसने सीधा रास्ता पकड़ लिया। पीछे से निहाल पुकारता रहा, पर वह नहीं रुकी।
उस रात विराज का फोन आया। आवाज़ में थकान थी, पर एक चमक भी।
“आर्या, सोचो क्या? असाइनमेंट खत्म। कल सुबह दिल्ली।”
आर्या की साँस जैसे थम गई। उसने कहा—“लौट आओ। मेरे पास तुम्हारे लिए एक जवाब है।”
“जवाब?”
“हाँ, तुम्हारे पोस्टकार्ड का पहला जवाब। और शायद तुम्हारे हर सवाल का भी।”
विराज हँस पड़ा। “तो फिर मैं ट्रेन से नहीं, सीधे उड़कर लौटूँगा।”
दोनों हँसे। पर उस हँसी के नीचे एक धड़कन थी—अनकही बात का बोझ और उसे कहने की बेचैनी।
सुबह आर्या फिर वही डाकबक्से के पास खड़ी थी। इस बार उसके हाथ में दूसरा पोस्टकार्ड था। उस पर लिखा था—
“प्रिय शहर,
तुम्हें देखने का तरीका अब मेरा भी बन गया है। और अगर कभी तस्वीरें टूट जाएँ या शब्द चुप हो जाएँ, तो भी मैं तुम्हारी परछाई पहचान लूँगी। क्योंकि अब तुम्हारा नाम मेरी धड़कनों में दर्ज है।”
उसने पोस्टकार्ड डाल दिया और मुस्कुराते हुए सोचा—“इस बार यह ज़रूर पहुँचेगा।”
विराज की ट्रेन दिल्ली की ओर दौड़ रही थी। खिड़की से बाहर धूप का सुनहरा पर्दा गिर रहा था। वह आँखें बंद करके सोच रहा था—“क्या सच में उसे जवाब मिलेगा? या यह बस एक सपना रहेगा?”
उसी समय उसके फोन पर नोटिफिकेशन चमका—आर्या का मैसेज:
“लौट आओ। मेरे पास तुम्हारे लिए शहर से भी बड़ा राज़ है।”
वह मुस्कुराया, आँखें भीग आईं। उसने कैमरा उठाया और खिड़की से बाहर खेतों की तस्वीर ली। तस्वीर के पीछे मन ही मन लिख दिया—“राज़ वही होते हैं जो दो लोग मिलकर खोलते हैं।”
शहर उनका इंतज़ार कर रहा था। सड़कों पर बरगद की छाँह, कॉफ़ी की भाप, और धुंध में बने दिल का आकार अब और भी साफ़ होने वाला था।
दिल्ली का आसमान उस सुबह हल्का-सा सुनहरा था, जैसे शहर किसी ख़ास मेहमान की प्रतीक्षा कर रहा हो। विराज की ट्रेन हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन पर धीरे-धीरे रुकी। प्लेटफॉर्म पर हलचल थी—चाय वाले की आवाज़, कुलियों के स्वर, और यात्रियों की भीड़। पर उसके लिए सब धुंधला था, क्योंकि उसकी नज़र एक ही सवाल खोज रही थी: “क्या आर्या सच में आएगी?”
वह बैग उठाकर बाहर आया। कैमरे का स्ट्रैप कंधे पर था और हाथ में छोटी-सी पोटली, जिसमें उसने जयपुर से चुनी हुई तस्वीरें रखी थीं। हर तस्वीर के पीछे उसने वाक्य लिखा था—जैसे वे तस्वीरें नहीं, ख़त हों।
भीड़ के पार अचानक उसने उसे देखा। आर्या। हल्की पीली कुर्ती, खुले बाल, और आँखों में वही बेचैनी जो उसके अपने भीतर थी। वह वहाँ खड़ी थी, जैसे बरसों से इस क्षण का इंतज़ार कर रही हो।
“तुम सच में आ गईं,” विराज ने धीमे स्वर में कहा।
“और तुम सच में लौट आए,” आर्या ने मुस्कुराकर जवाब दिया।
कुछ पल दोनों चुप रहे। स्टेशन का शोर उनके बीच से गुजरता रहा, पर वे एक-दूसरे की आँखों में अपनी-अपनी दुनिया देख रहे थे।
टैक्सी से लौटते वक्त विराज ने खिड़की के बाहर देखा। सड़क पर धूल उड़ रही थी, बच्चे पतंगें उड़ा रहे थे। वह चाहता था कि कुछ कहे, पर शब्द खोज नहीं पा रहा था। आर्या ने धीरे से कहा—“तुम्हारे बिना यह शहर अधूरा था।”
विराज का दिल धक् से रह गया। उसने उसकी ओर देखा, पर आर्या खिड़की की तरफ़ देखने लगी, जैसे वह स्वीकार तो कर रही थी पर सबकुछ खुलकर कहना अभी बाकी था।
जंगपुरा की बालकनी में लौटकर विराज ने बैग नीचे रखा और तुरंत कैमरे का बॉक्स खोला। “देखो,” उसने कहा, “यह तुम्हारे लिए।”
उसने एक-एक कर तस्वीरें निकालीं—हवा महल, पुरानी गलियों के दरवाज़े, हवेली की खिड़कियाँ। हर तस्वीर के पीछे उसने एक पंक्ति लिखी थी।
आर्या उन्हें पढ़ती गई।
“यह खिड़की तुम्हारे इंतज़ार जैसी है।”
“यह दरवाज़ा तुम्हारी मुस्कान जितना खुला है।”
“यह गली तुम्हारी चुप्पियों की तरह लंबी है।”
उसकी आँखें भीग गईं। उसने कहा—“ये तस्वीरें नहीं, ये मेरे नाम लिखे हुए ख़त हैं।”
“और तुम्हारा जवाब?” विराज ने हौले से पूछा।
आर्या ने बैग से पोस्टकार्ड निकाला। वही जो उसने पिछले दिन भेजा था। उसने मुस्कुराकर कहा—“शायद यह पहुँच गया।”
विराज ने पोस्टकार्ड पढ़ा। शब्द उसकी सांसों में उतरते गए: “प्रिय शहर, तुम्हें देखने का तरीका अब मेरा भी बन गया है…” उसने कार्ड सीने से लगा लिया। “अब मुझे यक़ीन हो गया कि यह शहर पूरा है।”
शाम को दोनों इंडिया हैबिटैट सेंटर की कॉफ़ी शॉप पहुँचे। भीड़-भाड़ के बीच उन्होंने खिड़की वाली मेज़ चुनी। बाहर लॉन में रोशनी जगमगा रही थी।
“तुम्हें पता है,” विराज ने कहा, “जयपुर में जब हवा महल की खिड़की से मैंने शहर देखा, तो लगा जैसे तुम खड़ी होकर मुस्कुरा रही हो।”
“और मुझे यहाँ हर शाम तुम्हारी परछाई नज़र आती थी। कभी किताबों के बीच, कभी खाली सड़कों पर।”
वेटर ने कॉफ़ी रख दी। भाप उठी और दोनों की आँखों के बीच फैल गई।
“आर्या,” विराज ने धीरे से कहा, “मैं शब्दों का आदमी नहीं हूँ। तस्वीरें ही मेरी भाषा हैं। पर अगर एक वाक्य बोलना पड़े, तो यही कहूँगा—मैं तुम्हारे साथ इस शहर को जीना चाहता हूँ।”
आर्या चुप रही। उसने कॉफ़ी के कप को हल्के से घुमाया, फिर आँखें उठाईं। “कभी सोचा था कि मैं फिर से किसी पर भरोसा कर पाऊँगी। पर तुमने साबित कर दिया कि कुछ लोग किताबों की तरह होते हैं—भले ही नए हों, लेकिन पढ़ते ही लगता है जैसे बरसों से साथ हैं।”
“तो…?” विराज ने पूछा।
“तो यह शहर अब सिर्फ मेरा नहीं, हमारा है।”
उनकी मुस्कानें मिल गईं।
रात को जंगपुरा की बालकनी में हवा हल्की ठंडी थी। नीचे सड़क पर पीली लाइटें चमक रही थीं। विराज ने कैमरा ट्राइपॉड पर रखा। “एक तस्वीर और,” उसने कहा, “इस बार सेल्फ़ टाइमर पर।”
दोनों बालकनी की रेलिंग के पास खड़े हो गए। कैमरे की लाल बत्ती टिमटिमाई। आर्या ने अचानक उसका हाथ पकड़ लिया। क्लिक।
फोटो खिंच गई। स्क्रीन पर दोनों मुस्कुराते हुए, पीछे शहर की रोशनी।
“यह तस्वीर नहीं,” विराज बोला, “यह वादा है।”
अगले दिन कैंपस में हलचल थी। लिट क्लब ने प्रदर्शनी रखी थी—“शहर और प्रेम।” हर छात्र अपनी रचनाएँ, तस्वीरें और कविताएँ ला रहा था। आर्या ने डायरी से कुछ पन्ने चुने। विराज ने जयपुर और दिल्ली की तस्वीरों की सीरीज़ लगाई—शीर्षक दिया “तेरी मेरी अधूरी बातें।”
जब लोग तस्वीरें देख रहे थे, आर्या मंच पर गई और बोली—“कभी-कभी शहर को नया नाम मिल जाता है, जब उसमें कोई ऐसा आता है जो तुम्हें देखने का तरीका सिखा दे। यह मेरी कहानी है।”
वह बोल रही थी और विराज पीछे से मुस्कुरा रहा था। उसे लग रहा था, अब कोई दूरी नहीं बची।
पर उसी समय भीड़ में एक जाना-पहचाना चेहरा था—निहाल। वह चुपचाप तस्वीरों को देख रहा था। उसकी आँखों में पछतावा था या ईर्ष्या, यह कहना मुश्किल था। उसने एक तस्वीर के नीचे धीरे से लिखा—“कभी मैं भी तुम्हारा शहर था।”
आर्या ने उसे देखा, पर इस बार उसकी आँखों में कोई हिचक नहीं थी। उसने सीधे विराज की ओर देखा और मुस्कुरा दी।
प्रदर्शनी के बाद दोनों सड़क पर निकले। शाम का आसमान लाल था। आर्या ने कहा—“कहानी अब अधूरी नहीं है।”
विराज ने उसका हाथ थाम लिया। “अब नहीं। अब हर पन्ना तुम्हारे नाम लिखा है।”
वे चलते रहे—शहर की भीड़, ट्रैफिक का शोर, चाय की दुकानें, और उनके बीच एक लंबा रास्ता। पर इस रास्ते पर पहली बार उन्हें लगा कि वे अकेले नहीं हैं।
उस रात डायरी के पन्ने पर आर्या ने लिखा:
“जब कोई लौटता है और तुम उसे पहचान लेती हो, तो समझो प्रेम ने अपनी पहली जीत पा ली। यह जीत छोटी नहीं होती, यह शहर की हर दीवार पर दर्ज हो जाती है।”
दूसरी ओर, विराज ने कैमरे से उस शाम की तस्वीरें देखीं और एक फोटो चुनी—बालकनी वाली। उसने उसके पीछे लिखा: “लौटने की खुशबू हमेशा यहीं रहेगी।”
अब कहानी ने नया मोड़ ले लिया था। दूरियाँ मिट चुकी थीं, पर आगे का सफ़र अभी बाकी था।
दिल्ली की सर्द सुबह ने जैसे शहर को चादर में लपेट लिया था। हवा में हल्की ठंडक और कॉफी की भाप का लालच था। आर्या जल्दी उठी और खिड़की खोली। बाहर धुंध थी, पर उसके भीतर एक अजीब-सी साफ़गोई थी। कल की प्रदर्शनी ने सबकुछ बदल दिया था। उसने महसूस किया कि अब उसके और विराज के बीच कोई अधूरापन नहीं रहा।
नीचे हॉस्टल के लॉन में लड़कियाँ गर्म चाय पी रही थीं। हँसी-ठिठोली, परीक्षा की बातें, और आने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम का शोर। आर्या ने खुद से कहा—“अब मुझे भी अपनी कहानी सबको बताने में डर नहीं है।”
विराज उस सुबह जल्दी ही हॉस्टल गेट पर पहुँचा। हाथ में कैमरा नहीं था, बस एक बैग और चेहरे पर मुस्कान। उसने मैसेज भेजा—“चलो, शहर को कॉफ़ी पिलाते हैं।”
आर्या नीचे आई। उसने हल्की जैकेट पहनी थी। दोनों पास की सड़क से ऑटो पकड़े और ‘हौज़ खास विलेज’ की ओर निकल पड़े। रास्ते भर दिल्ली का शोर था—बसों का हॉर्न, रेड लाइट पर बंटी अख़बार, और सर्दी में सिकुड़ते हुए चेहरे।
“तुम्हें पता है,” विराज ने कहा, “दिल्ली की ये भीड़ मेरे लिए कभी अजनबी नहीं लगी। लेकिन तुम्हारे साथ यह घर जैसी लगती है।”
आर्या मुस्कुरा दी। “कभी-कभी घर कोई जगह नहीं होता, कोई इंसान होता है।”
उसके शब्द सुनकर विराज ने कुछ देर खिड़की से बाहर देखा। उसके भीतर हल्की-सी कंपकंपी उठी—जैसे किसी ने अनकहा सच धीरे से कह दिया हो।
हौज़ खास के झील किनारे वे बैठ गए। पानी पर धूप के टुकड़े नाच रहे थे। चारों ओर कपल्स, दोस्त, और कैमरे वाले सैलानी। विराज ने कहा—“यहाँ की सबसे अच्छी बात यह है कि पानी हर चेहरे का अलग-सा आईना बना देता है।”
“और हमारे चेहरे का?” आर्या ने शरारती मुस्कान के साथ पूछा।
विराज ने गंभीर होकर कहा—“हमारे चेहरे का आईना वही है जो हम एक-दूसरे की आँखों में देखते हैं।”
दोनों चुप हो गए। हवा हल्की-सी ठंडी थी, पर उनके बीच का सन्नाटा गर्म था।
दोपहर में वे पास के एक छोटे कैफ़े में गए। लकड़ी की मेज़, दीवारों पर पुरानी फ़िल्मों के पोस्टर, और कोनों में गिटार लटके हुए। वेटर ने गर्मागर्म पास्ता और कॉफ़ी रखी।
आर्या ने कहा—“विराज, मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ।”
“कहो।”
“पिछले साल मेरी ज़िंदगी में कोई था। उसका नाम निहाल।” विराज चुपचाप सुनता रहा। “वह रिश्ता अधूरा रह गया। बहुत कुछ टूटा, बहुत कुछ रह गया। और मैं सोचती थी, शायद अब कभी भरोसा नहीं कर पाऊँगी। लेकिन तुमने मेरी चुप्पियों को पढ़ा, मेरी अधूरी बातों को पूरा किया।”
विराज ने उसका हाथ पकड़ लिया। “मैं निहाल नहीं हूँ, आर्या। मैं वादे तोड़ने नहीं आया। मैं सिर्फ़ इतना जानता हूँ कि तुम्हारे साथ हर तस्वीर पूरी हो जाती है।”
उसकी आँखों में सच्चाई थी। आर्या की आँखें भीग गईं। उसने धीरे से कहा—“मुझे डर अभी भी लगता है। लेकिन शायद यही प्रेम है—डर और भरोसे का साथ।”
“अगर डर है,” विराज बोला, “तो मैं उसे भी तुम्हारे साथ बाँट लूँगा।”
शाम को वे इंडिया गेट की ओर गए। रोशनी जगमगा रही थी, बच्चे पतंगें उड़ा रहे थे। लोग फोटो खिंचवा रहे थे। विराज ने जेब से छोटा कैमरा निकाला और आर्या की तस्वीर ली। “यह तस्वीर तुम्हारी आँखों की है, जिनमें पूरा शहर बसता है।”
“और तुम्हारी आँखों में?”
“तुम।”
आर्या ने हँसते हुए उसे हल्का धक्का दिया। पर दिल में कहीं यह वाक्य गहराई तक उतर गया।
रात को हॉस्टल लौटकर आर्या ने डायरी खोली। उसने लिखा:
“आज मैंने स्वीकार किया कि प्रेम सिर्फ़ यादें नहीं, उम्मीद भी है। विराज मेरे साथ खड़ा है, और यही सबसे बड़ा वादा है।”
वहीं दूसरी ओर, विराज ने अपने कमरे में दीवार पर नई तस्वीर टाँगी—आर्या की, इंडिया गेट की रोशनी के बीच। तस्वीर के पीछे उसने लिखा:
“जब तुम मुस्कुराती हो, तो दिल्ली की रोशनी भी छोटी लगती है।”
लेकिन कहानी इतनी सीधी नहीं थी। अगले दिन कैंपस में एक खबर फैली—निहाल फिर से आर्या से मिलने आया है। उसने दोस्तों से कहा—“मैं गलती मानता हूँ। मुझे उसे वापस पाना है।”
जब यह बात विराज तक पहुँची, तो उसका दिल कस गया। वह आर्या पर भरोसा करता था, पर अतीत की परछाई कभी-कभी सबसे उजली रोशनी में भी डर पैदा कर देती है।
शाम को उसने आर्या से पूछा—“क्या निहाल से मिली?”
आर्या ने साफ़-साफ़ कहा—“हाँ, मिला। उसने माफ़ी माँगी। लेकिन मैंने उसे कह दिया कि अब मेरी ज़िंदगी में नया अध्याय शुरू हो चुका है। और उसमें उसका कोई पन्ना नहीं है।”
विराज ने गहरी साँस ली। “धन्यवाद, सच बताने के लिए।”
आर्या मुस्कुराई। “अब मेरे पास छुपाने को कुछ नहीं है। तुम मेरे शब्द हो, और शब्द कभी झूठे नहीं होते।”
उस रात दोनों फिर जंगपुरा की बालकनी में मिले। हवा में ठंडक थी, नीचे सड़कों पर रोशनी बिखरी थी।
आर्या ने कहा—“कभी सोचा था, प्रेम इतना सादा होगा? बिना बड़े-बड़े वादों के, बिना शोर के, बस एक खामोशी जो सबकुछ कह देती है।”
विराज ने उसका हाथ पकड़ लिया। “प्रेम वही है, जो हमारी चुप्पियों को भी आवाज़ दे दे।”
दोनों लंबे समय तक खड़े रहे—शहर उनके चारों ओर था, लेकिन उनके बीच सिर्फ़ दिलों की धड़कनें थीं।
डायरी में उस रात आर्या ने आख़िरी पंक्ति लिखी:
“रिश्ते की यह नई धूप मेरे लिए डर भी है, भरोसा भी। पर अगर साथ में हाथ हो, तो हर डर रोशनी में बदल जाता है।”
और विराज ने अपनी कैमरा डायरी में लिखा:
“आज मैंने जाना, तस्वीरों से भी ज़्यादा खूबसूरत वह एहसास होता है जो आँखों में बसता है। और वह एहसास अब सिर्फ़ आर्या है।”
सर्दियों की सुबह में सूरज ने धीरे-धीरे अपने परदे खोले थे। हॉस्टल के लॉन में ओस की बूँदें अब भी चमक रही थीं। आर्या ने चाय का कप हाथ में लिया और आसमान की तरफ़ देखा। उसके मन में शांति थी, जैसे बीते दिनों की बेचैनी अब कहीं पीछे छूट गई हो। विराज का साथ उसे भरोसा दे रहा था। लेकिन ज़िंदगी हमेशा सीधी राह नहीं चुनती।
उस दिन कैंपस में साहित्यिक उत्सव का उद्घाटन था। पूरे शहर से लेखक, कवि और कलाकार बुलाए गए थे। पोस्टर हर जगह चिपके थे—“दिल्ली लिट फेस्ट 2025।” आर्या और विराज दोनों को अलग-अलग सत्रों में हिस्सा लेना था।
“आज का दिन बड़ा है,” विराज ने सुबह फोन पर कहा। “मैं अपनी फ़ोटो सीरीज़ ‘शहर की धड़कनें’ पेश करूँगा।”
“और मैं मंच पर पढ़ूँगी—‘अनकही बातें,’” आर्या ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
“तो आज तुम्हारे शब्द और मेरी तस्वीरें एक ही दीवार पर होंगी,” विराज ने कहा।
फेस्टिवल का माहौल रंगीन था। तंबुओं के नीचे किताबों की दुकानें, कैफ़े का शोर, और मंच पर कवियों की आवाज़ें। भीड़ में अचानक आर्या की नज़र ठहर गई। सामने निहाल खड़ा था। उसने नीली शर्ट पहनी थी, बाल सँवारे हुए, और हाथ में किताबें।
“आर्या,” उसने धीरे से कहा, “एक बार सुन लो। मैं अब सच में बदल चुका हूँ।”
आर्या चौंकी नहीं। उसने शांत स्वर में कहा—“तुम्हारी बात सुनना अब ज़रूरी नहीं। मेरी कहानी नया अध्याय लिख रही है।”
“लेकिन मैं अब भी…” निहाल बोलना चाहता था, पर आर्या ने उसे रोक दिया।
“तुम मेरी चुप्पियों को कभी नहीं समझ पाए। विराज ने उन्हें पढ़ लिया। यही फर्क है।”
निहाल की आँखें गहरी पड़ गईं। उसने कुछ नहीं कहा और भीड़ में खो गया।
दोपहर में विराज का सत्र था। उसने स्क्रीन पर तस्वीरें दिखाईं—जयपुर की हवेलियाँ, दिल्ली की गलियाँ, और आर्या की मुस्कान। लोग तालियाँ बजाते रहे। किसी ने पूछा—“आपकी प्रेरणा कौन है?”
विराज ने हल्की हँसी में जवाब दिया—“मेरी प्रेरणा एक शहर नहीं, एक चेहरा है। वही जो इन तस्वीरों के पीछे छुपा है।”
भीड़ ताली बजाती रही, पर आर्या के दिल की धड़कन तेज़ हो गई। उसे लगा, यह इज़हार सबके सामने था।
शाम को आर्या का सत्र था। उसने मंच पर खड़े होकर कविता पढ़ी:
“कुछ बातें किताबों के पन्नों में अटकी रह जाती हैं,
कुछ तस्वीरें अधूरी रोशनी में क़ैद हो जाती हैं।
लेकिन जब कोई सुनने वाला मिल जाए,
तो हर अधूरी बात पूरी हो जाती है।”
भीड़ तालियों से गूँज उठी। विराज सबसे आगे बैठा था, उसकी आँखों में गर्व और अपनापन था।
लेकिन फेस्टिवल के बाद एक हलचल मच गई। कैंपस के नोटिस बोर्ड पर किसी ने एक अनजान पोस्टर चिपका दिया था। उसमें विराज की कुछ पुरानी तस्वीरें थीं—पार्टी की, दोस्तों के साथ, शराब के गिलास हाथ में। और नीचे लिखा था: “क्या यही है तुम्हारी प्रेरणा?”
छात्रों में फुसफुसाहट शुरू हो गई। कुछ ने कहा—“ये तो बहुत बिंदास था।” किसी ने कहा—“क्या यह वही फोटोग्राफर है जो अब आदर्श बनने चला है?”
आर्या के पास भी यह खबर पहुँची। उसके दिल में हल्की चुभन हुई। वह जानती थी कि हर इंसान का अतीत होता है। लेकिन सवाल था—क्या विराज उसे खुद बताएगा?
रात को वे मिले। जंगपुरा की बालकनी पर हवा ठंडी थी। आर्या ने सीधे पूछा—“विराज, ये तस्वीरें?”
विराज ने लंबी साँस ली। “हाँ, ये मेरी पुरानी ज़िंदगी है। तब मैं खोया हुआ था। पार्टियों, नशे, और शोर में। पर जब मैंने कैमरा हाथ में लिया और शहर की धड़कनों को कैद करना शुरू किया, तब समझ आया—ज़िंदगी सिर्फ़ धुंध नहीं है, उसमें रोशनी भी है। और तुम्हें मिलने के बाद तो सबकुछ साफ़ हो गया।”
आर्या ने उसकी आँखों में देखा। “मुझे सच से कोई डर नहीं, बस छुपाए जाने से डर है।”
विराज ने उसका हाथ थाम लिया। “मैं अब कभी कुछ नहीं छुपाऊँगा। वादा।”
आर्या की आँखें भीग गईं। “तो फिर अतीत का यह पन्ना अब बंद समझो।”
उसी समय फोन बजा। स्क्रीन पर अनजान नंबर। विराज ने उठाया। दूसरी तरफ़ कोई आवाज़ थी—“तुम्हारी प्रदर्शनी अच्छी रही। लेकिन याद रखना, तस्वीरों से सच हमेशा नहीं छुपता।” कॉल कट गया।
विराज का चेहरा कस गया। “कोई मुझे बदनाम करना चाहता है,” उसने धीरे से कहा।
आर्या ने उसका हाथ कसकर पकड़ा। “जो भी हो, हम साथ हैं। और यही सबसे बड़ा सच है।”
अगले दिन फेस्टिवल का समापन था। विराज और आर्या ने मिलकर अपने बूथ से तस्वीरें और पन्ने समेटे। भीड़ कम हो गई थी, रोशनी बुझ रही थी। बाहर निकलते वक्त आर्या ने कहा—“रिश्तों की असली परीक्षा यही होती है—जब परछाइयाँ पास आकर डराती हैं, तब भी हम एक-दूसरे का हाथ न छोड़ें।”
विराज ने मुस्कुराकर कहा—“और हम हाथ नहीं छोड़ेंगे।”
दोनों साथ चले। पीछे कैंपस की दीवार पर वही अजनबी हाथ नया पोस्टर चिपका रहा था—पर इस बार शब्द और थे: “अगला सच सामने आएगा।”
उस रात आर्या ने डायरी में लिखा:
“प्रेम रोशनी है, पर परछाइयाँ हमेशा उसके पीछे चलती हैं। सवाल यह नहीं कि परछाई है या नहीं, सवाल यह है कि हम साथ चल रहे हैं या नहीं।”
वहीं विराज ने अपनी कैमरा डायरी में लिखा:
“हर तस्वीर का अतीत होता है, लेकिन उसका सबसे साफ़ फ्रेम वही है जो आज लिया जाए। और मेरा आज सिर्फ़ आर्या है।”
दिल्ली लिट फेस्ट के बाद का कैंपस कुछ दिनों तक गहमागहमी से भरा रहा। अख़बारों में तस्वीरें छपीं, छात्रों के ब्लॉग पर चर्चाएँ हुईं, और सोशल मीडिया पर आर्या और विराज की तस्वीरें घूमती रहीं। लेकिन भीड़ के इस उत्साह के पीछे एक छुपा डर था—वही अजनबी, जो बार-बार पोस्टर चिपकाकर कोई संदेश छोड़ रहा था।
सुबह हॉस्टल की दीवार पर नया पोस्टर मिला। इस बार उसमें लिखा था:
“हर तस्वीर की एक परछाई होती है। सच्चाई सामने आएगी।”
लोग फुसफुसाने लगे। कुछ ने हँसकर टाल दिया, लेकिन कुछ के चेहरों पर जिज्ञासा थी।
आर्या ने पोस्टर देखा तो उसका दिल कस गया। उसने सोचा—“यह कौन कर रहा है? और क्यों?” उसके मन में निहाल का नाम कौंधा, पर फिर उसने खुद से कहा—“नहीं, यह सिर्फ़ शक हो सकता है। सबूत नहीं।”
दूसरी ओर, विराज ने जब पोस्टर देखा, तो उसकी आँखों में गुस्सा चमका। उसने आर्या से कहा—“कोई मुझे बदनाम करना चाहता है। लेकिन यह साज़िश कितनी भी गहरी हो, मैं पीछे नहीं हटूँगा।”
“पर हमें सावधान रहना होगा,” आर्या ने कहा। “यह कोई यूँ ही मज़ाक नहीं है।”
उस शाम दोनों कनॉट प्लेस के पार्क में मिले। वहाँ रोशनी की झालरें थीं, लोग टहल रहे थे, और हवा में हल्की ठंडक थी। वे बेंच पर बैठे और आसपास नज़र दौड़ाई।
“सोचो, अगर यह निहाल हो?” आर्या ने धीरे से कहा।
विराज ने भौंहें सिकोड़ लीं। “संभव है। उसे अब भी लगता होगा कि तुम्हें वापस पा सकता है। और मुझे गिराकर वह यह खेल जीत जाएगा।”
“लेकिन मैं कोई इनाम नहीं हूँ,” आर्या ने दृढ़ स्वर में कहा।
विराज ने उसका हाथ थाम लिया। “मुझे पता है। तुम मेरा यक़ीन हो। और यह यक़ीन कोई पोस्टर नहीं तोड़ सकता।”
अगले दिन एक और पोस्टर मिला। इस बार उसमें विराज की एक पुरानी तस्वीर थी—उसके कॉलेज दिनों की। उसमें वह अपने दोस्तों के साथ सड़क पर खड़ा था, हाथ में बियर की बोतल, और पीछे लिखा था—“सच्चाई की शुरुआत यहीं से हुई।”
कैंपस में कानाफूसी बढ़ गई। कुछ लोग हँस रहे थे, कुछ सिर हिला रहे थे।
आर्या ने जब यह तस्वीर देखी, तो उसे गहरी चोट लगी। उसने विराज से सीधे पूछा—“यह सच है?”
विराज ने बिना झिझके कहा—“हाँ, यह सच है। उस वक़्त मैं खोया हुआ था। लेकिन क्या अतीत ही इंसान की पूरी पहचान है? अगर हाँ, तो मैं आज तक वही हूँ। लेकिन अगर इंसान बदल सकता है, तो मैं नया हूँ। और यह नया मैं सिर्फ़ तुम्हारे साथ है।”
आर्या की आँखों में आँसू थे। “मुझे तुमसे डर नहीं, विराज। मुझे डर है कि यह खेल कहाँ तक जाएगा।”
उस रात आर्या हॉस्टल में सो नहीं पाई। वह डायरी लेकर बैठी और लिखा:
“कभी-कभी प्रेम से बड़ी लड़ाई भरोसे की होती है। और भरोसा तब जीतता है जब हम अतीत को सच की तरह स्वीकार कर लें, पर भविष्य को उम्मीद की तरह जिएँ।”
विराज ने भी उस रात अपनी कैमरा डायरी में लिखा:
“मेरे फ्रेम में अब सिर्फ़ आर्या है। अगर कोई परछाई बीच में आएगी, तो मैं रोशनी बढ़ा दूँगा।”
अगले दिन कैंपस की कैफ़ेटेरिया में अचानक अफ़रा-तफ़री मच गई। एक अजनबी लड़का आया और उसने सबके बीच जोर से कहा—“इस फोटोग्राफ़र की असली तस्वीरें देखो!” उसने कुछ प्रिंटेड पेपर बाँटे। उन पर विराज की और पुरानी तस्वीरें थीं—पार्टी, दोस्तों के साथ नशे में धुत।
भीड़ शोर करने लगी। “क्या यह वही है जो अब प्रेरणा बनने का दावा कर रहा है?”
आर्या वहाँ पहुँची। उसने पेपर देखा और भीड़ की तरफ़ सीधा कहा—“अतीत किसी का भी हो सकता है। लेकिन सवाल यह है कि आज वह कौन है। और आज विराज मेरे साथ है। उसका सच मैं जानती हूँ। और यही काफ़ी है।”
भीड़ कुछ देर चुप रही। फिर धीरे-धीरे लोग छँटने लगे।
उस शाम विराज ने आर्या से कहा—“तुम्हारे बिना मैं टूट जाता। धन्यवाद।”
“तुम्हें सिर्फ़ मेरा सहारा नहीं चाहिए, तुम्हें खुद को भी संभालना होगा,” आर्या ने गंभीर स्वर में कहा।
“और मैं संभालूँगा। तुम्हारे लिए, हमारे लिए।”
लेकिन रहस्य अभी खत्म नहीं हुआ था। उसी रात विराज को एक ईमेल मिला। विषय पंक्ति में लिखा था—“तुम्हारी तस्वीरें, तुम्हारा सच।”
मेल में कुछ अटैचमेंट थे—उसकी पुरानी तस्वीरें, और नीचे लिखा था:
“अगर सच से भागोगे, तो तुम्हें खो दोगे। अगला पोस्टर जल्द ही।”
विराज ने ईमेल आर्या को दिखाया।
“यह कोई हमें तोड़ना चाहता है,” आर्या ने कहा। “पर याद रखना, सच से डरना हमें तोड़ेगा, सच को स्वीकार करना हमें जोड़ देगा।”
अगले दिन उन्होंने तय किया कि वे इस रहस्य का सामना मिलकर करेंगे। अब वे छुपेंगे नहीं।
लिट क्लब ने फिर से एक छोटा कार्यक्रम रखा था। इस बार विराज ने मंच पर जाकर सीधे कहा—“हाँ, मेरा अतीत वैसा ही था जैसा इन पोस्टरों में दिखाया गया। मैं गलत रास्तों पर था। पर कैमरे ने मुझे बचा लिया। और प्रेम ने मुझे पूरा कर दिया। आज मैं जो हूँ, वह मेरा अतीत नहीं, मेरा वर्तमान है। और मेरा वर्तमान आर्या है।”
हॉल तालियों से गूँज उठा। आर्या की आँखों में आँसू थे, लेकिन वह मुस्कुरा रही थी।
पर जैसे ही कार्यक्रम खत्म हुआ, बाहर नोटिस बोर्ड पर नया पोस्टर चिपका मिला। इस बार सिर्फ़ पाँच शब्द लिखे थे:
“अगली बारी आर्या की है।”
दोनों ने पोस्टर पढ़ा और एक-दूसरे की ओर देखा। इस बार साज़िश और गहरी हो चुकी थी।
उस रात आर्या ने डायरी में लिखा:
“अगर अगली बारी मेरी है, तो मैं भी सच का सामना करूँगी। क्योंकि प्रेम डर से बड़ा होता है।”
और विराज ने अपनी तस्वीरों के बीच लिखा:
“अब यह लड़ाई सिर्फ़ मेरी नहीं रही। अब यह हमारी है।”
सुबह हॉस्टल के गेट पर भीड़ लगी थी। सभी की नज़र नोटिस बोर्ड पर चिपके नए पोस्टर पर थी। बड़े अक्षरों में लिखा था—
“अगली बारी आर्या की है।”
नीचे किसी ने हाथ से जोड़कर लिखा था—“हर किसी का अतीत होता है। देखो उसका।”
लड़कियाँ आपस में कानाफूसी कर रही थीं। कोई कह रहा था, “क्या मतलब है इसका?” कोई बोला, “शायद उसके भी राज़ हैं।”
आर्या ने भीड़ चीरकर पोस्टर देखा। उसके सीने में अजीब-सी हलचल हुई। शब्द जैसे चाकू की तरह चुभे। उसने सोचा—“अब यह साज़िश मुझे निशाना बना रही है।”
दोपहर में क्लास खत्म होते ही वह लाइब्रेरी चली गई। वही उसकी शरणस्थली थी। पुराने पन्नों की खुशबू में उसे सुकून मिलता था। उसने डायरी निकाली और लिखा:
“सच का डर सिर्फ़ तब तक होता है जब तक हम उसे स्वीकार न करें। मुझे डर नहीं, पर मुझे तय करना है कि मैं क्या कहूँ और कब कहूँ।”
शाम को वह जंगपुरा पहुँची। विराज पहले से इंतज़ार कर रहा था। उसके चेहरे पर बेचैनी थी।
“देखा तुमने पोस्टर?” उसने पूछा।
“हाँ,” आर्या ने शांत स्वर में कहा।
“इसका मतलब वे अब तुम्हें निशाना बना रहे हैं। लेकिन क्यों? तुम्हारे पास छुपाने जैसा कुछ है भी?”
आर्या चुप रही। कुछ देर बाद बोली—“हर किसी का अतीत होता है, विराज। मेरा भी है। और अगर वह सामने आया तो शायद लोग सवाल करेंगे।”
विराज ने उसका हाथ थाम लिया। “लोग सवाल करेंगे, लेकिन मैं तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा। क्योंकि प्रेम का मतलब सिर्फ़ आज नहीं, अतीत और भविष्य भी है।”
अगले दिन एक नया पोस्टर आया। इस बार उस पर आर्या की कॉलेज की एक पुरानी तस्वीर चिपकी थी। वह किसी बहस प्रतियोगिता में खड़ी थी, लेकिन पोस्टर के नीचे लिखा था—
“यही है वह लड़की जिसने अपने वादों को तोड़ा।”
कैंपस में शोर मच गया। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे।
“किस वादे की बात हो रही है?”
“किसके साथ वादा तोड़ा?”
आर्या का दिल बैठ गया। यह वही वादा था जो उसने निहाल से किया था—उसके साथ हमेशा रहने का। लेकिन उसने वह रिश्ता तोड़ दिया था, क्योंकि उसमें सच्चाई नहीं बची थी।
शाम को विराज से मिलने पर उसने सीधे कहा—“हाँ, यह सच है। मैंने निहाल से वादा किया था। लेकिन वह रिश्ता टूट गया। और यह मेरा अपराध नहीं, मेरा निर्णय था। अगर लोग इसे मेरे खिलाफ़ इस्तेमाल करेंगे, तो करें। मैं अब छुपाऊँगी नहीं।”
विराज ने उसकी आँखों में देखा। “यही तुम्हारी ताक़त है। सच बोलना हमेशा मुश्किल होता है, पर यही तुम्हें आज़ाद करता है।”
उस रात आर्या ने डायरी में लिखा:
“मैंने पहली बार महसूस किया कि प्रेम सिर्फ़ भरोसा नहीं, साहस भी है। और मैं यह साहस विराज से पा रही हूँ।”
पर यह साज़िश रुकने वाली नहीं थी। तीसरे दिन नया पोस्टर आया। इस बार उस पर लिखा था—
“आर्या की कहानी अभी अधूरी है। सच सबको चौंका देगा।”
कैंपस में तनाव बढ़ गया। प्रोफ़ेसर तक बात पहुँची। उन्होंने कहा—“यह अब व्यक्तिगत हमला हो रहा है। हमें जाँच करनी होगी।”
आर्या और विराज दोनों ने सोचा—“अब यह खेल खतरनाक हो चुका है।”
शाम को वे इंडिया गेट के पास मिले। चारों ओर भीड़ थी, बच्चे पतंगें उड़ा रहे थे, सैलानी फोटो ले रहे थे। लेकिन उनके बीच सन्नाटा था।
“क्या तुम्हें लगता है कि यह सब निहाल कर रहा है?” विराज ने पूछा।
“शायद,” आर्या ने कहा। “वह ही जानता था हमारे वादे की बात। और वही इसे मेरे खिलाफ़ इस्तेमाल कर सकता है।”
“तो अब हमें उसका सामना करना होगा।”
आर्या ने सिर हिलाया। “हाँ। सच को छुपाना अब और नहीं।”
अगले दिन उन्होंने निहाल को कैंपस कैफ़ेटेरिया में बुलाया। निहाल आया, चेहरे पर वही आत्मविश्वास।
“पोस्टर तुम्हीं लगा रहे हो, निहाल?” विराज ने सीधे पूछा।
निहाल हँसा। “अगर मैं हूँ भी, तो क्या फर्क पड़ता है? लोग सच जान ही रहे हैं।”
आर्या ने दृढ़ स्वर में कहा—“सच वह नहीं जो तुम दिखा रहे हो। सच यह है कि तुमने मेरा भरोसा तोड़ा था। मैंने वादा किया था, लेकिन जब रिश्ता ही झूठा था, तो वादा निभाना मूर्खता होती। अगर यही मेरा अपराध है, तो मैं उसे स्वीकार करती हूँ।”
निहाल चुप रह गया।
“तुम सोचते हो कि पोस्टर हमें तोड़ देंगे,” आर्या ने आगे कहा, “लेकिन उन्होंने हमें और मज़बूत कर दिया है। क्योंकि अब हमें कुछ छुपाना नहीं है।”
उस शाम कैंपस में एक ओपन माइक था। आर्या मंच पर गई और सीधे बोली—
“हाँ, मैंने अतीत में वादे किए। और हाँ, वे वादे टूटे। लेकिन हर इंसान को अपनी ज़िंदगी में नया रास्ता चुनने का अधिकार है। आज मेरा रास्ता साफ़ है—और वह रास्ता विराज के साथ है। जो चाहे सवाल करे, लेकिन मेरा जवाब यही है।”
भीड़ तालियों से गूँज उठी।
विराज सबसे आगे बैठा था। उसकी आँखों में गर्व और अपनापन था।
लेकिन जैसे ही कार्यक्रम खत्म हुआ, किसी ने बाहर नया पोस्टर चिपका दिया। इस बार उसमें लिखा था—
“अगर यह सच स्वीकार कर सकती है, तो अगला सच वह नहीं सह पाएगी।”
दोनों ने पोस्टर देखा। हवा में एक अजीब-सी ठंडक थी।
आर्या ने विराज का हाथ कसकर पकड़ा। “जो भी हो, अब हम पीछे नहीं हटेंगे।”
विराज ने सिर हिलाया। “हाँ। अब यह सिर्फ़ प्रेम की नहीं, हिम्मत की कहानी है।”
उस रात डायरी में आर्या ने लिखा:
“मैंने अपना सच स्वीकार किया। और सच ने मुझे हल्का कर दिया। पर खेल अभी खत्म नहीं हुआ। शायद अगला मोड़ और कठिन हो। लेकिन अब मैं अकेली नहीं हूँ। मेरे साथ विराज है। और यही मेरी ताक़त है।”
और विराज ने कैमरे के पीछे लिखा:
“अब तस्वीरों से ज़्यादा हम दोनों का सच मायने रखता है। और यही सच हमें बचाएगा।”
सर्दियों की रात और गहरी हो गई थी। हॉस्टल के बाहर हवा ठंडी थी, लेकिन आर्या के भीतर की बेचैनी और भी ठंडी पड़ रही थी। नोटिस बोर्ड पर चिपके आख़िरी पोस्टर के शब्द उसकी आँखों में तैर रहे थे—
“अगर यह सच स्वीकार कर सकती है, तो अगला सच वह नहीं सह पाएगी।”
उसने सोचा—“और क्या बचा है मेरे पास छुपाने को? मैंने सब स्वीकार कर लिया। तो यह ‘अगला सच’ कौन-सा है?”
अगली सुबह, पूरा कैंपस गहमागहमी से भर गया। दीवारों पर एक बड़ा पोस्टर चिपका था। उसमें लिखा था—
“सच यह है कि आर्या और विराज का रिश्ता सिर्फ़ एक दिखावा है। यह प्रेम नहीं, यह एक प्रयोग है—फोटोग्राफी और शब्दों का।”
नीचे किसी ने लिखा था: “प्रमाण जल्द मिलेगा।”
भीड़ फिर फुसफुसाने लगी।
“क्या यह सच है?”
“शायद यह सिर्फ़ पब्लिसिटी स्टंट है।”
“पर इतना कौन कर सकता है?”
आर्या का चेहरा फीका पड़ गया। लेकिन विराज उसके पास आया और बोला—“यह झूठ है। और झूठ का पर्दाफ़ाश हम ही करेंगे।”
उन्होंने तय किया कि वे सीधा कदम उठाएँगे। उसी शाम कैंपस ऑडिटोरियम में एक ओपन टॉक था—“युवाओं की आवाज़।” आयोजकों से बात करके विराज ने कहा कि वे मंच पर बोलना चाहते हैं।
शाम को हॉल खचाखच भरा था। सबको इंतज़ार था—क्योंकि पोस्टरों ने अब तक कहानी को सनसनी बना दिया था।
विराज मंच पर गया। उसकी आवाज़ दृढ़ थी—
“हाँ, मैं फोटोग्राफर हूँ। और हाँ, मेरी तस्वीरों में कहानियाँ होती हैं। लेकिन यह रिश्ता कोई प्रयोग नहीं है। यह प्रेम है—जो न तस्वीरों का मोहताज है, न शब्दों का। यह हमारी साँसों में है, हमारी धड़कनों में है। अगर इसे दिखावा कहोगे, तो शायद प्रेम का असली अर्थ ही खो दोगे।”
तालियाँ बजीं।
फिर आर्या मंच पर गई। उसने कहा—
“पोस्टरों ने कहा कि मैं अपना सच नहीं सह पाऊँगी। लेकिन सच तो वही है जो मैंने कल स्वीकार कर लिया—मैंने अपने अतीत से बाहर निकलकर एक नया रास्ता चुना। और वह रास्ता विराज के साथ है। अगर कोई इसे प्रयोग कहता है, तो हाँ, यह प्रयोग है—दो दिलों का, जो दुनिया की परवाह किए बिना साथ चलना चाहते हैं। और यही प्रयोग सबसे बड़ा सच है।”
भीड़ गूँज उठी।
लेकिन तभी हॉल के पीछे से आवाज़ आई। निहाल खड़ा था। उसका चेहरा थका हुआ और हताश लग रहा था।
“हाँ, पोस्टर मैंने लगाए थे,” उसने कहा। हॉल में सन्नाटा छा गया। “मैंने सोचा था कि अगर मैं उनके अतीत और रिश्ते पर सवाल उठाऊँगा, तो शायद आर्या मेरे पास लौट आएगी। पर मैंने गलत किया। मैंने सिर्फ़ उसे और मज़बूत बना दिया।”
आर्या की आँखों में आँसू थे, लेकिन उसमें गुस्सा नहीं था। उसने धीरे से कहा—“निहाल, तुमने मुझे चोट दी, लेकिन तुमने मुझे सिखाया भी कि सच्चाई से भागने का कोई मतलब नहीं। आज मैं अपनी ज़िंदगी में साफ़ हूँ। और तुम्हें भी होना होगा।”
निहाल झुक गया। “माफ़ करना।” और भीड़ में खो गया।
उस शाम, जब सब शांत हो गया, आर्या और विराज जंगपुरा की बालकनी पर खड़े थे। नीचे शहर की रोशनी जगमगा रही थी, और आसमान में आधा चाँद टंगा था।
“तो अब?” आर्या ने पूछा।
“अब कोई पोस्टर नहीं। कोई डर नहीं,” विराज ने मुस्कुराकर कहा।
“हमारी अधूरी बातें?”
विराज ने उसका हाथ कसकर थाम लिया। “अब वे पूरी हो गईं।”
दोनों चुप रहे। हवा बह रही थी, लेकिन उनकी चुप्पी शब्दों से ज़्यादा बोल रही थी।
कुछ दिन बाद कैंपस में फिर एक प्रदर्शनी हुई। इस बार शीर्षक था—“तेरी मेरी अधूरी बातें : अब पूरी।”
दीवारों पर विराज की तस्वीरें थीं—जयपुर की हवेलियाँ, दिल्ली की गलियाँ, और सबसे बीच में आर्या की मुस्कान। हर तस्वीर के नीचे एक पंक्ति लिखी थी, और उन सबको मिलाकर एक पत्र बनता था—
“प्रिय आर्या,
जब मैंने पहली बार तुम्हें बरसात में देखा, तो लगा कि यह मुलाक़ात सिर्फ़ संयोग है। लेकिन अब जानता हूँ—यह किस्मत थी।
तुम्हारी आँखों में मैंने शहर का नया चेहरा देखा। तुम्हारे शब्दों ने मुझे मेरी तस्वीरों का अर्थ दिया।
आज कोई परछाई नहीं बची। सच सामने है। और सच यही है—मैं तुमसे प्रेम करता हूँ। हमेशा।”
लोग प्रदर्शनी देखकर तालियाँ बजा रहे थे। और बीच में खड़ी आर्या की आँखों से आँसू बह रहे थे, लेकिन होंठों पर मुस्कान थी।
उस रात, डायरी के आख़िरी पन्ने पर आर्या ने लिखा:
“मेरी अधूरी बातें अब पूरी हो गईं। क्योंकि मैंने उन्हें किसी और से नहीं, खुद से स्वीकार किया। और फिर किसी ने उन्हें पढ़ लिया, समझ लिया, और पूरा कर दिया। यही प्रेम है।”
वहीं विराज ने कैमरा डायरी में लिखा:
“तस्वीरें कभी पूरी नहीं होतीं, जब तक उनमें रोशनी न हो। मेरी रोशनी अब हमेशा के लिए मिल गई है—उसका नाम आर्या है।”
बालकनी से दोनों ने आसमान की ओर देखा। शहर रोशन था, और उनके भीतर का अँधेरा मिट चुका था।
कहानी समाप्त।