१
अगस्त की उमस भरी दोपहर थी, जब हवेली के पुराने दरवाज़े पर पीतल की घंटी तीन बार बजी और नौकरों ने बड़े हॉल में गूँजती आवाज़ में ऐलान किया—“ठाकुर साहब का फरमान! इस बरस सालाना भोज का आयोजन पूरे ठाठ-बाट से होगा।” यह खबर जैसे ही हवेली के भीतर पहुँची, आँगन में बैठी ठाकुराइन सावित्री देवी की आँखों में हल्की सी चमक आई, वहीं बरामदे में पान चबाते बड़े बेटे दिवाकर ने भौंहें सिकोड़ लीं। गाँव में ये सालाना भोज कभी ठाठ-बाट की पहचान था, लेकिन पिछले दस सालों से बंद पड़ा था—कुछ लोग कहते थे ठाकुर साहब की तबीयत वजह थी, कुछ कहते थे घर के भीतर के झगड़े। पर असली कारण कोई नहीं जानता था। अब अचानक इस भोज का ऐलान, वो भी सावन के आखिर में, हर किसी के दिल में एक सवाल छोड़ गया था। हवेली के बाहर, बड़े फाटक के पास जमा किसानों और चरवाहों में कानाफूसी शुरू हो गई—“इतने साल बाद भोज… कहीं ये कोई संकेत तो नहीं?” “संकेत? किसका?” “अरे, बुजुर्ग कहते थे कि पिछली बार भोज के बाद ही घर में अशुभ घटा था…” आवाज़ धीमी हो गई, लेकिन शक का बीज बो दिया गया।
अंदर हवेली की रसोई में जैसे युद्ध शुरू हो गया था। पुराना बावर्ची रघुनंदन अपने तीन चेलों के साथ अनाज के बोरों, मसालों के ढेर और मिट्टी के मटकों के बीच आदेश दे रहा था—“दाल में घी हाथ से डालना, माप से नहीं! और मिठाई में शक्कर ज्यादा… ठाकुर साहब को मीठा पसंद है।” रघुनंदन के चेहरे पर एक अनोखी बेचैनी थी, जैसे यह भोज सिर्फ खाने का नहीं, किसी और वजह का हो। हवेली के बरामदों में औरतें पीतल के थाल चमका रही थीं, आँगन में हलवाई बर्फ़ के बड़े-बड़े टुकड़े काट रहे थे ताकि मलाई ठंडी रखी जा सके। लेकिन इन सब शोर-शराबे के बीच एक अजीब-सी ठंडक थी—कुछ नौकर एक-दूसरे को देख कर धीमे स्वर में कहते, “इतना जोर-शोर… लेकिन क्या ठाकुर साहब वाकई खुश हैं?” और हर बार, पास खड़े किसी बुजुर्ग के चेहरे पर एक पल को साया सा उतर आता। हवेली के कोनों में धूल-भरी पुरानी तस्वीरें टंगी थीं—उनमें से एक में पिछले भोज का दृश्य था, ठाकुर साहब के पिता बड़े चौके में बैठे, और उनके आसपास मेहमानों की भीड़। तस्वीर के नीचे धुँधले अक्षरों में लिखा था—“सन १९७३”।
गाँव में इस ऐलान के बाद हलचल और गहरी हो गई थी। पनघट पर पानी भरती औरतों की बातें भी अब इसी के इर्द-गिर्द घूम रही थीं—“हमारी ननद कह रही थी, पिछली बार भोज के बाद ठाकुर साहब के छोटे भाई की तबियत बिगड़ गई थी…” “और मैंने तो सुना था, किसी को खाना खाते-खाते झटके आ गए थे।” गाँव के पुजारी सुरेश पांडे ने भी मंदिर में घंटा बजाते हुए चुपके से किसी से कहा, “इस भोज में सावधानी रखना, समय अच्छा नहीं है।” लेकिन निमंत्रण ठुकराने की हिम्मत किसी में नहीं थी—क्योंकि ठाकुर साहब का न्योता मना करना, गाँव में इज्ज़त छोड़ने के बराबर था। दिवाकर, अमरेन्द्र और ललिता—तीनों भाई-बहन भी अलग-अलग मनस्थितियों में थे। दिवाकर इसे पिता से सुलह का मौका मान रहा था, अमरेन्द्र को लग रहा था कि पिता के मन में कोई छुपी योजना है, और ललिता बस चुपचाप सब देख रही थी, जैसे किसी गहरी सोच में डूबी हो।
शाम ढलने पर हवेली के पिछवाड़े में, जहाँ पुराने हिस्से में धूल और मकड़ी के जाले जमा थे, एक पल के लिए दरवाज़ा खुला। नौकर कन्हैया वहाँ से चावल की बोरी निकालने आया था, लेकिन उसकी नज़र कमरे के कोने में रखी एक पुरानी लोहे की तिजोरी पर पड़ी। ताले में जंग लगी थी, पर दरवाज़ा अधखुला था। अंदर, पीतल के डिब्बों और पुरानी चाँदी की थालियों के बीच, एक धूल-भरी काँच की शीशी रखी थी—उसकी गर्द इतनी थी कि रंग पहचानना मुश्किल था, लेकिन धूप की एक किरण उसमें से गुज़रते हुए बोतल के अंदर की हल्की पीली पाउडर जैसी चीज़ पर पड़ रही थी। कन्हैया ने हाथ बढ़ाया ही था कि पीछे से रघुनंदन की भारी आवाज़ गूँजी—“उधर मत छूना! वहाँ जो रखा है, वो देखने की चीज़ नहीं।” कन्हैया सकपका कर पीछे हट गया, और तिजोरी का दरवाज़ा तुरंत बंद हो गया। कमरे का सन्नाटा फिर से लौट आया, लेकिन अब उस धूल-भरी शीशी की छवि जैसे हवेली की हवा में घुल गई थी—अदृश्य, पर महसूस होने वाली, आने वाले भोज के ऊपर एक साया बनकर।
२
बरसों पुरानी हवेली, जिसकी दीवारें समय के साथ काली पड़ चुकी थीं, अब भी अपनी ऊँची छतों और नक्काशीदार खंभों में बीते युग की शान समेटे खड़ी थी। हवेली के आँगन में सुबह-सुबह ठाकुर रणविजय प्रताप सिंह की आवाज़ गूँजती थी, जब वे अपने खेतों और गाँव के मसलों पर आदेश देते। उनके साथ इस घर में उनकी पत्नी सावित्री देवी रहती थीं—धार्मिक, पर भीतर ही भीतर अपने पति के फैसलों को लेकर कटु। बड़ा बेटा दिवाकर, शहर में व्यापार करने वाला, हर महीने कुछ दिनों के लिए ही घर आता था; उसकी पत्नी शशिकला, आधुनिक सोच की औरत, हवेली की परंपराओं में घुटन महसूस करती थी। छोटा बेटा अमरेन्द्र खेत-बाड़ी देखता, लेकिन उसे हमेशा लगता कि पिता उसका योगदान कम आँकते हैं। गोद ली हुई बेटी ललिता, शांत स्वभाव की, घर के कामों में लगी रहती पर उसके भीतर की चुप्पी किसी अनकहे रहस्य का संकेत देती थी। नौकरों में सबसे पुराना नाम था रघुनंदन—बूढ़ा बावर्ची, जिसके हाथ का स्वाद पूरे गाँव में मशहूर था, और जिसके चेहरे की झुर्रियों में पुराने दिनों के किस्से दफ़न थे।
यह हवेली सिर्फ एक मकान नहीं थी, बल्कि पीढ़ियों से चले आ रहे एक जमींदार घराने का प्रतीक थी। ठाकुर रणविजय के दादा ने अंग्रेज़ी राज में अफसरों से करीबी रखकर, और कभी-कभी विरोधियों को दबाकर, ज़मीनें बढ़ाई थीं। गाँव में आज भी लोग फुसफुसाते थे कि कई खेत और बागान धोखे से हड़पे गए—कभी कर्ज़ के नाम पर, कभी नकली दस्तावेज़ बनवाकर। रणविजय के पिता के समय में भी एक बड़ा विवाद हुआ था, जिसमें पड़ोसी गाँव के किसानों ने हवेली के खिलाफ मोर्चा निकाला था, लेकिन उसे दबा दिया गया। कहा जाता है कि उसी दौर में हवेली में हुई एक दावत में कुछ अजीब घटा था—पर उस किस्से के बारे में कोई खुलकर बात नहीं करता था। हवेली की आलमारी में रखे पुराने रजिस्टर, दस्तावेज़ और तस्वीरें इस इतिहास के मूक गवाह थे, जिन्हें सिर्फ परिवार के बड़े लोग ही छू सकते थे।
रघुनंदन, जिसने इस हवेली में अपनी पूरी ज़िंदगी गुज़ारी, एक कमरे को हमेशा बंद रखता था—पुराने हिस्से का छोटा-सा कमरा, जिसकी खिड़की हमेशा भीतर से कुंडी लगी रहती थी। वह कहता था कि यह उसके पिता की याद में है, जो पचास साल पहले अचानक चल बसे थे। लोग कहते थे, उसके पिता भी इसी हवेली के बावर्ची थे और एक भोज के दौरान उनकी मौत हुई थी—क्यों, कैसे, कोई नहीं जानता था। जब कोई नौकर उस कमरे के पास जाता, रघुनंदन गुस्से से टोक देता, “उधर मत जाया करो… वहाँ सिर्फ अतीत का साया है।” कभी-कभी रात में, जब हवेली में सन्नाटा होता, तो उस कमरे के भीतर से बर्तनों की खनक या धीमी सरगोशियाँ सुनने का दावा भी कुछ नौकर करते थे।
हवेली के मुख्य बरामदे में, दीवार पर टंगी एक बड़ी, पर फीकी पड़ चुकी तस्वीर, सबकी नज़र खींचती थी। तस्वीर में पचास साल पुराना भोज कैद था—लंबी पंगत में बैठे मेहमान, बीच में ठाकुर रणविजय के पिता, और उनके पीछे खड़े रघुनंदन के पिता। तस्वीर के कोनों पर हल्के भूरे धब्बे और धूल की परत थी, लेकिन पास जाकर देखने पर मेहमानों के चेहरों में एक अजीब-सी खिंचाव और असहजता दिखती थी—जैसे कैमरे की क्लिक के बीच में ही कुछ अनहोनी घट चुकी हो। सावित्री देवी जब भी उस तस्वीर के पास से गुज़रतीं, एक पल रुककर उसे देखतीं और फिर चुपचाप आगे बढ़ जातीं, जैसे उस जमे हुए पल में कोई ऐसा राज़ छिपा था, जिसे सिर्फ वे ही समझती थीं।
३
भोज का दिन नज़दीक आते ही हवेली में मेहमानों का आना-जाना बढ़ गया था। बड़े फाटक के पास खड़े नौकर लगातार आने वालों के नाम पुकार रहे थे—गाँव के मुखिया रामकिशोर सिंह अपने चौड़े कंधों और लाल पगड़ी के साथ, पटना से आए ठाकुर साहब के रिश्तेदार महेन्द्र बाबू अपनी पत्नी और बेटे के साथ, और पास के कस्बे के धनवान व्यापारी जयराम अग्रवाल, जो हवेली के पुराने दोस्त भी थे। सबसे अंत में, सफ़ेद धोती-कुर्ता पहने, गले में रुद्राक्ष की माला डाले गाँव के पुजारी सुरेश पांडे दाखिल हुए। वे रणविजय के बचपन के दोस्त थे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उनके बीच ठंडी दूरी थी—गाँव में लोग जानते थे कि मंदिर की ज़मीन को लेकर दोनों में एक बार खुला विवाद हो चुका था। फाटक के बाहर गाँव के आम लोग भी जुटे थे, जिन्हें भोज में देर शाम बुलाया जाना था, लेकिन वे अभी से हवेली के भीतर की हलचल देखने के लिए उत्सुक थे। मेहमानों के साथ लाए गए उपहार—पीतल के बर्तन, फल-सब्ज़ियों की टोकरियाँ, और मिठाई के बड़े-बड़े डिब्बे—आँगन में जमा होते जा रहे थे, जिनकी गिनती नौकर कर रहे थे।
इसी भीड़भाड़ के बीच, बरामदे में बड़ा बेटा दिवाकर और छोटा बेटा अमरेन्द्र आमने-सामने आ गए। पहले तो बात खेतों की देखरेख पर हो रही थी, लेकिन जल्द ही सुर बदल गया। दिवाकर ने तीखे स्वर में कहा, “तुम्हें पता भी है, पिछली फसल में कितना घाटा हुआ? अगर खेत तुम्हारे जिम्मे रहेंगे, तो हमें सिर्फ कर्ज़ ही मिलेगा।” अमरेन्द्र का चेहरा लाल हो उठा, “कम से कम मैं खेतों को जुए में नहीं हार रहा हूँ, भाई साहब… आपके कारोबार का हाल सबको पता है।” दोनों के बीच आवाज़ इतनी ऊँची हो गई कि पास खड़े मेहमान भी ठिठक गए। नौकरों ने जल्दी से बीच-बचाव किया, लेकिन हवेली की हवा में यह तनाव ऐसे घुल गया, जैसे बारिश से पहले की उमस—दिखाई न दे, पर हर सांस में महसूस हो। ठाकुर रणविजय की निगाह एक पल के लिए उन पर पड़ी, और उन्होंने बिना कुछ कहे अपनी मूंछों को ऐंठते हुए नज़र फेर ली, मानो यह झगड़ा भी उनके लिए कोई नई बात न हो।
शाम ढलने से पहले, आँगन के कोने में एक और अजीब दृश्य घटा। गोद ली हुई बेटी ललिता, जो दिन भर मेहमानों के स्वागत और सजावट में लगी थी, अचानक पिछवाड़े की तरफ चली गई। नौकरानी पार्वती, जो वहीं पानी भर रही थी, ने देखा कि ललिता किसी अनजान आदमी से धीमी आवाज़ में बातें कर रही है। आदमी का चेहरा आधा अंधेरे में था, लेकिन उसकी पोशाक से लगता था कि वह गाँव का नहीं है। ललिता के हाथ में एक छोटा कागज़ का टुकड़ा था, जिसे उसने जल्दी से अपनी ओढ़नी में छुपा लिया। पार्वती ने कुछ सुनने की कोशिश की, लेकिन जैसे ही ललिता की नज़र उस पर पड़ी, उसने बातचीत खत्म की और तेजी से आँगन में लौट आई। उस अनजान शख्स को फिर किसी ने नहीं देखा, और पार्वती के मन में यह सवाल कौंधता रहा कि इतने मेहमानों के बीच यह अजनबी कौन था और ललिता उससे क्या कह रही थी।
उसी समय, हवेली के भीतर रसोई में अलग ही हलचल थी। सावित्री देवी चुपचाप रसोई के दरवाज़े पर पहुँचीं, जहाँ बावर्ची रघुनंदन अपने चेलों को निर्देश दे रहा था। वे बिना कुछ कहे अंदर आईं और हल्की-सी खाँसकर रघुनंदन का ध्यान खींचा। फिर उन्होंने अपनी नज़र एक विशेष बर्तन की ओर डाली—चाँदी की थाली, जिसमें भोज की पहली पंगत परोसनी थी। उनकी आँखों में एक क्षण के लिए ऐसा भाव आया जिसे समझना मुश्किल था—जैसे किसी ने कोई पुरानी योजना याद दिला दी हो। रघुनंदन ने चुपचाप सिर हिलाया, और थाली को बाकी बर्तनों से अलग रख दिया। यह सब इतना सामान्य तरीके से हुआ कि आस-पास खड़े नौकरों ने शायद ध्यान भी न दिया, लेकिन अगर किसी ने गौर किया होता, तो समझ जाता कि इस थाली का कुछ खास महत्व है। हवेली में शोर-शराबा और मेहमानों की हंसी जारी थी, लेकिन इस छोटी-सी चुप संकेत की गूँज रसोई की दीवारों से निकलकर सीधे उस आने वाली रात की ओर जा रही थी, जो हवेली के लिए आख़िरी भोज की रात बनने वाली थी।
४
दोपहर का वक़्त था और हवेली के पिछले हिस्से में सन्नाटा पसरा हुआ था। बाकी नौकर रसोई और आँगन में काम में जुटे थे, लेकिन अमरेन्द्र किसी बहाने बावर्ची रघुनंदन के कमरे की तरफ निकल आया। पुराना कमरा, जिसकी दीवारों पर धुएँ और तेल के धब्बे जमे थे, हवेली के बाकी हिस्सों से अलग-थलग पड़ता था। कमरे के कोने में एक पुरानी लोहे की अलमारी थी—जंग लगी, किनारों से थोड़ी मुड़ी हुई, और ताले पर धूल की मोटी परत जमी हुई। अमरेन्द्र को हमेशा से इस अलमारी के बारे में जिज्ञासा थी, क्योंकि रघुनंदन इसे कभी किसी के सामने नहीं खोलता था। आज, दरवाज़ा आधा खुला हुआ था और ताला नीचे फर्श पर पड़ा था। शायद जल्दबाज़ी में रघुनंदन बाहर गया था। अमरेन्द्र ने इधर-उधर देखा, और फिर अलमारी का दरवाज़ा पूरी तरह खोल दिया। अंदर बेतरतीब ढंग से रखे पुराने बर्तन, पीतल के डिब्बे, और कुछ लकड़ी के बक्से नज़र आए।
अमरेन्द्र की नज़र एक छोटे, गोल, पीतल के डिब्बे पर पड़ी, जो बाकी सामान से अलग एक मखमली कपड़े में लिपटा था। उसने सावधानी से कपड़ा हटाया और डिब्बा खोला—अंदर हल्के पीले रंग का बारीक पाउडर था, जिसकी गंध अजीब और तीखी थी, जैसे कोई पुरानी दवा हो। वह पाउडर हल्की हवा से भी उड़ने को तैयार लग रहा था। अमरेन्द्र ने उंगलियों से हल्का-सा छूने की कोशिश की ही थी कि अचानक दरवाज़े पर भारी कदमों की आवाज़ आई। यह रघुनंदन था—उसकी आँखें चौड़ी हो गईं और चेहरे पर एक पल में घबराहट उतर आई। वह तेज़ी से कमरे में आया, डिब्बा अमरेन्द्र के हाथ से झपटकर बंद किया और कपड़े में लपेटते हुए भारी आवाज़ में बोला, “ये चीज़ देखने की नहीं, दफ़नाने की है।” अमरेन्द्र कुछ कह पाता, उससे पहले रघुनंदन ने अलमारी का दरवाज़ा ज़ोर से बंद किया और ताले में कुंडी चढ़ा दी। उसकी साँसें तेज़ चल रही थीं, जैसे उसने किसी बड़े खतरे को समय रहते टाल दिया हो।
अमरेन्द्र के मन में सवाल उमड़ने लगे—क्या था उस डिब्बे में? और क्यों रघुनंदन इतना डर गया? लेकिन इससे पहले कि वह पूछताछ करता, रघुनंदन ने उसे कठोर निगाहों से देखा और कहा, “इस हवेली में बहुत कुछ है, जो जितना पुराना है, उतना ही खतरनाक भी। ज्यादा जानने की कोशिश मत करो, वरना तुम्हें भी…।” वाक्य अधूरा छोड़कर वह मुड़ गया, लेकिन अमरेन्द्र के कानों में वह अधूरा वाक्य गूँजता रहा। उसी समय, हवेली की दीवारों के बीच एक पुरानी स्मृति जैसे जाग उठी—फ्लैशबैक, पचास साल पहले का, जब यही हवेली रोशनी और मेहमानों से भरी हुई थी। लंबी पंगत में बैठे लोग, हंसी-ठिठोली, और बीच में एक नौजवान मेहमान—शायद किसी रिश्तेदार का बेटा—जो खाना खाते-खाते अचानक सीधा बैठ गया, उसके हाथ कांपने लगे, और कुछ ही पल में उसका चेहरा नीला पड़ गया। हॉल में अफरा-तफरी मच गई, लेकिन तब के ठाकुर साहब ने सबको चुप करा दिया और कहा, “यह कोई साधारण बात नहीं, पर हवेली के बाहर इसका ज़िक्र न हो।”
उस घटना के बाद गाँव में अफवाहें फैल गईं—किसी ने कहा, नौजवान को सांप ने काटा था, तो किसी ने दावा किया कि खाने में कुछ मिलाया गया था। पुलिस भी आई थी, लेकिन हवेली के प्रभाव के आगे मामला दबा दिया गया। बस इतना सच सबको पता था कि उस भोज के बाद हवेली में सालों तक कोई बड़ा आयोजन नहीं हुआ। रघुनंदन तब छोटा था, लेकिन उसने अपने पिता को उस रात चुपचाप रसोई से एक डिब्बा निकालते देखा था, ठीक वैसा ही जैसा आज अमरेन्द्र के हाथ में आया था। शायद वही पाउडर, वही रहस्यमय चीज़, जो किसी की जान ले चुकी थी और अब भी इस हवेली में किसी अज्ञात इंतज़ार में दफ़न थी। वर्तमान में लौटकर, अमरेन्द्र ने देखा कि रघुनंदन अलमारी की चाबी अपनी कमर की रस्सी में बाँध रहा था और कमरे का दरवाज़ा भीतर से बंद कर रहा था। बाहर शाम का धुंधलका उतर रहा था, लेकिन हवेली के भीतर ज़हर की वह अदृश्य छाया और गहरी होती जा रही थी।
५
हवेली उस रात मानो किसी राजमहल में तब्दील हो गई थी। चारों ओर पीतल के दीयों की लौ झिलमिला रही थी, बरामदों में लटकते रंग-बिरंगे झालर, आँगन में सजे फूलों के गमले, और मुख्य द्वार पर खड़े मशालची हर आने-जाने वाले मेहमान का स्वागत कर रहे थे। ढोल-नगाड़ों की थाप पूरे वातावरण में उत्सव का रंग भर रही थी, और नौकर-चाकर बड़े सलीके से मेहमानों को अंदर तक ले जाकर उनकी जगह दिखा रहे थे। लज़ीज़ पकवानों की खुशबू हर ओर फैली थी—तंदूर से उठता धुएँ का सुगंध, घी में तली पूरियों की महक, और देसी मसालों से सजे कबाबों की गंध मिलकर भूख को और बढ़ा रही थी। बारामदे में गपशप के अलग-अलग छोटे-छोटे घेरे बन गए थे—कहीं पुराने किस्से दोहराए जा रहे थे, तो कहीं ठहाकों के बीच पुरानी दोस्ती का रंग जम रहा था। इस शोर-गुल और चमक-दमक के बीच, ठाकुर साहब रणविजय को लोग मानो अपनी आँखों का तारा बनाए बैठे थे—उनके किस्से सुन रहे थे, हँस रहे थे, और बीच-बीच में उन्हें खाने-पीने का आग्रह कर रहे थे।
ठाकुराइन सावित्री, जो आमतौर पर पर्दे के पीछे रहती थीं, इस रात खुद अपने हाथों से मेहमानों को परोस रही थीं। उनकी चाल में एक गरिमा थी, और उनके चेहरे पर हल्की मुस्कान मानो वर्षों पुरानी परंपरा का सम्मान कर रही थी। जब रणविजय के सामने पहली थाली रखी गई, तो उन्होंने ही उसे बड़े प्रेम से परोसा। चाँदी की थाली में तरह-तरह के व्यंजन सजे थे—सुगंधित पुलाव, मखमली दाल, गरमा-गरम शाही पनीर, और कोने में रखी हरी-भरी पुदीने की चटनी। रणविजय ने कौर उठाने से पहले सावित्री की ओर कृतज्ञता से सिर हिलाया, और उन्होंने भी धीमे से आशीर्वाद दिया—“खाइए, ठाकुर साहब, यह रात यादगार हो।” उनके स्वर में आत्मीयता थी, लेकिन आँखों की गहराई में कुछ ऐसा था जिसे उस समय शायद कोई पढ़ नहीं पाया। रणविजय ने पहला कौर लिया, और चारों ओर से बातचीत और हँसी की आवाजें फिर से गूँजने लगीं।
भोजन के बीच ही, जब लोग एक-दूसरे से उत्सव की बातें कर रहे थे, अचानक रणविजय के चेहरे का रंग बदलने लगा। उन्होंने हल्की-सी खाँसी की, फिर पानी का गिलास उठाने की कोशिश की, लेकिन हाथ काँप गए। उनकी खाँसी तेज होती गई—पहले हल्की, फिर गहरी और रुक-रुक कर आने वाली। बगल बैठे मेहमान पहले तो चौंके, फिर जल्दी से उनकी पीठ थपथपाने लगे। लेकिन स्थिति तेजी से बिगड़ रही थी—रणविजय का चेहरा अब लाल से नीला पड़ने लगा, और उनकी आँखों में घबराहट साफ झलक रही थी। तभी उन्होंने अचानक एक झटका खाया और कुर्सी से नीचे गिर पड़े। प्लेट से कुछ व्यंजन जमीन पर बिखर गए, और उनकी चाँदी की चम्मच पत्थर के फर्श पर टनटनाकर घूम गई। पूरा माहौल जो अभी तक रौनक और संगीत से भरा था, अचानक सन्नाटे और अफरा-तफरी में बदल गया।
जैसे ही लोग रणविजय को सँभालने के लिए झुके, एक हल्की-सी कड़वी गंध थाली से उठती महसूस हुई। यह गंध पकवानों की खुशबू से बिलकुल अलग थी—कुछ तीखी, कुछ अजीब, मानो किसी औषधि या रसायन की हो। कुछ मेहमान नाक पर रूमाल रखकर पीछे हट गए, जबकि बाकी घबराकर पानी और नींबू लाने को चिल्लाने लगे। ठाकुराइन सावित्री वहीं खड़ी थीं, उनका चेहरा अजीब-सा निर्विकार था—न आँसू, न चीख, बस स्थिर निगाहें रणविजय पर टिकी हुईं। उनके आसपास का कोलाहल बढ़ता गया—किसी ने वैद्य को बुलाने के लिए दौड़ लगाई, किसी ने नौकरों को आदेश दिया कि दरवाजे बंद कर दिए जाएँ। ढोल-नगाड़ों की थाप कब रुक गई, किसी को पता नहीं चला; हवेली की रोशनी अब उतनी चमकदार नहीं लग रही थी। उस रात के भोज का स्वाद, जो कुछ देर पहले तक सबकी ज़ुबान पर था, अब भय और संदेह के कड़वे अहसास में बदल गया था।
६
पुलिस इंस्पेक्टर विकास यादव ने सुबह-सुबह ही दिवाकर की हवेली का रुख किया। रात भर बारिश हुई थी, और पुराने पत्थरों से बनी हवेली की दीवारों पर पानी की पतली धारियाँ अब भी बह रही थीं। हवेली के भीतर कदम रखते ही एक बासी-सी, उदास गंध महसूस हुई—मानो यहाँ अभी-अभी कोई अनहोनी हुई हो, और हवा ने भी उसका मातम मनाने का फैसला कर लिया हो। विकास ने सबसे पहले खाने के बचे हुए नमूने इकट्ठे कराए और उन्हें फोरेंसिक लैब भेज दिया। शाम होते-होते रिपोर्ट आ गई—दुर्लभ पुराना ज़हर, जिसे अब बाजार में ढूँढना लगभग नामुमकिन है, लेकिन पुराने ज़माने में खेतों में कीट मारने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। यह जानकारी विकास को और सतर्क कर गई, क्योंकि इसका मतलब था कि ज़हर किसी ऐसे व्यक्ति के पास से आया है, जिसके पास पुराने समय का सामान और उसकी जानकारी है।
रिपोर्ट मिलने के बाद विकास ने हवेली के भीतर जाकर सबसे पहले रसोई की तरफ रुख किया। रसोई में लकड़ी का चूल्हा, पीतल के बर्तन और दीवार पर टंगे पुराने मसालों के डिब्बे थे—मानो समय यहाँ दशकों पहले रुक गया हो। विकास ने रसोई में पिछले चौबीस घंटों में प्रवेश करने वाले सभी लोगों की सूची बनवाई। सबसे पहले नाम आया रघुनंदन का—हवेली का पुराना नौकर, जो पिछले तीस साल से यहाँ काम कर रहा था और रसोई की साफ-सफाई से लेकर बर्तन धोने तक हर काम करता था। दूसरा नाम था सावित्री देवी का—दिवाकर की दूर की रिश्तेदार, जो पिछले कुछ महीनों से हवेली में रह रही थीं और रसोई में अक्सर मदद करती थीं। दोनों को विकास ने हवेली के आँगन में बुलवाया और सख्त लहजे में पूछताछ शुरू की। रघुनंदन का जवाब सीधा-सादा था, पर उसकी आँखों में एक अजीब-सी बेचैनी थी। सावित्री देवी ने अपने ठहर-ठहर कर दिए गए जवाबों में बार-बार यही दोहराया कि उन्होंने खाना छुआ तक नहीं, लेकिन उनकी आवाज़ में आत्मविश्वास की कमी थी।
जाँच के दौरान विकास ने हवेली के पुराने दस्तावेज़ और दिवाकर के निजी कागज़ात भी खंगालने शुरू किए। यहीं से एक चौंकाने वाली बात सामने आई—दिवाकर पर एक मोटा बैंक कर्ज़ था, जिसकी अदायगी की तारीख़ नज़दीक आ चुकी थी। साथ ही, उसने हाल ही में अपने पुश्तैनी खेत और कुछ हिस्सों की जमीन बेचने की योजना बनाई थी, लेकिन परिवार में इसके विरोध की आशंका थी। ज़मीन बेचने की योजना का फायदा केवल उसी व्यक्ति को हो सकता था, जो या तो कर्ज़ से छुटकारा पाना चाहता हो, या फिर दिवाकर की संपत्ति पर अधिकार चाहता हो। विकास के मन में शक का दायरा और सिमट गया—अब यह मामला सिर्फ़ ज़हर देने तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें पैसों और जमीन के लालच का गहरा खेल छिपा था।
शाम ढलते-ढलते हवेली के आँगन में सन्नाटा और गहरा हो गया था। बाहर नीम के पेड़ पर बैठे कौवे बार-बार कांव-कांव कर रहे थे, मानो किसी अनदेखे ख़तरे की चेतावनी दे रहे हों। विकास ने हवेली के चारों ओर एक आख़िरी नज़र डाली और महसूस किया कि यह घर रहस्यों से भरा हुआ है—यहाँ हर चेहरा कुछ छुपा रहा है। रघुनंदन की झुकी नज़रों में, सावित्री देवी के हिचकिचाते शब्दों में, और दिवाकर की फाइलों में दबे कागज़ों में—हर जगह कोई न कोई सुराग था, लेकिन सही धागा पकड़ने के लिए उसे और गहराई में जाना होगा। विकास ने ठान लिया कि अब वह हवेली के भीतर हर कमरे, हर बक्से और हर रिश्ते की तह तक जाएगा, क्योंकि उसे यकीन था कि इस ज़हर की कहानी महज़ एक हत्या नहीं, बल्कि एक लंबे समय से चल रही साज़िश का हिस्सा है।
७
अंधेरी और सीलन भरी हवेली के स्टोररूम में इंस्पेक्टर अर्जुन को एक भारी-भरकम लकड़ी की अलमारी के भीतर पुराना रजिस्टर मिला था, जिसकी जिल्द पर धूल और मकड़ी के जाले की परतें जमी हुई थीं। पन्ने पीले पड़ चुके थे और कागज़ में से बासी स्याही की गंध निकल रही थी। वह टेबल पर बैठकर पन्ने पलटने लगा, और तभी उसकी नज़र 50 साल पुराने एक पन्ने पर पड़ी, जिसमें कुछ शब्द मोटे और तिरछे अक्षरों में दर्ज थे—”भोज, मौत, ज़हर”। तारीख़ उस साल की थी, जब ठाकुर रणविजय के पिता ने अपनी हवेली में सालाना शाही भोज रखा था। रजिस्टर में हवेली के मेहमानों की सूची थी, पर सबसे आख़िरी में दो नाम अलग से दर्ज थे—”गोमती, नौकरानी” और “हरिकिशन, अस्तबल का सहायक”। नीचे लाल स्याही से एक संक्षिप्त नोट लिखा था—”भोज के दौरान अचानक तबीयत बिगड़ने पर मृत्यु, कारण – संदिग्ध”। अर्जुन की भौंहें सिकुड़ गईं। वह आगे पढ़ने लगा और पाया कि दोनों को खाने में मिले ज़हर से मौत हुई थी। मगर रजिस्टर का असली चौंकाने वाला हिस्सा अगले पन्ने पर था—एक अधूरा वाक्य, मानो लिखने वाला जल्दबाज़ी में था—”गोमती गर्भवती थी… बच्चा मर गया… किंतु…” इसके बाद पन्ना अचानक खाली था, जैसे किसी ने जानबूझकर शब्द मिटा दिए हों।
अर्जुन का दिल तेज़ धड़कने लगा। यह हवेली वर्षों से रहस्यों की परतों में ढकी हुई थी, मगर यह घटना तो और गहरी साज़िश की ओर इशारा कर रही थी। वह जानता था कि ग्रामीण लोककथाओं में अक्सर ज़हरीले भोज और हवेली के श्राप का ज़िक्र आता है, लेकिन अब दस्तावेज़ी सबूत उसके सामने थे। उसने अपने दिमाग़ में जोड़-घटाव करना शुरू किया—गोमती और हरिकिशन की मौत एक साथ होना, ठाकुर के भोज में ही ज़हर का मिलना, और फिर अचानक लिखने वाले का रुक जाना… यह महज़ इत्तफ़ाक़ नहीं हो सकता था। गाँव के बुज़ुर्गों से उसने पहले भी सुना था कि उस रात हवेली में एक और अजीब घटना हुई थी—एक बच्ची की हल्की रोने की आवाज़ सुनी गई थी, जबकि कहा गया था कि गर्भ में पल रहा बच्चा भी ज़हर से मर चुका है। अर्जुन ने सोचा कि अगर बच्चा बचा था, तो उसे क्यों छुपाया गया? किसने उसे ले जाकर पाला? और क्या वह बच्चा आज भी ज़िंदा हो सकता है?
जैसे ही वह आगे पढ़ने के लिए रजिस्टर में खो गया, उसे एक और नोट मिला—रघुनंदन के पिता के बारे में। बस एक ही लाइन लिखी थी—”भोज के बाद से लापता”। यह वही दिन था, जब गोमती और हरिकिशन की मौत हुई थी। अर्जुन ने इस संयोग को अनदेखा नहीं किया। रघुनंदन, जो आज हवेली का सबसे पुराना नौकर है, हमेशा अजीब चुप्पी साधे रहता है, और हवेली की कई पुरानी घटनाओं के बारे में बात करने से कतराता है। क्या यह संभव है कि उसके पिता उस बच्चे को लेकर गायब हो गए हों? या फिर वे इस ज़हरीले कांड के गवाह थे और इसलिए उन्हें चुप करा दिया गया? अर्जुन के दिमाग़ में एक अजीब-सी बेचैनी थी, जैसे यह मामला हवेली के सिर्फ़ भूतिया रहस्य का नहीं, बल्कि खून-खराबे, धोखे और पुरानी दुश्मनी का है।
रजिस्टर को बंद करते ही अर्जुन ने महसूस किया कि हवेली के गलियारे में एक सर्द हवा का झोंका आया, मानो किसी ने धीरे से उसके कंधे पर हाथ रख दिया हो। उसने पलटकर देखा—कोई नहीं था। मगर उसकी नज़र कोने में रखी एक पुरानी पीतल की झूलेवाली पालना पर पड़ी, जो धीरे-धीरे हिल रही थी। वह आगे बढ़ा और पाया कि पालने के नीचे एक पुराना, चिथड़े में लिपटा बच्चियों का फ़्रॉक रखा था, जिस पर फीका पड़ चुका लाल धागे का कढ़ाईदार फूल था। अर्जुन ने उसे उठाया, और उसके भीतर एक अजीब-सा एहसास भर आया—जैसे यह वही बच्ची का कपड़ा हो, जिसके बारे में रजिस्टर में अधूरा सच लिखा था। अब यह साफ़ था—अतीत के धागे अभी पूरी तरह खुले नहीं थे, लेकिन जिस दिन के राज़ को आधी सदी से दफ़न रखा गया था, उसकी परतें अब उठने लगी थीं। यह कहानी महज़ भूत और डर की नहीं, बल्कि खून, वंश, और हवेली की जड़ तक फैली एक साज़िश की थी।
८
बरामदे में हवा ठहरी हुई थी, जैसे हवेली भी अपने भीतर जमा वर्षों का बोझ उतारने से डर रही हो। ललिता सामने खड़ी थी, चेहरे पर आश्चर्य, आघात और उलझन का मिला-जुला भाव। अमरेन्द्र ने ठंडी आवाज़ में सच बताया—“तुम सिर्फ इस घर की नौकरानी की बेटी नहीं हो, बल्कि उसी नौकरानी की संतान हो जिसे ठाकुर साहब ने अपना लिया था।” यह वाक्य सुनते ही ललिता के बचपन की धुंधली यादें तेज़ी से लौटने लगीं—रसोई में अपनी माँ जैसी एक औरत की छवि, जो हमेशा चुपचाप काम करती और ठाकुर साहब के सामने सिर झुका लेती थी। उसने हमेशा यह मानकर बड़ा हुआ था कि उसके असली माता-पिता किसी अजीब हादसे में मारे गए थे, जैसा कि सावित्री देवी ने कई बार उसे बताया था। लेकिन अब सामने जो सच खड़ा था, वह उसके भीतर की सारी पुरानी मान्यताओं को तोड़ रहा था। उसकी सांसें तेज़ हो गईं, और मन में सवालों का सैलाब उमड़ पड़ा—अगर ठाकुर साहब ने उसकी माँ को अपनाया था, तो फिर उसे इस तरह पराया क्यों महसूस कराया गया?
अमरेन्द्र ने आगे झुककर धीमे स्वर में कहा, “और यही नहीं, ललिता… उस संदूक के भीतर, जो हवेली के पुराने कमरे में रखा था, मुझे एक छोटी-सी बोतल मिली—जिसमें ज़हर था। वह बोतल सावित्री देवी के कमरे से आई थी।” यह कहते हुए उसने अपने हाथों से इशारा किया, जैसे किसी अदृश्य बोझ को उतार रहा हो। ललिता की आँखें फैल गईं—उसने सावित्री देवी की तरफ देखा, जिनका चेहरा अब पत्थर की तरह कठोर हो चुका था, लेकिन आँखों में एक बुझी-बुझी सी चमक थी। बरसों से उसने सावित्री देवी को एक सख्त, अनुशासनप्रिय और रहस्यमयी औरत के रूप में देखा था, लेकिन आज उनके चेहरे पर वह ठंडापन नहीं था, बल्कि एक गहरा दर्द था। हवेली के कोनों में बसी खामोशी और भारी हो गई, जैसे हर दीवार इस रहस्य को सुन रही हो। बाहर कहीं से हवा के साथ टूटी खिड़की की आवाज़ आई, और ललिता को लगा, जैसे यह घर भी अब अपनी पुरानी परतों को खोलने वाला है।
सावित्री देवी चुपचाप खड़ी थीं। उनकी आँखें अमरेन्द्र और ललिता के बीच घूम रही थीं, जैसे मन में किसी पुराने दृश्य को दोहराती हों। उनके होंठ हिले, लेकिन आवाज़ बाहर नहीं आई। ललिता की निगाहें उनकी आँखों में टिक गईं—वहाँ एक अजीब-सी नमी थी, मानो कई साल पुराना कोई घाव फिर से हरा हो गया हो। उन्होंने धीरे से कुर्सी का सहारा लिया और बैठ गईं, सिर झुकाए, लेकिन चेहरे का दर्द अब भी छुप नहीं पा रहा था। अमरेन्द्र ने उनकी चुप्पी को तोड़ने की कोशिश करते हुए कहा, “आप कुछ बोल क्यों नहीं रही हैं? क्या यह सच नहीं है कि यह बोतल आपके कमरे में थी? क्या यह उसी ज़हर की बोतल नहीं थी, जिससे ठाकुर साहब की मौत हुई?” सावित्री देवी ने इस सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं दिया, बस एक लंबी साँस ली और खिड़की से बाहर देखा, जैसे वहाँ उन्हें कोई पुराना चेहरा दिखाई दे रहा हो। ललिता को लगा, जैसे सावित्री देवी की खामोशी में न जाने कितनी अनकही कहानियाँ छिपी हैं—कहानियाँ, जो शायद उसके अपने जन्म की सच्चाई से भी जुड़ी हैं।
उस शाम हवेली में न तो कोई रोशनी ठीक से जल रही थी, न ही कोई आवाज़ थी—सिर्फ उस भारी सन्नाटे में तीन लोगों की सांसों की धड़कनें सुनाई दे रही थीं। ललिता के भीतर एक अजीब-सा डर और उत्सुकता दोनों साथ-साथ बढ़ रहे थे। वह सोच रही थी—क्या यह सब महज़ संयोग है, या फिर कोई ऐसा सच है जो अब तक पर्दों के पीछे था? उसकी नज़रें फिर सावित्री देवी पर टिक गईं, जिनका चेहरा अब भी शांत लेकिन आँखें पूरी तरह बेचैन थीं। अमरेन्द्र ने आखिरी बार कहा, “आप चाहें तो इस सच को यहीं दबा दें, लेकिन याद रखिए, सच की परतें चाहे जितनी गहरी हों, एक दिन हवा उन्हें उड़ा ही देती है।” सावित्री देवी ने इस पर भी कोई जवाब नहीं दिया, बस आँखें बंद कर लीं, और कमरे में ऐसा लगा जैसे वर्षों से बंद एक दरवाज़ा अंदर ही अंदर खुलने लगा हो—लेकिन बाहर अब भी सब कुछ बंद था। हवेली ने अपने भीतर का एक और रहस्य निगल लिया, पर उसकी गूंज सबके दिल में रह गई।
९
इंस्पेक्टर विकास यादव ने हवेली के पुराने तहख़ाने में घंटों खोजबीन करने के बाद आखिरकार वह दस्तावेज़ और नोट्स ढूंढ निकाले, जो पूरे मामले की दिशा बदलने वाले थे। एक पीतल के संदूक में, जो जंग और धूल से लगभग सील हो चुका था, उन्हें एक पुरानी शीशी मिली—वही, जिसमें पचास साल पहले का ज़हर रखा था। मगर साथ ही, एक कागज़ पर हाथ से लिखा एक छोटा-सा बयान भी था—“ये उसके लिए, जिसने मेरी इज़्ज़त मिट्टी में मिला दी।” तारीख़ और स्याही दोनों इतने पुराने थे कि कागज़ छूने से टूटने को तैयार था। विकास ने दस्तावेज़ों का मिलान रजिस्टर और हवेली के पुराने बयानात से किया, और साफ़ हो गया कि यह ज़हर उस वक्त के मालिक—रणविजय के पिता—के लिए रखा गया था, न कि उस वक्त मरे मेहमानों के लिए। किसी वजह से वह योजना अधूरी रह गई, मगर ज़हर संभाल कर रख दिया गया। यह रहस्य अब एक नए सवाल की ओर इशारा कर रहा था—किसने पचास साल तक इस बोतल को छुपाए रखा और क्यों?
जब विकास ने सावित्री देवी का सामना इन सबूतों के साथ किया, तो उनके चेहरे पर पहली बार एक भाव उभरा—वह ठंडा नहीं, बल्कि दर्द और पुरानी चोट का था। उन्होंने धीमी, थरथराती आवाज़ में कहा, “गोमती… वो मेरी बचपन की सखी थी। हम साथ बड़े हुए थे, साथ सपने देखे थे। लेकिन इस हवेली के मालिक—रणविजय के पिता—ने उसे अपने झूठे वादों में फंसा कर अपमानित किया। उसने गर्भ धारण किया, और फिर एक दिन भोज के बीच उसकी मौत हो गई… कहते हैं ज़हर खाने से। लेकिन मैं जानती थी, वो मौत उसकी नहीं होनी चाहिए थी—वो किसी और के लिए थी।” उनकी आँखों में नमी चमक रही थी, लेकिन शब्दों में वर्षों का संचित गुस्सा था। सावित्री ने बताया कि गोमती के मरने के बाद उन्होंने उसी रात वह शीशी छुपा दी, यह कसम खाकर कि एक दिन वह इसे सही जगह इस्तेमाल करेंगी।
पचास साल तक सावित्री देवी ने हवेली में रहते हुए उस ज़हर की बोतल को किसी तावीज़ की तरह संभाल कर रखा, मानो वह उनकी दोस्त की आत्मा का अधूरा न्याय हो। समय ने बहुत कुछ बदल दिया—पुरानी पीढ़ी मर गई, नए लोग आए, हवेली का वैभव घटा, लेकिन उनकी प्रतिज्ञा वैसी ही रही। फिर वह दिन आया, जब उन्हें पता चला कि रणविजय ने अपने बेटों में ज़मीन बाँटने की जगह, सब बेचकर हवेली छोड़ने की ठान ली थी। यह हवेली उनके लिए सिर्फ दीवारें नहीं थी—यह वो जगह थी जहां उनकी सखी की आत्मा ने आखिरी सांस ली थी, और जहां अन्याय की नींव रखी गई थी। उस क्षण उन्हें लगा कि अगर उन्होंने अब भी कुछ नहीं किया, तो वो बदला हमेशा के लिए अधूरा रह जाएगा। सावित्री जानती थीं कि रणविजय अपने पूर्वजों के पाप को आगे बढ़ा रहा था—लालच और सत्ता के लिए हर रिश्ते को कुचलकर। यही वह पल था जब उन्होंने ठान लिया कि ज़हर का वक्त आ चुका है।
भोज की रात उन्होंने अपनी योजना पूरी की—बिना किसी को शक हुए, उसी ज़हर को रणविजय के पहले कौर में मिला दिया। उनके लिए यह महज़ हत्या नहीं थी; यह एक फैसला था, जिसे उन्होंने आधी सदी से अपने भीतर पकाया था। जब रणविजय गिरा, हवेली में अफरा-तफरी मच गई, लेकिन सावित्री के चेहरे पर न खुशी थी, न डर—सिर्फ एक थकान, जैसे कोई लंबा इंतज़ार खत्म हुआ हो। इंस्पेक्टर यादव उनकी आँखों में झांकते रहे, और उन्हें लगा मानो वे वर्षों पुरानी धूल के नीचे छिपे सच की किताब पढ़ रहे हों। सावित्री ने कोई माफी नहीं मांगी, बस इतना कहा—“मैंने वही किया, जो पचास साल पहले हो जाना चाहिए था।” और इस तरह, हवेली के सबसे गहरे कमरे में दबी कहानी अंततः उजाले में आ गई—न्याय और बदले की लकीर पर खींची हुई, जहाँ इंसाफ़ का रंग भी ज़हर जितना कड़वा था।
१०
रात की नमी और धुएँ की गंध में डूबी ठाकुर हवेली के आँगन में एक अलाव जैसी लपटें उठ रही थीं। ठाकुर साहब की चिता जल रही थी, लकड़ियों के बीच से उठता चटकना मानो हर बीते पल को निगल रहा था। दूर कोने में खड़ी सावित्री देवी का चेहरा पीला था, आँखों में न आँसू थे, न कोई बेक़ाबू दर्द—बस एक अजीब-सी ठंडी तसल्ली। इंस्पेक्टर शर्मा उनके पास आए, चुपचाप कुछ देर तक जलती चिता को देखते रहे, फिर धीमे स्वर में बोले, “मालकिन, अब तो मामला बंद ही करना पड़ेगा। मेडिकल रिपोर्ट में ‘दिल का दौरा’ लिखा है… और कोई सबूत बचा नहीं।” सावित्री देवी ने सिर झुका लिया, जैसे कुछ सोच रही हों, फिर अचानक एक गहरी साँस लेकर बोलीं, “इंस्पेक्टर साहब, आप तो अब मेरे जैसे लोगों को पहचानना सीख गए होंगे… फिर भी सुन लीजिए, ये मेरे बदले की आख़िरी डोर थी… और मैं उसे काट चुकी हूँ।” उनकी आवाज़ में न पछतावा था, न डर—सिर्फ़ एक निर्विकार सच, जैसे वर्षों से जमा ज़हर अब उतर गया हो। इंस्पेक्टर ने उन्हें घूरा, लेकिन उनके चेहरे पर कोई झिझक या अपराधबोध नहीं था; वहाँ बस एक बूढ़ी स्त्री की अडिग शांति थी, जिसने अपने भीतर के तूफ़ान को खुद जला डाला था।
सावित्री देवी ने अपना राज़ खुलकर बयान किया—कैसे सालों पहले ठाकुर साहब ने उनकी ज़िंदगी से सब छीन लिया था, कैसे उन्होंने अपने बेटे को खोने के बाद एक-एक दिन इस दिन का इंतज़ार किया। “जब आदमी का दिल टूटता है न, तो वो मरता नहीं… पत्थर बन जाता है,” उन्होंने कहा, “और पत्थर को पिघलाने के लिए आग चाहिए। मेरी आग का ईंधन ठाकुर साहब ही थे।” उन्होंने बताया कि कैसे पिछले कुछ महीनों में उन्होंने धीरे-धीरे ठाकुर साहब के खाने-पीने की आदतों को समझा, रसोई में आने-जाने का बहाना बनाया, और फिर सही वक्त पर, सही भोज में, सही दावत के साथ ज़हर परोसा। कोई तेज़ असर वाला जहर नहीं, बल्कि ऐसा जो दिल की धड़कन को धीमा करता है, ताकि मौत एक प्राकृतिक अंत जैसी लगे। इंस्पेक्टर चुपचाप सुनते रहे—क्योंकि अब उनके पास न वारंट था, न गवाह, न सबूत। उन्होंने एक बार फिर पूछा, “तो अब… अब आप क्या करेंगी?” सावित्री देवी ने हल्की हँसी के साथ कहा, “अब? अब मैं बस रहूँगी… जैसे वीरान हवेलियाँ रहती हैं—यादों के साथ।” उनके शब्द हवा में घुल गए, जैसे लपटों के साथ राख में बदल रहे हों।
अंतिम संस्कार के बाद हवेली में एक अजीब सन्नाटा उतर आया। नौकर-चाकर अपना सामान बाँधने लगे, जिन दीवारों पर कभी महफ़िलें सजी थीं, वहाँ अब खाली कुर्सियाँ और टूटे झूमर धूल खा रहे थे। आँगन में पड़ी टूटी चारपाई, बरामदे में झूलता हुआ दरवाज़ा, और कोनों में पसरी सीलन—सब कुछ इस जगह की मौत का ऐलान कर रहे थे। सावित्री देवी अपने कमरे में लौट आईं, लेकिन इस बार वहाँ किसी इंतज़ार का बोझ नहीं था। उन्होंने अलमारी खोली, एक पुरानी चादर निकाली, और चारपाई पर बैठकर खिड़की से बाहर देखने लगीं। बाहर बाग़ में हवा पत्तों को हिला रही थी, लेकिन भीतर सब कुछ स्थिर था। कुछ देर बाद इंस्पेक्टर ने दरवाज़े पर दस्तक दी—सिर्फ़ एक औपचारिक विदाई के लिए। वे बोले, “मालकिन, क़ानून की नज़र में आप निर्दोष हैं… लेकिन कभी-कभी क़ानून सच को छू नहीं पाता।” सावित्री देवी ने उनकी ओर देखा और कहा, “सच… क़ानून से नहीं, वक़्त से डरता है। वक़्त ही सबसे बड़ा गवाह है, इंस्पेक्टर साहब, और मैंने उसे अपने पक्ष में कर लिया है।” उनकी आँखों में एक क्षणिक चमक आई, फिर वे चुप हो गईं। इंस्पेक्टर ने सलाम किया और चले गए, हवेली की देहरी पर उनके कदमों की आहट कुछ देर तक गूँजती रही।
दिन बीतते गए, और हवेली लगभग उजाड़ हो गई। कोई मेहमान नहीं, कोई शोर नहीं, सिर्फ़ पुराने कमरों में जाले और फर्नीचर पर जमी धूल। लेकिन रसोई का एक कोना अब भी वैसा ही था जैसा उस रात था। वहाँ, एक लकड़ी की शेल्फ़ पर, एक छोटी-सी खाली शीशी रखी थी—पारदर्शी काँच की, जिसके ढक्कन पर हल्की जंग लग चुकी थी। यह वही शीशी थी जिसमें वह ज़हर था, जिसने ठाकुर साहब की साँसें थमा दीं। सावित्री देवी ने उसे फेंका नहीं था—शायद किसी स्मृति की तरह, या शायद किसी अनकहे संदेश की तरह। हवेली में अब सिर्फ़ हवा और खामोशी का वास था, लेकिन उस शीशी की उपस्थिति कमरे में एक अदृश्य डर भर देती थी—जैसे वह किसी और भोज का इंतज़ार कर रही हो। और इस इंतज़ार में, हवेली के वीरान गलियारों में एक नई कहानी धीरे-धीरे आकार लेने लगी—जिसका पहला अध्याय कोई नहीं जानता था, और आख़िरी शायद कभी लिखा ही न जाए।
समाप्त