Hindi - क्राइम कहानियाँ

चुप रहो, वरना…

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रश्मि सावंत


नोएडा के पॉश सेक्टर में बने ‘एलिट वैली’ टावर की दसवीं मंज़िल पर सुबह की धूप खिड़की के मोटे शीशों से छनकर अंदर आ रही थी। फ्लैट के अंदर हर चीज़ करीने से सजी—सफेद दीवारों पर न्यूनतम आर्टवर्क, अलमारी पर बच्चों की तस्वीरें, और एक कोने में एलेक्ज़ा पर बज रहा था—“गुड मॉर्निंग, प्रिय शर्मा।” प्रिय, हल्के पीले रंग की सूती साड़ी में, रसोई में चाय उबाल रही थी, पर उसकी नज़रें दरवाज़े के नीचे अटक गई थीं। किसी ने दरवाज़े के नीचे से एक लिफ़ाफा अंदर सरकाया था। वह पल भर के लिए थम गई। किसी ऑनलाइन ऑर्डर की रसीद? सोसाइटी नोटिस? या फिर आरव का स्कूल वर्क? वह झुककर उठाती है, और तब उसकी उंगलियाँ काँपने लगती हैं। यह न तो किसी संस्था का कागज़ था, न कोई डिलीवरी स्लिप। सफेद कागज़, हाथ से लिखा एक वाक्य—”तुम जानती हो वो रात क्या हुआ था।” प्रिय की साँस अटक गई। एक सन्नाटा उसके भीतर उतर आया, जैसे किसी ने उसकी हड्डियों में बर्फ भर दी हो। उसकी आँखें दरवाज़े की दरारों से बाहर झांकती हैं—कोई नहीं।

दिनभर वह सामान्य व्यवहार करने की कोशिश करती रही। आरव का टिफिन, विवेक के लिए नाश्ता, खुद के लिए हाफ कप ब्लैक कॉफी। लेकिन वह चिट्ठी उसके दिमाग़ में चुभती रही, जैसे किसी ने बांसुरी की जगह खामोशी बजा दी हो। विवेक जब अख़बार पढ़ते हुए अपनी ट्रेडमार्क मुस्कान में बोला—”आज रात रिया के यहाँ डिनर है न? तुम भूल तो नहीं गई?”—तो प्रिय ने सिर हिला दिया, लेकिन अंदर से कुछ हिल चुका था। लॉकडाउन की वो रात… जिसकी बात उन्होंने कभी नहीं की… किसी से भी नहीं। यहाँ तक कि आपस में भी नहीं। वह रात, जब सविता बेहोश मिली थी। जब आरव रो रहा था और विवेक ने कहा था, “चुप रहो, वरना…”। प्रिय ने उस रात को दिल के तहखाने में बंद कर दिया था, चाबी भी फेंक दी थी। फिर यह चिट्ठी कैसे? कोई देख रहा था क्या? कोई जानता है?

शाम ढलते-ढलते प्रिय की बेचैनी डर में बदल चुकी थी। उसने दरवाज़ा दो बार चेक किया—लॉक सही था। बालकनी का पर्दा खींचा—नीचे पार्किंग लॉट में दो गार्ड आपस में बातें कर रहे थे। लेकिन क्या यही कोई है? या रिया? नहीं, रिया तो उसकी सबसे करीबी है, हँसमुख, सोशल, खुलकर बोलने वाली। फिर किसने भेजा ये खत? प्रिय ने चिट्ठी को बिस्तर के गद्दे के नीचे दबा दिया, मानो यूँ छिपा देने से रहस्य भी दब जाएगा। लेकिन जब वह रात को सोने गई, और आरव की मासूम नींद में साँसे सुन रही थी, उसके कानों में वही आवाज़ गूंज रही थी—“तुम जानती हो वो रात क्या हुआ था।” तभी उसकी नज़र अलमारी के शीशे में अपने चेहरे पर पड़ी—और उसे वहाँ दिखा कोई और। कोई डर से भरी, थकी हुई, और शायद—गुनहगार।

मार्च २०२०। पूरी दुनिया जैसे थम गई थी। नोएडा की सड़कों पर सन्नाटा था, लोग बालकनी से ताली बजा रहे थे, और ‘कोरोना’ शब्द घरों के भीतर दहशत की तरह घुस चुका था। उसी दौर में प्रिय और विवेक ने तय किया था कि उनकी कामवाली सविता, जो दूसरे ब्लॉक में झुग्गी में रहती थी, कुछ दिन उनके घर में ही रुके। “रोज़ आना खतरनाक है, उसे यहीं एक कमरे में रख लो,” विवेक ने कहा था, और प्रिय ने सहमति में सिर हिला दिया था। सविता उनके घर में एक कोने के कमरे में शिफ्ट हो गई थी—चुपचाप, हँसती कम, पर काम में चुस्त। आरव उससे खूब घुल-मिल गया था, उसे कहानियाँ सुनाता, गेम दिखाता। लेकिन चौथे दिन के बाद कुछ बदलने लगा था। प्रिय ने सविता की आँखों में थकावट से ज्यादा डर देखा। वह प्रिय से नज़रें चुराती, जल्दी-जल्दी काम समेटकर कमरे में बंद हो जाती। और फिर… वो रात आई।

शाम को बिजली चली गई थी। टॉर्च और मोमबत्तियों में घर टिमटिमा रहा था। आरव अपने कमरे में सो चुका था। विवेक ने वाइन खोली थी और प्रिय के साथ ड्रॉइंग रूम में बैठा था, जब अचानक सविता की हल्की सी चीख सुनाई दी। प्रिय उठी, मगर विवेक ने उसका हाथ थाम लिया, “मैं देखता हूँ,” कहकर वह उठा और सविता के कमरे की ओर गया। उस रात की सटीक घटनाएँ प्रिय को अब भी धुंधली याद थीं—वह बस इतना याद कर पाई कि जब वह कुछ देर बाद वहाँ पहुँची, सविता ज़मीन पर बैठी थी, काँपती हुई, उसका दुपट्टा आधा फटा, और विवेक पास खड़ा, चुप। प्रिय ने कुछ पूछा नहीं, कुछ कहा नहीं। विवेक की आँखें उसे रोक रही थीं। “उसे डर लग गया था… कुछ नहीं हुआ,” विवेक ने कहा था। और फिर अगली सुबह सविता नहीं थी। उसका सामान कमरे में बिखरा पड़ा था, और उसके फोन की घंटी हमेशा की तरह “स्विच्ड ऑफ” थी। विवेक ने कहा, “उसने घर छोड़ दिया… शायद डर गई होगी।” और प्रिय… चुप रह गई।

अब, दो साल बाद, प्रिय उसी सन्नाटे को जी रही थी। आज जब उसने आरव को स्कूल के लिए तैयार किया, उसके चेहरे पर वही मासूमियत थी, लेकिन प्रिय को याद आया कि उसी रात आरव भी बीच रात में उठा था। क्या उसने कुछ देखा था? क्या उसने कुछ सुना था? और अगर हाँ, तो क्यों नहीं कहा? या कहा था—but she chose not to hear? अब उसे समझ में आ रहा था कि वह चुप्पी, जो उसने चुनी थी, दरअसल एक ज़हर की तरह उसकी आत्मा में फैल रही थी। अब, जब किसी ने वह चुप्पी तोड़ने की कोशिश की, प्रिय को लगा जैसे उसकी हड्डियाँ भी सच के वज़न से चटकने लगी हैं। उसने अपना मोबाइल उठाया और रिया को मैसेज किया—“आज मिल सकती हो? ज़रूरी है।” मगर जवाब नहीं आया। प्रिय ने मोबाइल बंद किया, और खिड़की से देखा—नीचे वही सड़क, वही झूले, वही पार्क। लेकिन कुछ बदला हुआ था। जैसे हर चीज़ उसे देख रही हो। जैसे दीवारें भी अब चुप नहीं रहना चाहतीं।

रिया मलिक, प्रिय की पड़ोसी और नज़दीकी दोस्त, हमेशा से ही एक परफेक्ट लाइफ की मिसाल रही थी—गुलाबी लिपस्टिक, इंस्टाग्राम पर एक्टिव, फिटनेस फ्रीक, और सोसाइटी की हर किटी पार्टी की जान। लेकिन आज जब प्रिय उसके घर पहुँची, दरवाज़ा खोलने वाली रिया में कुछ अलग था। बाल खुले नहीं, बाँधे हुए थे। मेकअप नहीं, आँखों के नीचे काले घेरों की छाया थी। “अरे, तू ठीक है?” रिया ने झूठी मुस्कान के साथ पूछा, और प्रिय ने उतनी ही झूठी मुस्कान में सिर हिलाया। दोनों अंदर बैठीं—टीवी पर म्यूटेड न्यूज चैनल, और सामने वाइन के गिलास, जो सिर्फ दिखावे के लिए रखे गए थे। प्रिय ने सीधा मुद्दे पर बात छेड़ी, “रिया… किसी ने मेरे दरवाज़े के नीचे एक नोट डाला। बहुत अजीब है… लगता है जैसे किसी को मेरी जिंदगी के कुछ बेहद निजी सच पता हैं।” रिया ने एक पल को चुप रहकर गिलास उठाया, और बिना पिए उसे वापस रख दिया। “किसी मज़ाकिया की हरकत होगी,” उसने कहा। मगर प्रिय को उसकी आँखों में हल्की घबराहट की झलक मिली—या शायद वो सिर्फ उसका वहम था?

बातों के बीच, प्रिय की नज़र रिया के की-होल्डर पर पड़ी, जो सेंटर टेबल पर रखा था। उस पर लटका था एक छोटा-सा लाल धागे का गुच्छा, वैसा ही जैसा प्रिय ने कभी सविता को दिया था—मुंडन के वक़्त, एक पूजा के दौरान, जब सविता ने उसे अपनी बहन की बीमारी की बात बताई थी। उस वक्त प्रिय ने बहुत आत्मीयता से वो धागा दिया था, कहते हुए, “इससे रक्षा होगी।” रिया का पास वो कैसे आया? क्या संयोग था? प्रिय का मन डोलने लगा। उसने कुछ नहीं कहा, सिर्फ गिलास उठाया और खुद को सामान्य रखने की कोशिश की। “तू जानती है,” प्रिय ने धीरे से कहा, “सच बहुत लंबे समय तक छिपाया नहीं जा सकता।” रिया मुस्कराई, पर उस मुस्कान में कोई गर्मी नहीं थी—सिर्फ काँच की चमक थी, सर्द और बनावटी। “कभी-कभी सच से ज़्यादा ख़तरनाक होते हैं वो लोग जो सच जान जाते हैं।” यह कहते हुए रिया ने उठकर पर्दा खींचा—और प्रिय ने देखा कि उसके बालकनी से सीधे-सीधे प्रिय के बेडरूम की खिड़की नज़र आती है।

रात को घर लौटकर प्रिय ने आरव को सुलाया, खुद के लिए एक कप कॉफी बनाई, और फिर मोबाइल उठाकर पुराने चैट्स स्क्रॉल करने लगी। तभी उसे एक अनजान नंबर से पुराना वॉट्सएप मेसेज दिखा—एक साल पुराना—”अगर तुम्हें सविता की सच्चाई जाननी हो, तो कबीर वर्मा से बात करो।” कबीर वर्मा… वही पत्रकार, जिसने लॉकडाउन के बाद शहर में हुए घरेलू अपराधों पर लेख लिखा था, जिसमें एक पैराग्राफ में एक नौकरानी की रहस्यमय गुमशुदगी का ज़िक्र था—”एक फ्लैट, एक महिला, और एक रात जो किसी को याद नहीं, पर सबको डराती है।” प्रिय ने गूगल पर उसका नाम खोजा—और पाया कि वह अब स्वतंत्र पत्रकारिता कर रहा है, और उसकी वेबसाइट पर एक सेक्शन था: Unsolved Lockdown Cases. प्रिय ने फॉर्म भरा, नाम नहीं दिया, बस लिखा—“मैं जानती हूँ उस रात क्या हुआ था। लेकिन मुझे नहीं पता कि और कौन जानता है।” अब खेल बदल चुका था। वो बस डर नहीं रही थी, अब वो जवाब ढूँढने को भी तैयार थी। लेकिन जवाब लाने वाली सच्चाई… क्या वो सहने लायक होगी?

अगली सुबह प्रिय की नींद मोबाइल के वाइब्रेशन से खुली। घड़ी ने सात बजाए थे। आरव अभी भी तकिए में मुँह छिपाए सो रहा था। विवेक नहाने जा चुका था। मोबाइल स्क्रीन पर एक अनजान नंबर से आए ईमेल का नोटिफिकेशन दिखा: “Subject: याद दिलाने के लिए एक तस्वीर।” प्रिय ने काँपते हाथों से ईमेल खोला—संलग्न फ़ाइल में एक ग्रे-टोन फोटो थी, सीसीटीवी जैसा धुंधला फुटेज, जिसमें साफ़-साफ़ प्रिय दिखाई दे रही थी—रात में घर का दरवाज़ा खोलते हुए, बाल बिखरे, चेहरा भयभीत। फोटो की टाइमस्टैम्प थी: April 12, 2020 – 11:47 PM. वही रात। वही घटना। लेकिन यह फोटो ली किसने? उनका फ्लैट तो अंदर से ही सुरक्षित था। क्या कोई CCTV चल रहा था जिसे वे नहीं जानते थे? क्या रिया के फ्लैट से किसी ने ज़ूम करके लिया? या फिर विवेक…?

उस दिन प्रिय ने आरव को जल्दी स्कूल भेजा और विवेक से कहा, “मैं थोड़ा देर से निकलूंगी, रिया के साथ स्पा प्लान कर लिया है।” झूठ उसे भारी लग रहा था, लेकिन सच उससे भी ज़्यादा भारी था। वह सेक्टर 62 के एक कैफ़े पहुँची, जहाँ पत्रकार कबीर वर्मा ने उससे मिलने का समय दिया था। कबीर की आँखों में नींद नहीं, बल्कि जानकारी थी। वह प्रिय को देख मुस्कराया नहीं, सिर्फ कहा, “आपकी मेल ने मुझे हैरान नहीं किया। मैं इंतज़ार कर रहा था कि आप कभी तो सामने आएंगी।” प्रिय चौंकी। “आप जान गए थे कि मैं ही…?” वह अधूरी बात को पूरा नहीं कर सकी। “हाँ,” कबीर ने कहा, “आपके पति की कंपनी लॉकडाउन के दौरान मास्क और सैनिटाइज़र की ब्लैक मार्केटिंग में लिप्त थी। मैंने जब उस मामले की पड़ताल शुरू की, तो सविता नाम की एक नौकरानी के अचानक ग़ायब होने की रिपोर्ट मेरे पास आई। आप सोचती हैं वो सब भूल गया होगा? लेकिन मैं जानता हूँ उस रात कुछ और भी हुआ था।”

प्रिय काँप उठी। वह बताना चाहती थी कि उसने कुछ नहीं किया, या शायद किया लेकिन जानबूझ कर नहीं, लेकिन शब्द गले में अटक गए। “मुझे पता है आपने सविता को नहीं मारा,” कबीर बोला, मानो उसके दिल की आवाज़ सुन रहा हो, “लेकिन आपने सच्चाई छुपाई। और अब कोई है जो उसे उजागर करना चाहता है—आपसे भी ज़्यादा।” प्रिय ने उसकी ओर झुककर पूछा, “आप सोचते हैं ये सब रिया कर रही है?” कबीर ने सिर हिलाया, “रिया… हो सकता है। या फिर कोई और, जिसे तुमने कभी देखा ही नहीं, पर वो तुम्हें देखता रहा है। कैमरों से, खिड़कियों से… या तुम्हारे अपने घर के भीतर से।”

प्रिय घर लौटने से पहले एक स्टेशनरी से नया ताला खरीद लायी। दरवाज़ा बंद किया, फिर उसे दो बार चेक किया। बेडरूम में पहुँचकर उसने लिफ़ाफा बाहर निकाला, पुराने खत के साथ रख दिया। दोनों खत अब एक जैसे लग रहे थे—जैसे प्यासे आइने, जो उस चेहरे को देखना चाहते थे जिसे प्रिय खुद भूल जाना चाहती थी। अब उसकी जिंदगी सिर्फ सुरक्षा का प्रश्न नहीं थी—बल्कि गहराती साजिश, अपराध, और एक अंतहीन आत्मग्लानि की पर्तों में उलझ चुकी थी। उसने मन ही मन तय किया—अब और नहीं। अब वह खोजेगी कि किसने वो फोटो ली। किसने वो चिट्ठी भेजी। और क्यों… अब सन्नाटा ही सबसे बड़ा खतरा था।

प्रिय ने कभी नहीं सोचा था कि उसके दस साल के बेटे की ड्रॉइंग एक दिन उसका सबसे गहरा डर बन जाएगी। उस दोपहर जब वह आरव का स्कूल बैग खोल रही थी, तो उसे एक स्केचबुक मिली—उसका कवर रंग-बिरंगे स्टिकर्स से सजा था, और प्रिय ने मुस्कराते हुए सोचा कि इसमें जरूर कुछ मासूम चित्र होंगे—सूरज, घर, फूल। लेकिन पन्ने पलटते ही उसकी साँसें रुक गईं। एक पेज पर गाढ़े काले पेंसिल से एक चित्र बना था—एक औरत ज़मीन पर लेटी थी, चेहरे पर चोट के निशान, आँखें खुली, और उसके ऊपर खड़ा था एक पुरुष आकृति, जिसके हाथ में दस्ताने थे। पास ही एक बच्चा खड़ा था, जिसने दोनों हाथ कानों पर रख रखे थे। चित्र के नीचे एक छोटे से कोने में आरव ने लिखा था—”उस दिन जब अंटी गिर गई थीं।”

प्रिय के हाथ काँपने लगे। वह उस स्केच को लेकर आरव के पास गई, जो अपनी किताबों में उलझा था। “आरव, ये तुमने कब बनाया?” आरव ने मासूमियत से जवाब दिया, “वो उसी दिन की बात है ना, जब लाइट चली गई थी और पापा ने कहा था कि शोर मत करना। सविता अंटी गिर गई थीं। आप चुप थीं, मुझे भी चुप रहना पड़ा।” प्रिय ने एक पल को उसका चेहरा देखा—मासूम, निष्कलंक, पर आँखों में वह सच्चाई जो उसने खुद से छिपा रखी थी। आरव उस रात जाग रहा था। वह सब जानता था। जो दृश्य प्रिय के दिमाग में अधूरा था, वह आरव की स्मृति में एक चित्र बन चुका था। और शायद, वही चित्र अब किसी ने उठा लिया है, और खत बनाकर भेज रहा है।

रात को विवेक देर से लौटा। प्रिय ने कुछ नहीं कहा। खाना परोसा, बेटे को सुलाया, और चुपचाप ड्राइंग की फोटो खींचकर अपने फोन में सेव कर ली। फिर लॉबी की सीसीटीवी इमेज देखने के लिए गार्ड से मिलने गई, यह कहकर कि “कोरिडोर में कोई घूम रहा था कल।” लेकिन गार्ड ने झेंपते हुए कहा, “मैडम, कैमरा नंबर चार तो लॉकडाउन के बाद से ही खराब पड़ा है… किसी ने रिपेयर नहीं कराया।” प्रिय को जैसे किसी ने ज़मीन से उखाड़ दिया। विवेक के खर्चों में तो कोई कसर नहीं थी, फिर सीसीटीवी क्यों नहीं? वह लौटते वक़्त लिफ्ट में अपने ही चेहरे को शीशे में देखती रही—एक माँ, एक पत्नी, एक अपराध की मूक साक्षी। और अब एक महिला, जो जानती है कि सन्नाटे के पीछे उसकी ज़िन्दगी की सबसे भयावह आवाज़ दबा दी गई है। और वो आवाज़ अब उसके बेटे की पेंसिल में बोल रही है।

वो शनिवार की दोपहर थी, जब रिया मलिक ने अचानक प्रिय को कॉल कर कहा, “आ जा, घर में सभी हैं, छोटी सी किटी रखी है। थोड़ा मूड बदल जाएगा।” प्रिय का मन तो कतई नहीं था, लेकिन उसने जाना तय किया—क्योंकि अब वह रिया को लेकर पूरी तरह सतर्क थी। फ्लैट 10-B की साज-सज्जा हमेशा की तरह परफेक्ट थी—सुगंधित मोमबत्तियाँ, नींबू-मिंट जल, और दीवार पर कुछ नए पोस्टर्स। वहाँ चार और महिलाएँ थीं, जिनमें से दो प्रिय को पहचानती थीं। लेकिन प्रिय की नजरें सबसे ज़्यादा ढूँढ रही थीं—संकेत, वस्तुएँ, कुछ ऐसा जो रिया की असली पहचान खोल दे। तभी उसकी नज़र सेंटर टेबल पर पड़े रिया के पर्स पर गई—और उसमें लटकते वही लाल धागे के गुच्छे पर अटक गई, जो सविता के साथ जुड़े थे। रिया ने कभी बताया नहीं कि वह सविता को जानती थी, लेकिन उस ताबीज़ को देख प्रिय के भीतर कुछ चटक गया।

बातों के दौरान रिया ने दो-तीन बार बेहद बारीकी से ऐसे शब्द फेंके, जो प्रिय के पुराने डर को छूते थे—“कुछ चीजें अगर बंद कमरे में रहें तो अच्छा होता है”, “यादें भी कैमरे की तरह होती हैं—delete तो हो जाती हैं, लेकिन पूरी erase नहीं होतीं।” प्रिय बार-बार अपनी हथेलियाँ दबा रही थी। अब उसके लिए यह साफ़ था कि रिया कुछ जानती है—या फिर बहुत कुछ। उसी शाम जब सभी महिलाएँ चली गईं, प्रिय जानबूझकर पीछे रुकी और रिया से पूछा, “तेरे पास वो ताबीज़ कैसे आया?” रिया एक पल को हँसी, फिर बोली, “अरे… एक बार डस्टबिन से मिला था, शायद किसी मेड का गिर गया होगा। मुझे अच्छा लगा, रख लिया।” उसका जवाब सरल था, लेकिन आँखें कुछ और कह रही थीं। प्रिय ने उसी वक्त तय किया—उसे जवाब चाहिए, लेकिन किसी और माध्यम से।

उस रात प्रिय ने अपने मोबाइल से कबीर वर्मा को मैसेज किया—“मुझे अब पूरी सच्चाई चाहिए। अगर तुम कह रहे थे कि सविता जिंदा है, तो कहाँ है वो?” जवाब आया—“मैं भी खोज रहा हूँ। लेकिन कोई हमें दोनों को भ्रमित कर रहा है। कुछ ऐसा है जो मैंने नहीं देखा था—पर अब देख रहा हूँ।” प्रिय ने बालकनी से बाहर झाँका। रिया की खिड़की अंधेरे में थी। मगर उसी अंधेरे में, जैसे किसी ने पर्दे के पीछे से प्रिय की ओर देखा। वह पल भर को पीछे हट गई। अब खेल आंखों और इशारों से ऊपर जा चुका था। अब बात थी आत्मा की छटपटाहट की। और प्रिय जानती थी—सविता का मामला महज़ एक दुर्घटना नहीं, एक राक्षसी चुप्पी का नतीजा था, जिसे अब कोई धीरे-धीरे खोल रहा था… शायद रिया, शायद आरव, या शायद वो कोई… जो घर के अंदर ही है।

रविवार की सुबह, जब प्रिय अपने बेडरूम की खिड़की पर कपड़े सुखा रही थी, तभी बाथरूम से पाइप लीक होने की आवाज़ आई। उसने प्लंबर को बुलाया, जो जल्दी ही आ गया। मरम्मत के दौरान बाथरूम की वॉल और फर्श के बीच एक ईंट ढीली मिली। प्लंबर ने हौले से उसे निकाला—और वहाँ, एक पुराना प्लास्टিক बैग निकला, जिसे देख प्रिय की धड़कनें थम गईं। उसने प्लंबर को बाहर भेजा और दरवाज़ा बंद कर लिया। बैग में जो था, वो उसके डर से भी ज़्यादा डरावना था—एक पुराना, आधा सड़ा हुआ दुपट्टा, जिस पर जमे खून के धब्बे अब भी हल्के से दिख रहे थे। साथ ही एक टूटा हुआ छोटा चूड़ी का टुकड़ा—ठीक वैसा, जैसा सविता पहना करती थी। प्रिय उस पल खड़ी रही, थरथराती हुई, जैसे समय खुद उसके चारों ओर रुक गया हो। उस दुपट्टे की छुअन से जैसे वो रात फिर से जिंदा हो गई—वो रात, जब प्रिय ने दरवाज़े पर दस्तक सुनी थी, और विवेक ने कहा था, “अंदर मत जाना। सब ठीक है।”

प्रिय ने फिर खुद को उस दृश्य में देखा—सविता चुपचाप रो रही थी, बाल बिखरे, कपड़े अस्त-व्यस्त। विवेक का चेहरा पत्थर-सा भावहीन था। “वो खुद गिर गई,” उसने कहा था, “कुछ नहीं हुआ।” और प्रिय… प्रिय ने कुछ पूछा तक नहीं था। वह डर से, शर्म से, और एक झूठी सुरक्षा की भावना से आँखें बंद कर चुकी थी। और अब वह दुपट्टा, फर्श के नीचे से निकला हुआ, उसके अपराध को एक बार फिर साँसें दे रहा था। उसने बिना किसी को बताए वह बैग एक छोटे से डब्बे में बंद किया, और अलमारी के भीतर छुपा दिया—पर अब वो खुद से क्या छुपा पाती?

शाम को विवेक घर लौटा। प्रिय ने कोशिश की कि वह सामान्य दिखे, लेकिन उसकी आँखें लगातार विवेक के चेहरे पर टिकती रहीं—क्या उसे भी इस फर्श के नीचे की चीज़ के बारे में पता था? क्या उसने ही उसे वहाँ छुपाया? खाना खाते वक्त विवेक ने casually कहा, “रिया के हसबैंड का कैमरा इंस्टॉल करने का काम तो मैंने ही करवाया था पूरे फ्लोर पर… अब तो वो CCTV भी उसी के आदमी के कंट्रोल में है।” प्रिय का कौर गले में अटक गया। तो क्या कैमरे रिया के पास थे? क्या सीसीटीवी फ़ुटेज उसी ने लीक किया? या वो फ़ुटेज भी विवेक ने ही चुरवाया, ताकि प्रिय को डराया जा सके? अब परछाइयाँ और गहरी हो रही थीं। प्रिय ने तय किया, अब वो चुप नहीं रहेगी। अब वह जानना चाहती थी, उस फर्श के नीचे सिर्फ दुपट्टा छुपा था या उसकी अपनी अंतरात्मा भी?

प्रिय ने अगली सुबह ही कबीर वर्मा को बुलाया—इस बार फोन पर नहीं, सीधे अपने घर में। विवेक ऑफिस गया हुआ था, आरव स्कूल। पहली बार, प्रिय ने कबीर को अपने डाइनिंग टेबल के उस कोने में बैठाया, जहाँ वो अक्सर खुद बैठती थी—दूर सबके बीच से, लेकिन सबकुछ देख सकने की जगह पर। प्रिय ने बिना भूमिका के, बैग से वो प्लास्टिक का डब्बा निकाला जिसमें फर्श के नीचे से निकला दुपट्टा रखा था। कबीर ने उसे गौर से देखा, धीरे से उसके फाइबर पर उंगली घुमाई, और बोला, “इस पर DNA टेस्ट हो सकता है। पर इससे पहले… क्या आप सच में मुझे अब सब कुछ बताने को तैयार हैं?” प्रिय ने एक गहरी साँस ली और बोली—“हाँ। अब और चुप नहीं रह सकती।”

प्रिय ने बताना शुरू किया। उस रात का हर टुकड़ा, जो अब तक बिखरा हुआ था, धीरे-धीरे जुड़ने लगा। “उस रात… सविता ने मुझसे कहा था कि विवेक उसे देखता है अजीब तरह से। मुझे गुस्सा आया, मैंने डांटा भी उसे। पर जब चीख सुनकर दौड़ी, तो देखा वह ज़मीन पर थी, और विवेक खड़ा था—बिल्कुल शांत। उसने कहा, सविता फिसल गई है। पर उसके कपड़े, उसके बाल, उसकी आँखें… वो सब कुछ और कह रहे थे। लेकिन मैंने… मैं चुप रही।” प्रिय की आवाज़ टूटने लगी। “मैंने सविता को उठाया नहीं, मैंने पुलिस को कॉल नहीं किया। बस उसे बंद कमरे में छोड़ दिया। अगली सुबह, वह गायब थी। विवेक ने कहा, वो चली गई। लेकिन मैं जानती हूँ… कोई ऐसे नहीं जाता।”

कबीर ने चुपचाप सब सुना, फिर जेब से एक लिफ़ाफा निकाला और प्रिय के सामने रखा। “ये तीसरा लिफ़ाफा है। तुम्हें नहीं भेजा गया, मुझे मिला। पर शायद ये तुम्हारे लिए ही है।” प्रिय ने काँपते हाथों से लिफ़ाफा खोला—अंदर एक फ़ोटो थी, बहुत पुरानी। एक झुग्गी के पास सविता खड़ी थी, उसके साथ एक लड़का और एक और महिला। फ़ोटो के पीछे लिखा था—”हम में से कोई मरा नहीं है। बस किसी ने हमें ज़िंदा दफना दिया था।” प्रिय की आँखें खुली की खुली रह गईं। कबीर ने कहा, “मुझे लगता है, सविता ज़िंदा है। किसी NGO के जरिए मैंने उसका ठिकाना खोजा है, पर वह सामने आने से डर रही है। शायद अब अगर आप तैयार हैं, तो वो सामने आएगी।”

प्रिय ने सिर झुका लिया, जैसे वर्षों का अपराधबोध आज शब्द बनकर सिर झुकवा रहा हो। तभी उसका मोबाइल वाइब्रेट हुआ—एक नया वीडियो आया था, अनजान नंबर से। वीडियो में एक बच्चा—आरव—अपनी स्कूल की कॉपी में कुछ बोल रहा था, जिसे किसी ने चुपचाप रिकॉर्ड किया था। उसकी मासूम आवाज़ आई—”मम्मा, उस रात जब पापा ने कहा कि अगर किसी से कुछ कहा तो आपको जेल हो जाएगा, मुझे डर लगा। इसलिए मैंने कुछ नहीं कहा।” प्रिय का चेहरा फक पड़ गया। यह सिर्फ विवेक और सविता की कहानी नहीं थी। यह उस बच्चे की कहानी थी, जिसकी यादें अब हथियार बन चुकी थीं। सवाल अब यह नहीं था कि विवेक दोषी है या नहीं। सवाल यह था कि प्रिय कितने और दिन ख़ामोश रह सकती थी।

प्रिय का बदन जैसे बर्फ़ में ढँका हुआ था। वह वीडियो बार-बार चलाकर देख रही थी—आरव की वही मासूम सी आवाज़, वही कंपकंपाता सच, जो किसी पुरानी दीवार में छिपे शब्दों की तरह अब उभर कर सामने आ रहा था। उसने एक बार फिर कबीर की ओर देखा, जो अब बिल्कुल गंभीर हो चुका था। “ये सिर्फ ब्लैकमेल नहीं है,” उसने कहा, “ये एक जटिल खेल है, जिसमें खिलाड़ी कोई तीसरा है—ना पूरी तरह सविता, ना पूरी तरह विवेक। कोई है, जो जानता है कि तुम्हारा डर तुम्हारी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। और वही डर अब हथियार बन चुका है।” प्रिय ने धीरे से जवाब दिया, “क्या आप कह रहे हैं कि मुझे कोई मानसिक तौर पर हिलाना चाहता है?” कबीर ने सिर हिलाया, “और ऐसा कोई कर सकता है, जो तुम्हें बहुत करीब से जानता है। बहुत करीब से।”

प्रिय की यादें फिर दौड़ पड़ीं—क्या वो रिया थी? या उनका वो पुराना कामवाली का ड्राइवर, जो अचानक एक रात बिना बताए चला गया था? या फिर… आरव ही? लेकिन नहीं, आरव सिर्फ बच्चा है। पर अगर कोई उसके ज़रिए यह सब प्लान कर रहा हो? प्रिय की आँखों में एक अलग चमक थी अब—वह भय से नहीं, प्रश्नों से भरी थी। उसी रात जब विवेक घर लौटा, प्रिय ने उसका मोबाइल चुपचाप देखा। एक पासवर्ड-प्रोटेक्टेड फोल्डर था, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा था। उसने अनुमान लगाया और आरव की जन्मतिथि डाल दी—फोल्डर खुल गया। अंदर थी कुछ ऑडियो रिकॉर्डिंग्स, और एक वीडियो—उस रात की, लॉकडाउन की, जब सविता उनके घर में थी।

वीडियो में धुंधली रोशनी में सविता विवेक पर चिल्ला रही थी, उसकी आवाज़ काँप रही थी, वह कह रही थी, “मालकिन को बता दूँगी!” और विवेक जवाब दे रहा था, “कोशिश कर के देख, फिर देख क्या होता है।” प्रिय ने आँखें मूँद लीं। अब कोई शक नहीं रहा था—विवेक ने सविता को डराया था, धमकाया था, और फिर उसे घर से बाहर निकालने का इंतज़ाम भी किया था। लेकिन जो सबसे ज़्यादा डरावना था, वो यह कि प्रिय खुद यह सब जानते हुए भी सालों से नज़रें फेरती रही थी। उसकी चुप्पी अब अपराध से कम नहीं थी।

उसी रात, एक अंतिम संदेश उसके फोन पर आया—”अब सच कह दो, या मैं सबको दिखा दूँगा। तुम्हारे बेटे को भी।” प्रिय ने पहली बार उस खत को देखकर डरने की बजाय मुस्कराया। क्योंकि अब वह जान चुकी थी कि असली लड़ाई डर से नहीं, स्वीकार करने की हिम्मत से लड़ी जाती है। अगले दिन सुबह वह आरव का हाथ थामे, कबीर के साथ बाहर निकली। कहीं, बहुत दूर, सविता इंतज़ार कर रही थी। लेकिन उससे पहले, प्रिय को एक और सामना करना था—अपने पति से। और अपने अंदर के उस हिस्से से, जिसे वह अब तक अनसुना करती रही थी।

सूरज धीरे-धीरे ऊपर चढ़ रहा था, और प्रिय, आरव का हाथ थामे, पुलिस स्टेशन की ओर बढ़ रही थी। सड़कें व्यस्त थीं, लेकिन उसके भीतर गहरा सन्नाटा था—न कोई घबराहट, न कोई पछतावा। अब वो सिर्फ एक माँ नहीं थी, न सिर्फ एक पत्नी—वो अब एक गवाह थी, एक औरत जो सालों से अपनी आत्मा की नज़रें फेरती रही, लेकिन अब उसकी आँखें खुली थीं। स्टेशन पर कबीर वर्मा पहले से इंतज़ार कर रहा था, और उसके हाथ में वही फोल्डर था—विवेक की रिकॉर्डिंग्स, सीसीटीवी फुटेज, और वो स्केच जो आरव ने बनाया था। प्रिय ने बिना रुके अंदर कदम रखा और बोली, “मुझे रिपोर्ट दर्ज करानी है। मेरे पति ने लॉकडाउन के दौरान एक महिला को मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया था। मैं गवाह हूँ।”

उसके बाद घटनाएँ तेज़ हो गईं। विवेक को वर्कप्लेस से ही हिरासत में लिया गया। जब उसे गिरफ्तार किया गया, तब भी उसने वही पुरानी मुस्कान ओढ़ रखी थी—साफ़, दंभ से भरी हुई। लेकिन इस बार प्रिय ने उसकी आँखों में देखा और कहा, “तुमने मुझे सिखाया था चुप रहना। आज मैंने खुद से सीखा—बोलना।” विवेक कुछ पल तक उसे देखता रहा, फिर नजरें झुका लीं। रिया से पूछताछ हुई—उसने माना कि उसने ही कुछ रिकॉर्डिंग कबीर को भेजी थीं, क्योंकि उसे पता था कि प्रिय कभी बोल नहीं पाएगी। लेकिन यह भी सामने आया कि रिया खुद कभी विवेक की हरकतों की शिकार थी—छोटे, अपमानजनक इशारे, अश्लील मजाक, और अजीब तरह की नज़रों से देखना। सविता को ट्रैक कर लिया गया था। वह अब दिल्ली के एक शेल्टर होम में रह रही थी—जीवित, लेकिन टूटी हुई। प्रिय ने उससे मिलने की अनुमति मांगी।

जब प्रिय सविता से मिली, तो पहले कुछ क्षणों तक दोनों ने कुछ नहीं कहा। सविता का चेहरा पतला हो गया था, आँखें भीतर धँसी हुई, लेकिन उन आँखों में अभी भी उम्मीद की एक धीमी सी लौ थी। “मालकिन…” सविता ने कहा, पर प्रिय ने उसे रोका। “नहीं,” उसने कहा, “अब से हम बराबर हैं। मैंने तुम्हारे साथ जो किया, या जो होते देखा, उसे दबाया… अब बस नहीं।” सविता ने सिर झुका लिया, और प्रिय ने उसका हाथ थाम लिया। जैसे दो औरतें, दो दुनिया से, एक साझा पीड़ा में बंध गई हों। वह क्षण दोनों के लिए एक नई शुरुआत था—एक बंद दरवाज़े के खुलने जैसा।

घरों के भीतर की चुप्पी, अक्सर दीवारों से टकराकर लौट आती है। लेकिन जब वह चुप्पी सच के बोझ से कराहने लगे, तो वह किसी न किसी दरार से बाहर आ ही जाती है। प्रिय अब पहले जैसी नहीं थी। वह आरव के लिए, सविता के लिए, और सबसे ज़्यादा—अपने लिए बदल चुकी थी। वो खत भेजने वाला कोई अजनबी नहीं था—वो उसकी आत्मा थी, जो अब तक दबाई गई थी। “चुप रहो, वरना…” अब सिर्फ एक वाक्य नहीं, एक सवाल बन चुका था—वरना क्या? औरतें कब तक चुप रहें? कब तक डरें?”

प्रिय के पास अब उस सवाल का जवाब था।

[समाप्त]

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