अनामिका मिश्रा
भाग 1
गाँव का नाम था चांदपुर—उत्तरप्रदेश के बलिया जिले में बसा एक ऐसा गाँव, जहाँ न तो शहर की चकाचौंध थी, न ही इंटरनेट की तेज़ रफ्तार। लेकिन था तो बस एक चीज़—दिल से जुड़ा अपनापन। वही अपनापन था जो आरती और फरज़ाना की दोस्ती की नींव बना।
आरती थी ज़मींदार के घर की इकलौती बेटी—चमकती साड़ी, पायल की छनक, और आँखों में अनगिनत सपने। दूसरी तरफ फरज़ाना—मदरसे में पढ़ाई करती, अब्बू की छोटी सी दुकान में हाथ बंटाती, चुपचाप मगर गहरी नज़रों वाली लड़की। दोनों का मिलना शायद किसी फिल्मी कहानी की तरह हुआ था, लेकिन दोस्ती इतनी असली थी कि गाँव की औरतें तक कहतीं, “इन दोनों की जोड़ी तो खुदा ने बनाई है।”
एक बरसात की दोपहर थी। आरती स्कूल से लौट रही थी और अचानक पाँव फिसलकर वह कीचड़ में गिर पड़ी। साथ चल रही लड़कियाँ हँसने लगीं, लेकिन फरज़ाना ने बिना कुछ कहे हाथ बढ़ा दिया। आरती ने उसकी आँखों में देखा—ना हँसी, ना मज़ाक, बस एक सादगी से भरी गम्भीरता। उस दिन आरती ने पहली बार फरज़ाना का नाम जाना। और फिर जैसे हर दोपहर, हर शाम का सिलसिला वहीं से शुरू हुआ।
गाँव में दोस्ती को अक्सर जात-पात और धर्म की दीवारों से बाँध दिया जाता है। लेकिन आरती और फरज़ाना की दुनिया में दीवारें नहीं थीं—बस एक पुराना पीपल का पेड़ था, जिसके नीचे वे घंटों बैठकर बातें करतीं। कभी किताबों के बारे में, कभी सपनों के बारे में, कभी उन चीज़ों के बारे में जो वे कह नहीं सकतीं, बस समझती थीं।
आरती को कहानियाँ लिखने का शौक था। वह हमेशा अपनी कॉपी में कुछ न कुछ घसीटती रहती, कभी एक कविता, कभी एक सपना। फरज़ाना को भी पढ़ने का मन था लेकिन वह कहती, “अब्बू कहते हैं, लड़कियाँ ज़्यादा पढ़ें तो सर पे चढ़ जाती हैं।” आरती हँसती और कहती, “तो चल, मेरे साथ छुपके पढ़ना सीख। तू पढ़ेगी, तो तेरे अब्बू को भी फ़ख्र होगा।”
धीरे-धीरे दोनों ने अपने बीच एक ऐसी दुनिया बना ली, जहाँ समाज की नज़रें पहुँच नहीं सकती थीं। आरती अपनी कॉपी फरज़ाना को पढ़कर सुनाती, फरज़ाना बदले में अपने घर की कहानियाँ सुनाती—अब्बू की चाय की दुकान, अम्मी की चूड़ी की खनक, छोटे भाई की शरारतें।
एक दिन, गाँव में मेले की घोषणा हुई। रंग-बिरंगी झूलें, बाजे-गाजे, गुलाब जलेबी की मिठास—गाँव की गलियों में बच्चों की चीखें गूंज उठीं। आरती ने फरज़ाना से कहा, “चल न, इस बार मेला साथ चलेंगे।” फरज़ाना ने हिचकिचाते हुए कहा, “तू जानती है, अम्मी मना करेंगी।” लेकिन आरती ने मुस्कराकर कहा, “मैं खुद बात करूंगी।”
अगले दिन आरती अपनी माँ के साथ फरज़ाना के घर पहुँची। मुस्कान से भरी बातों में एक छोटी सी मंजूरी निकली और पहली बार फरज़ाना ने पायल पहनी—वही आरती की दी हुई चांदी की पायल, जो कभी उसकी माँ की थी। मेले में वे दोनों ऐसे घूम रही थीं जैसे कोई फिल्म चल रही हो—सपनों की, आज़ादी की, दोस्ती की।
लेकिन कहानी में मोड़ तब आया, जब गाँव में नया पंचायत सचिव आया। उसका नाम था विक्रम चौधरी—अक्सर गाँव की लड़कियों की पढ़ाई को लेकर ऊँची बातें करता था लेकिन अंदर से वही पुराने सोच वाला आदमी। जब उसने आरती और फरज़ाना को साथ स्कूल जाते देखा, तो सीधा आरती के बाबूजी से कह दिया, “बहुत गलत संगत है आपकी बेटी की। मुसलमान की लड़की के साथ ऐसे घूमेगी, तो समाज क्या कहेगा?”
आरती के बाबूजी गुस्से में आ गए। उन्होंने आरती को डाँटा, मोबाइल छीन लिया, स्कूल जाना बंद करवा दिया। और फरज़ाना? उसे तो अब्बू ने चाय की दुकान पर बैठने से भी मना कर दिया। दोनों के बीच एक चुप्पी आ गई—कड़वी, भारी और सन्नाटा पैदा करने वाली।
लेकिन चुप्पियाँ हमेशा के लिए नहीं होतीं। एक रात आरती ने चुपके से अपनी डायरी निकाली, और एक खत लिखा—फरज़ाना के नाम। उसने लिखा, “अगर दोस्ती गुनाह है, तो मैं हज़ार बार ये गुनाह करूंगी। तू ही मेरी कहानी है, फरज़ाना। और मैं अपने कहानीकार को खो नहीं सकती।”
अगली सुबह, खत पीपल के पेड़ के नीचे छुपा दिया गया—जहाँ दोनों रोज मिला करती थीं। और फरज़ाना? उसे जैसे किसी ने फिर से जीने की वजह दे दी हो। वह आई, खत पढ़ा, और उस दिन के बाद एक वादा कर लिया—“हम मिलेंगे, पढ़ेंगे, और इस गाँव की सोच बदल देंगे।”
उस पेड़ के नीचे अब फिर से खनकने लगी थी हँसी, बिखरने लगे थे सपने। दोस्ती फिर से ज़िंदा हो उठी थी—चुपचाप, लेकिन पूरी ताक़त से।
भाग 2
पीपल के पेड़ के नीचे बैठी फरज़ाना की आँखों में जैसे उजाला लौट आया था। आरती का खत उसकी मुट्ठी में था और दिल में बगावत की हल्की सी चिंगारी। वह सोच रही थी, “जिस दोस्ती ने मुझे उड़ने की वजह दी, उसे समाज के डर से छोड़ दूँ? नहीं, अब और नहीं।”
उधर आरती ने भी तय कर लिया था कि वह चुप नहीं बैठेगी। अगले दिन, सुबह-सुबह, वह घर के पिछवाड़े से चुपचाप निकलकर सीधी स्कूल चली गई। दो महीने बाद क्लास में बैठना, टीचर की आवाज़ सुनना, और सबसे बढ़कर—फरज़ाना को फिर से देखना—ये सब आरती के लिए किसी सपने से कम नहीं था।
फरज़ाना पहले तो चौंकी, फिर मुस्कराई। नज़रों की वो मुलाकात जैसे दो मौसमों की टकराहट हो—एक तपती दोपहर और एक ठंडी बारिश। क्लास खत्म होते ही दोनों स्कूल के पीछे आम के पेड़ के नीचे जा बैठीं।
“तू पागल हो गई है?” फरज़ाना ने हौले से कहा।
“हाँ, तेरी दोस्ती में पागलपन तो बनता है,” आरती ने जवाब दिया।
दोनों हँस पड़ीं। और हँसी में जो सच्चाई थी, वो पूरे गाँव की सोच से बड़ी थी।
लेकिन ज़िंदगी इतनी आसान कहाँ होती है? उसी शाम को जब आरती घर लौटी, उसकी माँ दरवाज़े पर खड़ी थी—चेहरे पर चिंता और आँखों में आँसू।
“तेरे बाबूजी को पता चल गया है,” उन्होंने फुसफुसाकर कहा। “पंचायत में बात फैल गई है। वो तुझे कल से शहर भेजने की बात कर रहे हैं, मौसी के घर।”
आरती का चेहरा सूख गया। शहर जाना मतलब… सब कुछ छोड़ देना। फरज़ाना, स्कूल, पीपल का पेड़, वो खतों की दुनिया—सब कुछ।
रात को खाना छोड़कर वह छत पर जाकर बैठ गई। चाँदनी फैली थी और हवा में पीपल के पत्तों की सरसराहट। उसके हाथ में एक और खत था—इस बार दो पन्नों का। उसने सोचा, “कल सुबह ये उसे देना है। आख़िरी बार मिलना है। अगर मैं चली गई, तो कम से कम ये तो पता हो उसे—मैंने कोशिश की थी।”
उधर फरज़ाना भी बेचैन थी। अब्बू रोज़ उसके लिए एक रिश्ता देखने की बात करते, अम्मी पर्दे के पीछे से झाँकतीं, और वो सोचती, “कभी-कभी औरतें सिर्फ़ शरीर से नहीं, सपनों से भी बाँध दी जाती हैं।”
अगली सुबह, आरती स्कूल नहीं गई। लेकिन फरज़ाना गई—क्योंकि वो जानती थी कि आरती खत छोड़कर जाएगी। और सच में, वो खत वही पीपल के पेड़ के नीचे रखा था। काँपते हाथों से उसने पढ़ा:
“फरज़ाना,
शायद मैं कल से यहाँ न रहूँ। लेकिन हमारी दोस्ती किसी जगह पर थोड़े ही टिकी है? तू है, मैं हूँ, और हमारी वो छोटी-सी दुनिया है जहाँ कोई पाबंदी नहीं।
मैं शहर जा रही हूँ, लेकिन तू रुके मत। पढ़ना, लड़ना, और वो सब करना जो हम साथ मिलकर करना चाहते थे। एक दिन, हम फिर मिलेंगे। उस दिन बिना किसी डर के तेरी बाँह पकड़ूँगी और कहूँगी—देख, हम जीत गए।
तेरी आरती।”
खत की आख़िरी पंक्ति के बाद फरज़ाना बहुत देर तक कुछ नहीं बोली। फिर उसने आसमान की तरफ देखा और मन ही मन कुछ वादा किया।
शाम होते-होते आरती का सामान बंध चुका था। स्टेशन जाने के लिए जीप बुला ली गई थी। लेकिन ठीक तभी, दरवाज़े पर हंगामा होने लगा।
गाँव की कुछ लड़कियाँ, महिलाएँ, और यहाँ तक कि दो मास्टर साहब भी जमा हो गए। सबका एक ही कहना था, “आरती ने कुछ गलत नहीं किया है। पढ़ाई करना गुनाह नहीं, दोस्ती करना गुनाह नहीं।”
सबसे आगे खड़ी थी—फरज़ाना।
आरती की माँ काँपती आवाज़ में बोलीं, “लेकिन पंचायत… लोग क्या कहेंगे?”
तभी एक औरत आगे आई—शांता दीदी, गाँव की सबसे पुरानी नर्स, जिनके हाथों से सैकड़ों बच्चों ने जन्म लिया।
“हम बहुत कुछ सोचते हैं कि लोग क्या कहेंगे, लेकिन सोचते नहीं कि बेटियाँ क्या बन सकती हैं,” उन्होंने कहा। “आरती और फरज़ाना हम सबकी उम्मीद हैं।”
उस दिन आरती के बाबूजी ने पहली बार चुप रहना चुना। उनकी चुप्पी ही मंज़ूरी बन गई।
जीप बिना किसी सवारी के लौट गई। आरती और फरज़ाना पीपल के पेड़ के नीचे बैठीं, और पहली बार खुलेआम अपनी दोस्ती को स्वीकार किया गया।
अगले दिन, गाँव के स्कूल की दीवार पर एक नया पोस्टर चिपका था—“बालिका शिक्षा अभियान: बेटियाँ भी उड़ सकती हैं।” और उसके नीचे दो नाम—आरती यादव और फरज़ाना अंसारी—छपे थे, बड़े अक्षरों में।
गाँव अब भी वही था, लेकिन सोच बदलने लगी थी।
भाग 3
गाँव चांदपुर की गलियों में अब एक हलचल सी थी। लोगों की फुसफुसाहटों में आरती और फरज़ाना का नाम शामिल हो गया था, लेकिन इस बार निंदनीय स्वर में नहीं—हैरानी और प्रेरणा में। “तुम्हें पता है?” श्यामू हलवाई कहता, “वो आरती बिटिया अब लड़कियों को पढ़ाने में भी लगेगी। फरज़ाना उसके साथ-साथ चल रही है!” गली के नुक्कड़ पर बैठे बूढ़े लाठी टेकते हुए कहते, “अजी, ज़माना बदल रहा है। पहले कहाँ ऐसा देखा कि एक हिंदू लड़की और एक मुसलमान लड़की साथ मिलकर इतना कर जाएं!”
आरती और फरज़ाना, अब पहले की तरह छुप-छुप कर नहीं मिलतीं। वे स्कूल जातीं, बच्चों को पढ़ातीं, और शाम को पीपल के पेड़ के नीचे बैठकर अगले दिन की योजना बनातीं। फरज़ाना अब पर्दा नहीं करती, उसने अपने अब्बू को भी धीरे-धीरे मना लिया था। और आरती के बाबूजी? उन्होंने चुपचाप घर के बाहर एक तख़्ती लगवाई थी: “आरती यादव—बालिका शिक्षा केंद्र।”
पीपल के पेड़ के नीचे एक लकड़ी की बेंच और पुरानी टेबल रखी गई थी। बच्चों की किलकारियों से वह जगह गूंज उठती। कोई हिंदी सीखता, कोई उर्दू, कोई गिनती गुनगुनाता। और दोनों सहेलियाँ बच्चों के बीच उसी तरह चमकतीं जैसे सावन की दो बूँदें सूखी ज़मीन पर।
एक दिन गाँव में तहसील से अधिकारी आए। उन्होंने स्कूल का निरीक्षण किया और बालिका शिक्षा केंद्र के बारे में सुना। उन्होंने फरज़ाना से पूछा, “तुम्हारा सपना क्या है?”
फरज़ाना मुस्कुराकर बोली, “मैं एक दिन ऐसी स्कूल बनाना चाहती हूँ जहाँ धर्म, जात, और लिंग—कुछ भी बच्चों की पढ़ाई के बीच ना आए।”
अधिकारी कुछ क्षण चुप रहे, फिर बोले, “तुम्हारे जैसे सपनों की ही ज़रूरत है इस देश को।”
आरती ने फरज़ाना की ओर देखा। वही लड़की जो कभी मदरसे में चुपचाप बैठती थी, आज तहसील के अफसरों के सामने अपनी बात रख रही थी। दोस्ती का यही तो कमाल है—वो तुम्हें खुद से बड़ा बना देती है।
लेकिन हर उगता सूरज अपने साथ एक बादल भी लाता है।
एक रात गाँव में ज़ोर की आँधी चली। पेड़ उखड़ गए, कुछ कच्चे घर गिर गए, और सबसे बड़ा दुख—बालिका शिक्षा केंद्र की टीन की छत उड़ गई, दीवारें गिर गईं। सुबह जब आरती और फरज़ाना वहाँ पहुँचीं, तो बिखरे कागज़, टूटी तख़्तियाँ और मिट्टी में सनी किताबें देखकर दोनों कुछ पल के लिए सन्न रह गईं।
आरती की आँखों में आँसू थे। “इतनी मेहनत से जो बनाया, वो सब…”
फरज़ाना ने मिट्टी से एक कॉपी उठाई, उस पर बच्चों के अक्षर धुँधले हो गए थे, लेकिन एक लाइन अब भी दिख रही थी—“मैं पढ़ूँगी, मैं बढ़ूँगी।”
“देख,” फरज़ाना ने मुस्कराकर कहा, “ये लाइन अभी भी बची है। जब तक ये अक्षर हैं, हम हार नहीं सकते।”
और दोनों ने फिर से हाथ मिलाया।
गाँव के लोगों ने इस बार साथ दिया। किसी ने लकड़ी दी, किसी ने रंग। और बच्चों ने? वे खुद ईंटें उठाकर लाए, मिट्टी मिलाई, और दीवारों पर लिखा—“हम फिर से शुरू करेंगे।”
चार दिन के भीतर पीपल के पेड़ के नीचे फिर से एक छाँव बनी। इस बार पहले से मजबूत, पहले से प्यारी। स्कूल का नाम अब रखा गया—“छांव शिक्षा निकेतन।” और उद्घाटन करने आईं गाँव की सबसे बुज़ुर्ग महिला—शंता दीदी।
उन्होंने कहा, “ये पेड़ बरसों से खड़ा है। आँधी आई, बारिश हुई, लेकिन ये गिरा नहीं। ये दो बच्चियाँ भी वैसी ही हैं। जब तक ये हैं, हमारे गाँव की बेटियाँ भी झुकेंगी नहीं।”
उद्घाटन के दिन आरती ने सफेद साड़ी पहनी थी, हल्का गुलाबी बॉर्डर। फरज़ाना ने नीली सलवार-कुर्ता पहनी थी, कानों में अम्मी की दी हुई झुमकी। वे दोनों एक-दूसरे की तरफ देखकर मुस्कराईं, जैसे एक लंबी यात्रा को एक मुकाम पर पहुँचा दिया हो।
कार्यक्रम खत्म होने के बाद, जब सब चले गए, दोनों फिर से उसी बेंच पर बैठीं।
“तेरे ख्वाब अब मेरे भी हैं,” आरती ने कहा।
“तेरी हिम्मत अब मेरी भी है,” फरज़ाना ने जवाब दिया।
अचानक, हल्की बारिश शुरू हो गई। बूंदें पेड़ की पत्तियों से टकराकर टपकने लगीं। लेकिन इस बार, बारिश से कोई नहीं भागा। वे दोनों भीगती रहीं—हँसते हुए, आँसुओं के साथ।
क्योंकि इस बार ये आँसू हार के नहीं थे—ये उस दोस्ती की जीत के थे, जिसने समाज की दीवारों को पार कर लिया था।
भाग 4
बरसात की वो शाम, जब छांव शिक्षा निकेतन की नई शुरुआत हुई थी, गाँव के लोगों के दिलों में भी एक बदलाव की बारिश ले आई थी। पीपल का पेड़ अब सिर्फ एक पेड़ नहीं रहा—वह उम्मीद का प्रतीक बन गया था। और आरती और फरज़ाना? वे दो नाम नहीं, बल्कि दो रास्ते थे, जो एक ही मंज़िल की ओर ले जाते थे—एक ऐसा समाज जहाँ लड़की होना बोझ नहीं, गर्व की बात हो।
अगले कुछ हफ्तों में स्कूल की पढ़ाई और मज़बूत हुई। आरती ने शहर से पुरानी किताबें मँगवाईं, फरज़ाना ने अपने जान-पहचान वालों से कुछ लकड़ी की अलमारियाँ जुटाई। अब बच्चों के पास किताबें थीं, स्लेटें थीं, और सबसे जरूरी—हौसला था।
लेकिन जैसे ही चीजें बेहतर होने लगीं, गाँव की एक पुरानी सोच फिर सिर उठाने लगी। कुछ लोगों को यह बात खटकने लगी कि दो लड़कियाँ गाँव की लड़कियों को इतना सिखा रही हैं। “लड़कों का क्या?” पान की दुकान पर बैठे मुरली चाचा ने कहा, “अब तो लगता है गाँव की लड़कियाँ ही प्रधान बन जाएँगी!” और सब हँसने लगे।
एक दिन, गाँव के मंदिर में बैठक बुलाई गई। बहाना कुछ और था, मगर चर्चा का असली विषय आरती और फरज़ाना ही थीं। “इनकी वजह से हमारे घर की लड़कियाँ अब सवाल करने लगी हैं,” एक बुज़ुर्ग ने कहा। “पढ़ाई ठीक है, लेकिन ये दोस्ती… ये तो गाँव की मर्यादा तोड़ रही है।”
वहीं खड़ी आरती की माँ ने धीरे से कहा, “मर्यादा अगर लड़कियों के सपनों को तोड़े, तो शायद उसे भी बदलने की ज़रूरत है।”
पूरा मंदिर चुप हो गया।
इधर, आरती और फरज़ाना इस सब से बेखबर अपने अगले कार्यक्रम की तैयारी में लगी थीं। वे एक ‘बेटी उत्सव’ मनाना चाहती थीं—एक ऐसा दिन जहाँ गाँव की हर लड़की मंच पर आकर गा सके, बोल सके, या बस खड़ी होकर कह सके कि वह क्या बनना चाहती है।
उत्सव की तैयारियाँ जोरों पर थीं। पीपल के पेड़ के नीचे झंडियाँ सजाई गईं, बच्चों ने रंगोली बनाई, और फरज़ाना की अम्मी ने खास तौर पर मीठी सेवइयाँ बनाई। गाँव की लड़कियाँ—जो अब तक पर्दे के पीछे छिपकर सपने देखा करती थीं—अब रंगीन चुन्नियाँ ओढ़कर मंच पर खड़ी हो रही थीं।
कार्यक्रम की शुरुआत हुई, और सबसे पहले बोलने आई नौ साल की चाँदनी। उसने कहा, “मैं बड़ी होकर डॉक्टर बनना चाहती हूँ, क्योंकि मेरी अम्मा को दवाई के लिए शहर जाना पड़ता है।” फिर आई मीनू, फिर रेशमा, फिर संजना… और एक-एक करके पूरा मंच लड़कियों की आवाज़ों से भर गया।
लेकिन तभी, गाँव के प्रधानजी मंच पर आ गए। उनके पीछे दो-तीन पंचायत सदस्य भी थे। उन्होंने माइक लिया और कहा, “इस कार्यक्रम की कोई अनुमति नहीं ली गई है। ये परंपराओं के खिलाफ है। लड़कियाँ ऐसे खुले में मंच पर बोलेंगी, तो संस्कार कैसे रहेंगे?”
आरती आगे बढ़ी। “संस्कार क्या सिर्फ चुप रहने से आते हैं, प्रधानजी?”
पूरा मैदान चुप।
फरज़ाना बोली, “अगर लड़कियाँ अपने डर से लड़ना सीखें, तो क्या ये गलत है? हम नाचने-गाने नहीं, अपने हक की बात कर रहे हैं।”
प्रधानजी कुछ कहने ही वाले थे कि भीड़ में से शंता दीदी खड़ी हो गईं। “जब मैं छोटी थी, तब भी यही कहा गया था—लड़की चुप रहे, तो अच्छा। लेकिन मैंने कभी चुप रहना नहीं सीखा, और आज भी नहीं रहूँगी। इन लड़कियों को बोलने दीजिए। यही हमारे गाँव की असली पहचान हैं।”
कुछ पलों की चुप्पी के बाद भीड़ से तालियाँ बजने लगीं। बच्चों ने फिर से गाना शुरू कर दिया, और प्रधानजी को चुपचाप मंच छोड़कर जाना पड़ा।
उस शाम, जब सब लोग चले गए, आरती और फरज़ाना मंच पर बैठीं, थकी हुईं लेकिन मुस्करातीं। हवा में अब भी मिठाई की खुशबू थी, बच्चों की हँसी थी, और उस दोस्ती की गर्माहट थी जो हर तूफान से निकलकर और मजबूत हुई थी।
आरती बोली, “आज मुझे लगा जैसे हम सिर्फ पढ़ा नहीं रहे, हम सपनों को जीना सिखा रहे हैं।”
फरज़ाना ने कहा, “और वो सपना, जो दो लड़कियों ने मिलकर देखा था, अब पूरे गाँव का सपना बन गया है।”
चाँदनी रात में, पीपल का पेड़ झूमता रहा, जैसे वह भी कह रहा हो—हाँ, ये दोस्ती अब किसी भी आँधी से नहीं डरेगी।
भाग 5
उस रात चांदपुर की गलियों में खामोशी थी, लेकिन दिलों में एक हलचल। ‘बेटी उत्सव’ का असर अब सिर्फ बच्चों तक सीमित नहीं रहा था। आरती और फरज़ाना की दोस्ती अब धीरे-धीरे गाँव की महिलाओं के बीच भी चर्चा का विषय बन गई थी। कई अम्माएँ, जो पहले अपनी बेटियों को बाहर भेजने से डरती थीं, अब खुद स्कूल तक साथ छोड़ने आने लगीं। वे अपने झिझक भरे सवालों के साथ आतीं—“मेरी बच्ची को भी पढ़ा लोगी?” और हर बार आरती मुस्करा कर कहती, “यहाँ हर बच्ची का स्वागत है।”
फरज़ाना ने अब बच्चों को कहानियाँ सुनाना शुरू किया था—परियों की नहीं, बल्कि गाँव की सच्ची कहानियाँ। जिनमें संघर्ष था, साहस था, और सबसे अहम—बदलाव की ललक थी। उसकी आवाज़ में अब पहले से ज़्यादा आत्मविश्वास था। वो वही लड़की थी जो एक वक्त में अब्बू की दुकान पर चुपचाप बैठती थी, और आज गाँव की लड़कियों को मंच पर खड़ा होने का साहस सिखा रही थी।
एक दिन, स्कूल में एक नई लड़की आई—नाम था गुलिस्ताँ। छत्तीसगढ़ से आई थी, उसकी माँ चांदपुर के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में नर्स बनकर आई थीं। गुलिस्ताँ आरती और फरज़ाना को देखती रहती—कुछ बोलती नहीं, लेकिन उसकी आँखें बहुत कुछ कहतीं।
तीसरे दिन आरती ने उसे पास बुलाया और कहा, “तुम्हें क्या पसंद है?”
गुलिस्ताँ ने धीमे से कहा, “पेंटिंग।”
फरज़ाना ने कहा, “तो कल से तुम स्कूल की दीवारों को रंगो। हमारी दुनिया को अपने रंगों में भर दो।”
गुलिस्ताँ की आँखें चमक उठीं। अगले दिन से दीवारों पर फूल खिले, किताबें बनीं, और एक बहुत ही सुंदर चित्र बना—जिसमें दो लड़कियाँ पीपल के पेड़ के नीचे बैठी थीं, हाथ में किताबें और मुस्कानें।
गुलिस्ताँ का चित्र देखकर आरती की आँखें नम हो गईं। “हम बस पढ़ा नहीं रहे हैं, हम लोगों के भीतर सपनों की लौ जला रहे हैं।”
उधर, गाँव के कुछ लोग अब भी बदलाव से चिढ़े हुए थे। खासकर वे, जो वर्षों से अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते आए थे। उनमें से एक था भूपेन्द्र सिंह—पूर्व सरपंच का बेटा, जो खुद को आज भी गाँव का मालिक समझता था।
एक दिन वह स्कूल के पास आया और कुछ लड़कियों को तंग करने लगा। कहने लगा, “लड़कियाँ अब स्कूल में नहीं, खेत में अच्छी लगती हैं। तुम्हारी किताबें जलाकर देखो, कितनी आग लगती है।”
आरती ने ये सुना, और सीधा उसके पास गई।
“तुम्हारी सोच ही वो घास है जिसे जलाना चाहिए,” उसने कहा।
भूपेन्द्र हँसने लगा, “देखो ज़रा, लड़की मुझे उपदेश दे रही है!”
तभी भीड़ में से फरज़ाना सामने आई। “तुम जिस आग की बात करते हो, उसी से हम उजाला कर रहे हैं।”
लड़कियाँ डरने की बजाय एक साथ उसके सामने खड़ी हो गईं। और जब गाँव के कुछ बुज़ुर्ग भी सामने आए और बोले, “अब डराने वाले नहीं, सिखाने वाले गाँव में रहेंगे,” तब भूपेन्द्र को उल्टे पाँव लौटना पड़ा।
उस रात आरती और फरज़ाना छत पर बैठी थीं, चुपचाप। हवा में गुनगुनी ठंडक थी।
“कभी सोचती थी,” आरती बोली, “कि तू अगर उस दिन मेरा हाथ नहीं पकड़ती, तो क्या होता?”
फरज़ाना हँसी, “तू शायद कीचड़ में गिरकर रोती, और मैं दूर खड़ी देखती।”
“और आज?” आरती ने पूछा।
“आज अगर तू गिरती है, तो मैं तुझे खींचकर फिर खड़ा करूँगी। और अगर मैं गिरूं, तो तू मुझे हँसाकर खड़ा करेगी।”
दोनों मुस्कराईं।
कुछ देर बाद, गाँव के मंदिर में घंटी बजी। आरती की माँ छत पर आईं और बोलीं, “बेटा, पंचायत से चिट्ठी आई है। तहसील से लोग फिर से आ रहे हैं। इस बार तुम दोनों को सम्मानित करने के लिए।”
आरती और फरज़ाना एक-दूसरे की ओर देखने लगीं।
“तो क्या अब हम सिर्फ दोस्त नहीं, बदलाव की कहानी बन गए?” आरती ने धीरे से कहा।
फरज़ाना ने मुस्कराकर जवाब दिया, “हमेशा से थे। बस अब लोग सुनने लगे हैं।”
वो रात पीपल के पेड़ के नीचे दीये जलाकर बिताई गई। गाँव की लड़कियाँ हाथों में दीप लेकर आईं और कहा, “आपने हमें नाम दिया है, अब हम आपको उम्मीद देंगे।”
और वहीं बैठी दो सहेलियाँ—आरती और फरज़ाना—अपने बचपन की मुस्कान के साथ, अपनी जवानी के ख्वाबों को थामे बैठी रहीं।
भाग 6
गाँव के उस शाम में, जब पीपल के पेड़ के नीचे लड़कियाँ दीप जला रही थीं, आरती और फरज़ाना की आँखों में कुछ ऐसा चमक रहा था जो सिर्फ़ साजिशों या संघर्ष से नहीं आया था—वो था विश्वास। अपने भीतर के उजाले पर, अपने रिश्ते की नींव पर, और उस भविष्य पर जो वे खुद गढ़ रही थीं। अगले दिन तहसील से जो अफसर आने वाले थे, उनका इंतज़ार अब उत्साह से हो रहा था, डर से नहीं।
सुबह की चाय के साथ ही पूरे गाँव में एक अलग गहमा-गहमी थी। स्कूल के बच्चे रिबन बाँध रहे थे, गुलिस्ताँ दीवारों पर आखिरी ब्रश फेर रही थी, और आरती—फरज़ाना मिलकर एक छोटी सी रंगीन मंच तैयार कर रही थीं जहाँ उन्हें सम्मानित किया जाना था। गाँव के बड़े-बूढ़े भी अब धीरे-धीरे आकर बैठने लगे थे—कुछ अपने जिज्ञासा से, तो कुछ अपनी ज़िद छोड़ने की कोशिश में।
करीब दस बजे, एक सफेद सरकारी जीप गाँव में घुसी। धूल उड़ती रही लेकिन उसकी आड़ में कुछ बहुत चमक रहा था—काँधों पर उम्मीद, आँखों में उद्देश्य। अफसर का नाम था वैशाली सिंह—तेज़ नजरों वाली, साफ़ बोलने वाली, और सबसे खास, महिला।
“कौन हैं आरती यादव और फरज़ाना अंसारी?” उन्होंने उतरते ही पूछा।
आरती और फरज़ाना ने हाथ उठाया और आगे आईं। उनके कदमों में ना घबराहट थी, ना संकोच। जैसे दो पंख किसी आंधी से नहीं डरते।
वैशाली मैडम ने मंच पर पहुँचते ही माइक संभाला।
“मैं कई गाँवों में गई हूँ, शिक्षा अभियान के नाम पर सिर्फ़ फाइलें भरी देखीं। लेकिन यहाँ? यहाँ मैंने सपनों को पनपते देखा है। दो लड़कियाँ, जो खुद के लिए नहीं, सबके लिए खड़ी हुईं—इन्हें सलाम।”
तालियों की गड़गड़ाहट के बीच गुलिस्ताँ मंच पर आई और आरती-फरज़ाना को खुद अपने हाथों से रंगीन माला पहनाई। गाँव की उस लड़की ने, जो कभी बोलती भी नहीं थी, आज अपने आदर्शों को सम्मानित किया।
सम्मान समारोह के बाद वैशाली मैडम ने आरती से पूछा, “तुम अब आगे क्या करना चाहती हो?”
आरती ने कहा, “मैं चांदपुर को एक ऐसा मॉडल गाँव बनाना चाहती हूँ, जहाँ हर बच्चा, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, या वर्ग का हो, एक ही पाठशाला में पढ़े।”
फरज़ाना ने जोड़ा, “और हर लड़की को इतना मजबूत बनाना चाहती हूँ कि उसे किसी दीवार के पीछे छुपकर सपने न देखना पड़े।”
वैशाली ने मुस्कराकर कहा, “तुम दोनों को जिला मुख्यालय की तरफ से एक स्पेशल ट्रेनिंग प्रोग्राम में बुलाया जाएगा। तुम शिक्षा की नई पीढ़ी बन सकती हो।”
गाँव में जैसे दीयों से रोशनी नहीं, उम्मीद की किरणें फैलने लगीं। उसी शाम, आरती के बाबूजी ने अपने पुराने दरवाजे पर एक नया बोर्ड लगवाया—“बालिका शिक्षा केंद्र संचालक: आरती यादव व फरज़ाना अंसारी।” वो दिन एक इतिहास बन गया।
लेकिन कहानियाँ जब भी ऊँचाई पर पहुँचती हैं, तब कोई न कोई परछाईं उनका पीछा करती है।
कुछ दिनों बाद, जब आरती अपने घर में अकेली थी, उसे एक गुमनाम पत्र मिला। उसमें लिखा था—“बहुत उड़ लीं तुम दोनों। अब उतरने की बारी है। एक हादसा ही काफी है सब खत्म करने के लिए।” कोई नाम नहीं, बस नीचे लिखा था—“गाँव की असली मर्यादा के रक्षक।”
आरती के चेहरे का रंग उड़ गया, लेकिन उसने किसी को कुछ नहीं बताया। सिर्फ़ वह पत्र छुपाकर अपनी डायरी में रख लिया और खुद से कहा, “हम डर के लिए नहीं, लड़ाई के लिए जिए हैं।”
इसी बीच, स्कूल में कुछ अजीब घटनाएँ होने लगीं। कक्षा में ताले टूटे मिले, किताबें फटी हुई, और एक बार तो दीवार पर काले अक्षरों में लिखा था—“अब बहुत हो गया।”
फरज़ाना ने आरती से कहा, “तू बता क्यों नहीं रही कुछ? तेरे चेहरे पर वो बात नहीं रही जो पहले थी।”
आरती चुप रही, फिर देर रात उसे पत्र दिखाया। फरज़ाना ने पढ़ा, और उसका चेहरा भी सख्त हो गया।
“ये डराने की कोशिश है, और अगर हम डर गए, तो सारी लड़कियाँ फिर से छुप जाएँगी।”
अगली सुबह, आरती और फरज़ाना सीधे पुलिस चौकी गईं। उन्होंने सबूत सौंपा, और लिखा गया एक शिकायती पत्र। अफसर ने पहले टालने की कोशिश की, पर वैशाली मैडम की सिफारिश का असर था। मामला दर्ज हुआ।
वापस लौटते वक्त आरती ने कहा, “अगर डरने लगी, तो ये दुनिया हमसे सब कुछ छीन लेगी।”
फरज़ाना ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा, “तो चल, डर को पीछे छोड़, उम्मीद के लिए चलें।”
और वे चलीं—फिर से उसी पीपल के पेड़ की ओर, जहाँ बच्चों ने दीवार पर नया वाक्य लिखा था—
“डर के आगे दोस्ती है, और दोस्ती के आगे बदलाव।”
भाग 7
गाँव की सुबह अब पहले जैसी नहीं रही थी। चांदपुर के लोग अब हर रोज़ कुछ नया देखने को तैयार रहते थे—कभी दीवारों पर बच्चों की चित्रकारी, कभी लड़कियों की टोली जो हाथ में किताबें लेकर खेतों के रास्ते स्कूल जा रही हैं। लेकिन इस उजाले के बीच वह स्याही की एक रेखा भी मौजूद थी—जो आरती और फरज़ाना को डराने की कोशिश में लगी हुई थी। पर अब वे लड़कियाँ नहीं थीं जो डर जाएँ।
पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने के बाद, गाँव के कुछ लोगों की आँखों में नया विश्वास आ गया था। लोगों ने देखा कि अगर कोई अन्याय करे, तो उसका जवाब दिया जा सकता है। आरती और फरज़ाना अब न केवल शिक्षा की प्रेरणा थीं, बल्कि साहस की भी।
उधर, वैशाली मैडम ने अपने स्तर से डीएम को सूचना दी और चांदपुर में ‘महिला शिक्षा सुरक्षा योजना’ के अंतर्गत स्कूल को विशेष संरक्षण देने का आदेश निकलवाया। दो सिविल डिफेन्स वालंटियर हर सुबह-शाम स्कूल के आसपास तैनात रहने लगे। इससे न सिर्फ़ आरती-फरज़ाना को, बल्कि पूरे गाँव को आश्वासन मिला।
इस बीच गुलिस्ताँ ने एक खास बात कही।
“दीदी, जब हम पढ़ते हैं, तो जैसे खुद से बात करते हैं। पहले मैं डरती थी बोलने से, अब डरती हूँ चुप रहने से।”
आरती ने मुस्कराकर कहा, “बस यही तो जीत है। जो डर हमें रोकता है, जब वही डर हमारे आगे झुक जाए, तब समझो हम सही रास्ते पर हैं।”
लेकिन इसी समय एक ऐसी घटना हुई जिसने पूरी कहानी को एक नया मोड़ दिया।
एक रात अचानक गुलिस्ताँ के घर पर पत्थर फेंके गए। काँच टूट गया, उसकी माँ को मामूली चोटें आईं, और दरवाज़े पर लाल रंग से लिखा था—“बाहर से आई लड़कियाँ हमारी बेटियों को बिगाड़ेंगी नहीं।”
फरज़ाना और आरती भागते हुए वहाँ पहुँचीं। गुलिस्ताँ की माँ काँप रही थीं, गुलिस्ताँ कोने में सिमटी हुई थी। आरती ने उसे गले लगाकर कहा, “तू डरे मत। जो तू कर रही है, वह सबसे ज़रूरी है।”
उस रात उन्होंने गाँव की महिलाओं की बैठक बुलाई। पहले तो कुछ महिलाएँ संकोच में थीं, लेकिन फिर जब एक के बाद एक बोलने लगीं, तो जैसे एक ज्वालामुखी फूट पड़ा।
“हमारी बेटियाँ भी डॉक्टर बन सकती हैं!”
“अब छुपाकर नहीं पढ़ाएँगे!”
“जो डराएगा, हम सब मिलकर उसके सामने खड़ी होंगी!”
आरती ने सबको देखा—जैसे अपनी माँ को भी पहली बार एक योद्धा के रूप में देखा।
अगले दिन, गाँव की महिलाओं ने मिलकर पीपल के पेड़ के पास एक बोर्ड लगाया:
“यह स्कूल अब सिर्फ़ एक संस्था नहीं, हमारी आवाज़ है।”
उस दिन के बाद से गुलिस्ताँ भी पहले से ज़्यादा निडर हो गई। उसने चित्रों में अब सिर्फ फूल नहीं, लड़कियाँ भी बनानी शुरू कर दीं—कभी किताब लिए हुए, कभी मंच पर खड़ी, कभी आकाश की ओर उँगली दिखाती।
इसी दौरान चांदपुर में जिला स्तरीय कार्यक्रम की घोषणा हुई। विषय था—”नारी शिक्षा, नारी सुरक्षा” और आयोजकों ने आरती और फरज़ाना को मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया। यह उनके लिए पहला मौका था जब उन्हें अपने गाँव से बाहर, बड़ी सभा में बोलने का मौका मिल रहा था।
कार्यक्रम के दिन वे दोनों स्कूल यूनिफॉर्म जैसे ही सलवार-कुर्ता में पहुँचीं। मंच पर पहले कई अधिकारी बोले, फिर मंच संचालक ने कहा—“अब हम बुलाना चाहेंगे वो दो नाम जो आज सिर्फ़ नाम नहीं, बदलाव का प्रतीक बन चुके हैं—आरती यादव और फरज़ाना अंसारी।”
तालियों की गूंज के बीच वे मंच पर पहुँचीं।
आरती ने माइक सँभालते हुए कहा, “मुझे याद है, जब पहली बार मैं स्कूल से लौटते वक़्त कीचड़ में गिरी थी, तब फरज़ाना ने मुझे चुपचाप हाथ बढ़ाकर उठाया था। वही हाथ अब पूरे गाँव को उठाने में साथ दे रहा है।”
फरज़ाना ने आगे कहा, “हमारी दोस्ती वो छाँव है जो पीपल के पेड़ से शुरू हुई और अब हर लड़की के सपनों पर फैली है। हमें सिर्फ़ पढ़ाई नहीं सिखानी है, बल्कि वो आत्मविश्वास देना है जो हर लड़की को यह यकीन दिलाए—मैं कर सकती हूँ।”
पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा।
कार्यक्रम के बाद एक महिला अधिकारी ने आकर कहा, “तुम दोनों को राज्य स्तरीय ‘नारी शिक्षा सम्मान’ के लिए नामांकित किया गया है। अगर सब ठीक रहा, तो तुम लखनऊ बुलाओ जाओगी।”
फरज़ाना ने आरती की ओर देखा—आँखों में पानी था, लेकिन वह ख़ुशी का था। आरती ने उसकी हथेली थामकर कहा, “हम लखनऊ नहीं, अब देशभर जाएँगे। जहाँ तक यह छाँव पहुँचे, वहाँ तक हमारी दोस्ती की रोशनी भी पहुँचेगी।”
रात को गाँव लौटते समय रास्ता वही था, लेकिन मंज़िल कुछ और लग रही थी। पीपल के पेड़ के नीचे पहुँचते ही बच्चों ने दौड़कर उन्हें घेर लिया। गुलिस्ताँ आगे आई और कहा, “दीदी, क्या अब मैं भी एक दिन मंच पर बोल सकती हूँ?”
आरती झुककर बोली, “बोलना ही नहीं, तू एक दिन लोगों को सिखाएगी भी।”
फरज़ाना ने आसमान की ओर देखा। तारे आज और चमकदार लग रहे थे। जैसे दोस्ती, साहस और सपनों का समंदर उसी आसमान से उतर आया हो।
भाग 8
गाँव चांदपुर की हवा अब बदली-बदली सी लगने लगी थी। हर सुबह जब सूरज निकलता, तो उसके साथ लड़कियों की किताबें, हँसी और उम्मीदें भी चहकतीं। एक ज़माना था जब लोग कहते थे—”लड़कियाँ चुपचाप घर में रहें, उनकी ज़िंदगी चौखट के अंदर ही होती है,” लेकिन अब वही लोग अपनी बेटियों को हाथ पकड़कर स्कूल लाने लगे थे। आरती और फरज़ाना ने सिर्फ़ शिक्षा नहीं दी थी, उन्होंने गाँव के दिल को पढ़ना सिखाया था।
लखनऊ से अब बुलावा आ चुका था। राज्य सरकार की तरफ से ‘नारी शिक्षा सम्मान समारोह’ में उन्हें आमंत्रित किया गया था। आरती के घर में हलचल मची हुई थी—माँ उनकी साड़ी प्रेस कर रही थीं, बाबूजी आरती का लिखा भाषण बार-बार पढ़ रहे थे। फरज़ाना के घर में भी रौनक थी—अम्मी ने नई चूड़ियाँ ला दीं, अब्बू ने अपनी पुरानी घड़ी फरज़ाना की कलाई पर बाँध दी।
लेकिन इस चमक के बीच एक और कोना था—जहाँ अंधेरा अब भी बाकी था।
गाँव में कुछ लोग अब भी उनकी सफलता से चिढ़े हुए थे। भूपेन्द्र और उसके कुछ साथी, जो पहले स्कूल को नुकसान पहुँचाने की कोशिश कर चुके थे, अब चुपचाप कोई और साजिश रच रहे थे।
“अगर ये लड़कियाँ बाहर जाकर गाँव का नाम चमका देंगी, तो हमारा क्या?” भूपेन्द्र ने कहा। “हमारा रुतबा तो मिट्टी में मिल जाएगा।”
एक रात, लखनऊ जाने से ठीक एक दिन पहले, स्कूल के अंदर आग लग गई। टीन की छत जल गई, अलमारियों की किताबें राख हो गईं, और दीवार पर कोयले से लिखा गया—”तुम जितना उड़ोगी, हम उतना गिराएंगे।”
सुबह जब आरती और फरज़ाना पहुँचीं, तो सामने जो मंजर था, उसने उनके पैरों को एक पल को जड़ बना दिया। दीवारें काली हो चुकी थीं, रंगीन चित्र राख हो गए थे, और गुलिस्ताँ एक कोने में बैठी सिसक रही थी। उसके बनाए हुए सारे चित्र, सपने की तरह जल चुके थे।
आरती ने उसे गले से लगाया और कहा, “जिसने आग लगाई है, उसने बस कागज़ जलाए हैं, हमारी हिम्मत नहीं।”
गाँव के लोग भी धीरे-धीरे इकट्ठा हो गए। इस बार सिर्फ़ तमाशा देखने नहीं, कुछ कहने भी। शंता दीदी आगे आईं और बोलीं, “अगर हर बार जब दीया जलाओ, कोई उसे बुझा दे, तो क्या हम दीये जलाना बंद कर देंगे?”
सबकी आँखों में आँसू थे, लेकिन साथ ही एक जिद भी।
उस दोपहर, गाँव के पुरुष, महिलाएँ और बच्चे सब मिलकर स्कूल की सफाई करने लगे। कुछ ने बाल्टी में पानी भरा, कुछ ने झाड़ू उठाया, कुछ ने दीवारों से राख हटाई। पीपल के पेड़ के नीचे आरती और फरज़ाना ने एक चारपाई बिछा दी और बच्चों को फिर से बिठाकर पढ़ाना शुरू कर दिया।
“लखनऊ जाएँ या न जाएँ,” फरज़ाना ने कहा, “हमारा असली सम्मान यही है—ये प्यार, ये समर्थन।”
लेकिन लखनऊ का बुलावा अब मजबूती बन चुका था। वैशाली मैडम ने सीधे आकर कहा, “तुम दोनों को जाना ही होगा। तुम्हारी कहानी, तुम्हारी लड़ाई, अब औरों तक पहुँचना ज़रूरी है।”
आरती की माँ ने हाथ पकड़कर कहा, “बेटा, ये गाँव अब तुम्हें रोकने के लिए नहीं, दुआ देने के लिए खड़ा है।”
अगले दिन सुबह, बस रवाना हुई। बस में आरती और फरज़ाना की आँखें बार-बार पीछे गाँव की ओर घूम जाती थीं। पीपल का पेड़, स्कूल की जली दीवार, गुलिस्ताँ की मुस्कान, माँ की आँखें—सब कुछ उन आँखों में जैसे उतरता जा रहा था।
लखनऊ पहुँचते ही उन्हें एक बड़े गेस्ट हाउस में ठहराया गया। वहाँ देशभर से और भी लड़कियाँ आई थीं—किसी ने विज्ञान में कुछ नया किया था, किसी ने खेलों में परचम लहराया था। लेकिन आरती और फरज़ाना की कहानी सबसे अलग थी—क्योंकि ये कहानी सिर्फ़ दो लड़कियों की नहीं थी, ये गाँव, समाज और सोच की कहानी थी।
समारोह में जब उनके नाम पुकारे गए, तो वे मंच पर पहुँचीं—एक ने गुलाबी सलवार-कुर्ता पहना था, दूसरी ने हल्का पीला। दोनों ने माथे पर छोटी बिंदी और आँखों में आत्मविश्वास।
आरती ने माइक उठाया, “हम यहाँ इसलिए नहीं कि हमने कुछ बड़ा किया, बल्कि इसलिए कि हमने चुप नहीं रहना सीखा। मेरी दोस्त फरज़ाना ने जब पहली बार मुझे कीचड़ से उठाया, तब मैं समझ गई कि सच्ची दोस्ती सिर्फ़ साथ चलने का नाम नहीं, बल्कि गिरने पर उठाने का नाम है।”
फरज़ाना ने कहा, “हमें बार-बार गिराया गया, लेकिन हर बार हमारी दोस्ती ने हमें सँभाला। हमें जलाया गया, लेकिन हमारी लड़कियों की आँखों की रौशनी उस आग से ज़्यादा तेज़ थी।”
तालियों की गूँज इतनी थी कि लगता था कोई क्रांति गूँज रही हो।
उस दिन उन्हें पुरस्कार मिला—एक चमचमाती ट्रॉफी, शॉल और एक किताबों से भरा ट्रंक। लेकिन उनके लिए असली इनाम था मंच से उतरते समय मिलने वाले उन सैकड़ों हाथों का स्पर्श, जो कहना चाहते थे—”तुमने हमें भी बोलना सिखाया।”
रात को होटल की छत पर आरती और फरज़ाना बैठीं, पास में ट्रॉफी और किताबों की बोरियाँ। आरती ने कहा, “हम अब वापस जाएँगे, और फिर से शुरू करेंगे।”
फरज़ाना ने कहा, “इस बार राख से ही नया फूल उगाएँगे।”
और हवा में उस रात, कहीं दूर से एक मीठा संगीत बजता रहा—शायद पीपल की शाख से, शायद दिलों की छांव से।
भाग 9
लखनऊ से लौटते समय बस की खिड़की से झांकती आरती की आँखों में गाँव का हर चेहरा घूम रहा था। गुलिस्ताँ की मुस्कान, अम्मी की चूड़ियों की खनक, पीपल के पत्तों की सरसराहट—सब जैसे इंतज़ार कर रहे थे उनकी वापसी का। ट्रॉफी उनकी गोद में थी, लेकिन उससे बड़ी बात थी वो गर्व, जो उनके साथ-साथ अब गाँव में लौटने वाला था।
फरज़ाना ने हल्के से आरती की ओर देखा। “तू थकी लग रही है।”
आरती मुस्कराई, “थकावट नहीं है, बस दिल भारी है। लगता है, अब और जिम्मेदारी आ गई है।”
“हमने जब पहली बार बच्चों को पढ़ाना शुरू किया था, तब भी दिल भारी था,” फरज़ाना बोली। “अब तो गाँव हमारा इंतज़ार कर रहा है। और इस बार, सिर्फ़ हम दो नहीं होंगे—पूरे गाँव की औरतें, लड़कियाँ, बच्चे हमारे साथ होंगे।”
बस जैसे ही चांदपुर के स्टैंड पर रुकी, लोग फूल, माला और ढोल के साथ तैयार थे। गाँव की गलियों में जैसे त्यौहार उतर आया हो। स्कूल के बच्चे बैनर लेकर खड़े थे—“हमारी दीदी लौटी हैं, हम फिर से सपने देखेंगे।”
शंता दीदी सबसे आगे थीं। उन्होंने आरती और फरज़ाना को गले लगाया और कहा, “हमने अब हार नहीं माननी। अब चाहे कुछ भी हो, ये स्कूल फिर से खड़ा होगा। और पहले से भी सुंदर।”
अगले दिन से गाँव में फिर से मेहनत शुरू हो गई। कोई मिट्टी लाया, कोई बांस-काठ, कोई रंग। गुलिस्ताँ ने फिर से पेंटिंग शुरू कर दी—इस बार पहले से ज़्यादा रंगों के साथ। उसने दीवार पर एक बड़ा चित्र बनाया—दो लड़कियाँ, एक के हाथ में किताब, दूसरी के हाथ में दीपक। ऊपर लिखा—”जहाँ दोस्ती होती है, वहाँ अंधेरा नहीं टिकता।”
आरती और फरज़ाना ने इस बार सिर्फ़ दीवारें नहीं बनाईं—उन्होंने एक पुस्तकालय शुरू किया। पुरस्कार में मिली किताबें अब उस पुस्तकालय की पहली पूँजी थीं। स्कूल को नया नाम मिला—“छांव शिक्षा सदन।” बोर्ड पर बड़ी इबारत में लिखा गया—
“हम गिराए जाने से नहीं डरते, क्योंकि हर बार हमारी दोस्ती हमें उठाती है।”
गाँव की बुज़ुर्ग महिलाएँ अब खुद बच्चों को घर से स्कूल तक लाने लगी थीं। वे कहतीं, “हम तो अपने वक्त में नहीं पढ़ सके, लेकिन अब हमारी पोतियों को कोई नहीं रोकेगा।”
एक शाम, स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम रखा गया। पहली बार गाँव की लड़कियाँ मंच पर लोकगीत गा रही थीं। कुछ लड़के तबला बजा रहे थे। गुलिस्ताँ ने एक कविता सुनाई:
“जिस छाँव में हमने देखा था सपना,
वही आज सबका ठिकाना बना।
दीदी ने दिया हमें ये हौसला,
कि डर अब सिरहाने नहीं सोएगा।”
तालियों की गूंज और आँखों की नमी के बीच, आरती और फरज़ाना मंच के पीछे खड़ी एक-दूसरे की ओर देख रहीं थीं। वही दो लड़कियाँ, जिन्होंने समाज की तमाम बंदिशों को पार कर, एक नया रास्ता बनाया था।
लेकिन हर कहानी में एक आखिरी मोड़ ज़रूरी होता है। और वो मोड़ आया एक चिट्ठी के साथ।
एक दिन डाकिए ने एक लिफाफा थमाया—आरती और फरज़ाना के नाम। लिफाफे पर लखनऊ शिक्षा विभाग की मुहर थी। उन्होंने खोलकर पढ़ा—
“आप दोनों को दिल्ली में होने वाले राष्ट्रीय शिक्षा अधिवेशन में आमंत्रित किया जाता है, जहाँ आप ‘ग्राम्य शिक्षा में परिवर्तन’ विषय पर अपनी प्रस्तुति देंगी। यात्रा, रहने और सभी आवश्यक प्रबंध की जिम्मेदारी विभाग की होगी।”
कागज़ का वह टुकड़ा जैसे किसी और ही दुनिया की चाबी था।
आरती ने धीरे से पढ़ा, “दिल्ली…”
फरज़ाना बोली, “हमें तो कभी लखनऊ भी सपना लगता था। अब…”
आरती की माँ पीछे से आकर बोलीं, “अब सपने देखो बेटा, खुली आँखों से। और इस बार, सिर्फ़ तुम्हारे नहीं, हम सबके लिए।”
उस रात आरती और फरज़ाना पीपल के पेड़ के नीचे फिर बैठीं। बच्चों ने रंग-बिरंगे कागज़ की पतंगें बनाई थीं, जिन पर उनके नाम लिखे थे। हवा में उड़ती पतंगें, जैसे कह रही थीं—“हमें उड़ना आता है, बस कोई डोर न बाँधे।”
आरती ने कहा, “हम दिल्ली जाएँगे। लेकिन क्या हम चांदपुर को पीछे छोड़ देंगे?”
फरज़ाना ने जवाब दिया, “नहीं, हम चांदपुर को साथ ले जाएँगे। और वहाँ से जो सीखेंगे, वो वापस लाकर यहीं बिखेरेंगे।”
फिर उन्होंने एक वादा किया—“दिल्ली से लौटते ही हम एक नया कोर्स शुरू करेंगे—‘लीडरशिप फॉर गर्ल्स’। ताकि हर लड़की खुद अपना रास्ता बना सके।”
तारों से भरी उस रात में पीपल की छाँव के नीचे, दो सहेलियाँ अपने गाँव, अपनी दोस्ती, और पूरे देश के लिए कुछ नया लिखने को तैयार थीं।
क्योंकि जहाँ दोस्ती होती है, वहाँ बदलाव की शुरुआत खुद-ब-खुद हो जाती है।
भाग 10 (अंतिम भाग)
दिल्ली की ट्रेन जैसे ही स्टेशन से रवाना हुई, आरती और फरज़ाना की आँखों में अपने गाँव की वो छवि तैरने लगी—पीपल का पेड़, बच्चों की किलकारियाँ, राख से उभरे सपने और उन दीवारों पर लिखे शब्द, जो अब पूरे देश को सुनाए जाने वाले थे। उनके पास भाषण तैयार था, लेकिन दिल में जो कहना था, वो काग़ज़ पर नहीं था—वो अनुभव था, संघर्ष था, और सबसे ऊपर थी उनकी दोस्ती की कहानी।
दिल्ली के विज्ञान भवन में जब वे पहुँचीं, तो पहली बार उनका सामना हुआ उस मंच से जहाँ देश के नामी शिक्षक, सामाजिक कार्यकर्ता और नीति-निर्माता उपस्थित थे। चारों ओर कैमरे, पत्रकार, सुरक्षा गार्ड और हर कोई उनकी ओर देख रहा था। लेकिन उन दोनों की निगाहें सिर्फ़ एक-दूसरे पर थीं—एक छोटी-सी मुस्कान से वे जान गईं, कि अब डरने का समय नहीं, दुनिया को बताने का समय है।
जब संचालक ने नाम पुकारा—“चांदपुर गाँव की आरती यादव और फरज़ाना अंसारी”—तो सभागार की सारी नज़रें उनकी ओर मुड़ गईं।
मंच पर पहुँचकर आरती ने माइक थामा।
“मैं एक ऐसे गाँव से आई हूँ जहाँ एक समय लड़कियों के लिए स्कूल जाना भी सपना था। लेकिन आज, उसी गाँव में लड़कियाँ किताबें भी पढ़ती हैं और दूसरों को पढ़ाती भी हैं। यह संभव हुआ, क्योंकि मेरे साथ एक दोस्त थी—फरज़ाना। एक दोस्त, जो मेरी जात, धर्म, या पहनावे से नहीं, मेरे सपनों से जुड़ी थी।”
फरज़ाना ने आगे कहा, “जब समाज ने कहा कि हमारी दोस्ती ठीक नहीं, हमने सवाल नहीं, शिक्षा से जवाब दिया। जब हमें जलाया गया, हम राख से फिर खड़े हुए। क्योंकि हमें एक-दूसरे का साथ था। यही साथ अब हमारे गाँव के बच्चों को भी मिला है।”
सभा में बैठे लोग चुपचाप सुन रहे थे। और फिर जैसे पूरा सभागार तालियों से गूँज उठा। कुछ अफसर खड़े हो गए, कुछ आँखें नम थीं।
बाद में शिक्षा मंत्री ने मंच पर आकर कहा, “देश को ऐसी कहानियाँ चाहिए—जहाँ परिवर्तन सिर्फ़ नीति से नहीं, दोस्ती और हिम्मत से होता है। मैं वादा करता हूँ, चांदपुर मॉडल को पूरे प्रदेश में लागू करने की दिशा में काम होगा।”
सम्मान स्वरूप उन्हें एक स्वर्ण पट्टिका और ₹1 लाख की शिक्षा निधि दी गई—जो उनके स्कूल के विकास के लिए थी। लेकिन आरती और फरज़ाना के चेहरे पर सबसे ज़्यादा चमक तब आई, जब बच्चों की बनाई रंगीन पतंगों की फोटो को कार्यक्रम के पोस्टर में शामिल किया गया।
दिल्ली से लौटते वक़्त ट्रेन की खिड़की से आसमान की ओर देखते हुए फरज़ाना ने कहा, “हम लौट तो रहे हैं, लेकिन इस बार सिर्फ़ गाँव की लड़कियाँ नहीं, देश की लड़कियाँ भी हमारा इंतज़ार कर रही हैं।”
आरती ने जवाब दिया, “हमारे हिस्से में सिर्फ़ सम्मान नहीं आया, बल्कि और भी लड़ाइयाँ आई हैं—अब हमें औरों की आवाज़ भी बनना है।”
चांदपुर लौटते ही स्वागत फिर से हुआ, लेकिन इस बार ज़्यादा गंभीरता के साथ। गाँव वालों को अब यह समझ में आने लगा था कि ये लड़कियाँ सिर्फ़ उनकी बेटियाँ नहीं रहीं—ये अब आंदोलन बन गई थीं।
स्कूल के बाहर नई दीवारें खड़ी हो गईं, पुस्तकालय में हर हफ्ते नई किताबें जुड़ने लगीं, और ‘लीडरशिप फॉर गर्ल्स’ कोर्स की शुरुआत हुई।
पहली कक्षा में गुलिस्ताँ खड़ी थी—इस बार बतौर शिक्षिका।
उसने कहा, “मैं आरती दीदी और फरज़ाना दीदी की शिष्या थी, आज उनकी साथी बन गई हूँ। यही शिक्षा का असली जादू है।”
आरती और फरज़ाना अब हर महीने एक ‘छाँव संवाद’ कार्यक्रम भी करने लगीं—जिसमें गाँव की लड़कियाँ, और अब आसपास के गाँवों से भी, आकर अपने अनुभव, अपने डर, और अपने सपनों के बारे में बोलतीं।
एक दिन, एक पत्रकार आया। उसने पूछा, “आपकी इस पूरी यात्रा को आप एक शब्द में कैसे परिभाषित करेंगी?”
आरती ने बिना सोचे जवाब दिया, “छाँव।”
फरज़ाना ने जोड़ा, “क्योंकि धूप तो सबको मिलती है, लेकिन साथ में छाँव कम ही मिलती है। और हमें वो छाँव एक-दूसरे की दोस्ती से मिली।”
फरज़ाना की अम्मी, जो कभी परदे से झाँकती थीं, अब खुलकर हँसने लगी थीं। आरती की माँ, जो पहले डरती थीं कि बेटी क्या कर रही है, अब कहतीं—“मेरी बेटी अब दूसरों की माँ बन गई है, जो सबका ख्याल रखती है।”
अंत में, पीपल के पेड़ के नीचे एक नई शिला रखी गई। उस पर खुदे शब्द थे—
“छांव शिक्षा सदन—जहाँ दोस्ती से क्रांति शुरू होती है।”
उस शाम, जब सूरज ढल रहा था और लड़कियाँ किताबें समेट रही थीं, आरती और फरज़ाना एक बार फिर उसी बेंच पर बैठीं, जहाँ सब कुछ शुरू हुआ था।
“हमने जो सपना देखा था, क्या वो पूरा हुआ?” आरती ने पूछा।
फरज़ाना मुस्कराकर बोली, “नहीं। वो अभी भी आगे बढ़ रहा है, हर उस लड़की की आँखों में जो अब सपने देखने से नहीं डरती।”
आरती ने आसमान की ओर देखा—तारों से भरा, चुपचाप, लेकिन चमकदार।
“तो चल,” उसने कहा, “अब अगली सुबह के लिए तैयार हो जाएं।”
और वहीं बैठी दो दोस्त, एक सपने की छाँव में, भविष्य की ओर बढ़ चलीं—बिना थके, बिना रुके, सिर्फ़ साथ चलते हुए।
—समाप्त—