विनीत त्रिपाठी
बनारस की रातें हमेशा से रहस्यमयी रही हैं, मानो इस शहर की गलियों, घाटों और हवाओं में कोई अदृश्य कहानी हर रात जन्म लेती हो। गंगा का किनारा, जहाँ दिन में हजारों श्रद्धालु पूजा-अर्चना में लीन रहते थे, रात होते ही किसी प्राचीन ग्रंथ की तरह रहस्य में डूब जाता था। वहीं पर स्थित थी वह हवेली, जिसे लोग ठाकुर हवेली के नाम से जानते थे। कभी इस हवेली में संगीत की महफिलें सजती थीं, बड़े-बड़े उस्ताद यहाँ अपनी कला का प्रदर्शन करते थे, और रियाज की स्वर लहरियाँ हवेली की दीवारों से टकराकर बनारस की हवाओं में घुल जाया करती थीं। अब वही हवेली वक्त की मार खाकर एक खंडहर में बदल चुकी थी। हवेली की दीवारों से पलस्तर झड़ चुका था, लकड़ी के विशाल दरवाजे दीमकों से खाए गए थे और उनकी चरमराहट हर रात की नीरवता को तोड़ती थी। खिड़कियों की झिलमिलाती जालियों के पीछे से अक्सर कोई साया झांकता सा लगता था, मानो हवेली अब भी अपने स्वर्णिम अतीत के किसी पात्र को पुकार रही हो। उसी हवेली में रहते थे पंडित रघुनाथ शरण, जो कभी बनारस के प्रसिद्ध संगीताचार्य हुआ करते थे। उनके गायन में ऐसा जादू था कि श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाया करते। अब उम्र के सातवें दशक में पहुँचकर उनका संसार सिर्फ उनके तानपूरा और उनके संगीत कक्ष तक ही सिमट गया था। उस रात, जब बनारस के घाटों पर आरती की गूँज धीरे-धीरे मंद पड़ गई थी और गंगा की लहरें ठंडी हवाओं के संग बह रही थीं, हवेली में एक अकेले दीपक की लौ झिलमिला रही थी। रघुनाथ शरण अपने संगीत कक्ष में बैठे थे, और तानपूरा की झंकार पर राग मल्हार का अभ्यास कर रहे थे। उनके सुर कमरे की छत से टकराकर हवेली की वीरान दीवारों में खो जा रहे थे। उनकी आवाज़ में अब भी वह गहराई थी, वह दर्द था जो केवल एक साधक की आत्मा से निकल सकता था। दीपक की लौ कभी तेज होती, कभी मंद। खिड़की से आती ठंडी हवा उस लौ को कंपकंपा देती और वह कांपती रौशनी कमरे में अजीब सा साया बना देती। रघुनाथ शरण ने आँखें बंद कर लीं, उनके होंठों पर मल्हार की अलाप थी — “मियाँ की मल्हार… बादल बरसें…” उनकी उंगलियाँ तानपूरा के तारों पर थिरकतीं और स्वर धीरे-धीरे हवेली में फैलते जाते। मगर उस रात कुछ अलग था। सुरों में वह प्रवाह नहीं था जो हमेशा हुआ करता था। तानपूरा का एक तार बार-बार फिसल रहा था। रघुनाथ शरण की भवें तन गईं। वह कुछ समझ नहीं पा रहे थे। उन्होंने तार को कसने की कोशिश की, तभी खिड़की के बाहर किसी साये की हल्की सी झलक पड़ी। वह चौंक कर खिड़की की ओर देखने लगे। बाहर कुछ नहीं था, सिर्फ काली रात और गंगा की ओर बहती हवा की सनसनाहट। उन्होंने फिर रियाज शुरू करने की कोशिश की, लेकिन मन अशांत हो उठा था। उनका मन कह रहा था — इस रात की हवा में कोई अजीब साजिश तैर रही है।
रात का सन्नाटा अब और गाढ़ा हो चला था। हवेली के पुराने दरवाजे पर एक धीमी दस्तक हुई। रघुनाथ शरण ने चौंक कर दरवाजे की ओर देखा। आवाज़ इतनी हल्की थी कि लगा शायद हवा की शरारत हो। उन्होंने तानपूरा नीचे रखा और दरवाजे की ओर बढ़े। लेकिन दरवाजे के पास पहुँचते ही कदम रुक गए। उनके दिल की धड़कन तेज होने लगी। उन्होंने कँपकँपाते हाथों से दरवाजे की सांकल खोली, लेकिन बाहर कोई नहीं था। दरवाजे के सामने की वीरान गैलरी सिर्फ ठंडी हवा से भरी थी, और दूर गंगा की लहरों की आवाज़ कानों में पड़ रही थी। रघुनाथ शरण ने दरवाजा बंद किया और लौटकर तानपूरा उठाया। मगर तानपूरा अब जैसे अपनी भाषा भूल चुका था। तारों से निकली ध्वनि बिखरी हुई थी। उन्होंने फिर से सुर साधने की कोशिश की, मगर वह आवाज़, वह गूँज अब टूट चुकी थी। अचानक, बिना किसी आहट के, कमरे की हवा में एक अजीब सनसनी भर गई। उन्हें लगा कोई उनके पीछे खड़ा है। उन्होंने धीरे से मुड़कर देखा, मगर कमरे में कोई नहीं था। तभी उनकी गर्दन पर किसी ने झपट्टा मारा। एक मजबूत तार उनकी गर्दन में कसता चला गया। वह तार वही तानपूरा का टूटा तार था, जो किसी ने मौके पर हथियार बना लिया था। रघुनाथ शरण ने छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन उनकी बुजुर्ग उँगलियाँ उस कसाव को ढीला न कर सकीं। उनकी आवाज़ गले में घुट कर रह गई। उनके तानपूरा के सुर अब टूटकर बिखर चुके थे। कमरे में उनका संघर्ष कुछ ही पलों का था। फिर सन्नाटा पसर गया। तानपूरा की टूटी हुई झंकार अब भी दीवारों में गूँज रही थी।
कमरे में अगरबत्ती की खुशबू फैली थी जो अब धीरे-धीरे बुझ रही थी। दीपक की लौ बुझते-बुझते काँप रही थी। हवेली की दीवारें चुप थीं, मगर उस रात वे सब कुछ देख रही थीं। हवेली के बाहर काली रात गंगा किनारे की ओर बह रही थी। ठंडी हवा खिड़की के पल्लों को खड़काती और अंदर कमरे की मृत शांति को और गहरा कर देती। हवेली का दरवाजा यूँ ही आधा खुला था, जैसे खुद हवेली भी अब अपने इस संगीताचार्य के बिछड़ने पर शोक मना रही हो। दूर घाटों पर कहीं कोई साधु अपनी माला जप रहा था। बनारस की रात जैसे रुक गई थी। हवेली के बाहर की गली में किसी आवारा कुत्ते की भौंक सुनाई दी। और फिर फिर से वह सन्नाटा जिसने पूरी हवेली को अपनी गिरफ्त में ले लिया।
सुबह की पहली किरणें जब गंगा के जल पर पड़ने लगीं और घाटों पर फिर से जीवन की हलचल शुरू हुई, तब हवेली में वह खामोशी अब भी बनी हुई थी। नौकर गोपाल रोज की तरह पंडित जी के लिए चाय लेकर आया। दरवाजे को थोड़ा धक्का दिया तो वह चरमराता हुआ खुल गया। सामने जो दृश्य था, उसने गोपाल की चीख को हवेली की दीवारों में गूँजा दिया। पंडित रघुनाथ शरण का शरीर रक्तरंजित पड़ा था, गले पर तानपूरा के तार के निशान साफ दिखाई दे रहे थे। पास ही टूटा हुआ तानपूरा और उसके बिखरे तार जैसे खुद गवाही दे रहे थे कि रात में सुरों की हत्या हुई है। हवेली के लोग दौड़े, शोर मचा। किसी ने पुलिस को खबर दी। मगर हवेली की दीवारें अब भी चुप थीं, क्योंकि उन पर वह सुर अंकित था जो उस रात पंडित जी के जीवन का अंतिम राग बन चुका था।
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सूरज की पहली किरणें जब गंगा की लहरों पर पड़ने लगीं और शहर की गलियों में दिन की चहल-पहल शुरू होने लगी, तब ठाकुर हवेली की वीरानी को भेदती हुई एक दिल दहला देने वाली चीख ने पूरे मोहल्ले को झकझोर दिया। गोपाल की वह चीख हवेली की गूँजती दीवारों से टकराकर गलियों तक पहुँच गई, और लोग दौड़ते हुए हवेली की ओर बढ़े। हवेली के मुख्य दरवाजे पर खड़े गोपाल के चेहरे का रंग उड़ चुका था, आँखें भय से फैल गई थीं और हाथ काँप रहे थे। कुछ ही देर में हवेली के अंदर लोगों का जमावड़ा लग गया। सबकी नजरें उस कमरे पर जा टिकीं जहाँ पंडित रघुनाथ शरण का शव पड़ा था। कमरे में फैली थी सिर्फ खून की गंध, टूटा हुआ तानपूरा और बिखरे तारों की गवाही। हवेली की दीवारों पर अब भी तानपूरा के सुरों की टूटी-फूटी गूँज लटकी हुई थी, मानो वे भी हत्या के इस खौफनाक मंज़र को देख कर स्तब्ध थीं। कमरे की खिड़की से आती गंगा की ठंडी हवा अब इस खून से सने सुरों को बाहर घाटों तक ले जा रही थी। चंद ही मिनटों में यह खबर पूरे इलाके में फैल गई कि बनारस का नामी संगीताचार्य अपने ही रियाज कक्ष में मृत पाया गया है। लोग तरह-तरह की बातें करने लगे — किसी ने कहा यह पुरानी दुश्मनी का नतीजा है, कोई बोला हवेली में जरूर किसी आत्मा का साया है जिसने अपना प्रतिशोध लिया है। तभी भीड़ को चीरते हुए बनारस कोतवाली से इंस्पेक्टर विनीत मिश्रा अपनी टीम के साथ हवेली में दाखिल हुए। विनीत मिश्रा एक तेज-तर्रार अफसर थे, जिनकी आंखें किसी भी घटना की परतों को चीरने की आदत बना चुकी थीं। उन्होंने एक नजर कमरे पर डाली और गहरी सांस ली। उनके लिए यह एक साधारण हत्या नहीं थी; इस हत्या में कुछ ऐसा था जो बनारस की रहस्यमयी गलियों और हवेली की प्राचीनता में छिपे अंधेरों से जुड़ा लगता था।
इंस्पेक्टर मिश्रा ने सावधानी से कमरे का मुआयना शुरू किया। उन्होंने देखा पंडित जी के गले पर तार के गहरे निशान थे, और हाथों की अंगुलियों में खून के धब्बे। उनके नाखूनों में कुछ रेशे फंसे थे, जैसे उन्होंने अपने हत्यारे से संघर्ष किया हो। तानपूरा पास ही टूटा पड़ा था, उसके तार अस्त-व्यस्त बिखरे थे। कमरे में फैली हुई धूल में कुछ अजीब सी आकृतियाँ थीं — जैसे किसी ने नंगे पाँव दबे पाँव चलकर कमरे में प्रवेश किया हो। खिड़की की जाली पर उँगलियों के निशान भी थे, जो इस ओर इशारा कर रहे थे कि कातिल खिड़की से ही आया या गया होगा। इंस्पेक्टर मिश्रा ने अपने साथ आए कॉन्स्टेबल से कहा, “हर चीज़ को बिना छुए फोटोग्राफ करवाओ, और आसपास की जमीन पर भी निशानों को ध्यान से देखो। इस हवेली की हर परछाईं में सुराग छिपा हो सकता है।” बाहर खड़ी भीड़ से सवाल-जवाब शुरू हुए। कोई ठोस गवाह सामने नहीं आया। लोगों की बातें अटकलों पर आधारित थीं — “पंडित जी के पुराने शिष्य नाराज थे”, “कोई हवेली की जायदाद का लोभी था”, “यह जरूर हवेली के अंदर का ही कोई काम है।” गोपाल से जब सवाल किया गया, तो वह काँपती आवाज़ में बोला, “साहब, मैं तो सुबह की चाय बनाने में लगा था। हर रोज की तरह पंडित जी के लिए चाय लेकर कमरे में गया तो यह मंज़र देखा। दरवाजा खुला था साहब, पर रात में तो बंद ही था।” विनीत मिश्रा ने गहरी नजर से गोपाल को देखा — वह बूढ़ा नौकर सच बोल रहा था या झूठ, यह वह जल्द ही जानना चाहता चाहता।
इंस्पेक्टर मिश्रा की नजर कमरे की एक पुरानी अलमारी पर पड़ी, जिसका दरवाजा थोड़ा सा खुला था। अंदर पुराने रागों की किताबें, नोटेशन की पांडुलिपियाँ और कुछ हस्तलिखित पत्र थे। मिश्रा ने दस्तानों से एक पत्र उठाया। यह पंडित जी की अपनी लिखावट में था, पर उसमें कुछ टूटी-फूटी पंक्तियाँ थीं — “रागों में बसता है जीवन का सार… पर हर राग में छुपा है एक रहस्य… और उस रहस्य का पहरेदार वही है जो सुरों को जानता है…” यह पत्र अधूरा था, जैसे पंडित जी ने इसे लिखते-लिखते छोड़ दिया हो या किसी ने उन्हें बीच में रोक दिया हो। इंस्पेक्टर की जिज्ञासा बढ़ गई। यह कोई साधारण हत्या नहीं थी। इस हत्या के सुरों में कोई गहरी साजिश छुपी थी। उन्होंने आदेश दिया कि हवेली के हर हिस्से को खंगाला जाए, खासकर वह पुराना संगीत कक्ष, जिसकी दीवारों पर पुराने उस्तादों की तस्वीरें थीं, और जो सालों से बंद पड़ा था। बाहर सूरज अब तेज हो गया था, मगर हवेली की दीवारों के साये और गहरे होते जा रहे थे। पुलिस ने कमरे को सील कर दिया। फोरेंसिक टीम बुलाई गई। इंस्पेक्टर मिश्रा को महसूस हुआ कि यह मामला बनारस की पुरानी धरोहरों, सुरों और हवेली की परछाइयों से जुड़ा एक गहरा जाल है।
दिन ढलते-ढलते पूरी हवेली पर मातम का साया छा गया। गंगा की लहरों पर सूरज की आखिरी किरणें नाच रही थीं, और हवेली की खिड़कियों से उन किरनों की परछाइयाँ कमरे में पड़ रही थीं जहाँ तानपूरा टूटा पड़ा था। पुलिस ने पंडित जी के पुराने शिष्यों की सूची तैयार की। उनकी तलाश शुरू हुई। हवेली के पुराने नौकरों से पूछताछ हुई। हर कोई अपनी-अपनी तरह की कहानियाँ सुनाने लगा। कोई बोला, “पंडित जी के रागों में कोई जादू था। जो भी सुनता, उस पर असर होता।” कोई कहता, “पिछले कुछ हफ्तों से हवेली में अजीब-अजीब आवाजें आती थीं, जैसे रात के सन्नाटे में कोई राग बजा रहा हो।” इंस्पेक्टर मिश्रा के कान खड़े हो गए। क्या यह हत्या किसी पुराने राग के रहस्य से जुड़ी थी? क्या यह संगीत के संसार की कोई पुरानी दुश्मनी थी? या हवेली की दीवारों में छिपा कोई पुराना खजाना इस खून का कारण बना? मिश्रा ने तय किया कि अब वे खुद पंडित जी के जीवन की परतें एक-एक कर खोलेंगे। बनारस की रातें अब एक नए रहस्य की गवाह बनने जा रही थीं, और हवेली की दीवारों पर चिपके खून से सने सुर अब इस कहानी के सुराग बनेंगे।
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ठाकुर हवेली की दीवारों पर शाम की परछाइयाँ धीरे-धीरे लहराने लगी थीं, मानो उन परछाइयों में भी सुरों की कोई अदृश्य लय समाई हो। इंस्पेक्टर विनीत मिश्रा अपनी नोटबुक और फाइलों के साथ हवेली के अंदर गहराते अंधेरे में खुद को डुबोते जा रहे थे। हवेली का संगीत कक्ष, जो वर्षों से बंद पड़ा था, आज उनके सामने एक ऐसा रहस्य बनकर खड़ा था जो पंडित रघुनाथ शरण की हत्या की गुत्थी को सुलझाने की कुंजी बन सकता था। मिश्रा ने पुराने, जंग लगे ताले को तुड़वाया और दरवाजे को धकेला। दरवाजे की चरमराहट ने हवेली के सूनेपन को और गहरा कर दिया। जैसे ही दरवाजा खुला, भीतर से उठती धूल और बासी गंध ने बीते वक्त की परतें उघाड़ दीं। कमरा अब भी वही था — चारों ओर दीवारों पर पुराने उस्तादों की पीली पड़ चुकी तस्वीरें, कोनों में रखे टूटे-फूटे वाद्य यंत्र और बीचोंबीच पड़ा एक बड़ा रियाज आसन, जिस पर अब भी पंडित जी के तानपूरा का साया महसूस हो रहा था। मिश्रा ने कमरे पर नजर दौड़ाई, और उनकी नजर उस कोने पर टिक गई जहाँ एक पुरानी अलमारी अधखुली पड़ी थी। वह अलमारी पंडित जी की निजी तालीम और रागों की पांडुलिपियों का घर थी। मिश्रा ने दस्तानों से अलमारी की धूल झाड़ी और भीतर से एक-एक कागज, नोटेशन और पत्र बाहर निकाले। उन कागजों में एक पुरानी डायरी भी मिली, जिस पर लिखा था — “रक्तराग का रहस्य”। यह शब्द पढ़ते ही मिश्रा की धड़कन तेज हो उठी। वह डायरी का पहला पन्ना पलटते ही जैसे पंडित रघुनाथ शरण की आत्मा की आवाज़ सुनने लगे। डायरी में लिखा था — “हर राग अपने में एक शक्ति समेटे है। पर रक्तराग वह राग है जो जीवन और मृत्यु की सीमाओं को भी लांघ सकता है। इसे गाना या बजाना साधारण संगीत नहीं, आत्मा की अग्नि में उतरना है। मैंने वर्षों इसकी साधना की, पर अब महसूस करता हूँ कोई मेरी इस साधना का गलत लाभ उठाना चाहता है।” मिश्रा की आँखों में एक नई रोशनी चमकी — क्या यही राग पंडित जी की मौत की वजह बना? क्या उनके किसी शिष्य या विरोधी ने इस रहस्य को पाने के लिए उन्हें मार डाला?
इंस्पेक्टर मिश्रा ने उस रात हवेली में ही डेरा डाल दिया। उन्होंने हवेली के हर कमरे को खंगालने का आदेश दिया। उनकी टीम ने हवेली की छत, तहखाने और पुराने तहखाने की दीवारों तक को खुरच डाला, मगर कोई ठोस सुराग हाथ नहीं लगा। रात गहराती चली गई। हवेली के बाहर बनारस की गलियों से आती घंटियों की आवाजें और घाटों पर हो रही आरतियों की ध्वनियाँ हवेली के अंधेरे को और रहस्यमय बना रही थीं। मिश्रा ने अपनी टीम को विश्राम दिया और खुद संगीत कक्ष में आकर बैठ गए। वह कमरे की हर चीज को महसूस करना चाहते थे, जैसे खुद उस रात के हर पल को जीना चाहते हों। खिड़की से आती चाँदनी की किरण कमरे में पड़े धूल भरे वाद्य यंत्रों पर चमक रही थी। तभी उनकी नजर एक कोने में पड़े वीणा पर पड़ी, जिसकी तारें टूटी हुई थीं पर उसके नीचे जमीन पर एक छोटा सा धातु का पेंडेंट पड़ा था। मिश्रा ने पेंडेंट उठाया — उस पर एक अनोखा निशान खुदा था, एक प्राचीन राग की प्रतीक धुन का चिन्ह। उन्होंने फौरन उसे सबूत के तौर पर रख लिया। क्या यह पेंडेंट हत्यारे का सुराग हो सकता था? पंडित जी की डायरी और यह पेंडेंट दोनों अब उन्हें एक अदृश्य धागे से जोड़ रहे थे। हवेली की रात और गहरी हो चली थी। संगीत कक्ष की हवा में अब भी टूटे सुरों की परछाइयाँ तैर रही थीं। मिश्रा ने महसूस किया कि हवेली की हर दीवार, हर कोना जैसे कुछ कहना चाहता है — पर उनकी आवाजें अब तक दबा दी गई थीं, किसी ने अपने रहस्य को गहरे दफना रखा था।
अगली सुबह होते-होते मिश्रा ने शहर में फैले पंडित जी के पुराने शिष्यों की तलाश तेज कर दी। एक-एक करके शिष्य पूछताछ के लिए बुलाए जाने लगे। सबसे पहले आया राजीव दुबे, जो पंडित जी का सबसे होनहार शिष्य माना जाता था। पर पिछले कुछ वर्षों से वह उनसे नाराज चल रहा था क्योंकि पंडित जी ने उसे किसी महत्वपूर्ण संगीत सभा में गाने का अवसर नहीं दिया था। मिश्रा ने उसकी आंखों में झाँका और पूछा, “पंडित जी से आखिरी बार कब मिले थे?” राजीव ने घबराई आवाज में कहा, “साहब, तीन महीने पहले। मैंने उनसे क्षमा माँगी थी, पर वह मुझसे नाराज ही रहे।” मिश्रा ने उसके बयान को दर्ज किया, पर उसके चेहरे की बेचैनी को गौर से देखा। फिर आया आदित्य सेन, जो पंडित जी का शिष्य तो नहीं था, पर उनके संगीत की आलोचना करता था। वह कहता था कि पंडित जी पुराने रागों के नाम पर अंधविश्वास फैलाते थे। आदित्य से भी पूछताछ हुई, मगर कोई ठोस बात सामने नहीं आई। मिश्रा अब उलझन में थे। क्या हत्या किसी शिष्य ने की थी? या कोई बाहरी व्यक्ति जो रक्तराग का रहस्य हासिल करना चाहता था? हवेली के संगीत कक्ष में मिली डायरी और पेंडेंट के सुराग अब उन्हें बनारस की गलियों के उन कोनों की ओर खींच रहे थे जहाँ संगीत सिर्फ कला नहीं, साधना और कभी-कभी अंधकार का रास्ता बन जाता था। मिश्रा ने तय किया कि अगली रात वह खुद संगीत कक्ष में रुककर इस रहस्य की परछाइयों को महसूस करेगा।
रात फिर से बनारस पर उतर आई थी। गंगा के घाटों पर दिए बह रहे थे और हवेली की खिड़कियों से आती हवा में वह संगीत तैर रहा था जो अब सिर्फ यादों में बचा था। इंस्पेक्टर मिश्रा ने संगीत कक्ष में दीपक जलाया और पंडित जी के तानपूरा को उठाकर सुर छेड़ने की कोशिश की। जैसे ही तानपूरा के तारों को छुआ, कमरे में एक अजीब सी कंपन हुई। खिड़कियों की जाली हिलने लगी, और कमरे में एक सूनी सी धुन फैल गई — जैसे कोई अदृश्य उस्ताद रात की खामोशी में राग छेड़ रहा हो। मिश्रा का मन आशंकाओं से भर गया। क्या हवेली के सुरों की परछाइयाँ सच में जीवित थीं? क्या यह राग अब भी किसी को अपनी गिरफ्त में लेने के लिए गूंज रहा था? रात के गहराते सन्नाटे में इंस्पेक्टर को लगा कि रहस्य की पहली परतें अब खुलने लगी हैं। मगर यह शुरुआत थी एक ऐसे रास्ते की जो खून, राग और हवेली की परछाइयों से होकर गुज़रता था।
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रात का सन्नाटा ठाकुर हवेली की दीवारों पर पसरा हुआ था और इंस्पेक्टर विनीत मिश्रा अपने भीतर की बेचैनी को दबाते हुए फिर उसी संगीत कक्ष में बैठा था जहाँ अब तक मौत की गूँज गूंज रही थी। खिड़की से आती चांदनी की रेखाएं टूटी वीणा, तानपूरा और अलमारी पर बिखरी पुरानी पांडुलिपियों पर पड़ रही थीं। हर चीज़ जैसे पंडित रघुनाथ शरण की अनुपस्थिति को रो रही थी। मिश्रा की नजरें उस अलमारी पर टिक गईं, जहाँ से रक्तराग की डायरी मिली थी। उसने भीतर एक-एक कागज को फिर से उलट-पलट कर देखा। तभी उसकी उंगलियों ने अलमारी की पिछली दीवार पर एक अजीब सी धंसान को महसूस किया। उसने दस्ताने पहने हाथ से दीवार पर थपथपाया — हल्की सी खोखली आवाज़ आई। यह दीवार पूरी नहीं थी; इसके पीछे कुछ छुपा था। मिश्रा ने अपनी टॉर्च की रोशनी वहां डाली और धीरे-धीरे दीवार की लकड़ी को कुरेदने लगा। लकड़ी हटते ही एक संकरी सी सुरंग नजर आई, जो हवेली की भीतरी दीवारों में कहीं गहराई में उतरती जा रही थी। मिश्रा ने गहरी सांस ली, टीम को इशारा किया और खुद उस सुरंग में दाखिल हो गया। सुरंग की दीवारों पर कहीं-कहीं पुराने रागों की प्रतीक आकृतियां खुदी थीं। सुरंग से आती ठंडी हवा और दीवारों पर टंगी नमी उस रहस्य को और गाढ़ा कर रही थी। कुछ कदम चलते ही मिश्रा और उसकी टीम एक छोटे से तहखाने में पहुंचे। तहखाने के बीचोंबीच एक चबूतरा था, जिस पर रखी थी एक पुरानी वीणा — इतनी पुरानी कि उसकी लकड़ी पर काई जम गई थी और तारों पर धूल की परत थी। वीणा के पास एक तांबे की तख्ती पर कुछ लिखा था — “यह रक्तराग की वीणा है; केवल वह छूए जो सुरों की शक्ति को साध चुका हो। अन्यथा इसके सुर मृत्यु का निमंत्रण देंगे।” मिश्रा के रोंगटे खड़े हो गए। क्या यही वह रहस्य था जिसके कारण पंडित जी की जान गई?
मिश्रा ने तहखाने की हर दीवार को ध्यान से देखा। जगह-जगह रागों की पांडुलिपियों की प्रतिकृतियाँ थीं, और कुछ जगहों पर संगीत के पुराने ग्रंथों की आकृतियाँ। एक कोने में पुरानी किताबों का ढेर पड़ा था, जिनमें कुछ पन्ने अब भी साबुत थे। मिश्रा ने एक किताब उठाई — उसका शीर्षक था “सुरों का अभिशाप”। किताब के पहले पन्ने पर लिखा था, “रक्तराग कोई साधारण राग नहीं। यह राग सुरों को जीवंत करता है, पर जो इसके सुरों की गहराई को न समझे, वह मृत्यु को आमंत्रित करता है। पंडित रघुनाथ शरण इस राग को सुरक्षित रखने का दायित्व लिए थे, पर अब यह राग किसी गलत हाथ में न पड़ जाए, यही उनकी अंतिम साधना थी।” मिश्रा की समझ में अब आने लगा था कि पंडित जी केवल संगीत साधक नहीं थे, वे रक्तराग के रहस्य के रक्षक भी थे। तभी तहखाने की एक दीवार से आती हवा में वह धुन फिर से सुनाई दी, जो उस रात उसने महसूस की थी — एक अदृश्य राग की धुन, जो इस हवेली की दीवारों में बसी थी। तहखाने की हवा में अब धूल के साथ रहस्य की परछाइयाँ तैर रही थीं। मिश्रा ने अपने साथ आए पुलिसकर्मियों को आदेश दिया, “पूरे तहखाने की वीडियोग्राफी करो, हर चीज़ को सील कर दो। यह तहखाना अब हमारे लिए सबूतों का खजाना है।”
हवेली से बाहर आते ही मिश्रा ने अपनी गाड़ी में बैठकर उन शिष्यों की फेहरिस्त फिर से देखी, जो पंडित जी के नजदीक थे। उसे लगा अब वक्त है उन लोगों से सीधे सवाल करने का जो इस राग और हवेली के रहस्यों से परिचित थे। सबसे पहले वह पहुंचा राजीव दुबे के घर। राजीव के घर की दीवारों पर भी रागों की तस्वीरें टंगी थीं, पर उसकी आंखों में एक अजीब सी बेचैनी थी। मिश्रा ने उससे सीधे सवाल किया, “रक्तराग के बारे में तुम्हें क्या पता है?” राजीव के चेहरे का रंग उड़ गया। उसने काँपती आवाज में कहा, “साहब, मैं बस इतना जानता हूँ कि गुरुजी ने हमें उस राग से दूर रहने को कहा था। वह राग किसी साधारण आदमी के लिए नहीं। मैंने कभी उसे न गाया, न छुआ।” मिश्रा ने उसकी बात नोट की, पर उसकी आँखों में छुपी सच्चाई को पढ़ने की कोशिश करता रहा। फिर वह गया आदित्य सेन के पास, जो पंडित जी के रागों की आलोचना करता था। आदित्य ने व्यंग्य से कहा, “विनीत जी, ये सब अंधविश्वास है। राग कोई शाप नहीं होते। यह हत्या है, और कातिल कोई लालची आदमी है जिसने राग की आड़ ली है।” मिश्रा ने उसकी बात सुनी, पर उसके शब्दों में भी कोई छुपी कड़वाहट महसूस की। धीरे-धीरे बनारस की गलियों में यह खबर फैल गई कि पंडित जी की हत्या केवल हवेली की जायदाद या निजी दुश्मनी का मामला नहीं, बल्कि एक ऐसे राग का रहस्य है जिसे सदियों से छुपा कर रखा गया था।
हवेली की दीवारें अब रातों को और भी अधिक अजीब सी आवाजें करने लगी थीं। खिड़कियों से आती हवा में जैसे कोई अदृश्य वीणा बजती महसूस होती थी। मिश्रा ने तहखाने की जांच रिपोर्ट मंगाई। रिपोर्ट में लिखा था कि तहखाने में कोई खजाना या कीमती वस्तु नहीं, पर वहाँ मिले संगीत ग्रंथों और पांडुलिपियों की ऐतिहासिक कीमत बहुत अधिक थी। फोरेंसिक टीम ने तहखाने की दीवारों पर खून के कुछ पुराने धब्बे पाए थे, जो शायद किसी पुरानी घटना के थे। मिश्रा अब इस केस को एक नयी दृष्टि से देखने लगा था — यह सिर्फ पंडित रघुनाथ शरण की हत्या का मामला नहीं, यह बनारस की संगीत परंपरा, उसके रागों और उन रागों में छुपे रहस्यों की कहानी थी। उसने तय किया कि अब वह बनारस के पुराने संगीत उस्तादों से मिलेगा, ताकि रक्तराग की सच्चाई को जान सके। रात फिर से हवेली की दीवारों पर सुरों की परछाइयाँ लेकर उतरी। मिश्रा को महसूस हुआ कि हवेली की हर ईंट, हर दरार अब उससे कुछ कहने को बेचैन है — बस जरूरत थी उन सुरों की सही ताल पकड़ने की।
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बनारस की रात अपने पूरे रहस्य और सन्नाटे के साथ गंगा के घाटों पर उतर आई थी। इंस्पेक्टर विनीत मिश्रा अपने मन की बेचैनी को थामे दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियों पर बैठा गंगा की ओर टकटकी लगाए देख रहा था। घाट पर बहती हवा में न जाने कितनी पुरानी कहानियाँ तैरती प्रतीत हो रही थीं। मिश्रा की आंखों के सामने अब पंडित रघुनाथ शरण की अधूरी धुनें, हवेली की दीवारों में बंद सुर और तहखाने में मिली वीणा का चित्र घूम रहा था। वह जानता था कि रक्तराग केवल सुरों का खेल नहीं, यह कोई ऐसा रहस्य था जिसे बनारस की गलियों और घाटों की रातें सदियों से अपने सीने में छुपाए थीं। घाट की सीढ़ियों पर बैठे एक बूढ़े साधु ने मिश्रा को गौर से देखा और धीमे स्वर में कहा, “बाबूजी, उस राग की तलाश मत करो। वो राग नहीं, शाप है। जिसने भी उसकी धुन को छूने की कोशिश की है, वो या तो पागल हो गया या फिर मौत का शिकार।” मिश्रा चौंक पड़ा। साधु की आंखों में एक अजीब चमक थी, मानो वह उस राग की कहानी का जीता-जागता साक्षी हो। मिश्रा ने झुककर पूछा, “बाबा, आप जानते हैं रक्तराग के बारे में? सच-सच बताइए, क्या है इसका रहस्य?” साधु ने लंबी सांस ली और घाट की ओर इशारा कर बोला, “बहुत बरस पहले इसी घाट पर एक उस्ताद ने वो राग छेड़ा था। कहते हैं उस रात गंगा का पानी भी स्याह हो गया था, और वो उस्ताद अगले दिन मृत पाया गया। तब से रक्तराग बनारस में एक डर बनकर रह गया। पंडित रघुनाथ शरण तो बस उस राग को बंद रखने की कोशिश करते थे।” मिश्रा ने साधु की बातें नोट कीं और रात गहराने पर घाट की छांव से उठकर वापस हवेली की ओर बढ़ गया, उसके कदमों में अब पहले से ज्यादा दृढ़ता थी। वह जान चुका था कि अब यह हत्या केवल अपराध नहीं, बनारस के संगीत की आत्मा से जुड़ा एक शापित अध्याय थी।
हवेली की ओर लौटते वक्त मिश्रा के मन में साधु की बातें गूंज रही थीं। उसने निश्चय किया कि वह बनारस के उन लोगों से मिलेगा जो संगीत के प्राचीन रहस्यों के रक्षक माने जाते थे। अगली सुबह होते ही वह पहुंचा तुलसी घाट के पास रहने वाले पंडित हरिदत्त त्रिपाठी के पास। त्रिपाठी जी एक ऐसे संगीताचार्य थे जिनका नाम बनारस के हर घर में आदर से लिया जाता था। उनका घर खुद एक छोटा सा संगीत का मंदिर था — दीवारों पर वीणा, तानपूरा, सुरबहार और शहनाई की तस्वीरें, और कोनों में रखे वाद्ययंत्रों की सुगंध। मिश्रा ने उन्हें नमस्कार कर अपनी बात रखी। पंडित जी ने गंभीर स्वर में कहा, “रक्तराग, विनीत जी, कोई साधारण राग नहीं। यह राग शक्ति है, और शक्ति अगर साधक के बस में न हो तो विनाश लाती है। रघुनाथ शरण ने जीवन भर इस राग को संसार से बचा कर रखा, पर जो उनकी हत्या का कारण बना, वह शायद इसी राग की शक्ति को अपने अधिकार में लेना चाहता था।” मिश्रा ने पूछा, “क्या आपको किसी ऐसे व्यक्ति पर शक है जो इस राग का रहस्य जानना चाहता था?” त्रिपाठी जी कुछ पल चुप रहे, फिर बोले, “राजीव दुबे की आँखों में मैंने कई बार एक खतरनाक जिज्ञासा देखी है। वह रघुनाथ जी का शिष्य था, पर रागों की मर्यादा को न मानने वाला भी था। और हाँ, आदित्य सेन भी जो खुलेआम पुराने रागों को कोसता फिरता है, उसके शब्दों में कई बार मुझे ईर्ष्या की झलक मिली है।” मिश्रा ने दोनों के नाम दोबारा अपनी नोटबुक में चिन्हित किए। उसे लगने लगा था कि हत्यारा कहीं न कहीं इन्हीं सुरों की परछाइयों में छुपा था।
शाम होते-होते मिश्रा दोबारा हवेली पहुंचा। उसने तहखाने और संगीत कक्ष को सील करवा दिया था, पर अब भी हवेली की हवा में वह अधूरी धुन तैरती महसूस होती थी। खिड़की से आती हवा, दरवाजे की चरमराहट और दीवारों की पुरानी दरारें सब मिलकर मानो एक अदृश्य राग छेड़ती थीं। मिश्रा ने अपनी डायरी में उस रात की पूरी घटना विस्तार से लिखी — साधु की बातें, त्रिपाठी जी की चेतावनियाँ और हवेली के तहखाने में मिले सुराग। रात गहराई तो मिश्रा ने हवेली में ही रुकने का निश्चय किया। उसने अपने कमरे में दीपक जलाया और पंडित जी की डायरी पढ़ते-पढ़ते आंखें मूंद लीं। तभी हवेली के किसी कोने से फिर वही धुन गूंज उठी — एक अजीब सी धुन, जिसमें करुणा थी, वेदना थी और साथ ही कोई अदृश्य पुकार। मिश्रा ने अपने हथियार संभाले और आवाज़ की दिशा में बढ़ा। वह संगीत कक्ष की ओर गया, पर वहां कोई नहीं था। बस खिड़की से आती हवा में तानपूरा की टूटी तारें हिल रही थीं। मिश्रा को लगा, यह हवेली अब उसे अपने भीतर के हर रहस्य को खुद उजागर करने को तैयार है, बस वह सुरों की उस डोर को पकड़ ले जो हत्यारे तक पहुंचाएगी।
अगले दिन मिश्रा ने शहर की पुलिस को आदेश दिया कि राजीव दुबे और आदित्य सेन दोनों की गतिविधियों पर नजर रखी जाए। उसने एक टीम बनारस के प्राचीन संगीत विद्यालयों में भेजी ताकि रक्तराग से जुड़ी पुरानी पांडुलिपियों और कथाओं को इकट्ठा किया जा सके। इसी बीच तहखाने की फोरेंसिक रिपोर्ट आई जिसमें बताया गया कि तहखाने की दीवारों पर जो खून के निशान मिले थे वे हाल के नहीं, बल्कि कई वर्षों पुराने थे। यह बात मिश्रा की उलझन को और बढ़ा गई। क्या इस राग और तहखाने में पहले भी कोई घटना घटी थी, जिसके बारे में किसी ने जानबूझकर चुप्पी साध रखी थी? मिश्रा ने तय किया कि अब वह बनारस के सबसे पुराने संगीत घरानों की परंपराओं की जांच करेगा। रात फिर से बनारस की गलियों पर उतरी और हवेली की दीवारों पर रक्तराग की परछाइयाँ और गहरी हो गईं। मिश्रा की आंखों में अब सिर्फ एक लक्ष्य था — उस अदृश्य सुर को पकड़ना जिसने पंडित रघुनाथ शरण की मौत का तान छेड़ा था और बनारस की रातों को एक खौफनाक राग में बदल दिया था।
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बनारस की गलियों से गुजरते हुए इंस्पेक्टर विनीत मिश्रा का मन भीतर से बेचैन था। हवेली की दीवारें, घाट की रातें, साधु की रहस्यमयी बातें और संगीताचार्य त्रिपाठी जी की चेतावनियाँ — सब एक जाल बनकर उसके चारों ओर बुनती जा रही थीं। सुबह की पहली किरण के साथ मिश्रा ने पुराने संगीत घरानों का दौरा शुरू किया। सबसे पहले वह पहुँचा काशी संगीत परिषद, जहाँ बनारस के दुर्लभ रागों और धुनों की पांडुलिपियाँ संरक्षित थीं। वहाँ के संरक्षक पंडित जगन्नाथ भट्ट ने मिश्रा का स्वागत किया। मिश्रा ने रक्तराग का जिक्र किया तो भट्ट जी का चेहरा एक पल के लिए स्याह हो गया। वे धीमी आवाज़ में बोले, “इंस्पेक्टर साहब, रक्तराग कोई साधारण धुन नहीं। यह वह राग है जो कभी किसी शापित साधक ने रचा था। कहते हैं जब वह राग पहली बार गाया गया, तब उसके सुरों से ध्वनि की लहरें इतनी प्रबल हुईं कि एक पूरा गाँव तबाह हो गया। उसके बाद से इस राग को किसी भी संगीत ग्रंथ से मिटा दिया गया। पर कुछ पंडितों और साधकों ने इसकी धुनों को अपनी स्मृति में जीवित रखा ताकि इसकी शक्ति का दुरुपयोग न हो सके। पंडित रघुनाथ शरण उन्हीं रक्षकों में थे।” मिश्रा ने भट्ट जी से पूछा, “क्या आपको किसी ऐसे व्यक्ति का संदेह है जो इस राग की शक्ति को पाना चाहता हो?” भट्ट जी ने लंबी सांस ली और बोले, “जिनकी आत्मा संगीत के प्रति शुद्ध न हो, वे ही इस राग को पाने का दुस्साहस कर सकते हैं। आप उन शिष्यों पर ध्यान दीजिए जो पंडित जी के अनुशासन को पसंद नहीं करते थे।” मिश्रा ने मन ही मन राजीव और आदित्य के नाम दोबारा दोहराए और परिषद से विदा लिया। बनारस की गलियाँ अब उसे और अधिक रहस्यमयी लगने लगीं थीं — जैसे हर मोड़ पर कोई अदृश्य सुर उसका पीछा कर रहा होसुर।
हवेली लौटते वक्त मिश्रा के मन में एक योजना बन रही थी। उसने तय किया कि वह हवेली में एक बार फिर तहखाने का बारीकी से निरीक्षण करेगा। शाम ढलते ही मिश्रा अपने दस्ते के साथ तहखाने में उतरा। इस बार वह उन दीवारों को गौर से देखने लगा जिन पर पहले ध्यान नहीं गया था। तहखाने की एक दीवार पर नमी से धुंधला हुआ एक शिलालेख नजर आया। मिश्रा ने उसे साफ करवाया तो उस पर लिखा था, “यहाँ रक्तराग के सुर बंद हैं; केवल वही इसे छुए जो सुरों की साधना में पूर्ण हो, अन्यथा मृत्यु निश्चित है।” यह देखकर मिश्रा की शंका और गहरी हो गई कि पंडित रघुनाथ शरण ने अपनी जान की कीमत पर इस राग को किसी गलत हाथ में पड़ने से बचाने की कोशिश की थी। तहखाने की एक कोठरी में उसे एक पुरानी संदूक मिली। संदूक को खोला गया तो उसमें ताम्रपत्र पर उकेरी रक्तराग की स्वर लिपि थी, जिसे देखकर मिश्रा की आँखें चौंधिया गईं। यह वह सुर थे जो किसी को भी मोहित कर सकते थे, पर साथ ही मृत्यु की छाया लेकर आते थे। मिश्रा ने तुरंत उस संदूक को सील करवा दिया और तहखाने को भारी सुरक्षा में बंद करवा दिया। उस रात हवेली की हवा में एक अजीब सी शांति थी — मानो तहखाने ने अपना सबसे बड़ा राज़ उजागर कर दिया हो। पर मिश्रा जानता था कि असली जाल तो उन लोगों ने बुना था जो इन सुरों की शक्ति पर अधिकार पाना चाहते थे।
अगले दिन मिश्रा ने बनारस के उन पुराने संगीतकारों और शिक्षकों से मुलाकात की जो पंडित रघुनाथ शरण को निजी तौर पर जानते थे। उनसे बातचीत में यह स्पष्ट हुआ कि पंडित जी ने जीवनभर रक्तराग की स्वर लिपि को सुरक्षित रखने के लिए कई जतन किए थे और वे अपने शिष्यों को इस राग से दूर रहने की हिदायत देते थे। पर कुछ शिष्य थे जो उनकी इन बातों को उनकी दकियानूसी सोच मानते थे। मिश्रा को उन शिष्यों की सूची मिली जिन्होंने हाल के वर्षों में पंडित जी से दूरी बना ली थी। राजीव दुबे, आदित्य सेन के अलावा दो अन्य नाम सामने आए — निखिल तिवारी और आलोक पांडे। मिश्रा ने तुरंत इन सब पर निगरानी बढ़ा दी। हवेली की दीवारें अब हर रात मिश्रा को बुलाने लगी थीं। खिड़कियों से आती हवाओं में अब भी वह अधूरी धुन तैरती थी, और मिश्रा को महसूस होता कि जैसे पंडित जी की आत्मा अभी भी हवेली की दीवारों में बस कर अपने राग की रक्षा कर रही थी। मिश्रा ने अपनी डायरी में लिखा, “रक्तराग केवल सुरों का खेल नहीं, यह हवेली की आत्मा का रक्षक है। जो भी इस आत्मा को छलने की कोशिश करेगा, वह नष्ट होगा। पर हत्यारा कौन है — इसका उत्तर हवेली की दीवारें ही देंगी।”
रात के अंतिम पहर में मिश्रा एक बार फिर हवेली के संगीत कक्ष में बैठा था। दीपक की लौ दीवारों पर नाच रही थी और कमरे में एक अजीब सा कंपन हो रहा था। बाहर गंगा की लहरें घाट से टकराकर एक अदृश्य धुन जैसी लग रही थीं। मिश्रा ने आँखें मूंद लीं और रक्तराग की स्वर लिपि को मन में दोहराने लगा। तभी उसे महसूस हुआ जैसे कोई अदृश्य शक्ति कमरे में मौजूद हो। खिड़की की लकड़ी चरमराई और हवा की एक ठंडी लहर कमरे में भर गई। तानपूरा की टूटी तारें हिलने लगीं और कमरे में वह धुन गूंज उठी जो अब तक बस हवाओं में बसी थी। मिश्रा ने आंखें खोलीं और देखा कि हवेली की दीवारें मानो अपनी आत्मा उगल रही थीं। यह सुरों का जाल था — ऐसा जाल जो किसी को भी अपने मोहपाश में जकड़ सकता था। पर मिश्रा अब तैयार था। उसने ठान लिया था कि वह इस जाल को काटकर हत्यारे तक पहुंचेगा। रात के सन्नाटे में वह खुद से बुदबुदाया, “अब इस हवेली का राज़ मुझसे ज्यादा देर छुपा नहीं रहेगा।”
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बनारस की गलियों में रात के सन्नाटे और हवाओं में तैरती अधूरी धुनें इंस्पेक्टर विनीत मिश्रा की बेचैनी को और गहरा कर रही थीं। हवेली की दीवारों पर रक्तराग की परछाइयाँ अब उसे और स्पष्ट दिखने लगी थीं। मिश्रा ने तय कर लिया था कि अब वह सुरों की इस अदृश्य दुनिया में छुपे उस चेहरे तक पहुंचेगा जिसने पंडित रघुनाथ शरण की हत्या कर हवेली की आत्मा को झकझोर दिया। सुबह होते ही मिश्रा ने उन सभी संदिग्ध शिष्यों को पूछताछ के लिए बुलाया जिनके नाम अब तक सामने आ चुके थे — राजीव दुबे, आदित्य सेन, निखिल तिवारी और आलोक पांडे। पुलिस की गाड़ियों के सायरन की आवाज़ जब हवेली के सामने गूंजी तो बनारस की गलियाँ चौंक पड़ीं। पूछताछ शुरू हुई और मिश्रा ने एक-एक करके सबके चेहरे पढ़े, उनकी बातों के पीछे छुपे सच को पकड़ने की कोशिश की। राजीव दुबे ने कहा, “मैंने पंडित जी से कई बार रक्तराग सीखने की जिद की थी, पर हत्या? मैं भला ऐसा क्यों करता?” आदित्य ने चिढ़ते हुए कहा, “मैं उस राग को शाप मानता हूँ, मेरी आत्मा उस राग को छूना भी नहीं चाहती।” निखिल और आलोक के जवाब भी बचाव में थे, पर मिश्रा की अनुभवी आँखों ने देखा कि जब उसने तहखाने में मिली स्वर लिपि का जिक्र किया तो राजीव की आंखों में एक पल को लालसा की चमक उभरी और निखिल की उंगलियां अनायास ही कांप उठीं। मिश्रा ने उसी क्षण निश्चय कर लिया कि हत्यारा इन्हीं में छुपा है, बस सुरों की परछाई को और करीब से देखना होगा।
इसी बीच मिश्रा ने तहखाने की उस संदूकची की सुरक्षा और कड़ी कर दी थी जिसमें रक्तराग की ताम्रपत्र स्वर लिपि बंद थी। उसने हवेली में हर जगह पुलिस के सिपाही तैनात कर दिए और खुद रात के अंधेरे में हवेली की छत पर बैठकर घाट की ओर देखता रहा। गंगा की लहरें रात के सन्नाटे में कोई अदृश्य गीत गा रही थीं। तभी दूर घाट पर एक परछाई दिखी — कोई व्यक्ति धीमे-धीमे घाट की ओर बढ़ रहा था और उसके हाथ में तानपूरा जैसा कोई वाद्ययंत्र था। मिश्रा की आंखों में चौकन्नी चमक आई। उसने तुरंत अपनी टीम को इशारा किया और खुद भी घाट की ओर बढ़ गया। घाट की सीढ़ियों पर जब वह पहुंचा तो देखा कि वह परछाई राजीव दुबे की थी। राजीव घाट की अंतिम सीढ़ी पर बैठकर तानपूरा संभाल रहा था और धीमे-धीमे कोई राग छेड़ने की तैयारी में था। मिश्रा ने उसे रंगे हाथ पकड़ लिया। राजीव कांप उठा और घुटनों के बल बैठकर बोला, “इंस्पेक्टर साहब, मैंने पंडित जी की हत्या नहीं की। मैं तो बस रक्तराग को अपने सुरों में उतारकर सिद्ध करना चाहता था ताकि दुनिया पर साबित कर सकूं कि मैं भी महान साधक हूँ। मेरी आत्मा में ईर्ष्या जरूर थी, पर हत्या का पाप नहीं।” मिश्रा को यकीन था कि राजीव दोषी तो था पर शायद असली हत्यारा नहीं। उसने राजीव को हिरासत में लिया और रातभर घाट की सीढ़ियों पर बैठकर उन सुरों की परछाई का पीछा करता रहा जो अब भी हवेली की ओर इशारा कर रही थीं।
अगली सुबह मिश्रा ने उन सभी संदिग्धों के पुराने रिकॉर्ड और आपसी रिश्तों की गहराई से जांच शुरू कर दी। एक चौंकाने वाली बात सामने आई — पंडित रघुनाथ शरण के पुराने शिष्य आलोक पांडे की हवेली में बचपन से आवाजाही थी। उसके पिता कभी हवेली के नौकर हुआ करते थे और आलोक खुद संगीत कक्ष में रघुनाथ शरण की वीणा के तार छूते हुए बड़ा हुआ था। आलोक पर हमेशा रघुनाथ शरण के अनुशासन की छाया रही और इसी वजह से उसके मन में वर्षों से एक असंतोष पनपता रहा था। मिश्रा ने हवेली के पुराने नौकरों से पूछताछ की तो यह भी पता चला कि हत्या की रात आलोक को हवेली के पास देखा गया था, पर उसने कहा था कि वह बस अपने बचपन की यादों को देखने आया था। मिश्रा ने इस जानकारी को अपनी डायरी में दर्ज किया और रात में आलोक की गतिविधियों पर नजर रखने का आदेश दिया। हवेली की दीवारें अब जैसे खुद मिश्रा को सुराग दे रही थीं। तहखाने की नमी, दीवारों की पुरानी दरारें, और संगीत कक्ष की टूटी वीणा की गूँज — सब मिलकर कह रही थीं कि हत्यारा अब पकड़ा जाने को है। मिश्रा ने मन ही मन तय किया कि वह एक जाल बिछाएगा — सुरों का जाल, जो हत्यारे को उसकी अपनी लालसा के फंदे में फंसा देगा।
रात को मिश्रा ने हवेली में एक संगीत सभा का आयोजन करवाने की योजना बनाई जिसमें रक्तराग की अधूरी धुन को छेड़ने का नाटक किया जाएगा। इस सभा की खबर बनारस के हर कोने में फैला दी गई और जानबूझकर यह भी कहा गया कि तहखाने की संदूकची खोली जाएगी। हवेली की दीवारों पर रोशनी बिखरी और संगीत कक्ष में दीपक जला दिए गए। बनारस के संगीत प्रेमी, पुलिस और मिश्रा की टीम सब सजग थी। जैसे ही सभा में तानपूरा के सुरों से रक्तराग की अधूरी धुन को छेड़ा गया, हवेली की हवा में सिहरन दौड़ गई। तभी मिश्रा ने देखा — आलोक पांडे चुपचाप तहखाने की ओर बढ़ रहा था, उसकी आंखों में वही लालसा थी जिसने पंडित रघुनाथ शरण की जान ली थी। मिश्रा ने उसे रंगे हाथ पकड़ लिया। आलोक चीख उठा, “हाँ! मैंने मारा पंडित को! उन्होंने मेरी साधना का अपमान किया था, मेरी आत्मा को रौंदा था। मैं रक्तराग का स्वामी बनना चाहता था ताकि दुनिया मेरे चरणों में हो। पर अब मैं हार गया। यह राग मेरे बस का नहीं।” हवेली की दीवारें गूंज उठीं — जैसे सुरों की परछाइयों ने आखिरकार अपनी कहानी कह दी हो। मिश्रा ने आलोक को गिरफ्तार कर लिया और हवेली की हवाओं में अब रक्तराग की करुण धुन शांति में बदलने लगी।
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हवेली की दीवारों पर रात की रौशनी और तानपूरा के टूटे सुरों की प्रतिध्वनि अब किसी सन्नाटे का हिस्सा नहीं बल्कि करुणा का संदेश बन गई थी। इंस्पेक्टर विनीत मिश्रा की आँखों में सुकून की हल्की परछाईं थी, मगर मन में सवालों की एक नई श्रृंखला थी। आलोक पांडे की गिरफ्तारी के बाद हवेली में छाए भय और रहस्य के बादल कुछ हटते दिखे, लेकिन हवेली की आत्मा अभी पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाई थी। मिश्रा जानता था कि यह हवेली केवल एक भवन नहीं थी — यह बनारस की संगीत परंपरा, रागों के उत्थान-पतन और साधकों की आत्माओं का साक्ष्य थी। हवेली की दीवारें जैसे अब भी पंडित रघुनाथ शरण की आत्मा की शांति का इंतजार कर रही थीं। मिश्रा ने तय किया कि हवेली के संगीत कक्ष में एक अनुष्ठानिक सभा होगी, जिसमें रक्तराग की अधूरी धुन को पूरा कर राग को उसकी शुद्धता लौटाई जाएगी। यह सभा पंडित रघुनाथ शरण की आत्मा की शांति और हवेली की मुक्ति के लिए होगी। बनारस के सबसे पुराने साधक, घाटों पर बैठे अनजाने साधु, और गंगा किनारे के रागी सब इस सभा में आमंत्रित किए गए। हवेली के आंगन में एक बड़ा दीप जलाया गया और गंगा से लाई गई पवित्र मिट्टी से संगीत कक्ष को शुद्ध किया गया।
संगीत सभा की रात हवेली पर मानो स्वर्गीय आभा उतर आई थी। बनारस की हवा में गंगा के घाटों की ध्वनि और शंखनाद की गूंज मिलकर एक अद्भुत वातावरण बना रही थी। संगीत कक्ष में बैठे साधक और संगीत प्रेमी रक्तराग की करुण धुन के साक्षी बनने को उत्सुक थे। पंडित जगन्नाथ भट्ट और अन्य वरिष्ठ संगीतज्ञों ने मिलकर तानपूरा, सितार और सारंगी की संगत में रक्तराग की धुन को फिर से छेड़ा। इस बार यह धुन कोई डरावना साया नहीं बल्कि एक करुण पुकार बनकर हवेली की दीवारों से टकरा रही थी। दीपक की लौ हिल रही थी जैसे हवेली की आत्मा भी इस धुन को सुनकर धीरे-धीरे मुक्त हो रही हो। इंस्पेक्टर मिश्रा की आँखें बंद थीं और उसके कानों में सुरों की यह करुण पुकार उतर रही थी — वह पुकार जो हवेली के हर कण में बसी आत्माओं की मुक्ति की मांग कर रही थी। जैसे-जैसे राग अपनी पूर्णता की ओर बढ़ा, हवेली की हवाओं में बसे सैकड़ों सालों के भय और लालसा के साये पिघलते चले गए। गंगा की लहरें भी उस रात हवेली की ओर जैसे आशीर्वाद देने को उमड़ पड़ीं।
सभा समाप्त होते-होते हवेली के कोनों से आती वह रहस्यमयी धुन पूरी तरह शांत हो गई। खिड़कियों पर टंगी परछाइयाँ मानो खुद को समेटकर रात्रि की गहराई में खो गईं। इंस्पेक्टर मिश्रा ने हवेली की पुरानी संदूकची को तहखाने में ठीक उसी जगह फिर से रखवा दिया, लेकिन इस बार उस पर एक ताम्रपत्र लगवाया जिस पर लिखा था — “यह राग अब शुद्धता और साधना का प्रतीक है। यह सुर अब किसी लालसा का साधन नहीं, आत्मा की मुक्ति का सेतु है।” हवेली के नौकरों और आसपास के लोगों ने पहली बार महसूस किया कि हवेली की दीवारें अब बोझिल नहीं रहीं। हर कोना जैसे कह रहा हो कि अब यह घर फिर से संगीत की साधना का स्थल बनेगा। मिश्रा ने पुलिस बल को हटाकर हवेली की रक्षा बनारस के संगीत प्रेमियों के हाथों सौंप दी। अब यह हवेली बनारस की विरासत का एक मंदिर थी, जो संगीत की साधना और पवित्रता का स्मारक बनकर खड़ी थी। मिश्रा ने गंगा किनारे बैठकर अपनी डायरी में लिखा, “संगीत केवल सुर नहीं, आत्मा का आईना है। रक्तराग ने आज यह सिखाया कि करुणा ही सबसे बड़ा राग है।”
कुछ सप्ताह बाद हवेली में फिर से संगीत की गूंज सुनाई देने लगी थी। अब वह गूंज भय की नहीं, साधना और भक्ति की थी। बनारस के छात्र-छात्राएँ हवेली के संगीत कक्ष में आकर संगीत की शिक्षा लेने लगे। पंडित रघुनाथ शरण की आत्मा की शांति के लिए हर वर्ष एक संगीत महोत्सव का आयोजन होने लगा जिसमें रक्तराग की धुन को करुणा और भक्ति में पिरोकर गाया जाता। इंस्पेक्टर मिश्रा ने तब बनारस छोड़ने से पहले अंतिम बार हवेली को देखा। हवेली की खिड़कियों से आती रौशनी, आंगन में बजते तानपूरा के सुर, और गंगा की ओर बहती हवाएं — ये सब मिलकर मिश्रा को यह याद दिला रही थीं कि बनारस की इस धरती पर संगीत केवल साधन नहीं, साधना है। मिश्रा ने मन ही मन पंडित रघुनाथ शरण को नमन किया और चुपचाप घाट की सीढ़ियों पर उतरते हुए बनारस की गलियों में खो गया। हवेली अब अपने नए अध्याय की शुरुआत कर चुकी थी — एक ऐसा अध्याय जिसमें राग की करुणा और हवेली की मुक्ति सदा जीवित रहेगी।
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बनारस की हवाओं में अब रक्तराग की गूंज भय की नहीं बल्कि भक्ति और साधना की बन गई थी। हवेली की दीवारों से शुरू होकर यह सुरों की यात्रा धीरे-धीरे बनारस के घाटों तक पहुँचने लगी थी। घाटों की सीढ़ियों पर बैठकर साधक तानपूरा और वीणा के सुरों में रक्तराग के स्वर छेड़ते और गंगा की लहरों में उनका प्रतिबिंब देख मंत्रमुग्ध हो जाते। दशाश्वमेध घाट पर होने वाले संगीत महोत्सव में पहली बार रक्तराग को खुलकर गाया गया और हजारों श्रोता रात भर उस राग की गहराई में डूबते रहे। इंस्पेक्टर मिश्रा, जिसने इस राग की भयावहता और करुणा दोनों को अपनी आंखों से देखा था, घाट पर खड़ा होकर इस दृश्य को निहार रहा था। उसकी आंखों में एक सजीव सपना उतर आया था — एक सपना जिसमें बनारस का संगीत, उसके राग, उसकी साधना और उसकी आत्मा एक हो गए थे। रात के अंधकार में गंगा की लहरें रक्तराग की धुन को अपनी लहरों में समेटकर अनंत तक ले जाती प्रतीत हो रही थीं। घाटों पर जलते दीपों की रौशनी और स्वर लहरियों का यह संगम बनारस को एक नए अध्याय में ले आया था।
रक्तराग अब केवल एक राग नहीं रहा था — वह बनारस की आत्मा का प्रतीक बन गया था। बनारस के हर संगीत विद्यालय में यह राग पढ़ाया जाने लगा, मगर इसके साथ जुड़ी रही वह चेतावनी कि यह राग केवल साधना और पवित्रता की दृष्टि से ही गाया जाए। पुराने साधक और संगीताचार्य छात्रों को यह राग सिखाते हुए कहते, “यह सुर आत्मा का दर्पण है। इसका अपवित्र प्रयोग आत्मा को भटका सकता है।” घाटों पर बैठकर अभ्यास करते छात्र रक्तराग की धुन को छेड़ते हुए मानो गंगा से आशीर्वाद मांगते थे। बनारस की गलियों में यह कथा भी फैलने लगी कि जो साधक सच्चे ह्रदय से इस राग को गाएगा, उसकी साधना सफल होगी और उसकी आत्मा शुद्ध हो जाएगी। रक्तराग की धुनें अब केवल हवेली की चारदीवारी तक सीमित न थीं, वे बनारस की हर गली, हर घाट, हर मंदिर और हर दिल में घर कर चुकी थीं। इंस्पेक्टर मिश्रा, जो अब बनारस छोड़ने की तैयारी में था, एक आखिरी बार संगीत सभा में बैठा और रक्तराग की इस अमरता को अपनी आत्मा में उतार लिया।
घाटों पर होने वाली हर सभा में अब रक्तराग की करुण धुन गूंजती और बनारस के साधक उस धुन में खुद को विसर्जित कर देते। पंडित रघुनाथ शरण की स्मृति में हर वर्ष होने वाले संगीत महोत्सव का केंद्र बिंदु यही राग बन गया था। गंगा किनारे जलते दीपों की तरह यह राग भी बनारस के संगीत प्रेमियों के दिलों में जलता रहा। हवेली के संगीत कक्ष में अब नए विद्यार्थियों की आवाजें गूंजने लगीं — वे वही तानपूरा, वही वीणा, वही सारंगी बजाते जिनके सुरों में पंडित शरण की आत्मा की साधना समाई थी। बनारस के घाटों पर रक्तराग अब अमर हो चुका था, और इस अमरता ने बनारस को एक नया संगीत तीर्थ बना दिया था। इंस्पेक्टर मिश्रा ने घाट की अंतिम सीढ़ी पर बैठकर गंगा में दीप प्रवाहित किया और मन ही मन पंडित रघुनाथ शरण को प्रणाम किया। गंगा की लहरों पर बहते दीप और रक्तराग की धुनें मिलकर बनारस की आत्मा का अमर गीत गा रही थीं।
इंस्पेक्टर मिश्रा के जाने के बाद भी हवेली और बनारस के घाटों पर रक्तराग की कथा जीवित रही। हर वर्ष आने वाले संगीत प्रेमी, साधक और पर्यटक इस राग की करुण धुन में डूब जाते और बनारस की गलियों में यह राग एक अमर धरोहर की तरह बस गया। हवेली की दीवारें अब गूंजती थीं — मगर डर से नहीं, भक्ति से। गंगा की लहरें रक्तराग की धुनों को दूर-दूर तक ले जातीं और बनारस की आत्मा में यह अमर राग हमेशा के लिए रच बस गया। रक्तराग अब कोई रहस्य नहीं था — वह बनारस की पहचान बन चुका था। हवेली की खिड़कियों से आती रोशनी, घाटों की सीढ़ियों पर बजती वीणा और गंगा की धारा — यह सब मिलकर इंस्पेक्टर मिश्रा की उस जाँच को एक पवित्र स्मृति में बदल चुके थे। रक्तराग अब बनारस की आत्मा का अमर राग बनकर हर सुर, हर दिल में गूंजता रहा।
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बनारस की सुबह की पहली किरणें जब गंगा की लहरों पर पड़तीं, तो घाटों पर बैठा हर साधक रक्तराग की धुन को गुनगुनाता दिखता। हवेली की दीवारें अब नई पीढ़ी के साधकों की साधना का केंद्र बन चुकी थीं। इंस्पेक्टर मिश्रा की विदाई के बाद हवेली को एक संगीत संस्थान में बदल दिया गया था, जहाँ से बनारस के रागों की परंपरा पूरे देश में फैलने लगी। हर वर्ष पंडित रघुनाथ शरण की स्मृति में जो संगीत महोत्सव होता, उसमें रक्तराग की धुन को प्रमुखता से गाया जाता। मगर अब इस राग को गाने वालों के स्वर में डर या लालसा नहीं बल्कि भक्ति और समर्पण का भाव होता। बनारस के घाटों पर तानपूरा, वीणा, और सारंगी की संगत में जब रक्तराग की धुनें गूंजतीं, तो लगता मानो गंगा खुद इस राग को अपनी लहरों में समेटकर आशीर्वाद दे रही हो। हवेली की खिड़कियों से आती सूरज की किरणें और संगीत कक्ष में गूंजते स्वर मिलकर एक ऐसी विरासत गढ़ रहे थे जो समय की सीमाओं को लांघ चुकी थी।
वर्षों बीत गए, मगर रक्तराग की अमरता पर कोई समय की धूल न जम सकी। बनारस आने वाला हर संगीत प्रेमी इस राग की कथा सुनता, इसकी धुन को घाटों पर बैठकर महसूस करता और इसकी विरासत को अपनी साधना में उतारने की कोशिश करता। हवेली अब केवल एक इमारत नहीं रही थी, वह एक जीवंत तीर्थ बन गई थी — संगीत का, साधना का, और आत्मा की मुक्ति का। हवेली के हर कोने में अब पंडित रघुनाथ शरण की साधना की महक बस गई थी। बनारस के बच्चे जब संगीत सीखते तो उन्हें यही सिखाया जाता कि रक्तराग केवल राग नहीं, एक जिम्मेदारी है। जिम्मेदारी अपने सुरों को पवित्र बनाए रखने की, अपने साधना को सच्चाई के साथ निभाने की। गंगा की लहरों पर यह राग अब सदा के लिए बहता रहा — हर नए साधक की साधना का हिस्सा बनकर, हर संगीत प्रेमी की आत्मा को छूकर।
हवेली के प्रांगण में लगाए गए तुलसी और पीपल के वृक्षों की छांव में बैठकर नए साधक रक्तराग का अभ्यास करते और अपने सुरों को गंगा की लहरों में विसर्जित करते। हवेली के दरवाजों पर लगे ताम्रपत्र पर लिखा था — “यह सुर आत्मा की मुक्ति का सेतु है। रक्तराग केवल राग नहीं, साधना है।” हर आने वाला श्रद्धालु इस ताम्रपत्र को पढ़ता और नतमस्तक हो जाता। बनारस के घाटों पर दीपदान करते श्रद्धालुओं की प्रार्थनाओं में भी अब रक्तराग की धुन गूंजती रहती। रात के अंधेरे में जब हवेली की खिड़कियों से आती वीणा की करुण आवाज गंगा तक पहुँचती, तो ऐसा लगता मानो बनारस की आत्मा खुद इस राग को अमरता का वरदान दे रही हो। इंस्पेक्टर मिश्रा की डायरी, जो अब संगीत संस्थान के संग्रहालय में रखी थी, बनारस आने वाले हर संगीत प्रेमी को रक्तराग की कथा और उसकी विरासत की याद दिलाती थी।
अंततः रक्तराग केवल एक राग की कथा न रहा। यह बनारस की आत्मा, गंगा की धारा और संगीत की साधना का अमर प्रतीक बन गया। हवेली अब बनारस की संगीत परंपरा का मंदिर थी — एक ऐसी जगह जहाँ आत्मा संगीत के सुरों में खोकर अपनी मुक्ति का मार्ग पाती थी। दशाश्वमेध घाट से लेकर अस्सी घाट तक, हर घाट पर रक्तराग की धुनें गूंजतीं और बनारस के हर कोने में यह अमर राग अपनी उपस्थिति दर्ज कराता। और समय की धारा में जब भी कोई साधक अपने सुरों को खोजने घाट पर आता, तो रक्तराग की करुण धुनें उसके मार्गदर्शक बन जातीं। इस प्रकार रक्तराग बनारस की विरासत में हमेशा के लिए रच बस गया — अमर और अविनाशी।