आयुषी राठौर
भाग 1: आवाज़ों के बीच
“धड़-धड़-धड़-धड़।”
नवीन त्रिपाठी की सुबह की पढ़ाई का राग एक बार फिर उस मोगरी की थाप से बिगड़ गया। उसने ज़ोर से किताब बंद की, चश्मा उतारा, और आंखें मिचमिचाते हुए सामने वाली छत की ओर देखा।
वहीं थी — वही लड़की — नीली सलवार-कुर्ता, बाल झटका हुआ, हाथ में मोगरी। मुस्कुरा रही थी, मानो जानबूझकर ये सब कर रही हो।
“ओ मैडम!” नवीन ने आवाज़ लगाई, “थोड़ा धीरे चला लीजिए मोगरी। हर दिन यही शोर!”
लड़की ने थाली में से कपड़े निकालते हुए कहा, “पढ़ाई में मन नहीं लग रहा तो मोगरी को मत दोष दो भैया।”
“भैया?” नवीन को जैसे किसी ने झटका दिया। उसने अपनी उम्र को याद किया — 24. और फिर उसकी — ज़्यादा से ज़्यादा 22।
“आप मेरे पड़ोसी हैं, भैया बोलूं तो क्या शरम?” वह मुस्कुराई।
नवीन ग़ुस्से में वापस बैठ गया। ‘मोहल्ला अजीब है, और ये लड़की सबसे ज़्यादा।’
उसका घर लखनऊ के पुराने चौक इलाके में था, जहां घर इतने पास-पास थे कि एक छत से दूसरी छत पर पतंग की डोर फेंकी जा सकती थी। यहीं वह अपनी दादी के घर पढ़ाई के लिए आया था—IAS की तैयारी कर रहा था, हर सुबह योग, फिर पढ़ाई, फिर… मोगरी।
“तुम्हारा नाम क्या है?” एक दिन उसने पूछ ही लिया।
“क्यों? रिपोर्ट करोगे नगर निगम में?”
“अगर मोगरी बंद हो जाए, तो सोच सकता हूँ,” नवीन ने तंज कसा।
“नाम है—स्मृति। अब रोज़ याद रखोगे मुझे?”
नवीन कुछ बोल नहीं पाया। पहली बार उसकी हँसी थोड़ी अलग लगी — चिढ़ाने वाली नहीं, बुलाने वाली।
दिन बीतते गए। सुबह मोगरी की आवाज़, दोपहर में चाय बनाते हुए धुएँ की लकीरें, शाम को पंखों की आवाज़—इन सबके बीच स्मृति और नवीन के बीच एक अलिखित संवाद बन गया था।
कभी-कभी स्मृति खटिया निकालकर छत पर बैठती और उँगलियों से डिजाइन बनाते-बनाते नवीन को देखती। नवीन भी अब अपने कोर्स के बीच कभी-कभी उसकी ओर देख लिया करता।
एक दिन, बिजली चली गई।
नवीन किताब लिए-लिए छत पर आया। गर्मी असहनीय थी।
“यहाँ बैठ सकते हो,” स्मृति ने पास की चारपाई की ओर इशारा किया।
“थैंक्स,” नवीन ने धीरे से कहा।
“आज मोगरी नहीं चली,” उसने मुस्कराते हुए जोड़ा।
“हाँ, इसलिए आज मन भी नहीं भटका।”
“या शायद मोगरी से ही मन जुड़ गया है अब?” स्मृति ने चुपचाप कहा।
नवीन को पहली बार लगा कि शोर से भी रिश्ते बन सकते हैं।
अचानक एक दिन स्मृति छत पर नहीं आई। अगले दिन भी नहीं।
तीसरे दिन जब वह लौटी, उसके हाथ में बड़ा सा स्केचबुक था।
“कहाँ थीं?” नवीन ने पूछा।
“दिल्ली गई थी—डिज़ाइन स्कूल से प्रोजेक्ट मिला है, छह महीने का,” वह बोली, जैसे बात खत्म हो गई हो।
“छह महीने? मतलब तुम…”
“हूँ… छत से मोगरी की आवाज़ नहीं आएगी अब,” उसने नज़रें झुका लीं।
“और तुम्हें मेरी पढ़ाई में कोई खलल नहीं पड़ेगा,” वह हँसने की कोशिश में बोली, लेकिन आवाज़ कांप रही थी।
नवीन कुछ बोल नहीं पाया। कुछ था उस शोर में जो अब शांत हो रहा था।
रात को पहली बार उसने दादी से कहा, “दादी, दिल्ली का इंटरव्यू है—मैं सोच रहा हूँ जाऊँ।”
“अरे वाह! लड़का उड़ने को तैयार है!” दादी ने चुटकी ली।
लेकिन नवीन को पता था, ये उड़ान कहीं और थी—जहाँ एक मोगरी थी, एक मुस्कान थी… और शायद एक शुरुआत।
भाग 2: सफ़र की सरहदें
दिल्ली स्टेशन पर उतरते ही नवीन को एक अलग-सी घबराहट महसूस हुई। धुएँ, हॉर्न और भागती भीड़ के बीच वह किसी एक चीज़ को ढूंढ रहा था — कोई जाना-पहचाना शोर, शायद मोगरी की थाप। लेकिन यहाँ तो सब कुछ तेज़ था, बेचैन था।
इंटरव्यू से एक दिन पहले वह राजीव चौक के पास एक छोटे से लॉज में रुका। कमरे की दीवारें हल्की पीली थीं, जैसे किसी पुराने ख्वाब की परतें। खिड़की से झाँकते हुए उसे याद आया — स्मृति ने कहा था उसका प्रोजेक्ट किसी फैशन हाउस में लगा है, साउथ एक्सटेंशन के पास।
“साउथ एक्स?” उसने खुद से कहा और बिना ज़्यादा सोचे मेट्रो की ओर निकल गया।
साउथ एक्स के बाज़ार में उसे सब कुछ चमकता दिखा — शोरूम्स, डिसप्ले विंडो, डिज़ाइनर ड्रेसेज़ और बीच में घूमते लोग जिनकी चालों में आत्मविश्वास था। और तभी, दूर एक शीशे के पीछे, उसे दिखी — स्मृति।
वह झुकी हुई थी, किसी ड्रैप की कटिंग को देख रही थी, फिर हँसते हुए किसी सीनियर से कुछ कह रही थी। उसके चेहरे पर वही घर वाली नर्म मुस्कान थी, लेकिन आँखों में अलग सी चमक — कुछ पा लेने की, कुछ बनने की।
नवीन वहीं रुका रहा — एक अनजान, भीड़ में छिपा दर्शक बनकर।
वह बिना कुछ कहे लौट गया।
इंटरव्यू वाले दिन सुबह वह जल्दी तैयार हो गया। नीले शर्ट और ग्रे पैंट में वह खुद को दर्पण में देखता रहा — “क्या मैं अब वैसा दिखता हूँ, जैसा वो सोचती होगी?”
इंटरव्यू में उसने अच्छा किया। उत्तर सीधे, स्पष्ट और विनम्र थे। लेकिन जब बोर्ड ने पूछा, “आप किसी ऐसे अनुभव के बारे में बताइए जिसने आपके सोचने का तरीका बदला हो,” तो वह चुप हो गया।
फिर बोला, “मुझे लगता है, कभी-कभी सबसे छोटी आवाज़ें भी ज़िंदगी में सबसे बड़ा परिवर्तन लाती हैं। जैसे किसी की मोगरी की आवाज़, जो सुबह की खामोशी को तोड़ती थी — वह मुझे परेशान नहीं करती थी, वह मुझे जगा देती थी। और शायद सिखाती थी कि हर शोर में कोई कहानी छिपी होती है।”
बोर्ड के सदस्य मुस्कुराए। शायद उन्हें जवाब पसंद आया।
वापसी की ट्रेन शाम की थी। वह फिर से साउथ एक्स गया — इस बार सोचकर, निर्णय लेकर।
बिल्डिंग के रिसेप्शन पर उसने पूछा, “स्मृति यादव?”
रिसेप्शनिस्ट ने पूछा, “आपका नाम?”
“नवीन त्रिपाठी… बस, एक पुराना जानकार हूँ।”
किसी ने उसे ऊपर भेजा नहीं, बल्कि स्मृति खुद ही नीचे आ गई। जैसे वह जानती थी।
“दिल्ली?” उसने पूछा, हैरानी और मुस्कान साथ-साथ।
“हाँ, इंटरव्यू था। और शायद… कुछ अधूरा छोड़ गया था।”
स्मृति चुप रही।
“तुम बहुत बदल गई हो,” नवीन ने कहा।
“और तुम बिल्कुल नहीं,” वह मुस्कुराई, “अब भी वही किताबों वाला चेहरा।”
“और अब भी वही मोगरी वाला असर है,” उसने कहा।
वे दोनों हँसे — कुछ अनकहे पलों को ज़ुबान मिलने लगी थी।
“तुम कब लौट रही हो?” नवीन ने पूछा।
“छह महीने बाद,” उसने कहा।
“और तब तक?”
“तब तक ये शहर मेरा घर है, और काम मेरा साथी।”
“और मैं?” उसने धीरे से कहा।
स्मृति कुछ नहीं बोली। लेकिन उसके चेहरे की नमी बता गई कि कुछ कहा गया था।
ट्रेन में बैठते वक्त नवीन की जेब में एक छोटा कागज़ था — स्मृति का लिखा हुआ एक स्केच, जिसमें छत, दो कुर्सियाँ और एक कोना था, जहां एक लड़का किताब पढ़ रहा था और लड़की कपड़े पीट रही थी।
नीचे लिखा था — “शोर से रिश्ते बनते हैं, बस दिल में जगह चाहिए।”
नवीन ने आँखें बंद कीं। उसे पता था, दिल्ली उसकी मंज़िल है। लेकिन लखनऊ अब सिर्फ दादी या किताबों के लिए नहीं था। वह शहर था जहाँ एक छत थी, एक मोगरी थी, और एक लड़की थी… जिसका इंतज़ार अब हर सुबह की आदत बन गया था।
भाग 3: ख़त जो छत से गिरा
लखनऊ की सर्दियाँ दस्तक दे चुकी थीं। मोहल्ले की गलियों में मूँगफली वाले ठेले, ऊनी टोपी में लिपटे बच्चे और खांसते हुए चायवाले — सब कुछ वैसा ही था। बस एक चीज़ गायब थी — सामने वाली छत पर मोगरी की थाप।
नवीन ने दिल्ली से लौटने के बाद खुद को पढ़ाई में डुबा लिया था, लेकिन अब सुबहें खाली लगती थीं। दादी चुपचाप देखती थीं—उन्हें पता था कि उसके जीवन में अब केवल IAS नहीं रहा।
एक सुबह, जब वह छत पर बैठा अख़बार पढ़ रहा था, एक हल्का नीला लिफाफा हवा में उड़ता हुआ उसकी ओर आया और पैरों के पास आकर रुका।
उसने लिफाफा उठाया—ऊपर कोई नाम नहीं, पर अंदर की लिखावट पहचानने लायक थी।
“प्रिय मोगरी-पीड़ित पड़ोसी,
पता है, दिल्ली बहुत तेज़ है। यहाँ हर कोई दौड़ में है, और मैं भी। लेकिन जब कभी बैठकर कॉफ़ी पीती हूँ, तो तुम्हारी वो चाय वाली स्टील की केतली याद आती है।
छत की खामोशी, तुम्हारी झुंझलाहट, और वो किताबें—सब कुछ याद आता है।
अगर एक दिन तुमसे फिर मिलना हो, तो शायद मैं बताऊँ कि दिल्ली में सबसे ज़्यादा क्या मिस करती हूँ — मोगरी का शोर नहीं, तुम्हारा वो चुप रहना, जब सब बोलते थे।
— स्मृति”
नवीन बहुत देर तक लिफाफा हाथ में लेकर बैठा रहा। उसे नहीं पता चला ये कब लिखा गया, कैसे आया, लेकिन शायद यही मोहब्बत थी—बिना तारीख़, बिना टिकट।
अगले दिन वह मोहल्ले के बच्चों के साथ पतंग उड़ा रहा था, जब पड़ोस की बुज़ुर्ग अम्मा ने पास आकर कहा, “बिटवा, वो स्मृति आई थी रात में। छत पर कुछ रख गई है तुम्हारे लिए।”
नवीन जैसे सीढ़ियाँ उड़ता हुआ ऊपर पहुँचा। वहां, कोने में एक छोटा-सा कैनवास रखा था। उस पर एक स्केच बना था—छत, दो मग, और बीच में एक खाली कुर्सी।
पीछे लिखा था—“अभी खाली है, लेकिन हमेशा के लिए नहीं।”
अब वह रोज़ सुबह छत पर जाता। स्मृति नहीं होती, लेकिन उसका स्केच, उसकी लिखी चिट्ठियाँ, और उसकी हँसी हवा में कहीं छिपी होती।
एक शाम वह दादी के साथ बाज़ार गया। लौटते समय रास्ते में उसने देखा—एक नई टेलर शॉप खुल रही थी, नाम था “Smriti Studio – Handcrafted by Heart.”
वह भीतर गया।
स्मृति अंदर डिजाइनिंग बोर्ड के सामने खड़ी थी, आँखों में वही चमक, चेहरे पर वही आत्मविश्वास। उसे देखकर चौंकी नहीं, बस मुस्कराई।
“वापस आ गई?” नवीन ने पूछा।
“मैं गई कब थी?” उसने पलटकर कहा।
“दिल्ली?”
“दिल्ली अब मेरा प्रोजेक्ट नहीं, मेरी सीख थी। घर की याद दिलाने वाली जगह थी। पर घर हमेशा यहाँ था।”
“और मोगरी?” नवीन ने हँसते हुए पूछा।
“अब उससे दोस्ती हो गई है। आवाज़ से मोहब्बत हो जाए तो शिकायत नहीं रहती।”
दोनों बाहर निकले। मोहल्ले की वो पुरानी गली, वही पान की दुकान, वही अजीब से कटे हुए बिजली के तार — अब सब कुछ सुंदर लग रहा था।
“एक बात कहूँ?” स्मृति ने कहा।
“हाँ।”
“तुम्हारी ज़िंदगी में जो भी शोर है, मैं उसमें थोड़ा संगीत जोड़ना चाहती हूँ। अगर इजाज़त हो।”
नवीन ने उसकी तरफ देखा — उसके बालों में शाम की हवा उलझ रही थी। आँखें स्थिर थीं, पर गहराई में कुछ तैरता हुआ।
“और अगर मैं कहूँ कि मुझे हर सुबह सिर्फ वही शोर चाहिए — मोगरी का, तुम्हारा, हमारे बीच का?”
स्मृति मुस्कुरा दी।
“तो कल सुबह से फिर शुरू करती हूँ,” उसने कहा।
“मुझे भी पढ़ना है,” नवीन ने जोड़ा।
“और मुझे तुम्हें तंग करना है,” स्मृति बोली।
सर्द हवाओं के बीच, मोहल्ले की उस छत पर, एक रिश्ता फिर से मोगरी की आवाज़ के सहारे बन रहा था—इस बार बिना झुंझलाहट के, सिर्फ समझदारी और प्रेम से।
भाग 4: चाय, चुप्पी और चमकदार धूप
सर्दियों की धूप में लखनऊ की छतें सोने जैसी लगती थीं। प्लास्टিক की कुर्सियाँ, सूखते कपड़े, और हर छत पर किसी न किसी किस्म की बातचीत होती रहती—कहीं अचार पलटते हुए, कहीं गमले में पानी डालते हुए। लेकिन त्रिपाठी जी की छत पर आज कुछ और खास था—दो मग चाय, दो इंसान, और उनके बीच एक बहुत प्यारी चुप्पी।
“आजकल मोगरी नहीं बज रही,” नवीन ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।
“जानबूझकर नहीं बजा रही,” स्मृति ने मुस्कराकर जवाब दिया। “सोचा, क्या पता तुम अब वो आवाज़ मिस करो।”
“मैं तो अब तुम्हारी हर आवाज़ मिस करता हूँ।” नवीन की यह बात सुनकर स्मृति ने एक लंबी साँस ली।
“कभी कभी सोचती हूँ,” वह बोली, “अगर मैं मोगरी ना बजाती, और तुम ना चिढ़ते, तो शायद हम कभी बात भी ना करते।”
“सही कहा,” नवीन ने हामी भरी। “कभी-कभी प्यार की शुरुआत एक झुंझलाहट से भी हो सकती है।”
“और कभी-कभी चाय से,” स्मृति ने अपना मग उठाकर टोस्ट किया।
अचानक नीचे गली से आवाज़ आई — “स्मृति दीदी! सिलाई कब मिलेगी?”
स्मृति ने झाँककर देखा — दो मोहल्ले की लड़कियाँ, अपनी साइकिलें थामे खड़ी थीं।
“अरे आ रही हूँ!” स्मृति ने हँसते हुए कहा और नवीन की तरफ मुड़ते हुए बोली, “अब तो पूरा मोहल्ला मेरा कस्टमर है।”
“और मैं?” नवीन ने पूछा।
“तुम… तुम तो डिज़ाइन के बाहर के आदमी हो। तुम्हारा नाप लेना आसान नहीं।”
“पर दिल का कपड़ा तो तुम्हीं ने सिल दिया,” उसने धीरे से कहा।
स्मृति एक पल के लिए चुप रह गई। उसके चेहरे पर एक अजीब सी गंभीरता उतर आई।
“नवीन, क्या तुम्हें कभी डर नहीं लगता कि हम जो कर रहे हैं, वो बहुत जल्दी किसी मोड़ पर थम न जाए?”
“कभी लगता है,” नवीन ने ईमानदारी से कहा, “पर फिर लगता है कि थमने से पहले अगर जी लिया जाए, तो डर की कोई जगह नहीं बचती।”
शाम को स्मृति वापस आई तो उसके पास एक छोटा पैकेट था। उसने चुपचाप नवीन की तरफ बढ़ा दिया।
“क्या है?” नवीन ने पूछा।
“खोलकर देखो।”
अंदर एक सफ़ेद कुर्ता था, जिस पर नाज़ुक हाथ की कढ़ाई थी। किनारे पर लाल धागे से छोटे-छोटे शब्द लिखे थे — “शोर में भी सुकून होता है।”
“ये… तुमने…”
“हाँ,” स्मृति ने कहा, “कभी तुम्हारे इंटरव्यू में जो तुमने कहा था, वही लाइन याद रह गई थी। सोचा पहनोगे तो खुद को याद रहेगा।”
नवीन को जवाब नहीं सूझा। उसकी आँखों में हल्की नमी तैरने लगी थी।
रात को दादी ने पूछा, “बिटवा, अब शादी की सोच रहे हो कि अभी IAS ही दुल्हन है?”
नवीन ने मुस्कराते हुए कहा, “दादी, अगर मोगरी वाली लड़की हो तो दोनों साथ चला लूंगा।”
दादी ने चश्मा उतारते हुए कहा, “शाबाश, पहली बार सही जवाब दिया तूने।”
अगली सुबह छत पर फिर मोगरी की थाप गूँजी — लेकिन इस बार वो चिढ़ाने के लिए नहीं, बुलाने के लिए थी। नवीन चाय लेकर गया, तो देखा — स्मृति गुनगुना रही थी:
“तेरी खामोशी में जो लफ्ज़ हैं,
वो मेरी सिलाई में अब बुनने लगे हैं।”
नवीन ने पास बैठते हुए कहा, “और तेरे शोर में जो धड़कन है, वो मेरी कहानी बनने लगी है।”
मोहल्ले की छत पर, सर्दी की धूप में, दो दिल एक-दूसरे को पढ़ रहे थे—बिना किसी किताब के, बिना किसी इम्तिहान के।
भाग 5: मोहल्ले का साज़ और रिश्तों की सरगम
मोहल्ले में जैसे एक नई धुन गूँजने लगी थी — कहीं से आती भजन की मद्धम धुन, गली में बच्चों की चिल्ल-पों, और उसके बीच एक बेहद खास ताल—स्मृति की मोगरी की थाप।
अब ये थाप खलल नहीं थी, ये दिन की शुरुआत का ऐलान थी। और मोहल्ले के हर घर को पता था कि त्रिपाठी जी के पोते की और सामने वाली सिलाई वाली लड़की की दोस्ती अब कुछ ज़्यादा हो चुकी है।
“अबे नवीन! इधर आओ ना ज़रा!” नीचे से अर्जुन, उसका दोस्त चिल्लाया।
नवीन सीढ़ियों से नीचे उतरा तो अर्जुन ने आँख दबाकर कहा, “क्या चल रहा है छत पर? मोहल्ले की दीवारें भी अब गुलाबी लगती हैं।”
नवीन मुस्कुरा दिया, “तू भी तो जानता है, बातों से ज़्यादा खामोशी में क्या होता है।”
“हाँ, पर मोहब्बत की खामोशी मोहल्ले वालों को बहुत शोर करती है,” अर्जुन हँसते हुए बोला।
उधर स्मृति भी अपनी सिलाई की दुकान में बैठी थी। सामने दो दुल्हनें बैठी थीं, जो शादी के जोड़े सिलवाने आई थीं।
एक ने हँसते हुए पूछा, “दीदी, आपने कभी किसी को दिल से चाहा है?”
स्मृति ने सुई में धागा डालते हुए कहा, “हाँ… और उसकी खामोशी में सबसे ज़्यादा रंग होते हैं।”
दूसरी लड़की बोली, “तो फिर शादी कब?”
स्मृति कुछ पल चुप रही, फिर बोली, “जब उसका सपना पूरा हो जाए… और मैं उसके साथ सपने में जगह पा जाऊँ।”
शाम को स्मृति ने अपनी दुकान बंद की और धीरे-धीरे छत पर चढ़ी। वहां नवीन पहले से बैठा था, किताब हाथ में, पर निगाहें कहीं और।
“कौन सा चैप्टर है आज?” स्मृति ने पूछा।
“‘सिविल सर्विस एथिक्स’,” उसने कहा, “पर आज तुम्हारे चेहरे की नैतिकता ज़्यादा आकर्षक लग रही है।”
“वाह, अब तो तुम शायर बन गए हो,” स्मृति हँसी।
“तुम्हारे साथ तो मैं हलवाई भी बन जाऊँ अगर ज़रूरत पड़ी।”
“तो फिर कल से तुम्हारे हिस्से की चाय तुम ही बनाओगे,” स्मृति ने चुनौती दी।
“डील,” नवीन ने मुस्कुराते हुए हाथ बढ़ाया।
अचानक आकाश में बादल घिर आए। ठंडी हवा चलने लगी। मोहल्ले की कई छतों से कपड़े समेटे जा रहे थे।
“लगता है बारिश होगी,” स्मृति ने कहा।
“तो पहली बारिश की पहली चाय मेरी तरफ से,” नवीन बोला।
बूँदें गिरनी शुरू हो चुकी थीं। दोनों दौड़ते हुए नीचे आए, लेकिन तब तक भीग चुके थे।
दादी ने दरवाज़े पर तौलिया थमाया, “इसी छत ने तो पहली बार तुम्हारे बाबूजी को भी भीगते हुए देखा था। लगता है कुछ चीज़ें विरासत में आती हैं।”
स्मृति शरमा गई। नवीन ने हल्का-सा मुस्कराकर देखा।
रात को नवीन की डायरी में एक नई एंट्री हुई:
“बारिश में उसका चेहरा और भी साफ़ दिखता है, जैसे वो सिर्फ पानी से नहीं, मेरी आँखों से भी भीग रही हो। मोहल्ले की आवाज़ें धीमी थीं, पर दिल के अंदर एक संगीत चल रहा था। छत की मोगरी अब मन की घंटी बन चुकी है।”
अगले दिन मोहल्ले में एक चर्चा थी—स्मृति को दिल्ली के एक बड़े फैशन शो से बुलावा आया था, अगले महीने।
जब नवीन ने पूछा, “जाओगी?”
स्मृति ने कहा, “जाऊँगी… पर लौटने के लिए। मेरा काम बड़ा हो, पर मेरा घर यहीं हो, ये मैं तय कर चुकी हूँ।”
“और अगर मैं कहूँ कि मेरा भी दिल अब तुम्हारे नाम का बन गया है?”
स्मृति ने उसका हाथ थामा और बोली, “तो फिर ये फैशन शो हमारी कहानी का ब्रेक नहीं, इंटरवल है। असली फिल्म तो अभी बाकी है।”
भाग 6: दूरी की डिज़ाइन में दिल का धागा
दिल्ली की फ्लाइट पकड़ने से पहले स्मृति ने छत पर आखिरी बार चारपाई बिछाई। उसी कोने में बैठी जहाँ से वह हमेशा नवीन को पढ़ते हुए देखा करती थी। नीचे से दादी की आवाज़ आई, “बिटिया, ट्रेन का टाइम हो गया है!”
स्मृति ने नजरें ऊपर उठाईं। नीला आसमान था लेकिन दिल में हल्की-सी धुंध छाई थी।
नवीन अब तक नहीं आया था।
उसने खिड़की से देखा—नवीन दरवाज़े पर खड़ा था, हाथ में वही सफ़ेद कुर्ता।
“यही पहनकर आना लेने,” उसने बस इतना कहा।
स्मृति कुछ बोल नहीं पाई, बस धीमे से सिर हिलाया और मुस्कुरा दी।
दिल्ली का फैशन शो उसकी ज़िंदगी का सबसे बड़ा मंच था। कैमरों की चमक, डिज़ाइनर्स की भीड़, और मॉडल्स की रंगीन दुनिया—सब कुछ नया था, तेज़ था, और थोड़ा डरावना भी।
लेकिन हर बार जब उसे घबराहट होती, वह अपने स्केच बुक के पिछले पन्ने पर बनी वो छत देखती—जहां कुर्सियाँ थीं, एक चाय का मग था और मोगरी रखी थी।
इधर लखनऊ में नवीन की दिनचर्या बदलने लगी थी। सुबह की मोगरी की जगह अब अलार्म की आवाज़ थी। चाय वह खुद बनाता, लेकिन उसका स्वाद कुछ अधूरा सा होता।
हर दिन वह दीवार पर लगी स्मृति की कढ़ाई की तरफ देखता, जहाँ लिखा था — “शोर में सुकून होता है।”
एक दिन दादी ने कहा, “बिटवा, छत सूनी हो गई है, और तू भी।”
नवीन ने धीरे से कहा, “जब उसका डिज़ाइन पूरा होगा, मेरी छत फिर गूंजेगी।”
स्मृति दिल्ली से हर रात एक छोटा वॉइस नोट भेजती — कभी स्टूडियो की हँसी, कभी किसी ड्रैस का रेशमी खुरदुरापन, कभी बस एक “आज तुम्हारी याद आई”।
और नवीन हर दिन एक चिट्ठी लिखता—कभी छत की बारिश का हाल, कभी मोहल्ले की चुगली, कभी बस एक पंक्ति — “आज तुम होती तो चाय अच्छी लगती।”
फैशन शो का दिन आया।
स्मृति ने अपना सबसे खास डिज़ाइन मंच पर भेजा — एक सफेद अनारकली, जिसमें लाल कढ़ाई से लिखा था — “सिलाइयों के बीच जो धड़कन हो, वही असली डिज़ाइन है।”
लोग तालियाँ बजा रहे थे, कैमरे चमक रहे थे, लेकिन स्मृति की आँखें उस भीड़ में एक ही चेहरे को ढूंढ रही थीं।
और वो चेहरा था।
नवीन—सामने बैठा, वही सफ़ेद कुर्ता पहने, आँखों में गर्व, होंठों पर मुस्कान और दिल में एक साफ़ सा यक़ीन।
शो के बाद जब सब लोग बधाइयाँ दे रहे थे, स्मृति ने नवीन को भीड़ में खींचकर कहा, “तुम आए कैसे?”
“तुम्हारा डिज़ाइन मुझे खींच लाया। और मेरा दिल हमेशा से तुम्हारे पास ही था,” नवीन बोला।
“अब क्या सोचते हो?” स्मृति ने पूछा।
“सोचता हूँ, अगर तुम सिलाई करोगी, तो मैं हर सुबह मोगरी बजाऊँगा।”
“और चाय?”
“हम साथ बनाएंगे। एक मग तुम, एक मैं।”
उस रात दिल्ली की होटल की बालकनी में बैठे दोनों, शहर की रौशनी देख रहे थे। लेकिन उनके बीच सिर्फ भविष्य का उजाला था।
“जब हम लौटेंगे,” स्मृति ने कहा, “छत पर एक झूला लगवाएँगे।”
“और उसके नीचे रखेंगे दो मग,” नवीन ने जोड़ा।
“और मोगरी?” उसने मुस्कुराकर पूछा।
“अब वो तो दिल की दीवार पर टंगी है,” स्मृति बोली।
भाग 7: लौटकर जब तुम आए
लखनऊ का स्टेशन वही था—भीड़-भाड़, चाय की टपरी, कुल्हड़ों की खनक, और सर्दी की एक मीठी ठिठुरन। लेकिन इस बार प्लेटफॉर्म पर उतरते हुए स्मृति को ऐसा लगा जैसे हर चीज़ उसका इंतज़ार कर रही हो—वो दीवारों की पुरानी सीलन, ऑटो वाले की खड़खड़, और दूर गली में खड़ी वो छत… जहाँ अब भी कोई उसे हर सुबह याद करता था।
नवीन पहले से ही बाहर खड़ा था, कोट की जेब में हाथ डाले, और आँखें सीधे ट्रेन के दरवाज़े पर टिकी हुईं।
जैसे ही स्मृति सामने आई, उसने कुछ नहीं कहा। बस वही पुरानी मुस्कान दी—जो अब शब्दों से कहीं ज़्यादा गहरी हो चुकी थी।
“छत तक चलोगी या तुम्हें सीधे दुकान ले चलूँ?” नवीन ने मज़ाक में पूछा।
“पहले छत… वहां की धूप कुछ और ही होती है,” स्मृति ने जवाब दिया।
जब वे मोहल्ले की गली में दाख़िल हुए, पड़ोसी झाँक-झाँककर देख रहे थे। बगल वाली चाची बोली, “अरे, स्मृति बिटिया तो हीरोइन लग रही है!”
और चायवाले चाचाजी ने कहा, “अब हमारी दुकान की चाय फिर से दो कप बनने लगी समझो।”
छत पर पहुँचते ही स्मृति रुक गई।
वहां झूला था — लकड़ी का, लाल कुशन वाला। उसके नीचे दो मग रखे थे — एक में गुलाबी रंग की पट्टी, दूसरे में नीली। और दीवार पर टंगा था — मोगरी।
स्मृति ने धीरे से मोगरी को हाथ में लिया, फिर मुस्कुराकर बोली, “ये अब भी गूंजती है।”
“अब इसकी थाप से घर नहीं, ज़िंदगी शुरू होगी,” नवीन ने कहा।
अगले कुछ दिनों में मोहल्ले में शादी की चर्चाएँ शुरू हो गईं।
बगल वाली ताई ने दादी से पूछा, “तैयारी शुरू की की नहीं?”
दादी ने हँसते हुए जवाब दिया, “हमारी छत से रिश्ता शुरू हुआ था, अब वही छत मंडप बनेगी।”
स्मृति और नवीन ने तय किया—सादी शादी, मोहल्ले की छत पर, वही जगह जहाँ पहली बार झगड़ा हुआ था, जहाँ पहली बार चाय पी थी, और जहाँ पहली बार ख़ामोश प्यार कबूल हुआ था।
शादी वाले दिन मोहल्ले की हर छत सजी थी—कहीं फूलों की झालरें, कहीं बलून, कहीं दादी की बनाई रंगोली। और बीच में एक लंबा लाल कार्पेट — छत से छत को जोड़ता हुआ।
स्मृति ने सिल्क की हल्दी रंग की साड़ी पहनी थी, जिसमें उसकी खुद की डिज़ाइन थी—किनारे पर लाल धागों से लिखा था, “जहां मोगरी थमे, वहीं दिल धड़के।”
नवीन ने वही सफेद कुर्ता पहना, जिस पर कभी स्मृति ने पहली बार कढ़ाई की थी।
फेरे शुरू हुए, और पूरा मोहल्ला गवाह बना—शोर, हँसी, आशीर्वाद और वो एक गूंजती थाप — जो अब शिकायत नहीं, साक्षी थी।
मंडप में बैठे नवीन ने स्मृति के कान में धीरे से कहा, “अब हर सुबह तुम्हारी मोगरी से नहीं, मेरी चाय से शुरू होगी।”
स्मृति हँस पड़ी, “पर शर्त ये है कि चाय में इलायची ज़रूर हो।”
रात को शादी के बाद जब वे छत पर अकेले बैठे, पूरा शहर नींद में था, लेकिन ऊपर चाँद मुस्कुरा रहा था।
“कभी सोचा था, एक मोगरी हमें यहाँ तक ले आएगी?” स्मृति ने पूछा।
“नहीं… पर अब लगता है, सबसे बड़ी कहानियाँ वहीं से शुरू होती हैं जहाँ शोर होता है।”
“और प्यार?” स्मृति ने धीमे से पूछा।
“प्यार भी,” नवीन ने उसकी उँगलियाँ थामते हुए कहा, “बस पहचानना आता है तो हर आवाज़ में उसका नाम सुनाई देता है।”
भाग 8: थापों से बंधा अंतहीन गीत
शादी के बाद की सुबह। लखनऊ की छत पर ठंडी हवा हल्की-हल्की चल रही थी। सूरज अभी पूरी तरह निकला नहीं था, लेकिन उसकी पहली किरणें दीवारों पर गिर चुकी थीं।
स्मृति चुपचाप खड़ी थी — हाथ में मोगरी। पर आज उसने उसे चलाया नहीं। वह थामे रही, जैसे कुछ सोच रही हो।
पीछे से नवीन आया, हाथ में दो चाय के मग, एक में इलायची की ख़ुशबू।
“आज मोगरी नहीं बजेगी?” उसने पूछा।
“आज मन किया… कि पहले तुम्हारी चाय पी लूँ,” स्मृति मुस्कुरा दी।
वे दोनों छत के झूले पर बैठ गए — शहर के ऊपर जैसे समय रुक गया हो। चाय के घूँट के साथ ज़िंदगी के नए पन्ने पलटने लगे।
अब मोहल्ले की सुबहें अलग थीं। दुकान के बाहर लिखा गया — “Smriti & Naveen – Design & Dialogue”. और नीचे स्लोगन: “जहाँ कपड़े सिलें, वहीं कहानियाँ भी।”
लड़कियाँ आतीं, चाय पीतीं, अपने मन की बातें करतीं। और स्मृति हर डिज़ाइन में किसी न किसी एहसास को सिलती — कभी प्यार, कभी तकरार, कभी इंतज़ार।
उधर नवीन अपनी पढ़ाई पूरी कर चुका था। उसका फाइनल रिज़ल्ट आया — UPSC क्लियर।
मोहल्ले में मिठाई बंटी, और सबने कहा, “अब तो मोगरीवाली IAS की पत्नी हैं।”
लेकिन स्मृति ने कहा, “मैं उसकी बीवी नहीं, उसकी पहली कहानी हूँ।”
जब नवीन का ट्रेनिंग के लिए मसूरी जाना तय हुआ, तो कुछ पलों के लिए दोनों चुप हो गए।
“अब छत फिर सूनी हो जाएगी,” स्मृति ने कहा।
“पर तुम अब मोगरी से ही नहीं, यादों से भी आवाज़ निकालती हो,” नवीन बोला।
“और तुम?” स्मृति ने पूछा।
“मैं अब हर शहर में एक स्मृति छोड़ जाऊँगा,” उसने मुस्कराकर कहा।
नवीन के जाने के बाद स्मृति ने छत पर एक दीवार बनाई — उस पर दोनों की फोटोज़, चिट्ठियाँ, स्केच और सबसे ऊपर टंगी — वो पहली मोगरी।
हर बार जब हवा चलती, मोगरी की लकड़ी हल्के से दीवार से टकराती — टन टन।
स्मृति मुस्कराकर कहती, “देखो, वो बात कर रहा है।”
महीनों बीत गए। नवीन मसूरी से फिर दिल्ली, फिर पंजाब, फिर राजस्थान।
हर पोस्टिंग के बाद वो एक चिट्ठी भेजता—छोटे-छोटे शहरों की ख़बरें, उनके बीच स्मृति के लिए दो-तीन लाइनें:
“इस बार एक लड़की आई, जो कपड़े सिलती है। मैंने उसे बताया कि मेरी ज़िंदगी की सबसे खूबसूरत डिज़ाइन एक लड़की ने मेरी चाय में डाली थी।”
स्मृति उन्हें हर बार अपनी स्केचबुक में चिपकाती, और उस पर नई डिज़ाइन बनाती।
कुछ सालों बाद, जब नवीन की पोस्टिंग लखनऊ के पास आई, तो उसने सबसे पहले जो किया—वह था पुराने घर की छत पर जाना।
वहीं झूला, वहीं दीवार, वही मोगरी… और दरवाज़े पर खड़ी स्मृति — अब थोड़ी और परिपक्व, लेकिन आँखों में वही चमक।
“वापसी कैसी लगी?” उसने पूछा।
“ऐसे जैसे शोर के बाद फिर से सुकून मिला हो,” नवीन ने कहा।
“और मोगरी?” स्मृति ने पूछा।
“अब वो थाप नहीं देती… अब वो संगीत बन चुकी है।”
उनकी बेटी, छोटी सी आरु, मोगरी से खेलती थी — उसे गिटार की तरह पकड़कर झूमती।
स्मृति बोली, “अब नई पीढ़ी आ गई है। छत का संगीत कभी बंद नहीं होगा।”
नवीन ने आरु को गोद में उठाते हुए कहा, “क्योंकि ये छत कभी पुरानी नहीं होती। हर दिन एक नई कहानी सिलती है, हर थाप में एक नया सुर होता है।”
और उस दिन, छत पर, सर्द हवा में, तीन लोगों की हँसी गूँज रही थी।
मोगरी दीवार से हल्के से टकराई — टन… टन…
और जैसे जीवन ने एक बार फिर कहा—
“जहाँ थाप है, वहाँ प्रेम है। जहाँ प्रेम है, वहाँ कहानी है। और जहाँ कहानी है… वहाँ हमेशा छत की मोगरी बजेगी।”
— समाप्त