Hindi - सामाजिक कहानियाँ

छांव की तलाश

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अर्जुन प्रसाद मिश्रा


वाराणसी — एक ऐसा शहर जो गंगा की गोद में बसा है, जहाँ हर सुबह आरती की धुनों और शंखनाद की गूँज से होती है। वहीँ पुराने घाटों, मंदिरों और तंग गलियों के बीच बसा है हरिश्चंद्र मोहल्ला, जो अपनी गरीबी में भी आत्मसम्मान और रिश्तों की गर्माहट से भरा है। यहाँ की गलियाँ इतनी सँकरी हैं कि दो साइकिल एक साथ निकल जाएँ, तो चमत्कार ही लगे। दीवारों पर पोस्टरों की परतें जमी हैं, कहीं-कहीं रंग उखड़ कर ईंटों का चेहरा दिखा देती हैं। इसी मोहल्ले की एक टूटी-फूटी हवेली के पिछवाड़े दो कमरों का कच्चा मकान है, जो अनिकेत का घर है। बाहर एक छोटा-सा आँगन, जिसमें मिट्टी की खुशबू हमेशा रहती है, और बीचों-बीच तुलसी का एक गमला रखा है, जिसे माँ हर सुबह पानी देती है। आँगन की एक ओर एक पुरानी चारपाई पड़ी रहती है, जिस पर शाम होते ही पिता रामलाल बैठ जाते हैं, अपनी थकी टांगें पसारकर थोड़ी देर राहत की साँस लेते हैं। रामलाल मोची हैं। उनकी उंगलियों में हमेशा धागे के निशान, हथेलियों पर गोंद और मोम की महक बसी रहती है। बरसों से वह इसी गली के मोड़ पर अपना ठेला लगाए बैठे हैं। धूप-बारिश, गर्मी-सर्दी — हर मौसम में वह अपने ठेले पर जूते सिलते, लोगों के फटे जूतों को नया जीवन देते हैं। माँ सावित्री पास-पड़ोस के घरों में झाड़ू-पोंछा करती है, बर्तन माँजती है, और कई बार रोटियाँ भी बेलती है, ताकि घर की रसोई चल सके। उनका घर शायद टूटा-फूटा है, लेकिन रिश्तों की डोर यहाँ मजबूत है।

अनिकेत तेरह बरस का एक साधारण-सा लड़का है, मगर उसकी आँखों में असाधारण सपने पलते हैं। दुबला-पतला शरीर, गेहुँआ रंग, माथे पर पसीने की बूँदें और आँखों में जिज्ञासा की चमक। उसके पास दो जोड़ी कपड़े हैं — एक स्कूल की ड्रेस और एक घर के पहनने की पुरानी कमीज़ और पायजामा। स्कूल की ड्रेस इतनी बार धुल चुकी है कि उसका नीला रंग अब हल्का होकर आसमानी हो गया है। मगर माँ हर रविवार उसे धूप में सुखाकर, पूरी मेहनत से प्रेस कर देती है ताकि उसका बेटा साफ-सुथरा दिखे। अनिकेत हर सुबह सूरज की पहली किरण के साथ उठता। सबसे पहले वो तुलसी के आगे हाथ जोड़कर प्रणाम करता और फिर अपनी किताबें सलीके से बैग में रखता। उसके पास ज़्यादातर किताबें पुरानी थीं, कुछ उसके गाँव गए बड़े भाई की थीं और कुछ पड़ोसी के बेटे से मिली थीं। मगर वह इन किताबों को किसी अमानत की तरह सँभाल कर रखता। उसके स्कूल जाने की तैयारी में एक अजीब उत्साह होता — जैसे वो हर दिन अपने सपनों की एक नई ईंट रखने जा रहा हो। रास्ते में वह गली के मोड़ पर मूँगफली वाले बूढ़े बाबा को नमस्ते करता, फूलों की दुकान पर खिले गेंदे और गुलाब को देखता, और हर बड़े को सम्मानपूर्वक प्रणाम करता। उसके कदमों में स्फूर्ति थी और दिल में एक नई उम्मीद। स्कूल पहुँचकर वह हमेशा पहली बेंच पर बैठता। गणित उसका सबसे प्रिय विषय था। जब मास्टर जी कक्षा में सवाल पूछते, तो अनिकेत का हाथ सबसे पहले उठता। उसके उत्तरों में आत्मविश्वास होता और आँखों में चमक। मास्टर जी भी उससे बहुत खुश रहते और अक्सर कहते, “देखना अनिकेत, तू एक दिन बड़ा आदमी बनेगा। तेरी मेहनत तेरे बाबा की मेहनत को सफल करेगी।” यह सुनकर अनिकेत की आँखों में एक अलग ही चमक आ जाती।

स्कूल से लौटते समय अनिकेत का मन मोहल्ले की हलचलों पर टिकता। कहीं कोई भाभी अपनी बालकनी से सब्ज़ीवाले से मोल-भाव करती दिखती, कहीं बच्चे सड़कों पर कंचे खेलते, और कहीं कोई बुजुर्ग नीम की छाँव में बैठा भगवान का नाम जपता। अनिकेत इस पूरे माहौल को अपनी आँखों में भर लेता। घर पहुँचते ही वह माँ का हाथ बँटाता। कई बार वह पानी भरने के लिए गली के नल पर लाइन में लग जाता। शाम को वह पिता के पास ठेले पर जाता। रामलाल अपने धागों और औजारों में खोए रहते, लेकिन बेटे के आने से उनके चेहरे पर थकी-हारी मुस्कान आ जाती। अनिकेत उनके लिए पानी लेकर आता, और कई बार फटे जूतों में मोम लगाकर उन्हें सहेजने में मदद करता। वह हर बार यह सोचता कि जब वह बड़ा आदमी बनेगा तो पिता को यह सब नहीं करना पड़ेगा। उसके दिल में एक कसक थी — गरीबी की जकड़न को तोड़ने की। रात में जब माँ घर के चूल्हे पर रोटी सेंकती, तो रसोई से आती सोंधी खुशबू पूरे घर को महका देती। खाना सादा होता — रोटी, आलू की सब्ज़ी या कभी दाल। मगर उस खाने में एक सुकून होता, जो किसी महँगे पकवान में भी न मिले। खाना खाते समय माँ-बाबा की हल्की-फुल्की नोक-झोंक और हँसी-मजाक में घर की सारी थकान दूर हो जाती।

रात के सन्नाटे में जब पूरा मोहल्ला सो जाता, तब अनिकेत अपनी किताबें खोलता। खपरैल की छत के नीचे लटका एक टिमटिमाता बल्ब, और उसके नीचे बैठा अनिकेत — यही उसकी दुनिया थी। गणित के सवाल हल करते-करते वो कई बार थक जाता, मगर आँखों में नींद नहीं होती। उसके सपनों में बार-बार वही दृश्य आता — एक पक्का घर, जिसमें माँ-बाबा आराम से बैठें, बाबा की एक दुकान हो जहाँ वो आराम से काम करें, और माँ को घर-घर काम करने न जाना पड़े। वह चाहता था कि उसका घर भी वैसा ही हो जैसे स्कूल में अमीर बच्चों के घर की तस्वीरें होती थीं। किताबों के पन्नों में छिपी यह दुनिया उसके सपनों को नया रंग देती थी। वह सोचता — “अगर मैं मेहनत करूँगा, तो एक दिन ये सपना सच होगा। गरीबी हमेशा के लिए हमारे घर से चली जाएगी।” रात का हर पहर उसके दिल में यही जज्बा भरता। ख्वाब और हकीकत के बीच वो अपनी दुनिया बुनता, और अगले दिन फिर उसी जोश के साथ अपनी जद्दोजहद शुरू कर देता।

***

वाराणसी की गलियाँ अपनी धुन में चल रही थीं। गंगा की लहरों पर सुबह की हल्की धूप पड़ रही थी, और घाटों पर चाय की दुकानों से उठती भाप, मंदिरों की घंटियों की गूंज और नाविकों की आवाज़ें मिलकर एक अलग ही संसार रच रही थीं। लेकिन हरिश्चंद्र मोहल्ला इस सुबह कुछ अजीब-सा खामोश था। मोहल्ले के लोग गलियों में धीमी-धीमी आवाज़ में कुछ चर्चा कर रहे थे। अनिकेत अपने बस्ते को कंधे पर टाँग कर घर से निकला ही था कि सामने वाली चाची ने धीमे स्वर में कहा, “रामलाल भैया का ठेला हटाने की नोटिस आई है। गली के मोड़ पर अब नगरपालिका की नई सड़क बनेगी।” अनिकेत के कदम ठिठक गए। उसके दिल में हलचल मच गई। वह तेजी से ठेले की ओर भागा। वहाँ देखा कि पिता रामलाल सिर झुकाए बैठे हैं। हाथों में नगरपालिका का नोटिस है, और आँखें चिंता में डूबी हुई हैं। उनके आसपास कुछ लोग जमा हो गए थे जो सांत्वना दे रहे थे — मगर वो शब्द खोखले से लग रहे थे। रामलाल की वो जगह, जहाँ बरसों से वो जूते सिलते आए थे, अब उनकी मुट्ठी से फिसलती महसूस हो रही थी।

अनिकेत चुपचाप पिता के पास बैठ गया। उसने देखा कि रामलाल की उंगलियाँ काँप रही थीं — वही उंगलियाँ जिनसे वो लोगों के फटे जूतों को नया जीवन देते थे। वो जगह उनके जीवन का हिस्सा थी, उनकी पहचान थी। रामलाल ने बेटे की ओर देखा और जबरन मुस्कराने की कोशिश की, मगर वो मुस्कान थकी हुई और दर्द से भरी थी। “बेटा, सब ठीक हो जाएगा। ऊपरवाला बड़ा है।” उन्होंने अनिकेत के सिर पर हाथ फेरा। मगर अनिकेत समझ गया था कि कुछ भी ठीक नहीं है। गली के मोड़ पर ठेला लगाने की जो जगह थी, वह अब किसी सरकारी योजना की भेंट चढ़ने वाली थी। अनिकेत ने उस मोड़ की ओर देखा — वही मोड़ जहाँ से वह हर रोज स्कूल जाता था, वही मोड़ जहाँ उसके बाबा की मेहनत की कहानियाँ बिखरी थीं। अब वह मोड़ भी किसी और की हो जाएगी, किसी और की सड़क बन जाएगी। अनिकेत का दिल भर आया। उसने मन ही मन तय किया — वो कुछ न कुछ करेगा, वो इस मुश्किल का हल खोजेगा।

उस शाम घर पर सन्नाटा पसरा था। माँ सावित्री ने सब जान लिया था। वो कुछ नहीं बोलीं, बस चुपचाप चूल्हे पर रोटियाँ सेंकती रहीं। उनकी आँखें सूजी हुई थीं, जैसे रो-रोकर थक गई हों। खाना परोसा गया, मगर किसी के गले से एक निवाला भी नीचे न उतरा। अनिकेत ने अपनी किताबें खोलीं, मगर अक्षर धुंधले दिख रहे थे। आँसू की बूँदें किताब के पन्नों पर गिर पड़ीं। उसने जल्दी से पन्ने पोंछ डाले ताकि माँ-बाबा देख न सकें। रात को वो देर तक छत की ओर ताकता रहा। खपरैल की दरारों से आती चाँदनी उसे बेबस सी लगी। वो सोचता रहा कि कैसे वो अपने बाबा की खोती हुई पहचान को बचाए। तभी उसके मन में एक ख्याल आया — क्यों न वो स्कूल के मास्टर जी से सलाह ले? वो पढ़े-लिखे हैं, शहर के बड़े लोगों को जानते हैं। शायद वो कोई रास्ता बता सकें। इसी सोच में वो नींद की गोद में चला गया, मगर सपनों में भी मोड़ पर खड़ा बाबा और उनका ठेला ही दिखाई देता रहा, जैसे वो सपनों में भी मदद की गुहार लगा रहे हों।

अगली सुबह अनिकेत स्कूल पहुँचा तो वो सीधा मास्टर जी के पास गया। मास्टर जी ने उसकी बेचैनी भरी आँखों को देखा और पूछा, “क्या बात है अनिकेत? आज तुम परेशान लग रहे हो।” अनिकेत ने अपनी पूरी बात कह सुनाई। मास्टर जी गम्भीर हो गए। उन्होंने धीरे से कहा, “बेटा, ये तो मुश्किल बात है। पर तुम घबराओ मत। मैं नगरपालिका दफ्तर में एक परिचित से बात करूँगा। हो सकता है तुम्हारे पिता को कहीं और जगह मिल जाए। मगर तुम भी अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। तुम्हारे बाबा को सबसे बड़ा सहारा तुम्हारी सफलता ही बनेगी।” मास्टर जी के शब्दों से अनिकेत को थोड़ा संबल मिला। मगर वो जानता था कि जब तक इस समस्या का हल न निकले, चैन नहीं मिलेगा। स्कूल से लौटते हुए वो पूरे रास्ते यही सोचता रहा कि कैसे वो अपने बाबा के ठेले के लिए एक नई जगह खोज सके। वो रास्ते में हर दुकानदार से पूछता, हर नुक्कड़ पर रुकता। उसे किसी बड़े आदमी का सहारा चाहिए था, मगर बड़े लोग तो बस अपने काम से मतलब रखते थे। अनिकेत की यह दौड़ अब उसकी जिंदगी की सबसे बड़ी जंग बन चुकी थी।

***

वाराणसी की गलियों में अब वो पुरानी चहल-पहल कम हो गई थी, कम से कम अनिकेत की दुनिया में। मोहल्ले में कहीं-कहीं बच्चों की किलकारियाँ गूँजतीं, कहीं कोई बुजुर्ग मंदिर की ओर जाता दिखता, पर अनिकेत की आँखों में अब इन सबका रंग फीका पड़ चुका था। उसके दिल-दिमाग में बस एक ही बात घूमती थी — “बाबा के ठेले की जगह कैसे बचे?” रामलाल अब रोज सुबह उठकर गली के मोड़ पर जाते, नोटिस को बार-बार पढ़ते, जैसे उस पर लिखे शब्द बदल जाएँगे। फिर चुपचाप लौट आते। अनिकेत उनके चेहरे की मायूसी को पढ़ सकता था। माँ सावित्री ने भी अब दो घर और पकड़ लिए थे झाड़ू-पोंछे के लिए। उनके हाथों की दरारें और गहरी हो गई थीं। मगर कोई शिकायत उनकी आँखों में नहीं थी। अनिकेत अब हर शाम अपनी किताबों के साथ बैठता तो था, पर उसका मन सवालों में नहीं लगता। वो खुद से सवाल करता — “क्या पढ़ाई से ही सब बदल सकता है? क्या सपने सच में पूरे होते हैं?”

एक दिन की बात है। स्कूल से लौटते हुए अनिकेत ने देखा कि नगरपालिका के मजदूर उस मोड़ पर निशान लगा रहे हैं। वो जगह, जहाँ बाबा का ठेला लगता था, अब सरकारी रंग के धब्बों से ढँकती जा रही थी। अनिकेत का दिल बैठ गया। वो दौड़ता हुआ बाबा के पास पहुँचा और सब बता दिया। रामलाल ने सिर झुका लिया। “अब क्या करें बेटा? सरकार का काम है, कोई रोक सकता है भला?” मगर अनिकेत ने अपनी आँखों में आँसू नहीं आने दिए। उसने बाबा का हाथ पकड़ा और कहा, “बाबा, हम हार नहीं मानेंगे। कुछ न कुछ रास्ता निकलेगा।” उसी रात वो माँ-बाबा से बिना बताए मोहल्ले के बड़े चौधरी जी के घर चला गया। चौधरी जी मोहल्ले के सम्मानित आदमी थे और नगरपालिका के एक अधिकारी के करीबी थे। अनिकेत ने उनके सामने हाथ जोड़कर अपनी बात कही। चौधरी जी ने पहले तो उसकी मासूमियत पर दया दिखाई, फिर बोले, “बेटा, मैं कोशिश करूँगा। मगर ये सरकार का काम है। ज्यादा उम्मीद मत रखना।” अनिकेत उनकी बात सुनकर चुपचाप लौट आया। मगर अब उसके मन में एक नया विचार जन्म ले चुका था। वो खुद अपनी मेहनत से पिता के लिए नई जगह ढूँढेगा।

अगले कुछ दिन अनिकेत के लिए नए संघर्ष की शुरुआत थे। वो स्कूल से लौटते ही साइकिल पर पूरे मोहल्ले और आस-पास की गलियाँ छानता। वो हर मोड़, हर नुक्कड़ पर नजर डालता — कहीं कोई खाली जगह दिखे, कहीं कोई मददगार आदमी मिले। वो दुकानदारों से पूछता, रिक्शेवालों से सलाह लेता। वो हर शाम थककर चूर हो जाता, मगर उसकी उम्मीद जिंदा रहती। एक दिन उसे नगर के बाहर एक पुरानी चाय की दुकान के बगल में थोड़ी जगह दिखी। वो तुरंत वहाँ के मालिक से मिला। दुकानदार ने पहले मना किया, मगर अनिकेत की सच्चाई और उसकी आँखों की चमक ने उसका दिल पिघला दिया। “ठीक है बेटा, बता देना अपने पिता को। पर ठेला सड़क पर ज्यादा आगे न लाना। मैं चाहूँगा कि तुम्हारे बाबा को कोई परेशानी न हो।” अनिकेत की खुशी का ठिकाना न रहा। वो दौड़ता हुआ घर पहुँचा और बाबा को लेकर वहाँ गया। रामलाल की आँखों में पहली बार उम्मीद की रौशनी जगी। उन्होंने अनिकेत को गले से लगा लिया। माँ ने जब यह सुना तो उसकी आँखों से खुशी के आँसू बह निकले।

अब रामलाल का ठेला उस नई जगह लगने लगा। जगह भले ही पुरानी थी, पर वहाँ का माहौल अच्छा था। ग्राहक आने लगे। रामलाल की मेहनत फिर रंग लाने लगी। अनिकेत भी अब अपने सपनों की ओर लौटने लगा। वो रात को फिर से अपनी किताबें खोलता। अब उसके सवालों में वही आत्मविश्वास लौट आया था। मगर ये संघर्ष की राह अनिकेत को मजबूत बना गई। उसने सीख लिया कि हालात चाहे जैसे भी हों, हार मानना हल नहीं है। उसने यह भी जाना कि सच्ची मेहनत और नीयत से रास्ते निकल ही आते हैं। मोहल्ले वाले भी अब अनिकेत को और उसके बाबा को इज्जत की नजर से देखने लगे थे। रामलाल कहते, “मेरा बेटा ही मेरा अभिमान है। मेरी मेहनत का असली फल यही है कि अनिकेत जैसे बेटे ने हमें नई राह दिखा दी।” अनिकेत के संघर्ष की यह शुरुआत थी। वो जानता था, अब भी राह कठिन है, मगर वो अब अपने सपनों को और मजबूती से पकड़ चुका था।

***

अनिकेत के जीवन में अब नई रोशनी की किरणें दिखने लगी थीं। नई जगह पर बाबा का ठेला अब हर सुबह तैयार हो जाता — वही पुराना ठेला, पर नए जज़्बे के साथ। रामलाल सुबह-सुबह अपने औजार संभालते, जूतों की सिलाई करते, और हर ग्राहक के लिए एक सजीव मुस्कान साथ रखते। अनिकेत स्कूल से लौटता तो बाबा के पास बैठकर उनके काम में हाथ बँटाता। वह जूते पॉलिश करने लगा था, और कुछ ही दिनों में उसकी चमकाने की कला भी मोहल्ले में चर्चित हो गई। धीरे-धीरे ठेले पर ग्राहकों की भीड़ बढ़ने लगी। मगर इस सफलता के बीच अनिकेत अपने सपनों को नहीं भूला। हर रात पढ़ाई में डूब जाना उसकी आदत बन गई थी। वो जानता था कि अगर जिंदगी को सचमुच बदलना है तो किताबों की दोस्ती ही उसकी सबसे बड़ी ताकत होगी।

एक शाम की बात है। अनिकेत अपने बाबा के पास बैठा था। सामने से एक सज्जन गुजरे, जिन्होंने अनिकेत की मेहनत देखी। वो पास आकर बोले, “बेटा, तुम इतने लगन से पढ़ते हो और काम में भी हाथ बँटाते हो, तुम्हारा नाम क्या है?” अनिकेत ने हाथ जोड़कर अपना नाम बताया। वो सज्जन मुस्कराए, “मैं इस शहर के विद्यालय विकास समिति से हूँ। हमारे स्कूल में ऐसे ही होनहार बच्चों के लिए छात्रवृत्ति योजना है। क्यों न तुम इसके लिए आवेदन करो?” अनिकेत की आँखें चमक उठीं। उसने हाथ जोड़कर कहा, “साहब, अगर इससे मैं पढ़ाई आगे बढ़ा सकूँ, तो कृपा होगी।” सज्जन ने पते की पर्ची दी और कहा, “कल आकर मुझसे मिलना।” अनिकेत घर लौटकर यह खबर सुनाई तो माँ-बाबा की आँखें भर आईं। रामलाल बोले, “देखा बेटा, मेहनत खाली नहीं जाती।” माँ ने अनिकेत के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “भगवान तेरा भला करे बेटा।” उस रात अनिकेत की नींद सपनों से भरी थी — सपने एक अच्छे स्कूल की, नई किताबों की, और एक नए जीवन की।

अगले दिन अनिकेत विद्यालय विकास समिति दफ्तर पहुँचा। वहाँ सज्जन ने उसके दस्तावेज देखे, उससे पढ़ाई और परिवार की हालत पर कुछ सवाल किए। अनिकेत की सच्चाई और आत्मविश्वास ने उनका दिल जीत लिया। उन्होंने उसी समय उसकी छात्रवृत्ति की सिफारिश कर दी। अनिकेत की दुनिया जैसे बदलती दिखी। वो अब हर सुबह और ज्यादा उत्साह से पढ़ाई करता। बाबा के ठेले पर भी जाता, मगर अब उसके मन में एक नई ऊर्जा थी। मोहल्ले के बच्चे भी उसे देखकर प्रेरित होने लगे। वो खुद को छोटा नहीं समझता था। वो जान चुका था कि गरीबी एक स्थिति है, पर सपनों की ऊँचाई कोई नहीं रोक सकता। स्कूल में भी अब शिक्षक उसकी मेहनत की मिसाल देने लगे थे। धीरे-धीरे वह अपने स्कूल का सबसे होनहार छात्र बनता जा रहा था।

पर यह राह इतनी आसान भी न थी। कई बार राह में ठोकरें लगीं। कभी किताबों के लिए पैसे की कमी हुई, कभी बाबा की तबीयत बिगड़ी, कभी ग्राहक कम आए। मगर हर बार अनिकेत ने हार नहीं मानी। माँ की हिम्मत, बाबा की ममता और अपनी लगन से वो हर मुश्किल को पार करता गया। उसने खुद के लिए नहीं, अपने बाबा-माँ के लिए बड़ा आदमी बनने का सपना देखा। और यही सपना उसे रोज नई प्रेरणा देता। उसके संघर्ष की यह सीढ़ियाँ अब उसे उस मुकाम की ओर ले जा रही थीं जहाँ से वो अपने परिवार के जीवन को रोशनी से भर सके। वो जानता था कि उसके बाबा की मेहनत से मिली यह छांव अब हमेशा उसके सिर पर रहेगी — और अब वह खुद उस छांव को और बड़ा करने निकला था।

***

वाराणसी की गलियों में फिर से कुछ हलचल लौटने लगी थी। गंगा की लहरें जैसे अनिकेत की कहानी को अपनी गोद में समेटे बहती जा रही थीं। अब बाबा का ठेला नई जगह पर जम चुका था। पुराने ग्राहक भी खोजते-खोजते उस ठेले पर पहुँच जाते। हर सुबह बाबा रामलाल अपने ठेले को साफ करते, औजारों को सजाते और अनिकेत को गले लगाकर कहते, “बेटा, भगवान ने तेरी मेहनत रंग लाई।” अनिकेत की आँखों में वो जिद, वो चमक अब और गहरी हो गई थी। स्कूल में मास्टर जी भी अब उसे हर क्लास में मिसाल के तौर पर पेश करते। अनिकेत की पढ़ाई में लगन देखकर विद्यालय विकास समिति के सदस्य भी उसकी मदद करने लगे। उसे न केवल छात्रवृत्ति मिलने लगी, बल्कि कुछ समाजसेवियों ने उसकी किताबें और यूनिफॉर्म दिलाने की जिम्मेदारी उठा ली। मगर यह सब होते हुए भी अनिकेत के पैर ज़मीन पर ही रहे। वह जानता था कि यह शुरुआत भर है, मंज़िल अभी दूर है।

मगर संघर्ष की राह इतनी सीधी कहाँ होती है? एक दिन बाबा की तबीयत अचानक बिगड़ गई। गली में काम करते-करते उन्हें चक्कर आया और वो गिर पड़े। अनिकेत ने दौड़कर बाबा को सँभाला। मोहल्ले वालों की मदद से बाबा को अस्पताल पहुँचाया गया। डॉक्टर ने बताया कि यह कमजोरी और ज्यादा मेहनत का असर है। अनिकेत के मन में डर समा गया। वो जानता था कि अब उसे और मजबूत होना होगा। बाबा की देखभाल, स्कूल की पढ़ाई और ठेले का काम — इन सबका जिम्मा उसके कंधों पर आ गया। माँ भी अपनी सीमाओं से बाहर जाकर काम करने लगीं। मगर अनिकेत ने न हार मानी, न खुद को टूटने दिया। उसने अपने समय को इस तरह बाँटा कि सुबह स्कूल, दोपहर में ठेले का काम और रात को पढ़ाई — यह उसकी दिनचर्या बन गई। बाबा की बीमारी ने अनिकेत को और मजबूत कर दिया। वो हर सुबह सूरज को देखता और मन ही मन कहता, “उम्मीदों का यह सूरज मेरी राह रोशन करेगा।”

कई बार मुश्किलें उसे कमजोर करने आईं। कई बार ठेले पर ग्राहक कम आए, कई बार मोहल्ले के कुछ लोग ताना मारने लगे कि “अब ये लड़का पढ़ाई छोड़कर जूते सिलने बैठ गया!” मगर अनिकेत के कानों में ये बातें नहीं पड़ीं। वो जानता था कि उसका सपना सिर्फ खुद को नहीं, अपने बाबा को सम्मान दिलाना है। उसकी मेहनत की कहानी धीरे-धीरे स्कूल से निकलकर मोहल्ले, फिर शहर में फैलने लगी। नगर के एक बड़े अधिकारी ने एक दिन अनिकेत को ठेले पर काम करते और किताब पढ़ते देखा। उन्होंने उसी वक्त उसकी सराहना की और कहा, “बेटा, तू सच में इस शहर का गर्व बनेगा।” उन्होंने अनिकेत को एक साइकिल भेंट की ताकि वह स्कूल और काम दोनों आसानी से कर सके। यह साइकिल अनिकेत के लिए सिर्फ एक साधन नहीं, बल्कि उसके सपनों की रफ्तार का प्रतीक बन गई।

अब अनिकेत को महसूस होने लगा कि उसका संघर्ष अकेले उसका नहीं रहा। शहर के कई लोग उसकी मदद को आगे आने लगे। मगर सबसे बड़ा सहारा उसे अपनी मेहनत से ही मिलता। उसने हर दिन एक नई ऊर्जा के साथ जीना शुरू कर दिया। वो जानता था कि यह उम्मीदों का सूरज अब कभी नहीं डूबेगा। हर शाम जब वो बाबा के पास बैठता और जूतों की मरम्मत करता, वो उनकी आँखों में वो गर्व देखता जिसके लिए वो जी रहा था। मास्टर जी, माँ और पूरे मोहल्ले की दुआओं से अनिकेत अब एक नई मंज़िल की ओर बढ़ चला था। उसके जीवन की यह सुबहें और शामें अब उसके सपनों को सच करने की यात्रा का हिस्सा थीं — एक यात्रा जो संघर्ष से शुरू हुई थी और उम्मीदों की रौशनी में नहाई हुई थी।

***

वाराणसी की सड़कों पर अब अनिकेत की पहचान एक मेहनती और ईमानदार लड़के के रूप में बन चुकी थी। मोहल्ले की गलियों से लेकर स्कूल की क्लास तक हर जगह उसकी कहानी गूंजने लगी थी। नई साइकिल पर सवार होकर वो हर सुबह सूरज के साथ अपनी यात्रा शुरू करता। स्कूल पहुँचने पर उसके दोस्त उसका इंतजार करते। मास्टरजी उसकी लगन पर गर्व करते और हर क्लास में उसे उदाहरण बनाकर पेश करते। मगर अनिकेत के लिए यह सम्मान एक जिम्मेदारी थी। वह जानता था कि अब उसे न केवल अपने बाबा-माँ का सहारा बनना है, बल्कि उन बच्चों की प्रेरणा भी बनना है जो गरीबी के कारण अपने सपनों से समझौता कर लेते हैं। हर रात जब वह अपनी किताबों में डूबता, तो उसकी आँखों में सिर्फ अपने भविष्य की तस्वीर नहीं होती, बल्कि उन अनगिनत गरीब बच्चों की तस्वीरें होतीं जिनकी आँखों में उम्मीद की किरणें होतीं।

बाबा की तबीयत अब धीरे-धीरे सँभलने लगी थी। मगर रामलाल अब खुद को उतना ताकतवर नहीं मानते थे। वो अपने बेटे को अपने से बड़ा होते देखना चाहते थे। एक शाम बाबा ने अनिकेत को पास बिठाकर कहा, “बेटा, अब समय आ गया है कि तू अपने सपनों की उड़ान भर। मैं चाहता हूँ कि तू पढ़ाई में इतना आगे बढ़े कि तुझे कभी इस ठेले पर न बैठना पड़े। तेरी माँ और मैं तेरी हर राह में तेरे साथ हैं।” अनिकेत की आँखें भर आईं। वो जानता था कि बाबा की बातें दिल से निकली थीं। उस रात उसने ठान लिया कि अब वो न केवल मेहनत करेगा, बल्कि कुछ नया करके दिखाएगा। उसने अपने स्कूल के पुस्तकालय में और समय देना शुरू किया, विज्ञान की किताबों में अपनी रुचि बढ़ाई और शहर में होने वाली प्रतियोगिताओं में भाग लेना शुरू किया।

कुछ ही महीनों में अनिकेत ने विज्ञान प्रदर्शनी में पहला स्थान प्राप्त किया। उसके बनाए मॉडल को शहर के कई स्कूलों ने सराहा। नगर निगम के अधिकारी और शिक्षा विभाग के लोग भी उसकी तारीफ करने लगे। अखबारों में अनिकेत की तस्वीर छपने लगी — “ठेलेवाले का बेटा बना विज्ञान का सितारा।” मगर अनिकेत इन सबमें घमंड की जगह और ज्यादा विनम्रता और मेहनत ले आया। वो जानता था कि यह सफलता उसके संघर्ष का पहला पड़ाव है। उसने अपनी जीत का सारा श्रेय बाबा और माँ को दिया और उन शिक्षकों को जिन्होंने उसे इस राह पर चलना सिखाया। मगर उसके लिए असली खुशी तब हुई जब उसके मोहल्ले के छोटे-छोटे बच्चे उसके पास आकर बोले, “भैया, हम भी आपके जैसे बनना चाहते हैं।” वो मुस्कराया और बोला, “तुम सब मुझसे भी बड़े बनोगे, बस सपने देखना मत छोड़ना।”

अब अनिकेत ने एक और सपना देखना शुरू किया — वो अपने जैसे गरीब और संघर्षरत बच्चों के लिए एक पुस्तकालय खोलना चाहता था, जहाँ वो मुफ्त में पढ़ सकें, किताबें पा सकें और अपने सपनों को पंख दे सकें। उसने इस बारे में अपने मास्टरजी से चर्चा की। मास्टरजी ने उसका हौसला बढ़ाया और नगर के कुछ समाजसेवियों से मिलवाया। धीरे-धीरे अनिकेत की इस पहल को समर्थन मिलने लगा। लोग किताबें दान देने लगे, कुछ लोगों ने जगह देने की बात की। अनिकेत की मेहनत अब केवल उसकी अपनी कहानी नहीं रही थी, वो एक आंदोलन का रूप लेने लगी थी। वो जानता था कि यह नए रास्ते उसकी जिंदगी के लिए ही नहीं, पूरे समाज के लिए उम्मीद की नई किरण बनेंगे। और इस तरह अनिकेत की यात्रा नए रास्तों की ओर बढ़ चली — जहाँ संघर्ष था, पर साथ में उम्मीदों का सूरज भी उसके हर कदम पर चमक रहा था।

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वाराणसी की सुबहें अब अनिकेत के लिए नई ताजगी लेकर आती थीं। गंगा की लहरों की तरह उसके सपनों की नाव भी अब सधी रफ्तार से आगे बढ़ने लगी थी। स्कूल की हर सुबह उसके लिए एक नई उम्मीद का संदेश होती। मास्टरजी की नज़रों में उसका नाम गर्व का प्रतीक बन चुका था। शहर के विज्ञान मेले में उसकी बनाई ऊर्जा-बचत मशीन ने सभी का दिल जीत लिया। यह मशीन इतनी साधारण चीजों से बनाई गई थी कि हर कोई देखकर चौंक उठा। अनिकेत ने यह मशीन कबाड़ी से मिली पुरानी साइकिल के पुर्ज़ों और कुछ घरेलू सामान से बनाई थी। जब वो अपने प्रोजेक्ट को जजों के सामने प्रस्तुत करता, तो उसके आत्मविश्वास में वो चमक होती जैसे एक अनुभवी वैज्ञानिक अपनी खोज की व्याख्या कर रहा हो। अंत में जजों ने फैसला सुनाया — “प्रतियोगिता का विजेता: अनिकेत यादव।” यह सुनते ही पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।

उस जीत की घड़ी अनिकेत की जिंदगी का वो मोड़ थी जहाँ से उसके संघर्ष की गाथा अब शहर की दीवारों से निकलकर दूर-दूर तक पहुँचने लगी थी। अखबारों में उसकी तस्वीरें छपीं, टीवी चैनलों पर उसकी कहानी दिखाई गई। “गरीब ठेलेवाले का बेटा बना विज्ञान का सितारा” — ये हेडलाइन हर जगह छा गई। मगर इन सबके बीच अनिकेत की विनम्रता और गहराई वही रही। वह जानता था कि यह जीत बाबा के पसीने की कीमत है, माँ की नींदें हराम करने की कीमत है। उसने अपनी ट्रॉफी सबसे पहले बाबा-माँ के हाथों में रखी और कहा, “यह आपकी है।” मोहल्ले के लोग भी अब उसे सम्मान की निगाह से देखने लगे। वो ताने जो कभी उसके कानों में पड़ते थे, अब तारीफों में बदल चुके थे।

इस जीत से अनिकेत के जीवन में नए दरवाजे खुलने लगे। नगर निगम ने उसकी आगे की पढ़ाई का खर्च उठाने का वादा किया। एक बड़े स्कूल ने उसे स्कॉलरशिप पर दाखिला दिया। अनिकेत ने उस स्कूल में कदम रखते ही बाबा की छांव को महसूस किया। वो जानता था कि अब उसके कंधों पर खुद को साबित करने की बड़ी जिम्मेदारी है। नए स्कूल में अच्छे टीचर्स, बेहतर सुविधाएं और होशियार साथी मिलना उसके लिए एक नया अनुभव था। मगर अनिकेत ने खुद को कभी कमजोर नहीं महसूस होने दिया। उसने अपनी मेहनत को ही अपना सबसे बड़ा हथियार बनाया। क्लास में उसकी शालीनता, होशियारी और मददगार स्वभाव ने उसे सभी का प्रिय बना दिया।

लेकिन अनिकेत की सबसे बड़ी खुशी तब हुई जब उसने अपने छोटे पुस्तकालय की नींव रखी। मोहल्ले के समाजसेवियों और शिक्षकों की मदद से वो अब अपने जैसे गरीब बच्चों के लिए किताबें इकट्ठी करने लगा था। वो खुद स्कूल से लौटकर पुस्तकालय में बैठता, बच्चों को पढ़ने के लिए प्रेरित करता। उसकी यह छोटी सी पहल अब एक बड़े सपने की तरह आकार ले रही थी। अनिकेत जानता था कि यह पहली जीत सिर्फ एक शुरुआत है। असली जीत तब होगी जब हर अनिकेत को अपने सपनों को पूरा करने का मौका मिलेगा। और यही सोचकर उसने अपने कदम अगले पड़ाव की ओर बढ़ा दिए — जहां उम्मीदों का सूरज हर दिन उसके रास्ते को रोशन करता रहा।

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अनिकेत की सफलता की कहानी जैसे अब पूरे वाराणसी में गूंजने लगी थी। मोहल्ले के छोटे बच्चे उसकी मिसाल देने लगे और उनके माता-पिता उन्हें अनिकेत जैसा बनने की प्रेरणा देने लगे। मगर सफलता के साथ-साथ अनिकेत के जीवन में नए संघर्षों ने भी दस्तक देनी शुरू कर दी। बड़े स्कूल की पढ़ाई का स्तर काफी कठिन था। जहां पहले अनिकेत एक छोटे से सरकारी स्कूल में पढ़ाई करता था, अब उसके सामने नए पाठ्यक्रम, नई भाषा, और तकनीक आधारित शिक्षा थी। वो जानता था कि उसे इन सभी में खुद को साबित करना है। मगर कई बार वो खुद को दूसरों से पीछे महसूस करने लगा। क्लास के साथी जिनके पास लैपटॉप, इंटरनेट और तमाम सुविधाएँ थीं, वो पढ़ाई में तेज़ थे। अनिकेत की किताबें ही उसकी दुनिया थीं। मगर उसने हार नहीं मानी। वो हर रात अपनी किताबों के पन्नों पर देर रात तक मेहनत करता और धीरे-धीरे अपनी कमजोरी को ताकत में बदलने की कोशिश करता।

मगर अनिकेत की चुनौतियाँ सिर्फ स्कूल तक सीमित नहीं रहीं। बाबा की तबीयत में फिर से गिरावट आने लगी थी। डॉक्टरों ने बताया कि अब उन्हें नियमित इलाज की ज़रूरत है। इलाज में पैसे की कमी फिर से अनिकेत की राह का काँटा बनने लगी। अनिकेत ने कई बार खुद को टूटा हुआ महसूस किया। मगर हर बार उसने खुद को सँभाला और बाबा की आँखों में अपने लिए वो उम्मीद की किरण देखी जिसने उसे मजबूत बनाया। वो स्कूल से लौटकर शाम को फिर से मोहल्ले के बच्चों को ट्यूशन देने लगा ताकि थोड़ा बहुत पैसा घर ला सके। रात को पढ़ाई और ट्यूशन के बीच का संतुलन बनाए रखना आसान नहीं था, मगर अनिकेत ने अपनी हिम्मत नहीं हारी। वो जानता था कि ये समय कठिन है मगर वो इस कठिनाई को पार कर जाएगा।

इस बीच उसकी पुस्तकालय की पहल भी कठिनाइयों से जूझने लगी। शुरुआत में लोगों ने किताबें दान दीं मगर अब वो उत्साह कम होने लगा। मोहल्ले में जगह की समस्या, किताबों की सुरक्षा और बच्चों को नियमित रूप से जोड़ पाना एक बड़ा संघर्ष बन गया। अनिकेत ने ठान लिया कि वो हार नहीं मानेगा। उसने अपने स्कूल के शिक्षकों से मदद मांगी। कुछ समाजसेवियों से मिलकर वो फिर से किताबें और स्टेशनरी जुटाने लगा। नगर के एक अधिकारी की मदद से उसे पुस्तकालय के लिए एक छोटा कमरा भी मिल गया। अनिकेत जानता था कि ये संघर्ष उस सपने की कीमत है जिसे वो जी रहा है — वो सपना जिसमें हर गरीब बच्चे के हाथ में किताब हो और हर बच्चे की आँखों में उम्मीद।

इन संघर्षों ने अनिकेत को और भी मजबूत बना दिया। अब वो जानता था कि जीवन में सफलता पाने से भी कठिन है उसे संभालना। वो हर दिन सूरज की पहली किरण के साथ अपने बाबा से आशीर्वाद लेता, माँ की हिम्मत से खुद को ऊर्जा देता और अपने नए स्कूल, ट्यूशन, और पुस्तकालय के काम में जुट जाता। अनिकेत की ये यात्रा अब एक नए मुकाम की ओर बढ़ रही थी — जहाँ उसके सपनों को साकार करने के लिए उसे खुद को हर रोज़ साबित करना था। और वो मुस्कुराकर खुद से कहता — “संघर्ष चाहे जितना बड़ा हो, मैं हार नहीं मानूँगा।”

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अनिकेत की जिंदगी अब दिन-रात संघर्षों की बुनियाद पर टिक गई थी। बड़े स्कूल की पढ़ाई, ट्यूशन की जिम्मेदारी, पुस्तकालय का प्रबंधन और घर की चिंता — ये सब मिलकर उसके कंधों पर बोझ बनते जा रहे थे। मगर अनिकेत की आँखों में हार का कोई संकेत नहीं था। वो जानता था कि कठिन रास्तों से ही मंजिलें मिलती हैं। एक दिन स्कूल में विज्ञान प्रोजेक्ट के लिए राज्य स्तर की प्रतियोगिता की घोषणा हुई। यह मौका अनिकेत के लिए उम्मीद की किरण की तरह था। उसने ठान लिया कि वो इस प्रतियोगिता में कुछ ऐसा बनाएगा जो समाज को नई दिशा दिखाए। रातों की नींदें फिर से उसकी किताबों और ड्राइंग शीट पर कुर्बान होने लगीं। वो कबाड़ी से सामान जुटाता, पुराने खिलौनों के मोटर निकालता, और अपने छोटे से कमरे में नई खोज में जुट जाता।

उसकी मेहनत रंग लाई। उसने एक ‘सौर ऊर्जा संचालित सिंचाई यंत्र’ तैयार किया। यह यंत्र गरीब किसानों के लिए सस्ते साधनों से सिंचाई की सुविधा देने में सहायक था। जब प्रतियोगिता का दिन आया, अनिकेत का प्रोजेक्ट सबसे अलग और अनूठा था। जजों ने उसके विचार, तकनीक और सामाजिक सोच की तारीफ की। प्रतियोगिता में अनिकेत को राज्य स्तर पर पहला पुरस्कार मिला। पुरस्कार के साथ आई एक स्कॉलरशिप और एक मौका — राष्ट्रीय विज्ञान मेले में भाग लेने का। यह अनिकेत की जिंदगी की सबसे बड़ी जीत थी। मगर इस जीत से भी ज्यादा संतोष उसे तब हुआ जब उसके गाँव से आए कुछ किसान उससे मिलने आए और बोले, “बेटा, तूने तो हमारे जैसे गरीब किसानों की चिंता को अपनी सोच से हल कर दिया। भगवान तुझे और तरक्की दे।” अनिकेत की आँखें भर आईं — यही तो उसका सपना था, अपनी सोच से समाज की मदद करना।

इस जीत ने अनिकेत की राहों को रोशन कर दिया। नगर निगम ने बाबा के इलाज की पूरी जिम्मेदारी उठाई और अनिकेत को पढ़ाई के लिए विशेष सहायता देना शुरू किया। शहर के प्रतिष्ठित अखबारों ने उसके संघर्ष और सफलता की कहानी को अपने पहले पन्ने पर छापा। अनिकेत अब शहर की पहचान बन गया था। मगर उसने कभी घमंड को पास नहीं आने दिया। वो पहले की तरह अपनी साइकिल पर सवार होकर स्कूल जाता, ट्यूशन पढ़ाता और शाम को अपने पुस्तकालय में बच्चों को किताबों की दुनिया से जोड़ता। उसका पुस्तकालय अब मोहल्ले की शान बन चुका था। अनिकेत जानता था कि ये सब उसी उम्मीद की वजह से संभव हुआ है जो उसके दिल में हर संघर्ष की रात को भी जिंदा रहती थी।

मगर अनिकेत का सपना यहीं खत्म नहीं हुआ। उसने राष्ट्रीय विज्ञान मेले की तैयारी शुरू कर दी। उसने अपने प्रोजेक्ट को और बेहतर बनाया, उसमें नए विचार जोड़े और दिन-रात उसकी बारीकियों पर काम किया। अब उसके पास न सिर्फ अपने सपनों की उम्मीद थी बल्कि पूरे समाज की उम्मीदें भी थीं। वो जानता था कि ये उम्मीद की किरण उसके जीवन की दिशा बदलने वाली है। अनिकेत की कहानी अब सिर्फ उसकी नहीं थी, वो हर उस बच्चे की आवाज़ थी जो गरीबी में भी सपनों की उड़ान भरना चाहता है। और वो उड़ान जारी थी — संघर्षों के बादलों को चीरकर, उम्मीद की किरण को पकड़े हुए।

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अनिकेत की ज़िंदगी में अब एक नया सवेरा आया था। राष्ट्रीय विज्ञान मेले में हिस्सा लेने का मौका उसके लिए किसी सपने के सच होने जैसा था। वाराणसी से दिल्ली की यात्रा उसके जीवन की पहली इतनी लंबी यात्रा थी। ट्रेन की खिड़की से बाहर देखता अनिकेत जैसे अपने बचपन की हर वो रात याद कर रहा था जब उसने खुले आसमान के नीचे बैठकर तारे गिने थे और सोचा था कि एक दिन वो भी कुछ बड़ा करेगा। दिल्ली पहुँचकर जब उसने विज्ञान मेले का विशाल परिसर देखा, तो उसकी आँखों में चमक और दिल में उत्साह भर गया। देश के कोने-कोने से आए हज़ारों प्रतिभागियों के बीच अनिकेत अपनी साधारण सौर-सिंचाई मशीन के साथ खड़ा था, मगर आत्मविश्वास में किसी से कम नहीं। उसके बाबा-माँ की दुआएं उसके साथ थीं, और वाराणसी के लोग उसके लिए प्रार्थना कर रहे थे।

तीन दिनों तक चली इस प्रतियोगिता में अनिकेत ने अपने प्रोजेक्ट को पूरी निष्ठा और सादगी से प्रस्तुत किया। उसकी बातें सुनकर जजों के चेहरे पर मुस्कान आ गई। वो किसी बड़े वैज्ञानिक की तरह नहीं बल्कि एक किसान के बेटे की तरह सच्चाई से अपनी मशीन के बारे में बता रहा था। जजों ने उसके विचार, उसकी सोच और उसके प्रोजेक्ट की उपयोगिता की सराहना की। प्रतियोगिता के आखिरी दिन जब विजेताओं के नामों की घोषणा हुई, तो पूरे हॉल में तालियों की गूंज के बीच अनिकेत का नाम पहले स्थान पर लिया गया। अनिकेत मंच पर खड़ा था, हाथ में ट्रॉफी थी, मगर उसकी आँखें नम थीं। वो ट्रॉफी नहीं देख रहा था, उसकी नज़रों के सामने अपने बाबा का चेहरा था — वो बाबा जिन्होंने ठेला खींचते हुए उसके सपनों की नींव रखी थी।

इस जीत ने अनिकेत को न सिर्फ राष्ट्रीय पहचान दी बल्कि उसके गांव, उसके मोहल्ले और उसके जैसे हज़ारों बच्चों के लिए वो एक उम्मीद का प्रतीक बन गया। टीवी चैनलों पर उसकी कहानी दिखाई जाने लगी। बड़े-बड़े अखबारों में उसकी मेहनत और संघर्ष की गाथा छपने लगी। सरकारी अधिकारियों ने उसके गांव के विकास की योजनाओं पर काम शुरू किया। अनिकेत को देश के नामी विज्ञान संस्थानों से पढ़ाई के लिए प्रस्ताव मिलने लगे। मगर अनिकेत का सपना अब सिर्फ अपनी तरक्की तक सीमित नहीं था। उसने ठान लिया कि वो अपने मोहल्ले और गांव के बच्चों के लिए विज्ञान की शिक्षा को आसान और सुलभ बनाएगा। उसने अपने पुस्तकालय को एक छोटा विज्ञान केंद्र बनाने की योजना शुरू की। मोहल्ले के बच्चे अब उसे सिर्फ बड़ा भाई ही नहीं, अपना आदर्श मानने लगे।

अनिकेत की उड़ान जारी रही। उसने अपनी उपलब्धियों को कभी घमंड का कारण नहीं बनने दिया। वो अब भी साइकिल से ही स्कूल और पुस्तकालय जाता, बच्चों को पढ़ाता, किसानों से मिलता और उनकी समस्याओं का समाधान खोजता। उसके सपनों की यह उड़ान अब समाज की सेवा की उड़ान थी। अनिकेत जानता था कि असली सफलता वही है जो औरों की ज़िंदगी में रोशनी लाए। उसकी कहानी अब प्रेरणा बन गई थी — उस हर बच्चे के लिए जो सपनों को सच करने की हिम्मत जुटाना चाहता है। और अनिकेत की यही उड़ान एक दिन पूरे देश को दिखाएगी कि सच्ची मेहनत और ईमानदार सपनों की कोई सीमा नहीं होती।

 

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