अमित वर्मा
भाग 1
मुरादाबाद का जून महीना हमेशा कुछ न कुछ लेकर आता था। कभी धूल भरी आंधी, कभी बिना मौसम के बादल और कभी एकदम अचानक बारिश। उस दिन भी ऐसा ही हुआ। मैं अपनी स्कूटी लेकर ऑफिस से लौट रहा था जब अचानक आसमान फट पड़ा। बारिश की बूंदें ऐसी गिर रही थीं जैसे किसी ने ऊपर से बाल्टी भर के पानी उड़ेल दिया हो।
मैं भागकर सामने वाले पुराने पेड़ के नीचे खड़ा हो गया। वहीं बगल में एक चाय की दुकान थी, नाम लिखा था—”काका की चाय, 1982 से”। दुकान उतनी ही पुरानी लग रही थी जितनी मेरी दादी की साड़ी। पर उसकी चाय की खुशबू आज भी वैसी ही थी—गहरी, गरम और दिल तक उतर जाने वाली।
मैंने काका से एक चाय ली और स्टील के पुराने गिलास में उसे पकड़ते ही कुछ याद आ गया—वही पुरानी खुशबू, वही बारिश, और वही इंतज़ार। कॉलेज के दिनों में भी तो हम ऐसे ही बारिश में भीगते-भीगते काका की दुकान पर आकर चाय पीते थे। पर तब साथ में कोई और भी होती थी—अंजलि।
अंजलि, वही जो क्लास में सबसे आगे बैठती थी, जिसे मैथ से डर लगता था लेकिन कविता से प्यार। मेरी सबसे अच्छी दोस्त, और शायद कुछ और भी, जो कभी कह नहीं पाया। आज इतने साल बाद भी उसका नाम बारिश की पहली बूंद के साथ याद आ जाता है।
काका ने मुझे पहचान लिया। “अरे बिट्टू बाबू! आप तो दिल्ली चले गए थे ना? अब वापस?”
मैं हँसा, “हाँ काका, दो महीने के लिए आया हूँ। थोड़ा ब्रेक लिया है नौकरी से। सोचा कुछ पुरानी जगहें घूम लूं।”
काका ने सिर हिलाया। “अच्छा किया। पुरानी जगहें दिल को सुकून देती हैं। अब तो वो सब भी नहीं आते।”
“कौन?”
“अंजलि बिटिया और उसका भाई। पहले तो हर हफ्ते आते थे। अब सालों से कोई खबर नहीं। शादी हो गई शायद।”
मैं चुप रहा। क्या कहता? मुझे भी तो कुछ पता नहीं।
घर लौटकर जब कपड़े बदल रहा था तो एक अलमारी की पीछे से एक पुराना कार्डबोर्ड का डिब्बा गिर पड़ा। उसमें स्कूल के सर्टिफिकेट्स, कुछ फोटो, और सबसे नीचे एक नीली डायरी थी—अंजलि की लिखावट में।
मैं चौंक गया। ये डायरी यहाँ कैसे? याद आया, कॉलेज के आखिरी दिन उसने मुझे एक गिफ्ट दिया था, बोली थी, “खोलना तब जब बहुत अकेले महसूस करो।”
मैंने कभी नहीं खोला। डरता था शायद।
लेकिन आज, बारिश, चाय, और उसका नाम सुनकर कुछ अंदर से हिल गया था। मैं बैठ गया पलंग पर, डायरी खोली।
पहला पन्ना—
“तू जब ये पढ़ रहा होगा, तब मैं बहुत दूर होऊंगी। पर तू जानता है ना, मैंने हमेशा चाहा कि तू जान जाए, जो मैं कह न सकी।”
अगला पन्ना पलटा—
“मुझे पता है, तू कभी कह नहीं पाया, और मैं भी। पर वो हर दिन जब तू मेरे लिए छतरी लेकर आता था, जब मेरी पसंद का गुलाब लाकर मेरी किताब में रखता था—मैं सब समझती थी। मैं भी वही महसूस करती थी। पर शायद डरती थी, खो देने से।”
मैं रोया नहीं। मैं बस बैठा रहा, डायरी को सीने से लगाकर।
बारिश अब भी खिड़की पर दस्तक दे रही थी। और मैं एक बार फिर अंजलि के शब्दों में भीग रहा था।
भाग 2
अगली सुबह कुछ अलग थी। सूरज बादलों से झांक रहा था, जैसे किसी पुराने दोस्त को देख लेने की झिझक हो। मेरी आँखें नींद से बोझिल थीं, लेकिन मन में हलचल थी। अंजलि की डायरी का हर पन्ना रात भर मेरे दिल में गूंजता रहा।
मैंने तय किया कि आज कहीं बाहर जाना चाहिए—वो जगहें जहाँ हम साथ-साथ जाया करते थे। मन सबसे पहले एक नाम पर जाकर रुका—“राजेश बुक डिपो”। वो छोटी सी किताबों की दुकान जहाँ अंजलि घंटों बिताती थी। किताबों को सूंघती थी, जैसे उनमें कोई पुरानी कहानी छुपी हो।
मैंने स्कूटी निकाली और बुक डिपो की ओर चल पड़ा। रास्ते में सब कुछ वैसा ही था, बस मैं कुछ बदल गया था शायद।
बुक डिपो के बाहर पहुँचते ही देखा, बोर्ड अब थोड़ा टेढ़ा हो गया है। दुकानदार अब राजेश अंकल नहीं थे, शायद उनके बेटे ने दुकान संभाली थी। अंदर वही पुरानी लकड़ी की अलमारी, दीवारों पर किताबों का भार, और एक कोना… जहाँ अंजलि बैठा करती थी।
आज भी वो कुर्सी वहीं थी—थोड़ी सी चरमराती, पर इंतज़ार करती सी।
मैं उस कुर्सी पर बैठ गया, जैसे कोई रीत निभा रहा हूँ। मेरी उँगलियाँ किताबों की धूल साफ कर रही थीं, लेकिन दिमाग अंजलि की आवाज़ में खोया था—
“तूने कभी सूरज की रोशनी में टैगोर पढ़ा है? शब्द झिलमिलाते हैं जैसे पानी में परछाईं।”
मैंने एक किताब उठाई—”गीतांजलि”। वही कॉपी थी जो अंजलि अक्सर पढ़ती थी। उसके अंदर एक पीला पड़ा पन्ना था। मैंने खोला।
“14 जुलाई, 2012
आज बिट्टू मुझे बिना कुछ कहे टैगोर की ये किताब लाकर दे गया। कोई और मुझे इतना ठीक से कैसे जान सकता है? शायद यही प्यार होता है। बिना बोले समझ जाना।”
मेरे गले में कुछ अटक गया।
दुकानदार ने मेरी ओर देखा, मुस्कराया। “आप अंजलि दीदी को जानते थे?”
मैंने हल्का सा सिर हिलाया, “बहुत अच्छे से।”
“वो भी यहीं बैठती थीं, इस कुर्सी पर। हर शनिवार आती थीं। एक दिन बोलीं कि अगर कोई लड़का कभी इस कुर्सी पर आकर टैगोर की किताब उठाए, तो उसे ये नोट पकड़ा देना।”
उसने एक छोटा-सा लिफाफा मेरे हाथ में रखा। हाथ काँपने लगे।
लिफाफे पर लिखा था—”तू जब लौटे, तब पढ़ना।”
मैंने धीमे से खोला।
“बिट्टू,
तू हमेशा कहता था कि हम एक-दूसरे के लिए बने हैं, पर ज़िंदगी हर बार प्लान के हिसाब से नहीं चलती। मैं चली जाऊँगी, कहीं दूर, और शायद तुझे बताने की हिम्मत न जुटा पाऊं। पर जब तू लौटे, ये चिट्ठी पढ़ना।
मैं अब भी यहीं हूँ, उन पन्नों में, उन रास्तों में, उस कुर्सी पर। और अगर तू अब भी वहीं है जहाँ तू था, तो एक बार फिर मिल सकते हैं।
बस एक बार।
– अंजलि”
मेरे आस-पास की सब आवाज़ें थम गईं। सिर्फ उस एक पंक्ति की गूंज रह गई—”बस एक बार।”
मैं बाहर निकला। आसमान साफ था, लेकिन मेरे अंदर कुछ फिर से बरसने लगा था।
भाग 3
मैं घर लौट तो आया था, पर घर जैसा कुछ भी नहीं लग रहा था। खिड़की के परे चमकता हुआ सूरज मेरी आँखों में नहीं, मेरे मन पर चुभ रहा था। अंजलि की चिट्ठी को बार-बार पढ़ते हुए एक बात दिल में बार-बार गूंज रही थी—”बस एक बार।”
क्या वाकई यह कोई संकेत था? क्या वो चाहती थी कि मैं उसे ढूंढ़ूं? या बस एक अधूरी बात पूरी कर रही थी वो?
शायद मैं जवाब तलाश नहीं रहा था। शायद मैं बस उस जगह पर वापस जाना चाहता था जहाँ मैंने पहली बार उससे प्यार को महसूस किया था।
मुरादाबाद रेलवे स्टेशन।
हम दोनों वहीं मिले थे, बारहवीं के बाद की गर्मियों में। अंजलि अपनी मौसी के घर जा रही थी, और मैं नैनीताल के समर कैंप में। प्लेटफॉर्म नंबर दो पर इंतज़ार करते हुए उसने मेरी बोरी से निकला हुआ टैगोर का उपन्यास देखा और कहा था, “तू किताबें पढ़ता है? लड़के तो आमतौर पर PUBG खेलते हैं।”
मैं हँस पड़ा था। उसके बाद वो हँसी कभी छूटी नहीं। स्टेशन के उसी पुल पर हमने पहली बार लंबा साथ चलना सीखा था।
मैं उसी पुल पर पहुँचा। भीड़ थी, जैसे हर जगह होती है, लेकिन मेरी नज़र सिर्फ अतीत ढूंढ़ रही थी। वही जगह, वही दीवार, जहां हमने अपना पहला फोटो खींचा था।
मैंने दीवार को छूकर आँखें बंद कीं। यादें जैसे किसी फिल्म के सीन की तरह चलने लगीं—उसकी चूड़ी की खनक, उसके दुपट्टे की सरसराहट, उसका कहना, “अगर तू खो गया तो मैं तुझे यहीं ढूंढ़ने आऊंगी।”
खोलकर देखा तो मेरी आंखें नम थीं। मैंने मोबाइल निकाला, गैलरी खोली। पुराने फोटो देखने लगा। वही फोटो—अंजलि की हँसी में जो उजाला था, वो अभी भी स्क्रीन पर चमक रहा था।
तभी किसी ने पीछे से आवाज़ दी, “बिट्टू?”
मैं चौंक गया। पलटकर देखा—एक लड़की, शायद 8-9 साल की, नीली फ्रॉक में।
“आप बिट्टू हैं ना? मम्मा ने मुझे फोटो दिखाया था।”
मैं झुक गया। “तुम्हारी मम्मा का नाम क्या है?”
“अंजलि। वो यहीं पास ही रहती हैं, नानी के घर। आजकल बीमार रहती हैं, पर आपका नाम लेते ही आँखें चमक जाती हैं।”
मैं कुछ बोल नहीं पाया।
“मम्मा ने कहा था अगर कभी स्टेशन जाऊं तो बिट्टू अंकल से जरूर मिलवाऊं। वो यहीं मिलेंगे, पुरानी सीढ़ियों के पास।”
मेरे दिल की धड़कन तेज हो गई थी। मैं लड़की का हाथ पकड़कर उसके साथ चल पड़ा। जैसे कोई अधूरी किताब का आख़िरी पन्ना मिलने वाला हो।
हम स्टेशन के बाहर एक गली में मुड़े, फिर एक पुरानी कोठी के सामने रुके। दरवाज़ा लकड़ी का था, और ऊपर नाम की पट्टी—”शुक्ला निवास”।
लड़की ने अंदर बुलाया। “आ जाइए। मम्मा पढ़ रही होंगी।”
मैंने जैसे-तैसे खुद को सँभाला और भीतर गया।
कमरे की दीवारों पर किताबें थीं, खिड़की के पास एक कुर्सी पर अंजलि बैठी थी। थोड़ी कमजोर लग रही थी, लेकिन चेहरा अब भी वैसा ही।
उसने मेरी तरफ देखा, और बस हल्का-सा मुस्कुरा दी।
“तू आया?”
मैंने सिर हिलाया।
“जानती थी। एक न एक दिन आएगा। मेरा स्टेशन पर भेजना काम आ गया ना?”
मैं हँस पड़ा, आँखों में धूप लिए।
“तेरी डायरी ने मुझे फिर से जीना सिखा दिया।”
वो कुछ पल चुप रही। फिर बोली, “तू अब भी टैगोर पढ़ता है?”
मैंने जेब से वही किताब निकाली—वही पीली पड़ चुकी कॉपी।
उसने किताब को देखा, फिर मुझे।
“बस एक सवाल है, बिट्टू। अगर उस दिन मैंने हिम्मत करके कह दिया होता कि मैं भी तुझसे प्यार करती हूँ, तो क्या तू रुक जाता?”
मैंने उसका हाथ थामा। “अंजलि, अगर तू कह देती, तो मैं कभी जाता ही नहीं।”
कमरे में चुप्पी थी, लेकिन उस चुप्पी में जो गूंज थी, वो सालों की दूरी को पिघला रही थी।
भाग 4
अंजलि की आँखों में वो बात थी जो शब्दों से कहीं ज़्यादा गहरी होती है। हम दोनों उस छोटे से कमरे में बैठे थे, जैसे वक़्त ठहर गया हो। वो कुर्सी पर, मैं सामने पड़ी चौकी पर। कमरे में केवल एक पुराना पंखा घूम रहा था, और उसकी धीमी आवाज़ हमारे बीच की सारी खामोशी को भर रही थी।
उसने चाय बनाने की पेशकश की, पर मैं जानता था—अंजलि अब वैसी नहीं रही। शायद कुछ टूटा था उसके भीतर, या शायद कुछ थम गया था।
“तेरा चेहरा अब भी वैसा ही है,” उसने कहा।
मैं हँसा, “पर अब बाल सफेद होने लगे हैं।”
“पर तेरा दिल नहीं बदला। वो अब भी वैसा ही है।” उसका लहजा धीमा था, पर ठोस।
मैंने पूछा, “तूने मुझसे बात क्यों नहीं की? इतने सालों में एक कॉल तक नहीं किया।”
वो चुप रही। खिड़की से आती हवा ने उसके बालों को हल्के से छुआ, जैसे वक़्त ने उसे पुचकारा हो।
“जब तू दिल्ली गया,” उसने कहा, “मैंने सोचा, अब तेरा रास्ता अलग है। और मेरा—बस यही गलियाँ, यही दुकानें, यही ज़िंदगी। मैं तुझे रोके बिना तुझे याद करती रही।”
“पर अंजलि,” मैंने धीरे से कहा, “कभी-कभी दो लोग अलग-अलग रास्तों पर चलकर भी एक ही जगह पहुँच सकते हैं।”
उसने मेरी आँखों में देखा, जैसे कुछ तलाश रही हो। “और हम अब किस जगह पहुँचे हैं?”
मैंने जवाब नहीं दिया। शायद कुछ रिश्तों का जवाब शब्दों में नहीं होता। वो बस होने में है। जैसे बारिश का गिरना, या पत्तों का झड़ना।
अंजलि की बेटी, मीरा, अंदर आई। उसके हाथ में रंग-बिरंगे पेंसिल थे।
“मम्मा, देखो! मैंने नया स्केच बनाया है।”
अंजलि मुस्कराई। “बिट्टू अंकल को दिखाओ।”
मीरा ने स्केच मेरे हाथ में थमाया। एक लड़का और एक लड़की हाथ में टैगोर की किताब पकड़े, पेड़ के नीचे बैठे हैं। पीछे लिखा था—“Mom and her old friend.”
मेरे दिल में कुछ पिघल गया।
“मीरा बहुत समझदार है,” मैंने कहा।
“बच्चे सब समझते हैं,” अंजलि बोली। “बस हम ही बड़े होकर उलझ जाते हैं।”
कमरे में फिर चुप्पी छा गई। लेकिन इस बार वो चुप्पी बोझ नहीं थी। वो शांत थी, जैसे कोई पुराना गीत जो अब भी दिल में बजता है।
मैंने उससे पूछा, “क्या तू अब खुश है?”
उसने सिर झुका लिया। “खुश…शायद। पर अधूरी नहीं। मीरा है, किताबें हैं, यादें हैं। और आज तू है। इससे ज़्यादा नहीं माँगा कभी।”
मैंने उसका हाथ थामा। वो कमजोर था, पर गर्म।
“और तू?” उसने पूछा।
मैंने खिड़की के बाहर देखा। सड़क पर वही पुराना साइकिल वाला दूधवाला जा रहा था, बच्चों की टिफिन लेकर जाने वाली आंटी अब भी वहीं रहती होगी। कुछ बदला नहीं था। या शायद सब बदल गया था।
“अब महसूस होता है,” मैंने कहा, “कि अधूरे रह जाने वाले रिश्ते ही सबसे मुकम्मल होते हैं। तू मेरी ज़िंदगी की वो कविता है जो कभी पूरी नहीं हुई, पर सबसे प्यारी रही।”
वो मुस्कराई। उसकी आँखें नम थीं, पर चेहरे पर सुकून था।
“चल,” उसने धीरे से कहा, “फिर एक बार स्टेशन चलते हैं। मीरा को दिखाते हैं वो पुल, जहाँ पहली बार हमने बारिश देखी थी साथ में।”
मैंने सिर हिलाया। “चलते हैं। इस बार बिना कुछ अधूरा छोड़े।”
भाग 5
स्टेशन वही था। प्लेटफॉर्म नंबर दो पर वही पुराना पानवाला अब भी था, बस उसकी मूँछें अब पूरी तरह सफेद हो गई थीं। सीढ़ियों पर वही दरारें, वही सीटी की आवाज़ें, और वही इंतज़ार का आलम। मगर इस बार अंजलि मेरे साथ थी—और उसकी बेटी मीरा भी।
तीनों एकसाथ चल रहे थे, जैसे कोई पुरानी तस्वीर में फिर से रंग भर रहा हो।
मीरा दौड़-दौड़ कर हर बोर्ड पढ़ रही थी। “मम्मा, यहीं तुम और अंकल मिले थे पहली बार?”
अंजलि हँस पड़ी, “हाँ। और उसी दिन इन्होंने मुझे मेरी पहली टैगोर की किताब दी थी। बिना कुछ कहे, बस पकड़ाई और चले गए।”
मैंने जोड़ा, “क्योंकि कुछ चीज़ें कहने से ज़्यादा निभाने की होती हैं।”
मीरा की आँखों में चमक थी, जैसे उसने अपनी माँ को एक नई कहानी के किरदार की तरह खोज लिया हो।
हम सीढ़ियाँ चढ़े और उसी पुराने पुल पर पहुँचे। मैं वहीं रुक गया, जहाँ कभी अंजलि और मैं खड़े होकर घंटों बात करते थे।
“याद है, तूने कहा था कि अगर कभी खो गए तो यहीं ढूंढना?” मैंने पूछा।
“तभी तो मीरा को यहीं भेजा,” उसने हल्का मुस्कान छिपाते हुए कहा।
मैंने उस लोहे की रेलिंग को छुआ, जहां कभी अंजलि ने अपना नाम उकेरा था। हल्के से अब भी उसका “A” दिखता था, जंग खा चुका, लेकिन मिटा नहीं।
मीरा ने देखा और पूछा, “ये आपने लिखा था मम्मा?”
“हाँ, और इसने कभी जवाब में कुछ नहीं लिखा।” अंजलि ने मेरी ओर देखा।
मैंने जेब से चाकू निकाला। एकदम वैसा, जैसा पुराने दिनों में पेन-कट करने के लिए रखते थे। धीरे से वहीं रेलिंग के पास एक “B” जोड़ दिया।
“अब पूरा हुआ,” मैंने कहा।
मीरा ताली बजाने लगी। “Mom and Bittoo Uncle, A-B! जैसे कहानी में होता है।”
मैं मुस्कराया, पर मन के भीतर कुछ और भी चल रहा था।
मैंने पूछा, “तेरी तबीयत… अब कैसी है?”
अंजलि ने नजरें झुका लीं। “कुछ ज़्यादा दिन नहीं हैं शायद। डॉक्टर ने कहा है कि इलाज अब बस समय खींचेगा। पर मैं ठीक हूँ, जितना तू पास है।”
मैं कुछ पल चुप रहा। ज़िंदगी के सबसे मुश्किल वाक्य वे होते हैं जिन्हें कहा नहीं जा सकता।
“मैं यहाँ हूँ अंजलि। हर रोज़, जब तक तू कहे।”
“तो आज एक वादा कर,” उसने कहा। “जब मैं न रहूँ, मीरा को तू वही कहानियाँ सुनाना जो मैं तुझे सुनाती थी।”
मैंने उसका हाथ थामा। “तेरे शब्द कभी मर नहीं सकते। मैं बस उन्हें दोहराता रहूँगा।”
मीरा अब थकने लगी थी। हम नीचे उतरकर वहीं एक बेंच पर बैठ गए, जहाँ पहले हम कुल्हड़ वाली चाय पीते थे।
एक बूढ़ा आदमी चाय बेच रहा था। मैंने दो चाय और एक बॉर्नविटा मांगा। मीरा चहक उठी।
“यही पीती थी तू न बचपन में?” मैंने अंजलि से कहा।
“और तू हर बार चाय की जगह बॉर्नवিটा ही लाता था, ये कहकर कि तू तो खास है।”
अंजलि की आँखें अब झील जैसी लग रही थीं—गहरी, शांत, और थोड़ी नम।
मैंने कुल्हड़ उठाया। “इस बार चाय नहीं, वक़्त की मिठास पीते हैं।”
स्टेशन की आवाज़ें, गाड़ियों की सीटी, बच्चों की खिलखिलाहट और पुराने लाउडस्पीकर की घोषणाएं—सब मिलकर एक संगीत बन गए थे उस पल में।
अंजलि ने मेरे कंधे पर सिर टिका दिया। “कुछ पल बस यूँ ही ठहर जाएं तो क्या बात हो।”
“ये पल नहीं ठहरते अंजलि, पर यादें रुक जाती हैं,” मैंने कहा। “और हम उन्हें दोहराते रहते हैं, हर बार नए तरीके से।”
उसने धीमे से कहा, “तो फिर अगले शनिवार यहीं मिलते हैं, ठीक इसी बेंच पर।”
मैंने उसका हाथ और कसकर पकड़ लिया।
“हमेशा,” मैंने कहा।
भाग 6
उस दिन स्टेशन से लौटने के बाद, जैसे कुछ बदल गया था मेरे भीतर। मन हल्का था, जैसे कई सालों से बंद एक दरवाज़ा अब खुला हो। अंजलि का हाथ थामना, उसकी आँखों में बीता समय पढ़ना और मीरा की मुस्कान में उम्मीद ढूंढ़ना—इन सबने मुझे अपने आप से मिला दिया।
घर पहुंचा तो देखा, माँ वही पुराने रेडियो पर लता मंगेशकर सुन रही थीं। “लग जा गले…” चल रहा था। गाना, जो हर बार लगता है जैसे पहली बार सुन रहे हों।
“बिट्टू, अंजलि मिली?” माँ ने पूछा।
मैंने चौंक कर देखा। “आपको कैसे पता?”
“जिसे माँ कहते हैं, वो सब जानती है। उसकी माँ आज सुबह आई थी मिलने। बताया कि अंजलि अब ठीक नहीं है। पर खुश है, क्योंकि तू वापस आया है।”
मैं कुछ बोल नहीं पाया। माँ ने सिर पर हाथ फेरा। “कुछ रिश्ते वक्त के पार चलते हैं। और कुछ, वक्त के भीतर सहेज लिए जाते हैं।”
मैंने अपने कमरे का दरवाज़ा बंद किया, और अंजलि की डायरी फिर से खोली।
इस बार बीच के कुछ पन्ने पढ़े—
“तेरे जाने के बाद मैं अक्सर उसी बेंच पर बैठती हूँ, जहाँ तू चाय लाकर देता था। लोगों को देखकर सोचती हूँ, क्या हम भी किसी के लिए बस एक गुजरती छाया हैं? पर फिर तेरी यादें आकर मुझे थाम लेती हैं। और मैं मुस्कुरा देती हूँ।”
नीचे छोटी सी लाइन में लिखा था—
“तू कहीं नहीं गया, बिट्टू। तू अब भी यहीं है। मेरे आस-पास।”
मैंने उस डायरी को धीरे से बंद किया। मन किया, सब छोड़ दूं—नौकरी, शहर, भागदौड़—and just be. वहीं, जहाँ मेरी ज़िंदगी ने रुकना सीखा था।
अगले दिन मैं फिर अंजलि के घर गया। मीरा स्कूल गई थी। अंजलि पलंग पर लेटी थी, चेहरे पर वही शांत मुस्कान।
“आज कोई किताब लाई है?” उसने पूछा।
“हाँ,” मैंने कहा। “एक अधूरी कविता जो तूने कभी शुरू की थी।”
मैंने डायरी से उसका लिखा एक अधूरा कविता-पन्ना निकाला, और नीचे वही भाव रखते हुए आख़िरी पंक्तियाँ जोड़ दीं।
“जो कह न सके वो हवा में था,
तेरी चुप्पी में, मेरी खामोशी में।
अब शब्द मिले हैं, पर तू पास नहीं।
पर तुझमें ही मैं, और मुझमें ही तू था कहीं।”
अंजलि ने मेरी ओर देखा। उसकी आँखों में आंसू थे, लेकिन वो बह नहीं रहे थे। बस वहाँ ठहरे हुए थे—गवाही देने के लिए, कि कुछ भावनाएं वक़्त के पार भी जिंदा रहती हैं।
“ये आख़िरी बार है बिट्टू।”
“क्या?”
“हम मिल रहे हैं। मैं अब ज़्यादा दिन नहीं रहूँगी। पर जाने से पहले तुझे देखना चाहती थी। खुद को तुझमें छोड़ जाना चाहती थी।”
मैंने उसका हाथ थाम लिया।
“तू कभी नहीं जाएगी अंजलि। मैं तुझमें नहीं, तू मुझमें रहेगी।”
वो मुस्कराई। “मीरा का ख़्याल रखना। वो मेरे जैसी है। किताबों से बातें करती है। उसे कोई चाहिए जो सुने, जैसे तू मुझे सुनता था।”
मैंने सिर हिलाया। “वो मेरी कहानी बन चुकी है अब। जैसे तू कविता थी।”
उसने आँखें बंद कीं। कुछ देर बाद उसकी साँसों की गति धीमी हो गई।
मैं वहीं बैठा रहा। कुछ कहे बिना। कुछ सोचे बिना।
कमरे में चुप्पी थी। पर उसमें उसका स्वर था।
भाग 7
अंजलि चली गई।
ना शोर हुआ, ना विदाई।
बस जैसे कोई किताब अचानक आख़िरी पन्ने पर आ जाए, और आप सोचते रह जाएं—”इतनी जल्दी कैसे ख़त्म हो गई?”
उसकी आख़िरी साँस के बाद कुछ मिनटों तक मैं कुछ भी नहीं सोच पाया। वो पल वैसा था जैसे कोई मंदिर की घंटी धीरे-धीरे बजते-बजते चुप हो जाए।
मीरा जब लौटी, तो दरवाज़े पर ही रुक गई। मुझे देखकर समझ गई कि कुछ बदल गया है।
वो चुपचाप मेरी गोद में आकर बैठ गई।
“मम्मा अब नहीं उठेंगी ना?”
मैंने सिर हिलाया नहीं, पर उसने जान लिया।
“मम्मा ने कहा था आप कहानियाँ सुनाओगे मुझे। क्या अब से हर रात एक कहानी सुनाओगे?”
मैंने उसका हाथ थामा। “हर रात। हर रोज़। जब तक तू कहे।”
अंजलि का अंतिम संस्कार बहुत साधारण था। कुछ रिश्तेदार, कुछ पड़ोसी, और किताबों की उस अलमारी से उठती वो खुशबू, जो हर किसी को बता रही थी—यहाँ कोई शब्दों में जिया था।
उसी दिन मैंने एक छोटा सा निर्णय लिया।
दिल्ली की नौकरी को ‘पेंडिंग’ में डाल दिया।
अंजलि के घर के बगल वाले किराये के कमरे में रहने लगा।
मीरा को स्कूल छोड़ना, लंच पैक करना, रात को उसके बालों में तेल लगाना—सब कुछ जैसे धीरे-धीरे मेरे जीवन का हिस्सा बन गया।
शाम को हम दोनों राजेश बुक डिपो जाते, जहाँ वो अब भी उस पुरानी कुर्सी पर बैठती और ड्रॉइंग करती।
मैं किताबें पलटता और कभी-कभी अंजलि की डायरी से एक पन्ना पढ़कर मीरा को सुनाता।
वो हर बार पूछती—“ये मम्मा ने कब लिखा था?”
और मैं जवाब देता—“जब वो तुम्हारे बारे में सोच रही थीं, उससे भी पहले।”
मीरा के साथ वक्त बिताते-बिताते मैंने सीखा कि ग़म को सिर्फ भुलाया नहीं जाता, उसे जिया भी जा सकता है। जैसे पुराने ज़ख़्म जिन पर धूप धीरे-धीरे पड़ती है, और एक दिन वो बस निशान बनकर रह जाते हैं।
एक दिन मीरा बोली, “मम्मा ने कहा था आप भी कविताएँ लिखते थे। एक सुनाओ ना।”
मैं मुस्कराया। बहुत सालों से लिखा नहीं था। पर उसकी आँखें देखकर लगा, अब वक़्त आ गया है।
मैंने उसी बेंच पर बैठकर डायरी खोली और लिखा—
“कभी किसी की याद बनकर रह जाना,
ख़ुशबू की तरह, किताब की तरह,
या एक छोटी लड़की की मुस्कान की तरह,
जो कहती है—‘मम्मा यहीं रहती थीं ना?’”
मीरा ने कविता सुनी, फिर चुपचाप मेरे कंधे पर सिर रख दिया।
स्टेशन पर अब भी वही हलचल थी। गाड़ियों की आवाज़ें, चाय वालों की पुकार, announcements—पर उनमें अब एक आवाज़ और थी, जो सुनाई तो नहीं देती थी, पर महसूस होती थी।
वो थी अंजलि की।
हर पुल की रेलिंग पर, हर किताब के पन्ने में, हर चाय के कुल्हड़ की भाप में—वो अब भी वहीं थी।
एक शाम, जब धूप पीली रेखा बनकर हमारी खिड़की से अंदर आ रही थी, मीरा ने पूछा, “Bittoo Uncle, क्या आप हमेशा हमारे साथ रहेंगे?”
मैंने उसकी ओर देखा। उसकी आँखों में वही भरोसा था, जो कभी अंजलि की आँखों में था।
मैंने जवाब नहीं दिया। बस उस धूप की रेखा को देखा जो ठीक उसके चेहरे पर पड़ रही थी।
“हाँ,” मैंने कहा, “जैसे धूप हर दिन आती है… मैं भी आऊंगा।”
भाग 8
बरसात का मौसम फिर लौट आया था। मुरादाबाद की गलियाँ भीग रही थीं, और मेरे भीतर कुछ सूखा-सूखा सा हल्का हो रहा था। अंजलि के जाने के तीन महीने बीत चुके थे। और इन तीन महीनों में मैं कोई और बन गया था—या शायद वही बन गया था जो हमेशा होना चाहिए था।
मीरा अब स्कूल से आते ही मेरी झोली में कूद जाती। “आज मैथ्स में फुल मार्क्स!” वो कहती, और मैं ऐसे मुस्कराता जैसे कोई ओलम्पिक जीत लिया हो। उसका हर छोटा पल जैसे अंजलि की एक अधूरी कविता पूरी कर रहा था।
उस दिन, मीरा अलमारी की सफाई कर रही थी जब उसे एक छोटा लकड़ी का बक्सा मिला। उस पर अंजलि की लिखावट में लिखा था—”Bittoo के लिए – तब, जब वो फिर से लौट आए”।
मीरा ने मुझे पकड़ा दिया। “ये आपके लिए है। मम्मा ने छुपाकर रखा था।”
मेरे हाथ काँप उठे। जैसे बक्सा नहीं, वक़्त खुद मेरे सामने आ गया हो।
धीरे-धीरे खोला। अंदर थीं कई चिट्ठियाँ। पुरानी, धूप से पीली पड़ी। हर चिट्ठी की शुरुआत होती थी—“प्रिय बिट्टू” से।
मैंने पहली चिट्ठी पढ़ी—
“5 फरवरी 2014
प्रिय बिट्टू,
आज तेरे बिना पहली बार चाय पी। काका अब भी वही मसाला डालते हैं, पर मज़ा नहीं आता। तू जब भी मुस्कुराता था, चाय कुछ और स्वाद देती थी। जानता है, अब भी जब बारिश होती है, मैं वहीं खड़ी हो जाती हूँ। सोचती हूँ तू अभी दौड़ता हुआ आएगा, स्कूटी से, और चश्मा उतारकर कहेगा—‘फिर भीग गई ना पागल?’”
दूसरी चिट्ठी—
“12 अगस्त 2016
प्रिय बिट्टू,
मीरा अब तीन साल की हो गई है। हर बार जब वो मुझसे पूछती है कि उसके पापा कौन हैं, मैं बस तेरी तरफ देखती हूँ—मन ही मन। जानती हूँ, तू ये पढ़ेगा तब तक शायद सब बदल जाए। पर मैं चाहती थी कि तू जान सके—मीरा तुझसे अलग नहीं है। वो तेरी हँसी जैसी हँसती है। और तेरी तरह ही हर बात में तर्क ढूंढती है।”
मैं रुक गया। आँखों से कुछ बहने लगा था, जो शब्दों से बड़ा था।
तीसरी चिट्ठी में सिर्फ दो पंक्तियाँ थीं—
“15 नवंबर 2021
प्रिय बिट्टू,
अगर तू कभी लौटे, तो जानना—मैंने तुझे कभी छोड़ा नहीं था। बस दुनिया को बता नहीं सकी। तू मेरी हर कहानी का आख़िरी वाक्य है। और मीरा, उस कहानी की अगली किताब।”
मैं वहीं बैठ गया, बक्से के सामने। चिट्ठियाँ अब भी हाथ में थीं, लेकिन वो अब सिर्फ कागज़ नहीं थीं। वो एक स्त्री की सारी अनकही बातें थीं, जिनका उत्तर अब मुझे देना था।
मैंने उसी बक्से में एक नई डायरी डाली—नीली जिल्द वाली, जिसमें पहला पन्ना लिखा—
“प्रिय अंजलि,
मैं यहाँ हूँ। और अब तुझसे हर रोज़ बात करूंगा। मीरा अब भी टैगोर पढ़ती है। और मैं हर रोज़ तेरी किसी कविता की अगली पंक्ति लिखता हूँ।
तेरा,
बिट्टू”
मीरा पास आकर बैठी। “मम्मा की चिट्ठियाँ बहुत प्यारी हैं। आप भी मुझे एक चिट्ठी लिखोगे?”
मैंने उसका माथा चूमा। “हर रोज़ एक।”
उस शाम, हमने मिलकर दीवार पर एक बोर्ड लगाया—“अंजलि की चिट्ठियाँ”। उसमें हर हफ्ते हम एक चिट्ठी लगाते, जो अंजलि ने लिखी थी या जो हमने उसे जवाब में लिखी।
लोग आते, पढ़ते, मुस्कुराते। कई बार रोते भी। पर जाते हुए उनके दिल में कुछ रह जाता—जैसे किसी अजनबी ने उन्हें थामा हो।
अंजलि अब एक चिट्ठी बन चुकी थी—हर उस इंसान के लिए जो कभी कुछ कह नहीं पाया।
भाग 9
शहर धीरे-धीरे मुझे अपना हिस्सा मानने लगा था। अब जब मैं गलियों से गुजरता, पान वाला मुस्कुरा देता, स्टेशन मास्टर सलाम ठोक देता, और राजेश बुक डिपो में बैठा लड़का पूछता—”आज कौन सी चिट्ठी लग रही है बोर्ड पर?”
मैं हँसता, और कहता, “जो कहनी रह गई थी, वही लिखी है आज।”
मीरा अब क्लास में कविता प्रतियोगिताएं जीतती थी। हर बार जब वो मंच पर जाती, तो कहती—”ये कविता मेरी माँ की याद में है, और मेरे बिट्टू अंकल के लिए, जो माँ की कविता को हर दिन पूरा करते हैं।”
लोग ताली बजाते थे, पर मेरी आँखें हर बार भीग जाती थीं।
एक दिन स्कूल से लौटकर मीरा ने पूछा, “बिट्टू अंकल, क्या प्यार खत्म हो सकता है?”
मैं थोड़ा चौंका। इतने सीधे सवाल के लिए मैं तैयार नहीं था।
मैंने कहा, “प्यार खत्म नहीं होता मीरा। वो बस रूप बदलता है। कभी चाय की खुशबू बन जाता है, कभी पुराने खतों की स्याही, और कभी तेरे जैसे किसी सवाल में उतर आता है।”
वो कुछ देर सोचती रही। फिर मुस्कुराई—“जैसे मम्मा अब कविता बन गई हैं?”
मैंने सिर हिलाया। “बिलकुल।”
मीरा मेरे करीब आई और बोली—“तो अब से हर शनिवार मम्मा की कविता पढ़ा करोगे मुझे?”
“हर शनिवार,” मैंने वादा किया।
उस दिन शाम को मैं अंजलि के घर की छत पर बैठा। वही छत, जहाँ कभी हम दोनों बैठकर आसमान को निहारा करते थे। याद है उसने कहा था—“तेरे साथ बैठा आसमान भी मेरा लगने लगता है”?
मैंने आसमान को देखा। बादल छिटक रहे थे, और हवा में हल्की सी ठंडक थी। जैसे अंजलि कह रही हो—“अब तू अकेला नहीं है।”
उसी छत पर, मैंने एक और नई डायरी खोली।
इस बार शुरुआत कुछ यूँ की—
“अंजलि,
शहर अब तेरा नाम लेने लगा है। जब भी कोई बारिश आती है, लोग कहते हैं—‘आज अंजलि की चाय चाहिए।’ स्टेशन पर लोग पूछते हैं—‘कौन सी बेंच थी उनकी?’
और मीरा?
वो अब कविता नहीं सुनती, वो खुद कविता बन गई है।”
मैंने लिखा, फिर चुपचाप डायरी बंद की।
कुछ रिश्ते ज़ोर से नहीं चलते, धीमे-धीमे फुसफुसाते हैं, जैसे किसी किताब के पन्नों के बीच रखी गुलाब की सूखी पंखुड़ी। वो दिखती नहीं, पर खुशबू छोड़ जाती है।
अगले हफ्ते, मीरा और मैंने मिलकर एक छोटा-सा लिटरेरी क्लब शुरू किया—“चिट्ठियों की छत”। हर रविवार शहर के दस बच्चे आते, और हम मिलकर चिट्ठियाँ लिखते—किसी पुराने दोस्त को, खुद को, या किसी को जो अब नहीं है।
लोग आने लगे, चिट्ठियाँ बोर्ड पर टाँगने लगे। कई बार रोते हुए, कई बार मुस्कुराते हुए।
अंजलि की छाया अब शहर की हवा में थी।
और मैं?
मैं अब चुप्पियों को शब्द देना सीख गया था।
भाग 10
उस रविवार “चिट्ठियों की छत” पर शहर के कुछ नए चेहरे आए थे। एक बुज़ुर्ग दंपत्ति, एक कॉलेज की लड़की जिसने लिखा कि उसे कभी किसी ने चिट्ठी नहीं भेजी, और एक लड़का—जो अपनी माँ को माफ़ नहीं कर पा रहा था।
मीरा सबको चाय परोस रही थी। उसके हाथों में अब संकोच नहीं था, जैसे उसमें माँ की आत्मा उतर आई हो।
एक लड़की ने मुझसे पूछा, “क्या आप अंजलि जी के पति थे?”
मैं मुस्कराया। “नहीं। लेकिन वो मेरी हर कहानी की पहली पाठक थीं। और अब हर कहानी का आख़िरी वाक्य।”
उसने चुपचाप सिर हिलाया।
मीरा मेरी कुर्सी के पास आई। “आज कोई नई चिट्ठी?”
मैंने जेब से वही पुरानी नीली डायरी निकाली। सबकी नज़र मेरी ओर थी।
मैंने पढ़ना शुरू किया—
“प्रिय अंजलि,
तुम्हारी आवाज़ अब मेरी आदत बन चुकी है।
सुबह की चाय बनाते वक़्त, मीरा को स्कूल भेजते वक़्त, रात को उसके माथे पर हाथ फेरते वक़्त—हर जगह तुम बोलती हो।
तुम्हारा न होना, अब न होना नहीं लगता।
कभी-कभी लगता है, तुम खिड़की के उस पार बैठी हो, और मैं बस जरा देर से जवाब दे रहा हूँ।”
लोग चुपचाप सुनते रहे। कुछ की आँखें भीग गई थीं।
मीरा पास आकर मेरी बांह में हाथ डाला और धीरे से बोली, “मम्मा ने कहा था, आप उन्हें भूले नहीं होगे। आपने सच में नहीं भुलाया।”
मैंने उसका हाथ थामा। “कुछ लोग याद नहीं रहते, वो भीतर बस जाते हैं।”
उस दिन मीरा ने पहली बार मंच पर खड़े होकर खुद की लिखी एक चिट्ठी पढ़ी।
“मम्मा,
आज मैंने गुलाबी फ्रॉक पहनी जो आपको पसंद थी।
और आज सबने मेरी कविता पर ताली बजाई।
Bittoo अंकल अब रोज़ मेरे साथ बैठते हैं, जैसे आप बैठती थीं।
क्या आप ऊपर से देख रही हो?
मैं मुस्कुरा रही हूँ… पर रोई भी।
क्योंकि आज आपकी आवाज़ कानों में नहीं आई—पर दिल में बहुत आई।”
भीड़ सन्न थी।
और मैं जान गया था—यह कहानी अब मेरी नहीं रही। यह मीरा की हो गई थी। यह शहर की हो गई थी। यह हर उस इंसान की हो गई थी जिसने कुछ खोया, और फिर किसी शब्द में उसे ढूँढ लिया।
उस शाम, जब छत पर अकेला बैठा था, मैंने अंजलि की डायरी बंद की।
धीरे से कहा—“अब तुझसे नहीं लिखूंगा। अब तू मुझमें रहती है, हर बात में, हर चुप्पी में।”
भाग 11
मुरादाबाद अब मेरा शहर नहीं रहा, वो मेरा पता बन गया है।
वो स्टेशन जहाँ पहली बार अंजलि से मिला था, अब मीरा हर हफ्ते वहाँ बैठकर बच्चों को पढ़ाती है—”स्टेशन स्कूल” शुरू किया है उसने, एक चायवाले और कुल्हड़ की खुशबू के बीच। पुराने डिब्बों में किताबें रख दी हैं, जो अब लाइब्रेरी बन गए हैं।
राजेश बुक डिपो अब राजेश अंकल के पोते चला रहे हैं। उन्होंने हमारे “चिट्ठियों की छत” क्लब की किताबें छापना शुरू कर दिया है। हर महीने एक नई “अनकही” छपती है—किसी ने लिखी, किसी ने जानी, किसी ने बस महसूस की।
मीरा अब मुझसे ज़्यादा लिखती है। उसकी डायरी में अब अंजलि नहीं है, वो खुद है—अपने ख्वाबों के साथ, अपने दुःख के साथ, अपनी कहानियों के साथ।
और मैं?
मैं अब कम बोलता हूँ, पर बहुत कुछ सुनता हूँ।
खिड़की से आती हवा में,
रात की सन्नाटी सड़कों पर,
और उस प्लेटफॉर्म की सीढ़ियों पर जहाँ एक बार अंजलि ने कहा था—
“अगर तू खो गया, तो मैं तुझे यहीं ढूँढूंगी।”
अब जब भी स्टेशन जाता हूँ, एक बेंच पर बैठकर कुल्हड़ वाली चाय पीता हूँ।
कभी कोई बुज़ुर्ग पास आकर पूछते हैं,
“बिट्टू ना? अंजलि की चिट्ठियों वाला?”
मैं मुस्कुराता हूँ।
“हाँ, वही।”
वो सिर हिलाते हैं—“अच्छा लिखता है तू। पर असल बात तो ये है कि तुझे लिखवाने वाली अंजलि थी।”
मैं कुछ नहीं कहता।
बस उस जगह को देखता हूँ जहाँ वो नाम कभी रेलिंग पर लिखा था—A और B।
अब वहाँ धूप पड़ती है रोज़, और शाम की हवा धीरे से उसे सहलाती है।
मेरे पास अब कोई डायरी नहीं, बस कहानियाँ हैं।
कभी-कभी किसी अनजान को सुनाता हूँ।
और वो पूछते हैं—”ये किसकी कहानी थी?”
मैं जवाब देता हूँ—
“एक लड़की की, जो कविता थी। और एक लड़के की, जो उस कविता का विराम बन गया।”
समाप्त




