Hindi - प्रेम कहानियाँ

छत की रेलिंग पर वो लड़की

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नील मेहता


मुंबई की उस सुबह में कुछ अलग था — जैसे भीड़ में भी एक ठहराव था, शोर में भी एक खामोशी छिपी हुई थी। राहुल ने खिड़की की परतों से आती धूप को चेहरे पर महसूस करते हुए अपनी आंखें खोलीं। नया अपार्टमेंट, नया बिस्तर, और एक अजनबी सी खामोशी। शहर तो वही था, लेकिन यह इलाका और यह इमारत उसके लिए नई थी। ऑफिस के काम ने उसे यहां खींच तो लाया था, लेकिन अब वह खुद से पूछने लगा था — क्या भागदौड़ ही सब कुछ है? वो बाथरूम से निकलते ही सीधे बालकनी की ओर बढ़ा, एक कप चाय लेकर। सामने की इमारत की छत पर हलचल थी — एक लड़की, सफेद टीशर्ट में, बालों को क्लच में बांधे हुए योगा कर रही थी। उसकी हर हरकत में एक लय थी, जैसे वो अपने ही संगीत में बह रही हो। राहुल ठिठक गया। उसकी नज़रें उस लड़की की तरफ जम सी गईं। वो लड़की बिना कुछ कहे जैसे उसकी सुबह का हिस्सा बन गई। वो कोई शोर नहीं थी — एक सुकून थी। पहली बार राहुल को लगा कि इस शहर में भी कुछ ऐसा है जो उसे रोज़ देखना अच्छा लगेगा।

राहुल की सुबहें अब तयशुदा हो गई थीं। अलार्म बजता, वो उठता, एक कप चाय बनाता और सीधे छत की ओर चला जाता। उसकी नज़रें खुद-ब-खुद सामने की छत की ओर मुड़ जातीं। वो लड़की रोज़ आती थी — एक नियत समय पर, कुछ तयशुदा आसनों के साथ, बिना किसी झिझक के। राहुल को उसका नाम नहीं पता था, न ही उसने कभी उसे देखा कि वो कहां जाती है या आती है, लेकिन एक आदत बन चुकी थी। शहर की भीड़ में जहां लोग एक-दूसरे को धक्का देकर आगे बढ़ते हैं, वहां बिना कुछ कहे, बिना छुए एक रिश्ता पनपने लगा था। राहुल जानता था कि ये एकतरफा था, शायद लड़की ने कभी उसकी तरफ देखा भी न हो, लेकिन उसे फर्क नहीं पड़ता था। कभी-कभी वो छत पर चाय के दो कप रख देता — एक खुद के लिए, एक उसके लिए। ये उसका तरीका था उस मौन रिश्ते को निभाने का, जो उसने खुद से ही जोड़ा था।

वो सुबहें अब राहुल की आत्मा को छूने लगी थीं। उस लड़की की हर हरकत — सांस लेने का तरीका, ध्यान में लीन होने की मुद्रा, और आसमान की ओर उठती उसकी हथेलियां — राहुल के भीतर किसी अनकही कविता को जगा देती थीं। ऑफिस से लौटते हुए भी वो सोचता, क्या वह लड़की कल भी आएगी? क्या वह जानती है कि कोई उसे देख रहा है? या ये सब सिर्फ राहुल की कल्पना है? कई बार उसने हाथ हिलाने की कोशिश की, लेकिन डर के मारे रोक गया। उसे लगा, कहीं ये मौन रिश्ता टूट न जाए। कभी-कभी वो लड़की के चेहरे की दिशा से उसके मूड का अंदाजा लगाने की कोशिश करता — अगर उसने ज्यादा देर तक आंखें मूंदी रखीं, तो शायद वो उदास थी; अगर वो आसमान की तरफ मुस्कुरा दी, तो शायद खुश। राहुल जानता था कि ये उसके मन का भ्रम भी हो सकता है, लेकिन शहर के इस अकेलेपन में अगर कोई भ्रम भी खुशी दे, तो उसे क्यों तोड़ा जाए?

एक दिन राहुल ने सोचा कि वो एक स्केच बनाएगा — उस लड़की का नहीं, बल्कि उस पल का जब सूरज की पहली किरण उसके चेहरे पर पड़ती है और हवा में उसका दुपट्टा लहराता है। वो अपनी डायरी में उस छत का नक्शा बनाने लगा, जहां लड़की खड़ी होती है। एक छोटा पेड़, उसके पास रखी बोतल, और दूर आसमान में उड़ते कबूतर। सबकुछ जैसे उसकी स्मृति में कैद हो गया था। उसे लगा, शायद ये एकतरफा प्रेम नहीं है, बल्कि आत्मा की एक खोज है — जो बिना कहे, बिना मांगे पूरी हो रही है। राहुल अब खुद को बदलते हुए महसूस कर रहा था। वो पहले से कम चिड़चिड़ा था, ज़्यादा मुस्कुराने लगा था, और लोगों की बातों में रुचि लेने लगा था। सबको लगने लगा था कि राहुल को कोई मिल गया है — और हां, उसे सच में कोई मिल गया था, बस बिना नाम, बिना पहचान वाली वो लड़की — छत की रेलिंग पर खड़ी वो लड़की।

***

राहुल को अब अलार्म की ज़रूरत नहीं पड़ती थी। उसका शरीर खुद-ब-खुद उस समय जाग जाता था जब सामने की छत पर वो लड़की आने वाली होती। ये एक बारीक सी लय बन गई थी — जैसे दो छुपे हुए संगीत एक ही ताल में बजते हों। छत पर चाय का कप लिए खड़ा राहुल अब खुद को टटोलने लगा था — क्या ये महज़ आकर्षण था? या फिर कुछ ज़्यादा? वो लड़की अब सिर्फ छत पर मौजूद एक इंसान नहीं रही थी; वो एक प्रतीक बन चुकी थी उस सुकून का, जो राहुल के जीवन से गायब हो गया था। हर सुबह जब वो अपने आसन बदलती, राहुल की आंखें भी बदलते भावों से गुजरतीं — और वो खुद से झूठ नहीं बोल सकता था। उसका दिन उस लड़की को देखे बिना अधूरा लगने लगा था। उसने अपनी खिड़की के पास एक स्केचबुक रख ली थी — जिसमें वो रोज़ उस लड़की के किसी भाव, किसी मुद्रा, या किसी उड़ते बालों को उकेरता। वो जानता था, ये सब असली नहीं है — पर जब तक दिल धड़क रहा हो, कोई भ्रम भी हकीकत से ज़्यादा जरूरी हो सकता है।

उस दिन बारिश आई थी — पहली मुंबई की बारिश। राहुल को लगा आज लड़की नहीं आएगी। लेकिन जैसे ही बादलों के पीछे से हल्की धूप निकली, वो लड़की फिर छत पर दिखी — इस बार पीली कुर्ती में, खुले बालों में। भीगी छत पर योगा करना असंभव था, पर उसने बारिश की बूँदों के बीच आंखें बंद कर ध्यान लगाया। राहुल भीतर से कांप गया। उसे लगा, जैसे वो लड़की अब महज़ देखने की चीज़ नहीं रही — वो अब एक अहसास बन गई थी, एक लय जो उसके भीतर की खामोशियों को गुनगुनाने लगी थी। उस पल राहुल ने पहली बार धीमे से हाथ हिलाया — लड़की ने आंखें खोलीं, इधर देखा — या शायद नहीं देखा। लेकिन राहुल के लिए वो क्षण ठहर गया था।

अगले कुछ दिनों में राहुल की बेचैनी बढ़ने लगी। हर सुबह अब सिर्फ एक सुंदर दृश्य नहीं था, वो एक उम्मीद बन गया था। उसने देखा कि लड़की कभी-कभी बालकनी की ओर भी देखती है, शायद संयोगवश, शायद जान-बूझकर। एक बार उसने देखा कि लड़की के पास रखी बोतल पर नीले रंग की पट्टी थी — उसने भी अपनी छत पर एक नीली बोतल रख दी। जैसे वो बिना शब्दों के कोई संदेश देना चाहता था। किसी दिन वो स्केचबुक की एक तस्वीर उड़ाकर नीचे गिरा देता, कि शायद हवा उसे उड़ा ले जाए। लेकिन कुछ नहीं हुआ। लड़की हर दिन आई, योगा किया, और चली गई — बिना कुछ बदले। राहुल को समझ नहीं आ रहा था कि वो खुद से लड़ रहा है या समय से। क्या ये सब एकतरफा था? या फिर दोनों छतों के बीच कोई अनकहा सेतु बन चुका था जिसे केवल मौन ही समझता है?

एक सुबह राहुल अपनी चाय के साथ अपनी छत पर आया तो देखा कि लड़की ने अपने आसनों के बीच रुककर उसकी ओर देखा। इस बार निश्चित रूप से देखा। कुछ पल के लिए उसकी आंखें ठहर गईं। राहुल को लगा जैसे उसके कानों में कोई धुन बजने लगी हो। उसने फिर हल्के से हाथ हिलाया — लड़की ने सिर झुकाया और योगा में लीन हो गई। राहुल के लिए वो क्षण सब कुछ था। शहर की उस ऊँचाई पर, हज़ारों की भीड़ में, दो अनजान छतों ने कुछ साझा किया था — एक नजर, एक मौन, एक भाव — जो शब्दों से कहीं ज़्यादा गहरे थे। राहुल मुस्कुराया और पहली बार उसे महसूस हुआ कि हो सकता है, उस लड़की के लिए भी ये आदत सी बन गई हो — उसे देखना, उस छत पर किसी की मौजूदगी को महसूस करना। और शायद, ये सिर्फ राहुल की ही कहानी नहीं रही — अब यह उनकी साझा सुबह की कहानी बन गई थी।

***

छत से उतरते वक्त राहुल के पैर जैसे ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे, नीला लिफाफा अब भी उसकी उंगलियों में कांप रहा था। वो बालकनी की रेलिंग पर टिककर खड़ा रहा, उसके होंठों पर एक अनजानी मुस्कान थी, और आंखों में उम्मीद। “क्या तुम चाय पर मिलोगे?” — ये सवाल उसके जीवन का पहला ऐसा सवाल था जिसमें न जवाब की ज़रूरत थी, न सफाई की। वह बस दौड़कर सबसे पहले रसोई में गया, अपनी पुरानी केतली निकाली, और चायपत्ती की खुशबू में वो लम्हा कैद करने लगा जो सालों तक उसकी तन्हाई का साथी रहा था। वह नहीं जानता था लड़की किस फ्लैट में रहती है, कौन है, पर उसे यकीन था कि आज वह मिलने वाली है। उसने अपनी छत को अच्छे से साफ किया, दो प्याले निकाले, और टेबल पर एक गुलाब रख दिया — बस एक।

घड़ी की सुइयों का घूमना आज कुछ धीमा लग रहा था। जैसे वक्त भी उस मुलाकात को संजोना चाहता हो। और फिर, दरवाजे की घंटी बजी। राहुल ने हल्के कांपते हाथों से दरवाज़ा खोला, सामने वो ही लड़की खड़ी थी — वही मुस्कान, वही आंखें, बस आज पहली बार इतनी पास। वो हल्के नीले सूट में थी, हाथ में वही रूमाल था जिस पर उसने लिखा था, और आंखों में उतनी ही शांति जितनी राहुल हर सुबह महसूस करता था। बिना कुछ कहे, उसने राहुल की तरफ हाथ बढ़ाया, “मैं सना हूं।” राहुल ने उसका हाथ थामते हुए कहा, “राहुल।” वो दोनों छत पर आ गए, जैसे आसमान नीचे उतर आया हो। चाय के पहले घूंट के साथ दोनों की निगाहें मिलीं — और कुछ न कहते हुए भी सबकुछ कह दिया गया।

वो चाय एक स्वाद बन गई — यादों की, तन्हाई की, उम्मीद की और अब साथ की। सना ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं रोज़ तुम्हें देखती थी, पर कभी हिम्मत नहीं हुई कि बात करूं। लगा, शायद यह जो मौन है, यही ठीक है। पर फिर एक दिन तुम्हारा वो ‘Good Morning’ का कार्ड आया, और मुझे लगा कि शायद अब वक्त है।” राहुल हंस पड़ा, “और मुझे लगा कि मैं बस कल्पना कर रहा हूं, शायद तुमने कभी देखा ही नहीं।” दोनों हंस पड़े। शहर की शोर में, जहां कोई किसी को सुनता नहीं, वहां दो छतों के बीच एक संवाद पनपा — चाय की खुशबू में डूबा हुआ, नजरों की चुप सहमति में बसा हुआ। और उस दिन, पहली बार, राहुल को यकीन हुआ कि पहली मोहब्बत सिर्फ किताबों या कॉलेज के गलियारों तक सीमित नहीं होती — वो कभी भी, कहीं भी, किसी छत की रेलिंग से भी शुरू हो सकती है।

***

उस सुबह आसमान कुछ ज़्यादा ही साफ़ था — जैसे बादलों ने खुद को हटा लिया हो ताकि दो आंखों की मुलाकात बिना धुंध के पूरी हो सके। राहुल छत पर पहले से ही बैठा था, एक कप अदरक वाली चाय उसके हाथों में, मन में एक अनकही बेचैनी। पिछली शाम जो हुआ था — सना का अचानक मिलना, उसका नाम, उसकी आंखों की गर्माहट — वो अब एक ख्वाब नहीं रह गया था। पर आज कुछ अलग था। आज सना ने अपने साथ वो नीला रूमाल लाया था, वही जिस पर उसने पहली बार लिखा था: “मैंने तुम्हें देखा है।” लेकिन आज उसमें कुछ और लिखा था। दूर से राहुल उसे देख नहीं सका, लेकिन सना ने जब धीरे-धीरे वह रूमाल हवा में लहराया, तो राहुल जैसे अपने आप उसकी ओर खिंच गया। वह नीचे भागा, दोनों इमारतों के बीच की गली पार की, और पहली बार उस बिल्डिंग की सीढ़ियाँ चढ़ीं, जहाँ वो हर सुबह खामोशी से देखता आया था।

छत पर पहुँचते ही सना ने बिना कुछ कहे रूमाल उसकी ओर बढ़ाया। रूमाल की तहों को खोलते हुए राहुल की उंगलियाँ काँप रही थीं, और आँखों में हल्की नमी तैरने लगी थी। उस पर लिखा था — “क्या कभी तुम भी उतने अकेले थे जितना मैं हूँ?” उस एक वाक्य ने राहुल के भीतर छुपे सारे मौन को जैसे आवाज़ दे दी। उसने सना की ओर देखा, और उसके चेहरे पर पहली बार उस मुस्कान के पीछे की थकान दिखी — वो जो अकेलेपन की आदत बन जाती है, वो जो शहर में रहते हुए भी इंसान को भीतर से खोखला कर देती है। राहुल ने उसके पास बैठते हुए सिर्फ इतना कहा, “हम दोनों शायद इतने सालों से एक-दूसरे के इंतज़ार में थे — छतों के बीच, मौन के भीतर, और आंखों की भाषा में।” सना ने सिर झुकाया, और पहली बार उसकी आंखों से एक बूंद गिर कर रूमाल पर पड़ी — एक नीली स्याही सी जिसमें दो दिलों की कहानी घुल चुकी थी।

उस दिन दोनों घंटों छत पर बैठे रहे। चाय खत्म हो चुकी थी, लेकिन बातों का प्याला अभी भी भरा था। सना ने बताया कि वह एक इंटीरियर डिज़ाइनर है, पर पिछले एक साल से वर्क फ्रॉम होम में अपने ही भीतर गुम हो गई थी। राहुल ने अपनी कविताओं की डायरी उसे दिखाई — जिसमें हर पन्ना सना के लिए था, बस नाम नहीं था। वो दोनों हँसे, कभी चुप हुए, फिर मुस्कराए — जैसे बचपन के दोस्त सालों बाद मिल रहे हों। लेकिन सबके बीच जो सबसे सुंदर चीज़ थी, वो थी उनका मौन — अब भी वैसा ही, बस थोड़ा सा और अपना, थोड़ा सा ज़्यादा गहरा। नीले रूमाल की उन तहों में अब सिर्फ एक सवाल नहीं, बल्कि दो ज़िंदगियों की पहली परत खुली थी। और राहुल जानता था — ये तो बस शुरुआत थी।

***

राहुल उस सुबह कुछ ज़्यादा ही हल्का महसूस कर रहा था। छत पर सना के साथ बिताया कल का हर लम्हा अब उसकी धड़कनों में स्थायी हो चुका था, जैसे कोई धुन जो बार-बार दिल में बजती हो। मगर आज वह छत पर अकेला था — सामने की छत खाली थी। ना नीला रूमाल, ना कोई नज़रों की भाषा। घंटे बीतते गए, पर सना नहीं आई। राहुल ने खुद को समझाया कि शायद काम होगा, या नींद में देर हो गई होगी, पर मन बार-बार बेचैन हो उठता। शाम होते-होते उस बेचैनी ने हल्का भय ओढ़ लिया — जैसे अचानक कोई आहट बंद हो जाए, और कानों में एक सन्नाटा गूंजने लगे। वह छत पर बैठा रहा देर तक, गोधूलि के बाद भी, जब आसमान की नीली चादर काली हो चुकी थी। तभी अचानक एक पत्ता उड़ता हुआ आया — पर वो पत्ता नहीं था। वो एक काग़ज़ था, तह किया हुआ, किनारे से हल्का जला हुआ। राहुल ने उसे पकड़कर खोला, और जो पढ़ा — वो उसके भीतर एक झंझावात छोड़ गया।

काग़ज़ पर सना की लिखावट थी। वही गोल-गोल अक्षर, जो उसने नीले रूमाल पर पहले दिन देखे थे। लेकिन यह कोई हल्का-फुल्का नोट नहीं था। उसमें लिखा था: “राहुल, अगर ये खत तुम तक पहुँचे, तो समझना कि मैंने सचमुच तुम्हें देखा, महसूस किया, और जाना — उस मौन में जो हमारी सुबहों का हिस्सा बन चुका था। मगर मेरे जीवन की शाम कुछ और है, जिसमें अंधेरा थोड़ा ज़्यादा है। मैं कभी-कभी खुद को खोजते हुए खो जाती हूँ, और फिर कुछ दिन वापस नहीं लौटती। इन दिनों में, अगर मैं तुम्हें नहीं दिखूं, तो नाराज़ मत होना — मेरी मौजूदगी सिर्फ उस छत तक सीमित नहीं है। मैं अब तक जितनी बार भी गायब हुई, कोई नहीं पूछता था — पर तुम्हारी नज़रें हर रोज़ मुझे ढूंढती थीं। यही मेरे लिए काफी है। अगर लौट सकी, तो वो सुबह एक नई शुरुआत होगी। अगर नहीं लौटी… तो शायद ये खत मेरी आख़िरी आवाज़ है।” राहुल की आंखों में उस समय कुछ नमी थी, कुछ कंपकंपी। ये खत किसी तूफान से पहले की चुप्पी जैसा था, जो आने वाली अधूरी कहानी की आहट देता है। उसे नहीं पता था कि सना कहाँ गई है, पर अब वो जानता था कि सना कोई रहस्य लेकर जी रही थी — वो रहस्य, जो सुंदरता और अकेलेपन की परतों में छुपा हुआ था।

अगले कई दिन राहुल छत पर बैठा रहा — कभी खाली बालकनी की ओर देखता, कभी उस खत को बार-बार पढ़ता। हर बार उसके शब्द थोड़े अलग लगते — जैसे सना खुद धीरे-धीरे उससे कुछ और कह रही हो। कभी लगता कि खत में छुपी पीड़ा दरअसल किसी हादसे का संकेत है, कभी लगता कि यह महज़ भावनाओं की गहराई है जो एक आत्मा को डुबो देती है। वह उस खत को अपने कमरे में रखता, तकिए के नीचे, और हर रात उसे पढ़े बिना नींद नहीं आती। धीरे-धीरे, सना एक व्यक्ति से ज़्यादा एक प्रतीक बन गई थी — उस किस्म की मोहब्बत का जो अधूरी होते हुए भी पूरी लगती है, जो शब्दों के बिना भी दिल को बुन लेती है। मगर राहुल का मन अब किसी संकेत की तलाश में था — एक और उड़ता हुआ खत, कोई आवाज़, कोई हल्का सा परछाईं का इशारा। वो जानता था, शहर की ये छतें, और इनकी खामोशी, कोई न कोई जवाब जरूर देती हैं — बस इंतज़ार की आदत होनी चाहिए।

***

सना के खत के बाद बीते सात दिनों ने राहुल को वक्त की सुइयों से ज़्यादा किसी प्रतीक्षा की थरथराहट से जोड़ दिया था, जैसे हर सुबह की धूप उसके कमरे में दाख़िल होती तो वह सबसे पहले सामने की छत की ओर देखता — उस एक ख्याल के साथ कि शायद सना लौट आई हो। मगर खाली छत एक तरह से अब राहुल का आईना बन चुकी थी, जिसमें वह अपनी अधूरी बेचैनी को साफ़-साफ़ देख सकता था। मगर उस सुबह कुछ बदल गया — जब वह हमेशा की तरह बालकनी में आया और देखा कि सामने की छत पर नीली चादर बिछी हुई थी, और उसके ऊपर कोई किताब खुली पड़ी थी। दिल धड़कने लगा, जैसे किसी पुराने गीत की धुन हवा में तैर रही हो। छत पर कोई नहीं था, लेकिन उस किताब की उपस्थिति एक इशारा थी — जैसे सना कोई संदेश छोड़ गई हो। राहुल ने दूरबीन से देखने की कोशिश की, तो देखा कि वो किताब “The Secret Garden” थी — वही किताब जो सना ने एक बार कहा था कि वो बार-बार पढ़ती है जब वो खुद से छुपना चाहती है। उसके पन्नों के बीच कुछ रंगीन पोस्ट-इट्स लगे थे। एक हल्के पीले रंग का नोट हवा से फड़फड़ा रहा था — उस पर शायद कुछ लिखा था, और राहुल अब और इंतज़ार नहीं कर सकता था। उस पल, उसे सिर्फ इतना यकीन था कि सना आसपास है — अगर नहीं देह में, तो धूप की उस गर्माहट में जो अब धीरे-धीरे उसके कमरे में घुल रही थी।

राहुल ने बिल्डिंग की सीढ़ियाँ दो-दो करके पार कीं, जैसे उसके कदम खुद को रोक नहीं पा रहे हों। जब वह छत पर पहुँचा, तो सबकुछ वैसा ही था — नीली चादर, खुली किताब, और वो पीला नोट जो अब भी चुपचाप कुछ कहने की कोशिश कर रहा था। उसने किताब के बीच से वो नोट निकाला और पढ़ा — “धूप जब नाम लेती है, तो कोई कहीं से ज़िंदा हो उठता है। मैं ज़िंदा हूँ, राहुल — पर अपने अतीत की खिड़की से बाहर झांकने की कोशिश कर रही हूँ। अगर तुम चाहो, तो उस खिड़की पर दस्तक दे सकते हो। नीचे वाले लाल घर में, जहां दादी का पुराना झूला अब भी बजता है, वहीं मैं हूँ — आज शाम तक। अगर न आ सको, तो समझूँगी कि मेरी कहानी सिर्फ छत तक ही थी।” राहुल की आंखें भीग गईं — न सिर्फ इस भावुक निमंत्रण से, बल्कि इस एहसास से कि सना ने उसे पहली बार किसी भूत की तरह नहीं, बल्कि अपने वर्तमान की रोशनी में बुलाया था। यह खत महज़ एक ठिकाने का ज़िक्र नहीं था — यह विश्वास की चिट्ठी थी, वो पुल, जो अनकही भावनाओं को दो ज़िंदगियों के बीच बाँधने की कोशिश करता है।

शाम होते-होते राहुल ने खुद को उस लाल मकान के सामने पाया, जहाँ की खिड़की में पुराने पर्दे अब भी हवा में लहराते थे, और अंदर से कोई सितार की धीमी सी तान सुनाई दे रही थी। वो झूला भी दिखा — बिल्कुल वैसा जैसा खत में बताया गया था, और वहाँ बैठी थी सना — एक हल्की मुस्कान, आँखों में काजल की थकावट, लेकिन होंठों पर एक गहरी शांति। उसने राहुल को आते देखा, और बिना कुछ कहे बगल में बैठने का इशारा किया। राहुल चुपचाप उसके पास बैठ गया — कोई शब्द नहीं, कोई सवाल नहीं। बस वो शाम, वो पुराना झूला, और बीच में दो धड़कते दिल। उन्होंने एक-दूसरे की ओर देखा, और सना ने धीरे से कहा, “मैं वापस नहीं गई थी, राहुल — मैं खुद के भीतर गई थी। और वहाँ तुम मिल गए।” उस वाक्य के साथ जैसे दोनों की खामोशी पूरी हो गई थी। पहली बार राहुल ने धूप में अपना नाम सुना — और जाना, कि सना सिर्फ उस छत पर नहीं थी, वो उसके भीतर के सबसे खूबसूरत कोने में हमेशा के लिए ठहर गई थी।

***

वक़्त एक ऐसी चीज़ है जो कभी स्थिर नहीं रहती, मगर कुछ लम्हों को वह किसी ताबीज़ की तरह कलाई पर बाँध देता है — जैसे राहुल और सना का वह शाम, लाल घर की खिड़की से झांकती धूप और झूले पर बैठी चुप्पियों का संगीत। उस दिन के बाद सबकुछ बदल गया — या शायद कहें कि अब जाकर ज़िंदगी ने वो रूप लिया, जिसकी झलक हर सुबह छत पर दिखती थी। सना अब वापस अपने उसी फ्लैट में नहीं गई — उसने खुद को उस लाल घर के भीतर समेट लिया था, अपने अतीत की दीवारों को साफ़ किया, और राहुल को उनमें रंग भरने दिया। वे हर दिन मिलते, कभी छत पर चाय पीते, कभी झूले पर खामोशी साझा करते। शहर की हलचल अब उनके बीच नहीं थी — वो एक निजी बस्ती बस गई थी, जिसमें सिर्फ दो किराएदार थे: एक जो लिखता था, और एक जो पढ़ लेती थी बिना पढ़े। मगर एक सुबह, जब राहुल अपनी बालकनी में आया — वह छत फिर से खाली थी। नीली चादर नहीं, कोई किताब नहीं, कोई खत नहीं।

वह दिन कुछ अलग था। हवा में कोई घबराहट नहीं थी, कोई सर्दपन नहीं। फिर भी, राहुल की छाती में एक हल्का खिंचाव था, जैसे कोई धागा फिर से कस गया हो। दिन भर इंतज़ार किया, शाम ढली, पर सना नहीं आई। वह लाल घर गया, वहाँ ताला लगा था। एक पड़ोसी महिला ने बताया कि “वो लड़की” सुबह-सुबह चली गई, शायद कुछ दिनों के लिए। राहुल लौट आया, और उसी रात उसकी बालकनी में कुछ गिरा — एक नीला रूमाल, तह किया हुआ। राहुल ने कांपते हाथों से उठाया, खोला — उसमें एक छोटा सा नोट था, बस चार शब्द: “मैं आऊँगी — धूप बनकर।” बस वही। और इस बार राहुल मुस्कराया — क्योंकि अब वो डर नहीं रहा था, अब उसे इंतज़ार की आदत थी। वो जानता था कि मोहब्बत कभी पूरी नहीं होती, पर जब वो अधूरी होती है, तब ही उसके पास ठहरने की वजह होती है।

अगली सुबह, जब सूरज की पहली किरणें बालकनी में उतरीं, राहुल छत पर गया। सामने की छत खाली थी, पर उसके चारों ओर जो उजाला था — उसमें सना की मौजूदगी घुली हुई थी। हवा में चाय की गंध नहीं थी, मगर उसकी स्मृति अब हर सांस में थी। उसने अपनी डायरी निकाली और पहला वाक्य लिखा: “कुछ मोहब्बतें छत से शुरू होती हैं, और आसमान में जाकर पूरी होती हैं।” वो जानता था कि ये आख़िरी छत है — वही छत जहाँ से उसने पहली बार देखा था, पहली बार चाहा था, पहली बार किसी की आंखों में सुबह देखी थी। मगर आज, ये पहली सुबह थी — जहाँ कोई इंतज़ार नहीं था, कोई डर नहीं, बस एक यकीन था — कि कोई, कहीं, किसी हवा में नाम ले रहा है… और धूप, अब उसकी अपनी भाषा बन गई है।

 

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