Hindi - प्रेम कहानियाँ

तेरा इंतज़ार

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नवनीत तनेजा


अध्याय १: “ख़ामोश दिल की रातें”

रेडियो स्टेशन की हल्की पीली रौशनी में बैठी सिया राय ने अपने सामने रखे माइक की ओर देखा। रात के दस बजने ही वाले थे, और वो पल आने वाला था जब उसकी आवाज़ शहर की अनगिनत खिड़कियों से होकर उन लोगों तक पहुँचेगी जो तन्हा हैं, अधूरे हैं, और किसी न किसी इंतज़ार में हैं। “ख़ामोश दिल” – उसका नाइट शो, शहर का सबसे भावुक रेडियो सेगमेंट बन चुका था, जहाँ लोग अपने अधूरे ख़त, दर्दभरी कविताएँ, और बेसब्र मोहब्बतें साझा करते थे। लेकिन सिया का अपना दिल भी कुछ कम ख़ामोश नहीं था। हर रात शो शुरू होने से पहले वह एक अजीब सी बेचैनी महसूस करती – मानो कोई उसकी रूह को पुकार रहा हो। “आप सुन रहे हैं ‘ख़ामोश दिल’… मैं हूँ आपकी सिया, और ये रात है हमारे और आपके अधूरे किस्सों की,” – जैसे ही उसने अपनी परिचित आवाज़ में शो की शुरुआत की, स्टूडियो का सन्नाटा टूट गया। एक-एक कर कॉल्स आने लगे, लेकिन उसका इंतज़ार एक ख़ास कॉलर के लिए था – “गुमनाम श्रोता” – जो पिछले तीन महीनों से हर रात एक कविता पढ़ता था। उसकी आवाज़ में ऐसी गहराई थी कि सिया कई बार आँखें बंद कर उस आवाज़ को छू लेने का सपना देखती थी। कोई पहचान नहीं, कोई नाम नहीं… बस उसकी कविताएँ, जैसे किसी पुराने जन्म की पुकार।

और आज भी, ठीक 10:37 पर, फोन की बत्ती फिर से चमकी। “हेलो…” सिया की आवाज़ में एक धीमी मुस्कान उतर आई। दूसरी ओर से वही शांत, गूढ़ और थोड़ी भारी आवाज़ आई – “आज की कविता का नाम है – ‘तेरा इंतज़ार’।” स्टूडियो का तापमान जैसे अचानक कुछ और गिर गया। गुमनाम श्रोता ने पढ़ना शुरू किया – “हर रात तेरी आवाज़ में एक दरिया सा बहता है / मैं शब्द बनकर बहता हूँ, तू मौन बनके सुनती है…”। उसकी आवाज़ जैसे सीधे सिया की आत्मा में उतरती गई। हर पंक्ति में इंतज़ार की वो मिठास थी जो प्रेम में अक्सर दर्द बनकर जी जाती है। सिया बोल नहीं पाई, बस सुनती रही, आँखें बंद कर। जैसे हर पंक्ति उसके लिए ही लिखी गई हो, जैसे वह जानता हो कि वो कैसे चुपचाप अपने शो के बाद खिड़की से चाँद को देखती है, जैसे उसे पता हो कि सिया अपने भीतर किसी को तलाश रही है। कविता के अंत में, जब उसने कहा – “मैं वही हूँ जो तेरे रेडियो की सुई में अटका रहता हूँ, जब बाकी चैनल खो जाते हैं… मैं वहीं ठहरा रहता हूँ, तेरा इंतज़ार करता हूँ…” – तो सिया की आँखों में पानी आ गया। शो के अंत में, उसने पहली बार उससे उसका नाम पूछने की कोशिश की, लेकिन गुमनाम श्रोता चुप रहा… फिर फोन कट गया। सिर्फ एक सन्नाटा रह गया – और उस सन्नाटे में सिया का धड़कता दिल।

शो खत्म होते-होते स्टेशन में सन्नाटा छा गया। सिया ने हेडफोन उतारा, लेकिन उसके कानों में अब भी वो कविता गूंज रही थी। वह बेमन से स्टूडियो से बाहर निकली और कॉरिडोर में चलते हुए अपने केबिन की ओर बढ़ी। वहाँ से थोड़ी दूरी पर विवान घोष, टेक्निकल टीम का एक हिस्सा, साउंड रूम में बैठा था। सिर झुकाए अपने कंप्यूटर पर कुछ कर रहा था – सामान्य, चुपचाप, और हमेशा की तरह अदृश्य। सिया ने कभी उस पर ध्यान नहीं दिया था – वो बाकी कर्मचारियों की तरह ही था, एक मशीन के पीछे छिपा इंसान। लेकिन उस रात, जैसे सिया का मन हुआ कि वो उस साउंड रूम के दरवाज़े पर रुककर कुछ कहे – पर फिर खुद को रोक लिया। दूसरी ओर, विवान ने स्क्रीन पर रिकॉर्डिंग को देखा – सिया की आवाज़ की हर परत, उसकी हर साँस, वो हर पल जब वह कविता सुनते हुए भावुक हो गई थी – सब कुछ उसने दर्ज किया था। वही था वो “गुमनाम श्रोता”, लेकिन माइक के दूसरी ओर की दुनिया से उसे डर लगता था। वो जानता था, उसकी कविताएँ सिया तक पहुँचती हैं, लेकिन अगर सच सामने आ गया… तो शायद वो जादू टूट जाएगा। इसलिए हर रात, वो अपनी पहचान छिपाकर, अपनी मोहब्बत को शब्दों में ढालकर भेजता था… और अपने कमरे में वापस लौट आता था – उसी इंतज़ार के साथ… तेरा इंतज़ार।

अध्याय २: “शब्दों के साए”

रात के सन्नाटे में अब भी सिया की आँखों से नींद कोसों दूर थी। खिड़की के बाहर धीमी हवा में पड़ोस के गुलमोहर के पत्ते हिल रहे थे, और अंदर उसकी डायरी का खाली पन्ना उसकी कलम का इंतज़ार कर रहा था। वो पन्ना जिसमें आज उसे कुछ लिखना चाहिए था — शायद गुमनाम श्रोता की कविता का जवाब, शायद अपने दिल की उलझनें। लेकिन उसकी कलम एक ही शब्द पर आकर रुक गई — ‘कौन?’। वो जानना चाहती थी कि आखिर इस आवाज़ के पीछे कौन है जो उसकी रूह को इस तरह छू जाता है। वो जानती थी कि ये कोई आम श्रोता नहीं, कोई आम प्रेमी नहीं — उसके शब्दों में ऐसा जादू है, जैसे उसके भीतर का हर कोना पहचानता हो। उसकी कविताओं में सिर्फ प्रेम नहीं था, बल्कि उसकी खामोशियों की भी समझ थी। वो उसे महसूस करता था — बिना मिले, बिना देखे। और यही बात सिया को डरा भी रही थी — कहीं वो सिर्फ आवाज़ से ही मोहब्बत तो नहीं कर बैठी?

अगले दिन ऑफिस में सब कुछ सामान्य था — वही मीटिंग्स, वही रिकॉर्डिंग शेड्यूल, वही अनगिनत मेल्स। लेकिन सिया की आँखें हर चेहरे में किसी और को तलाश रही थीं। उसे खुद समझ नहीं आ रहा था कि वो किसे ढूंढ रही है, किस शक्ल की उम्मीद कर रही है। तभी कॉरिडोर से गुजरते वक्त उसकी नजर विवान पर पड़ी, जो अपने साउंडबूथ में बैठा हेडफोन पहने कुछ एडिट कर रहा था। वो हमेशा की तरह चुप, तटस्थ और एक कोने में रहने वाला कर्मचारी था। सिया को याद नहीं था कि उसने कभी उससे सीधे बातचीत की हो, या उसके बारे में कुछ खास सोचा हो। लेकिन आज, जाने क्यों, उसकी आँखें उस पर टिकी रह गईं — क्या वजह थी, पता नहीं। कुछ तो था उसमें — शायद वही खामोशी, वही सादगी, जो उस गुमनाम आवाज़ में थी। लेकिन फिर उसने खुद को झटक लिया — नहीं, ये महज़ उसका वहम था। कोई टेक्नीशियन, कोई चुप रहने वाला शख्स ऐसा कैसे लिख सकता है? ऐसे शब्दों में खुद को कैसे ढाल सकता है? लेकिन सवाल अब उसके भीतर घर कर चुका था — और जवाब कहीं नहीं दिखता था।

दोपहर के बाद, जब सब अपने काम में व्यस्त थे, रिया उसके पास आई — अपने चिरपरिचित अंदाज़ में चाय का कप हाथ में लिए। “आजकल तू बहुत खोई-खोई सी रहती है, RJ मैडम,” रिया ने हँसते हुए कहा। सिया मुस्कराई, लेकिन कुछ बोली नहीं। रिया ने आँखें तरेरी, “क्या बात है? कहीं वो ‘गुमनाम श्रोता’ वाला मामला तो नहीं?” सिया चौंकी, “क्या मतलब?” रिया ने नज़दीक आकर धीमे स्वर में कहा, “सुन, मैं सब समझती हूँ। मैं तेरे शो की प्रोड्यूसर हूँ, तेरी आँखों की चमक देखती हूँ जब तू उसकी कविताएँ सुनती है।” सिया ने झेंपते हुए नज़रे चुराईं, “कुछ नहीं ऐसा… बस उसकी कविताएँ अच्छी लगती हैं।” रिया ने मजाक में कहा, “अच्छी लगती हैं, या दिल में घर कर गई हैं?” और ये कहकर वो चाय की चुस्की लेते हुए वहाँ से चली गई। लेकिन सिया वहीं खड़ी रही, अपनी कुर्सी के पास, और सोचती रही — क्या सचमुच वो किसी आवाज़ से जुड़ गई है? क्या शब्द कभी चेहरों से ज़्यादा सच्चे होते हैं? और अगर होते हैं, तो वो चेहरा आखिर कैसा होगा? उसी वक्त, दूसरी ओर स्टूडियो में विवान ने हेडफोन उतारे और कंप्यूटर की स्क्रीन पर वही कविता फिर से प्ले की — “मैं वही हूँ, जो तेरे रेडियो की सुई में अटका रहता हूँ…” — उसकी आँखें स्क्रीन से हटकर उस ओर टिक गईं जहाँ सिया बैठी थी। वो दूर थी, मगर उसकी हर धड़कन विवान के लफ्ज़ों में बसी थी… और उसका इंतज़ार, अब और गहरा होने लगा था।

अध्याय ३: “ऑफ़िस के सन्नाटे”

स्टेशन के ब्रॉडकास्ट फ्लोर पर हलचल हमेशा बनी रहती थी — कहीं कोई साउंड इंजीनियर हेडफोन में कुछ एडजस्ट कर रहा होता, तो कहीं कोई आरजे रिकॉर्डिंग रूम में प्रैक्टिस कर रहा होता। लेकिन उस फ्लोर का एक कोना ऐसा भी था जहाँ सन्नाटा स्थायी निवासी की तरह बस गया था — विवान घोष का वर्क स्टेशन। एक छोटा सा कमरा, चारों तरफ साउंडप्रूफिंग की काली दीवारें, और बीच में एक पुरानी-सी टेबल जिसके ऊपर एक मॉनिटर, कुछ ऑडियो केबल्स, और एक डायरी रखी होती — वही डायरी जिसमें वो रोज़ रात अपनी अगली कविता लिखता। आज उसकी उंगलियाँ थोड़ी रुकी हुई थीं — पिछली रात की कविता के बाद कुछ बदल गया था। जब सिया ने उससे पहली बार उसका नाम पूछा था, तो उसका दिल जैसे कांप गया था। वो जानता था कि ये खेल अब लंबे समय तक नहीं चल सकता, सिया उसकी पहचान जानना चाहती है… और वो, उसे खोने से डरता है। उसकी आँखें कंप्यूटर स्क्रीन पर रुक गईं — वहाँ प्लेयर में वही शो रिकॉर्डिंग खुली थी, जिसमें सिया की धीमी, थोड़ी काँपती आवाज़ में उसका सवाल था — “अगर आप मुझे सुन पा रहे हैं, तो क्या मुझे अपना नाम बता सकते हैं?” विवान ने प्ले बटन बंद कर दिया, आँखें बंद कीं… और वही शब्द फिर से उसके भीतर गूंज उठे — तेरा इंतज़ार मुझे ताउम्र मंज़ूर है, पर तुझे खोना नहीं।

दूसरी ओर, सिया की बेचैनी अब शब्दों में बदलने लगी थी। वो ऑफिस में, शो के बाहर भी अब हर उस छोटी-छोटी बात पर ध्यान देने लगी थी जो गुमनाम श्रोता की ओर इशारा कर सके। वो जानती थी कि वह कोई आम श्रोता नहीं — उसकी कविताओं में ऐसी नजाकत थी जो किसी प्रशिक्षित शायर की हो सकती थी, या किसी ऐसे व्यक्ति की जो बरसों से एक ही प्रेम में डूबा हो। लेकिन एक रेडियो शो के ज़रिए इस तरह जुड़ जाना… उसे खुद अजीब लगता था। फिर भी, वो खुद को रोक नहीं पा रही थी। हर दिन ऑफिस में किसी न किसी के लहजे, हरकत, या लिखावट को गौर से देखती — क्या ये वही हो सकता है? और हर बार जवाब अधूरा रह जाता। एक दिन, कॉरिडोर में चलते हुए उसकी नज़र फिर विवान पर पड़ी — जो एक साउंड क्लिप एडिट कर रहा था। उसकी आँखों में थकावट नहीं, एक स्थिरता थी… और उसके हाथों की हरकतों में ऐसा संयम, जैसे हर फ्रेम में दिल की धड़कन एडिट हो रही हो। सिया की नज़र उसकी डेस्क पर रखी डायरी पर गई — काली, चमड़े की जिल्द वाली — एकदम वैसी जैसी उसकी कल्पना में उस कॉलर के पास होनी चाहिए थी। लेकिन फिर उसने खुद को टोका — नहीं, ये बस एक संयोग होगा।

रिया, जो हमेशा सिया की हलचलों को बिना कहे समझ जाती थी, अब पूरे मामले में दिलचस्पी लेने लगी थी। “तू जब भी गुमनाम श्रोता की बात सुनती है, तेरे चेहरे पर एक अजीब सी चमक आ जाती है,” उसने एक दिन सिया से कहा, जब दोनों कैंटीन में बैठी थीं। सिया ने झेंपते हुए कहा, “मुझे नहीं पता रिया… लगता है जैसे वो मुझे जानता है, जैसे मेरी खामोशियों को भी सुन लेता है।” रिया मुस्कराई, “तूने कभी सोचा है, अगर वो तुझसे बहुत पास हो… शायद इसी ऑफिस में?” सिया चौंकी, “तू क्या कहना चाहती है?” रिया ने रहस्यमयी अंदाज़ में कहा, “शब्दों की पहचान करना सीख, चेहरों से पहले।” उस रात, जब सिया शो के लिए अपने केबिन में वापस गई, तो उसके अंदर एक तूफान चल रहा था। वो माइक के सामने बैठी, लेकिन शब्द गले में अटक गए। कुछ सेकेंड्स की खामोशी के बाद उसने कहा — “आज रात, मैं उस श्रोता से कुछ कहना चाहती हूँ… जिसने मेरे शब्दों को अपना बना लिया। अगर तुम वही हो जो मैं समझ रही हूँ, तो अब और मत छुपो। मैं जानना चाहती हूँ… कौन हो तुम?”। दूसरी ओर, विवान स्टूडियो के टेक रूम में बैठा सब सुन रहा था — उसकी उंगलियाँ हेडफोन के तारों पर कस गईं, लेकिन दिल… अब और छुपने को तैयार नहीं था।

अध्याय ४: “लफ़्ज़ों में उलझा दिल”

रात की हवा में एक हल्की सी कंपकंपी थी, और स्टेशन की इमारत के बाहर लगी स्ट्रीट लाइट के नीचे सिया देर तक अपनी कार का दरवाज़ा खोले खड़ी रही। शो का आज का एपिसोड उसकी अब तक की सबसे व्यक्तिगत प्रस्तुति थी — उसने रेडियो पर जो कहा, वो दिल से निकला था। आज पहली बार उसने उस गुमनाम श्रोता से सवाल नहीं, बल्कि एक इशारा किया था — कि वो जानना चाहती है, कि अब वक्त आ गया है कि परछाइयाँ नामों में ढलें। वो थकी नहीं थी, लेकिन भीतर कोई बेचैनी घुल गई थी — और उस बेचैनी का नाम वह खुद नहीं जानती थी। उसने मोबाइल में प्लेयर खोला, और वही रिकॉर्डिंग सुनी — अपनी ही आवाज़, जो आज किसी आरजे की नहीं, एक प्रेम की तलाश में भटकती आत्मा की लग रही थी। उसकी आँखें बंद हो गईं और दिल में एक लहर उठी — क्या वो मुझे सुनेगा? क्या वह जवाब देगा? और अगर देगा, तो क्या वह वो होगा, जिसकी आँखों में मैंने आज पहली बार कुछ देखा था — विवान?

दूसरी ओर, विवान घोष अपने छोटे से रूम में बैठा लगातार वही क्लिप दोहराए जा रहा था — सिया की आहिस्ता, कांपती आवाज़, जो अब किसी आरजे की पेशेवर टोन से बहुत दूर जा चुकी थी। वो जानता था — अब उसका छिपा रहना मुश्किल है। उसकी कविताओं ने जो रास्ता खोदा था, अब वो रास्ता उसे उस मोड़ पर ले आया है जहाँ या तो वो खुद सामने आए, या फिर हमेशा के लिए गुमनाम रह जाए। लेकिन दिल का क्या करे — वो हर रात लिखता तो उसी के लिए था, हर शब्द उसी से कहता था, फिर क्यों जब वक्त आया तो जुबान साथ नहीं दे रही? उसने अपनी डायरी खोली, और एक अधूरी कविता पर नज़र डाली: “तेरे नाम की पहली हरफ भी नहीं जानता कोई / पर मैं हर रोज़ तेरे चेहरे पर शब्दों की राख मलता हूँ…”। वह जानता था कि अगर अब वो कुछ नहीं कहेगा, तो ये कहानी सिर्फ लफ़्ज़ों में ही रह जाएगी। इसलिए उसने फैसला किया — आज की रात, वो फिर फोन करेगा… लेकिन इस बार, छुपेगा नहीं। उसने कविता पूरी की, आवाज़ बदले बिना माइक ऑन किया, और डायल किया वही नंबर — सिया का रेडियो शो।

“हेलो…” सिया की आवाज़ में कुछ बेसब्री थी। “मैं…” कुछ देर की खामोशी, और फिर वही असली आवाज़ — बिना बदले, बिना छुपाए — “मैं हूँ… विवान घोष…”। सिया के चेहरे से जैसे रंग उड़ गया — वो वहीं जम गई। सामने की शीशे की दीवार से विवान का प्रतिबिंब दिख रहा था — उसी कॉरिडोर से, अपनी डायरी हाथ में लिए, वो रेडियो के कंट्रोल रूम की ओर बढ़ रहा था। और फोन पर उसकी आवाज़ गूंज रही थी: “मैं ही वो श्रोता हूँ… गुमनाम, लेकिन तुम्हारे शब्दों में खोया हुआ। हर कविता जो तुमने सुनी, वो तुमसे ही निकली थी… बस मेरी कलम से।” सिया की आँखों में नमी उतर आई — आवाज़ और चेहरा एक हो गए थे। लेकिन उसने कुछ नहीं कहा — सिर्फ माइक के सामने एक कविता रखी… और पढ़ने लगी: “अगर तेरा नाम अब जाना है / तो मैं हर रात तुझे नए शब्द दूँगी…”। स्टूडियो के हर कोने में जैसे खामोश दिलों की धड़कनें गूंज उठीं — दो आवाज़ें, दो आत्माएँ… अब शब्दों में नहीं, सामने थीं… एक अधूरी मोहब्बत अब पूरी होने की ओर थी।

अध्याय ५: “लतिका की सलाह”

शाम की हल्की ठंडक के बीच सिया अपनी बालकनी में खामोश बैठी थी। सामने चाँद अपनी अधूरी रौशनी के साथ धीरे-धीरे आसमान पर चढ़ रहा था, और नीचे गली के कोने से चायवाले की धीमी आवाज़ आती रही — “कटिंग… कटिंग चाय…”। लेकिन सिया के भीतर अब भी उसी आवाज़ की गूंज थी — “मैं हूँ… विवान घोष।” पिछले चौबीस घंटे जैसे किसी सपने में बीते थे। जो गुमनाम था, उसने खुद को उजागर कर दिया। जिस आवाज़ ने दिल को छुआ था, वो अब एक चेहरा बन गई थी। लेकिन इस पहचान के साथ जो डर आया, वह नया था। विवान… वही विवान जो इतने समय से उसके ऑफिस में था, हर दिन उसके सामने से गुजरता रहा, और कभी कुछ कहा नहीं। क्या यही चुप्पी थी जिसकी वह कविताओं में तारीफ करती रही? क्या वही आंखें थीं जो हर रोज़ स्क्रीन के पीछे से उसे देखती थीं? सिया के लिए ये समझना कठिन था — क्या वो अब भी उसी मोहब्बत को महसूस कर पा रही है, जो एक गुमनाम आवाज़ से थी… अब जब वो नाम और शक्ल पा चुकी है?

उसी समय भीतर से दादी — लतिका राय — की आवाज़ आई, “सिया बेटा, इतनी देर से बाहर बैठी है, ठंडी लग जाएगी।” सिया ने मुस्कराकर सिर हिलाया और धीरे से कमरे में लौट आई। दादी उसे देखकर मुस्कराईं, “आज तेरे चेहरे पे कुछ उलझन सी है।” सिया चुप रही, लेकिन लतिका ने उसका चेहरा पढ़ लिया। “कोई खास मिला क्या?” सिया की आंखें एक पल को डबडबा गईं, फिर उसने कहा, “दादी… जिसे मैं सिर्फ आवाज़ से जानती थी, वो अब एक चेहरा बन गया है। और अब… पता नहीं क्यों, मैं डर रही हूँ।” लतिका धीमे-धीमे चलते हुए उसके पास आकर बैठीं, और सिया का हाथ थाम लिया। “प्यार अगर शब्दों में शुरू हुआ है तो चेहरों से डरना नहीं चाहिए। शब्द असली होते हैं, चेहरों को तो वक़्त बदल देता है। लेकिन जो तेरे मन को छू गया, वो असली है, सिया।” सिया ने धीरे से पूछा, “अगर वो इंसान मेरे पास रहा, और मैं कभी पहचान ही नहीं पाई तो क्या इसका मतलब ये है कि मैं कभी देख नहीं पाई कि मुझे कौन देख रहा है?” लतिका मुस्कराईं, “बेटा, कभी-कभी सबसे गहरा रिश्ता वहीं से शुरू होता है जहाँ हम सबसे ज़्यादा अनदेखा कर देते हैं। वो जो तुझे बरसों से देख रहा था… उसने कभी माँगा नहीं, बस लिखा… तुझे महसूस किया। क्या तू ऐसा किसी और में पाएगी?”

उस रात, पहली बार सिया ने लतिका की गोद में सिर रखकर नींद की कोशिश की। भीतर कहीं एक गहराई में कुछ स्थिर होने लगा था। विवान की डायरी अब उसके शब्दों से बाहर निकल रही थी — उसकी कविताएं अब किसी शो की रचना नहीं, सिया की ज़िंदगी की परछाई बन चुकी थीं। सिया को याद आया जब पहली बार उसने गुमनाम श्रोता की कविता सुनी थी, तो उसे लगा था जैसे कोई उसकी खामोशियों को सुन रहा है। अब वो समझ पाई थी, कि सुनने और महसूस करने में क्या फ़र्क होता है। विवान ने सुनने से कहीं आगे जाकर उसे जिया था — हर शब्द में, हर साउंड वेव में, हर उस सांस में जो रिकॉर्डिंग में कैद हो गई थी। अगली सुबह, सिया ने फोन उठाया और एक मैसेज लिखा — “शब्दों में जितना पास था तू, अब वो दूरी चेहरों से क्यों बन रही है? अगर तेरा इंतज़ार मुझे सुनाई देता था, तो अब मैं भी तुझे जवाब देना चाहती हूँ — एक मुलाकात के ज़रिए, बिना माइक, बिना कविताओं के।” और ‘सेंड’ पर क्लिक करने के साथ ही, एक नया अध्याय शुरू होने को तैयार था — जहां इंतज़ार अब दीवार नहीं, पुल बनने जा रहा था।

अध्याय ६: “रिया की खोज”

सिया और विवान के बीच जो नज़र नहीं आए, पर महसूस किए जाने वाले रिश्ते की दास्ताँ धीरे-धीरे ऑफिस के माहौल में भी हलचल पैदा करने लगी थी। इस बीच, रिया कपूर, जो हमेशा से सिया की सबसे करीबी दोस्त और शो की प्रोड्यूसर रही थी, इस गुमनाम कहानी के राज़ को लेकर काफी जिज्ञासु हो चुकी थी। उसे लग रहा था कि ‘गुमनाम श्रोता’ और विवान के बीच कोई नजदीकी रिश्ता छुपा हुआ है, लेकिन उसे इसका सबूत चाहिए था। एक दिन, जब सिया मीटिंग में व्यस्त थी, रिया ने विवान के साउंड रूम में पहुंचकर वहां रखे कंप्यूटर की स्क्रीन पर गौर किया। उसने पाया कि ‘गुमनाम श्रोता’ के कॉल टाइम और विवान के काम के घंटों में नाजुक मेल था। साथ ही, विवान की कुछ ऑडियो फाइल्स में भी उस गुमनाम आवाज़ के कुछ अंश थे जिन्हें उसने अपने कंप्यूटर में सेव किया था। ये सब देखकर रिया की जिज्ञासा और बढ़ गई।

फिर उसने ऑफिस के अंदर और बाहर छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना शुरू किया। उसने देखा कि विवान, जो आमतौर पर बहुत शांत रहता था, जब भी ‘ख़ामोश दिल’ का शो शुरू होता था, उसकी निगाहें माइक वाले कमरे की ओर जाती थीं। उसने कई बार देखा कि विवान सिया की बातें चुपचाप सुनता रहता है, चेहरे पर एक अधूरी मुस्कान लिए। ऐसे कई संकेत थे जो बताने लगे थे कि विवान के और ‘गुमनाम श्रोता’ के बीच गहरा जुड़ाव है। रिया ने सोचा कि इस राज़ को सिया को बताना ज़रूरी है ताकि वे दोनों अपनी भावनाओं के साथ खुलकर आगे बढ़ सकें।

वहीं, सिया को भी धीरे-धीरे एहसास होने लगा था कि विवान सिर्फ ऑफिस का टेक्नीशियन नहीं, बल्कि उसका वह गुमनाम श्रोता है जिसकी कविताओं में वह खोई रहती है। मगर उसका डर और संकोच भी कम नहीं था। इस बीच, रिया ने सिया से मिलकर उस राज़ को धीरे-धीरे उजागर करना शुरू किया। “तुम्हें पता है, विवान वही है जो तुम्हारे लिए कविताएं पढ़ता है, है ना?” उसने एक दिन हँसते हुए कहा। सिया की आंखों में एक नमी दौड़ी, और वह कुछ बोल न सकी। इस राज़ के सामने आने से उनके दिलों की दीवारें धीरे-धीरे टूटने लगीं, और अब इंतज़ार की कहानी एक नई मोड़ पर आने वाली थी — एक बेआवाज़ इकरार के करीब।

अध्याय ७: “बेआवाज़ इकरार”

रेडियो स्टेशन के कॉरिडोर में सिया और रिया साथ-साथ चल रही थीं। रिया ने अभी-अभी सिया को सच बता दिया था — कि ‘गुमनाम श्रोता’ कोई और नहीं, बल्कि विवान घोष है। सिया के मन में हलचल मची हुई थी। ऑफिस के उस शांत-सी छवि वाले युवक के पीछे वो आवाज़, वो मोहब्बत छुपी थी, जिसकी उसने कई रातें बेकरार होकर सुनी थीं। लेकिन उसे विश्वास करना मुश्किल था कि जिस आदमी के करीब वह अक्सर रहती थी, उसके भीतर इतने गहरे जज़्बात छुपे थे।

शो के अगले एपिसोड में, सिया ने महसूस किया कि वह खुद अपनी आवाज़ में एक नई नाज़ुकियत लेकर आई है। विवान भी, जो स्टूडियो के पीछे वाले रूम में था, अपने दिल की धड़कन को दबाए हुए था। कोई शब्दों का इज़हार नहीं हुआ, कोई खुला इकरार नहीं, पर दोनों के बीच एक खामोशी ने एक नई भाषा बोलनी शुरू कर दी थी। उस रात, जब सिया ने अपनी कविताओं में पहली बार सीधे तौर पर लिखा — “तुम्हारी आवाज़ जो गुमनाम नहीं, अब मेरी दुनिया की पहचान है” — विवान ने महसूस किया कि उसकी चुप्पी का वक्त अब खत्म हो चुका है।

लेकिन फिर भी, कोई खुला इज़हार नहीं हुआ। वे दोनों एक-दूसरे की मौजूदगी को महसूस करते रहे, पर अनकहे जज़्बातों ने एक बेआवाज़ इकरार बना लिया। ऑफिस के सन्नाटों में, जब कोई नज़र नहीं होती, तब दोनों की निगाहें मिलतीं और कहानियां बिना बोले ही आगे बढ़ जातीं। उस रात, सिया ने रेडियो पर एक कविता पढ़ी — “अगर तुम कहीं छुपे हो, तो निकल आओ, तेरे इंतज़ार ने मेरी तन्हाई को भी आवाज़ दी है।” और विवान, जो उस आवाज़ को सुन रहा था, अपने दिल की गहराइयों से एक हल्की मुस्कान छिपा नहीं पाया। इंतज़ार अब खामोशी के पीछे नहीं था, बल्कि आने वाले कल की पहली उम्मीद बन चुका था।

अध्याय ८: “तेरा इंतज़ार”

नवेली धूप की पहली किरणें रेडियो स्टेशन के कांच पर पड़ रही थीं, जब विवान धीरे-धीरे कंट्रोल रूम के दरवाज़े की ओर बढ़ा। उसके हाथ में एक फोल्डर था — जिसमें वो कविताओं की कागज़ों को सँजोए हुए था, जो उसने वर्षों तक चुपके से लिखा था। अंदर से हल्की-हल्की धुन बज रही थी — वही सिया की आवाज़, जो पिछले महीनों से उसके दिल के हर एक कोने में बस गई थी। आज वह कुछ अलग करने आया था, वो बात जो शब्दों में नहीं, लेकिन सामने आकर करना चाहता था। दरवाज़ा खोलते ही उसकी नज़रें उस पर पड़ीं — सिया, जो माइक के सामने बैठी, अपनी आंखों में उम्मीद लिए, उसे देख रही थी।

धीरे-धीरे, बिना किसी बात के, वे दोनों एक-दूसरे के करीब आ गए। वह माइक की आड़ में छुपे प्यार को अब अपने कदमों के साथ उजागर करना चाहते थे। विवान ने अपनी कविताओं की डायरी खोली, और पहली पंक्ति पढ़ी — “तेरा इंतज़ार था मेरी हर साँस में, तेरी हँसी थी मेरे हर गीत में।” सिया की आंखों में चमक और गहराई दोनों समा गए। वह समझ चुकी थी कि वो सिर्फ आवाज़ नहीं थी, बल्कि ज़िंदगी का वह हिस्सा था जिसके लिए हर रात उसने अपने दिल की परतें खोली थीं।

आखिरकार, उनके बीच जो अनकहा रहा, वह खामोशी टूट गई। एक छोटी सी मुस्कान, एक धीरे से लिया गया हाथ, और दुनिया की सबसे खूबसूरत कविता बन गई उनकी कहानी। रेडियो की दुनिया में गुमनाम प्रेम का सफर अब अपना अंत नहीं, बल्कि एक नयी शुरुआत था। इंतज़ार खत्म हो गया था — अब सिर्फ साथ थे, एक साथ, सदा के लिए।

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