Hindi - यात्रा-वृत्तांत

चाय, पहाड़ और हम चार

Spread the love

संध्या अग्रवाल


फिर मिलेंगे ज़रूर

“याद है, हम चारों ने कॉलेज के आखिरी दिन क्या कहा था?”
मीना की आवाज़ वॉट्सएप कॉल पर गूंजती है।
“हाँ, ये कि हम हर साल एक ट्रिप करेंगे, खुद के लिए। और फिर?” कविता हँसती है, “फिर बच्चों के स्कूल, टिफिन, पति की मीटिंग और सास-ससुर की दवा लिस्ट!”
“मत पूछो,” सुझाता बोली, “मेरे तो याद भी नहीं कब मैंने अकेले चाय पी थी, बिना किसी को पूछे।”

रुखसाना चुप थी। वो हमेशा कम बोलती थी, लेकिन जब बोलती थी, तो सीधा दिल में उतरता था।
“मैंने कल अलमारी साफ़ की,” वो बोली, “एक पुराना दुपट्टा मिला, जो तुम लोगों ने मेरे जन्मदिन पर दिया था। उस पर अब भी चारों के नाम लिखे हैं।”
कुछ सेकंड की चुप्पी के बाद मीना बोली, “बस अब और नहीं। अब हम मिलेंगे। ट्रिप करेंगे। और इस बार कोई बहाना नहीं चलेगा।”

तारीख तय हुई — १२ जुलाई। जगह — मनाली।
पति थोड़ा चौंके, बच्चों ने पूछा, “आप चारों अकेली?”
लेकिन जवाब में मीना ने सिर्फ मुस्कुरा कर कहा, “अब हमारी बारी है।”

दिल्ली स्टेशन पर जब चारों मिलीं, तो कुछ मिनटों तक बस गले लगती रहीं।
कविता, जो अब दो बेटों की माँ थी, थोड़ी भारी हो गई थी लेकिन उसकी हँसी अब भी कॉलेज वाली थी।
मीना ने अपने बालों को डाई नहीं किया था, और कहती थी, “ये सफेदी मेरे अनुभव का तमगा है।”
रुखसाना ने अब हिजाब पहनना शुरू कर दिया था लेकिन उसकी आँखों में वही शरारत थी।
और सुझाता, जो अब एक स्कूल में लाइब्रेरियन थी, आज भी किताबों की बातें सबसे पहले करती थी।

ट्रेन में सफर शुरू हुआ। खिड़की से बाहर भागते खेत, पुलों के नीचे से निकलती ट्रेन, और हर स्टेशन पर चाय की प्याली – जैसे ज़िंदगी फिर से नई लग रही थी।

“याद है, जब हम लखनऊ गए थे और कविता को ट्रेन से नीचे उतरकर समोसे लाने की सूझी थी?”
“और ट्रेन चल पड़ी थी!”
“और हमने चेन खींची थी!”
हँसी से कोच गूंज उठा।

मीना ने अपना फोन निकाला।
“चलो एक सेल्फी!”
चारों ने अपने बाल ठीक किए, चश्मा सीधा किया और क्लिक।
“ये फोटो हमारे पुराने ग्रुप का नया नाम होगा — ‘हम चार’!”

मनाली पहुंचते-पहुंचते हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गई थी।
“क्या गज़ब की ठंड है यार,” सुझाता कांपती हुई बोली।
“तो फिर चलो, पहले एक कप चाय,” मीना ने कहा।

छोटे से ढाबे में चारों ने गर्मागर्म चाय पी, और चाय के साथ जो स्वाद था, वो था — आज़ादी का।

शाम को होटल में बैठकर मीना ने पूछा,
“तुम लोग कब से चाह रही थीं कि ऐसा कुछ हो?”
रुखसाना बोली, “जब से मेरी बेटी की शादी हुई और घर में खालीपन महसूस हुआ।”
कविता बोली, “जब एक दिन आईने में खुद को देखा और लगा, ये मैं नहीं… ये किसी और की परछाईं है।”
सुझाता ने कहा, “जब एक छात्रा ने मुझसे पूछा — ‘मैम, आप कभी कहीं घूमने गई हैं?’ और मेरे पास कोई जवाब नहीं था।”

मीना बोली, “और आज, हम सबने खुद को जवाब दे दिया है।”

उनका पहला दिन बीत गया — चाय, हँसी और यादों के नाम।

लेकिन उन्हें क्या पता था — यह सफर सिर्फ ट्रैवल नहीं, बदलाव का होगा।
पहाड़ों में सिर्फ प्राकृतिक सुंदरता नहीं, अंदर के सन्नाटे से मिलने का रास्ता भी होता है।

गाड़ी में गुज़रा वक्त

सुबह के सात बजे थे। मनाली से सोलांग घाटी की ओर निकलने के लिए टैक्सी होटल के बाहर खड़ी थी। टैक्सी वाले भैया ने गाड़ी की छत पर पहले ही चारों के बैग कसकर बाँध दिए थे। मीना ने सनग्लासेस निकाली, कविता ने टोपी पहन ली, सुझाता हाथ में नोटबुक लिए बैठी, और रुखसाना अपने कैमरे को कसकर पकड़े थी — मानो हर पल को कैद करना चाहती हो।

“चलो दीदी लोग, आज आपको बर्फ भी दिखेगा और झरना भी,” ड्राइवर बोला, “लेकिन रास्ता थोड़ा टेढ़ा-मेढ़ा है। डरना मत!”

गाड़ी चली और शहर की हलचल पीछे छूट गई।

पहाड़ की घुमावदार सड़कें, एक तरफ गहरी खाई और दूसरी तरफ झुके हुए देवदार के पेड़ — सबकुछ मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। टैक्सी का रेडियो धीमी आवाज़ में हिमाचली लोकगीत बजा रहा था। गाड़ी की खिड़की से ठंडी हवा भीतर घुस रही थी और चारों के बालों से खेलने लगी थी।

“इस हवा में कुछ तो है,” सुझाता बोली, “लगता है जैसे बीते हुए सपने लौट आए हैं।”

कविता ने खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा, “जब हम कॉलेज में थे, तो मैंने प्लान किया था कि पहाड़ों में एक हफ्ता अकेले बिताऊँगी। लेकिन ज़िंदगी ने मौका ही नहीं दिया।”

“और आज?” मीना ने मुस्कुराते हुए पूछा।

“आज सबकुछ अपना लगता है, पहाड़ भी, रास्ता भी और हम चार भी,” कविता ने जवाब दिया।

गाड़ी थोड़ी ऊंचाई पर पहुँची तो ड्राइवर बोला, “अब देखिए बाएँ तरफ — नीचे बहती व्यास नदी।”

रुखसाना ने फटाफट कैमरा निकाला और फोटो क्लिक की। “इसका नाम होगा — ‘आजाद बहाव’। जैसे ये नदी किसी की नहीं, बस अपनी है।”

गाड़ी धीरे-धीरे चढ़ाई चढ़ रही थी। मोड़ पर अचानक हल्का झटका लगा और गाड़ी थोड़ी रुक गई।
“कोई बात नहीं, दीदी लोग। एक चाय की दुकान सामने है। आप चाहें तो चाय पी लीजिए, मैं चेक कर लूंगा,” ड्राइवर बोला।

चारों उतर गईं। दुकान मिट्टी की थी, छत पर नीले प्लास्टिक की चादर तनी थी। चूल्हे पर केतली चढ़ी थी और धुएँ में चाय की महक घुली हुई थी।

“भैया, चार अदरक वाली चाय,” मीना ने ऑर्डर दिया।

बैठक के लिए लकड़ी की बेंच थी। चारों बैठ गईं और सामने दिख रहे पहाड़ों को निहारने लगीं।

“कभी-कभी सोचती हूँ,” रुखसाना बोली, “क्या होता अगर मैंने शादी के बाद भी पेंटिंग नहीं छोड़ी होती?”

मीना ने कहा, “क्यों छोड़ी?”

“घरवालों ने कहा, ‘अब बच्चों को बड़ा करना है, रंग और ब्रश का क्या काम?’ और मैं मान गई।”

“तो अब?” कविता ने पूछा।

“अब वापस शुरू करूंगी। इस बार अपने लिए,” रुखसाना की आँखों में कुछ चमक थी।

“और मैं,” सुझाता बोली, “अपने स्कूल में एक ‘बुक क्लब’ शुरू करना चाहती हूँ — जहाँ माएं और महिलाएं किताबें पढ़ें और शेयर करें।”

मीना ने मुस्कुराते हुए कहा, “हम सबके पास अधूरे ख्वाब हैं। लेकिन पहाड़ों ने आज एक दरवाज़ा खोला है — खुद से मिलने का दरवाज़ा।”

इतने में चाय आ गई। मिट्टी के कुल्हड़ में चाय की खुशबू जैसे आत्मा को सुकून दे रही थी। चारों ने चाय का पहला घूंट लिया और एक साथ कहा — “वाह!”

चाय की चुस्की के बीच कविता ने मोबाइल निकाला और प्ले किया — एक पुराना गीत:

“ज़िंदगी कैसी है पहेली हाय, कभी ये हँसाए, कभी ये रुलाए…”

सड़क के किनारे, एक छोटी सी दुकान, कुल्हड़ की चाय, और साथ में वो लोग जिनके साथ जीवन की परिभाषा ही बदल जाती है — ये क्षण किसी तीर्थ से कम नहीं था।

गाड़ी फिर से ठीक हो गई थी। सभी वापस सीट पर आकर बैठ गईं।

“आगे बर्फ भी दिखेगा,” ड्राइवर ने कहा।

“बर्फ तो बहुत दूर लगती थी पहले,” मीना बोली।

“हाँ,” सुझाता ने जोड़ा, “जैसे हमारी इच्छाएं — कभी पास आने की हिम्मत ही नहीं होती थी।”

गाड़ी फिर चल पड़ी। पहाड़ की ऊँचाई बढ़ती जा रही थी और साथ ही दिलों की गहराई भी।

“हमारा अगला पड़ाव?” कविता ने पूछा।

“बर्फ के बीच झूले, हँसी और शायद… कुछ आँसू भी,” रुखसाना बोली।

सभी हँस पड़ीं, लेकिन उस हँसी में एक सच्चाई थी — कि अब जो वक्त है, वो सिर्फ उनका है।

पहाड़ की पहली सुबह

सुबह की हल्की नीली रोशनी खिड़की की सफेद परदों से छनकर कमरे में आ रही थी। मीना की आँख खुली तो सबसे पहले सर्द हवा की मीठी सरसराहट महसूस हुई। कम्बल के नीचे से हाथ निकालकर उसने मोबाइल उठाया — सुबह के पाँच बजकर तैंतालीस मिनट।

बाकी तीनों अब भी सो रही थीं। रुखसाना की बाँहें फैली हुई थीं, कविता अपने दुपट्टे में मुँह छुपाकर सोई थी, और सुझाता किताब पकड़कर नींद में मुस्कुरा रही थी — जैसे कोई सपना पढ़ रही हो।

मीना धीरे से उठी, शॉल ओढ़ी और बालकनी का दरवाज़ा खोला।

बाहर की दुनिया बिलकुल किसी कविता जैसी थी।

नीचे गहराई में झरना बह रहा था, हल्की धुंध हवा में तैर रही थी, और सामने पहाड़ियों के सिरों पर ताज़ी बर्फ चमक रही थी। वो सब कुछ इतना शांत था कि मीना को पहली बार अपने भीतर भी सन्नाटा सुनाई दिया — कोई कोलाहल नहीं, कोई ज़िम्मेदारी की गूंज नहीं… बस वो और उसका अस्तित्व।

बालकनी में खड़ी मीना ने आँखें बंद कीं और गहरी साँस ली।

“क्या ये वही मैं हूँ?” उसने खुद से पूछा।

इतने में पीछे से हल्की आवाज़ आई, “पहाड़ों की सुबह में कुछ अलौकिक होता है ना?”

रुखसाना जाग चुकी थी। उसके हाथ में कैमरा था और आँखों में वही पुराना जादू — जो सिर्फ तब दिखता था जब वो कला के करीब होती थी।

“देख ना मीना, ये फ्रेम,” उसने कैमरा उठाकर तस्वीर दिखाई — एक खुली बालकनी, बर्फ की चोटी और उसमें खड़ी मीना।

मीना मुस्कुराई, “इस तस्वीर में मैं खुद को देख पा रही हूँ। शायद सालों बाद पहली बार।”

“हम सब खुद को ही तो भूल गई थीं,” रुखसाना बोली।

थोड़ी देर में कविता भी उठ गई। उसकी नींद से भरी आँखें जब बाहर के दृश्य पर पड़ीं तो जैसे नींद भी थम गई।

“ओह माय गॉड!” वो चिल्लाई, “ऐसी सुबह तो मैंने सिर्फ पोस्टकार्ड्स में देखी थी।”

“अब जी भी लो,” सुझाता ने कहा, जो दरवाजे से झांक रही थी। “क्योंकि अब हम किसी फिल्म की नायिका से कम नहीं।”

चारों बालकनी में आ गईं, एक-एक कर अपनी चाय लेकर।

“चाय के साथ ये नज़ारा… मुझे तो आज कोई शिकायत नहीं,” कविता बोली।

“कोई जिम्मेदारी नहीं, कोई ‘माँ ये कर दो’, ‘बीवी वो ला दो’,” सुझाता मुस्कराई।

“आज हम सिर्फ खुद के लिए हैं।”

मीना ने अपनी चाय की चुस्की ली और कहा, “मैं सोच रही हूँ — क्या मैं अब भी वही लड़की हूँ जो कभी कविताएँ लिखा करती थी?”

“तो फिर शुरू कर दो,” रुखसाना बोली।

“और मैं फिर से रंगों में डूबना चाहती हूँ,” रुखसाना ने खुद को जोड़ा।

“और मैं एक बार फिर वो झूले पर बैठकर बिना सोचे हँसना चाहती हूँ,” कविता की आवाज़ थोड़ी भीगी हुई सी थी।

“और मैं किताबों के बीच एक ऐसी दुनिया बनाना चाहती हूँ जहाँ औरतें सिर्फ दूसरों के लिए नहीं, खुद के लिए पढ़ें,” सुझाता ने कहा।

थोड़ी देर सब चुप रहीं। फिर मीना बोली, “तो चलो, आज की सुबह हम चारों खुद को वादा करते हैं — कि लौटने के बाद भी हम खुद से जुड़े रहेंगे।”

चारों ने अपने-अपने कुल्हड़ उठाए और एक-दूसरे की आँखों में देखकर वादा किया — चाय की गर्माहट में गूंथे वादे, जो शब्दों से नहीं दिल से बंधे थे।

नीचे होटल का स्टाफ ट्रेकिंग गाइड्स और घोड़े वालों से बात कर रहा था। चारों ने प्लान किया — आज बर्फ में चलना है, हँसना है, गीले होना है और… शायद कुछ पुरानी बातों से भीगना है।

रास्ते भर बच्चों की बातें, सास-ससुर की शिकायतें और पति की टोकाटाकी का कोई ज़िक्र नहीं था।
था तो सिर्फ आज — एक अद्भुत, मुक्त और निजी आज।

पहुंचते ही उन्होंने देखा — चारों तरफ बर्फ, जैसे ज़मीन ने सफेद चादर ओढ़ ली हो।

“यहाँ तो मैं चिल्ला के गा सकती हूँ — ‘मैं जिन्दा हूँ!’” कविता ने कहा।

“तो गाओ,” मीना ने उकसाया।

और कविता सच में ज़ोर से गाने लगी —
“मैं फिर भी तुमको चाहूँगी…”

पास से गुजरते लोग हँसने लगे, कुछ ताली बजाने लगे।
लेकिन कविता को किसी की परवाह नहीं थी।

“ये गाना मैं हमेशा गुनगुनाती थी, लेकिन कभी ज़ोर से नहीं गाया। आज पहली बार डर नहीं लगा,” कविता ने कहा।

रुखसाना ने बर्फ में एक स्केच बनाया — एक औरत खुले बालों में खड़ी है, हाथों में चाय का कप, और उसके पीछे बर्फ से ढके पहाड़।

“ये हम हैं,” उसने कहा, “अपनी दुनिया की रानी।”

शाम को लौटते समय मीना ने एक छोटी सी डायरी निकाली और उसमें लिखा:

“आज पहाड़ों ने मेरे भीतर की लड़की को जगा दिया। वो लड़की जो खुलकर बोलती थी, सपने देखती थी और सबसे ज़रूरी — खुद से प्यार करती थी।”

रुखसाना का रहस्य

रात गहराती जा रही थी। होटल की खिड़की के बाहर हल्की बर्फबारी हो रही थी। कमरे के अंदर एक धीमी, मुलायम सी रोशनी थी। चारों सहेलियाँ गर्म कंबलों में लिपटी, चाय की प्याली थामे बैठी थीं — आज की ट्रेकिंग की थकावट और ठंडी हवा में घुली हँसी अब नींद में बदलने को थी।

लेकिन तभी रुखसाना ने धीरे से कहा, “एक बात बताऊँ?”

तीनों की निगाहें उसकी ओर घूम गईं। उसकी आँखें अब भी बर्फबारी के पार देख रही थीं, जैसे वो शब्द नहीं, कोई पुरानी स्मृति तलाश रही हो।

“हम सबने तो कुछ खोया है न,” वह बोली, “लेकिन कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो अपना ‘मैं’ ही गँवा बैठते हैं — और वो भी बिना किसी को बताए।”

कमरे में अचानक सन्नाटा गहरा गया।

“रुखी,” मीना ने धीरे से कहा, “तू बोल… हम हैं न।”

रुखसाना की उँगलियाँ उसके कुल्हड़ की गर्मी में कांपने लगीं।

“तुम सब जानती हो, मेरी बेटी की शादी हो गई है। अच्छा लड़का है, अच्छे लोग हैं। लेकिन…,” उसने रुककर गहरी साँस ली, “कभी सोचा है कि मैं खुद क्यों नहीं बोलती उसके पापा की बात?”

मीना, कविता, सुझाता — सब एकदम चुप। जैसे इस चुप्पी के बीच ही रुखसाना को साहस मिल रहा था।

“मेरी शादी… वो आसान नहीं थी,” उसकी आवाज़ धीमी थी, लेकिन टूटी नहीं, “शुरुआत में सब ठीक था, लेकिन फिर धीरे-धीरे बात-बात पर गुस्सा, रोक-टोक, शक… और फिर कभी-कभी हाथ भी उठ जाते।”

कविता ने झट से उसका हाथ थाम लिया।
“रुखसाना…”
लेकिन उसने सिर हिलाकर रोका।
“नहीं, आज मैं पूरा बोलूंगी।”

उसकी आँखों में आँसू नहीं थे — बस एक थकावट थी, जो बरसों से जमा हुई थी।

“मैंने कभी किसी से कुछ नहीं कहा। बेटी छोटी थी, सोचा उसके लिए सह लूं। फिर समाज… रिश्तेदार… घरवाले… सब कहते, ‘बीवी को थोड़ा सहन करना चाहिए’। और मैंने सहा… सालों तक।”

मीना का गला रुंध गया।
“पर तू अब भी उसके साथ है?”

“नहीं,” रुखसाना ने जवाब दिया, “तीन साल पहले एक दिन मेरी बेटी ने ही कहा — ‘माँ, अब बहुत हुआ।’ और उस दिन मैंने पहली बार खुद से पूछा — क्या मैं सिर्फ एक बीवी हूँ? क्या मेरे सपनों, मेरी कला, मेरे शरीर, मेरी आत्मा की कोई कीमत नहीं?”

तीनों सहेलियाँ अब तक शब्दहीन थीं। कमरे में सिर्फ खामोशी थी और रुखसाना की आवाज़।

“मैं चली आई। एक छोटा किराए का घर, स्कूल में अस्थायी नौकरी, और वही पुराने रंग, जो अब तक सूख चुके थे, उन्हें फिर से पानी में घोलने की कोशिश शुरू की।”

सुझाता ने उसकी पीठ थपथपाई।
“तू बहुत बहादुर है, रुखसाना।”

“बहादुर नहीं,” उसने मुस्कुरा कर कहा, “बस देर से जागी हूँ। और आज जब यहाँ आई, तुम्हारे साथ, इस खुले आकाश के नीचे… तो मुझे लगा, मैं फिर से ज़िंदा हूँ।”

कविता की आँखों में आँसू थे।
“हम सबने तेरे साथ तो हँसी बाँटी… पर कभी तेरी चुप्पी नहीं समझी।”

“कोई नहीं समझता,” रुखसाना बोली, “क्योंकि औरतों को सिखाया ही नहीं जाता कि उनकी पीड़ा भी पीड़ा है। वो तो घर का हिस्सा मान ली जाती है।”

मीना ने कहा, “पर अब हम सब एक-दूसरे के लिए हैं। ये ट्रिप सिर्फ घूमने की नहीं है — खुद को अपनाने की है। तुझमें जो रंग है, वो अब और नहीं सूखेंगे।”

रुखसाना ने सिर झुकाया।
“और जो पहली पेंटिंग मैं बनाऊंगी, उसका नाम रखूंगी — ‘पहाड़ की पहली सुबह।’ क्योंकि वहीं से मेरी नई ज़िंदगी शुरू हुई।”

बाहर बर्फ अब तेज़ हो गई थी। लेकिन कमरे के भीतर एक अलग गर्मी थी — सच्चाई की, अपनापन की, और उस साहस की, जो रुखसाना जैसे लाखों औरतों के भीतर चुपचाप जन्म लेता है।

उस रात चारों ने मिलकर एक और चाय बनाई, और देर तक बैठे रहीं — बिना ज़्यादा बोले, बस एक-दूसरे का हाथ थामे। कुछ रिश्ते शब्दों से नहीं, खामोशियों से बनते हैं।

कविता की हिम्मत

सुबह का सूरज आकाश में चुपचाप चढ़ रहा था। मनाली की घाटियों में बर्फ पिघलने लगी थी, और हवा में एक अजीब सा जोश था — जैसे पहाड़ खुद कुछ नया करने को प्रेरित कर रहे हों। होटल की लॉबी में गाइड खड़ा था, आज की एक्टिविटी के लिए — पैरा-ग्लाइडिंग।

“मैं तो बैठ जाऊँगी नीचे से ही देखने,” सुझाता ने कहा।

“और मैं फोटो खींचूंगी,” रुखसाना हँसते हुए बोली।

मीना बोली, “मैं सोच रही हूँ एक बार उड़ ही लूं… जीवन में और कौन सा मौका मिलेगा!”

लेकिन कविता चुप थी।

गाइड ने सबको हेलमेट और बेल्ट दी, फिर धीरे से कहा, “डर लगे तो चिंता नहीं, मैं साथ में ही रहूंगा। बस थोड़ा सा भरोसा रखना होगा — खुद पर।”

कविता ने हेलमेट की ओर देखा, फिर आसमान की ओर। उसके अंदर कुछ हिल रहा था — एक तूफान, जो बरसों से थमा हुआ था।

जब वे सब टेक-ऑफ साइट पर पहुंचे, तो नीचे की घाटी इतनी दूर दिख रही थी जैसे बादलों से भी नीचे हो। हर किसी की धड़कन थोड़ी तेज़ थी, पर सब आँखों में चमक लिए खड़े थे।

“कविता, तू करेगी?” मीना ने पूछा।

कविता ने नज़रें झुका लीं।
“नहीं… मुझसे नहीं होगा।”

रुखसाना उसके पास आई और बोली, “डर तो मुझे भी लगता था… लेकिन उससे लड़ना ज़रूरी हो जाता है जब ज़िंदगी खुद से भागने लगे।”

कविता कुछ कहने ही वाली थी कि पीछे से एक छोटी बच्ची की आवाज़ आई — “मम्मी, मैं उड़ने जा रही हूँ!”

एक माँ अपनी १२ साल की बेटी को तैयार कर रही थी।

कविता उसे देखती रह गई।

उसे वो दिन याद आया जब वो खुद १४ साल की थी। स्कूल ट्रिप में झूला झूलने से डर गई थी और सबने मज़ाक बनाया था। फिर शादी हुई, बच्चे हुए, ज़िम्मेदारियाँ आईं — और डर उसके भीतर घर करता गया।

“मैं अपने डर को पीती रही,” उसने सोचा, “और अब वो मेरी पहचान बन गया है।”

कविता की आँखें भरी हुई थीं। वह मुड़ी, हेलमेट उठाया और गाइड के पास पहुँची।

“मैं करूँगी,” उसकी आवाज़ कांप रही थी, पर उसमें एक नई ताक़त थी।

गाइड मुस्कुराया।
“बहुत खूब, मैडम। आप देखिए, ये उड़ान आपको खुद से मिलवाएगी।”

चढ़ाई के बाद कविता और गाइड एक किनारे पर खड़े थे। पैराग्लाइडिंग की रस्सियाँ जुड़ी थीं, हवा तेज़ हो रही थी।

“तीन… दो… एक… दौड़ो!”

कविता ने आँखें बंद कीं और दौड़ पड़ी। कुछ सेकेंड तक डर चीखता रहा… फिर ज़मीन छूट गई।

अब वह आसमान में थी।

उसके नीचे वादियाँ, दूर-दूर तक फैले पेड़, चाय की दुकानें, बहती नदी — और वो सब छोटा दिखने लगा।
उसे लगा जैसे उसके सारे डर, सारे रोक, सारी ज़िंदगी की बेड़ियाँ भी ज़मीन पर छूट गई हैं।

हवा उसके गालों को छू रही थी। और आँखों से बहते आँसू — डर के नहीं, आज़ादी के थे।

नीचे मीना, रुखसाना और सुझाता ताली बजा रही थीं।

“वो उड़ रही है!” सुझाता चिल्लाई।

“वो कविता नहीं, कोई नई स्त्री है — जो आज पैदा हुई है,” मीना ने कहा।

कविता नीचे उतरी तो उसके चेहरे पर ऐसा तेज़ था जो पहले कभी नहीं देखा गया था। उसकी साँसें तेज़ थीं, पैर काँप रहे थे, लेकिन उसकी आँखें चमक रही थीं।

“मैं कर गई!” वह चिल्लाई, “मैं उड़ गई!”

तीनों ने उसे गले लगा लिया।

शाम को, वापस होटल में, कविता ने एक चिट्ठी निकाली।
“ये मैंने खुद को लिखा था दो साल पहले। हर बार जब मैं कुछ नया करने से डरती, तो ये पढ़ती।”

उसने पढ़ा:

“प्रिय कविता,
तू सिर्फ माँ नहीं है, बीवी नहीं है, बहू नहीं है। तू एक संपूर्ण स्त्री है — डरती है, रोती है, लेकिन रुकती नहीं। तू उड़ सकती है, तू चमक सकती है। याद रखना, तेरी उड़ान तेरे भीतर है।”

रुखसाना ने आँखें पोंछी।
मीना ने हाथ थामा।

“आज तेरा उड़ना, हम सबका उड़ना था,” मीना बोली।

कविता मुस्कुरा कर बोली, “और ये उड़ान अब जीवन की हर दिशा में जारी रहेगी।”

सुझाता और चाय का सपना

शाम की हवा में पहाड़ों की नमी घुली थी। होटल की खिड़की के बाहर सलेटी रंग की बादल की चादर धीरे-धीरे सरक रही थी, और अंदर चारों सहेलियाँ गर्म अलाव के पास बैठी थीं — थकी हुई, लेकिन भावों से भरी हुई।

कविता अब भी अपने पैराग्लाइडिंग की फोटो बार-बार देख रही थी।

“कभी सोचती थी कि जो सपने सिर के ऊपर तैरते हैं, वो सिर्फ नींद में देखे जाते हैं,” वो मुस्कराकर बोली, “पर अब लगता है… वो छू भी सकते हैं।”

मीना ने हल्की सी थाली में चार कपों में चाय डाली। रुखसाना ने चाय के कप उठाते हुए कहा, “हम चार चाय में जो बातें डालते हैं, वो शायद दुनिया के किसी भी मेनू में नहीं मिलेगी।”

सुझाता चुप थी। उसकी निगाहें खिड़की के पार थीं — जैसे किसी पुराने दृश्य को फिर से जी रही हो।

मीना ने महसूस किया और धीरे से पूछा, “क्या सोच रही है, सुझाता?”

सुझाता ने एक लंबी साँस ली।

“जानती हो, जब मैं कॉलेज में थी, तब मैंने एक सपना देखा था। छोटा सा — पर बहुत अपना।”

“क्या?” रुखसाना ने उत्सुकता से पूछा।

“एक कैफ़े खोलना चाहती थी,” उसने कहा, “मनाली जैसा कोई पहाड़ी इलाका, जहाँ सुबह की चाय सिर्फ चाय न हो — बल्कि किसी का इंतज़ार, किसी की याद, किसी की शुरुआत।”

कविता की भौंहें उठीं, “और तूने कभी हमें बताया नहीं?”

“कहाँ कह पाती?” सुझाता बोली, “शादी होते ही मेरे सपनों को चाय के स्टोव पर चढ़ा दिया गया। बच्चे हुए, फिर घर, फिर स्कूल की नौकरी। और धीरे-धीरे लगा, जैसे वो सपना मेरा था ही नहीं।”

मीना ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया, “लेकिन अब? क्या अब भी उसे छोड़ चुकी है?”

सुझाता ने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा, “आज जब मैं यहाँ बैठी हूँ — इस हवा, इस शांति और इस चाय के साथ — तो मुझे फिर से उसकी खुशबू आई। लगता है जैसे सपना अब भी मेरी जेब में कहीं मुड़ा-तुड़ा पड़ा है, बस निकालने की हिम्मत चाहिए।”

रुखसाना ने उसकी हथेली थामी, “तो निकाल न। तेरा कैफ़े खुलना चाहिए। और नाम मैं सोच चुकी हूँ — ‘कप्स एंड कहानियाँ’।”

तीनों हँस पड़ीं।

“तू कैफ़े चला, मीना चाय बनाए, कविता गानों का प्ले-लिस्ट बनाए और मैं फोटो खींचूंगी!” रुखसाना ने जोड़ा।

“सच में!” सुझाता की आँखों में चमक थी, “मैं चाहती हूँ कि वहाँ एक कोना हो — किताबों का। एक कोना हो चुप्पियों का, और हर मेज़ पर रखा हो एक चिट्ठी — जिसमें कोई अनजान अपना दिल छोड़ जाए।”

कविता बोली, “और हर चाय में मिलाया जाए एक चुटकी साहस — जैसा आज हमने चखा है।”

मीना ने सुझाता की ओर देखा, “अब घर लौटने के बाद, क्या करेगी तू?”

“हर महीने थोड़ा-थोड़ा बचाऊंगी। प्लान बनाऊंगी। और अगले साल गर्मियों में… मैं दोबारा यहीं आउंगी — एक चाय की दुकान खोजने, जो सिर्फ चाय की नहीं, ज़िंदगी की हो।”

बाहर बारिश शुरू हो गई थी। रिमझिम बूंदें खिड़की पर टकटक करने लगीं — जैसे कह रही हों, “जो दिल में दबा है, उसे बह जाने दो।”

मीना उठी और अपने बैग से चार छोटे रंगीन लिफाफे निकाले।

“ये क्या है?” कविता ने पूछा।

“मैं चाहती हूँ हम चारों आज की रात खुद को एक-एक चिट्ठी लिखें,” मीना बोली, “एक ऐसी चिट्ठी जो भविष्य में, जब हम फिर कहीं थक जाएं, तब खोलकर पढ़ सकें।”

सभी ने लिफाफे थामे। और कमरे में थोड़ी देर बाद सिर्फ कागज़ों की सरसराहट और आत्मा की आवाज़ थी।

सुझाता ने लिखा:

“प्रिय सुझाता,
तेरी चाय की दुकान कोई व्यापार नहीं — वो तेरा जीवन है। वो हर वो बात कहेगी, जो तू कभी बोल नहीं पाई। वहाँ वो सभी आएँगे जो सुकून ढूंढते हैं, और वहाँ तू होगी — अपने पूरेपन में।”

रात के गहराते ही चारों खिड़की के पास बैठ गईं — हाथ में चाय, मन में हौसले, और दिल में एक नई उम्मीद।

बारिश अब भी हो रही थी, पर उनके भीतर कोई डर अब नहीं था।

मीना का एक खत

सुबह की हल्की धूप खिड़की से भीतर आ रही थी। पहाड़ों पर बर्फ की चादर अब चटकने लगी थी, और धूप के नीचे से भाप-सी उड़ती दिखाई दे रही थी — जैसे हर परत कोई किस्सा कह रही हो। होटल के लॉन में रखी चार कुर्सियों पर वही चार स्त्रियाँ बैठी थीं — अब पहले जैसी नहीं, थोड़ी और सच, थोड़ी और पूरी।

मीना के चेहरे पर एक अजीब सी शांति थी। वो कुछ देर से चुप थी, और बाकी तीनों ने महसूस किया कि उसकी चुप्पी इस बार भारी नहीं, गहरी थी।

“कुछ लिख रही थी?” कविता ने पूछा।

मीना ने मुस्कराकर सिर हिलाया। “हाँ। एक चिट्ठी लिखी है — खुद को। पर इस बार बंद लिफाफा नहीं। तुम्हें सुनाना चाहती हूँ।”

तीनों सीधी होकर बैठ गईं। मीना ने एक पन्ना निकाला, आँखें बंद कीं, फिर पढ़ना शुरू किया:

“प्रिय मीना,
तेरे अंदर एक लड़की थी — जो कविताएँ लिखा करती थी, बारिश में भीगकर हँसती थी, और अकेली छत पर बैठकर आसमान से बातें किया करती थी। धीरे-धीरे ज़िम्मेदारियों की परतें उस पर चढ़ती गईं — सास की दवा, बच्चों की टिफिन, पति की पसंद, समाज की परवाह।

और फिर, एक दिन वो लड़की चुप हो गई।

लेकिन मैं जानती हूँ — वो मरी नहीं थी। वो बस सो गई थी। और अब, इन पहाड़ों में, इन सहेलियों की बाँहों में, इन चाय की प्यालियों में… वह लड़की फिर से जागी है।

उसकी आँखों में फिर से स्याही की प्यास है, उसकी उँगलियों को फिर से शब्दों का सहारा चाहिए।

अब जब तू घर लौटे, तो वो छत पर फिर बैठना। बारिश आए तो भीगना। और जब दुनिया सो जाए, तो अपनी डायरी खोलकर कहना — ‘मैं अब भी कविता हूँ।’

क्योंकि तू केवल माँ या पत्नी नहीं — तू वो आग है, जो शब्दों में जलती है और हृदयों में रोशनी करती है।

प्यार के साथ,
तेरी अपनी — मीना।”

तीनों की आँखें नम थीं, लेकिन होठों पर मुस्कान थी। रुखसाना सबसे पहले उठी और मीना को गले से लगा लिया।
“तेरी कविता में जैसे हम सबके दिल की आवाज़ है,” वो बोली।

सुझाता ने कहा, “और यही तो है तेरी असली पहचान। अब मत छुपा उसे।”

कविता ने मुस्कराते हुए कहा, “अब जब तू अगली बार कुछ लिखे, तो याद रखना — तुझे सिर्फ किचन से नहीं, शब्दों से भी प्यार है।”

मीना ने उन तीनों की ओर देखा — और एक लंबी साँस ली।

“आज मैं तय कर चुकी हूँ,” वो बोली, “अब हर दिन एक कविता लिखूंगी। सिर्फ इसलिए नहीं कि मैं कवयित्री हूँ — बल्कि इसलिए कि मैं ज़िंदा हूँ।”

वापसी का वक्त आ गया था।

टैक्सी होटल के सामने खड़ी थी, वही जो उन्हें पहाड़ की गोद में लेकर आई थी। लेकिन आज चारों के बैग में सिर्फ कपड़े नहीं थे — वहाँ सपने थे, फैसले थे, और खुद से किए वादे।

गाड़ी में बैठते वक्त सभी ने होटल के बाहर एक बार फिर देखा — जैसे उस जगह को आँखों में बसा लेना चाहती हों।

“हम फिर आएँगे,” रुखसाना ने कहा।

“जरूर,” सुझाता बोली, “शायद तब मैं अपने कैफ़े के लिए यहाँ जगह ढूंढ रही होऊँ।”

“या मैं बच्चों की क्लास छोड़कर कविता पाठ करने आई होऊँ,” कविता हँसी।

“या मैं अपनी नई किताब की पहली प्रति यहीं आकर खोलूं,” मीना ने कहा।

चारों हँस पड़ीं।

गाड़ी चलते-चलते मोड़ों पर झूलती रही। पेड़ पीछे छूटते गए, घाटियाँ ओझल होती गईं, लेकिन चारों के भीतर जो उगा था — वो कहीं नहीं गया।

मीना ने खिड़की से बाहर देखते हुए अंतिम पंक्तियाँ बुदबुदाईं:

“हम चार थीं — एक गुमनाम भीड़ में खोई चार औरतें।
पर इस यात्रा ने हमें फिर से नाम दिया —
एक चाय की प्याली में उबले सपने,
एक पहाड़ की सुबह में पिघली चुप्पी,
और एक उड़ान में बसी हिम्मत।
अब हम लौट रही हैं,
पर इस बार — खुद के साथ।”

समाप्त

ChatGPT Image Jun 18, 2025, 07_02_16 PM

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *