विराज जोशी
१
ऋत्विक घोषाल एक ऐसे लेखक थे जिनकी आँखों में नींद नहीं, बल्कि पुराने समय की छवियाँ तैरती थीं। दिल्ली के करोल बाग के एक पुराने अपार्टमेंट की चौथी मंज़िल पर उनका छोटा सा कमरा था—दीवारें जर्जर, खिड़की से झांकती धूल, और हर कोने में बिखरे किताबों के ढेर जिनमें से ज़्यादातर रेडियो ड्रामा, पुरानी कहानियाँ और भारतीय ऑडियो आर्काइव्स पर केंद्रित थे। पिछले छह महीने से वह एक किताब पर काम कर रहे थे, जिसका विषय था: “बुलंद आवाज़ें – भारतीय रेडियो नाटकों का इतिहास”, लेकिन लेखन अब थकान बन चुका था। उसी थकान से उबरने के लिए उस दिन दोपहर को वह दरियागंज की एक पुरानी किताबों और एंटीक सामानों की दुकान में जा पहुँचे थे। वहीं उनकी निगाह एक धूल जमी़ मेज़ के नीचे रखे फिलिप्स मॉडल R-66 टेप रिकॉर्डर पर पड़ी। मेटल की बॉडी पर जंग लगी थी, स्पूल्स जमे हुए थे, लेकिन फिर भी उसमें एक रहस्यमयी आकर्षण था—मानो यह सिर्फ मशीन नहीं, एक मूक गवाह हो बीते समय का। दुकानदार ने कहा, “यह बहुत खास है… कई सालों से किसी ने इसे छुआ तक नहीं, लेकिन जब भी इसे चलाओ, आवाज़ें आती हैं।” ऋत्विक ने मुस्कुरा कर पूछा, “किसकी?” जवाब मिला, “पता नहीं, लेकिन हर बार कुछ अलग सुनाई देता है।” यह सुनकर वह चौंका तो नहीं, लेकिन भीतर कहीं कुछ सरक गया। उन्होंने बिना मोलभाव किए टेप रिकॉर्डर खरीद लिया और उसे अपने कमरे में ले आए, मानो उन्होंने कोई भूला-बिसरा दोस्त खोज लिया हो।
रात को बारिश होने लगी थी। बाहर बिजली की चमक और अंदर कमरे के बल्ब की पीली रोशनी में ऋत्विक ने रिकॉर्डर को ध्यान से साफ किया। उसके साथ मिले पुराने टेप्स में से एक को मशीन में डाला और प्ले बटन दबाया। कुछ देर तक केवल फुसफुसाहट और स्टैटिक की आवाज़ें आती रहीं, लेकिन फिर अचानक एक धीमी, थकी हुई आवाज़ उभरी—”दोपहर तीन बजकर सत्ताईस मिनट… ऋत्विक घोषाल की मृत्यु—सिर पर तेज़ प्रहार, खून बहुत बहा था…” यह सुनते ही ऋत्विक का हाथ रुक गया। उसने टेप रोक दी, लेकिन उसकी उंगलियाँ काँप रही थीं। उसने दोबारा टेप चलाया—उसी आवाज़ में वही बात, बिल्कुल सटीक शब्दों में दोहराई गई। आवाज़ बेहद धीमी थी, मानो किसी घुटी साँस की तरह, लेकिन सबसे डरावनी बात यह थी कि वह आवाज़ किसी और की नहीं, बल्कि उसी की थी—बस थोड़ी धीमी, बूढ़ी, और खालीपन से भरी हुई। वह चुपचाप बैठा रहा, टेप को अंत तक सुनता रहा। उसमें दिनांक, समय, घटनाएँ—यहाँ तक कि उसकी भावनाओं तक का ज़िक्र था—मानो कोई भविष्य से उसका पोस्टमॉर्टम रिकॉर्ड कर रहा हो। उसने घड़ी देखी—सिर्फ रात के साढ़े दस बजे थे, लेकिन दिल की धड़कन तीन बजे जैसा महसूस हो रहा था। क्या यह कोई पुरानी रिकॉर्डिंग थी? या कोई रेडियो प्ले जिसकी स्क्रिप्ट उसमें लिखी गई हो? लेकिन नाम, स्वर, भाव—सब उसके अपने थे।
अगली सुबह जब धूप कमरे की खिड़की पर दस्तक देने लगी, ऋत्विक के भीतर का डर उसकी जिज्ञासा में बदल चुका था। उसने टेप को बार-बार सुना, हर शब्द को लिखा, और उसकी तुलना अपनी पुरानी स्क्रिप्ट्स से की। वह जानना चाहता था कि कहीं यह टेप किसी पुराने प्रोजेक्ट का हिस्सा तो नहीं, लेकिन कुछ भी मेल नहीं खा रहा था। फिर उसने खुद से सवाल करना शुरू किया: क्या मैं पागल हो रहा हूँ? या क्या यह वाकई कोई अलौकिक घटना है? उसी दोपहर, वह कमरे में बैठा नोट्स बना रहा था जब बाहर से एक महिला की आवाज़ आई, “माफ कीजिए… मैं ऊपर वाले फ्लैट में नई शिफ्ट हुई हूँ। चारूलता सेन नाम है।” ऋत्विक ने दरवाज़ा खोला और पहली बार चारु से मिला—बिखरे बाल, आँखों में किताबों जैसी गहराई और हल्की मुस्कान। उसे देखते ही ऋत्विक को महसूस हुआ कि इस कहानी में अब वह अकेला नहीं रहने वाला। चारुलता की मौजूदगी उस कमरे में आई ताज़ा हवा की तरह थी, लेकिन शायद वह खुद नहीं जानती थी कि वह जिस रहस्य से जुड़ने जा रही है, वह सिर्फ एक पुराना टेप रिकॉर्डर नहीं, बल्कि नियति की गूंज है—जो धीरे-धीरे सब कुछ बदल देगी।
२
अगले कुछ दिन ऋत्विक ने जैसे नींद और जागने के बीच की दुनिया में बिताए। हर सुबह वह तय करता कि अब वह टेप रिकॉर्डर को बंद कर देगा, शायद किसी कबाड़ी को दे देगा या फिर छत से नीचे फेंक देगा, लेकिन जैसे ही शाम होती, वह फिर उसी मेज पर बैठ जाता, टेप चलाता और उस आवाज़ को सुनता जो उसे उसकी ही मौत का विवरण देती थी। कभी-कभी उसमें बदलाव होते—कभी समय थोड़ा इधर-उधर, कभी मृत्यु का तरीका थोड़ा अलग, कभी कुछ नई घटनाएं। लेकिन एक बात समान रहती—आवाज़, स्वर, और उसकी बेचैन कर देने वाली स्पष्टता। आवाज़ में जो थकान थी, वह किसी बुज़ुर्ग की नहीं, बल्कि किसी ऐसे व्यक्ति की थी जिसने सब कुछ पहले ही देख लिया हो, मानो अपनी ही मौत का ब्योरा एक सूखी रिपोर्ट की तरह सुना रहा हो। एक रात, टेप सुनते-सुनते उसे अचानक महसूस हुआ कि उस आवाज़ की हर सांस, हर ठहराव, और हर स्वर उसका ही था—बस उससे थोड़ा धीमा, थोड़ा सूना और थोड़ा ज़्यादा थका हुआ। उसने अपनी पुरानी रिकॉर्डिंग्स चलाईं, अपने लेखन के वॉयस नोट्स, लेकिन किसी में भी वैसी भारीपन वाली निराश आवाज़ नहीं थी। वह खड़ा हुआ, बाथरूम के आइने में खुद को देखा, और पहली बार उसे लगा जैसे वह खुद अपने अतीत और भविष्य के बीच फँसा एक किरदार बन गया है—जिसे बस सुनना है, समझना है, और शायद डरना भी है।
उस दिन दोपहर को, चारुलता उसके दरवाज़े पर खड़ी थी, हाथ में एक कॉफी मग और किताबों से भरा थैला लिए। “आप लेखक हैं, ना? मैंने नीचे से सुना… कुछ पुरानी रिकॉर्डिंग्स की आवाज़ें आ रही थीं… माफ़ कीजिए, मैं चुपके से सुन रही थी।” ऋत्विक ने उसे अंदर बुलाया और पहली बार टेप रिकॉर्डर की कहानी किसी और को सुनाई। चारु ने ध्यान से टेप को देखा, उसकी रीलों को घुमाया, मशीन की बनावट पर उंगलियां फिराईं, फिर धीरे से बोली, “ये तो बिल्कुल वैसा ही है जैसे क्लास में हमने पढ़ा था—‘Residual Consciousness Echoes’।” ऋत्विक ने भौंहें सिकोड़ लीं। चारु बताने लगी कि मनोविज्ञान की कुछ शाखाएं मानती हैं कि कुछ मशीनें या जगहें इंसानी चेतना की कुछ परतों को पकड़ सकती हैं—विशेष रूप से वे विचार या भावनाएं जो अत्यधिक गहन या भयंकर हों। “कभी-कभी, ज़ोरदार दुःख, डर, या मृत्यु की चेतना समय के साथ भी बह सकती है,” उसने कहा। ऋत्विक को यह सब थ्योरी की तरह ही सुनाई दिया, लेकिन जब उसने टेप चलाकर चारु को खुद वह आवाज़ सुनाई—और चारु का चेहरा सफेद पड़ गया, तो पहली बार उसे लगा कि वह अकेला नहीं है। चारु ने धीरे से कहा, “यह आपकी आवाज़ है… लेकिन इसमें कुछ और भी है… जैसे कोई परछाई साथ बोल रही हो।”
उस रात चारु के चले जाने के बाद, ऋत्विक ने खुद से एक वादा किया—अब वह इस टेप को एक लेखक की तरह नहीं, एक जिज्ञासु की तरह देखेगा। उसने नोट्स बनाना शुरू किया: टेप के हर सेकेंड का ट्रांसक्रिप्शन, आवाज़ के उतार-चढ़ाव का विश्लेषण, और उन सभी बातों की सूची जो उसमें कही गई थीं। लेकिन जैसे-जैसे रात बढ़ती, एक अजीब बात सामने आई—टेप अब सिर्फ मृत्यु का वर्णन नहीं कर रहा था, बल्कि कुछ ऐसी बातें भी बता रहा था जो भविष्य में होने वाली थीं। “कल शाम चारुलता एक लाल किताब लेकर आएगी… तुम उसका नाम जानने से पहले ही कहोगे – ‘वो कार्ल युंग की किताब है, है ना?’” और अगली शाम वही हुआ। चारु उस किताब के साथ आई, और अनायास ही ऋत्विक के मुंह से वही शब्द निकले जो टेप में थे। अब मामला सिर्फ डरावना नहीं था—यह वास्तविकता को बदलने वाला बनता जा रहा था। क्या वह भविष्य देख रहा था? या किसी और ने पहले ही उसके जीवन को रिकॉर्ड कर दिया था? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल—अगर यह सब लिखा जा चुका है, तो क्या वह अपनी मौत को बदल सकता है? या वह टेप सिर्फ एक चेतावनी नहीं, बल्कि एक निष्कर्ष था जो कभी नहीं बदलेगा? अब ऋत्विक के सामने दो ही रास्ते थे—या तो वह इस मशीन से पीछा छुड़ा ले, या फिर इसमें छिपी गहराइयों में उतरकर सच को जानने की कोशिश करे… चाहे उसके लिए अपनी ही चेतना से लड़ना क्यों न पड़े।
३
तीन दिन से ऋत्विक अपने कमरे में बंद था। टेप रिकॉर्डर अब सिर्फ एक ऑब्जेक्ट नहीं रह गया था, वह जैसे एक ज़िंदा इकाई बन चुका था जो न सिर्फ बोलता था, बल्कि उसके जीवन में बदलाव भी लाता था। हर बार टेप प्ले करने पर उसमें कुछ नया जुड़ जाता, एक नई घटना, एक नई चेतावनी, या कोई ऐसा विवरण जो भविष्य की किसी सटीक पल को बयान करता। उसकी नींद अब टुकड़ों में बँट चुकी थी—एक बेचैन सी नींद जिसमें वह अपने ही शब्दों को सुनता, वही बेजान आवाज़, वही सर्द विवरण, वही असहाय स्वीकारोक्ति कि अंत निश्चित है। लेकिन एक बात उसे लगातार परेशान कर रही थी: यह टेप रिकॉर्डर आखिर आया कहाँ से? और क्या सत्राजीत दे सच में कुछ छुपा रहा था? आखिरकार उस दोपहर, उसने वही भूरे रंग की जैकेट पहनी और ऑटो लेकर वापस दरियागंज की उसी पुरानी दुकान की ओर रवाना हो गया। रास्ते में वह खुद से सवाल करता रहा—क्या वह जवाब पाएगा या एक नई परत खुलेगी इस रहस्य की?
पुरानी किताबों और एंटीक सामानों की वह दुकान वैसी ही थी, जैसे पहले दिन थी—बंद रोशनी, अलमारी में धूल भरे नक्शे, और दीवार पर टंगे काले-पीले पोस्टर। दुकान के कोने में बैठा सत्राजीत दे वैसा ही दिख रहा था, लेकिन जैसे उसने ऋत्विक को आते ही पहचान लिया। बिना किसी अभिवादन के उसने कहा, “वापस आ गए तुम?” ऋत्विक एक क्षण के लिए रुका, उसकी आँखों में झाँका, फिर धीरे से बोला, “क्या आपने मुझे पहले भी देखा है?” सत्राजीत मुस्कुराया नहीं, बस एक गहरी साँस ली और कहा, “कभी-कभी कुछ चेहरे समय के चक्र में लौट आते हैं… तुम उनमें से हो।” यह कहकर वह उठा और दुकान के भीतर के एक संकरे दरवाज़े से ऋत्विक को एक कमरे में ले गया—यह एक अजीब-सा कमरा था, जिसकी दीवारों पर पुराने रेडियो, ग्रामोफोन, और टेलीफोन लगे थे। बीच में एक लकड़ी की मेज़ थी, जिस पर रखी थी एक और टेप रिकॉर्डर—बिल्कुल वैसा ही जैसा ऋत्विक के पास था। सत्राजीत ने कहा, “तुम्हारा रिकॉर्डर अकेला नहीं है। ऐसे कई हैं, जो वक्त की धुन बजाते हैं… लेकिन उनमें से ज़्यादातर अब शांत हो चुके हैं।” ऋत्विक ने गहरी आवाज़ में पूछा, “और जो नहीं हुए?” सत्राजीत ने उसकी तरफ देखा, मानो उसके अंदर झाँकना चाहता हो, फिर बोला, “वो ज़िंदा रहते हैं… जब तक सुनने वाला पूरी कहानी ना सुन ले।”
ऋत्विक ने पूछा, “ये टेप रिकॉर्डर मेरी आवाज़ कैसे रिकॉर्ड कर सकता है? वो भी भविष्य की?” सत्राजीत ने कुछ नहीं कहा, बस एक पुरानी डायरी ऋत्विक की तरफ बढ़ा दी। उसमें कई पन्ने भरे थे—हाथ से लिखे नाम, दिनांक, और ‘मृत्यु के क्षण’ जैसे वाक्यांश। हर नाम के सामने एक टेप नंबर लिखा था। और आखिरी नाम था — “विभास मजूमदार – R-66 – मृत्यु: सिर पर प्रहार – आत्मा रुकी नहीं”। ऋत्विक के हाथ काँपने लगे। यह वही मॉडल नंबर था जो उसके टेप रिकॉर्डर पर लिखा था। उसने काँपती आवाज़ में पूछा, “विभास मजूमदार कौन था?” सत्राजीत ने गहरी, उदास आवाज़ में कहा, “एक लेखक… तुम जैसा ही… उसने भी सवाल किए थे, खोज शुरू की थी… और फिर खो गया अपनी ही आवाज़ में।” ऋत्विक को अचानक ऐसा लगा जैसे उसका सिर घूम रहा है। क्या यह टेप रिकॉर्डर कभी विभास मजूमदार का था? और अगर हाँ, तो क्या वह टेप जो उसकी मृत्यु का वर्णन कर रहा था, वास्तव में पहले किसी और की मौत का रिकॉर्ड है—या यह कोई चक्र है, जो हर सुनने वाले को अपनी गिरफ्त में ले लेता है? सत्राजीत ने धीरे से कहा, “तुम सोचते हो कि तुम रिकॉर्डिंग सुन रहे हो, लेकिन शायद वह तुम्हें सुन रही है।” उस एक वाक्य ने ऋत्विक के भीतर जैसे कोई बर्फ घोल दी। अब यह सिर्फ एक रहस्यमयी यंत्र की बात नहीं थी, अब यह उसकी चेतना, उसकी नियति और शायद उसके अस्तित्व पर सवाल बन चुका था—और उसने समझ लिया था कि पीछे लौटने का कोई रास्ता नहीं बचा था।
४
उस रात जब ऋत्विक घर लौटा, तो उसका चेहरा बुझा हुआ था, और उसकी चाल वैसी थी जैसे किसी ने उसके भीतर से वज़ूद का एक हिस्सा निकाल लिया हो। उसने सत्राजीत की बातों को बार-बार दोहराया—“तुम सोचते हो कि तुम रिकॉर्डिंग सुन रहे हो, लेकिन शायद वह तुम्हें सुन रही है।” यह बात कोई शाब्दिक डर नहीं थी, बल्कि एक अस्तित्वगत कंपकंपी थी जो शरीर के हर कोने में उतर रही थी। कमरे में दाखिल होते ही उसने टेप रिकॉर्डर के पास बैठने से पहले अपने आप को देखा—आईने में उसकी आँखें थकी नहीं थीं, बल्कि चौंकाने वाली हद तक खाली थीं। उसने मशीन को ऑन किया, और टेप को वापस उसी बिंदु से शुरू किया जहाँ पिछली बार रुका था। लेकिन इस बार आवाज़ बदली हुई थी। वही स्वर, वही लहजा, लेकिन अब उसमें अतिरिक्त शब्द थे—नई सूचनाएं, नए विवरण। “और आज रात, जब तुम खिड़की के पास खड़े होकर खुद से कहोगे ‘मैं टूट चुका हूँ’, तब पहली बार तुम्हें लगेगा कि कोई तुम्हें देख रहा है। लेकिन वह कोई और नहीं, बल्कि वही मशीन होगी—जो अब केवल सुनती नहीं, देखती भी है।” ऋत्विक के हाथ जम गए। वह बमुश्किल हिम्मत करके खिड़की तक गया और खुद से कहा—“मैं टूट चुका हूँ।” जैसे ही उसके शब्द खत्म हुए, कमरे की हल्की पीली बत्ती एक बार झपकी—एक बार, बस एक पल के लिए—और फिर वापस जल उठी। मगर वह क्षण… वह क्षण एक भयावह यकीन था।
अब टेप हर दिन बदलने लगा था। हर बार रिकॉर्डिंग में कुछ नया जुड़ जाता था—कुछ ऐसा जो ऋत्विक ने अपने कमरे में किया, कहा, या महसूस किया हो। वह अपने हर हावभाव, हर निर्णय, और हर डर को उस टेप पर सुनता, जैसे वह पहले ही तय हो चुका हो। एक दिन रिकॉर्डिंग में यह भी आया कि “चारुलता आएगी, और वह कहेगी कि तुम्हें एक डॉक्टर को दिखाना चाहिए। लेकिन जब वह बोलेगी, उसकी आँखें डर से भरी होंगी—क्योंकि वह भी अब सुनती है।” और वही हुआ। शाम को चारुलता आयी, उसके हाथ में एक किताब थी और चेहरे पर फिक्र। बातचीत के बीच में उसने वही बात कही—“तुम्हें एक साइकेट्रिस्ट से बात करनी चाहिए।” ऋत्विक ने ध्यान से उसकी आँखों में देखा—और वहाँ सचमुच डर था। अब सिर्फ वह ही नहीं, चारु भी टेप का हिस्सा बन चुकी थी। रात होते-होते वह खुद को कमरे में बंद करने लगा, खाने की आदतें बिगड़ गईं, और नींद तो जैसे टुकड़ों में बँटकर कहीं खो गई थी। कभी-कभी वह रिकॉर्डिंग को उल्टा चलाता, स्लो मोशन में सुनता, लेकिन हर बार वह एक ही बात सुनता—वह आवाज़ अब केवल भविष्य नहीं बता रही थी, वह उसे महसूस कर रही थी, उसका डर, उसका संशय, उसकी हर साँस। वह आवाज़ अब जीवित थी।
फिर एक रात, टेप में एक नई चेतावनी उभरी—“अब जब तुम यह सुन रहे हो, कमरे के कोने में जो परछाई है, वह हिल रही है। वह वहीं खड़ी है जहाँ तुम्हारी माँ की पुरानी तस्वीर रखी है। लेकिन अब वह सिर्फ परछाई नहीं, वह प्रतीक्षा है।” ऋत्विक ठिठक गया। वह जानता था कि तस्वीर कहाँ रखी है—मेज़ पर, कोने में, हल्के अँधेरे में, दीवार से टिकाकर। धीरे-धीरे उसने गर्दन घुमाई और देखा—वहाँ कुछ नहीं था, बस वही तस्वीर और पास रखी एक किताब। लेकिन जब वह दोबारा टेप सुनाने लगा, तो उसमें एक धीमी साँस जैसी आवाज़ थी—जैसे कोई उसके बहुत पास से गुजर गया हो। अब टेप सिर्फ उसके भविष्य का कथानक नहीं था, वह उसके वर्तमान में मौजूद था। वह कमरे में उसकी उपस्थिति बन चुका था, एक अदृश्य, मगर स्पष्ट मौजूदगी। ऋत्विक ने खुद से पूछा—क्या यह सब सिर्फ मानसिक भ्रम है? या वाकई टेप रिकॉर्डर किसी और ऊर्जा से संचालित हो रहा है, जो शब्दों और समय से परे है? लेकिन अब सवाल नहीं बचा था, केवल एक रास्ता—इस टेप की आखिरी सीमा तक पहुँचना, चाहे उसकी कीमत कुछ भी हो। और उस रात उसने ठान लिया कि अगली बार जब टेप बजेगा, तो वह केवल सुनने वाला नहीं होगा—वह जवाब भी देगा।
५
अगली सुबह ऋत्विक ने टेप रिकॉर्डर को एक नए तरह से देखने का फैसला किया। अब वह सिर्फ एक डराने वाला यंत्र नहीं रहा, बल्कि एक खुली हुई किताब बन चुका था जिसमें शायद उसकी पहचान के वे पन्ने दर्ज थे जो वह खुद कभी नहीं पढ़ पाया था। वह एक डायरी लेकर बैठा, और टेप की हर रिकॉर्डिंग को सुनते हुए उसने शब्द दर शब्द लिखना शुरू किया। लेकिन इस बार कुछ और हुआ—टेप में एक नया नाम सुनाई दिया, जिसे अब तक कभी नहीं सुना था, कम से कम चेतन रूप से नहीं। वह नाम था — विभास मजूमदार। आवाज़ में एक जगह बोला गया, “…और विभास मजूमदार के जैसे तुम भी जब उस कमरे में बैठोगे, तो खिड़की की हवा वही पुराना गीत लाएगी… वही गीत जो हर बार मौत से पहले सुनाई देता है।” ऋत्विक के हाथ ठिठक गए। विभास मजूमदार? यह कौन था? और यह नाम क्यों इतनी सहजता से बोला गया जैसे वह कोई परिचित हो? वह बार-बार उस हिस्से को सुनता रहा, और हर बार उस नाम के साथ उसके भीतर एक अनजानी बेचैनी उभरती रही—जैसे कोई पुराना सपना जिसे वह याद नहीं रखना चाहता, लेकिन जो हर रात लौट आता हो।
दिनभर वह इंटरनेट पर, पुराने ऑडियो रिकॉर्डिंग आर्काइव्स में, और यहां तक कि लाइब्रेरी की फाइलों में भी ‘विभास मजूमदार’ नाम ढूंढता रहा। कोई पुख्ता जानकारी नहीं मिली—सिर्फ एक जगह 1970 के दशक की एक अख़बार की स्कैन की गई कटिंग मिली जिसमें एक लेखक के संदर्भ में यह नाम आया था। लेकिन लेख अधूरा था, और लेखक की तस्वीर भी नहीं थी। निराश होकर जब वह घर लौटा, तो उसकी नज़र अपने एक पुराने ट्रंक पर पड़ी जिसे वर्षों से उसने नहीं खोला था। उसने यूँ ही खोला, और भीतर से कुछ पीली कागज़ की फाइलें निकलीं। उनमें एक डायरी थी—काली जिल्द वाली, पुरानी, धूल से ढकी। उसने उसे खोला और पढ़ना शुरू किया। शुरुआत में सिर्फ स्क्रिप्ट्स, रेडियो ड्रामों की नोटिंग्स, और कुछ अधूरी कहानियां थीं। लेकिन बीच में अचानक एक पन्ने पर लिखा था — “विभास मजूमदार के लिए – शायद वह मुझसे ज़्यादा समझे समय को।” यह लाइन देखते ही उसका दिल ज़ोर से धड़क उठा। यह उसकी ही हैंडराइटिंग थी। वही घुमावदार ‘म’, वही तिरछा ‘र’। लेकिन उसे ऐसा कुछ लिखने की कोई याद नहीं थी। उसने खुद को आईने में देखा और पहली बार डर को अपनी आँखों के पीछे देखा। क्या वह कभी विभास मजूमदार था? या यह कोई और था जो उसके विचारों, उसकी चेतना को इस्तेमाल कर रहा था?
उसी रात टेप रिकॉर्डर से एक नई रिकॉर्डिंग आई—पहली बार टेप बिना प्ले बटन दबाए ही चलने लगा। आवाज़ साफ थी, थकी हुई, लेकिन अब उसमें एक आत्मीयता थी। “तुम ढूंढ रहे हो, लेकिन जवाब खुद में ही छुपा है। तुमने ही मुझे जन्म दिया, मुझे शब्द दिए, और अब मैं ही तुम्हें समेट रहा हूँ। विभास कोई और नहीं, वह हिस्सा है जो तुमने त्याग दिया था, जब तुमने लेखन को ‘वास्तविकता’ कहकर छोड़ दिया था।” ऋत्विक के चेहरे से खून उतर गया। क्या वह मानसिक रूप से विभाजित हो चुका है? या क्या यह टेप सच में समय के पार से किसी चेतना की गूंज है? उसने डायरी की बाकी पन्नियाँ पलटीं—हर पन्ने पर कुछ न कुछ ऐसा था जो उसके जीवन से मेल खाता था, लेकिन एक अजीब अजनबियत के साथ। वह सब कुछ उसका था, लेकिन फिर भी नहीं। जैसे किसी और ने उसे लिखा हो, लेकिन उसके ही हाथों से। उस रात उसने पहली बार खुद से पूछा—अगर मैं विभास नहीं हूँ, तो कौन हूँ? और अगर मैं ही विभास था… तो मैं कब मर चुका था? टेप अब उसकी मृत्यु की तारीख के साथ किसी और की यादों को जोड़ रहा था, और धीरे-धीरे उसकी पहचान के धागे उलझते जा रहे थे। उसने टेप बंद नहीं किया, वह सुनता रहा… क्योंकि अब वह जानता था कि जवाब उसकी मृत्यु में नहीं, बल्कि उस नाम में छुपा है, जो शायद कभी उसका ही था।
६
सुबह की धुंध के बीच जब ऋत्विक ने खिड़की खोली, तो उसे पहली बार उस पुराने दरवाज़े की ओर खिंचाव महसूस हुआ, जो उसके कमरे की बालकनी से साफ़ दिखाई देता था — एक नीली लकड़ी का दरवाज़ा, जिस पर वर्षों पुराना खून का एक गाढ़ा धब्बा अब भी हल्की परछाई की तरह मौजूद था। वह दरवाज़ा इस अपार्टमेंट की छत पर खुलता था, जहाँ शायद ही कोई आता था। लेकिन आज उस ओर देखते हुए ऋत्विक को लगा जैसे वहाँ कोई खड़ा है — हल्का धुंधला आकार, पीठ किए हुए, हवा में स्थिर। उसने आंखें मिचमिचा कर देखने की कोशिश की, पर अगले ही पल वह छाया गायब हो गई। टेप रिकॉर्डर पर उस समय एक नई रिकॉर्डिंग शुरू हो चुकी थी — बिना किसी स्पूल के घूमे, बिना किसी टच के। आवाज़ वही थी — गहरी, धीमी और अब कुछ ज़्यादा परिचित। “तुमने दरवाज़ा देखा, लेकिन उसके पीछे जो बंद है, वो खुद तुम्हारा इंतज़ार कर रहा है।” ऋत्विक के पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई। अब यह स्पष्ट था कि ये आवाज़ें सिर्फ अतीत की नहीं थीं — ये उसके वर्तमान को निर्देशित कर रही थीं, उसके हर कदम पर नज़र रख रही थीं। और उस नीले दरवाज़े के पीछे कोई ऐसा सच था जिसे अब नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता था।
उसी दोपहर वह छत पर गया — डरते हुए, लेकिन भीतर किसी ज़िद के साथ। नीले दरवाज़े की कुंडी पर जंग जम चुकी थी, लेकिन जब उसने हाथ रखा तो वह खुद-ब-खुद चरमराकर खुल गई, जैसे उसे उसका इंतज़ार रहा हो। अंदर एक छोटा कमरा था, जहाँ वर्षों से कोई नहीं आया था। कोनों में जाले, छत से झूलता एक टूटा बल्ब, और बीचोंबीच एक लोहे की कुर्सी — उस पर बैठा एक टेप रिकॉर्डर, वैसा ही जैसा उसके पास था, लेकिन यह कहीं अधिक पुराना और धूल में लिपटा हुआ। उसने उसे उठाया, और जैसे ही उसे पलटा — नीचे उकेरा हुआ नाम मिला: “विभास मजूमदार, 1971।” यह वही टेप मशीन थी, जिससे शायद सब कुछ शुरू हुआ था। उसी कमरे की दीवारों पर कुछ चित्र उकेरे हुए थे — कोयले या खून से बने हुए — एक जैसा चेहरा बार-बार दोहराया गया था, और हर चित्र में आंखें नहीं बनी थीं, जैसे वह चेहरा अधूरा था। उनमें से एक चित्र बिल्कुल ऋत्विक जैसा था, लेकिन वह मुस्कुरा रहा था — विचित्र ढंग से, मानो सब जानता हो। उसने उस टेप को चलाया, तो पहली बार महिला की आवाज़ सुनाई दी — करुणा और रहस्य से भरी। “तुमने मेरी आंखों से जो देखा, वही विभास ने लिखा। अब तुम बचे हो — आखिरी संस्करण। अगर तुम भी चुप रहे, तो यह कहानी अधूरी रह जाएगी।” आवाज़ में आग्रह था, जैसे कोई प्रिय आत्मा, जो वर्षों से कुछ कहने की प्रतीक्षा कर रही हो। ऋत्विक को समझ नहीं आया कि यह महिला कौन थी — लेकिन उसकी आवाज़ कहीं भीतर एक दरवाज़ा खोल रही थी, जो उसने वर्षों से बंद कर रखा था।
नीचे लौटते वक्त उसे एहसास हुआ कि अपार्टमेंट की दीवारें अब कुछ अलग थीं — मानो हल्की सांसें ले रही हों। हर दीवार से एक तरह की नमी निकल रही थी, जैसे वह स्मृतियों से भीगी हुई हो। अपने कमरे में वापस आते ही उसने पाया कि उसकी डेस्क पर एक पुराना पत्र रखा था — बिना लिफाफे के, पीले कागज़ पर हस्तलिखित। “प्रिय विभास,” से शुरू हुआ वह पत्र एक महिला द्वारा लिखा गया था, जिसमें उनके आखिरी मुलाक़ात की बात थी, और लिखा था: “जब तुमने मुझसे कहा कि शब्दों को मत बाँधो, उन्हें बहने दो… तब मैंने जान लिया था कि तुम मर कर भी जीवित रहोगे, किसी न किसी और में।” ऋत्विक ने वह पत्र कई बार पढ़ा। अब वह विभास और अपने बीच की सीमाओं को स्पष्ट नहीं कर पा रहा था। क्या वह उसका पुनर्जन्म था? या क्या वह एक मानसिक प्रतिरूप बन गया था उस लेखक का, जिसकी अधूरी कहानियाँ अब उसके ज़हन में पूरी हो रही थीं? रात को जब उसने फिर से खिड़की खोली, तो देखा — वही परछाई फिर से खड़ी थी, लेकिन इस बार उसकी आंखें थीं… और उनमें खुद ऋत्विक का चेहरा झलक रहा था, मुस्कराते हुए, जैसे वह खुद को पहचान गया हो।
७
उस रात खिड़की के बाहर दिखी वह परछाई सिर्फ एक भ्रम नहीं थी—ऋत्विक अब यह मानने को मजबूर हो गया था कि ‘द मिरर अपार्टमेंट’ कोई साधारण आवासीय इमारत नहीं, बल्कि एक जीवित स्मृति है, एक संवेदनशील संरचना, जो न केवल निगाहों में, बल्कि विचारों में भी समा सकती है। अगले दिन उसने अपनी डायरी निकाली, जिसे उसने कॉलेज के दिनों से बंद कर रखा था, और जैसे ही उसने पन्ने पलटने शुरू किए, एक बेहद पुराना, अजनबी वाक्य उभर आया—“अगर तुम शब्दों से डरते हो, तो आवाज़ें तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ेंगी।” यह वाक्य उसने कभी नहीं लिखा था, फिर भी वह उसकी अपनी लिखावट में था। यह पंक्ति उसी लिपि में थी, जैसे विभास मजूमदार की नोटबुक में पाए गए अंश। उस क्षण उसे एहसास हुआ कि शब्दों की एक अदृश्य सुरंग है, जो वर्तमान को अतीत से जोड़ रही है, और वह खुद उसका माध्यम बनता जा रहा है। कमरे में लगी दीवारों पर अचानक हल्की सी थाप सुनाई दी—धीमी, लेकिन दोहराई जाने वाली। वह खड़ा हुआ, और दीवार के पास गया, तो लगा जैसे दीवार के भीतर कोई धीमी साँस ले रहा हो—एक धीमा फूंक, एक धीमा कम्पन, जैसे किसी ने उसे आवाज़ दी हो। उसने अपनी हथेली दीवार पर रखी—और तुरंत उसकी त्वचा पर किसी की उंगलियों का स्पर्श हुआ, नर्म और ठंडी, जैसे कोई दीवार के उस पार से उसे छूने की कोशिश कर रहा हो।
वह भयभीत था, पर अब भागना संभव नहीं था। उसी क्षण कमरे की बत्ती चली गई, और दीवार पर एक हल्की रोशनी उभरी—एक सिलुएट, जो एक महिला की आकृति जैसा था, बाल खुले, सिर झुका हुआ, और हाथ में एक पुराना टेप। वह आकृति स्पष्ट रूप से कुछ कह रही थी, लेकिन आवाज़ नहीं निकल रही थी। तभी उसी टेप रिकॉर्डर में एक नई रिकॉर्डिंग बज उठी, जिसमें एक महिला की कराहने की आवाज़ थी—जैसे वह किसी को पुकार रही हो: “विभास… तुमने जो कहा, वो मैंने मान लिया था… लेकिन उन्होंने मुझे बंद कर दिया इस कमरे में, आवाज़ों के बीच… लिखना बंद मत करना… मेरी कहानी अधूरी मत छोड़ना।” वह स्वर बुरी तरह टूटा हुआ था, लेकिन दर्द से भरा। ऋत्विक को महसूस हुआ कि वह सिर्फ किसी आत्मा की करुण पुकार नहीं, बल्कि किसी अधूरी किताब की चीख थी, किसी बंद कर दिए गए किरदार की फरियाद, जो जीवित रहना चाहता था—कागज़ पर, ज़ेहन में, अस्तित्व में। उसी पल दीवार के कोने से एक पुरानी फाइल नीचे गिरी, जिसमें विभास की अधूरी पांडुलिपियाँ थीं—हर एक पर एक लाल स्याही में ‘REJECTED’ की मुहर, जैसे किसी ने जानबूझकर उसकी आवाज़ को दबा दिया हो। इन पन्नों के बीच एक आखिरी स्क्रिप्ट थी—शीर्षक था “परछाई की साजिश”, और लेखक के नाम की जगह सिर्फ एक अक्षर लिखा था—“R।”
उस रात ऋत्विक ने उसी स्क्रिप्ट को पढ़ना शुरू किया और पाया कि वह वही घटनाएँ थीं, जो पिछले कुछ दिनों में उसके साथ घटी थीं—खिड़की की परछाई, नीले दरवाज़े का खुलना, दीवारों का सांस लेना, यहाँ तक कि उसकी डायरी में उभरे शब्द तक। यह कहानी पहले से लिखी जा चुकी थी—या वह अब लिखी जा रही थी, उसके ज़रिए, उसी कमरे में, उसी टेप रिकॉर्डर के साथ। उसने महसूस किया कि वह अब सिर्फ कहानी का पात्र नहीं, बल्कि उसका सह-लेखक बन गया है, विभास मजूमदार के बाद अगला वारिस, अगला माध्यम। कमरे के कोने में अब भी हल्की थापें चल रही थीं, जैसे कहानी की धड़कनें। उसने अपने लैपटॉप पर फ़ाइल खोली, टाइटल लिखा: “The Mirror Apartment”, और पहली पंक्ति टाइप की: “इस कमरे में दीवारें सिर्फ चुप नहीं होतीं, कभी-कभी वे अपनी कहानी सुनाती हैं।” लिखते ही जैसे हवा में कुछ स्थिर हो गया, एक संतुलन बन गया। कमरे की रोशनी धीमे से लौटी, और टेप रिकॉर्डर की अंतिम आवाज़ आई—“शब्दों से बनी इस साजिश में अब तुम शामिल हो गए हो, ऋत्विक। खत्म करना चाहो, तो सब खो दोगे। पूरी करना चाहो, तो खुद को पाओगे।”
८
ऋत्विक अब उस बिंदु पर पहुँच गया था जहाँ कल्पना और यथार्थ की सीमाएँ धुंधली हो चुकी थीं। ‘द मिरर अपार्टमेंट’ सिर्फ ईंट और सीमेंट का ढांचा नहीं था, बल्कि एक जटिल स्मृति संरचना थी जो हर उस व्यक्ति की चेतना को निगल लेती थी जो उसकी कहानी को अनदेखा करने की कोशिश करता। जैसे-जैसे ऋत्विक ने “The Mirror Apartment” लिखना शुरू किया, कमरे की प्रतिक्रिया भी बदलने लगी—अब हर शब्द के साथ टेबल का कम्पन बढ़ता, खिड़कियों से ठंडी हवा भीतर नहीं, बल्कि जैसे भीतर से बाहर निकल रही हो। उसने देखा कि कहानी के पन्नों में जो घटनाएँ वह लिखता, वे वास्तविकता में प्रकट हो जातीं—अगर उसने लिखा कि दरवाज़ा अपने आप खुला, तो सचमुच वह दरवाज़ा चरमराता हुआ खुल जाता; अगर वह किसी आवाज़ का वर्णन करता, तो वही आवाज़ कमरे में गूंजने लगती। उसे समझ आने लगा कि यह कोई कहानी नहीं, बल्कि एक जीवित अनुबंध है—एक तरह की सृजनात्मक बंधन जिसमें लेखक का हर विचार इस अपार्टमेंट की ईंटों में घुल चुका है। उसने पिछली रात एक नया सीन लिखा जिसमें एक महिला आईने के भीतर बंद है और बाहर निकलने की कोशिश कर रही है—सुबह वह जागा तो देखा, वॉशरूम के दर्पण पर अंदर से किसी ने खरोंच कर लिखा था, “बाहर लाओ मुझे।” उस वाक्य के नीचे खून जैसी कोई गाढ़ी लाल स्याही थी।
उस दिन उसने पहली बार पड़ोस के फ्लैट्स में रहने वालों से बात करने की कोशिश की। लेकिन उसे अजीब व्यवहार देखने को मिला—कोई उसकी आंखों में नहीं देखता, कोई उसका नाम नहीं दोहराता, कुछ तो ऐसे थे जैसे उसे देख ही नहीं पा रहे हों। नीचे सिक्योरिटी गार्ड भी बार-बार उसे विभास मजूमदार कहकर बुलाता—जब ऋत्विक ने उसे टोका कि वह कोई और है, तो गार्ड बस मुस्कुरा कर बोला, “आप फिर भूल गए, सर?” यह सिर्फ विस्मृति नहीं थी, बल्कि एक सामूहिक सम्मोहन जैसा था, जैसे अपार्टमेंट ने सभी की याददाश्त बदल दी हो। ऋत्विक जब लिफ्ट में चढ़ा तो उसमें एक बूढ़ा आदमी मिला, जिसने सिर्फ एक बात कही, “हर बार कोई न कोई लेखक आता है, फिर आवाज़ें उसे खा जाती हैं… तुम बचना चाहो तो लिखना बंद कर दो… लेकिन अगर अब तक लिखा है, तो अंत तक जाओ, वरना अधूरी कहानी किसी को भी नहीं छोड़ती।” उस आदमी की आँखों में डर नहीं था, सिर्फ थकावट थी—जैसे वह खुद भी किसी कहानी का हिस्सा रह चुका हो। उसी रात ऋत्विक को अपने कमरे में एक पुराना रेडियो मिला, जो दीवार में छुपा हुआ था, और जैसे ही उसने उसे चलाया, उसमें से एक आवाज़ आई: “यह आवाज़ उस कहानी की है, जो किसी ने पूरी नहीं की… क्या तुम वह आखिरी लेखक होगे?”
अब कहानी ऋत्विक से नहीं, बल्कि उसके ज़रिए खुद को लिखवा रही थी। वह लिखता नहीं था, बस टाइप करता था—शब्द खुद-ब-खुद उसकी उंगलियों से उतरते, जैसे वह ट्रांस में हो। हर पंक्ति लिखते समय उसे एहसास होता कि यह वह नहीं, बल्कि कोई और है जो उस पर लिखवा रहा है—शायद विभास, शायद कोई और जो वर्षों से दीवारों में बंद था। एक रात उसने एक नया अध्याय लिखा जिसमें नायक अपनी माँ से बात करता है जो उसे चेतावनी देती है कि वह जिन शब्दों में साँसें खोज रहा है, वे उसे निगल सकती हैं। उसी पल ऋत्विक के मोबाइल पर एक अनजान नंबर से कॉल आया, और दूसरी तरफ एक महिला की आवाज़ आई—बिलकुल वैसी जैसी उसने लिखा था, “बेटा, तुम्हारे पापा की तरह मत बनो… उस कहानी में मत डूबो।” वह डर से कांप गया, लेकिन कॉल कट गई और नंबर ट्रेस नहीं हुआ। कमरे की खिड़की पर अब परछाइयाँ सिर्फ गुजरती नहीं थीं, वे ठहरने लगी थीं। एक औरत की परछाई अक्सर रात को खड़ी रहती, सिर झुकाए, और जैसे ही ऋत्विक उसे देखने की कोशिश करता, वह कमरे में बिखर जाती—एक धूल की परत की तरह, जो सब कुछ ढँक देती। उस दिन ऋत्विक ने अपनी कहानी का अगला अध्याय शुरू किया—शीर्षक था: “दीवार के दूसरी ओर”, और उसने पहली पंक्ति टाइप की: “मैं अब सिर्फ लेखक नहीं, कहानी खुद हूँ।” जैसे ही यह टाइप हुआ, कमरे की सारी बत्तियाँ बुझ गईं, रेडियो फिर से चालू हो गया, और उसमें से विभास की अंतिम रिकॉर्डिंग आई—“अगर तुम मेरी कहानी पूरी कर दो, तो शायद मैं मुक्त हो जाऊँ… लेकिन अगर तुम भी अधूरी छोड़ दोगे, तो तुम मेरी जगह ले लोगे।”
९
जैसे-जैसे रात और स्याह होती जा रही थी, अरुण की आत्मा पर भी अंधेरे की परतें चढ़ती जा रही थीं। उसने खिड़की से बाहर झाँका—दिल्ली की गलियों में रात का सन्नाटा उतर चुका था, लेकिन उसके भीतर का शोर थमने का नाम नहीं ले रहा था। कमरे के कोने में टेप रिकॉर्डर अब भी रखा था, पर उस रात उसमें कुछ भी नहीं बजा। अरुण जान चुका था कि अगली आवाज़ तब ही बजेगी जब वह किसी नए मोड़ पर पहुँचेगा। लेकिन आज कोई नया मोड़ नहीं था, सिवाय इसके कि उसने पूरे दिन अपने अतीत को टटोला। उसे याद आया बचपन में पिता का टेपरिकॉर्डर से प्यार, उस पर ग़ज़लें सुनना, उसकी मां की हँसी जो अब कहीं नहीं थी—और फिर उसके जीवन के तमाम टूटे हुए हिस्से, जो आज इस एक मशीन से जुड़े प्रतीत हो रहे थे। रात के अंधेरे में बैठे हुए, उसने दीवार पर अपनी ही परछाईं को देखा—लेकिन वह स्थिर नहीं थी। वो हिल रही थी, जैसे कोई दूसरी परछाईं उसके पीछे हो। उसने जैसे ही पलट कर देखा, कुछ नहीं था। पर अब उसे लगने लगा था कि आवाज़ें केवल सुनाई नहीं देतीं, कभी-कभी वे शक्ल भी ले लेती हैं।
अगली सुबह जब वह जागा, तो सामने टेबल पर रखा एक पुराना पोस्टकार्ड मिला। ये पोस्टकार्ड उसने कभी किसी को भेजा था—पर कैसे वापस आया? उस पर एक अजनबी हस्ताक्षर थे—”R”। अरुण का माथा ठनका, ये वही हस्ताक्षर थे जो एक बार उसने अपने कॉलेज के रचनात्मक लेखन वर्ग में देखे थे—एक अनाम लेखक जो कहानियाँ छोड़ जाता था लेकिन सामने कभी नहीं आता था। कहीं ये वही व्यक्ति तो नहीं जिसने यह सब रचा? या फिर वो कोई कल्पना थी जो उसकी ही कहानी का हिस्सा बन चुकी थी? टेप रिकॉर्डर पर अब धूल जमने लगी थी लेकिन अरुण जानता था कि उसमें जान अब भी थी। रात को उसने तय किया कि वो आख़िरी बार टेप चलाएगा। जैसे ही उसने टेप चलाया, आवाज़ आई—”अरुण, कहानी वहीं पूरी होती है जहाँ तुमने इसे रोका था। लेकिन याद रखना, हर लेखक अपने अंत का पात्र भी होता है।” वह कांप उठा, उसकी रगों में जैसे कोई बिजली दौड़ गई हो। इस बार आवाज़ में कोई भविष्यवाणी नहीं थी, बल्कि एक दावा था—एक चेतावनी। और फिर एक ध्वनि, जैसे कोई दरवाज़ा बहुत दूर कहीं बंद हुआ हो।
उस रात अरुण ने कमरे की बत्तियाँ बुझा दीं, खिड़की की परदे गिरा दिए और कागज़-कलम लेकर बैठ गया। उसकी उंगलियाँ कांप रही थीं, पर लेखन शुरू हुआ। वह जान चुका था कि यह कहानी उसकी नहीं, टेप रिकॉर्डर की है। और अब उसे बस उस कहानी का अंत लिखना है—लेकिन सवाल था, क्या वह अंत लिख पाएगा या वह खुद उस अंत का हिस्सा बन जाएगा? जैसे ही उसने पहला शब्द लिखा—”मैं नहीं जानता कि मैं मर चुका हूँ या ज़िंदा हूँ…”—एक तेज़ हवा कमरे में चलने लगी, टेप रिकॉर्डर अपने आप चालू हो गया, और उसमें वही आवाज़ आई—”अब अंत पास है, बस लिखते रहो…” अरुण ने काँपते हुए लिखा, जैसे किसी और शक्ति ने उसकी उंगलियाँ पकड़ रखी हों। वह अब लेखक नहीं रहा, वह माध्यम बन चुका था। और कहीं, किसी पुराने रेडियो टॉवर में, उसकी लिखी कहानी हवा में तैर रही थी—अनसुनी, अदृश्य, लेकिन आने वाले किसी अरुण के इंतज़ार में।
१०
कमरे में अजीब-सी गंध फैल रही थी—नमी, धूल और पुराने लोहे की मिली-जुली बू, जो किसी समय के थमे हुए टुकड़े से निकलती है। अरुण की आँखें थकी हुई थीं लेकिन बंद नहीं हो रही थीं, जैसे नींद अब उसके लिए कोई विकल्प नहीं रही। रात के तीन बज चुके थे। टेप रिकॉर्डर अपने आप बंद हो चुका था, लेकिन उसकी गुलाबी लाइट अब भी हल्के-हल्के टिमटिमा रही थी, जैसे किसी दबी हुई आत्मा की आखिरी साँसें। अरुण ने टेबल से कागज उठाया, उस पर उसकी अपनी लिखावट थी लेकिन कुछ शब्द ऐसे भी थे जो उसने नहीं लिखे थे—”तुम्हें वापस आना होगा जहाँ सब शुरू हुआ था। रज़ा रोड, ब्लॉक नंबर 17। वहाँ पहली रिकॉर्डिंग बनी थी, और वहीं अंतिम खत्म होगी।” उसने काँपते हाथों से उसे पढ़ा, फिर दीवार पर टंगी घड़ी की ओर देखा, जैसे समय को अनुमति मांगनी हो। सुबह की प्रतीक्षा किए बिना वह उठा, बैग में टेप रिकॉर्डर रखा और बाहर निकल गया—ठंडी सड़क पर अकेला, जैसे कोई अदृश्य सुरंग में उतर रहा हो।
रज़ा रोड ब्लॉक 17 एक पुराना, टूटा-फूटा घर था—जिसकी खिड़कियाँ बंद थीं और दीवारों पर काई जम चुकी थी। अरुण को इस जगह से कोई याद नहीं थी, लेकिन उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था, जैसे शरीर को कोई भूल चुकी आत्मा अब जाग गई हो। उसने दरवाज़े को धक्का दिया, और दरवाज़ा बिना किसी प्रतिरोध के चरमराता हुआ खुल गया। अंदर अंधेरा था, लेकिन जैसे ही उसने अपना मोबाइल टॉर्च जलाया, सामने दीवार पर पुरानी तस्वीरें दिखीं—किसी संगीतकार की, किसी महिला की जो स्टूडियो में कुछ बोल रही थी, और बीच में एक टेप रिकॉर्डर—बिल्कुल वैसा ही, जैसा उसके पास था। अचानक पीछे से किसी ने फुसफुसाकर कहा—”तुम आ ही गए…” अरुण पलटा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। उसने रिकॉर्डर बाहर निकाला और जैसे ही चालू किया, उसमें से एक ध्वनि निकली—”स्वागत है लेखक, यहाँ तुम्हारी कहानी को आख़िरी पन्ना चाहिए।”
अब अरुण ने लिखना शुरू किया—धीरे-धीरे, ठहर-ठहर कर। हर वाक्य जैसे किसी और की भाषा में उतर रहा था। उसकी आँखें लाल हो रही थीं, साँसें थम-थम के चल रही थीं, लेकिन कलम नहीं रुक रही थी। और फिर जब उसने आख़िरी वाक्य लिखा—”और फिर आवाज़ गूँजी, अंतिम बार…,” तभी टेप रिकॉर्डर ज़ोर की आवाज़ के साथ बंद हो गया। कमरे की बिजली चली गई, हवा पूरी तरह रुक गई, और दीवार की तस्वीरें खुद-ब-खुद गिरने लगीं। अरुण अब भी शांत था। वह मुस्करा रहा था, जैसे एक लंबा सफर पूरा हुआ हो। वह अब लेखक नहीं रहा—वह कहानी बन चुका था। और रज़ा रोड के उस टूटे-फूटे घर में, जब सुबह एक पड़ोसी झाँकने आया, तो देखा कि वहां सिर्फ़ एक पुराना टेप रिकॉर्डर रखा था, जिसमें से हल्की आवाज़ आ रही थी—”मैं अरुण हूँ… और ये मेरी आख़िरी रिकॉर्डिंग है…”
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