Hindi - प्रेम कहानियाँ

चाय की टपरी वाला प्यार

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राजीव कुमार शर्मा


पुणे की सर्द सुबहें किसी पुराने गीत की तरह होती हैं—धीमी, धुंधभरी और मन को छू जाने वाली। नवंबर का महीना था, और हवा में एक अलग ही तरह की ठंडक थी जो कॉफी के मग या मोटी जैकेट से नहीं, किसी सच्चे अपने के पास बैठने से ही दूर हो सकती थी। सिम्मी कपूर अपने फ्लैट से रोज़ की तरह सुबह ८:०० बजे निकली। एक हाथ में ऑफिस बैग, दूसरे हाथ में फोन और कान में ईयरफोन—एक कॉर्पोरेट जिंदगी की सटीक तस्वीर। लेकिन उसके इस तेज़ चलने वाले दिन की शुरुआत होती थी एक बेहद साधारण, मगर दिल से जुड़ी आदत से—चाय की टपरी।

पुणे की लक्ष्मी रोड पर एक मोड़ था जहाँ एक पुरानी, टीन की छत वाली चाय की टपरी थी। न कोई बड़ा बोर्ड, न fancy setup। बस एक लकड़ी की मेज़, कुछ प्लास्टिक की कुर्सियाँ और एक मुस्कुराता चेहरा—विवेक।

विवेक की उम्र लगभग २८ साल रही होगी। सादी सी टी-शर्ट, और आँखों में कुछ ऐसा जो आम लोगों में नहीं होता। वह लोगों से ज़्यादा उनकी आँखों से बात करता था। कोई नया आए तो विनम्रता से ‘क्या लोगे?’ और कोई रोज़ का हो तो बिना पूछे चाय हाथ में आ जाती। सिम्मी ऐसे ही रोज़ आने वालों में थी। पिछले सात महीने से वह हर दिन ऑफिस जाते वक्त यहीं रुकती थी।

वो चाय पीना सिम्मी के लिए एक ज़रूरत से बढ़कर आदत बन चुका था। “एक कटिंग, कम शक्कर,” बोलना अब उसके दिन की शुरुआत थी। लेकिन वह खुद भी नहीं जानती थी कि यह सिर्फ चाय नहीं, एक ‘रूटीन बॉन्ड’ बन गया है—विवेक के साथ बिना किसी औपचारिकता के जुड़ाव का।

उस दिन सुबह की हवा कुछ ज़्यादा ही ठंडी थी। सिम्मी अपनी जैकेट के कॉलर को थोड़ा ऊपर खींचते हुए टपरी के पास पहुँची। वहाँ पहले से ही दो ग्राहक खड़े थे। लेकिन जैसे ही विवेक की नजर सिम्मी पर पड़ी, उसने मुस्कुराकर सिर हिलाया और अंदर से चाय बनाना शुरू कर दिया।

“कम शक्कर, कटिंग,” उसने चाय पकाते-पकाते ही कहा।

सिम्मी ने हल्के से हँसते हुए सिर हिलाया। “आज तो हवा भी पूछ रही है, चाय पी के जाओ।”

“तो फिर जवाब देना बनता है,” विवेक ने मुस्कुराकर कप उसकी ओर बढ़ाया।

सिम्मी ने कप थामते हुए हल्के से उंगलियाँ कप की गरमी से सेंक लीं। ये वही गरमी थी जो शब्दों से नहीं, अहसास से मिलती है।

टपरी के एक कोने में लगे पुराने रेडियो से लता मंगेशकर की आवाज़ आ रही थी—“लग जा गले…”

एक पल के लिए सिम्मी ठहर गई। चाय का पहला घूंट, संगीत की धीमी धुन और सामने खड़े विवेक की मुस्कुराती आँखें—इन सबका मेल जैसे किसी अधूरी कविता को पूरा कर रहा था।

“तुम्हारा नाम विवेक है न?” अचानक सिम्मी ने पूछा।

विवेक थोड़ा चौंका, फिर हल्के से मुस्कुराया। “जी हाँ, आपको अब तक याद हो ही जाना चाहिए था। आप तो यहाँ रोज़ आती हैं।”

“नाम तो याद था, बस आज मन किया पूछ लूँ,” सिम्मी ने चाय की आखिरी घूंट ली।

विवेक ने गिलास लेते हुए धीरे से कहा, “और आप—सिम्मी कपूर। HMA Tech में काम करती हैं। मार्केटिंग डिपार्टमेंट।”

सिम्मी की आँखें एक पल के लिए बड़ी हो गईं। “तुम्हें कैसे पता?”

विवेक ने हँसते हुए कहा, “चायवाले को सब पता होता है। कौन कब आता है, क्या पहनता है, क्या सोचकर चाय पीता है… हम चुप रहते हैं, पर बहुत कुछ समझते हैं।”

ये शब्द सिम्मी के मन में उतर गए। क्या वाकई विवेक उसे ‘समझता’ था? वो जिसे खुद अपने बॉस, दोस्त या यहाँ तक कि माँ भी ठीक से नहीं समझ पाई थी?

वो चुपचाप मुस्कुरा कर चल दी। लेकिन आज कुछ अलग था। सिम्मी ने पहली बार महसूस किया कि टपरी पर सिर्फ चाय नहीं, कोई और रिश्ता भी उबल रहा है—धीमे आंच पर, बिना कहे, बिना मांगे।

रास्ते में चलते हुए उसका मन ऑफिस की प्रेज़ेंटेशन से ज़्यादा टपरी के उस पाँच मिनट के संवाद में अटका हुआ था। वो मुस्कुरा रही थी—बिना वजह, या शायद किसी बहुत प्यारी वजह से।

उसे पता नहीं था कि ये मुस्कान अगले कुछ दिनों में उसकी दुनिया बदलने वाली है। वो नहीं जानती थी कि टपरी पर मिलने वाला वो चायवाला असल में एक अधूरी कहानी का लेखक है—और शायद, सिम्मी उस कहानी की नायिका बनने वाली है।

लेकिन फ़िलहाल, पुणे की सर्द हवा में चाय की भाप में एक अनकहा सा रिश्ता बस आकार लेना शुरू कर रहा था।

सिम्मी की सुबह अब सिर्फ ऑफिस की हड़बड़ी या ट्रैफिक का हिस्सा नहीं थी, बल्कि टपरी पर बिताए उन पाँच मिनटों का इंतजार भी बन चुकी थी। अब वह सिफारिश से नहीं, आदत से वहाँ रुकती थी। चाय की खुशबू जैसे उसकी उंगलियों में समा गई थी और विवेक की मुस्कुराहट उसकी निगाहों में।

एक सोमवार की सुबह कुछ अलग थी। आसमान में हल्के बादल थे और हवा में थोड़ी नमी। सिम्मी टपरी पर पहुँची तो वहाँ भीड़ नहीं थी। विवेक अकेला खड़ा चाय उबाल रहा था, जैसे किसी सोच में डूबा हो।

“आज भीड़ कहाँ है?” सिम्मी ने पूछा।

विवेक ने मुस्कराते हुए जवाब दिया, “शायद लोगों को सोमवार पसंद नहीं होता, लेकिन मुझे यह दिन अच्छा लगता है। नई शुरुआत की खुशबू होती है इसमें।”

सिम्मी ने चाय लेते हुए कहा, “तुम्हारे जैसे चायवाले को तो फिलॉसफी प्रोफेसर होना चाहिए था।”

विवेक हल्के से हँसा। “शायद था भी…कभी। पर अब चाय ही मेरी फिलॉसफी है।”

ये शब्द सिम्मी के भीतर कहीं गूंज गए। उसे पहली बार लगा कि वह इस आदमी को नहीं समझती जितना वह सोचती थी। उसके पास कोई डिग्री नहीं, लेकिन हर शब्द ऐसा जैसे किसी किताब के पन्ने से निकला हो।

कुछ सेकंड की चुप्पी के बाद विवेक ने खुद ही बात बढ़ाई, “आपको कविता पसंद है?”

सिम्मी थोड़ा चौंकी, “क्यों?”

“क्योंकि आपकी आँखों में अक्सर एक अधूरी कविता जैसी उदासी होती है,” विवेक ने बिना हिचक के कहा।

सिम्मी ने कुछ पल चाय के कप की भाप में खुद को छिपाने की कोशिश की, फिर धीरे से कहा, “हां, पसंद है। लेकिन अब पढ़ने का वक्त नहीं मिलता।”

विवेक ने जेब से एक पुराना, थोड़ा घिसा हुआ कागज़ निकाला। “अगर इजाजत हो, तो एक सुनाऊ?”

सिम्मी ने सिर हिलाया।

विवेक ने पढ़ना शुरू किया—

“हर सुबह जब तेरी चाय बनती है, हर घूंट में एक सवाल घुलता है। क्या तुम जानती हो, तुम कौन हो मेरे लिए? या ये सवाल भी भाप बनकर उड़ जाता है…”

सिम्मी चुप थी। चाय अब गुनगुनी नहीं, गर्म लगने लगी थी। आँखें कहीं दूर टपरी के पीछे दीवार पर टिकी थीं, लेकिन मन कविता की हर पंक्ति में खोया हुआ।

“तुमने लिखा?” उसने धीमे स्वर में पूछा।

“हाँ,” विवेक ने मुस्कराते हुए जवाब दिया। “हर सुबह तुम्हें देखकर कुछ पंक्तियाँ मन में आ जाती हैं। आज सोचा, एक लिख ही दूँ।”

सिम्मी ने कुछ नहीं कहा, बस अपना कप वापस रखते हुए हल्के से मुस्कुरा दी।

उसी शाम ऑफिस से लौटते वक्त उसने पहली बार अपनी ही रूममेट से कहा, “वो चाय वाला…अजीब है न?”

रूममेट ने छेड़ते हुए कहा, “अजीब नहीं, शायद प्यारा।”

सिम्मी ने बिना कुछ कहे अपना चेहरा तकिए में छिपा लिया, लेकिन मुस्कान उसके होंठों पर छपी रह गई।

अब वह जानती थी—इस चाय में कुछ और था।

अगले कुछ दिनों में सिम्मी और विवेक के बीच वो मौन संवाद अब शब्दों में बदलने लगा था। पहले सिर्फ मुस्कुराहट और चाय के कप का आदान-प्रदान था, अब उसमें शामिल हो गए थे छोटे-छोटे वाक्य, हँसी के पल और धीमी-धीमी बातचीत।

उस शुक्रवार की सुबह सिम्मी थोड़ी देर से निकली थी। ऑफिस में एक प्रोजेक्ट के प्रेशर के कारण रात भर नींद नहीं आई थी। आँखों में हल्की सूजन, पर चेहरे पर वही सहजता। टपरी पर पहुँची तो देखा, विवेक पहले से ही चाय बना रहा था।

“आज देर हो गई?” उसने बिना देखे ही कहा।

सिम्मी ने मुस्कराते हुए कहा, “नींद कम थी, मन भारी था।”

“तो चाय में थोड़ा सा जादू डाल दूँ आज?” विवेक ने चुटकी लेते हुए पूछा।

“अगर कर सको, तो हाँ,” सिम्मी ने पहली बार इतने हल्केपन से जवाब दिया।

विवेक ने एक नया मसाला मिलाया, जिसे वह ‘खास मेहमानों’ के लिए बचाकर रखता था। कप आगे बढ़ाते हुए कहा, “टेस्ट करके बताओ, थोड़ा खास है।”

सिम्मी ने घूंट लिया, फिर आँखें बंद कर लीं। उस स्वाद में कुछ पुरानी यादें थी, कुछ नई बातें और एक ऐसी गर्माहट, जो सीधी दिल में उतरती है।

“क्या नाम है इसका?” उसने पूछा।

“इसका कोई नाम नहीं, बस महसूस करने वाली चीज़ है,” विवेक ने कहा।

अब दोनों रोज़ कुछ न कुछ बात करने लगे थे। कभी मौसम पर, कभी कविताओं पर, कभी जीवन की उलझनों पर। सिम्मी को हैरानी होती थी कि एक चायवाला इतनी गहराई से सोच कैसे सकता है।

एक दिन उसने पूछ ही लिया, “क्या तुमने पढ़ाई नहीं की?”

विवेक थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, “किया था। MBA में था, लेकिन पापा की तबीयत खराब हो गई और टपरी संभालनी पड़ी। वापस जाना चाहा, पर… जिम्मेदारियाँ बड़ी थीं।”

सिम्मी चुप रह गई। यह पहली बार था जब विवेक ने अपने बारे में इतना कुछ बताया था।

“कभी अफसोस होता है?” उसने पूछा।

“कभी-कभी,” विवेक ने हल्के से कहा। “लेकिन जब कोई चाय पीकर मुस्कुरा देता है, तब लगता है सब ठीक है।”

सिम्मी ने मुस्कुरा कर कहा, “तुम्हारी चाय में सच में कुछ खास है… और शायद तुम में भी।”

विवेक ने कोई जवाब नहीं दिया, लेकिन उसकी आँखों में कुछ चमकने लगा। वो चमक जो शब्दों से ज़्यादा कहती है।

उस शाम, सिम्मी ने अपने जर्नल में पहली बार किसी के बारे में लिखा—“विवेक, चायवाला। शायद सिर्फ चायवाला नहीं।”

और उसी पन्ने के नीचे उसने पहली बार अपनी ही लिखी एक पंक्ति जोड़ी:

“वो जो शब्दों में कम, चाय में ज़्यादा घुला है।”

शायद यह शुरुआत थी किसी नए एहसास की, किसी नए रिश्ते की—जो टपरी से शुरू होकर दिल तक पहुँचने वाला था।

टपरी पर अब मौसम भी उनके लिए बदलता सा लगता था। हर सुबह जैसे एक नया रंग लेकर आती थी, और हर शाम एक नई उम्मीद छोड़ जाती। सिम्मी अब बिना घड़ी देखे टपरी पर पहुँचती थी, और विवेक बिना बोले उसके लिए खास चाय तैयार करता। उनके बीच का मौन अब बातचीत में बदल चुका था, लेकिन उस बातचीत में भी एक शांति थी, एक अपनापन जो शोर नहीं करता था।

उस सुबह जब सिम्मी आई, तो टपरी पर एक नया पोस्टर लगा हुआ था—एक कविता, हाथ से लिखी हुई:

“तेरे आने से पहले हर सुबह बस सुबह थी, अब चाय की भाप में तेरा नाम उबलता है…”

सिम्मी कुछ देर तक उसे देखती रही। फिर मुस्कराकर बोली, “कविताएँ अब दीवारों पर आने लगी हैं?”

विवेक ने जवाब दिया, “कुछ एहसासों को काग़ज़ पर उतरना होता है। वरना वो दिल को भारी कर देते हैं।”

सिम्मी ने धीरे से कहा, “और जिन एहसासों का जवाब नहीं होता?”

“उन्हें चाय में घोल कर पी जाना चाहिए,” विवेक ने मुस्कुराते हुए चाय का कप उसकी ओर बढ़ाया।

उस दिन उनकी बातचीत चाय से बढ़कर जीवन के दूसरे पहलुओं पर जा पहुँची—सपने, बचपन, जिम्मेदारियाँ और अधूरी इच्छाएँ।

“तुम्हें कभी डर नहीं लगता?” सिम्मी ने पूछा।

“डर किसका?”

“कि कोई सपना अधूरा रह जाएगा?”

विवेक ने गहरी साँस ली। “डर तो रोज़ लगता है, लेकिन अब समझ आ गया है कि हर सपना पूरा हो—ज़रूरी नहीं। कुछ अधूरे सपने ही इंसान को बेहतर बनाते हैं।”

सिम्मी चुप हो गई।

विवेक ने उसकी तरफ देखा। “तुम्हें क्या चाहिए सिम्मी? पैसा, प्रमोशन, नया शहर, या कुछ और?”

सिम्मी ने बिना सोचे जवाब दिया, “शांति। वो जो मन के भीतर गूंजती नहीं, बस रहती है।”

“फिर तो तुम सही जगह पर आती हो हर दिन,” विवेक ने हँसते हुए कहा।

अगले कुछ दिनों में यह स्पष्ट हो गया था कि उनके बीच सिर्फ चाय और बातचीत का रिश्ता नहीं रहा। सिम्मी अब विवेक के लिए एक आदत बन चुकी थी और विवेक… सिम्मी के लिए एक सवाल—जिसका जवाब वो जानती थी, लेकिन मानना नहीं चाहती थी।

एक शनिवार की शाम, ऑफिस बंद होने के बाद सिम्मी ने पहली बार टपरी पर जाकर पूछा, “आज देर तक खुले रहोगे?”

विवेक ने चौंककर कहा, “हाँ, क्यों नहीं?”

“तो एक चाय और मिलेगी?”

उस शाम दोनों ने टपरी के पीछे वाली छोटी सी बेंच पर बैठकर बात की। हवा में हल्की ठंडक थी और आसमान में आधा चाँद। सिम्मी ने पहली बार खुलकर अपनी बातें बताईं—दिल्ली से पुणे आने की कहानी, करियर का दबाव, टूटे रिश्ते और अकेलेपन का बोझ।

विवेक चुपचाप सुनता रहा। बीच-बीच में चाय के घूँट और मुस्कुराहट से जवाब देता रहा।

“तुम सुनते अच्छे हो,” सिम्मी ने कहा।

“क्योंकि मैंने खुद बहुत कुछ कहा नहीं,” विवेक ने धीमे से उत्तर दिया।

“तो आज कहो,” सिम्मी ने कहा।

विवेक ने आसमान की ओर देखा और बोला, “कभी-कभी लगता है कि मैं गलत जगह आ गया हूँ। MBA अधूरा, टपरी चलाता हूँ, और अब… किसी ऐसी लड़की से बात करता हूँ जो शायद मुझसे बहुत आगे है।”

सिम्मी ने उसकी ओर देखा, “कौन कहता है कि आगे या पीछे होना ज़रूरी है? कभी-कभी दो लोग एक ही जगह पर होते हैं—बस अलग रास्तों से पहुँचे होते हैं।”

यह सुनकर विवेक की आँखों में कुछ भर आया। उसने तुरंत चेहरा फेर लिया, लेकिन सिम्मी समझ चुकी थी—उसके चायवाले के पास भी दिल है, जो कभी किसी के लिए बहुत कुछ कहना चाहता था।

उस रात, टपरी देर तक खुली रही। दोनों साथ बैठे, चुपचाप। शब्दों की ज़रूरत नहीं थी।

अगले दिन जब सिम्मी नहीं आई, तो विवेक बेचैन हो उठा। उसे पहली बार अहसास हुआ कि ये मुलाकातें अब आदत नहीं, ज़रूरत बन चुकी हैं। वो दोपहर तक इंतज़ार करता रहा, लेकिन सिम्मी नहीं आई।

शाम को वह अपने पुराने कवि मित्र से मिला। उसने उसे सलाह दी, “जो कहना है, कह दो। वरना ये अधूरी कविताएँ ही रह जाएँगी।”

विवेक ने घर जाकर अपनी नोटबुक खोली और एक कविता लिखी— “तेरी चुप्पियों से डर नहीं लगता, तेरे न आने से लगता है अब डर। तू कहे न कहे, मैं सुनना चाहता हूँ, वो जो तेरे मन में खामोश सा ठहर।”

अगले दिन टपरी के पास एक छोटी सी चिट लगी थी। उस पर वही कविता लिखी थी, और नीचे लिखा था—“आज का खास कप, तुम्हारे नाम।”

सिम्मी आई। कविता पढ़ी। और मुस्कुराई।

वो चाय नहीं पी, सीधे विवेक से बोली, “क्या तुमने मेरे लिए लिखा?”

विवेक ने कहा, “हाँ।”

“तो जवाब सुनोगे?”

“हाँ।”

सिम्मी ने चाय का कप उठाया और कहा, “तुम्हारी चाय में जो स्वाद है न… अब वो किसी और चाय में नहीं लगता। शायद वो स्वाद तुम्हारे एहसासों का है।”

और पहली बार, दोनों हँसे—जैसे कोई अधूरी कविता पूरी हो गई हो।

पुणे की हवा में अब चाय की भाप नहीं, एक प्रेम कहानी की खुशबू घुल चुकी थी।

सिम्मी अब हर दिन टपरी पर जाना न भूलती थी। ऑफिस की मीटिंग्स, क्लाइंट प्रेजेंटेशन, या सीनियर की डाँट—कुछ भी हो, सुबह की उस पाँच मिनट की चाय उसके दिन का सबसे संतुलित हिस्सा बन चुकी थी। वहाँ कोई दिखावा नहीं था, कोई नकली मुस्कान नहीं। बस एक सच्चा इंसान और एक कप चाय। लेकिन उस सच्चे इंसान के भीतर जो कुछ छिपा था, वह अभी तक सिम्मी नहीं जानती थी।

एक दिन जब वो टपरी पर पहुँची, तो विवेक वहाँ नहीं था। उसकी जगह एक बुज़ुर्ग आदमी चाय बना रहा था।

“विवेक नहीं है क्या?” सिम्मी ने पूछा।

वो आदमी मुस्कुराया, “वो थोड़ी देर में आएगा बेटा। मैं उसका पापा हूँ। तू वही है न जो रोज़ आती है? तेरे लिए तो वो खास मसाले वाली चाय बनाता है।”

सिम्मी थोड़ी झेंपी, “हाँ, मतलब… मैं ही हूँ।”

कुछ ही मिनटों में विवेक वहाँ पहुँच गया। उसने दूर से देखा और जैसे उसके चेहरे पर राहत आ गई।

“सॉरी, आज ज़रा लेट हो गया,” उसने कहा।

“कोई बात नहीं, आपके पापा ने बहुत स्वादिष्ट चाय दी।”

विवेक ने हँसते हुए कहा, “उनकी चाय में दुआ होती है, मेरी में बस आदत।”

बैठे-बैठे सिम्मी ने विवेक से पूछा, “तुम्हारे पापा चायवाले हैं?”

विवेक ने सिर हिलाया। “हाँ। और अब मैं भी।”

“लेकिन तुमने कहा था तुम MBA कर रहे थे?”

विवेक थोड़ी देर चुप रहा। फिर बोला, “हाँ, था। IIM Indore में। लेकिन दूसरे साल में पापा को स्ट्रोक आया। और घर चलाने वाला कोई नहीं था। मैंने सोचा, डिग्री बाद में पूरी हो जाएगी। लेकिन हालात ऐसे बने कि वापस लौट ही नहीं पाया।”

सिम्मी स्तब्ध रह गई। उसे कभी अंदाज़ा नहीं था कि उसके सामने जो हर रोज़ मुस्कुरा कर चाय परोसता है, वो कभी IIM में पढ़ता था।

“तुमने कभी वापस जाने की कोशिश नहीं की?” उसने पूछा।

“बहुत बार,” विवेक बोला। “लेकिन हर बार पापा की तबीयत या पैसे की तंगी रास्ता रोक लेती थी। फिर धीरे-धीरे टपरी ही मेरी दुनिया बन गई।”

सिम्मी को एक अजीब सी टीस महसूस हुई। उसके सामने खड़ा लड़का अब सिर्फ एक चायवाला नहीं था। वो एक सपना अधूरा छोड़कर मुस्कुराने वाला इंसान था।

“क्या तुम्हें लगता है तुम कुछ खो बैठे हो?”

“पहले लगता था। अब नहीं,” विवेक ने जवाब दिया। “अब लगता है, शायद यही मेरा रास्ता था। वरना तुम्हें कहाँ मिलता?”

सिम्मी ने उसकी तरफ देखा। विवेक का चेहरा शांत था, लेकिन आँखों में कुछ कहने की बेचैनी साफ झलक रही थी।

“वो जो पोस्टर पर कविता थी, ‘चाय में तेरा नाम उबलता है’… वो मेरे लिए थी न?”

विवेक ने हल्की हँसी में जवाब दिया, “तुम्हारे अलावा कौन है जो हर दिन आए और बिना बोले सब समझ जाए?”

सिम्मी ने अपना हाथ चाय के कप के पास ले जाकर कहा, “मैं नहीं जानती थी कि किसी चायवाले की बातें मुझे इतनी अंदर तक छू जाएँगी।”

“अब जान गई हो?” विवेक ने हल्के से पूछा।

“हाँ,” सिम्मी ने धीरे से उत्तर दिया।

उस दिन दोनों बहुत देर तक बैठे रहे। ऑफिस की जल्दी, दुनिया की दौड़, सब कुछ जैसे रुक गया था।

जब सिम्मी जाने लगी तो उसने पलटकर कहा, “तुम्हारे पास अधूरी डिग्री है, लेकिन पूरी इंसानियत।”

विवेक मुस्कुराया, “और तुम्हारे पास व्यस्त जीवन है, लेकिन समय निकालने वाला दिल।”

पुणे की सड़कें उस दिन कुछ और ही कह रही थीं। जैसे हर गली, हर मोड़ पर कोई कहानी धीरे-धीरे चल रही हो। और उन कहानियों के बीच, एक टपरी पर दो लोग—जिन्होंने ज़िंदगी को किताबों से नहीं, चाय के कप से पढ़ा था—एक-दूसरे के करीब आ रहे थे।

अगले कुछ दिनों तक सब कुछ सामान्य था। हर सुबह वही चाय, वही मुस्कानें, और वही हल्की-फुल्की बातें। लेकिन भीतर कुछ बदल रहा था—दोनों के ही अंदर। भावनाएँ अब केवल आँखों में नहीं थीं, वे शब्दों से बाहर आना चाहती थीं। लेकिन शायद डर था—कुछ कह देने का, या फिर कुछ खो देने का।

एक दिन जब सिम्मी ऑफिस से जल्दी फ्री हुई, तो उसने सोचा कि एक शाम की चाय टपरी पर पी जाए। जब वो वहाँ पहुँची, तब विवेक अकेला बैठा कुछ लिख रहा था। उसका सिर झुका था और आँखें गहराई में डूबी हुईं।

सिम्मी ने हल्के से आवाज दी, “क्या लिख रहे हो?”

विवेक चौंक गया, फिर मुस्कुराया। “बस यूँ ही, कुछ भाव थे… काग़ज़ ने माँग लिए।”

“मुझे दिखाओ,” सिम्मी ने आग्रह किया।

विवेक ने थोड़ी झिझक के बाद काग़ज़ बढ़ाया। उस पर लिखा था:

“तुम्हें कहना तो है बहुत कुछ, पर चाय की तरह चुप रहना आ गया है। भाप बनकर उड़ जाती है बात, जो दिल में थी, जो मन में थी।”

सिम्मी कुछ देर तक उस काग़ज़ को देखती रही। उसकी आँखें नम होने लगीं। उसने काग़ज़ वापस करते हुए कहा, “ये सिर्फ कविता नहीं, इज़हार है।”

विवेक ने सिर झुकाया, “शायद है… लेकिन क्या तुम सुनना चाहती हो?”

सिम्मी ने कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप बैठ गई।

उस शाम उन्होंने पहली बार चुप रहकर बहुत कुछ कहा। हवा में कुछ अलग था—जैसे कोई तूफान आने वाला हो, लेकिन उससे पहले की शांति दोनों को बाँध रही थी।

अगले दिन, विवेक टपरी पर नहीं था। न उसके पापा, न कोई और। टपरी बंद थी। सिम्मी वहाँ खड़ी रही, जैसे किसी खोए हुए पल को खोज रही हो।

उसने फोन निकाला और विवेक का नंबर देखा—जिसे उसने कभी लिया नहीं था। उसे अब अफसोस हुआ।

एक दिन, दो दिन, तीन दिन… टपरी बंद रही।

चौथे दिन सिम्मी टपरी के पास खड़ी रही, जब एक छोटा बच्चा पास आया और बोला, “आप सिम्मी दीदी हैं?”

सिम्मी चौंकी, “हाँ… क्यों?”

बच्चे ने एक चिट्ठी उसकी ओर बढ़ाई। “भाईया ने दिया था, कहा था आपको दे दूँ।”

सिम्मी ने काँपते हाथों से चिट्ठी खोली। उसमें लिखा था:

_“सिम्मी, कुछ बातें अधूरी रह जाएँ, तो ज़िंदा रहती हैं। शायद मैं भी अधूरा हूँ, और यही मेरी पहचान है। तुमने मुझे देखा, समझा, और वो दिया जो दुनिया नहीं दे सकी—सम्मान और अपनापन। लेकिन मैं अब कुछ दूर जाना चाहता हूँ। शायद खुद को पूरा करने, शायद तुम्हारे बिना खुद को परखने। अगर हमारी कहानी अधूरी रह गई तो क्या? हर अधूरी कहानी में भी तो एक ख़ूबसूरत कविता छिपी होती है।

विवेक”

सिम्मी की आँखों से आँसू बहने लगे। वह नहीं जानती थी कि ये कहानी कहाँ जाएगी। लेकिन उसे यकीन था, यह खत्म नहीं हुई है।

उसने चाय की दुकान के पास जाकर एक काग़ज़ चिपका दिया:

“अगर अधूरी कहानी ने लौटना चाहा, तो टपरी अब भी यहीं होगी, और एक कप चाय तैयार होगी… तुम्हारे लिए।”

पुणे की गलियों में अब एक टपरी बंद थी, लेकिन वहाँ उम्मीद की एक चुप सी चिट्ठी हवा में तैर रही थी।

टपरी अब भी बंद थी, लेकिन हर सुबह सिम्मी की आँख खुलते ही मन पहले उसी मोड़ पर चला जाता। वह अब आदतन नहीं, भावना से वहाँ जाती थी। जैसे हर दिन उम्मीद होती कि आज शायद वो फिर से वहाँ होगा। वो मुस्कान, वो आँखें, वो आवाज़ जो चाय के साथ मन को भी गरम कर देती थी। पाँच दिन बीत चुके थे। विवेक की चिट्ठी के बाद न कोई फोन, न संदेश, न कोई सुराग। बस एक सन्नाटा। लेकिन सिम्मी ने हार नहीं मानी थी। हर सुबह वह उसी मोड़ पर खड़ी होती, जैसे किसी खोए हुए पल को आवाज़ दे रही हो।

सातवें दिन की सुबह हल्की धुंध थी। सिम्मी ने अपना शॉल कसकर लपेटा और टपरी की ओर चल दी। वहाँ पहुँचने पर देखा, टीन की छत आधी उठी हुई थी, लेकिन कोई अंदर नहीं था। उसके कदम अपने आप अंदर की ओर बढ़े। लकड़ी की मेज़ पर एक नोट रखा था, सादा सा कागज़:

“चाय उबाल दी है। अगर पीनी हो, तो खुद बना लेना। —विवेक”

सिम्मी का दिल तेज़ी से धड़कने लगा। उसने चारों ओर देखा। कोई नहीं था। अंदर गई, और देखा—चाय की केतली में हल्का गरम पानी था, मसाले वहीं रखे थे, दूध और शक्कर भी। सबकुछ वैसे ही, जैसे विवेक उसे सिखा गया हो।

वह मुस्कुराई। यह कोई आम चाय नहीं थी—यह एक इम्तिहान था, एक इशारा कि वो लौट आया है, शायद कहीं पास ही है।

उसने सावधानी से चाय बनानी शुरू की। मसालों की खुशबू हवा में घुलने लगी, और साथ में पुरानी यादें भी। हर उबाल के साथ वो लम्हे याद आने लगे जब वो दोनों बातें करते थे, कविता सुनते थे, चुपचाप मुस्कुराते थे। कप में चाय डालते ही उसकी भाप ने उसे जैसे बाँहों में भर लिया।

वह बेंच पर बैठ गई और चाय का पहला घूंट लिया। ठीक उसी पल, पीछे से एक जानी-पहचानी आवाज़ आई—“शक्कर थोड़ी कम डाली होगी, मुझे पता है।”

वह पलटकर देखती है—विवेक खड़ा था। थका हुआ, पर शांत, वही पुरानी मुस्कान लिए हुए। उसके बाल बिखरे थे, आँखों में हलकी थकान थी, लेकिन चमक अब भी वही थी।

सिम्मी धीरे से खड़ी हुई। आवाज़ गले तक आकर रुक गई।

“कहाँ थे तुम?” उसकी आवाज़ काँपी।

“खुद को खोजने गया था,” विवेक ने कहा। “और तुममें खुद को पा लिया।”

सिम्मी कुछ क्षण उसे निहारती रही। उसने चाय का कप विवेक की ओर बढ़ाया। “अब बना कर पिलाओ। मेरी चाय में तुम्हारी बात नहीं है।”

विवेक कप लेकर काउंटर की ओर गया। वही पुरानी क्रिया—लेकिन इस बार हाथों में कंपन थी, जैसे वह भी इस पल को पूरी तरह महसूस कर रहा हो। चाय तैयार करके उसने कप सिम्मी को दिया। सिम्मी ने घूंट लिया और मुस्कुरा दी।

“अब स्वाद वापस आ गया है,” उसने कहा।

विवेक सामने बैठ गया। दोनों कुछ क्षण चुप रहे। फिर सिम्मी ने पूछा, “अब फिर से जाओगे?”

विवेक ने सिर हिलाया, “नहीं। अब मैं रुकना चाहता हूँ। टपरी पर, इस चाय पर, और तुम्हारे पास।”

“और तुम्हारे सपने?”

“अब समझ गया हूँ,” विवेक ने गहरी साँस लेते हुए कहा। “MBA मेरा सपना था, लेकिन तुम मेरी मंज़िल हो। डिग्री कभी पूरी कर लूँगा। लेकिन ये जो टपरी है, ये मेरी पहचान है। और तुम मेरी प्रेरणा।”

सिम्मी ने उसकी ओर हाथ बढ़ाया, “अगर तुम चाहो तो मैं इस टपरी के पीछे बैठकर लैपटॉप से काम कर सकती हूँ। बशर्ते चाय हमेशा तुम्हारी बनी हो।”

विवेक हँस पड़ा। “डील पक्की।”

उस दिन दोनों ने बहुत बातें कीं। उन्होंने आने वाले दिनों के लिए योजनाएँ बनाईं। विवेक ने बताया कि वह अपने पुराने प्रोफेसर से मिला था, जो उसे correspondence के ज़रिये पढ़ाई पूरी करने में मदद करेगा।

“मैं चाहता हूँ कि टपरी भी चले और मेरा सपना भी,” उसने कहा। “लेकिन सबसे बड़ा सपना अब तुम हो।”

सिम्मी की आँखों में चमक थी, और मन में एक अजीब सी शांति। जैसे हर सुबह की वो प्याली अब पूर्ण हो चुकी थी।

उस दिन शाम को, जब हल्की सी बारिश हुई, तो दोनों ने टपरी के टीन के नीचे बैठकर गर्मागरम चाय के साथ बारिश की बूँदों को सुना। चुपचाप। और उस चुप्पी में वो सबकुछ कह दिया गया जो अब तक अधूरा था।

अब टपरी सिर्फ चाय की नहीं रही थी। वो प्रेम की, सम्मान की, और दो टूटे हुए दिलों की कहानी बन चुकी थी—जो भाप में घुलकर रोज़ दुनिया को एक नई कविता सुनाती थी।

अब टपरी पर दो कुर्सियाँ हर दिन सजी रहती थीं—एक सिम्मी की, एक विवेक की। पहले जो मुलाक़ातें संयोग लगती थीं, अब एक सुंदर नियम बन चुकी थीं। सुबह की चाय, ऑफिस की चर्चा, कविता की कुछ पंक्तियाँ और कई बार तो सिर्फ मौन—पर अब उस मौन में भी शब्दों की गर्मी थी।

विवेक की टपरी अब बदलने लगी थी। उसने पुराना बैनर हटाकर नया लकड़ी का नामपट्ट लगाया था—“दो कप इश्क़।” नीचे छोटा सा टैगलाइन लिखा था—“हर स्वाद में एक कहानी।”

जब सिम्मी ने वो देखा, तो मुस्कुरा उठी, “अब ये चाय दुकान नहीं रही, प्यार का declaration लग रही है।”

विवेक ने जवाब दिया, “प्यार छुपाया जाए तो वो स्वाद नहीं देता।”

अब टपरी पर आने वालों की संख्या भी बढ़ने लगी थी। स्थानीय लोग, कॉलेज के छात्र, और यहां तक कि कुछ ऑफिस के साथी भी आने लगे। सबको उस चाय की बात समझ में आती थी, लेकिन किसी को नहीं पता था कि उस स्वाद के पीछे दो दिलों की पूरी एक कहानी थी।

एक दिन सिम्मी ने कहा, “क्या तुम्हें नहीं लगता कि हमें इस टपरी को थोड़ा और बड़ा करना चाहिए?”

विवेक ने उसे देखा, “बड़ा करने से पहले उसके अर्थ को और गहरा करना चाहता हूँ। ये टपरी अब सिर्फ दुकान नहीं, मेरी पहचान है। मैं चाहता हूँ कि इसका हर कोना हम दोनों की मेहनत और जज़्बात से भरा हो।”

फिर दोनों ने मिलकर कुछ योजनाएँ बनाईं—चाय की नई वैरायटीज़, एक छोटी सी बैठने की जगह, और कोने में एक ‘कविता बोर्ड’ जहाँ हर सप्ताह एक नई कविता लिखी जाती। कभी सिम्मी की, कभी विवेक की, कभी किसी ग्राहक की।

कविता बोर्ड पर एक दिन सिम्मी ने खुद लिखा:

“चाय की प्याली में जब तुम मुस्कुरा दो, तो सारे मौसम एकसाथ पी लिए जाते हैं।”

उस दिन एक बुज़ुर्ग महिला आई और बोली, “बेटा, तुम्हारी कविता पढ़कर आँखों में नमी आ गई। क्या इसे पढ़कर चाय सस्ती मिलेगी?”

विवेक ने हँसते हुए कहा, “आज की चाय फ्री, क्योंकि आपकी मुस्कान ही असली कीमत है।”

अब सिम्मी भी दिन के कुछ घंटे टपरी पर बिताने लगी थी। उसने अपने ऑफिस से हाइब्रिड काम की अनुमति ले ली थी। सुबह टपरी पर काम, फिर दोपहर से शाम तक ऑनलाइन मीटिंग्स और रिपोर्ट्स।

विवेक ने एक कोना उसकी टेबल के लिए तय किया था। उस पर छोटे फूलों का गमला, एक कागज़ी वजन जिसमें लिखा था “सिम्मी की जगह”, और एक छोटी घंटी, जो बजाकर वो चाय मँगाती थी।

एक शाम, दोनों बैठकर बात कर रहे थे। सिम्मी ने पूछा, “क्या तुमने कभी सोचा था कि एक टपरी तुम्हारी ज़िंदगी को इतना सुंदर बना देगी?”

विवेक ने हल्के से मुस्कुराते हुए कहा, “नहीं। लेकिन शायद ज़िंदगी जानती थी कि मुझे किताबों से नहीं, चाय से मिलना चाहिए। और तुमसे।”

फिर अचानक सिम्मी ने जेब से एक लिफाफा निकाला। “ये तुम्हारे लिए है।”

विवेक ने देखा—उसमें IIM Indore से correspondence MBA प्रोग्राम का प्रवेश फॉर्म था, जो सिम्मी ने भरकर रख छोड़ा था।

“तुम्हारे सपनों को ज़िंदा रखना मेरा भी सपना है,” उसने कहा।

विवेक की आँखें नम हो गईं। उसने फॉर्म को पकड़ा और धीरे से कहा, “अब हम दो कप इश्क़ और एक सपना साथ पीएँगे।”

टपरी पर अब हर सुबह एक नई शुरुआत की तरह लगती थी। पुराने ग्राहक कहते, “इस चाय में कोई जादू है।” और विवेक मुस्कुराकर जवाब देता, “इसमें एक लड़की का सपना घुला है, और एक लड़के की मोहब्बत।”

पुणे की गलियों में अब उस टपरी की पहचान चाय से नहीं, प्रेम से थी।

मॉनसून की हल्की बूँदें अब पुणे की गलियों को हरियाली में रंग चुकी थीं। टपरी की टीन की छत पर टप-टप गिरती बूँदें जैसे हर सुबह नई लय में बजती थीं। अब टपरी के आसपास एक छोटा सा बगीचा भी था—कुछ फूल, कुछ तुलसी के पौधे, और बीच में सिम्मी का कॉर्नर जहाँ वो चाय पीते हुए लैपटॉप पर काम करती थी।

टपरी अब एक जीवंत स्थान बन गया था—जहाँ लोग सिर्फ चाय नहीं पीते थे, अपने दिन की शुरुआत करते थे। सुबह ७ बजे से ही विवेक और सिम्मी दोनों वहाँ रहते, और कभी-कभी क्लाइंट्स से मीटिंग करते हुए भी उनकी नजरें एक-दूसरे से टकरा जातीं, मुस्कान बाँटी जाती और वही जानी-पहचानी गर्मी दिल में समा जाती।

एक दिन टपरी पर एक महिला आई, उम्र लगभग ६० के आसपास। साड़ी में, आँखों में बुद्धिमत्ता और हाथ में पुराना लिफाफा। उसने विवेक को देखा और पूछा, “तुम ही हो न विवेक शर्मा?”

विवेक चौंका, “जी… आप?”

“तुम्हारे प्रोफेसर ने भेजा है ये। उन्होंने कहा था कि अगर तुम अब भी पढ़ना चाहो तो ये अंतिम मौका है। स्कॉलरशिप फिर से एक्टिव की गई है। बस ७ दिनों में दिल्ली पहुँचना होगा।”

सिम्मी सब सुन रही थी।

विवेक ने चुपचाप लिफाफा लिया। चुप्पी के बीच चाय का पानी भी खामोश हो गया था।

उस दिन शाम को टपरी बंद होने के बाद, सिम्मी और विवेक वहीं बैठे रहे। बारिश रुक चुकी थी, पर हवा में भारीपन था।

“जाना चाहिए?” सिम्मी ने पूछा।

विवेक ने कहा, “मैं नहीं जानता… सब कुछ इतना ठीक चल रहा है, डर लगता है कि अगर चला गया तो सब कुछ बदल जाएगा।”

“पर तुम्हारा सपना?” सिम्मी ने पूछा। “मैंने ही तो कहा था कि सपनों को मरने मत दो।”

“और तुम्हें छोड़कर जाना? ये टपरी, ये सुबहें, तुम्हारी हँसी?”

सिम्मी थोड़ी देर चुप रही। फिर बोली, “कभी-कभी कुछ रिश्तों को दूर से देखना पड़ता है ताकि वो और मजबूत हो सकें।

अगर तुम नहीं जाओगे, तो मैं खुद को कभी माफ़ नहीं कर पाऊँगी।”

विवेक की आँखें भर आईं। उसने धीरे से कहा, “तो क्या तुम वादा करती हो कि जब मैं लौटूँ, तुम यहीं होगी?”

“हमारी टपरी यहीं होगी। मेरी टेबल, मेरा गमला, और तुम्हारी चाय,” सिम्मी ने मुस्कुराते हुए कहा।

अगले सात दिन दोनों ने जैसे हर पल को संजो कर जिया। हर सुबह चाय थोड़ी मीठी बनी, हर कविता थोड़ी और गहरी हो गई, और हर मौन थोड़ा और अर्थपूर्ण।

विदा की सुबह आई।

विवेक ने बैग उठाया। ट्रेन स्टेशन तक छोड़ने के लिए सिम्मी भी साथ थी। रास्ते भर दोनों ने हल्की बातें कीं, जैसे दर्द को हल्का किया जा रहा हो। स्टेशन पर उतरते वक्त सिम्मी ने एक चिट्ठी विवेक के हाथ में रखी।

“इसे ट्रेन के चलने के बाद खोलना,” उसने कहा।

ट्रेन चली।

विवेक खिड़की के पास बैठा और चिट्ठी खोली। लिखा था:

“तुम्हारी चाय की हर चुस्की में मैंने अपने दिल का एक हिस्सा पाया है। तुमने जो मुझे दिया, वो किसी कॉर्पोरेट ऑफिस में, किसी बोनस में या किसी प्रमोशन में नहीं था। ये चिट्ठी एक प्रेम-पत्र नहीं, एक वादा है। कि जब तुम लौटोगे, तुम्हारे हिस्से की चाय हमेशा गर्म मिलेगी। और मैं… वहीं टपरी के कोने में तुम्हारे इंतज़ार में बैठी रहूँगी।”

उस चिट्ठी की स्याही भीग चुकी थी—या तो बारिश से, या विवेक की आँखों से गिरी बूंदों से।

टपरी अब कुछ दिन सिम्मी अकेले संभाल रही थी। वह काम के साथ-साथ ग्राहकों को वही चाय पिलाती, वही कविता बोर्ड अपडेट करती। और हर शाम, जब सूरज ढलता, तो वह कविता पढ़ती जो उसने विवेक की वापसी के लिए लिखी थी:

“जा तो रहा है तू, मगर लौट आना, चाय में अब भी तेरा नाम उबलता है…”

पुणे की हवा में अब इंतज़ार की खुशबू थी, और टपरी… उस टपरी पर हर दिन कोई नई कहानी जन्म लेती, लेकिन सबका अंत एक ही ओर जाता—जहाँ दो कप चाय रखे होते, और एक दिल की धड़कन उसका इंतज़ार करती।

१०

टपरी की घड़ी अब भी सुबह के छह बजते ही टिक-टिक शुरू कर देती थी। वही पुरानी लकड़ी की मेज़, वही दो कुर्सियाँ, वही कविता बोर्ड… बस अब विवेक की कुर्सी हर सुबह खाली रहती थी। लेकिन सिम्मी ने हार नहीं मानी थी। वो रोज़ सुबह उस कुर्सी पर एक कप चाय रख देती थी—उस यकीन के साथ कि कोई एक दिन लौटेगा, और उस चाय को वही चुस्की देगा जो कभी दो दिलों को जोड़ गई थी।

समय धीरे-धीरे अपनी रफ़्तार से चलता रहा। एक महीना, दो महीने, फिर तीन। सिम्मी अब पूरे मन से टपरी संभाल रही थी। उसने कुछ पुराने ग्राहकों को नाम से जानना शुरू कर दिया था। कुछ नियमित ग्राहक अब उसे “दीदी” कहने लगे थे, और वो भी धीरे-धीरे अपने दुःख को मुस्कुराहटों में बदलना सीख रही थी।

विवेक की चिट्ठियाँ आती थीं—हर पंद्रह दिन में एक। वो पत्र लिखता, स्याही से नहीं, भावनाओं से।

“सिम्मी, यहाँ दिल्ली की सर्दी बहुत तीखी है। लेकिन जब भी मैं गर्म चाय का कप हाथ में लेता हूँ, तुम याद आती हो। क्लास में प्रोफेसर कुछ और पढ़ाते हैं, और मेरा मन तुम्हारी लिखी कविता पर अटक जाता है। मैंने एक दीवार पर हमारी टपरी का स्केच बनाया है—और वहाँ नीचे लिखा है ‘दो कप इश्क़’। तुमसे दूर होकर ही शायद तुम्हारे और करीब हो पाया हूँ।”

हर बार जब चिट्ठी आती, सिम्मी उसे कविता बोर्ड पर पढ़ती। अब टपरी के ग्राहक भी जानने लगे थे कि “सिम्मी दीदी” किसका इंतज़ार कर रही है। वो चिट्ठियाँ अब टपरी की आत्मा बन चुकी थीं।

एक दिन, बारिश तेज़ थी। टपरी के बाहर पानी भर गया था, और ग्राहक बहुत कम आए थे। सिम्मी अकेली बैठी थी। हाथ में वो आख़िरी चिट्ठी थी जिसमें लिखा था, “एग्ज़ाम खत्म होने के बाद सबसे पहले तुमसे मिलने आऊँगा।”

तभी एक लड़का आया, भीगा हुआ, चेहरे पर शॉल लपेटे हुए। उसने सिम्मी से पूछा, “दीदी, एक कप अदरक वाली चाय मिलेगी?”

सिम्मी ने सिर उठाकर कहा, “अभी बनाती हूँ।”

वो मुड़ी ही थी कि पीछे से वही लड़का हँसते हुए बोला, “अरे… इतना भी क्या अजनबी बन गई?”

सिम्मी जैसे ठिठक गई। वो आवाज़… वही टोन, वही गर्मी। उसने धीरे से पलटकर देखा—विवेक था। बाल थोड़े लंबे, चेहरे पर हल्की दाढ़ी, पर मुस्कान वही थी, जिससे उसने प्यार किया था।

वो कुछ बोल नहीं पाई। सिर्फ पास गई और उसकी शॉल हटाकर चेहरा देखा। फिर धीरे से बोली, “बहुत देर कर दी तुमने…”

विवेक ने उसका हाथ पकड़ा और कहा, “अब कभी देर नहीं होगी। अब हर सुबह तुम्हारे साथ शुरू होगी।”

उस दिन टपरी पर चाय का एक कप नहीं, दो कप उबाले गए। हर ग्राहक ने तालियाँ बजाईं। कविता बोर्ड पर उस दिन विवेक ने खुद लिखा:

“इश्क़ लौट आया है, वही चाय, वही प्याली, बस अब तन्हा नहीं।”

उस शाम दोनों ने मिलकर टपरी की दीवार पर एक नाम खुदवाया—“सिम्मी & विवेक’s – दो कप इश्क़”।

चाय अब भी वही थी, स्वाद भी वही था। लेकिन अब उस कप में जो उबालता था, वो सिर्फ मसाला नहीं, भरोसा था। प्रेम का, वक़्त का, और एक वादे का।

साल बीते। टपरी अब एक छोटे से कैफे में बदल चुकी थी—लकड़ी की खिड़कियाँ, कविता का कोना, और एक छोटा सा मंच जहाँ हर हफ़्ते युवा कवि अपनी रचनाएँ सुनाते। लेकिन सबसे खास बात वही बनी रही—सिम्मी और विवेक हर सुबह अपने पुराने कोने में बैठते, दो कप चाय के साथ, और मुस्कुराकर कहते:

“प्यार अगर चाय होता, तो उसका नाम होता ‘तपरी वाला प्यार’।”

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