आरव मिश्रा
भाग 1 – परिचय
रामू की सुबह बाकी लोगों से बहुत अलग नहीं थी, पर उसमें कुछ खासियत थी जिसे वह खुद ही पहचानता था। उसकी आँखें भोर के हल्के उजाले के साथ खुल जातीं। घर छोटा था—मोहल्ले की तंग गलियों के बीच एक कमरे का मकान, जिसकी छत पर टीन की चादरें लगी थीं। गर्मियों में वे चादरें आग की तरह तपतीं और सर्दियों में उन पर ओस की बूंदें मोतियों की तरह चमकतीं। मगर रामू ने कभी शिकायत नहीं की।
रामू की उम्र पैंतीस के आसपास थी। चेहरे पर हल्की दाढ़ी और माथे पर हमेशा पसीने की चमक रहती। वह पास के कारखाने में काम करता था, जहाँ लोहे की चादरें काटने और जोड़ने का काम उसे सौंपा गया था। मजदूरी बस इतनी थी कि घर का गुजारा हो सके। पत्नी सविता सिलाई का काम कर लेती, जिससे महीने के खर्च में थोड़ी मदद मिल जाती। उनके दो बच्चे थे—पंद्रह साल का सोनू और दस साल की पिंकी। दोनों सरकारी स्कूल में पढ़ते थे।
रामू को अक्सर लगता कि ज़िंदगी बड़ी साधारण है, पर यही साधारणता ही उसकी ताक़त थी। वह मानता था कि खुशियाँ हमेशा बड़ी नहीं होतीं, बल्कि छोटी-छोटी बातों में छिपी रहती हैं। जैसे, सुबह काम पर निकलने से पहले बच्चों की हंसी सुन लेना, पत्नी के हाथ की गरमा-गरम चाय पी लेना, या फिर मोहल्ले के किसी दोस्त से दो पल बातें कर लेना।
उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। भोर की पहली किरण कमरे की छोटी खिड़की से भीतर आई। रामू ने करवट बदली और देखा कि पिंकी माँ के पास सिमटकर सो रही है। सोनू पैरों को फैलाकर लेटा था, जैसे पूरा बिस्तर उसी का हो। रामू के होंठों पर हल्की मुस्कान आ गई। उसने चुपचाप उठकर हाथ-मुँह धोया और बाहर बरामदे में आ गया।
बरामदे से गली साफ़ दिखाई देती थी। गली के कोने पर ही शर्मा जी की चाय की दुकान थी। वहाँ पहले से ही कुछ लोग बैठे थे—कोई अख़बार पढ़ रहा था, कोई ताश खेल रहा था, और कोई बस गपशप कर रहा था। उस छोटे से अड्डे में मोहल्ले की पूरी दुनिया समाई हुई लगती।
रामू ने धीरे से आवाज़ लगाई—“सविता, ज़रा चाय मिल जाएगी?”
अंदर से सविता की आवाज़ आई—“अभी लाई। तुम बैठो।”
रामू को यह छोटी-सी आवाज़ भी बड़ी सुकून देती थी। वह लकड़ी की पुरानी कुर्सी पर बैठ गया और आसमान की ओर देखने लगा। हल्की-हल्की धूप गली के मकानों की दीवारों पर पड़ने लगी थी। पंछियों की चहचहाहट और मोहल्ले के बच्चों की हंसी मिलकर एक अलग ही संगीत बना रहे थे।
थोड़ी देर में सविता चाय ले आई। पीतल की पुरानी केतली से उसने चाय डालकर रामू के सामने रख दी। कप में से उठती भाप में अदरक और इलायची की महक थी। रामू ने एक घूँट लिया और संतोष की सांस भरी।
“आज देर तो नहीं हो जाएगी?” सविता ने पूछा।
“नहीं, अभी समय है। कारखाने तक पहुँचने में आधा घंटा लगता है।”
“सुनो,” सविता ने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “आज पिंकी कह रही थी कि उसे नया बैग चाहिए। उसका बैग फट गया है।”
रामू ने चाय की आखिरी चुस्की ली और थोड़ा चुप रहा। पैसे वैसे ही कम थे। महीने का किराया, राशन, स्कूल की फीस—सबकुछ मिलाकर मुश्किल से गुजारा होता। लेकिन बेटी की मासूम इच्छा को वह कैसे टालता? उसने सविता की ओर देखा और सिर हिलाया—“ठीक है, इस हफ्ते कहीं से जुगाड़ कर दूँगा।”
सविता ने राहत की सांस ली। उसे पता था, रामू कभी अपने बच्चों की ख्वाहिशें अधूरी नहीं छोड़ता।
इसी बीच सोनू भी नींद से जाग गया। आँखें मलते हुए बाहर आया और बोला—“बाबा, आज स्कूल में फुटबॉल मैच है। अगर हमारी टीम जीत गई तो मास्टर जी मिठाई खिलाएंगे।”
रामू हँस पड़ा। “तो जीतो बेटा, और मिठाई घर भी लेकर आना। पिंकी को भी खिलाना।”
सोनू की आँखें चमक उठीं। वह दौड़कर माँ के पास चला गया और किताबें निकालकर पढ़ने बैठ गया।
रामू की दुनिया बस यही थी—उसका छोटा-सा घर, पत्नी की मुस्कान, बच्चों की शरारतें और मोहल्ले का अपनापन। उसे किसी बड़ी दौलत की लालसा नहीं थी। उसके लिए यही छोटे-छोटे सुख ज़िंदगी के असली खजाने थे।
चाय खत्म करके रामू ने बैग उठाया और निकलने को हुआ। दरवाज़े पर खड़े होकर उसने बच्चों को आशीर्वाद दिया और सविता को आश्वस्त नजरों से देखा। फिर गली में कदम रखे तो हवा में एक अलग ही ताजगी थी।
गली के बाहर ही बूढ़े मियाँ की फल की ठेली लगी रहती थी। रामू रोज़ उन्हें सलाम करता। उस दिन भी उसने कहा—“नमस्ते चाचा।”
बूढ़े मियाँ मुस्कुराए—“खुश रहो बेटा। अल्लाह तुम्हें सलामत रखे।”
रामू को यह आशीर्वाद भीतर तक छू गया। वह समझ गया था कि इंसान की असली पूँजी यही दुआएँ हैं।
कारखाने की ओर जाते हुए उसे लगा कि चाहे ज़िंदगी कितनी भी कठिन क्यों न हो, इन छोटे-छोटे पलों में ही वह ताक़त छिपी है जो इंसान को आगे बढ़ाती है।
उसने सोचा—“सच तो यही है कि सुख बड़ा हो या छोटा, अगर दिल से महसूस किया जाए तो वही जीवन का सबसे बड़ा तोहफ़ा है।”
और यह सोचते-सोचते रामू काम पर निकल गया, चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान और दिल में एक नई उम्मीद के साथ।
भाग 2 – सुबह की धूप
कारखाने की ओर जाते समय रामू का रोज़ का एक ठिकाना था—शर्मा जी की चाय की दुकान। गली के कोने पर बनी वह छोटी-सी दुकान पूरे मोहल्ले की धड़कन थी। लकड़ी के तख्तों पर रखे कुछ बेंच, ऊपर टीन की छत और सामने मिट्टी का चूल्हा जिसमें कोयले की आँच पर चाय का पानी खौलता रहता। उसी चूल्हे से उठती भाप और अदरक की गंध पूरे माहौल को ताज़गी से भर देती।
उस दिन भी सूरज हल्की रोशनी के साथ ऊपर चढ़ रहा था। धूप गली की दीवारों से फिसलकर धीरे-धीरे चाय की दुकान तक पहुँची। वहीं, कुछ लोग पहले से मौजूद थे। कोई अख़बार पढ़ रहा था, कोई बीड़ी सुलगा रहा था और कोई हँसी-मज़ाक में मग्न था। रामू ने बैग कंधे से उतारा और बेंच पर बैठ गया।
“अरे रामू भइया, आ गए काम पे?”—मिश्रा जी ने मुस्कुराते हुए पूछा। वे पचास साल के थे और मोहल्ले के सबसे पुराने निवासी। दिन की शुरुआत वे हमेशा चाय और अख़बार से करते।
“हाँ, बस अभी निकल रहा हूँ। सोचा, ज़रा चाय पी लूँ।”
शर्मा जी ने उबलते पानी में दूध डाला और चमचे से हिलाते हुए बोले—“अरे भई, चाय पिए बिना तो सुबह अधूरी ही रहती है।”
रामू को इस दुकान की सबसे अच्छी बात यही लगती थी—यहाँ हर कोई अपना-सा लगता था। मोहल्ले के सारे सुख-दुख यहीं बँटते थे।
थोड़ी देर में चाय आई। मिट्टी के कुल्हड़ से उठती गर्म भाप, उसके साथ भुनी हुई मिट्टी की खुशबू। रामू ने पहला घूँट लिया तो जैसे नींद पूरी तरह टूट गई। आसपास की हलचल में उसे अपनापन महसूस हुआ।
“बाबा, आज स्कूल जल्दी आना,”—अचानक पीछे से आवाज़ आई। सोनू अपने दोस्तों के साथ भागते हुए दुकान के पास से गुजरा।
रामू ने मुस्कुराकर कहा—“अरे, खेल में जीतकर मिठाई मत भूल जाना।”
सोनू ने सिर हिलाया और आगे बढ़ गया। बच्चों की हँसी की गूँज पूरे मोहल्ले में फैल गई।
रामू ने देखा—पास की गली से फेरीवाला आ रहा है। उसकी टोकरियों में ताज़ी सब्जियाँ थीं। औरतें घरों से निकलकर मोलभाव करने लगीं। कोई आलू चुन रही थी, कोई भिंडी, कोई धनिया के पत्ते। यह रोज़ का नज़ारा था, पर इसमें एक अलग ही जीवन की लय थी।
पास बैठे एक बुजुर्ग, जो सबको “काका” कहकर बुलाते थे, बोले—“देखो बेटा, यही असली सुख है। सुबह की हलचल, बच्चों की हँसी, और यह चाय। बड़े-बड़े महलों में भी लोग तरसते हैं इस सुकून के लिए।”
रामू ने उनकी बातों पर सिर हिलाया। सच में, वह जानता था कि उसकी ज़िंदगी भले ही साधारण हो, मगर उसमें जो गर्माहट और अपनापन है, वह किसी बड़े शहर की भागदौड़ में कहाँ?
चाय खत्म करने के बाद रामू उठा। उसने बैग कंधे पर डाला और सबको नमस्ते करके निकल पड़ा। रास्ते में सूरज की किरणें अब तेज़ हो चुकी थीं। गली की दीवारों पर पीली धूप चमक रही थी। बच्चों के स्कूल जाने की आवाज़ें, ठेलों की खटपट और कहीं-कहीं मंदिर से आती घंटियों की ध्वनि मिलकर जैसे सुबह को और जीवंत बना रही थी।
रामू चलते-चलते सोचने लगा—“ज़िंदगी कितनी खूबसूरत होती है अगर हम छोटी-छोटी बातों में खुशी ढूँढ लें। शायद यही तो जीने का असली तरीका है।”
कारखाने पहुँचकर काम शुरू हुआ। मशीनों की आवाज़, लोहे की गंध और मजदूरों की चहल-पहल में दिन निकल गया। लेकिन रामू के दिमाग में सुबह की वही तस्वीरें घूम रही थीं—पिंकी का मासूम चेहरा, सोनू की चमकती आँखें, सविता की चाय और मोहल्ले की हलचल। यही उसकी ताक़त थीं।
शाम को जब वह लौट रहा था, सूरज ढलने लगा था। गली में कदम रखते ही बच्चों की खिलखिलाहट ने उसका स्वागत किया। पिंकी दौड़कर आई और बोली—“बाबा, सोनू की टीम जीत गई!”
रामू ने हँसते हुए बेटे को देखा। सोनू ने सचमुच मिठाई का एक छोटा डिब्बा हाथ में पकड़ा हुआ था। उसने सबको बाँटा। उस पल रामू को लगा—जीवन का असली सुख यही है, बच्चों की आँखों में खुशी देखना।
सविता ने हँसते हुए कहा—“देखा, सुबह से ही कह रही थी पिंकी को मिठाई चाहिए। अब लो, उसकी मनोकामना पूरी हो गई।”
रामू ने धीरे से कहा—“हाँ, यही तो है हमारी दुनिया। छोटी-छोटी ख्वाहिशें, छोटी-छोटी जीत, और यही छोटे-छोटे सुख।”
उस रात जब सब खाना खाकर सोने की तैयारी कर रहे थे, रामू बरामदे में बैठा रहा। आसमान में तारे चमक रहे थे। मोहल्ले की गली चुप थी, बस कहीं दूर से कुत्ते के भौंकने की आवाज़ आ रही थी।
रामू ने सोचा—“कल फिर सुबह होगी, फिर वही धूप, वही चाय की दुकान, वही हंसी। और यही सिलसिला चलता रहेगा। लेकिन क्या यही साधारणता जीवन को इतना खास बनाती है?”
वह मुस्कुराया और भीतर जाकर बच्चों को सोते हुए देखा। पिंकी अपने मिठाई के डिब्बे को सीने से लगाकर सो रही थी, मानो यह उसके लिए किसी खजाने से कम न हो।
रामू का दिल भर आया। उसने महसूस किया—हाँ, जीवन का असली अर्थ यही है। इन छोटे-छोटे सुखों को जीना, उन्हें संजोना, और हर दिन को एक उत्सव मान लेना।
भाग 3 – रोज़ी-रोटी
रामू की ज़िंदगी का सबसे अहम हिस्सा था उसका रोज़ का काम। मोहल्ले की गलियों से निकलकर जब वह कारखाने तक पहुँचता, तो ऐसा लगता मानो वह एक अलग ही दुनिया में प्रवेश कर रहा हो। वहाँ न तो घर की हँसी थी, न बच्चों की मासूम बातें, न मोहल्ले की गपशप। वहाँ बस लोहे की गंध, मशीनों का शोर और मेहनतकश मजदूरों के चेहरे हुआ करते।
कारखाने का नाम था शक्ति मेटल वर्क्स। यह शहर से थोड़ा दूर औद्योगिक इलाके में बना था। बड़े-बड़े शेड, जिनमें मशीनें लगातार गड़गड़ातीं, और बीच-बीच में मजदूरों की आवाजें गूँजतीं। रामू यहाँ पिछले दस साल से काम कर रहा था। उसका काम था लोहे की चादरों को मशीन में डालकर काटना और फिर उन्हें जोड़कर नया आकार देना। काम आसान नहीं था। छोटी सी चूक भी जानलेवा साबित हो सकती थी।
सुबह का वक़्त था। रामू ने अपनी जगह संभाली। उसने मोटे दस्ताने पहने और मशीन चालू की। धड़ाम-धड़ाम की आवाज़ के बीच वह काम में लग गया। उसके साथी भी अपने-अपने हिस्से में मशगूल थे। किसी के हाथ में हथौड़ा था, कोई वेल्डिंग कर रहा था, कोई तैयार माल को ढो रहा था।
रामू के लिए यह रोज़ी-रोटी का साधन था। मजदूरी ज्यादा नहीं मिलती थी, पर पेट भरने और बच्चों को पढ़ाने लायक हो जाती थी। उसे पता था कि यही मेहनत उसकी दुनिया को चलाती है।
दोपहर का समय आया तो मजदूर सब अपने-अपने डिब्बे लेकर बैठ गए। रामू ने भी अपना टिफिन खोला। उसमें साधारण-सा खाना था—रोटी, आलू की सब्ज़ी और थोड़ी सी अचार। लेकिन जब उसने पहला कौर खाया तो उसे सविता की मेहनत का स्वाद महसूस हुआ। यही खाना उसके लिए सबसे स्वादिष्ट था।
पास ही बैठे रघु ने कहा—“अरे रामू, तेरी बीवी बहुत अच्छा खाना बनाती है। कभी हमारे घर भी भेज दे।”
रामू हँस पड़ा—“अरे, हमारी भी यही दौलत है। साधारण खाना, पर दिल से बनाया हुआ।”
खाने के बाद मजदूरों ने थोड़ी देर गपशप की। कोई अपने बच्चों की बात कर रहा था, कोई गाँव के हाल बता रहा था, कोई आने वाले त्योहार की तैयारी सोच रहा था। रामू चुपचाप सुनता रहा। उसे लगा, भले ही सबकी मुश्किलें अलग हों, पर सबकी खुशियाँ एक जैसी हैं—बच्चों की हँसी, घर की रौनक, और एक दिन का चैन से गुजरना।
शाम होते-होते जब मशीनें बंद हुईं और मजदूर बाहर निकले, तो थके होने के बावजूद उनके चेहरों पर संतोष की झलक थी। जैसे हर किसी को यक़ीन हो कि उसने अपने हिस्से की जिम्मेदारी पूरी कर दी।
रामू भी बाहर आया। उसकी शर्ट पसीने से भीग चुकी थी, हाथों में ग्रीस और चेहरे पर धूल जम गई थी। मगर उसकी आँखों में वही चमक थी—घर लौटने की खुशी।
बस स्टॉप पर खड़े होकर वह सोचने लगा—“शायद लोग समझते हैं कि मजदूरों की ज़िंदगी कठिन होती है। हाँ, कठिन तो है, मगर यही कठिनाई हमें मजबूत बनाती है। और यही रोज़ी-रोटी हमें जीने का हौसला देती है।”
बस आई और रामू उसमें चढ़ गया। खिड़की से बाहर देखते हुए उसे अपने मोहल्ले की गलियों की याद आने लगी। सविता की चाय, सोनू की हंसी, पिंकी की शरारतें—यही सब उसे आगे बढ़ने की ताक़त देते थे।
जब वह घर पहुँचा, तो आँगन में पिंकी खेल रही थी। उसे देखते ही दौड़कर लिपट गई। “बाबा, देखो मैंने आज स्कूल में कविता सुनाई और मास्टर जी ने मेरी तारीफ की।”
रामू का चेहरा खिल उठा। उसने बेटी के सिर पर हाथ फेरा और बोला—“शाबाश मेरी बिटिया। तू हमेशा ऐसे ही चमकती रहना।”
सोनू भी पास आया और बोला—“बाबा, मैंने मैच में दो गोल किए।”
रामू ने बेटे को गले से लगा लिया। उसे लगा, दिनभर की थकान बच्चों की इन बातों से जैसे पलभर में मिट गई।
सविता अंदर से आवाज़ लगाई—“रामू, पहले हाथ-मुँह धो लो। फिर खाना तैयार है।”
रामू ने मुस्कुराकर कहा—“हाँ, अभी आता हूँ। आज का दिन तो अच्छा रहा।”
खाना खाते समय सबने अपने-अपने दिन की बातें साझा कीं। बच्चों ने स्कूल की कहानियाँ सुनाईं, सविता ने मोहल्ले की खबरें बताईं, और रामू ने कारखाने की बातें सुनाईं। यही उनका रोज़ का सिलसिला था, मगर हर दिन नया लगता था।
रात को जब सब सो गए, रामू बरामदे में बैठा रहा। उसने आसमान की ओर देखा। तारे वैसे ही चमक रहे थे, जैसे उसके सपने। उसने सोचा—“हाँ, जिंदगी मुश्किल है। रोज़ी-रोटी कमाने में पसीना बहाना पड़ता है। लेकिन यही मेहनत मेरे बच्चों को आगे बढ़ाएगी। यही पसीना कल उनके सपनों को पूरा करेगा।”
उसने मन ही मन ठान लिया—“मैं अपने बच्चों को कभी यह महसूस नहीं होने दूँगा कि उनके सपने छोटे हैं। उनकी हर ख्वाहिश पूरी होगी, चाहे इसके लिए मुझे और कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े।”
रामू की आँखों में दृढ़ता थी। वह जानता था कि साधारण जीवन की असली शक्ति इसी मेहनत में है।
उस रात वह चैन से सोया, क्योंकि उसे मालूम था कि उसकी रोज़ी-रोटी सिर्फ़ पेट भरने का जरिया नहीं, बल्कि उसके परिवार की मुस्कुराहटों की नींव है।
भाग 4 – घर की हंसी
शाम का वक्त था। आसमान में हल्की गुलाबी आभा फैल चुकी थी और मोहल्ले की गलियों में बच्चों की किलकारियाँ गूंज रही थीं। रामू जब काम से लौटकर घर पहुँचा, तो उसने देखा कि आँगन में पिंकी और सोनू आपस में हँसते-खेलते झगड़ रहे थे। कभी एक-दूसरे को दौड़ाते, कभी खिलौने छीनते और कभी अचानक मिलकर ज़ोर से हँस पड़ते। उस हँसी की गूंज पूरे घर को रौशन कर देती।
रामू का दिल भर आया। उसने धीरे से बैग एक ओर रखा और बच्चों को पुकारा—“अरे, ये कैसी शोरगुल मचा रखी है?”
पिंकी ने तुरंत दौड़कर बाबा की गर्दन में हाथ डाल दिए—“बाबा, देखो ना, सोनू ने मेरी गुड़िया छीन ली।”
सोनू तुरंत बोला—“झूठ! मैं तो बस मज़ाक कर रहा था।”
रामू ने दोनों को पास बैठाया और हँसते हुए कहा—“तुम दोनों तो बस ऐसे ही झगड़ते रहते हो। एक दिन मोहल्ले वाले कहेंगे—ये रामू के बच्चे तो सारा घर हिला देते हैं।”
बच्चे खिलखिला पड़े। हँसी की यह झंकार मानो पूरे दिन की थकान मिटा देती।
उधर रसोई से सविता की आवाज़ आई—“रामू, ज़रा बच्चों को संभालो। मैं रोटियाँ बेल रही हूँ, और ये दोनों दिनभर एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं।”
रामू मुस्कुराकर बोला—“लड़ाई भी तो प्यार का हिस्सा है। जब तक घर में बच्चों की हंसी-ठिठोली गूंजती रहेगी, घर जिंदा रहेगा।”
सविता भी मुस्कुराए बिना न रह सकी।
कुछ देर बाद खाना तैयार हुआ। सब आँगन में ही बिछी चारपाई पर बैठकर खाने लगे। साधारण-सा भोजन था—रोटियाँ, दाल और आलू-गोभी की सब्ज़ी। मगर उस साधारण खाने में एक खासियत थी—उसमें परिवार की गर्माहट मिली हुई थी।
रामू ने पहला कौर लेते हुए कहा—“सविता, तेरे हाथ का स्वाद ही अलग है। कारखाने में सब कहते हैं कि घर का खाना सबसे बड़ा सुख है। आज समझ आता है।”
सविता ने हल्की मुस्कान के साथ कहा—“घर की थाली में भले ही ज्यादा व्यंजन न हों, लेकिन उसमें दिल का स्वाद होता है।”
बच्चे भी बीच-बीच में अपनी बातें सुनाने लगते। पिंकी बोली—“बाबा, आज स्कूल में मास्टर जी ने मेरी कविता सुनवाई थी। सबने ताली बजाई।”
रामू ने बेटी को प्यार से देखा—“मेरी बिटिया तो एक दिन बड़ी कवयित्री बनेगी।”
सोनू भी पीछे न रहा—“और मैं बड़ा होकर फुटबॉल का खिलाड़ी बनूँगा।”
रामू ने बेटे के सिर पर हाथ फेरा—“हां बेटा, क्यों नहीं। मेहनत करोगे तो सब मुमकिन है।”
उस पल घर का माहौल इतना खुशनुमा हो गया कि बाहर की सारी मुश्किलें जैसे गायब हो गईं। पैसे की तंगी, रोज़ी-रोटी का संघर्ष, कारखाने की थकान—सब मानो बच्चों की हंसी में घुल गए।
खाना खत्म करने के बाद सब बरामदे में बैठ गए। मोहल्ले में बिजली कभी-कभी जाती थी, और उस रात भी अंधेरा छा गया। सविता ने मिट्टी का दीया जलाया। उसकी लौ से घर के कोने-कोने में हल्की रोशनी फैल गई।
पिंकी बोली—“बाबा, हमें कहानी सुनाओ।”
रामू ने हँसते हुए कहा—“अरे, कहानी सुनने का मन है?”
दोनों बच्चों ने एक साथ कहा—“हाँ, हाँ!”
रामू ने गला साफ किया और अपनी माँ से सुनी हुई एक पुरानी लोककथा सुनाने लगा। कहानी थी एक गरीब किसान की, जिसने अपनी मेहनत और सच्चाई से सबका दिल जीत लिया। बच्चे ध्यान से सुनते रहे। बीच-बीच में सवाल पूछते, हँसते और चौंकते।
सविता भी पास बैठी रही। उसकी आँखों में संतोष था। वह जानती थी कि चाहे कितनी भी मुश्किलें हों, उसके घर का सबसे बड़ा खजाना यही है—परिवार का साथ और बच्चों की मासूमियत।
कहानी खत्म होते ही पिंकी नींद में आँखें मलने लगी। सोनू भी थक चुका था। दोनों भाई-बहन माँ की गोद में सिर रखकर सो गए।
रामू ने धीरे से कहा—“देखा, यही है असली दौलत। ये बच्चों की हंसी, इनकी मासूम आँखें, और हमारा साथ। बड़े-बड़े घरों में भी लोग तरसते हैं इस सुकून के लिए।”
सविता ने सिर हिलाया—“हाँ, रामू। पैसा सब कुछ नहीं होता। असली सुख तो यही है कि परिवार साथ हो, बच्चे हँसते-खेलते रहें।”
रामू ने गहरी सांस ली और आसमान की ओर देखा। तारे वैसे ही चमक रहे थे, जैसे किसी ने काले मखमल पर हीरे बिखेर दिए हों। उसने मन ही मन कहा—“भगवान, मेरे बच्चों की हंसी कभी न रुके। यही मेरी सबसे बड़ी दुआ है।”
उस रात घर की दीवारों पर बच्चों की हँसी और रामू-सविता की मुस्कान जैसे तस्वीर बन गई। और यही तस्वीर थी उनकी दुनिया की सबसे बड़ी पूँजी।
भाग 5 – पड़ोस का त्योहार
त्योहार का मौसम मोहल्लों में हमेशा कुछ अलग ही रौनक लेकर आता है। पूरे साल की थकान, रोज़ी-रोटी की जद्दोजहद और छोटे-छोटे झगड़ों को लोग मानो भूल जाते हैं। रामू के मोहल्ले में भी ऐसा ही हुआ। दिवाली का त्योहार नज़दीक था और पूरे इलाके में हलचल शुरू हो गई थी।
सुबह-सुबह ही बच्चे गली में दौड़ते नज़र आने लगे। कोई रंगोली बनाने की तैयारी कर रहा था, कोई दीये गिन रहा था, तो कोई पटाखों के नाम पर बहस कर रहा था। सविता ने आँगन में झाड़ू लगाई, दीवारों पर ताज़ा चूना करवाया और दरवाज़े पर आम के पत्तों की तोरण बाँध दी।
रामू जब काम से लौटा तो उसने देखा कि पूरा मोहल्ला बदल चुका है। जहाँ रोज़ धूल और शोर होता था, वहाँ अब रोशनी और सजावट थी। पड़ोसनें मिलकर मिठाइयाँ बना रही थीं। किसी के घर से गुझिया की महक आ रही थी, तो कहीं से चकली और नमकीन की खुशबू फैल रही थी। बच्चे दीयों की थाली लेकर हर घर में जा रहे थे।
सोनू ने उत्साह से बाबा को बताया—“बाबा, हमने स्कूल से अपनी टीम बनाई है। आज रात हम सब मिलकर मोहल्ले की सबसे बड़ी रंगोली बनाएंगे।”
रामू ने बेटे के जोश को देखकर कहा—“वाह! अगर रंगोली सुंदर बनी तो मैं तुम्हें मिठाई खिलाऊँगा।”
पिंकी भी पीछे नहीं रही—“बाबा, मैंने अपनी गुड़िया के लिए नया लहंगा बनाया है। देखो ना, कितनी सुंदर लगेगी।”
रामू हँस पड़ा। उसने बेटी को गोद में उठाकर कहा—“हाँ, तू भी किसी से कम नहीं है।”
शाम होते-होते मोहल्ला रोशनी से जगमगाने लगा। हर घर के बाहर दीये सजाए गए। टीन की छतों पर मोमबत्तियाँ रख दी गईं। कहीं से भजन की आवाज़ आ रही थी, कहीं बच्चे पटाखों की आवाज़ से आसमान गूँजा रहे थे।
रामू और सविता ने भी अपने घर के बाहर दीये रखे। सविता बोली—“हमारे पास तो ज्यादा सजावट का सामान नहीं है, लेकिन दीये की रोशनी ही सबसे प्यारी होती है।”
रामू ने सहमति जताई—“हाँ, असली रोशनी तो दिल की होती है। अगर मन साफ़ है तो घर खुद ही जगमगा उठता है।”
इतना कहते ही पास वाले घर से काका जी आ गए। उनके हाथ में मिठाई का डिब्बा था। उन्होंने कहा—“रामू बेटा, ये लो थोड़ी सी मिठाई। सब मोहल्ले में बाँट रहे हैं।”
रामू ने आदर से मिठाई ली और मुस्कुराकर कहा—“धन्यवाद काका जी। त्योहार की असली मिठास तो यही है—सब साथ में खुशियाँ बाँटें।”
रात को जब रंगोली बनाने का समय आया, तो बच्चे सब इकठ्ठा हो गए। मोहल्ले के बीच में एक बड़ा-सा चौक था। वहीं सबने मिलकर रंग-बिरंगे पाउडर से सुंदर डिजाइन बनाए। पिंकी ने फूलों की पंखुड़ियाँ सजाईं, सोनू ने दीपक जलाए। पूरा चौक मानो किसी जादुई बगिया में बदल गया।
मोहल्ले की औरतें तालियाँ बजाने लगीं। बुजुर्ग दुआएँ देने लगे। हर किसी के चेहरे पर खुशी थी।
रामू दूर खड़ा यह सब देख रहा था। उसके दिल में गर्व था कि उसका बेटा-बेटी भी इस खुशी का हिस्सा हैं। उसने सोचा—“सच में, त्योहार सिर्फ़ सजावट और मिठाई का नाम नहीं है। त्योहार का मतलब है लोगों का मिलना-जुलना, साथ हँसना-बोलना और छोटी-छोटी खुशियों को साझा करना।”
सविता उसके पास आई और बोली—“देखो, बच्चों की आँखों में कैसी चमक है। यही तो असली दीवाली है।”
रामू ने धीरे से कहा—“हाँ, इनकी हंसी ही मेरी सबसे बड़ी रोशनी है।”
थोड़ी देर बाद सब लोग चौक में इकठ्ठा हुए। किसी ने ढोलक उठाई, कोई ताली बजाने लगा। बच्चे गीत गाने लगे। औरतें भजन गाने लगीं। पूरा माहौल भक्ति और खुशी से भर गया।
रामू भी सबके साथ बैठ गया। उसके मन में एक गहरी शांति थी। उसे लगा कि उसकी साधारण ज़िंदगी में त्योहार ने एक नई चमक भर दी है।
रात गहराने लगी थी। लेकिन मोहल्ले की गलियाँ अभी भी जगमगा रही थीं। बच्चे थककर भी हँस रहे थे, बड़े-बुजुर्ग बातचीत में व्यस्त थे। किसी को पैसों की चिंता नहीं थी, किसी को काम की थकान याद नहीं थी। सब भूलकर मानो एक परिवार की तरह जी रहे थे।
जब रामू घर लौटा, तो उसने देखा कि पिंकी अपनी गुड़िया को दीयों के पास बिठाकर सो गई है। सोनू मिठाई के डिब्बे को सीने से लगाकर सो रहा था। सविता चुपचाप दीयों को देख रही थी।
रामू ने उसके पास जाकर कहा—“देखा, ये सब छोटे-छोटे पल ही हमारी ज़िंदगी की असली दौलत हैं। त्योहार का मतलब यही है कि हम सब एक-दूसरे की खुशियों में शामिल हों।”
सविता ने सिर हिलाकर कहा—“हाँ, रामू। हमारे पास भले ही ज्यादा पैसा न हो, लेकिन हमारे पास मोहल्ले का अपनापन है, बच्चों की हंसी है और साथ बिताए ये छोटे-छोटे सुख हैं। इससे बड़ी कोई दौलत नहीं।”
रामू ने गहरी सांस ली और आसमान की ओर देखा। आतिशबाजी की चमक तारों से मिल रही थी। उसने मन ही मन सोचा—“भगवान, मेरी दुनिया छोटी है, लेकिन यही छोटी दुनिया सबसे सुंदर है।”
उस रात त्योहार की रोशनी ने रामू के घर और दिल दोनों को रौशन कर दिया।
भाग 6 – संघर्ष और उम्मीद
त्योहार की रौनक बीत चुकी थी। गली की दीवारों पर लगी झालरें अब धीरे-धीरे मुरझा रही थीं। दीयों की चमक भी बुझ चुकी थी, और मोहल्ले की चहल-पहल फिर से रोज़मर्रा की जिंदगी में बदल गई थी। पर दिलों में त्योहार की यादें अब भी ताज़ा थीं।
रामू के लिए यह समय थोड़ा कठिन था। कारखाने में अचानक ऑर्डर कम हो गए थे। मालिक ने सब मजदूरों से कहा था कि अगले महीने से काम के घंटे घटा दिए जाएंगे। इसका सीधा मतलब था—पगार भी कम होगी।
उस रात रामू घर लौटा तो चेहरा उतरा हुआ था। सविता ने देखा और तुरंत समझ गई। उसने धीरे से पूछा—“क्या हुआ रामू, इतने परेशान क्यों लग रहे हो?”
रामू ने गहरी सांस ली—“सविता, कारखाने में काम घट रहा है। अबकी बार पगार भी कम मिलेगी। सोच रहा हूँ, बच्चों की फीस और घर का खर्च कैसे निकालूँगा।”
सविता थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली—“देखो, चिंता मत करो। भगवान ने अब तक संभाला है, आगे भी संभाल लेंगे। मैं सिलाई का काम थोड़ा बढ़ा दूँगी।”
रामू ने उसे देखा। सविता के चेहरे पर दृढ़ता थी। यह वही स्त्री थी जो हर कठिनाई में उसके साथ खड़ी रहती थी।
बच्चे अंदर खेल रहे थे। सोनू को शायद अंदाज़ा हो गया था कि घर का माहौल थोड़ा भारी है। उसने आकर कहा—“बाबा, मैं स्कूल के बाद मास्टर जी के यहाँ ट्यूशन लेने जाता हूँ न। वहाँ बच्चों को पढ़ाने में मदद कर सकता हूँ। उससे थोड़े पैसे मिल जाएंगे।”
रामू का दिल भर आया। उसने बेटे को गले से लगा लिया—“नहीं बेटा, अभी तेरा काम सिर्फ पढ़ाई करना है। पैसों की चिंता मत कर।”
पिंकी भी आकर बोली—“बाबा, मैं स्कूल की लाइब्रेरी से किताबें लाऊँगी। हमें नई किताबें खरीदने की जरूरत नहीं पड़ेगी।”
रामू ने बेटी के सिर पर हाथ फेरा। उसे लगा कि उसके छोटे-छोटे बच्चे कितने समझदार हो रहे हैं। यही तो उसकी उम्मीदें थीं।
अगले दिन रामू ने तय किया कि वह अतिरिक्त काम तलाश करेगा। सुबह कारखाने में काम करने के बाद शाम को उसने पास के बाजार में रिक्शा चलाना शुरू किया। थकान हद से ज्यादा हो जाती, लेकिन घर के लिए वह यह सब सह लेता।
एक दिन मोहल्ले के काका जी ने देखा कि रामू रात देर तक रिक्शा चला रहा है। उन्होंने पास आकर कहा—“बेटा, तू इतना क्यों थक रहा है? शरीर भी तो संभालना है।”
रामू ने मुस्कुराकर कहा—“काका, थकान तो होती है, लेकिन जब घर में बच्चों की हंसी सुनता हूँ न, तो सारी थकान मिट जाती है। यही तो उम्मीद है।”
काका जी ने आशीर्वाद दिया—“ईश्वर तुझे हिम्मत दे। तू सच्चा इंसान है।”
धीरे-धीरे दिन बीतने लगे। कभी पैसे की तंगी इतनी बढ़ जाती कि घर में तेल खरीदना भी मुश्किल हो जाता। सविता कभी पड़ोस से थोड़ा उधार ले आती, कभी अपने गहनों को गिरवी रख देती। पर रामू ने कभी बच्चों को यह महसूस नहीं होने दिया कि उनका घर अभावों से जूझ रहा है।
एक शाम पिंकी स्कूल से लौटी तो बोली—“बाबा, हमारे स्कूल में ड्राइंग कॉम्पिटीशन था। मैंने पहला इनाम जीता।”
उसने गर्व से एक छोटी-सी ट्रॉफी दिखलाई। रामू ने उसे अपनी आँखों से लगाया और बोला—“देखा सविता, हमारी बिटिया ने कमाल कर दिया।”
सोनू भी बोला—“बाबा, अगली बार फुटबॉल टूर्नामेंट में हमारी टीम जरूर जीतेगी। मैं रोज़ अभ्यास कर रहा हूँ।”
रामू ने बच्चों की इन बातों से महसूस किया कि उम्मीद हमेशा छोटी-छोटी बातों में छिपी रहती है। ज़िंदगी कितनी भी कठिन क्यों न हो, बच्चों की हंसी, उनका जोश और उनके सपने इंसान को जीने की ताक़त दे देते हैं।
उस रात रामू देर तक सो नहीं सका। वह आँगन में बैठा आसमान को देखता रहा। तारे टिमटिमा रहे थे, जैसे हर तारा उसे कह रहा हो—“हिम्मत मत हारना।” उसने मन ही मन ठाना—“मैं संघर्ष करता रहूँगा, लेकिन अपने बच्चों की उम्मीदों को कभी नहीं टूटने दूँगा।”
सुबह होते ही वह फिर काम पर निकल पड़ा। दिन में कारखाना, रात में रिक्शा—उसका जीवन कठिन जरूर था, मगर उसमें एक अजीब-सी शांति थी। क्योंकि वह जानता था कि उसकी मेहनत ही उसके परिवार की नींव है।
एक दिन जब वह घर लौटा तो सविता ने कहा—“रामू, मोहल्ले की औरतों ने मिलकर एक छोटा-सा काम शुरू किया है। वे मिलकर मिठाई बनाकर बेचेंगी। मैंने भी सोचा कि इसमें हिस्सा लूँ। थोड़ा सहारा मिल जाएगा।”
रामू ने उसकी आँखों में देखा। वहाँ आत्मविश्वास की चमक थी। उसने मुस्कुराकर कहा—“बहुत अच्छा विचार है। देखना, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।”
और सचमुच, सब धीरे-धीरे सँभलने लगा। मोहल्ले का अपनापन, बच्चों की समझदारी, सविता का हौसला और रामू की मेहनत मिलकर उस छोटे-से घर में उम्मीद की लौ जलाए रखे।
रामू ने महसूस किया कि जीवन का असली सुख बड़े घर या धन-दौलत में नहीं है। असली सुख तो यही है—संघर्ष के बीच भी उम्मीद को ज़िंदा रखना और छोटे-छोटे सुखों को महसूस करना।
भाग 7 – बरसात की खुशबू
गर्मी की लम्बी दोपहरी बीत चुकी थी। आसमान कई दिनों से तपते सूरज से झुलस रहा था। गलियों की धूल उड़-उड़कर चेहरे से चिपक जाती थी। बच्चे घर से बाहर निकलने में झिझकते और मोहल्ले की औरतें लगातार आसमान की ओर देखतीं—कब बादल आएँगे, कब बारिश होगी।
रामू भी रोज़ कारखाने से लौटते समय यही सोचता—“काश, आज बारिश हो जाती। धरती को ठंडक मिलती, हवा में सुकून घुल जाता।”
फिर एक शाम आसमान अचानक बदल गया। काले बादल घिर आए। बिजली की हल्की-हल्की चमक और गरज ने पूरे मोहल्ले को बेचैन कर दिया। बच्चे दौड़ते हुए गली में आ गए, औरतों ने छतों से कपड़े उतार लिए और हवा में मिट्टी की खुशबू फैल गई।
पिंकी खुशी से चिल्लाई—“बाबा, बारिश आएगी! देखो, बादल कितने काले हो गए हैं।”
रामू हँस पड़ा—“हाँ बिटिया, अब तो यकीन है कि आज जमकर बरसात होगी।”
और सचमुच, थोड़ी देर में पहली बूंदें गिरीं। गर्म धरती पर जैसे किसी ने ठंडी चादर डाल दी हो। मिट्टी से उठती सोंधी-सोंधी खुशबू ने सबको मदहोश कर दिया। बच्चे खुशी से चीखने लगे और नंगे पाँव गली में दौड़ पड़े।
सोनू ने अपनी बहन का हाथ पकड़ा और कहा—“चल पिंकी, चल पानी में भीगते हैं।”
दोनों हँसते-खेलते बारिश में भीगने लगे। उनकी हंसी की गूंज पूरे मोहल्ले में फैल गई। औरों के बच्चे भी शामिल हो गए। कोई छपाक-छपाक पानी में कूद रहा था, कोई टीन की छत से गिरती धारों के नीचे खड़ा हो गया।
रामू बरामदे में खड़ा यह नज़ारा देख रहा था। उसका मन भी बच्चों के साथ भीगने को कर रहा था, लेकिन वह मुस्कुरा कर चुप रहा। तभी सविता भीतर से बोली—“अरे रामू, बच्चों को जरा देखो, सर्दी लग जाएगी।”
रामू ने जवाब दिया—“अरे सविता, बचपन की सबसे बड़ी खुशी यही तो है। बारिश में भीगना। इन्हें मत रोको।”
सविता भी बच्चों को देखकर मुस्कुराए बिना न रह सकी।
थोड़ी देर बाद बारिश तेज़ हो गई। गली में पानी भरने लगा। बच्चे उसमें कागज़ की नावें तैराने लगे। पिंकी ने छोटी-सी नाव बनाई और बोली—“बाबा, देखो मेरी नाव सबसे दूर जाएगी।”
रामू ने हँसकर कहा—“हाँ बिटिया, तेरी नाव सबसे आगे जाएगी। जैसे तू भी एक दिन सबसे आगे जाएगी।”
सोनू भी अपनी नाव लेकर आया—“बाबा, मेरी नाव देखो, यह सबसे बड़ी है।”
रामू ने बेटे की ओर देखा और बोला—“बेटा, बड़ी हो या छोटी, नाव तभी आगे बढ़ती है जब उसमें हिम्मत हो। तुम दोनों की नावें जरूर आगे बढ़ेंगी।”
बच्चे खिलखिलाकर हँस पड़े।
इसी बीच मोहल्ले के काका जी आ गए। उन्होंने छड़ी टेकते हुए कहा—“अरे रामू, बरसात में बच्चों की ये हंसी ही तो सबसे बड़ा त्योहार है। हमें अपने बचपन की याद दिला दी।”
रामू ने सिर झुकाकर कहा—“सच कहते हो काका। बारिश में जो सुख है, वह किसी और चीज़ में कहाँ?”
कुछ देर बाद सविता ने रसोई से आवाज़ लगाई—“रामू, चाय बन गई है। आओ सब मिलकर पिएँ।”
रामू ने बच्चों को आवाज़ दी—“बस, अब आओ। चाय तैयार है।”
भीगे हुए बच्चे दौड़ते हुए घर आए। उनके कपड़े पानी से लथपथ थे, बालों से पानी टपक रहा था। मगर चेहरों पर ऐसी मुस्कान थी कि लगता था जैसे उन्होंने कोई बड़ा खजाना पा लिया हो।
सविता ने सबको तौलिये से पोछा और गरम कपड़े पहनने को दिए। फिर सब आँगन में बैठ गए। पीतल की केतली से गरमागरम चाय डाली गई और साथ में गरम पकौड़े परोसे गए।
बारिश की बूंदें छत पर बज रही थीं, मिट्टी की खुशबू फैली हुई थी और घर के भीतर हंसी-ठिठोली का माहौल था।
पिंकी ने पकौड़ा खाते हुए कहा—“माँ, यह पकौड़ा तो बहुत स्वादिष्ट है।”
सोनू बोला—“और चाय भी मजेदार है। बारिश के बिना यह मजा कहाँ?”
रामू ने बच्चों की बातें सुनकर कहा—“देखा, यही तो जीवन का सुख है। बारिश, पकौड़े, चाय और परिवार की हंसी। बड़े-बड़े महलों में भी लोग तरसते हैं इस पल के लिए।”
सविता ने सिर हिलाकर कहा—“हाँ रामू, यही छोटे-छोटे सुख हमें ज़िंदा रखते हैं।”
रात तक बारिश होती रही। बिजली चली गई थी, लेकिन दीये की रोशनी में घर जगमगा रहा था। बच्चे थककर माँ की गोद में सो गए। रामू बरामदे में बैठा बूंदों की आवाज़ सुनता रहा।
उसने आसमान की ओर देखा और सोचा—“जिंदगी में मुश्किलें चाहे जितनी हों, लेकिन उम्मीद हमेशा इन छोटी-छोटी खुशियों से लौट आती है। बरसात की बूंदें हमें यही सिखाती हैं—हर सूखे के बाद फिर हरियाली लौटती है।”
उस रात बारिश ने न सिर्फ़ मोहल्ले को ठंडक दी, बल्कि रामू के दिल को भी नया सुकून दिया।
भाग 8 – जीवन का गीत
बरसात की रात बीत चुकी थी। अगली सुबह मोहल्ले की गलियाँ निखरकर चमक उठी थीं। पेड़ों की पत्तियाँ धुलकर हरी-भरी लग रही थीं, मिट्टी की सोंधी खुशबू अब भी हवा में तैर रही थी। बच्चे गली में जगह-जगह बने पानी के छोटे-छोटे तालाबों को देखकर खिलखिला रहे थे।
रामू ने चौखट पर बैठकर यह नज़ारा देखा और मुस्कुरा दिया। उसके मन में एक गहरी संतुष्टि थी। उसे लगा जैसे जीवन ने उसे सिखा दिया है कि सुख की परिभाषा बड़ी नहीं होती—सुख तो बस छोटे-छोटे पलों की चुपचाप गूँज है।
उस सुबह कारखाने की छुट्टी थी। मालिक ने कहा था कि बारिश के कारण कामकाज रुका रहेगा। रामू को कई दिनों बाद घर पर आराम करने का मौका मिला। उसने ठान लिया कि आज का दिन वह पूरी तरह अपने परिवार और मोहल्ले के साथ बिताएगा।
सविता ने नाश्ते में गरम गरम पूड़ी और आलू की सब्ज़ी बनाई। खाने की खुशबू से पूरा घर महक उठा। बच्चे भी उत्साह से उठ गए। सोनू ने कहा—“माँ, आज तो दावत जैसा लग रहा है।”
रामू ने हँसते हुए कहा—“हाँ बेटा, आज छुट्टी है, तो क्यों न इसे उत्सव बना लें?”
नाश्ते के बाद रामू बच्चों के साथ गली में निकल आया। पिंकी ने कागज़ की नाव फिर से बनाई और उसे पानी में तैराने लगी। सोनू अपने दोस्तों के साथ फुटबॉल खेलने लगा। बारिश के बाद गीली मिट्टी पर खेलते हुए वे सबकी हँसी गली में गूँज रही थी।
रामू पास ही खड़ा होकर यह सब देखता रहा। उसे लगा जैसे यही हंसी उसके जीवन का सबसे मधुर संगीत है।
दोपहर तक मोहल्ले के लोग आपस में मिलने लगे। काका जी अपनी छड़ी टेकते हुए आए और बोले—“रामू बेटा, क्यों न आज सब मिलकर चौपाल पर बैठें? बरसात के बाद का मौसम बड़ा सुहाना है।”
रामू ने सहमति जताई। थोड़ी देर में मोहल्ले के और लोग भी इकट्ठा हो गए। चौपाल पर बेंच लगाई गईं। किसी ने मुँह में बीड़ी दबा ली, कोई चाय ले आया। औरतें बच्चों के साथ आ बैठीं। माहौल मानो किसी छोटे मेले जैसा हो गया।
वहाँ बैठकर सबने गीत गाने शुरू कर दिए। बुजुर्गों ने पुराने लोकगीत गाए, बच्चे ताली बजाते रहे। सोनू और उसके दोस्तों ने स्कूल में सीखे कुछ देशभक्ति गीत सुनाए। पिंकी ने कविता सुनाई—जिसमें उसने बारिश और फूलों की खुशबू का वर्णन किया था।
सविता ने धीमे स्वर में भजन गाया। उसकी आवाज़ इतनी मीठी थी कि सब लोग चुपचाप सुनते रहे। रामू ने उसे देखा तो उसके मन में गर्व की लहर दौड़ गई।
फिर सबने रामू से कहा—“तुम भी कुछ सुनाओ।”
रामू थोड़ा झिझका, फिर बोला—“मैं कोई गायक तो नहीं हूँ। पर हाँ, मैं अपने जीवन का गीत जरूर सुना सकता हूँ।”
उसने गहरी सांस ली और कहना शुरू किया—
“मेरा गीत यही है कि इंसान को सुख बड़ी चीज़ों में नहीं मिलता। सुख तो तभी मिलता है जब घर में बच्चों की हंसी हो, पत्नी की मुस्कान हो, और पड़ोसियों का अपनापन हो। हमारे पास चाहे लाखों रुपये न हों, पर अगर हमारे दिल भरे हों तो हम सबसे अमीर हैं। मैंने यही सीखा है कि जीवन का गीत छोटे-छोटे पलों में छिपा है—चाय की एक प्याली में, बच्चों की एक हंसी में, बरसात की खुशबू में और त्योहार की रोशनी में।”
सब लोग ताली बजाने लगे। काका जी ने भावुक होकर कहा—“रामू बेटा, यही तो असली ज्ञान है। तूने हमें याद दिलाया कि ज़िंदगी को कठिनाई नहीं, बल्कि मुस्कान से जीना चाहिए।”
उस दिन चौपाल पर बैठे हर शख्स ने महसूस किया कि जिंदगी का असली रंग तो एक-दूसरे के साथ बांटे हुए सुख-दुख में है।
शाम होते-होते सब अपने घर लौट गए। आकाश में ढलते सूरज की लालिमा फैल गई थी। रामू घर आया तो बच्चों ने घेर लिया—“बाबा, आज का दिन कितना अच्छा था!”
रामू ने दोनों को गले लगाया और बोला—“हाँ, यही तो जीवन है। छोटे-छोटे पल मिलकर ही बड़ी खुशियाँ बनाते हैं।”
रात को खाना खाते वक्त सविता ने कहा—“रामू, सच कहूँ तो हमारी दुनिया भले ही छोटी है, लेकिन यह सबसे सुंदर है। मुझे किसी चीज़ की कमी महसूस नहीं होती।”
रामू ने धीरे से कहा—“हाँ सविता, यही हमारी असली दौलत है—हमारा परिवार, हमारे बच्चे, और हमारी मुस्कान। यही जीवन का गीत है, जो हर रोज़ हमें जीना सिखाता है।”
उस रात जब सब सो गए, रामू बरामदे में बैठा रहा। चाँदनी आँगन में बिखरी हुई थी। हवा में बरसात की ताज़गी अब भी थी। उसने आसमान की ओर देखा और मन ही मन भगवान का धन्यवाद किया—“धन्यवाद कि तूने मुझे यह समझ दी कि सुख दौलत में नहीं, छोटे-छोटे पलों में छिपा है। मेरी यही प्रार्थना है कि मेरे बच्चों की हंसी कभी न रुके, और यह घर हमेशा ऐसे ही खुशियों से भरा रहे।”
रामू ने महसूस किया कि जीवन ने उसे सबसे बड़ा सबक दिया है—साधारणता ही असली सौंदर्य है। छोटे-छोटे सुख ही जीवन का असली गीत हैं।
और उस रात वह चैन की नींद सो गया, क्योंकि उसके दिल में यह विश्वास था कि चाहे संघर्ष हो या उम्मीद, बरसात हो या त्योहार—अगर परिवार का साथ और मोहल्ले का अपनापन है, तो जीवन हमेशा एक मधुर गीत रहेगा।
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