Hindi - प्रेतकथा

तांत्रिक की किताब

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अनुपमा गुप्ता


अध्याय १ – पुरानी लाइब्रेरी का रहस्य

गाँव के परित्यक्त हिस्से में कदम रखते हुए आदित्य के भीतर एक अजीब-सी सनसनी दौड़ गई। वह गाँव, जहाँ समय जैसे ठहर गया था, टूटी-फूटी हवेलियों, सूनी गलियों और सूख चुके कुओं के बीच भूतहा-सा माहौल पेश करता था। आदित्य एक युवा शोधकर्ता था, जिसके भीतर इतिहास और अतीत के रहस्यों को खंगालने की अटूट जिज्ञासा थी। शहर से आए इस पढ़ाकू युवक ने गाँव के लोगों से सुना था कि पुराने ज़माने में यहाँ एक बड़ी हवेली के भीतर विशाल लाइब्रेरी हुआ करती थी, जहाँ दुर्लभ ग्रंथ, पांडुलिपियाँ और तंत्र-मंत्र से जुड़ी किताबें रखी जाती थीं। लेकिन अब वह जगह वर्षों से बंद पड़ी थी, और गाँव वालों का कहना था कि उस जगह पर जाने का मतलब है छायाओं और अशुभ आत्माओं से सामना करना। चेतावनियाँ सुनकर भी आदित्य का मन और प्रबल हो गया। जब वह जंग लगी लोहे की गेट को धक्का देकर अंदर दाखिल हुआ, तो उसकी साँसें भीतर की घुटन और बासी गंध से भारी हो गईं। जर्जर दीवारों पर लिपटी काई, कोनों में फैली धूल और जालों से ढकी लकड़ी की अलमारियाँ मानो बीते जमाने का बोझ उठाए खड़ी थीं। वह टॉर्च जलाकर धीरे-धीरे आगे बढ़ा और हर रैक को ध्यान से देखने लगा। पुराने पीले पड़े पन्ने, फटी जिल्दें और बिखरे हुए कागज़ देखकर उसके भीतर एक अजीब उत्साह उमड़ने लगा, जैसे वह किसी खज़ाने के करीब पहुँच रहा हो।

घंटों की खोज के बाद उसकी नज़र एक अजीब-सी किताब पर पड़ी, जो बाकी ग्रंथों से अलग थी। मोटे काले चमड़े से बंधी वह डायरी धूल से ढकी हुई थी, लेकिन उसके चारों कोनों पर धातु की बनी आकृतियाँ चमक रही थीं। जैसे ही आदित्य ने उसे छुआ, उसकी उँगलियों में एक ठंडा कंपन दौड़ गया। उसने धीरे से उसे बाहर निकाला और देखा कि उस पर कोई अज्ञात लिपि खुदी हुई थी, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था। अक्षर ऐसे लग रहे थे मानो खुद अपनी जगह पर हिल रहे हों, साँप की तरह बल खा रहे हों। उसने पन्ने पलटकर देखने की कोशिश की तो महसूस हुआ कि ये साधारण लिखावट नहीं है; हर पृष्ठ पर चित्र, प्रतीक और मंत्र जैसी पंक्तियाँ उकेरी गई थीं। शब्दों के साथ-साथ लाल और काले रंग से बनी रेखाएँ, गोल घेरों में अंकित चिह्न और विचित्र आरेख उसकी आँखों को चुभ रहे थे। तभी अचानक उसकी टॉर्च की रोशनी टिमटिमाने लगी, जैसे बैटरी अचानक कमजोर पड़ गई हो। आदित्य ने घबराकर टॉर्च को झटका दिया, लेकिन उसका ध्यान बार-बार उसी डायरी पर टिक जाता। उसी क्षण उसे पीछे से किसी की हल्की सरसराहट सुनाई दी। उसने मुड़कर देखा तो टूटी खिड़की से आती हवा परदे को हिला रही थी। दिल की धड़कन तेज हो गई, पर उसकी जिज्ञासा भय पर भारी पड़ रही थी। वह किताब को अपनी बैग में डालने ही वाला था कि बाहर से किसी की आवाज़ सुनाई दी—“बाबूजी, उस किताब को मत छूना, वो तांत्रिक की किताब है।”

आदित्य चौकन्ना हो उठा। बाहर खड़ा था गाँव का एक बुजुर्ग, जिसकी आँखों में डर साफ झलक रहा था। वह काँपती आवाज़ में बोला कि यह किताब दशकों पहले गाँव में रहने वाले एक तांत्रिक की थी, जो काली विद्या और गुप्त अनुष्ठानों के लिए कुख्यात था। लोग कहते थे कि उसने इस डायरी में अपने मंत्र, साधनाएँ और बलिदानों का लेखा-जोखा लिखा था। उसकी मौत के बाद से गाँव में कई अजीब घटनाएँ घटी थीं—लोगों का अचानक लापता हो जाना, जानवरों का रहस्यमय तरीके से मरा हुआ मिलना और रात को अजीब आवाज़ों का गूँजना। इस वजह से गाँव वालों ने उस हिस्से को हमेशा के लिए छोड़ दिया था। बुजुर्ग ने उसे चेतावनी दी कि अगर वह किताब अपने साथ ले गया तो मुसीबत खुद उसके पीछे-पीछे आएगी, क्योंकि यह केवल कागज़ और चमड़े का टुकड़ा नहीं, बल्कि तांत्रिक की आत्मा से बंधा हुआ जाल है। आदित्य ने ध्यान से उसकी बातें सुनीं, लेकिन उसकी आँखों में डर नहीं, बल्कि और गहरी जिज्ञासा चमक रही थी। उसके लिए यह सिर्फ एक किताब नहीं, बल्कि शोध की दुनिया में दुर्लभ खोज थी। उसने बुजुर्ग को आश्वस्त करने की कोशिश की और लाइब्रेरी से बाहर निकलते हुए डायरी को कसकर अपनी बैग में छुपा लिया। बाहर निकलते ही उसने महसूस किया कि हवा अचानक और भारी हो गई है, जैसे किसी अदृश्य शक्ति ने वातावरण को जकड़ लिया हो। गाँव वालों की चेतावनी उसके कानों में गूँज रही थी, पर उसके कदम अब उस अज्ञात रहस्य की ओर बढ़ चुके थे, जिससे उसकी ज़िंदगी हमेशा के लिए बदलने वाली थी।

 

अध्याय २ – पहला मंत्र

आदित्य उस रात अपने कमरे में बैठा हुआ था, सामने लकड़ी की मेज पर वही काली चमड़े से बंधी डायरी रखी थी, जो उसने पुरानी लाइब्रेरी से निकाली थी। बाहर गाँव की गलियों में गहरी खामोशी छाई हुई थी और खिड़की से छनकर आती चाँदनी उसके कमरे के फर्श पर फीके धब्बों की तरह फैल गई थी। आदित्य ने धीरे-धीरे डायरी खोली और शुरुआती पन्नों पर ध्यान देने लगा। वहाँ लिखी लिपि अब भी उसके लिए अजीब और अनजान थी, लेकिन लंबे समय तक उसे देखने पर जैसे शब्दों का अर्थ स्वयं उसके दिमाग में उतरने लगा। मानो किताब उसकी भाषा बोलने लगी हो। उसने देखा कि शुरुआती पन्नों में तंत्र साधना की विधियाँ और ध्यान के विशेष तरीके बताए गए थे—शरीर को स्थिर करने, साँसों को नियंत्रित करने और मानसिक ऊर्जा को जागृत करने के बारे में। बीच-बीच में लाल स्याही से बने कुछ आकृतियाँ और चिह्न भी थे, जो किसी रहस्यमय ताले या द्वार की तरह प्रतीत हो रहे थे। आदित्य के भीतर का शोधकर्ता रोमांचित हो उठा। यह कोई सामान्य ग्रंथ नहीं था, बल्कि एक गुप्त विद्या की कुंजी थी, जो सदियों से छिपी रही थी। उसकी आँखें पन्नों पर दौड़ती चली गईं और जल्द ही वह एक मंत्र पर आकर ठिठक गया, जिसके आगे लिखा था—“प्रथम द्वार का उद्घाटन।”

उसका मन इसे पढ़ने के लिए बेचैन हो उठा। कमरे में रखे मिट्टी के छोटे दीये की लौ धीमे-धीमे काँप रही थी, मानो उसे भी आने वाले क्षण का अंदेशा हो। आदित्य ने गहरी साँस ली और ज़ोर से मंत्र पढ़ना शुरू किया। जैसे ही उसके होंठों से पहला शब्द निकला, कमरे का तापमान अचानक गिर गया। ठंडी हवा का झोंका बिना किसी खिड़की या दरवाज़े के खुलने के भीतर घुस आया। दीये की लौ पहले काँपी, फिर लंबी हो गई और अजीब तरह से नीली आभा छोड़ने लगी। आदित्य की रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ गई, पर उसने पढ़ना बंद नहीं किया। उसके स्वर गूँजते ही मानो हवा और भारी होती जा रही थी। दीवारों पर पड़ी परछाइयाँ हिलने लगीं, जैसे उनमें जान आ गई हो। कुछ देर बाद उसने साफ महसूस किया कि कोई अदृश्य छाया उसके चारों ओर घूम रही है। पहले वह हल्की-सी सरसराहट में सुनाई दी, फिर कदमों की धीमी आहट की तरह। उसका दिल तेज़ी से धड़कने लगा, पर आँखों में अब भी जिज्ञासा चमक रही थी। वह सोच रहा था कि यह केवल उसका भ्रम है या सचमुच किसी अदृश्य शक्ति ने उस कमरे में प्रवेश किया है। उसने टेबल पर पड़ी डायरी को और कसकर पकड़ा, मानो वही अब उसकी ढाल और उसका हथियार थी।

कमरे का वातावरण अब भयावह होता जा रहा था। परछाइयाँ एक-दूसरे से मिलकर दीवारों पर अजीब आकृतियाँ बनाने लगीं—कभी किसी जानवर जैसी, कभी किसी इंसानी चेहरे जैसी। आदित्य ने घबराकर चारों ओर देखा तो उसकी साँस थम गई, क्योंकि कुछ क्षण के लिए उसे अपने पीछे खड़े किसी लंबे काले साए का आभास हुआ, जिसके लाल आँखों जैसी दो बिंदु चमक रहे थे। उसने पलटकर देखा तो वहाँ कुछ नहीं था, केवल सन्नाटा और ठंडी हवा का दबाव। तभी उसकी टेबल पर रखा दीया अचानक तेज़ी से फड़फड़ाया और बुझने को हुआ, लेकिन पूरी तरह बुझा नहीं; उसकी लौ में अब एक हल्की हरी आभा शामिल हो गई थी। आदित्य को महसूस हुआ कि उसकी त्वचा पर किसी की ठंडी साँस पड़ रही है, जैसे कोई बहुत पास खड़ा होकर उसे घूर रहा हो। डर और रोमांच की मिली-जुली लहर उसके भीतर दौड़ गई। उसने तुरंत मंत्र का आखिरी शब्द पूरा किया और उसी क्षण कमरे में गहरा सन्नाटा छा गया। लौ स्थिर हो गई, पर हवा अब भी भारी थी, मानो अदृश्य शक्ति उसकी उपस्थिति का एहसास दिलाकर कहीं पास ही ठहर गई हो। आदित्य की आँखें चमक उठीं; उसे लगा कि उसने सचमुच “पहला द्वार” खोल दिया है। पर वह यह नहीं जानता था कि जिस जिज्ञासा ने उसे इस किताब तक पहुँचाया है, वही अब उसकी ज़िंदगी को ऐसे रहस्यों और छायाओं में धकेलने वाली है, जिनसे लौटना शायद उसके लिए आसान नहीं होगा।

अध्याय ३ – परछाइयों का पीछा

मंत्र पढ़ने के बाद वाली रात आदित्य को नींद नहीं आई। उसकी आँखें बंद होतीं तो उसे बार-बार वही साया याद आ जाता, जो मानो दीवारों की छाया से निकलकर उसके पीछे खड़ा हो गया था। आधी रात को जब अचानक खिड़की पर हल्की-सी दस्तक हुई, तो उसका दिल धक् से रह गया। उसने सोचा शायद हवा होगी, लेकिन दूसरी ही क्षण दस्तक फिर हुई—इस बार और ज़्यादा साफ़, जैसे कोई जानबूझकर खटखटा रहा हो। उसने धीरे-धीरे खिड़की खोली, तो बाहर घना अंधेरा और चाँद की धुँधली रोशनी थी। कोई दिखाई नहीं दिया, लेकिन ठंडी हवा का झोंका अंदर घुसा और कमरे की किताबें हल्के से फड़फड़ाने लगीं। उसने दरवाज़ा बंद कर दिया, पर उसे महसूस हुआ कि अंधेरे में कोई अब भी उसकी खिड़की के ठीक बाहर खड़ा है और चुपचाप उसे घूर रहा है। दिल की धड़कनें बढ़ने लगीं, पर उसने खुद को समझाया कि यह केवल उसका वहम है। मगर अगले दिन सुबह जब वह जागा, तो उसके कमरे की दीवार पर एक अजीब-सा काला धब्बा उभर आया था, जो पिछली रात वहाँ नहीं था। उसने उंगली से छूकर देखा, तो धब्बा नम और ठंडा था, जैसे किसी गीली राख का निशान हो। वह हैरान रह गया—यह अचानक कहाँ से आया?

दिन बीतते-बीतते ऐसी घटनाएँ और बढ़ने लगीं। जब वह आईने में चेहरा देखने खड़ा होता, तो कभी-कभी उसे अपना ही चेहरा अपरिचित लगता। आँखों में एक अनजानी चमक, होंठों पर हल्की-सी अजनबी मुस्कान और चेहरा इतना बदला हुआ कि मानो सामने खड़ा व्यक्ति वह खुद नहीं, बल्कि कोई और हो। वह घबराकर पलट जाता और कुछ देर बाद जब फिर देखता, तो सब सामान्य हो जाता। यह दोहराव हर बार उसे बेचैन कर देता। उसकी मेज़ पर रखी डायरी को छूते ही कमरे में अजीब सर्दी फैल जाती, जैसे वह चमड़े का कवर खुद एक ठंडी साँस छोड़ रहा हो। गाँव के लोग भी अब उसकी ओर अलग नज़र से देखने लगे थे। जब वह बाहर निकलता, तो बुजुर्ग और बच्चे फुसफुसाते—“यही है जिसने तांत्रिक की किताब छेड़ी है।” आदित्य उन्हें नज़रअंदाज़ करने की कोशिश करता, पर उसके भीतर धीरे-धीरे डर घर करने लगा था। उसे लगने लगा कि जो भी परछाइयाँ उसने उस रात महसूस की थीं, वे अब सिर्फ कमरे तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि हर जगह उसका पीछा करने लगी हैं। कभी खेत की पगडंडी पर चलते हुए पीछे से धीमे कदमों की आहट आती, तो कभी पानी पीते हुए उसे लगता जैसे कोई उसके ठीक पीछे खड़ा है और झुककर उसकी हर हरकत देख रहा है।

एक शाम जब सूरज डूबने लगा था और आसमान लाल रंग में रंग गया था, आदित्य अपने कमरे में बैठा किताब के पन्ने पलट रहा था। तभी अचानक उसकी खिड़की के शीशे पर कुछ आहट हुई। उसने नज़र उठाई तो देखा कि शीशे के पीछे कोई साया खड़ा है, लेकिन उस साए का कोई चेहरा नहीं था, सिर्फ गहरी काली परछाईं। उसके हाथ काँप गए और डायरी ज़मीन पर गिर पड़ी। उसी क्षण दीवारों पर कई और काले धब्बे उभर आए, जैसे किसी ने अंदर से कालिख धकेल दी हो। कमरा घुटनभरा हो गया और उसे लगा कि परछाइयाँ अब सिर्फ उसका पीछा नहीं कर रहीं, बल्कि उसके भीतर घुसने की कोशिश कर रही हैं। उसने डर से आँखें बंद कर लीं, पर बंद आँखों के पीछे भी वही काले चेहरे तैरते रहे। उसे यक़ीन हो गया कि यह सब मंत्र पढ़ने के बाद शुरू हुआ है और अब उसकी ज़िंदगी उन अदृश्य ताक़तों के हाथों में है। उसका मन भीतर से चीख रहा था कि वह किताब को छोड़ दे, उसे न छुए, लेकिन उसकी जिज्ञासा, उसकी बेचैनी और यह जानने की प्यास कि परछाइयाँ आखिर चाहती क्या हैं, उसे मजबूर कर रही थी कि वह इस रहस्य में और गहराई तक उतरे। पर अब उसे यह भी समझ आने लगा था कि यह रास्ता सीधा किसी खाई की ओर ले जा रहा है।

अध्याय ४ – गाँव का इतिहास

परछाइयों का पीछा लगातार बढ़ता जा रहा था और अब आदित्य को यह महसूस होने लगा था कि उसके सवालों के जवाब कहीं न कहीं इसी गाँव के अतीत में छिपे हैं। उसने तय किया कि अब उसे चुपचाप किताब पढ़ने के बजाय गाँव के लोगों से सच्चाई जाननी होगी। लेकिन यह काम आसान नहीं था—क्योंकि गाँव वाले इस विषय पर बात करना ही पसंद नहीं करते थे। कई दिनों तक उसने कोशिश की, लेकिन जब भी वह डायरी या उस लाइब्रेरी का ज़िक्र करता, लोग चुप हो जाते या बहाना बनाकर उठ खड़े होते। अंततः एक शाम, जब गाँव का चौपाल सन्नाटा ओढ़े बैठा था और कुछ बुजुर्ग वहाँ खटिया पर बैठे बीड़ी पी रहे थे, आदित्य उनके पास पहुँचा। उसने सीधे सवाल किया—“इस गाँव में कभी कोई तांत्रिक रहता था? और यह डायरी उसी की है क्या?” बुजुर्गों ने एक-दूसरे की ओर देखा, उनकी आँखों में वही पुराना डर झलक रहा था। लंबे मौन के बाद एक सफेद दाढ़ी वाले वृद्ध ने धीमी आवाज़ में कहना शुरू किया। उनकी आँखें कहीं दूर अतीत में डूबी हुई थीं।

उन्होंने बताया कि कई दशक पहले गाँव में “कृष्णानंद” नाम का एक तांत्रिक आया था। लोग कहते थे कि वह साधारण इंसान नहीं था; उसकी आँखों में एक अजीब-सी चमक थी और उसके चारों ओर हमेशा भय का माहौल रहता था। शुरुआत में उसने बीमारों को ठीक करने और अनुष्ठान करने का काम किया, जिससे लोग उसे सम्मान देने लगे। लेकिन धीरे-धीरे उसका झुकाव काली विद्या की ओर बढ़ गया। रात के अँधेरे में दूर पहाड़ी पर उसकी साधनाओं की आवाज़ें गूँजतीं—मंत्रोच्चार, जानवरों की चीखें और आग की लपटें। कई लोगों का दावा था कि उसने मौत को मात देने और आत्माओं को बाँधने के लिए भयानक प्रयोग किए। लेकिन उसकी एक बड़ी साधना असफल हो गई। कहते हैं कि उसने किसी और लोक का द्वार खोलने की कोशिश की थी, और उसी रात गाँव में कई अजीब घटनाएँ घटीं—पशु-पक्षी मर गए, लोग पागल हो गए और आसमान में काले बादलों ने कई दिनों तक सूरज को ढँक लिया। उस रात के बाद किसी ने भी कृष्णानंद को जीवित नहीं देखा। कुछ कहते हैं कि वह अपनी ही साधना में जलकर राख हो गया, तो कुछ कहते हैं कि उसने खुद अपनी आत्मा को उस किताब में बाँध लिया, ताकि उसकी विद्या कभी मिट न सके।

बुजुर्गों ने धीमी आवाज़ में कहा कि वही किताब अब आदित्य के हाथ में है और उसी में कृष्णानंद की शक्ति क़ैद है। इसलिए जब भी कोई उसे पढ़ने की कोशिश करता है, उसकी अधूरी साधनाएँ जाग उठती हैं। उन्होंने आदित्य को चेतावनी दी कि गाँव के कई लोग पहले भी उस किताब के लालच में मारे गए या पागल हो गए थे। गाँव के छोड़े हुए हिस्से, टूटी हवेलियाँ और वीरान गलियाँ उसी शाप की गवाही देते हैं। आदित्य ध्यान से उनकी बातें सुनता रहा, उसके भीतर भय और जिज्ञासा की लड़ाई चल रही थी। अब उसे यह स्पष्ट हो गया कि जो परछाइयाँ उसका पीछा कर रही हैं, वे महज़ उसकी कल्पना नहीं, बल्कि उस तांत्रिक की अधूरी विद्या की परछाइयाँ हैं। बुजुर्ग ने अंत में कहा—“बेटा, अगर तू जिंदा रहना चाहता है, तो इस किताब को छोड़ दे। वरना यह तेरा जीवन भी निगल जाएगी।” लेकिन आदित्य की आँखों में अब एक अलग चमक थी। उसके सामने सिर्फ डर नहीं था, बल्कि एक अनोखा रहस्य था, जिसे सुलझाना उसके लिए जुनून बन चुका था। उसने बुजुर्गों का आभार माना, पर भीतर ही भीतर उसने तय कर लिया कि अब वह उस डायरी को पूरी तरह समझे बिना चैन से नहीं बैठेगा, चाहे उसकी कीमत कुछ भी क्यों न हो।

अध्याय ५ – निषिद्ध अध्याय

गाँव के बुजुर्गों से बातचीत के बाद आदित्य का मन और भी अशांत हो गया था। वह समझ चुका था कि यह किताब किसी साधारण तांत्रिक की नहीं, बल्कि उस कृष्णानंद की थी जिसने अपने जीवन में ऐसे प्रयोग किए थे, जिन्हें समझने की हिम्मत किसी ने नहीं की। अब उसका हर दिन और हर रात इसी डायरी को पढ़ने में बीतने लगा। धीरे-धीरे उसने शुरुआती पन्नों को समझ लिया था, लेकिन किताब के बीच का हिस्सा मानो किसी गहरे रहस्य से भरा हुआ था। वहाँ लिखी भाषा सीधी नहीं थी—विचित्र प्रतीकों, उलझे हुए चित्रों और गोल-गोल बने चिह्नों में कुछ ऐसा छिपा था जो उसे बार-बार रोकता, पर फिर भी खींचता था। कई बार उसे लगता कि यह प्रतीक उसके दिमाग में घूम रहे हैं, नींद में भी वही आकृतियाँ दिखतीं। धीरे-धीरे उसने कागज़ पर उन चिन्हों को उतारना शुरू किया और उन्हें जोड़ने की कोशिश की। कई दिनों की मेहनत के बाद उसने महसूस किया कि यह सिर्फ साधारण संकेत नहीं, बल्कि एक कोड की तरह है, जिसे पढ़ने पर किताब का एक गुप्त हिस्सा खुलता है। और सचमुच, जब उसने उन प्रतीकों को सही क्रम में जोड़ा, तो अचानक उसे एक ऐसा अध्याय दिखाई दिया जो अब तक उसकी नज़र से छिपा हुआ था।

यह अध्याय बाक़ी हिस्सों से बिल्कुल अलग था। पन्ने के किनारे काले और लाल रंग की लकीरों से घिरे हुए थे, और बीच में लिखा हुआ पाठ मानो किसी अजनबी ऊर्जा से चमक रहा था। शीर्षक में मोटे अक्षरों में लिखा था—“निषिद्ध अध्याय।” आदित्य का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसने पढ़ना शुरू किया और हर शब्द के साथ उसकी साँसें भारी होती चली गईं। उसमें लिखा था कि यह किताब अधूरी नहीं है; यह केवल एक साधन की कुंजी है। और यदि कोई साधक “अंतिम मंत्र” का उच्चारण कर ले, तो कृष्णानंद की अधूरी साधना पूरी हो जाएगी। लेकिन चेतावनी भी साफ लिखी थी—“यह मंत्र साधक की आत्मा को इस संसार और परलोक के बीच बाँध देगा। उसकी देह जीवित रहेगी, पर आत्मा परछाइयों के बंधन में फँस जाएगी। और तभी वह द्वार खुलेगा जिसे कृष्णानंद ने अपूर्ण छोड़ दिया था।” आदित्य के माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं। उसे अहसास हुआ कि अब तक उसने जो मंत्र पढ़े थे, वे केवल तैयारी भर थे, पर यह अंतिम मंत्र किसी भयावह शक्ति को जगा सकता है।

लेकिन यहीं उसका सबसे बड़ा संघर्ष शुरू हुआ। एक ओर उसका मन डर से कांप रहा था—क्या वह सचमुच अपनी आत्मा को दाँव पर लगाने की हिम्मत कर सकता है? पर दूसरी ओर शोधकर्ता के भीतर का जुनून उसे चैन नहीं लेने दे रहा था। यह केवल एक तांत्रिक की कहानी नहीं थी, बल्कि उस अंधेरे ज्ञान का द्वार था, जिसे सदियों से छुपाया गया था। अगर उसने यह रहस्य सुलझा लिया, तो शायद दुनिया को वह सच दिखा सकेगा, जिसे लोग अंधविश्वास मानते आए हैं। कमरे में बैठा हुआ वह बार-बार उस अध्याय को पढ़ता, फिर किताब बंद कर देता, फिर बेचैनी में खोल देता। उसकी आँखों के सामने बार-बार वही शब्द गूँजते—“अंतिम मंत्र।” मानो किताब खुद उसे पुकार रही हो। बाहर रात गहराती जा रही थी, खिड़कियों से आती ठंडी हवा पन्नों को हिलाती और दीये की लौ काँपने लगती। उसे लगा कि दीवारों की परछाइयाँ और पास आ गई हैं, जैसे वे उसकी प्रतीक्षा कर रही हों। आदित्य जानता था कि यह निषिद्ध अध्याय उसके जीवन की सबसे बड़ी खोज भी हो सकता है और सबसे बड़ा श्राप भी। पर उसकी आँखों में वही जिद चमक रही थी—वह अब पीछे नहीं हट सकता था।

अध्याय ६ – परछाइयों का हमला

रात का गहरा सन्नाटा पूरे गाँव को अपने आगोश में ले चुका था। आदित्य अपने कमरे में अकेला बैठा डायरी के पन्नों को देख रहा था, लेकिन उसका मन अब किसी भी शब्द पर टिक नहीं रहा था। पिछले कुछ दिनों से जो अजीब घटनाएँ उसके साथ हो रही थीं, उन्होंने उसके भीतर बेचैनी भर दी थी। उसे हर पल ऐसा लगता कि कोई उसकी हर हरकत पर नज़र रख रहा है। हवा तक मानो उसके कानों में फुसफुसाती थी। अचानक कमरे का दीपक बिना वजह काँपने लगा और दीवार पर टँगी परछाइयाँ लंबी होकर फैलने लगीं। आदित्य ने घबराकर इधर-उधर देखा, लेकिन कमरे में उसके सिवा कोई नहीं था। तभी दीवार से एक काली आकृति धीरे-धीरे बाहर निकलने लगी—पहले धुँधली, फिर स्पष्ट। उसका आकार इंसान जैसा था, लेकिन चेहरा बिल्कुल खाली, जैसे किसी ने गहरे अंधेरे से एक शरीर गढ़ दिया हो। आदित्य का दिल तेजी से धड़कने लगा। उसने उठने की कोशिश की, पर तभी एक और परछाई दूसरी दीवार से बाहर आ गई। देखते ही देखते पूरा कमरा ऐसी आकृतियों से भर गया, जो धीरे-धीरे उसकी ओर बढ़ने लगीं।

आदित्य ने पहली बार महसूस किया कि ये अब केवल उसका भ्रम नहीं, बल्कि वास्तविक शक्तियाँ हैं, जो उस पर हमला करने आई हैं। एक परछाई ने आगे बढ़कर उसका कंधा पकड़ लिया। उसका हाथ बर्फ जैसा ठंडा था, पर पकड़ इतनी मजबूत कि आदित्य चीख उठा। फिर दूसरी परछाई उसके पैरों से लिपट गई, तीसरी ने उसकी गर्दन पर कसाव डालना शुरू कर दिया। वह ज़मीन पर गिर पड़ा और सांस लेने के लिए छटपटाने लगा। उसकी आँखों के सामने अंधेरा छाने लगा और शरीर की ताकत जाती रही। पर उसी क्षण उसे अपने पास जलते दीपक की याद आई। उसने पूरी ताकत बटोरकर दीपक को उठाया और उसके सामने लहरा दिया। जैसे ही रोशनी उन परछाइयों पर पड़ी, वे एक पल के लिए पीछे हट गईं। उनके चेहरे पर अजीब-सी टीस उभरी, मानो रोशनी उन्हें जला रही हो। आदित्य ने दीपक को और ऊँचा उठाया और मंत्र की अधूरी पंक्तियाँ याद कर चिल्लाया। परछाइयाँ कराहती हुईं दीवारों में समा गईं, और कमरे में फिर से सन्नाटा छा गया। आदित्य हाँफते हुए ज़मीन पर गिर पड़ा, उसका शरीर पसीने से तर था।

कुछ देर बाद जब उसने साँस संभाली, तो उसकी नज़र अपने हाथों और सीने पर पड़ी। वहाँ गहरे नीले निशान थे, जहाँ परछाइयों ने उसे पकड़ा था। ये निशान साधारण चोट नहीं लग रहे थे, बल्कि मानो किसी ने भीतर तक अपनी छाप छोड़ दी हो। हर निशान से ठंडक निकल रही थी और दर्द उसकी नसों में दौड़ रहा था। आदित्य के मन में एक भयावह सत्य स्पष्ट हो गया—वह अब सिर्फ किताब पढ़ने वाला साधक नहीं रहा, बल्कि उस तंत्र की गिरफ्त में आ चुका है। परछाइयाँ अब उसे छोड़ने वाली नहीं थीं। दीपक की लौ ने उसे कुछ समय के लिए बचा लिया था, लेकिन वह जान गया कि यह केवल शुरुआत है। उस रात उसने अपने कमरे की खिड़कियाँ बंद कर दीं और दीपक को अपने सिरहाने रखकर जागता रहा। पर उसके भीतर यह एहसास गहराता जा रहा था कि चाहे वह कितना भी बचने की कोशिश करे, अब उसका जीवन अंधेरे की उन शक्तियों से बंध चुका है। और यह बंधन हर रात, हर क्षण और भी गहरा होता जाएगा।

अध्याय ७ – साथी की खोज

आदित्य अब तक परछाइयों के हमले, शरीर पर पड़े नीले निशान और मन में उठते भय के बीच बुरी तरह टूट चुका था। वह समझ चुका था कि अकेले इस रहस्य से निपटना उसके बस की बात नहीं। किताब के पन्ने हर दिन और अधिक भारी लगने लगे थे, मानो उनमें छिपी शक्ति उसकी आत्मा को निगल रही हो। उसी बेचैनी में वह गाँव की गलियों में भटकता फिरता, लोगों की आँखों में झाँककर उम्मीद ढूँढता कि शायद कोई इस रहस्य को समझे। एक शाम, जब सूरज डूब रहा था और आकाश पर लालिमा फैली हुई थी, उसकी नज़र गाँव के मंदिर के बाहर बैठी एक युवती पर पड़ी। वह मिट्टी की दीयों में तेल डाल रही थी, और उसके चेहरे पर एक अजीब शांति थी। आदित्य ने सहज भाव से उससे बातचीत शुरू की। युवती का नाम राधा था, और जब आदित्य ने उससे तांत्रिक की किताब और परछाइयों का ज़िक्र किया, तो उसकी आँखों में एक गंभीर चमक उभर आई। राधा ने धीरे-से कहा—“यह किताब सिर्फ़ एक साधारण ग्रंथ नहीं है, यह उस तांत्रिक की अधूरी साधना का बोझ है। अगर समय रहते इसे समाप्त न किया गया, तो यह पूरी बस्ती पर अपने अंधकार का जाल फैला देगी।” आदित्य को लगा कि वर्षों से जिस रहस्य को वह अकेले ढो रहा था, उसकी सच्चाई किसी और की ज़ुबान से सुनकर उसे राहत भी मिली और डर भी।

राधा गाँव की उन कुछ लोगों में से थी, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी लोककथाएँ, दंतकथाएँ और पुरानी घटनाओं की जानकारी रखती थीं। उसने आदित्य को बताया कि उसके पूर्वजों ने भी उस तांत्रिक के अत्याचारों को देखा था। जब वह साधना में असफल हुआ था, तब गाँव वालों ने उसे रोकने की कोशिश की थी, लेकिन उसकी शक्ति इतनी भयंकर थी कि उसका अंत ठीक से नहीं हो पाया। कहा जाता है कि वह आग में नहीं जल सका, और उसकी आत्मा अधूरी रह गई। तभी से उसकी शक्ति इस किताब में कैद है, और यही कारण है कि यह किताब किसी साधारण ग्रंथ की तरह नष्ट नहीं होती। राधा ने धीमी आवाज़ में कहा—“इससे छुटकारा पाने का एक ही तरीका है—अग्नि संस्कार। लेकिन ध्यान रखना, यह किताब खुद को बचाने की कोशिश करेगी। अग्नि को छूने से पहले ही यह अपने धारक को वश में करने लगती है। अगर मन डगमगा गया, तो किताब जला नहीं पाएगा, बल्कि वही किताब उसकी आत्मा को अपने अंदर समा लेगी।” आदित्य ने गहरी साँस ली। उसके मन में एक अजीब युद्ध छिड़ गया था—एक तरफ़ भय कि वह इस अग्नि संस्कार में असफल हो सकता है, और दूसरी तरफ़ उम्मीद कि शायद यही एकमात्र रास्ता है जिससे वह इस बुराई से छुटकारा पा सके।

राधा ने आदित्य का हाथ पकड़ते हुए कहा, “तुम अकेले नहीं हो। अगर तुम चाहो, तो मैं तुम्हारी मदद करूँगी।” उसकी आवाज़ में दृढ़ता थी, मानो वर्षों से इस क्षण का इंतज़ार कर रही हो। आदित्य ने उसकी आँखों में झाँककर देखा—वहाँ न कोई डर था, न ही संदेह। उस पल उसे महसूस हुआ कि इस अनजाने संघर्ष में उसे आखिरकार एक साथी मिल गया है। दोनों ने ठान लिया कि वे इस किताब को अग्नि संस्कार के लिए तैयार करेंगे। लेकिन राधा ने चेतावनी दी—“यह आसान नहीं होगा। परछाइयाँ और गहरे हमले करेंगी, किताब तुम्हें अपने मोहपाश में बाँधने की कोशिश करेगी। हमें हर कदम पर सतर्क रहना होगा।” रात गहराने लगी, और मंदिर की घंटियाँ दूर तक गूँज रही थीं। आदित्य और राधा ने वहीं मंदिर के प्रांगण में बैठकर योजना बनाई। अब आदित्य अकेला नहीं था, उसके पास कोई था जो इस अंधकार को समझता था और उससे लड़ने का साहस रखता था। मगर दिल के किसी कोने में उसे एहसास था कि आने वाली राह मौत से भी कठिन हो सकती है। फिर भी उसने निश्चय कर लिया—चाहे कुछ भी हो, अब वह पीछे नहीं हटेगा।

अध्याय ८ – किताब का श्राप

आदित्य और राधा ने लंबे समय तक तैयारी की थी। उन्होंने मंदिर के प्रांगण में छोटी राख और मिट्टी के दीपकों की व्यवस्था की, ताकि अग्नि संस्कार के लिए आवश्यक तैयारी पूरी हो सके। आदित्य के हाथ में वह काली चमड़े से बंधी डायरी थी, और उसके भीतर गहरी बेचैनी और भय के बीच जिज्ञासा भी जल रही थी। उसने दीपक की लौ के सामने किताब को रखा और धीमी साँस लेते हुए पहली बार उसे आग के करीब लाया। जैसे ही उसने आग लगाई, किताब अचानक अपनी ताक़त दिखाने लगी। पन्ने तेजी से पलटने लगे, मानो किसी अदृश्य हाथ ने उन्हें झकझोर दिया हो। आग का स्पर्श होते ही किताब खुद को बचाने की कोशिश करने लगी। कुछ पन्ने पहले ही जल गए, फिर अचानक लौ बुझ गई और धुएँ से भरी अजीब आकृतियाँ कमरे में उभरने लगीं। धुएँ में मानो अर्ध-अस्पष्ट चेहरों वाली परछाइयाँ तैर रही थीं, कुछ हँस रही थीं, कुछ चीख रही थीं। आदित्य और राधा दोनों ठिठक गए। कमरे का तापमान गिर गया और ठंडी हवा उनके चारों ओर घूमने लगी। आदित्य ने महसूस किया कि यह सामान्य आग नहीं थी—किताब में कैद तांत्रिक की शक्ति इसे खुद जलने नहीं दे रही थी, बल्कि हर कोशिश पर उसे चुनौती दे रही थी।

जैसे ही आदित्य ने किताब को और अधिक आग के पास रखा, वह पन्ने अपने आप पलटने लगी। प्रत्येक पन्ने के पलटने के साथ धुएँ से निकलती परछाइयाँ और अधिक सघन होती गईं। आदित्य के कानों में मंत्रों जैसी आवाज़ें गूँजने लगीं, जो मानो उसे अपनी ओर खींच रही थीं। उसकी आँखों के सामने वह गहरी नीली और काली चमक के प्रतीक उभरने लगे, और पन्ने लगातार “अंतिम मंत्र” की ओर बढ़ रहे थे। आदित्य ने अपने हाथ से उन्हें रोकने की कोशिश की, लेकिन वह असफल रहा। वह महसूस करने लगा कि यह केवल किताब नहीं है—यह तांत्रिक की अधूरी आत्मा है, जो स्वयं उसे अपने साधन-स्थल की ओर बुला रही है। कमरे में उठती ठंडी हवा और धुएँ की परछाइयाँ जैसे उसे बार-बार चेतावनी दे रही थीं—“यदि तू आगे बढ़ेगा, तो वापस लौटने का रास्ता नहीं रहेगा।” आदित्य का शरीर काँप रहा था, लेकिन भीतर का साहस उसे रोकने नहीं दे रहा था। उसे महसूस हुआ कि अब वह केवल किताब को नहीं जला रहा है, बल्कि तांत्रिक के पुराने शक्ति-स्थल में प्रवेश करने वाला है, जहाँ उसके सामने न केवल रहस्य बल्कि भयानक खतरे भी इंतजार कर रहे हैं।

राधा ने आदित्य को अपने पास खींचा और उसकी आँखों में देखा। वह जानती थी कि अब केवल साहस और मानसिक शक्ति ही उन्हें बचा सकती है। आदित्य ने गहरी साँस ली और मन में स्वयं से कहा कि चाहे कुछ भी हो, वह पीछे नहीं हटेगा। तभी किताब ने एक और अजीब क़दम उठाया—पन्ने अचानक चमक उठे और एक विशेष पृष्ठ पर ठहर गए, जिस पर विशाल प्रतीक और मंत्रों का संग्रह था। आदित्य ने महसूस किया कि यह वही पृष्ठ है, जहाँ तांत्रिक की अधूरी साधना का अंतिम रहस्य लिखा है। धुएँ से उठती आकृतियाँ उसके चारों ओर मंडराने लगीं, और कमरे में एक भयानक ऊर्जा भर गई। आदित्य ने मन में तय किया कि अब उसके पास और कोई विकल्प नहीं है—या तो वह इस साधना को पूरा होने से रोकेगा, या तांत्रिक की आत्मा उसे अपने अधूरे कार्यों में बाँध लेगी। जैसे ही उसने अंतिम मंत्र पढ़ने का साहस किया, कमरे की दीवारें धुएँ और नीली आभा से जगमगा उठीं, और आदित्य ने महसूस किया कि अब वह तांत्रिक की शक्ति के सीधे संपर्क में आ चुका है। यह पल उसके जीवन की सबसे बड़ी चुनौती थी, और यह समझने की घड़ी भी थी कि क्या वह अपनी जिज्ञासा और साहस से इस अंधकार से बाहर निकल पाएगा, या किताब का श्राप उसे हमेशा के लिए पकड़ लेगा।

अध्याय ९ – अंतिम अनुष्ठान

आदित्य और राधा ने तय किया कि अब कोई देरी नहीं हो सकती। आधी रात का समय था, गाँव गहरी नींद में था और केवल दूर-दूर तक फैली चाँदनी उनके रास्ते को उजागर कर रही थी। दोनों उस प्राचीन कक्ष की ओर बढ़े, जो वर्षों से वीरान पड़ा था। यह वही स्थान था जहाँ कृष्णानंद ने अपनी अधूरी साधना की थी और जहाँ से उसकी शक्ति अब तक आसपास मंडरा रही थी। जैसे ही उन्होंने कक्ष का दरवाज़ा खोला, ठंडी हवा और अजीब सी गंध ने उनका स्वागत किया। कमरे में पहले से ही भूतिया ऊर्जा गूँज रही थी—दीवारों पर धुएँ जैसी परछाइयाँ तैर रही थीं, और जमीन पर बिखरे पुराने राख के धब्बे मानो किसी भयानक अनुष्ठान की गवाही दे रहे थे। आदित्य का दिल जोर-जोर से धड़क रहा था, लेकिन राधा ने उसका हाथ कसकर पकड़ते हुए उसे प्रोत्साहित किया। उन्होंने कक्ष के मध्य में दीपकों की व्यवस्था की, और आदित्य ने गहरी साँस लेकर किताब को हाथ में उठाया।

आदित्य ने मंत्रोच्चार शुरू किया और राधा ने चारों ओर अग्नि प्रज्वलित की। जैसे ही उन्होंने किताब को अग्नि की ओर बढ़ाया, कमरे में अचानक हलचल मच गई। किताब खुद को बचाने की कोशिश करने लगी, पन्ने तेजी से पलटने लगे और नीली आभा फैल गई। तभी परछाइयाँ भी सक्रिय हो गईं—वे चीखते हुए और भयानक आकृतियाँ बनाते हुए आदित्य की ओर टूट पड़ीं। उनका रूप पहले अर्ध-अस्पष्ट था, लेकिन अब स्पष्ट होकर मानो जीवित हो उठा था। दीपकों की लौ झिलमिला उठी और आग की लपटें तेजी से कमरे में फैलने लगीं। आदित्य ने मन में खुद को संभाला और किताब को अग्नि में डाल दिया। पन्नों के जलने के साथ, परछाइयाँ चीखती हुईं और पीछे हटने लगीं, लेकिन वे पूरी तरह गायब नहीं हुईं। उनका स्पर्श आदित्य के शरीर पर महसूस हो रहा था, मानो उनके बंधन अभी भी कमजोर रूप में बने हुए हों।

अग्नि संस्कार लगातार जारी रहा, और धीरे-धीरे किताब की पन्नों से निकलती नीली आभा और परछाइयाँ पिघलने लगीं। कमरे में आग की रोशनी और मंत्रोच्चार का संगम ऐसा हुआ कि भूतिया ऊर्जा में बदलाव आने लगा। आदित्य ने अंतिम मंत्र का उच्चारण किया, और किताब धीरे-धीरे भस्म हो गई। उसकी राख हवा में उड़कर कक्ष के कोनों में बिखर गई, और परछाइयाँ चीखते हुए गायब हो गईं। कक्ष में अचानक एक शांति छा गई, मानो सदियों से बंधी शक्ति अब मुक्त हो गई हो। आदित्य और राधा ने गहरी साँस ली, उनका शरीर थकान और हल्की चोटों से भर गया था, लेकिन उनका मन संतोष से भरा हुआ था। उन्होंने महसूस किया कि तांत्रिक की अधूरी साधना अब पूरी नहीं होगी, और किताब का श्राप टूट गया है। बाहर जब उन्होंने देखा, तो गाँव की हवा में पहले जैसी सर्दी और अंधेरा नहीं था—सब कुछ सामान्य और शांत प्रतीत हो रहा था। आदित्य और राधा जानते थे कि उन्होंने एक भयानक शक्ति को पराजित किया है, लेकिन इस अनुभव ने उनके भीतर साहस, समझदारी और जीवन की नाजुकता का अद्भुत अहसास छोड़ दिया था।

अध्याय १० – मुक्ति या अभिशाप

सुबह का पहला सूरज धीरे-धीरे गाँव के ऊपर अपनी लालिमा फैलाने लगा। कक्ष जहाँ रात भर अंतिम अनुष्ठान हुआ था, अब खंडहर में बदल चुका था। दीवारें टूटी हुई थीं, चारों ओर राख और बिखरी हुई राख के धब्बे दिखाई दे रहे थे। कमरे में अब कोई भूतिया ऊर्जा नहीं थी, कोई नीली आभा नहीं तैर रही थी, और जो परछाइयाँ रात भर आदित्य का पीछा कर रही थीं, वे अब कहीं भी नहीं दिखाई दे रही थीं। गाँव वाले, जिन्होंने अंधेरे में दूर से आग और चीखें सुनी थीं, एक-एक करके उस प्राचीन कक्ष के पास आए। उनकी आँखों में भय और आश्चर्य का मिश्रण था। उन्होंने देखा कि वह काली चमड़े से बंधी डायरी अब केवल राख में बदल चुकी थी। आदित्य और राधा कमरे से बाहर निकलकर गाँव की ओर बढ़े। राधा ने ध्यान से आदित्य की ओर देखा और धीमी, हल्की मुस्कान के साथ कहा—“शायद अब उसकी आत्मा मुक्त हो गई है। शायद कृष्णानंद की अधूरी साधना अब पूरी नहीं होगी। हमने इसे रोका।” आदित्य ने हवा में साँस भरी और चारों ओर नजर दौड़ाई। वह जानता था कि रात की घटना केवल एक घटना नहीं थी, बल्कि उसने उस शक्ति के बीच अपनी जगह बनाई थी, और उसने अपनी हिम्मत और साहस से एक बड़ी विपत्ति को टाल दिया था।

लेकिन जैसे ही आदित्य गाँव की मुख्य सड़क पर पहुँचा, और घर की ओर बढ़ा, उसके भीतर एक अजीब सा एहसास उठा। हर चीज सामान्य लग रही थी—सूरज की रोशनी, हवा की ठंडक, पक्षियों की चहचहाहट—सब कुछ पहले की तरह जीवन्त था। उसने घर में कदम रखा और आईने के सामने खड़ा हो गया। पहली बार वह अपनी परछाई पर ध्यान दिया। वह धीरे-धीरे आईने में हाथ हिलाता है, और देखता है कि परछाई उसके साथ बिल्कुल नहीं हिल रही। जैसे वह आईने के भीतर कहीं और खड़ा हो। आदित्य के शरीर में एक अजीब सिहरन दौड़ गई। वह सोचता रहा कि क्या यह सच में किताब का श्राप टूट गया है या उसने किसी अन्य प्रकार की शक्ति को अपने भीतर बुला लिया है। राधा ने भी पीछे खड़े होकर देखा और उसने हाथ में हल्का सा काँप महसूस किया। दोनों जानते थे कि उन्होंने तांत्रिक की अधूरी साधना को समाप्त करने की कोशिश की, लेकिन क्या सच में कृष्णानंद की आत्मा मुक्त हुई या आदित्य अब उसी शक्ति का नया वाहक बन गया, यह कोई नहीं जानता।

आदित्य ने आईने में अपने चेहरे को ध्यान से देखा। उसका चेहरा वही था, लेकिन उसके भीतर वह अनुभूति थी जो पहले कभी नहीं हुई थी—मानो उसके अंदर किसी और की मौजूदगी, किसी अदृश्य शक्ति का संकेत था। वह धीरे-धीरे आईने से पीछे हटता है, लेकिन मन में सवाल उठता है—क्या उसने सच में मुक्ति दिलाई, या स्वयं उस शक्ति का हिस्सा बन गया? परछाई जो अब आईने में स्वतंत्र लग रही थी, मानो कह रही हो कि अब यह केवल शुरुआत है, और आने वाले दिनों में इसका रहस्य और प्रभाव उजागर होगा। आदित्य और राधा बाहर निकलते हैं, गाँव की सड़कों पर लौटते हैं, लेकिन दोनों जानते हैं कि इस अनुभव ने उनके जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया है। धूप की हल्की गर्मी में भी आदित्य के भीतर एक अजीब ठंडक थी, और उसकी आँखों में वही जिज्ञासा और साहस चमक रहा था। अंततः सवाल बाकी रह गया—क्या यह मुक्ति थी या नया अभिशाप? और यही रहस्य गाँव की गलियों में, किताब के बिना भी, अनकहा रह गया।

समाप्त

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