अभिषेक त्रिवेदी
एपिसोड 1 : गली का नक्शा और पहला झगड़ा
कहानी शुरू होती है एक ऐसे मोहल्ले से, जो शहर के नक्शे में देखने पर बिल्कुल भी दिखाई नहीं देता। नगर निगम का नक्शा बनाने वाला जब इस हिस्से तक पहुँचा तो उसकी पेंसिल की नोक टूट गई, और उसने वही अधूरा छोड़ दिया। नतीजा यह कि “छोटी गली” नाम की जगह कभी किसी दफ्तरी कागज़ पर पूरी तरह दर्ज ही नहीं हुई। लेकिन इस गली में रहने वालों के लिए यह दुनिया की सबसे बड़ी राजधानी थी—राजधानी भी और संसद भी, अदालत भी और खेल का मैदान भी।
गली इतनी संकरी थी कि सामने से दो साइकिलें निकल जाएँ तो तीसरी साइकिल वाले को घंटी बजाते हुए दस मिनट इंतज़ार करना पड़ता। गली के एक ओर पुराने जमाने का पीपल का पेड़ था, जिसके नीचे बैठकर बुजुर्ग लोग ताश खेलते और राजनीति पर चर्चा करते। दूसरी ओर एक जर्जर नल था, जिससे दिन में सिर्फ दो बार पानी आता। इस नल को ही मोहल्ले का “केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय” माना जाता था।
पहला झगड़ा भी इसी नल से शुरू हुआ।
उस सुबह गली की औरतें हमेशा की तरह खाली बाल्टियाँ लेकर कतार में खड़ी थीं। सूरज निकलने से पहले पानी आ जाता था, और सबको आधा घंटा मेहनत करनी पड़ती थी। लेकिन उस दिन शर्मा जी—जो खुद को गली का सबसे जिम्मेदार नागरिक मानते थे—अपना पीला ड्रम लेकर बीच कतार में आकर खड़े हो गए।
“भाई साहब, लाइन तो पीछे लगाइए,” आगे खड़ी राधा चाची बोलीं।
शर्मा जी अकड़कर बोले—“देखिए, मैं कल रात चौकीदार को गली की रखवाली के लिए चाय पिलाकर आया हूँ। अगर मेरी सुरक्षा नहीं होती तो आप सबकी बाल्टियाँ भी सुरक्षित नहीं होतीं। तो मुझे लाइन में आगे खड़े होने का अधिकार है।”
गली की औरतों के बीच फुसफुसाहट शुरू हुई। किसी ने कहा, “अरे! ये तो नई बात सुना दी।” किसी ने दबी हँसी दबाई।
इतने में पीछे से मिसेज़ वर्मा बोलीं—“तो क्या आप चौकीदार को दूध भी पिलाते हैं? कल रात तो उसने मेरी साड़ी सुखाने की रस्सी चुरा ली थी।”
यह सुनकर सब ज़ोर-ज़ोर से हँस पड़े। शर्मा जी का चेहरा लाल हो गया, लेकिन वो डटे रहे। पानी का पहला फव्वारा जैसे ही नल से फूटा, सबकी बाल्टियाँ आगे बढ़ीं, और धक्का-मुक्की शुरू हो गई। नल का हैंडल चर्र-चर्र करने लगा और आधी बाल्टियाँ उलटकर ज़मीन पर बह गईं।
यही था “छोटी गली का पहला झगड़ा”—इतिहास में दर्ज।
गली की खासियत यह थी कि हर छोटी घटना बड़ी खबर बन जाती। यहाँ तक कि मोहल्ले का बच्चा पप्पू अगर अपने पतंग की डोर किसी छत पर अटका दे तो भी दस घरों में मीटिंग हो जाती कि “इससे छत की सुरक्षा को खतरा है।”
पहले झगड़े के बाद मोहल्ले की “गली संसद” बुलवाई गई। पीपल के पेड़ के नीचे चारपाइयाँ बिछीं। सामने मटका रखा गया—जो असल में ‘स्पीकर’ का काम करता था। जिसके पास बोलने की बारी आती, वही मटके को छूकर अपनी बात रखता।
सबसे पहले चौधरी साहब बोले—“देखिए, हम सबको मिलकर पानी की समस्या सुलझानी होगी। इस तरह झगड़ते रहे तो बच्चे प्यासे मर जाएँगे।”
मटके को अगली बार शर्मा जी ने छुआ—“मेरी तो बस इतनी माँग है कि जो भी गली की सुरक्षा में योगदान दे, उसको विशेष सुविधा मिले। आखिर सुरक्षा सबसे ज़रूरी है।”
यह सुनकर बगल में बैठे रहीम काका भड़क गए—“सुरक्षा की बात कर रहे हो? अरे, पिछली दीवाली पर तुम्हारे पटाखे ने मेरी दाढ़ी जला दी थी। अगर यही सुरक्षा है तो भगवान ही मालिक है।”
संसद ठहाकों से गूँज उठी।
बच्चे भी पीछे नहीं रहे। उन्होंने तय किया कि गली का नक्शा वे खुद बनाएँगे। स्कूल से लौटकर उन्होंने खड़िया लेकर दीवार पर नक्शा खींच दिया। बीच में बड़ा गोल घेरा बना दिया—“यहाँ पीपल का पेड़ है।” फिर एक लंबी लकीर—“यह है हमारी गली।” और आखिर में छोटे-छोटे चौकोर डिब्बे—“ये सब हमारे घर हैं।”
सब बच्चे मिलकर चिल्लाए—“ये है हमारी राजधानी!”
पर समस्या तब शुरू हुई जब गुड्डू ने अपने घर को नक्शे में सबसे बड़ा डिब्बा बना दिया। बाकी बच्चों ने विरोध शुरू कर दिया। सोनू बोला—“तेरा घर सबसे छोटा है, तूने सबसे बड़ा क्यों बना दिया?”
गुड्डू ने गर्व से कहा—“क्योंकि मेरे घर की छत सबसे ऊँची है, इसलिए मेरा नक्शा भी सबसे बड़ा होगा।”
फिर क्या था, बच्चों में मिट्टी के गोले चलने लगे। नक्शा धुल गया और गली की संसद को दोबारा बैठक करनी पड़ी।
इस बार ठराया गया कि गली का नक्शा बनाने के लिए एक “विशेष समिति” गठित होगी। समिति में पाँच लोग चुने गए—शर्मा जी, रहीम काका, राधा चाची, मिसेज़ वर्मा और सबसे छोटे सदस्य के रूप में पप्पू।
पप्पू ने तुरंत ऐलान कर दिया—“नक्शे में पतंग उड़ाने की जगह जरूर होनी चाहिए, वरना मैं इस्तीफा दे दूँगा।”
मिसेज़ वर्मा ने कहा—“नक्शे में मेरी साड़ी सुखाने की रस्सी भी चिन्हित होनी चाहिए।”
राधा चाची बोलीं—“और मेरे अचार के मटके वाली जगह भी।”
समिति की पहली बैठक ही हंसी-ठट्ठे में खत्म हो गई। नक्शा तो न बना, लेकिन गली के लोग पहली बार महसूस करने लगे कि उनकी छोटी-सी गली में भी राजनीति, संसद, विपक्ष और सत्ता—सबकुछ मौजूद है।
शाम होते-होते पहला झगड़ा धीरे-धीरे ठंडा पड़ गया। बच्चे पतंग लेकर छत पर चढ़ गए, औरतें रसोई में लौट गईं, बुजुर्ग ताश की गड्डी खोलकर बैठ गए। लेकिन सबके मन में यह बात बैठ गई थी कि अब यह गली पहले जैसी नहीं रही। अब हर दिन कोई न कोई “राष्ट्रीय मुद्दा” पैदा होगा और संसद बैठेगी।
पीपल का पेड़ चुपचाप सब देख रहा था। उसकी शाखाएँ हवा में हिल रही थीं, मानो कह रही हों—“तैयार हो जाओ, असली किस्से तो अभी शुरू हुए हैं।”
एपिसोड 2 : पानी की टंकी पर लोकतंत्र
छोटी गली में पानी हमेशा से बड़ा मुद्दा रहा था। गली के कोने पर जो लोहे की पुरानी टंकी खड़ी थी, वह अंग्रेज़ों के जमाने की निशानी कही जाती थी। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था – “सन 1942”। टंकी देखने में तो भारी-भरकम थी, लेकिन उसमें रोज़ पानी कितना आता है, यह सवाल आज तक किसी इंजीनियर को समझ नहीं आया।
गली वाले टंकी को अपना संसद भवन मानते थे। औरतें सुबह-सुबह बाल्टियाँ लेकर वहीं डेरा डाल देतीं, बच्चे वहाँ छुपन-छुपाई खेलते, और बुजुर्ग उसकी छाँव तले राजनीति की मीटिंग करते। पर असली झगड़े शुरू हुए जब मोहल्ले वालों ने तय किया कि पानी की टंकी पर लोकतंत्र लागू किया जाएगा।
लोकतंत्र की पहली घण्टी
सबसे पहले यह विचार मिस्टर शर्मा लेकर आए। उन्होंने पीपल के पेड़ के नीचे ताश खेलते-खेलते घोषणा की –
“अबकी बार गली का पानी लोकतंत्र के हिसाब से बाँटा जाएगा। जो बहुमत तय करेगा, वही होगा।”
सामने बैठे रहीम काका ने अपनी ऐनक उतारकर बोला –
“बहुमत से क्या होगा? टंकी का नल तो एक ही है। जो पहले बाल्टी लगाएगा, वही पानी ले जाएगा।”
लेकिन शर्मा जी हार मानने वालों में से नहीं थे। उन्होंने कहा –
“नहीं-नहीं। अबकी बार सबको बराबर हिस्सा मिलेगा। हर घर को दो बाल्टी से ज़्यादा नहीं। और चुनाव से तय होगा कि नल का हैंडल कौन घुमाएगा।”
यह सुनकर गली की औरतों में खलबली मच गई। राधा चाची बोलीं –
“मतदान होगा तो हम भी उम्मीदवार बनेंगे। आखिर पानी घर के काम में हमें ही चाहिए।”
पहला चुनाव अभियान
अगले ही दिन चुनाव की तैयारी शुरू हो गई। गली में पहली बार झंडे लगाए गए। किसी ने लाल कपड़ा बाँधा, किसी ने हरा, किसी ने नीला। मोहल्ले के बच्चों ने नारों की लिस्ट बना डाली।
गुड्डू और सोनू दीवारों पर लिखने लगे –
“पानी हमारा – अधिकार हमारा।”
“जो दिलाएगा पानी, वोट उसी को।”
उम्मीदवारों की लिस्ट भी लंबी हो गई। शर्मा जी, राधा चाची, मिसेज़ वर्मा और रहीम काका – सब मैदान में थे। यहाँ तक कि पप्पू ने भी नामांकन कर दिया। उसने घोषणा की –
“अगर मैं जीता तो हर रविवार टंकी के पास पतंग प्रतियोगिता कराऊँगा।”
बच्चे उसी के पीछे हो लिए।
चुनावी भाषण
अब बारी थी भाषणों की। टंकी के सामने चारपाई रखी गई, और बारी-बारी सब उम्मीदवार वहाँ चढ़े।
सबसे पहले शर्मा जी बोले –
“प्रिय गलीवासियों, मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि मेरे रहते किसी की बाल्टी खाली नहीं जाएगी। मैं नल के पास चौबीसों घंटे ड्यूटी दूँगा।”
भीड़ में से आवाज़ आई – “अरे! आपके घर में तो पहले से दो मोटर हैं। आप नल क्यों घुमाएँगे?”
शर्मा जी झेंप गए, पर अगले उम्मीदवार ने संभाल लिया।
राधा चाची मंच पर आईं –
“बहनों! भाइयों! पानी का असली इस्तेमाल हम औरतें ही करती हैं। अगर मैं चुनी गई तो हर घर में दही-बड़े भी मुफ्त बाँटूँगी।”
औरतों ने तालियाँ बजाईं, बच्चों ने उछलकर नारा लगाया – “चाची ज़िंदाबाद!”
फिर बारी आई मिसेज़ वर्मा की। उन्होंने बड़ा गिलास उठाकर कहा –
“देखिए, पानी सिर्फ पीने का साधन नहीं, जीवन का अमृत है। मैं वादा करती हूँ कि अगर जीती तो टंकी के पास फूलों का बगीचा लगवाऊँगी।”
बुजुर्गों को यह विचार भा गया।
सबसे आखिर में पप्पू आया। उसने नारा दिया –
“पतंग उड़ाओ, खुश रहो, पानी अपने आप बढ़ेगा!”
भीड़ ठहाके लगाने लगी।
मतदान का दिन
गली में पहली बार बाकायदा वोटिंग बूथ बना। स्कूल से पुरानी मेज़ें मँगवाई गईं। पन्ने काटकर मतपत्र बनाए गए। हर मतदाता को गोभी की पत्तियों पर टिक-मार्क करना था।
सुबह से ही लाइन लग गई। औरतें, बच्चे, बुजुर्ग – सब कतार में। कोई चुपचाप वोट डाल रहा था, तो कोई पहले ही नारे लगाकर बता रहा था कि किसको वोट देगा।
जब गिनती शुरू हुई तो बड़ा मज़ा आया। शर्मा जी को 15 वोट मिले, राधा चाची को 20, मिसेज़ वर्मा को 18। लेकिन सबसे बड़ा चौंकाने वाला नतीजा आया पप्पू के नाम पर – पूरे 25 वोट!
साफ़ हो गया कि गली का पहला चुनाव एक बच्चे ने जीत लिया।
पहला लोकतांत्रिक भाषण
पप्पू जीतते ही टंकी पर चढ़ गया। दोनों हाथ फैलाकर बोला –
“प्रिय नागरिकों, अबसे पानी बराबर बंटेगा। हर घर को सुबह-शाम दो-दो बाल्टी मिलेगी। और हाँ, रविवार को पतंग प्रतियोगिता होगी।”
गली तालियों से गूँज उठी। बच्चे खुशी से नाचने लगे, और बड़े लोग भी मुस्कुरा दिए।
लेकिन रहीम काका चुपचाप ताश की गड्डी उठाकर बुदबुदाए –
“लोकतंत्र हो गया, पर पानी अब भी उतना ही आएगा। देखते हैं कैसे बाँटते हो।”
लोकतंत्र का पहला संकट
अगली सुबह जब टंकी से पानी आया, पप्पू अपनी बाल्टी लेकर सबसे पहले पहुँच गया। उसने नल खोला, और एक-एक कर सबकी बाल्टी भरने लगा।
लेकिन आधे घरों का ही पानी भरा था कि टंकी खाली हो गई। जो पीछे खड़े थे, उनकी बाल्टियाँ सूखी रह गईं।
तुरंत हंगामा मच गया। राधा चाची चिल्लाईं –
“ये कैसा लोकतंत्र है? हमारे हिस्से का पानी कहाँ गया?”
शर्मा जी भी गरजे –
“देखा! मैंने कहा था ना, असली काम अनुभवियों का है, बच्चों का नहीं।”
गली में फिर वही हंगामा, फिर वही संसद।
नया प्रस्ताव
बैठक में इस बार सबने मिलकर ठाना कि पानी की समस्या का हल निकालना ही होगा। मिसेज़ वर्मा ने सुझाव दिया –
“क्यों न हम सब मिलकर बड़ी टंकी लगवाएँ?”
रहीम काका बोले –
“पैसे कौन देगा?”
तभी पीछे से आवाज़ आई –
“पैसे हम सब मिलकर देंगे। गली का चंदा लगेगा।”
सबको यह विचार अच्छा लगा। लेकिन फिर सवाल उठा कि चंदा वसूलेगा कौन।
पप्पू ने हाथ खड़ा कर दिया –
“चंदा मैं वसूलूँगा। बदले में हर रविवार पतंग प्रतियोगिता में इनाम दूँगा।”
सब हँस पड़े। पर आखिरकार तय हुआ कि गली का लोकतंत्र अब चंदे के सहारे चलेगा।
एपिसोड का अंत
शाम को जब सब लोग अपनी-अपनी छत पर बैठे थे, हवा में पतंगें उड़ रही थीं और नीचे नल सूखा पड़ा था। गली के लोगों को समझ आ गया कि लोकतंत्र लाना आसान है, लेकिन पानी बाँटना मुश्किल।
पीपल का पेड़ फिर हिला और उसकी पत्तियाँ खड़खड़ाईं, मानो कह रही हों –
“ये तो बस शुरुआत है। आगे लोकतंत्र के और मज़े देखने बाकी हैं।”
एपिसोड 3 : शर्मा जी का स्कूटर और बच्चों की परेड
छोटी गली की सबसे चमचमाती और चर्चित चीज़ अगर कोई थी तो वह थी—शर्मा जी का नीला स्कूटर। स्कूटर का मॉडल इतना पुराना था कि शहर के बड़े शोरूम में अब उसका नाम तक नहीं मिलता। लेकिन शर्मा जी उसे ऐसे सजाकर रखते थे जैसे कोई राजा अपनी हाथी की सवारी को। रोज़ सुबह उठकर वह स्कूटर को डिटर्जेंट से धोते, कपड़े से पोंछते और उसके शीशे पर थोड़ा-सा इत्र तक छिड़क देते। मोहल्ले के बच्चे उसे “गली का हेलीकॉप्टर” कहते थे।
समस्या तब शुरू हुई जब बच्चों ने तय कर लिया कि स्कूटर पर एक “राष्ट्रीय परेड” निकाली जाएगी।
परेड का विचार
गली में बच्चों का एक गुप्त संगठन था—“बाल सेना संघ।” इसके सेनापति पप्पू थे, वही जो पिछले एपिसोड में चुनाव जीत चुका था। पप्पू ने ऐलान किया –
“देखो, अब हमारी गली भी बड़ी हो गई है। हमारे पास संसद है, लोकतंत्र है। अब हमें सेना और परेड भी चाहिए। और परेड किस पर होगी? शर्मा अंकल के स्कूटर पर!”
सब बच्चे उछल पड़े। सोनू बोला –
“हाँ, और मैं स्कूटर के आगे डंडा लेकर झंडा लहराऊँगा।”
गुड्डू ने कहा –
“मैं पीछे बैठकर ढोल बजाऊँगा।”
बाकी बच्चे भी अपनी-अपनी भूमिका बाँटने लगे। किसी ने कहा वह फूल बरसाएगा, कोई बोला वह कविताएँ सुनाएगा।
शर्मा जी की अनुमति
लेकिन असली मुसीबत थी—शर्मा जी को मनाना। वह अपने स्कूटर को किसी को छूने भी नहीं देते थे।
बच्चों का दल सीधा उनके दरवाज़े पहुँचा। पप्पू ने बड़ी गंभीर आवाज़ में कहा –
“शर्मा अंकल, लोकतंत्र की तरफ से एक विशेष निवेदन है। हम सब आपके स्कूटर पर परेड निकालना चाहते हैं।”
शर्मा जी पहले तो भड़क गए। बोले –
“क्या? मेरा स्कूटर? ये खिलौना है क्या?”
पर जब बच्चों ने नारा लगाना शुरू किया –
“स्कूटर हमारा अधिकार है,
गली की शान, तुम्हारा प्यार है!”
तो शर्मा जी थोड़ा पिघले। उन्होंने लंबी साँस ली और कहा –
“ठीक है। पर शर्त है कि स्कूटर को धक्का मारकर ले जाओगे, इंजन चालू नहीं करोगे। और हाँ, चप्पल पहनकर चढ़ना मना है—जूते पहनना पड़ेगा।”
बच्चों ने तुरंत हाँ कर दी।
तैयारी का दिन
परेड के लिए बच्चों ने खूब तैयारी की। पुरानी चारपाई की रस्सियों से उन्होंने बैंड बनाया, माँ की पुरानी साड़ियों से झंडे तैयार किए। यहाँ तक कि मिठाई की खाली डिब्बियों को ड्रम बना दिया।
शाम होते-होते स्कूटर को फूलों की माला से सजाया गया। पीछे वाली सीट पर हरे और लाल कागज़ चिपकाए गए। सामने तिरंगे की जगह गली का नया झंडा फहराया गया—जिस पर लिखा था:
“छोटी गली, बड़ी ताकत।”
परेड की शुरुआत
अगली सुबह गली का माहौल बिल्कुल मेले जैसा था। औरतें छतों से झाँक रही थीं, बुजुर्ग पेड़ के नीचे जमा हो गए, और बच्चे स्कूटर के चारों तरफ़ खड़े थे।
ढोलक की पहली थाप लगी और गुड्डू चिल्लाया –
“परेड चालू!”
सबसे आगे सोनू झंडा लेकर चल रहा था, उसके पीछे ढोलक वाले, फिर बच्चे कतार में। बीच में शर्मा जी का नीला स्कूटर, जिस पर पप्पू बैठा था।
गली की तंग गलियों में जब यह परेड चलने लगी तो ऐसा लगा जैसे किसी बड़े शहर में स्वतंत्रता दिवस की रिहर्सल हो रही हो।
पहला हादसा
परेड ठीक से शुरू ही हुआ था कि अचानक स्कूटर का हैंडल हिल गया। पीछे बैठे गुड्डू का ड्रम गिरा और लुढ़कते हुए मिसेज़ वर्मा के घर की सीढ़ियों तक पहुँच गया।
मिसेज़ वर्मा झटपट बाहर निकलीं और बोलीं –
“अरे! ये क्या हो रहा है? मेरी सीढ़ियाँ तोड़ोगे क्या?”
बच्चों ने माफी माँगी, ड्रम उठाया और परेड फिर से शुरू हुई।
लेकिन अभी यह सिलसिला ख़त्म नहीं हुआ था।
बिजली का झंडा
गली के बीच में जहाँ बिजली का खंभा था, वहाँ झंडा फँस गया। सोनू ने जैसे ही झंडा ऊँचा किया, कपड़ा खंभे के तारों में लटक गया। सब बच्चे डर गए कि कहीं बिजली का झटका न लगे।
तभी रहीम काका दौड़कर आए। उन्होंने अपनी लाठी से झंडा धीरे-धीरे तार से छुड़ाया और बोले –
“ये लोकतंत्र का झंडा है, इसे बिजली के तारों से दूर ही रखना।”
बच्चे हँस पड़े और सोनू शरमा गया।
शर्मा जी की एंट्री
अब तक शर्मा जी परेड को दूर से देख रहे थे। पर जब उन्होंने देखा कि उनका स्कूटर सचमुच गली की शान बन गया है, तो खुद को रोक नहीं पाए।
उन्होंने फौरन हेलमेट पहना, स्कूटर के पास गए और बोले –
“साइड हटो बच्चों, असली ड्राइवर आ गया है।”
पप्पू तुरंत पीछे हट गया। शर्मा जी ने इंजन स्टार्ट कर दिया। स्कूटर गड़गड़ाया और गली में दौड़ने लगा। बच्चे पीछे-पीछे नारे लगा रहे थे –
“स्कूटर वाला कैसा हो, शर्मा अंकल जैसा हो!”
परेड का क्लाइमेक्स
परेड जब टंकी के पास पहुँची तो पूरा मोहल्ला इकट्ठा हो गया। बच्चे चिल्ला रहे थे, बुजुर्ग ताली बजा रहे थे, और औरतें छत से फूल बरसा रही थीं।
शर्मा जी ने स्कूटर रोककर घोषणा की –
“आज से यह स्कूटर सिर्फ मेरा नहीं, पूरी गली का है। जब भी कोई खास मौका होगा, यह स्कूटर गली की परेड निकालेगा।”
भीड़ तालियों से गूँज उठी। बच्चों की आँखों में चमक थी, मानो उन्होंने सचमुच कोई आज़ादी का जश्न जीत लिया हो।
आखिरी मोड़
पर गली की कहानी बिना मोड़ के पूरी कहाँ होती है!
जैसे ही सब लोग खुश होकर घर लौटने लगे, अचानक स्कूटर से तेल टपकने लगा। इंजन खाँसने लगा और बंद हो गया। शर्मा जी घबराए, बच्चे भी चौंक गए।
रहीम काका मुस्कुराए और बोले –
“देखो, लोकतंत्र हो या स्कूटर—दोनों को चलाने के लिए पेट्रोल चाहिए। सिर्फ नारे लगाने से काम नहीं चलता।”
सब ठहाके लगाकर हँस पड़े।
एपिसोड का अंत
उस शाम गली की हवा में परेड की गूँज रही। बच्चों के चेहरे पर गर्व था, बुजुर्गों की आँखों में चमक थी, और शर्मा जी के दिल में यह संतोष कि उनका स्कूटर अब गली की धरोहर बन चुका है।
पीपल का पेड़ झूमकर जैसे कह रहा था—
“ये गली छोटी सही, पर यहाँ के किस्से बड़े-बड़े हैं।”
एपिसोड 4 : बिल्लियों का मोहल्ला सम्मेलन
छोटी गली की एक अनोखी खासियत थी—यहाँ इंसानों जितनी ही आबादी बिल्लियों की भी थी। किसी घर की छत पर नज़र डालो तो धूप सेंकती बिल्ली दिखाई देगी, किसी आँगन में दूध के कटोरे पर झगड़ती दो बिल्लियाँ, तो कहीं कूड़े के ढेर पर राजा की तरह राज करता कोई बिलौटा। बच्चे उन्हें प्यार करते, औरतें उनसे परेशान रहतीं, बुजुर्ग उन्हें गली की “गुप्त सरकार” कहते।
पर असली मज़ा तब आया जब बिल्लियों ने खुद अपना “मोहल्ला सम्मेलन” करने का फ़ैसला कर लिया।
शुरुआत की अफ़वाह
सबसे पहले यह खबर गुड्डू ने फैलाई। वह शाम को दूध लेने गया था और वापस आकर बोला—
“अरे सुनो, मैंने अभी-अभी शर्मा अंकल की छत पर बिल्लियों की मीटिंग देखी। वे सब गोल-गोल बैठी थीं और ‘म्याऊँ म्याऊँ’ करके बहस कर रही थीं।”
बच्चे चौंक गए। पप्पू ने तुरंत फैसला सुनाया—
“अगर बिल्लियाँ सचमुच मीटिंग कर रही हैं तो यह गली का बड़ा मामला है। हमें इसकी जाँच करनी होगी।”
रात का नज़ारा
रात को बच्चों ने छुपकर झाँका। सचमुच, शर्मा जी की छत पर करीब दर्जन भर बिल्लियाँ बैठी थीं। बीच में मोटी-सी सफेद बिल्ली—जिसे सब ‘रानी बिल्ली’ कहते थे—वह अध्यक्ष बनी बैठी थी। चारों ओर अलग-अलग रंग की बिल्लियाँ, कोई काली, कोई धारीदार, कोई पूरी भूरी।
वे सब बारी-बारी म्याऊँ कर रही थीं, और बीच-बीच में पूँछ उठाकर तालियाँ भी बजा रही थीं।
गुड्डू फुसफुसाया—“ये तो बिल्कुल हमारी संसद जैसी मीटिंग है।”
पप्पू बोला—“नहीं, इससे भी बड़ी। देखो, यहाँ कोई धक्का-मुक्की नहीं, सब अनुशासन में हैं।”
मोहल्ले में हंगामा
अगली सुबह जब यह खबर फैली कि बिल्लियों ने सम्मेलन बुलाया है, तो गली के लोग उत्सुक हो गए। औरतें बोलीं—“ये तो अच्छी बात है। शायद अब दूध का हिसाब-किताब तय कर लें।”
शर्मा जी चिढ़ गए—“मुझे तो लगता है ये सब बिल्लियाँ मेरे स्कूटर पर कब्ज़ा करना चाहती हैं। कल ही तो मैंने देखा, उनमें से एक मेरे सीट पर बैठी थी।”
रहीम काका मुस्कुराए और बोले—“कौन जाने, कल को यही बिल्लियाँ हमसे ज्यादा समझदार निकलें।”
बिल्लियों का एजेंडा
बच्चों ने अगली रात फिर छुपकर सुना। बिल्लियाँ सचमुच एजेंडा तय कर रही थीं।
रानी बिल्ली बोली—“मोहल्ले के इंसानों ने दूध बाँटने में हमें कभी शामिल नहीं किया। अबसे हर घर से रोज़ आधा कटोरा दूध हमें मिलेगा।”
एक काली बिल्ली बोली—“और हाँ, मछली की दुकान से आने वाले कचरे पर हमारा अधिकार होगा। कोई इंसान उसमें हाथ नहीं लगाएगा।”
भूरी बिल्ली ने पूँछ हिलाते हुए कहा—“अगर यह नियम नहीं माना गया तो हम छतों पर रात भर शोर मचाएँगे।”
बाकी सब बिल्लियाँ जोर-जोर से म्याऊँ करने लगीं।
इंसानों की प्रतिक्रिया
बच्चों ने यह सब सुनकर गली की संसद में रिपोर्ट दी।
राधा चाची बोलीं—“हे भगवान! अब बिल्लियाँ भी मांगें रखने लगीं। लगता है अगली बार वोट भी वे ही डालेंगी।”
मिसेज़ वर्मा ने कहा—“अरे, अगर आधा कटोरा दूध रोज़ देना पड़ा तो बच्चों के लिए क्या बचेगा?”
शर्मा जी गरजे—“ये सब बच्चों की शरारत है। बिल्लियों को कौन समझाएगा लोकतंत्र?”
लेकिन रहीम काका धीरे से बोले—“लोकतंत्र की असली पहचान यही है बेटा, सबको हिस्सा मिलना चाहिए—चाहे इंसान हो या बिल्ली।”
सम्मेलन का असर
अब गली में हर घर में यह चर्चा होने लगी कि सचमुच बिल्लियों को दूध दिया जाए या नहीं। कुछ लोग मानने लगे कि इससे शांति रहेगी।
राधा चाची ने तो अगली सुबह सचमुच कटोरे में दूध रखकर बाहर रख दिया। बिल्लियाँ लाइन लगाकर पी गईं।
बच्चों ने इस मौके को “पहला बिल्ली कर” नाम दिया।
महान भाषण
तीसरी रात को बिल्लियों का सम्मेलन और बड़ा हो गया। अब इसमें गली के बाहर की बिल्लियाँ भी शामिल होने लगीं।
रानी बिल्ली ने लंबा भाषण दिया—
“साथियों! यह हमारी जीत की शुरुआत है। अब हमें केवल दूध ही नहीं, गर्म जगह पर सोने का हक़ भी चाहिए। सर्दियों में इंसान रजाई ओढ़ते हैं, तो हम क्यों ठिठुरें?”
सब बिल्लियाँ एक साथ बोलीं—“म्याऊँ!”
गली का समझौता
आखिरकार इंसानों ने समझौता किया। गली की संसद ने प्रस्ताव पारित किया कि—
हर घर से रोज़ थोड़ा दूध बाहर रखा जाएगा।
छतों पर बिल्लियों को सोने दिया जाएगा, बस स्कूटर की सीट पर कब्ज़ा नहीं होना चाहिए।
कचरे में मछली की हड्डियाँ इंसानों से पहले बिल्लियों को मिलेंगी।
इस समझौते को “बिल्ली समझौता पत्र” कहा गया।
बच्चों का मज़ाक
बच्चों ने इस पूरे किस्से को बहुत मज़ेदार बना दिया। उन्होंने दीवार पर पोस्टर चिपकाया—
“गली की नई सरकार – बिल्ली पार्टी।”
गुड्डू ने तो एक कविता भी लिख दी—
“न दूध हमारा, न मछली हमारी,
अब राज करेगी बिल्ली हमारी।”
सब हँसते-हँसते लोटपोट हो गए।
सम्मेलन का अंत और नया मोड़
धीरे-धीरे बिल्लियों का सम्मेलन नियमित हो गया। हर शनिवार रात वे छत पर जमा होतीं, नए नियम बनातीं और इंसान अनमने ढंग से उन्हें मान भी लेते।
पर असली संकट तब आया जब एक दिन टंकी के पास रखे कटोरे में दूध नहीं रखा गया। बिल्लियाँ भड़क गईं। उन्होंने पूरी रात छतों पर शोर मचाया, कूद-फाँद की, और सुबह तक गली के आधे घरों की नींद खराब कर दी।
रहीम काका ने सिर हिलाकर कहा—
“लोकतंत्र इंसानों का हो या बिल्लियों का—अगर वादा पूरा न हो तो हंगामा होना ही है।”
गली फिर हँसी से गूँज उठी।
एपिसोड का अंत
उस शाम जब सब लोग बैठकर बातें कर रहे थे, पीपल का पेड़ खड़खड़ाया और जैसे कहने लगा—
“अब गली में सिर्फ इंसानों की नहीं, बिल्लियों की भी संसद है। देखना, आगे कितने मज़ेदार किस्से निकलेंगे।”
एपिसोड 5 : दही-बड़े का महायुद्ध
छोटी गली में त्योहार का मतलब सिर्फ़ पूजा-पाठ या पटाखे ही नहीं था—बल्कि खाने-पीने का भी था। और खाने में सबसे बड़ा आकर्षण था दही-बड़ा। राधा चाची पूरे मोहल्ले की मान्यता प्राप्त दही-बड़ा विशेषज्ञ थीं। उनके हाथ से निकला दही-बड़ा इतना नरम और स्वादिष्ट होता कि जैसे ही मुँह में जाता, तुरंत घुल जाता। मोहल्ले में कहा जाता था—“अगर राधा चाची का दही-बड़ा नहीं खाया, तो ज़िंदगी बेकार।”
लेकिन वही दही-बड़ा एक दिन गली के इतिहास का सबसे बड़ा “महायुद्ध” बन गया।
युद्ध की भूमिका
कहानी की शुरुआत एक रविवार को हुई। उस दिन बच्चों ने गली में खेलकूद प्रतियोगिता रखी थी। पप्पू ने घोषणा की—
“आज जो भी जीतेंगे, उन्हें इनाम में राधा चाची के हाथ का दही-बड़ा मिलेगा।”
बच्चे और बड़े सब उत्साहित हो गए। राधा चाची ने सुबह-सुबह आटा गूँधा, उड़द की दाल पीसी, दही फेंटा और बड़े-बड़े बर्तन में मसाले मिलाए। उनका पूरा आँगन दही और मसालों की खुशबू से महक रहा था।
पर मुसीबत यह हुई कि राधा चाची ने सिर्फ़ ५० दही-बड़े बनाए, जबकि गली में १०० से ज़्यादा लोग खाने के लिए तैयार थे।
प्रतियोगिता का मज़ा
सुबह खेलकूद शुरू हुआ। गुड्डू ने दौड़ लगाई, सोनू ने पतंग उड़ाई, पप्पू ने क्रिकेट खेला। बुजुर्गों ने ताश की बाज़ी लगाई और औरतों ने रस्साकशी तक खेल डाली।
हर खेल के बाद विजेता को टोकन दिया जाता—और लिखा होता, “१ दही-बड़ा।” सब लोग अपने टोकन को ऐसे सँभालकर रख रहे थे जैसे वह सोने का सिक्का हो।
लेकिन जैसे-जैसे खेल आगे बढ़े, लोग गणित लगाने लगे—
“अगर दही-बड़े सिर्फ़ ५० हैं, और टोकन ७० बाँट दिए गए, तो झगड़ा होना तय है।”
पहली चिंगारी
शाम को सब लोग पीपल के पेड़ के नीचे जमा हुए। सामने बड़ी थाली में दही-बड़े रखे गए—सफेद दही में डूबे, ऊपर से लाल मिर्च और हरी चटनी से सजे। देखकर ही सबके मुँह में पानी आ गया।
पहला दही-बड़ा गुड्डू को मिला। उसने जैसे ही मुँह में डाला, बाकी लोग ईर्ष्या से उसे घूरने लगे।
दूसरा दही-बड़ा सोनू को मिला। उसने खाते-खाते बोला—
“वाह! इससे अच्छा तो मिठाई की दुकान पर भी नहीं मिलता।”
इतने में पीछे से आवाज़ आई—“अरे! पर दही-बड़े तो खत्म होने वाले हैं। मेरा टोकन कहाँ जाएगा?”
यही चिंगारी थी।
महायुद्ध की शुरुआत
जैसे ही ५०वाँ दही-बड़ा थाली से निकला, बाकी लोग बिफर पड़े।
शर्मा जी गरजे—“ये क्या मज़ाक है? मैंने सुबह चौकीदार को दो रुपये देकर यहाँ शांति बनाए रखी थी। अब मुझे दही-बड़ा नहीं मिलेगा?”
मिसेज़ वर्मा बोलीं—“मैंने तो अपने घर का दही भी दिया था बनाने के लिए। और अब मुझे खाने को नहीं मिलेगा?”
बच्चे जोर-जोर से चिल्लाने लगे—“हमने खेल में जीता है, हमें इनाम चाहिए!”
गली में हंगामा मच गया। थालियाँ खड़कने लगीं, टोकन लहराए जाने लगे, और दही-बड़े की खुशबू हवा में फैलकर सबको और बेचैन कर रही थी।
रणनीति और गुटबंदी
जल्दी ही गली दो हिस्सों में बँट गई। एक गुट ने कहा—“जिसके पास टोकन है, उसे ही दही-बड़ा मिलेगा।” दूसरा गुट बोला—“नहीं, दही-बड़ा सबको बराबर मिलना चाहिए।”
पप्पू ने लोकतंत्र का हवाला दिया—“बहुमत से फैसला होना चाहिए।”
गुड्डू ने सुझाव दिया—“चलो दही-बड़े को काटकर बाँट देते हैं।”
लेकिन रहीम काका बोले—“अरे, दही-बड़ा काटोगे तो उसका स्वाद मर जाएगा। दही-बड़ा आधा नहीं होता।”
युद्ध का मैदान
बहस इतनी बढ़ गई कि सब लोग मैदान में दो-दो पंक्तियों में खड़े हो गए, जैसे किसी युद्ध की सेना। एक ओर औरतें थीं, दूसरी ओर बच्चे। बीच में बुजुर्ग पंच बनकर खड़े थे।
नारे लगने लगे—
“दही-बड़ा हमारा है!”
“समानता चाहिए!”
“राधा चाची ज़िंदाबाद!”
गली का माहौल युद्ध जैसा हो गया।
निर्णायक क्षण
आखिरकार राधा चाची खुद आगे आईं। उन्होंने अपनी थाली उठाई और गुस्से में बोलीं—
“अगर तुम लोग ऐसे लड़ोगे, तो मैं सारे दही-बड़े बिल्लियों को खिला दूँगी।”
इतना सुनते ही सब चुप। गली की बिल्लियाँ पास ही मंडरा रही थीं, उनकी आँखें थालियों पर टिकी थीं।
बच्चों ने फौरन कहा—“नहीं-नहीं चाची! ऐसा पाप मत करना।”
शर्मा जी ने हेलमेट उतारकर कहा—“ठीक है, मैं अपने हिस्से का दही-बड़ा बच्चों को दे दूँगा।”
मिसेज़ वर्मा ने भी कहा—“मैं अपना हिस्सा बुजुर्गों को दे दूँगी।”
धीरे-धीरे माहौल शांत होने लगा।
समझौता
गली की संसद बैठी और समझौता हुआ। तय हुआ कि—
दही-बड़ा बनाने से पहले सब घरों से चंदा लिया जाएगा।
हर व्यक्ति को एक-एक दही-बड़ा मिलेगा, चाहे टोकन हो या न हो।
अगर कोई बचा, तो वह बिल्लियों का हक़ होगा।
इस समझौते को सबने तालियाँ बजाकर मंजूर किया।
महायुद्ध का असर
उस रात जब सबने मिलकर दही-बड़े खाए, तो गली में ऐसा स्वाद था जो किसी रेस्तराँ में नहीं मिल सकता। लोग हँसते-हँसते कहने लगे—
“हमारे मोहल्ले में लोकतंत्र सिर्फ़ वोट से नहीं, दही-बड़े से भी चलता है।”
बच्चों ने इस दिन को नाम दिया—“दही-बड़ा दिवस।”
एपिसोड का अंत
पीपल का पेड़ हवा में झूम रहा था, उसकी पत्तियाँ खड़खड़ा रही थीं—मानो कह रही हों,
“गली में हर चीज़ पर राजनीति हो सकती है, यहाँ तक कि दही-बड़े पर भी।”
एपिसोड 6 : छत से गिरे आम और प्रेम का इज़हार
गर्मी का मौसम आते ही छोटी गली में एक अलग ही हलचल शुरू हो जाती थी। धूप चाहे कितनी भी चिलचिलाती हो, पर बच्चों की निगाहें सिर्फ़ एक ही जगह टिकी रहतीं—शर्मा जी के आँगन का आम का पेड़। यह पेड़ गली की शान था। मोटी डाली, गहरी छाँव और लटकते हुए पक्के-पक्के आम। लेकिन समस्या यह थी कि उस पेड़ के आम पर शर्मा जी का सख्त पहरा था।
शर्मा जी रोज़ सुबह पाँच बजे उठकर पेड़ के नीचे खड़े हो जाते और किसी बच्चे को पास फटकने नहीं देते। वह हमेशा कहते—
“ये आम मैंने अपनी मेहनत से लगाया है। ये मेरे बच्चों की दावत के लिए हैं, न कि मोहल्ले के शरारती बच्चों के लिए।”
लेकिन बच्चे कहाँ मानने वाले थे!
पहला आम का चमत्कार
एक दोपहर, जब हवा तेज़ चली, पेड़ से अचानक एक बड़ा-सा आम गिरा। गली के बीच आकर वह गुड्डू के पैरों के पास लुढ़क गया। गुड्डू ने तुरंत उसे उठा लिया, और जैसे ही खाने को मुँह लगाया, शर्मा जी की गरजती आवाज़ आई—
“अरे ओ गुड्डू! वो आम मेरा है। तुरंत वापस रखो।”
गुड्डू घबराया, लेकिन फिर बच्चों का गुट उसके पीछे खड़ा हो गया। सोनू बोला—“शर्मा अंकल, ये आम तो आसमान से गिरा है। जो नीचे पाए, वही उसका मालिक।”
गली में बहस शुरू हो गई। कोई कहे—“पेड़ शर्मा जी का है, आम भी उनका।” कोई बोले—“पेड़ की डाल तो आसमान में है, हवा ने गिराया, तो वह सबका हुआ।”
शाम होते-होते यह मुद्दा गली की संसद तक पहुँच गया।
संसद की बैठक
पीपल के पेड़ के नीचे चारपाई बिछी। रहीम काका अध्यक्ष बने। उन्होंने कहा—
“आज का मुख्य एजेंडा है—‘गिरे आम का मालिक कौन?’”
शर्मा जी ने तर्क दिया—
“पेड़ मेरा है। मैंने लगाया, मैंने पानी दिया। जो फल गिरा, वह भी मेरा।”
गुड्डू ने जोर से कहा—
“लेकिन वो फल मेरे पैरों के पास गिरा। अगर भगवान चाहते तो सीधे शर्मा जी की थाली में गिरता। यह तो ईश्वरीय न्याय है।”
बच्चे तालियाँ बजाने लगे।
राधा चाची बोलीं—
“देखो भाई, इस मामले का हल यह है कि आम सबमें बाँट दिया जाए। वरना गली में आम के नाम पर दंगा हो जाएगा।”
पहला प्रेम का इशारा
बहस चल ही रही थी कि अचानक एक मीठी हँसी सुनाई दी। यह हँसी थी—मीनू की। मीनू, मिस्टर वर्मा की बेटी, कॉलेज में पढ़ती थी और गली के लड़कों की धड़कन थी।
मीनू ने हँसते हुए कहा—
“इतना झगड़ा एक आम के लिए? अरे, इसे काटकर सबको बाँट दो। लेकिन अगर मुझे कोई पूरा आम दे दे, तो मैं उसका नाम अपनी डायरी में लिख लूँगी।”
इतना सुनते ही गली के सारे लड़कों के कान खड़े हो गए। सोनू, गुड्डू, यहाँ तक कि पप्पू भी तुरंत चिल्लाए—
“मैं! मैं दूँगा आम!”
अब मामला और गरम हो गया।
आम की सुरक्षा
शर्मा जी ने आम को वापस अपने घर ले जाकर बंद कर दिया। उन्होंने पत्नी से कहा—
“सुनो, इस आम पर गली का युद्ध हो सकता है। इसे सँभालकर रखो।”
पर बच्चों ने हार नहीं मानी। उन्होंने रात में गुप्त योजना बनाई। सोनू बोला—“कल हवा चलेगी। जैसे ही दूसरा आम गिरेगा, हम उसे छुपा देंगे और मीनू को देंगे।”
बच्चे तैयार हो गए।
दूसरा आम और इज़हार
अगले दिन दोपहर को सचमुच हवा चली और एक सुनहरा आम छत से लुढ़ककर नीचे गिरा। इस बार पप्पू ने उसे झट से उठा लिया और दौड़कर मीनू के हाथ में रख दिया।
“ये लो दीदी, ये आम सिर्फ़ आपके लिए,” पप्पू बोला।
मीनू मुस्कुराई, और बोली—
“धन्यवाद! लेकिन मैं इसे अकेले नहीं खाऊँगी। कल गली की छत पर सबके साथ बाँटूँगी।”
यह सुनकर पप्पू के चेहरे पर गर्व आ गया। बाकी लड़के थोड़े उदास हो गए, लेकिन दिल ही दिल में सबको लगा कि मीनू ने पप्पू को खास जगह दी है।
प्रेम की चिंगारी
शाम को जब मीनू ने आम काटकर सब बच्चों में बाँटा, तो गली में एक अलग ही माहौल था। बच्चे खुश थे, बुजुर्ग मुस्कुरा रहे थे।
लेकिन उसी समय सोनू ने धीरे से कहा—
“पता है, मीनू ने जब आम काटा तो पहला टुकड़ा पप्पू को ही दिया।”
यह सुनकर गुड्डू भड़क गया—“नहीं, मैंने देखा, उसने मुस्कुराकर मेरी तरफ भी देखा।”
अब आम से शुरू हुआ विवाद धीरे-धीरे प्रेम के इज़हार तक पहुँचने लगा। गली के लड़कों ने गुप्त प्रतियोगिता रखी—“जो मीनू को सबसे अच्छा आम देगा, वही उसका सच्चा दोस्त कहलाएगा।”
शर्मा जी की दुविधा
उधर शर्मा जी परेशान हो गए। रोज़-रोज़ पेड़ से आम गिरने लगे और बच्चे उनके आँगन के चक्कर काटने लगे। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा—
“अब मुझे पेड़ पर जाली लगवानी पड़ेगी। वरना ये बच्चे तो पूरा बागीचा लूट लेंगे।”
पत्नी ने मुस्कुराकर जवाब दिया—
“छोड़िए जी। अगर बच्चों और मीनू जैसी लड़कियों को खुश होने दीजिए, तो क्या बुरा है? पेड़ भी तो खुशी बाँटने के लिए होता है।”
शर्मा जी चुप हो गए।
महान सभा और निर्णय
आखिरकार गली की संसद फिर बैठी। रहीम काका ने प्रस्ताव रखा—
“पेड़ शर्मा जी का है, लेकिन गिरे हुए आम सबका होंगे। हर बार जब आम गिरेगा, उसे काटकर सबमें बराबर बाँटा जाएगा।”
सबने इस प्रस्ताव को मंजूरी दी। मीनू मुस्कुराई और बोली—
“बहुत अच्छा। अब कोई झगड़ा नहीं। और हाँ, मैं जिस दिन आम काटूँगी, सबसे पहले टुकड़ा उसी को दूँगी जो मेरी मदद करेगा।”
सब लड़कों के दिल फिर धड़क उठे
एपिसोड का अंत
उस रात गली की छतों पर बच्चों ने आम के टुकड़े खाते-खाते चाँद देखा। हवा में खुशबू थी, और हर लड़के के दिल में यह सवाल—
“क्या मीनू का पहला टुकड़ा मुझे मिलेगा?”
पीपल का पेड़ हवा में झूमते हुए मानो कह रहा था—
“ये आम का पेड़ नहीं, प्रेम का पेड़ है। अभी और किस्से गिरने बाकी हैं।”
एपिसोड 7 : बिजली गुल, रेडियो चालू
छोटी गली की सबसे बड़ी समस्या अगर कोई थी, तो वह थी—बिजली। दिन में दो घंटे आती, चार घंटे जाती, कभी-कभी पूरी रात गायब। पर गली के लोग इस मामले में इतने अनुभवी हो चुके थे कि उन्हें बिजली का जाना अब त्यौहार जैसा लगने लगा।
जब भी बिजली जाती, बच्चे चिल्लाते—“ये! अब खेल शुरू!”
औरतें कहतीं—“चलो, अब ठंडी हवा में छत पर बातें करेंगे।”
बुजुर्ग कहते—“वाह! अब ताश खेलने में मज़ा आएगा।”
लेकिन एक रात बिजली गुल होना गली के इतिहास की सबसे मज़ेदार घटना बन गया।
अचानक अंधेरा
वह जुलाई की उमस भरी रात थी। पूरे मोहल्ले में पंखे चल रहे थे, बच्चे टीवी पर कार्टून देख रहे थे, और शर्मा जी रेडियो पर क्रिकेट की कमेंट्री सुन रहे थे। तभी अचानक—“ठप!” पूरी गली अंधेरे में डूब गई।
“अरे! फिर चली गई बिजली,” राधा चाची चिल्लाईं।
बच्चों ने टॉर्च ढूँढी, लेकिन बैटरी खत्म। मिसेज़ वर्मा ने मोमबत्ती जलाई, पर हवा ने उसे बुझा दिया। पूरा मोहल्ला अंधेरे में डूबा था, सिर्फ़ आसमान के तारे चमक रहे थे।
रेडियो का जादू
शर्मा जी, जो हमेशा अपने स्कूटर और आम के पेड़ के लिए मशहूर थे, इस बार हीरो किसी और वजह से बने। उनके पास एक पुराना रेडियो था, जिसे वह रोज़ बड़े गर्व से साफ़ करते।
उन्होंने तुरंत रेडियो निकाला और बैटरी डालकर चालू किया। जैसे ही “श्श्श” की आवाज़ आई, सब लोग चुप हो गए। फिर अचानक संगीत बजा—पुराना फिल्मी गाना, “एक चतुर नार…”
गली में हँसी गूँज उठी। औरतें मुस्कुराने लगीं, बच्चे नाचने लगे।
रेडियो के इर्द-गिर्द सभा
देखते ही देखते पूरा मोहल्ला शर्मा जी के घर के आँगन में इकट्ठा हो गया। रेडियो बीच में रखा गया, चारों तरफ़ लोग बैठ गए। कोई खाट पर, कोई ज़मीन पर, कोई छत से झाँकता हुआ।
रेडियो पर कभी गाना बजता, कभी खबर आती। सब लोग ध्यान से सुनते, मानो यह कोई राष्ट्रीय प्रसारण हो।
रहीम काका बोले—“भाई, टीवी तो आजकल झूठ दिखाता है। पर रेडियो—रेडियो कभी झूठ नहीं बोलता।”
सबने ताली बजाई।
पहली मज़ेदार घटना
रेडियो से अचानक उद्घोषक की आवाज़ आई—
“अब हम आपको सुनवाएँगे ताज़ा मौसम का हाल…”
पर हवा में खरखराहट हुई और उद्घोषक की आवाज़ गड़बड़ा गई। उसने कहा—
“दिल्ली में तेज़ बारिश… मुंबई में धूप… और कोलकाता में बिल्लियाँ बरस रही हैं।”
पूरा मोहल्ला ठहाकों से गूँज उठा।
गुड्डू बोला—“अगर सच में बिल्लियाँ बरसेंगी, तो हमारे बिल्ली सम्मेलन की मीटिंग सीधे आसमान में होगी!”
बच्चे हँस-हँसकर लोटपोट हो गए।
रेडियो पर अनुरोध
थोड़ी देर बाद कार्यक्रम शुरू हुआ—“फरमाइशी गीत।” उद्घोषक बोला—
“यह गाना भेजा है कानपुर के श्रीमती गुप्ता ने, अपने पति के लिए…”
तभी सोनू उछल पड़ा—“अरे, हम भी गाना मँगवाएँ!”
सबने ताली बजाई। लेकिन सवाल था—रेडियो स्टेशन तक संदेश पहुँचेगा कैसे?
पप्पू बोला—“हम भी पत्र लिखेंगे। अगर हमारा पत्र रेडियो पर पढ़ा गया, तो हमारी गली का नाम पूरे देश में आएगा।”
सब लोग उत्साहित हो गए। उसी वक्त तय हुआ कि अगले दिन सब मिलकर स्टेशन को खत लिखेंगे—“छोटी गली, बड़ा प्यार।”
भूत की अफ़वाह
अंधेरे में रेडियो की आवाज़ और भी रहस्यमयी लग रही थी। तभी किसी ने कानाफूसी की—“सुना है, बिजली गुल होने पर गली में भूत घूमते हैं।”
औरतें सिहर गईं, बच्चे और उत्साहित हो गए।
गुड्डू ने शरारत की और पीछे से ‘हुहू’ की आवाज़ निकाली। सब चिल्लाए और भागने लगे। रेडियो तकरीबन गिर गया। शर्मा जी गरजे—
“अरे बदमाशों! ये रेडियो है हमारी जान। गिर गया तो मोहल्ला अंधेरे में गूंगा हो जाएगा।”
रेडियो की परीक्षा
रात के ग्यारह बजे थे। अचानक रेडियो से आवाज़ आई—
“अब आप सुनिए क्रिकेट का लाइव प्रसारण।”
पूरा मोहल्ला चुप। सब लोग धड़कते दिल से सुनने लगे।
कॉमेंट्री चल रही थी—“आखिरी ओवर… भारत को चाहिए सिर्फ़ पाँच रन…”
सब बच्चे उछलने लगे। और जब कमेंट्री आई—“सिक्स!” तो पूरी गली तालियों और नारों से गूँज उठी।
उस पल सब भूल गए कि बिजली गुल है। उन्हें लगा जैसे पूरा स्टेडियम उनकी गली में उतर आया हो।
मीनू और गाना
इसी बीच रेडियो पर एक मीठा गाना बजा—“चाँद फिर निकला, मगर तुम ना आए…”
मीनू, जो खिड़की से झाँक रही थी, मुस्कुरा उठी। पप्पू ने धीरे से सोनू से कहा—
“देखा, यह गाना मीनू के लिए ही बजा है।”
गुड्डू बोला—“नहीं, ये गाना तो मेरे लिए है। मैंने ही सबसे पहले इसे माँगा था।”
बुजुर्गों ने दोनों को डाँटा—“चुप रहो, रेडियो सुनने दो।”
लेकिन सबको अंदर ही अंदर लग रहा था कि रेडियो उनके दिल की बात कह रहा है।
बिजली वापसी
आधी रात के बाद अचानक बल्ब टिमटिमाया और बिजली वापस आ गई। पंखे घूमने लगे, टीवी जल उठा।
पर अब किसी को उसमें मज़ा नहीं आ रहा था। बच्चे बोले—“टीवी में वही पुराना कार्टून, पर रेडियो की बात ही अलग थी।”
औरतें बोलीं—“रेडियो पर गाने ऐसे लगे जैसे खुद हमसे बात कर रहे हों।”
बुजुर्ग बोले—“बिजली आए न आए, अब हम रेडियो से ही काम चलाएँगे।”
शर्मा जी गर्व से मुस्कुराए।
एपिसोड का अंत
उस रात गली के लोगों ने तय किया कि हर रविवार रेडियो सभा होगी। सब लोग आँगन में बैठेंगे, रेडियो बीच में होगा और गाने, खबरें, मज़ाक—सब साथ-साथ सुनेंगे।
पीपल का पेड़ सरसराया, उसकी पत्तियाँ मानो कह रही हों—
“बिजली चाहे जब आए, पर गली की रोशनी अब रेडियो से ही चमकेगी।”
एपिसोड 8 : गली का क्रिकेट वर्ल्ड कप
छोटी गली में खेलकूद की परंपरा बहुत पुरानी थी, लेकिन असली रोमांच तब आया जब बच्चों ने तय किया—“हम भी वर्ल्ड कप खेलेंगे।” अब चाहे दुनिया भर में इंटरनेशनल टीम खेलें, गली वालों के लिए सबसे बड़ा टूर्नामेंट वही था जो उनकी गलियों के बीच हो।
पप्पू, जो गली का नेता और बच्चों का सेनापति था, उसने घोषणा की—
“अबकी बार होगा गली वर्ल्ड कप। हर घर से कम से कम एक खिलाड़ी देगा और टूर्नामेंट पूरा हफ़्ता चलेगा।”
यह सुनते ही गली में उत्साह की लहर दौड़ गई।
टीमें बनीं
सबसे पहले टीमों के नाम रखे गए।
पप्पू की टीम बनी: टंकी टाइगर्स
गुड्डू की टीम बनी: पीपल पैंथर्स
सोनू ने बनाई: आम आर्मी
और रहीम काका के पोते ने बनाई: स्कूटर स्ट्राइकर्स
टीम के नाम सुनकर सब हँस-हँसकर लोटपोट हो गए। लेकिन हर टीम ने तय किया कि वे अपना-अपना झंडा बनाएँगे। बच्चों ने पुराने कपड़े काटकर रंग-बिरंगे झंडे बना दिए।
मैदान की तैयारी
गली इतनी सँकरी थी कि उसमें गाड़ी भी ठीक से नहीं जा सकती थी, लेकिन बच्चों ने उसी को स्टेडियम बना दिया। दोनों किनारों पर ईंटें रखकर विकेट बनाए गए।
गली की एक ओर बिल्लियों का सम्मेलन होता था, अब वहाँ स्कोरबोर्ड टाँगा गया। स्कोर लिखने का काम मीनू ने लिया। उसकी डायरी को आधिकारिक स्कोरबुक माना गया।
पहला मैच
पहले दिन का मैच था—टंकी टाइगर्स बनाम पीपल पैंथर्स।
पप्पू टॉस के लिए सिक्का उछालने ही वाला था कि अचानक हवा के झोंके से सिक्का नाली में जा गिरा। सब बच्चे नाली में झाँकने लगे। अंत में फैसला किया गया कि टॉस पप्पू की मर्जी से होगा।
“बैटिंग हम करेंगे!” पप्पू गरजा।
गुड्डू विरोध करने ही वाला था कि रहीम काका बोले—“लोकतंत्र में बहुमत का आदर करना चाहिए। चूँकि पप्पू के साथ पाँच बच्चे हैं, फैसला सही है।”
खेल शुरू हुआ।
हंगामा और शरारतें
पहली ही गेंद पर पप्पू ने चौका मारा, गेंद सीधा शर्मा जी के स्कूटर से टकराई। स्कूटर का हॉर्न अपने आप बज उठा—“पॉं-पॉं!” पूरा मोहल्ला ठहाकों से गूँज उठा।
दूसरी गेंद पर गुड्डू ने तेज़ बॉलिंग की। गेंद सीधे मिसेज़ वर्मा की खिड़की से टकराकर अंदर चली गई। वहाँ रखा अचार का मटका गिर गया। मिसेज़ वर्मा बाहर आईं और बोलीं—
“अगर एक और गेंद मेरे घर आई, तो मैं तुम्हारा पूरा मैच बंद कर दूँगी।”
बच्चों ने तुरंत नियम बनाया—“जो गेंद घर में जाएगी, वही खिलाड़ी खुद जाकर लाएगा और पाँच रन काटे जाएँगे।”
पहला शतक
पप्पू ने धूमधड़ाके से खेल दिखाया। उसने लगातार चौके-छक्के लगाए। गली में बच्चे चिल्ला रहे थे, “पप्पू-पप्पू!”
लेकिन अचानक बिल्लियों का झुंड मैदान में घुस आया। गेंद बिल्लियों के बीच खो गई। स्कोरबुक में लिखा गया—“१० रन—बिल्ली बोनस।”
शाम तक मैच इतना रोमांचक हुआ कि लोग टीवी पर क्रिकेट भूलकर गली का वर्ल्ड कप देखने लगे।
फाइनल मैच
पूरा हफ़्ता टूर्नामेंट चला। आख़िरकार फाइनल का दिन आया—आम आर्मी बनाम स्कूटर स्ट्राइकर्स।
फाइनल देखने के लिए पूरा मोहल्ला जुट गया। औरतें छत से झाँक रही थीं, बुजुर्ग चारपाइयों पर बैठे थे, बच्चे गली में नारे लगा रहे थे।
सोनू की टीम पहले बैटिंग कर रही थी। उसने बल्ला घुमाया और गेंद उड़ती हुई सीधे आम के पेड़ में जा फँसी।
सब चिल्लाए—“आउट!”
सोनू बोला—“नहीं! गेंद तो अभी पेड़ पर है, जब तक नीचे नहीं गिरेगी, आउट नहीं होगा।”
बहस शुरू हो गई। आखिरकार मीनू ने निर्णय दिया—“नियम यह होगा कि अगर गेंद पेड़ में अटक गई तो बैट्समैन नॉट आउट।”
सब मान गए।
निर्णायक ओवर
मैच आख़िरी ओवर तक खिंच गया। स्कूटर स्ट्राइकर्स को जीतने के लिए ८ रन चाहिए थे। बल्लेबाज़ ने पहला शॉट मारा, गेंद सीधी स्कूटर की सीट पर आ गिरी।
शर्मा जी चिल्लाए—“बस! अब खेल खत्म!”
लेकिन गली की जनता ने नारा लगाया—“खेल जारी रखो!”
अंततः आख़िरी गेंद पर गुड्डू ने छक्का मार दिया। गेंद पीपल के पेड़ के ऊपर से निकलकर बाहर चली गई।
पूरा मोहल्ला खुशी से चिल्लाया—“स्कूटर स्ट्राइकर्स चैंपियन!”
पुरस्कार वितरण
मैच के बाद गली की संसद बैठी। रहीम काका ने विजेता टीम को इनाम दिया—एक बड़ी थाली भरकर गोलगप्पे।
मीनू ने सबका स्कोर पढ़कर सुनाया और बोली—
“आज गली का नाम इतिहास में लिखा जाएगा—पहला गली वर्ल्ड कप।”
बच्चों ने नारे लगाए—
“छोटी गली—बड़ी जीत!”
एपिसोड का अंत
उस शाम गली के लोग हँसी-खुशी गोलगप्पे खाते रहे। रेडियो पर गाने बज रहे थे और सबको लग रहा था जैसे उन्होंने सचमुच वर्ल्ड कप जीत लिया हो।
पीपल का पेड़ हिलते हुए मानो कह रहा था—
“गली का क्रिकेट भी किसी स्टेडियम से कम नहीं। यहाँ हर चौके-छक्के में प्यार छिपा है।”
एपिसोड 9 : बरसाती दिन और छाते की राजनीति
बरसात शुरू होते ही छोटी गली का नक्शा बदल जाता था। गली की सँकरी गलियों में पानी भर जाता, नालियाँ उफान मारने लगतीं, और लोग घर से बाहर निकलते ही छाते का सहारा लेते। लेकिन यहाँ भी राजनीति कम नहीं थी—छाते तक पर।
पहली बरसात
जून की पहली ही बारिश में गली नाले जैसी बन गई। बच्चे कागज़ की नाव बनाकर पानी में बहाने लगे। औरतें छत से बाल्टियों में पानी इकट्ठा करने लगीं। शर्मा जी स्कूटर को बचाने के लिए उस पर प्लास्टिक की चादर डाल रहे थे।
लेकिन असली नज़ारा तब दिखा जब लोग छाते लेकर बाहर निकले। किसी का छाता बड़ा, किसी का छोटा। किसी के छाते पर फूल बने थे, तो किसी पर फिल्मी हीरोइन की तस्वीर।
गली में नज़ारा ऐसा लग रहा था जैसे फैशन शो चल रहा हो।
छाते का टकराव
गली इतनी तंग थी कि जब दो लोग आमने-सामने आते तो उनके छाते आपस में टकरा जाते।
राधा चाची बोलीं—“अरे, जरा संभलकर चलो, मेरा छाता तो बिलकुल नया है।”
मिसेज़ वर्मा बोलीं—“अरे, आपका छाता बड़ा है, पूरा रास्ता घेर लेता है। छोटा छाता रखिए।”
धीरे-धीरे यह छाता-टकराव गली की राजनीति बन गया। लोग गुटों में बँट गए—
बड़ा छाता पार्टी
छोटा छाता दल
बच्चों ने तुरंत दीवार पर लिख दिया—“छाता हमारा अधिकार है!”
संसद की बहस
पीपल के पेड़ के नीचे सभा बुलाई गई।
शर्मा जी बोले—“बड़े छाते से ही असली सुरक्षा है। छोटे छाते से तो आधा शरीर भी नहीं बचता।”
गुड्डू बोला—“लेकिन बड़े छाते से दूसरों को धक्का लगता है। लोकतंत्र में बराबरी ज़रूरी है।”
मीनू ने मुस्कुराकर कहा—“मुझे तो रंग-बिरंगे छाते अच्छे लगते हैं। भले बड़े हों या छोटे।”
अब गली के लड़कों ने तय किया—“जो मीनू को रंगीन छाता देगा, वही हीरो बनेगा।”
छातों की रैली
अगले ही दिन बच्चों ने छातों की रैली निकाली। कोई लाल छाता लेकर नाच रहा था, कोई पीला। सोनू ने तो स्कूटर पर छाता बाँधकर पूरे मोहल्ले में परेड कर दी।
लोगों ने नारे लगाए—
“बड़ा छाता—लंबी उम्र!”
“छोटा छाता—समान अधिकार!”
गली में शोर ऐसा था मानो चुनावी प्रचार हो रहा हो।
पहली दुर्घटना
रैली जोरों पर थी कि अचानक हवा चली और गुड्डू का छाता उल्टा हो गया। बारिश का पानी उसके सिर पर गिरा और सब हँस पड़े।
गुड्डू गुस्से में बोला—“ये सब बड़े छाते वालों की साज़िश है!”
शर्मा जी गरजे—“अरे! इसमें हमारी क्या गलती? हवा ने किया है।”
पर बहस इतनी बढ़ गई कि राधा चाची ने कहा—“अगर छाता-राजनीति ऐसे ही चलती रही तो मोहल्ला बर्बाद हो जाएगा।”
समाधान की खोज
शाम को गली की संसद फिर बैठी। रहीम काका बोले—
“देखो, बरसात में छाता ज़रूरी है। लेकिन झगड़ा करना बेकार। क्यों न सब मिलकर एक बड़ा सामूहिक छाता बनवाएँ?”
सब हैरान—“सामूहिक छाता?”
रहीम काका ने समझाया—
“हाँ। ऐसा बड़ा-सा तिरपाल जिसे बीच में बाँधकर सब लोग नीचे चल सकें। न किसी का बड़ा, न छोटा। सब बराबर।”
बच्चों को यह विचार खूब पसंद आया। उन्होंने अगले दिन मिलकर पुरानी साड़ियों और कपड़ों से बड़ा तिरपाल बना दिया।
सामूहिक छाते का प्रदर्शन
अगले दिन जब बारिश हुई, सब लोग उस तिरपाल के नीचे चलने लगे। न कोई टकराव, न कोई झगड़ा। गली में नज़ारा अजीब-सा था—मानो सब लोग एक ही बड़े छाते के नीचे भाईचारे से चल रहे हों।
बच्चों ने नारा लगाया—
“एक छाता—एक गली!”
मीनू मुस्कुराई और बोली—“वाह! अब मुझे यही छाता सबसे अच्छा लगता है।”
सोनू और गुड्डू ने राहत की साँस ली।
नई समस्या
पर गली की कहानी बिना मोड़ कहाँ पूरी होती है!
अचानक हवा का झोंका आया और सामूहिक छाता फट गया। सब लोग भीग गए। औरतें चिल्लाने लगीं, बच्चे भागने लगे।
शर्मा जी बोले—“देखा! यही होता है जब अनुभवियों की न सुनी जाए। असली सुरक्षा तो मेरे बड़े छाते में ही है।”
गुड्डू बोला—“नहीं! छोटा छाता ही सही है। कम से कम उड़ता नहीं।”
फिर वही झगड़ा।
मीनू का फैसला
अंत में सबने मीनू की ओर देखा। मीनू ने कहा—
“मुझे लगता है, छाते की राजनीति छोड़कर हम सबको मिलकर नालियाँ साफ करनी चाहिए। असली समस्या पानी भरने की है, छाते की नहीं।”
सब लोग चुप हो गए। धीरे-धीरे सबको बात समझ में आई। बच्चों ने अगले ही दिन नालियाँ साफ करने का संकल्प लिया।
एपिसोड का अंत
उस शाम गली के लोग बरसात में भीगते-भीगते हँस रहे थे। छाते टूटे हों या फटे हों, पर गली की एकता बनी रही।
पीपल का पेड़ झूम रहा था, उसकी पत्तियाँ टपकते पानी के साथ कह रही थीं—
“छाता बड़ा हो या छोटा, असली ताकत एकता में है।”
एपिसोड 10 : गली की शादी और ग्रैंड फिनाले
छोटी गली में साल भर झगड़े, राजनीति और मज़ाक चलता रहता था, लेकिन असली रौनक तब आई जब खबर फैली—गली में शादी होने वाली है!
राधा चाची के भांजे की बारात यहीं ठहरने वाली थी। बारात दूर से आने वाली थी और पूरी गली को सजावट का जिम्मा मिला। बच्चों से लेकर बुजुर्ग तक सब खुश थे। सबको लग रहा था कि यह शादी सिर्फ़ एक परिवार की नहीं, पूरी गली की शादी है।
तैयारियों का धूमधड़ाका
सुबह से ही गली में हंगामा था। बच्चे दीवारों पर रंगोली बना रहे थे। औरतें हल्दी और मेहंदी की थालियाँ तैयार कर रही थीं। बुजुर्गों ने पीपल के पेड़ के नीचे एक माइक और लाउडस्पीकर लगवा दिया।
शर्मा जी ने स्कूटर को चमचमाकर दरवाज़े पर खड़ा कर दिया—“बारातियों को रास्ता दिखाने के लिए मेरा स्कूटर ही लाइटहाउस बनेगा।”
मिसेज़ वर्मा बोलीं—“मैंने गुलाबजल की स्प्रे तैयार कर ली है। जैसे ही बाराती आएँगे, मैं छिड़क दूँगी।”
गली ऐसी चमचमाने लगी जैसे किसी मेले का मैदान हो।
बच्चों की योजना
बच्चों ने भी तय कर लिया कि वे शादी को वर्ल्ड कप फाइनल की तरह मनाएँगे। पप्पू ने आदेश दिया—
“हम सब बारात आने पर नाचेंगे और पटाखे फोड़ेंगे। और हाँ, दही-बड़े का ठेला भी लगवाएँगे।”
गुड्डू बोला—“और मिठाई का पहला रसगुल्ला हमें मिलेगा।”
बच्चों की खुशी का ठिकाना नहीं था।
बारात का आगमन
शाम को ढोल-नगाड़ों की आवाज़ आई। बारात गली के मुहाने से दाखिल हुई। घोड़े पर दूल्हा, पीछे नाचते-गाते बाराती, और आसमान में रंग-बिरंगे पटाखे।
गली के बच्चे ढोल की थाप पर उछल-उछलकर नाचने लगे। बुजुर्ग तालियाँ बजा रहे थे। औरतें छत से फूल बरसा रही थीं।
शर्मा जी ने स्कूटर का हॉर्न बजाकर रास्ता दिखाया—“पॉं-पॉं!”
सब लोग हँसने लगे—“ये है गली का रेड कार्पेट।
पहला हंगामा
जैसे ही बाराती बैठे, खाना शुरू हुआ। लेकिन सबसे बड़ा आकर्षण था—रसगुल्ले।
थाली में रसगुल्ले आते ही बच्चे टूट पड़े। देखते-देखते थालियाँ खाली हो गईं। जब बड़े लोग खाने पहुँचे, तो वहाँ सिर्फ़ शरबत बचा था।
मिसेज़ वर्मा चिल्लाईं—“अरे! रसगुल्ले कहाँ गए?”
गुड्डू ने मुँह पोंछते हुए कहा—“बारिश में घुल गए।”
पूरा मोहल्ला हँस पड़ा
संगीत का रंग
फिर बारी आई संगीत की। लाउडस्पीकर पर गाना बजा—“मेहंदी लगा के रखना।”
गली की लड़कियाँ नाचने लगीं। मीनू सबसे आगे थी, और उसकी हर अदा पर लड़कों का दिल धड़कने लगा।
पप्पू बोला—“देखा, मीनू का नाच सबसे सुंदर है। यही हमारी गली की हीरोइन है।”
सोनू ने चिढ़ाते हुए कहा—“हीरोइन तो ठीक है, पर तुम तो बस एक्स्ट्रा हो।”
दोनों फिर झगड़ने लगे। बुजुर्गों ने बीच-बचाव किया—“अरे! शादी है, लड़ाई नहीं।”
बिल्लियों का हमला
जैसे ही रात गहराई, दावत का असली संकट आया। गली की बिल्लियाँ, जो सम्मेलन में दूध और मछली का अधिकार पहले ही पा चुकी थीं, अब शादी के खाने पर टूट पड़ीं।
किसी ने देखा कि एक बिल्ली दही-बड़े की थाली में घुस गई है, तो दूसरी मछली की ग्रेवी चाट रही है। बाराती घबराकर इधर-उधर भागने लगे।
रहीम काका मुस्कुराए—“लो भाई, ये है हमारी गली की असली मेहमाननवाज़ी। यहाँ बिल्लियाँ भी बारातियों के साथ दावत उड़ाती हैं।”
शादी की रस्में
रात बारह बजे शादी की रस्म शुरू हुई। मंडप के चारों तरफ़ गली के लोग बैठे। पंडित मंत्र पढ़ रहे थे, दूल्हा-दुल्हन सात फेरे ले रहे थे।
लेकिन अचानक बिजली चली गई। अंधेरा छा गया। सब लोग घबराए।
तभी शर्मा जी ने फिर अपना रेडियो निकाला। रेडियो की रोशनी और आवाज़ से माहौल सज गया। रेडियो पर वही गाना बज रहा था—“तेरे घर के सामने एक घर बनाऊँगा।”
सब लोग मुस्कुराए और बोले—“वाह! ये तो शादी के लिए ही बजा है।”
ग्रैंड फिनाले
आधी रात को जब शादी पूरी हुई, तो गली तालियों और नारों से गूँज उठी। बच्चों ने आतिशबाज़ी की, औरतों ने ढोलक बजाई, बुजुर्गों ने आशीर्वाद दिया।
मीनू ने सबको रसगुल्ले बाँटे और बोली—
“आज की रात गली की सबसे बड़ी जीत है। हमने मिलकर शादी को त्योहार बना दिया।”
पप्पू गर्व से बोला—“हाँ! हमारी गली छोटी है, पर यहाँ के किस्से बड़े-बड़े हैं।”
एपिसोड का अंत
सुबह होते-होते गली फिर शांत हो गई। लेकिन दीवारों पर लगी झालरें, स्कूटर पर पड़े फूल और हवा में गूँजते ढोल की थाप बता रही थी कि यह शादी गली के इतिहास में दर्ज हो गई है।
पीपल का पेड़ झूम रहा था, उसकी पत्तियाँ कह रही थीं—
“शादी खत्म हुई, पर गली की कहानियाँ हमेशा चलती रहेंगी।”
				
	

	


