नीलेश राघव
स्टेशन वही था—प्लेटफॉर्म नंबर तीन, पुरानी लकड़ी की बेंच, जंग खाया पीला बोर्ड, और सामने वही चायवाला, जो कभी मेरी कॉलेज की सुबहों की शुरुआत करता था। अब भी वो पुराने केतली में चाय उबाल रहा था, जैसे वक्त ने उसे छुआ तक नहीं।
मैंने पास जाकर कहा, “तू अभी भी यहाँ चाय बेचता है?”
वो चौंक गया, फिर मुस्कराया, “अरे भैया… नीलेश भैया ना? आप तो… कितना साल हो गया आपको देखे हुए!”
“बीस,” मैंने कहा, “करीब बीस साल।”
उसने सिर हिलाया, “पर चाय वही है। पीजिएगा?”
मैंने पाँच का सिक्का बढ़ा दिया।
उसने कुल्हड़ में चाय भरी—सोंधी खुशबू, अदरक की हल्की झनझन, एक अजीब सी गर्मी दिल तक उतरती चली गई।
मैं बेंच पर बैठ गया। शाम का वक्त था। आसमान हल्का नीला, दूर से आती ट्रेन की आवाज़, और कानों में गूंजती एक पुरानी हँसी। हाँ, ये वही जगह थी जहाँ मैं और सिम्मी मिला करते थे। हर सोमवार, ठीक पाँच बजे। वो कॉलेज के बाद आती थी, मैं ऑफिस के बहाने शहर में होता था। स्टेशन तब हमारा मिलता हुआ पता था, और बिछड़ने का भी।
पीछे से एक आवाज़ आई—धीमी, कांपती, पर जानी-पहचानी। “नील…”
मैंने पलट कर देखा। सिम्मी। बीस साल बाद। वही चेहरा, कुछ थका हुआ, आँखों के नीचे हल्के काले घेरे, पर मुस्कान अब भी वैसी ही। उसने एक स्लेटी शॉल लपेट रखी थी, और हाथ में किताबें थीं—जैसे आज भी किसी ट्यूशन से आ रही हो।
मैं उठा। कुछ बोल नहीं पाया। बस देखा।
“तुम?”
“हाँ, मैं,” वो बोली।
“यहाँ कैसे?”
“एक दोस्त ने कहा था कि यादों के स्टेशन पर ट्रेनें नहीं आतीं। पर मैंने सोचा, शायद लोग आ जाते हैं।”
हम दोनों हँस पड़े। थोड़ी झिझक, थोड़ी दूरी, लेकिन आँखों में वैसा ही अपनापन।
“कैसी हो?” मैंने पूछा।
“ठीक,” उसने कहा, “पर तुम कैसे हो?”
“जैसे होता है कोई, जिसने किसी को सालों पहले खो दिया हो, पर आज भी रोज़ ढूंढता हो।”
वो चुप हो गई। आँखें नीचे कर लीं।
हम बेंच पर साथ बैठ गए।
उसने पूछा, “तुमने शादी की?”
मैंने सिर हिलाया, “नहीं। किसी में तुम्हारा बदला नहीं मिला।”
“तुम अब भी उतने ही फिल्मी हो,” उसने कहा, पर आवाज़ हल्की कांपी।
“और तुम अब भी उतनी ही सुंदर,” मैंने कहा।
कुछ देर चुप्पी रही। हवा चली, शॉल उसके चेहरे पर उड़ गई। मैंने उसके बालों से एक पत्ता हटा दिया।
वो बोली, “नील, मैं उस दिन आई थी… जब तुम गए थे। स्टेशन पर… पर तुम नहीं मिले।”
“क्यों आई थी?”
“क्योंकि जाना चाहती थी… तुम्हारे साथ। लेकिन डर लग रहा था।”
“अब?”
“अब… डर नहीं बचा। बस पछतावा है।”
मैंने उसकी ओर देखा। वो सच कह रही थी। उसका चेहरा झूठ बोलना नहीं जानता था।
मैंने पूछा, “क्यों चली गई थी?”
“माँ रो रही थी… पापा चुप थे… और तुम… तुम बस दूर खड़े थे, बिना कुछ कहे।”
“कहने को कुछ बचा ही नहीं था,” मैंने कहा।
“पर सुनने को बहुत कुछ बाकी था,” उसने धीमे से कहा।
स्टेशन पर फिर एक ट्रेन आई। प्लेटफॉर्म पर कुछ हलचल, कुछ ठहाके, कुछ झगड़े—जैसे ज़िंदगी सबके लिए चलती रहती है, बस हमारे लिए रुक गई थी।
हम फिर चायवाले के पास गए।
“भैया, दो कुल्हड़,” मैंने कहा।
उसने चुपचाप बना दी।
मैंने सिम्मी को एक पकड़ाई।
उसने कुल्हड़ को हाथों में लिया, जैसे कोई याद छू रही हो।
“हम अब भी साथ चल सकते हैं?” मैंने पूछा।
“कहाँ?”
“जहाँ ये ट्रेन हमें ले जाए… या जहाँ हम दोबारा खुद को पा सकें।”
“इतने सालों बाद?”
“प्यार का कोई expiry date नहीं होता।”
सिम्मी मुस्कुराई।
“तुम अब भी वही बातें करते हो जो दिल छू जाए।”
“और तुम अब भी वही जवाब देती हो जो रास्ता बदल दे।”
स्टेशन की लाइटें जल गई थीं। ट्रेनें आ-जा रही थीं। लेकिन हमें कोई जल्दी नहीं थी। हम बैठ कर पुरानी शामों की चाय पी रहे थे, पुराने पलों की तरह।
“एक आख़िरी सवाल,” मैंने कहा।
“पूछो।”
“क्या अब भी मुझसे प्यार करती हो?”
उसने चाय का आख़िरी घूंट लिया और मेरी आँखों में देखा।
“क्या तुम अब भी वही नील हो?”
“हाँ।”
“तो जवाब भी वही है—हाँ, अब भी।”
स्टेशन की घड़ी ने सात बजाए। हम दोनों खामोशी से उठे।
एक ट्रेन सामने आकर रुकी।
मैंने उसका हाथ पकड़ा।
“चलो, इस बार छूटे नहीं।”
वो चुपचाप मुस्कुराई, और मेरे साथ चल दी।
***
रेलगाड़ी ने धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म छोड़ा। सिम्मी मेरे बगल में बैठी थी, खिड़की से बाहर देखते हुए। उसका चेहरा शांत था, जैसे सालों की उथल-पुथल के बाद किसी किनारे पर ठहराव मिला हो। मैं उसके सामने बैठा था, हाथों में टिकट की पर्ची, और दिल में हज़ार सवाल।
“तुम सच में चल पड़ी हो?” मैंने पूछा।
उसने मेरी ओर देखा, हल्की मुस्कान के साथ। “जो लोग बीस साल बाद स्टेशन लौटते हैं, वो रुकने नहीं, चलने आते हैं।”
मैंने खिड़की से बाहर देखा। शहर की रौशनी पीछे छूट रही थी, जैसे हम अतीत को पीछे छोड़कर आगे बढ़ रहे हों। ट्रेन की आवाज़, सीट की हल्की कंपन, और बीच-बीच में सिम्मी के कंधों से टकराती मेरी कोहनी — सब कुछ अजीब तरह से नया भी था, और जाना-पहचाना भी।
“तुम्हारे पति…”
“पूर्व पति,” उसने कहा, “काफी साल पहले अलग हो गए थे।”
“क्यों?”
“क्योंकि मैं वहाँ नहीं थी… जहाँ रहना चाहिए था। हर रिश्ते में जब मन कहीं और अटका हो, तो शरीर का रहना कोई मायने नहीं रखता।”
मैं चुप हो गया। वो अब भी सीधी-सपाट बातें करती थी। बिना घुमा-फिरा के, दिल से।
“और तुम?” उसने मेरी ओर देखा।
“मैंने भी बहुत बार कोशिश की। लेकिन हर बार किसी की आँखों में तुम्हारा अक्स देख लिया करता था।”
“फिर अकेले क्यों रहे?”
“शायद इसलिए कि अकेले रहने से तुम्हें भूलना आसान नहीं, पर याद करना आसान हो जाता है।”
सिम्मी मुस्कुराई, लेकिन उसकी आँखें थोड़ा गीली हो गईं। उसने खिड़की की ओर देखा, जैसे हवा से कुछ छुपा रही हो।
“तुम्हारी जिंदगी में कोई और नहीं आया?”
“एक बार… कोई थी। तीन महीने साथ रहे।”
“फिर?”
“मैंने उसके बालों में उँगलियाँ फिराईं, और महसूस किया कि उनमें वो खुशबू नहीं थी… जो तुम्हारे बालों में हुआ करती थी।”
वो हँस पड़ी, “तुम अब भी वही हो—संवेदनशील, मूर्ख, और मेरे जैसे।”
ट्रेन किसी छोटे स्टेशन पर रुकी। बाहर चाय वाला था। मैंने उतरकर दो कुल्हड़ लिए और लौट आया।
“अब भी वही चाय चाहिए ना?”
“तुम्हारे साथ हो तो कड़वाहट भी मीठी लगती है।”
हम चाय पीते रहे। खामोशी अब बोझ नहीं थी।
मैंने पूछा, “हम कहाँ जा रहे हैं?”
“जहाँ कोई हमें नहीं जानता,” उसने कहा।
“फिर?”
“फिर वहाँ से ज़िंदगी की नयी शुरुआत करेंगे। दो पुराने लोग, एक नई कहानी के साथ।”
मैंने उसका हाथ धीरे से थामा। वो कांपी नहीं। बस चाय का आख़िरी घूंट लिया और कुल्हड़ को खिड़की से बाहर फेंक दिया, जैसे बीते सालों का कोई बोझ।
“क्या हम फिर से वो हो सकते हैं… जो कभी थे?”
“हम कभी नहीं बदले, नील,” उसने कहा, “बस वक्त ने हमें छुपा दिया था।”
“क्या तुम मुझसे शादी करोगी?”
उसने हैरानी से देखा, “इतनी जल्दी?”
“बीस साल लगे सोचने में। अब वक्त कम है।”
सिम्मी कुछ देर चुप रही। फिर धीरे से बोली, “हाँ, करूँगी। पर शर्त है।”
“क्या?”
“हर रविवार स्टेशन चलेंगे… प्लेटफॉर्म नंबर तीन… और वही चाय पिएंगे।”
“मान गया,” मैंने हँसते हुए कहा।
ट्रेन फिर से चल पड़ी थी। अब हम किसी नए शहर की ओर थे। पुराने किरदारों के साथ नई पटकथा लिखने।
रात बढ़ रही थी, और नींद भी आने लगी थी। सिम्मी ने शॉल ठीक किया, और मेरे कंधे पर सिर रख दिया।
“तुम्हारे कंधे अब भी वैसे ही हैं… जैसे कॉलेज के दिनों में थे।”
“तुम्हारा सिर अब भी वहीं टिकता है… जहाँ उसे होना चाहिए।”
मैंने उसकी ओर देखा। आँखें बंद थीं, चेहरे पर शांति थी।
ट्रेन की लय और उसका स्पर्श मिलकर मुझे उस पुराने दिन की याद दिला रहे थे… जब पहली बार मैंने उसका हाथ पकड़ा था… और पहली बार जब वो छूट गया था।
अब वो फिर मेरे पास थी। और इस बार मैं उसे जाने नहीं दूँगा।
***
सुबह की हल्की रोशनी खिड़की से अंदर आ रही थी। ट्रेन अभी किसी छोटे से स्टेशन पर खड़ी थी—नाम पता नहीं, पर वो ठंडी हवा और चाय के उबाल की आवाज़ फिर से परिचित सी लग रही थी। सिम्मी अब भी मेरे कंधे पर सिर टिकाए सो रही थी। उसके बाल थोड़े बिखरे थे, होंठों पर नींद की मुस्कान थी। और मैं… मैं उसे देख रहा था जैसे पहली बार देख रहा हूँ। इतने बरसों बाद भी कुछ चेहरे वक्त को चकमा दे जाते हैं।
धीरे से हिला कर जगाया, “सिम्मी… स्टेशन आ गया। चाय पिएगी?”
उसने आँखें मिचमिचाईं, फिर हल्के से मुस्कराई, “अगर तुम लाओ तो चाय हमेशा हाँ।”
मैंने उतरकर चाय ली—दो कुल्हड़, भाप उड़ती, वही अदरक वाली। चायवाले ने पूछा, “साथ में हैं क्या?”
मैंने हँसते हुए कहा, “अब हैं।”
वो मुस्कुराया, “कभी-कभी लौट कर आना ही सही होता है।”
मैं चाय लेकर आया तो सिम्मी खिड़की से बाहर देख रही थी—बिल्कुल चुप, जैसे कुछ सोच रही हो।
मैंने चाय पकड़ा दी। उसने पिया, एक घूंट, फिर आँखे बंद कर लीं।
“कभी-कभी लगता है ये सब सपना है,” उसने कहा।
“अगर सपना है तो मैं नहीं जागना चाहता,” मैंने कहा।
ट्रेन फिर चल पड़ी। हम फिर उस अनजान मंज़िल की ओर थे।
“तुम्हें याद है, जब कॉलेज में तुमने मुझे पहली बार चाय पर बुलाया था?”
“हाँ,” वो हँसी, “तुम्हारा पहला डायलॉग था—‘मेरे साथ चाय पियोगी तो ज़िंदगी थोड़ी आसान हो जाएगी।’”
“और तुम्हारा जवाब था—‘तुम्हारे जैसे लड़कों की चाय में भी एक्स्ट्रा शक्कर होती है।’”
हम दोनों हँसने लगे, उस मासूमियत पर जो अब भी हमारे बीच ज़िंदा थी।
थोड़ी देर बाद, ट्रेन किसी बड़े जंक्शन पर रुकी। सिम्मी ने पूछा, “यहीं उतरते हैं?”
मैंने कहा, “इस शहर में कोई हमें नहीं जानता। नई शुरुआत के लिए पराया शहर ही ठीक है।”
हम दोनों उतरे। स्टेशन पर भीड़ थी—रिक्शे, कुली, announcements—पर हमारे बीच अब कोई शोर नहीं था।
एक होटल ढूंढा। छोटा सा, पर साफ़। कमरे की खिड़की से शहर का एक हिस्सा दिख रहा था—छतों पर पानी की टंकी, सूखते कपड़े, और दूर किसी घर से आती भजन की आवाज़।
कमरे में घुसते ही सिम्मी ने बैग रखा और खिड़की के पास जाकर खड़ी हो गई।
मैंने पीछे से पूछा, “थकी हो?”
“नहीं,” वो बोली, “बस सोच रही हूँ कि जो हम कर रहे हैं, वो सही है या नहीं।”
“क्या कभी कुछ बिल्कुल सही होता है?”
“शायद नहीं, पर जो दिल को सुकून दे, वो गलत भी नहीं लगता।”
मैंने पास जाकर उसका हाथ पकड़ा।
“ये शहर हमारा नहीं है, न कोई पहचान, न कोई रिश्ता। पर अगर हम दोनों साथ हैं, तो शायद ये शहर भी अपना हो जाए।”
वो मेरी ओर मुड़ी।
“तुम्हें मुझसे कोई शिकायत नहीं?”
“शिकायतें होती हैं जहाँ उम्मीदें होती हैं। मैंने तो उम्मीदें ही छोड़ दी थीं। अब जो भी मिलेगा, वो बोनस है।”
“तो मैं बोनस हूँ?”
“तुम मेरी बची हुई कहानी हो।”
शाम को हम दोनों बाहर निकले। गलियों में घूमे, समोसे खाए, किसी बुक स्टॉल से एक पुरानी कविता की किताब खरीदी—जिसमें किसी ने पहले से एक पेंसिल से नाम लिखा था—“सिम्मी।”
हम दोनों ठहर गए।
वो किताब हाथ में लेकर बोली, “ये तो कोई इत्तेफ़ाक़ है।”
“या कोई इशारा,” मैंने कहा।
होटल लौटते समय बारिश शुरू हो गई। हल्की फुहार, ठंडी हवा। हम बिना छाते के चल रहे थे।
“नील…”
“हाँ?”
“अगर हम फिर से टूटे?”
“तो फिर से जुड़ेंगे। अब डरने से बेहतर है जी लेना।”
उसने मेरा हाथ कसकर पकड़ा।
रात को कमरे में वो किताब हमने साथ पढ़ी। एक कविता थी—
“वो चाय का कप, जो अधूरा रह गया था,
अब फिर से भरा है, इंतज़ार के बाद…”
सिम्मी ने आँखें बंद कीं।
“कभी-कभी सोचती हूँ, काश हम पहले मिलते।”
“हम पहले मिले थे। बस समझ बाद में आई।”
“अब अगर कुछ बचे तो…”
“तो वो भी तुम्हारे नाम।”
उस रात नींद जल्दी नहीं आई। हम बातें करते रहे—बीते दिनों की, अधूरी चिट्ठियों की, उन ट्रेनों की जो छूट गई थीं। और अब उस ट्रेन की, जो हमें साथ लाई थी।
***
सुबह की चाय की खुशबू कमरे में फैल रही थी। सिम्मी बाल सुखा रही थी, और मैं खिड़की के पास बैठा था—अखबार हाथ में, पर ध्यान कहीं और।
“आज अखबार में कुछ अच्छा है?”
“तुम्हारे चेहरे से बेहतर कुछ भी नहीं छपा इसमें,” मैंने मुस्कराते हुए कहा।
वो हँसी नहीं, बस हल्का सा सिर झटक दिया, जैसे कॉलेज के दिनों में करती थी जब मैं हर बात में रोमांस खोजने की कोशिश करता।
चाय की दो प्यालियाँ बनाई गईं—कम शक्कर वाली उसकी, और ज्यादा शक्कर वाली मेरी। उसने एक डायरी टेबल पर रखी।
“ये क्या है?” मैंने पूछा।
“वो सब जो मैं तुम्हें कभी भेज नहीं पाई।”
मैंने चौंक कर उसकी ओर देखा।
“तुमने मुझे चिट्ठियाँ लिखी थीं?”
“कुल सत्ताईस,” उसने धीरे से कहा, “पर एक भी भेजने की हिम्मत नहीं हुई।”
मैंने डायरी खोली। पहले पन्ने पर तारीख थी—“6 अगस्त 2006।”
“नील, आज तुम्हें बहुत याद किया। माँ ने पूछा, तुम इतने चुप क्यों रहते हो। मैं क्या कहती? कि वो लड़का जो हर बात पर हँसाता था, अब एक पुरानी याद बन गया है?”
मैं पढ़ता गया। चिट्ठियों में सिम्मी थी—नरम, टूटी, गुस्से में, उम्मीद से भरी, और पूरी तरह मुझसे भरी।
“तुमने क्यों नहीं भेजा?”
“क्योंकि डरती थी… कि तुम आगे बढ़ चुके होगे। और मैं उन पन्नों में ही रह जाऊंगी।”
मैंने चुपचाप डायरी बंद की।
“अब जब तुम सामने हो, और मैं वही हूँ, तो क्या इन चिट्ठियों का जवाब दोगे?”
“हर चिट्ठी के लिए एक कप चाय… और हर चाय के साथ एक जवाब,” मैंने कहा।
उसने मेरी आँखों में देखा—इस बार बिना हिचकिचाहट, बिना शंका।
हम बाहर निकले। होटल से कुछ दूर एक पुराना पोस्ट ऑफिस दिखा।
“यहाँ चलें?”
“चिट्ठी पोस्ट करोगी?”
“नहीं,” उसने कहा, “खुद को माफ करने।”
हम अंदर गए। पुरानी लकड़ी की खिड़कियाँ, धूल भरे काउंटर, और एक कोने में बैठा पोस्टमास्टर, जो अखबार पढ़ रहा था।
हमने उसे पूछा, “यहाँ पुराने पत्रों को संभाल कर रखते हो?”
वो मुस्कराया, “कभी-कभी। किसी के लिए ज़िंदगी भर का मतलब होते हैं।”
हमने वहाँ बैठकर एक नई चिट्ठी लिखी।
“प्रिय नीलेश,
अब जब तुम मेरे सामने बैठे हो, तो शब्द कम पड़ जाते हैं। मैं बस ये चाहती हूँ कि तुम्हारा कंधा अब मेरा ठिकाना बन जाए…”
मैंने लिखा—
“प्रिय सिम्मी,
अगर दुनिया की सारी ट्रेनों में सिर्फ एक टिकट मिलता, तो मैं उसे उसी प्लेटफॉर्म तक ले जाना चाहूँगा, जहाँ तुम इंतज़ार करती हो…”
हम दोनों ने वो चिट्ठियाँ आपस में बदल लीं। फिर पोस्ट ऑफिस के पीछे की एक पुरानी अलमारी में चुपचाप रख दीं।
“कोई और पढ़ेगा?”
“तो क्या? शायद किसी को यकीन हो जाए कि प्यार लौट कर आता है।”
शाम को हम एक पार्क में गए। वहाँ एक पुराना बेंच था—जैसा उस स्टेशन पर था।
हम दोनों बैठ गए।
“अब आगे क्या?”
“तुम बताओ।”
“एक किराए का घर, एक छोटा सा काम, और हर शाम साथ चाय।”
“और सुबहें?”
“तुम्हारे साथ बिन पते की चिट्ठियाँ पढ़ते हुए।”
वो हँसी, इस बार दिल से।
“मैं डरती हूँ…”
“किससे?”
“कि सबकुछ फिर से टूट ना जाए।”
“टूटने से पहले जी लेने दो, सिम्मी।”
उसने मेरी हथेली पकड़ ली।
“क्या हम फिर से किसी को अपना कह सकते हैं?”
“हाँ,” मैंने कहा, “एक-दूसरे को।”
उस रात हमने डायरी का एक पन्ना और भरा।
“28 नवंबर 2025 — हम दोनों अब किसी शहर के नहीं, एक-दूसरे के हो गए हैं।”
***
हमने स्टेशन से दूर एक मोहल्ले में किराए का छोटा-सा घर ले लिया था। एक कमरा, किचन, और बालकनी जिसमें नीम का पेड़ झाँकता था। छत टीन की थी, बारिश में टपकने का डर था, पर खिड़की से दिखता आसमान साफ़ था—बस उतना ही काफी था।
पहले दिन हमने एक साथ बिस्तर नहीं खरीदा। पहले एक चाय की केतली खरीदी।
“ये ज़रूरी है?” सिम्मी ने पूछा।
“तुम्हें रोज़ चाय बनाते देखना, ये मेरी सबसे ज़रूरी चीज़ है,” मैंने जवाब दिया।
वो मुस्कुरा दी, “और अगर कभी ग़ुस्से में ना बनाऊँ तो?”
“तो मैं चाय के साथ ग़ुस्सा भी पी लूँगा।”
उसने चाय बनाई। सोंधी महक ने घर को घर बना दिया। हम फर्श पर बैठे, बिना चटाई, बिना मेज़, बस दो कुल्हड़ और दो दिल।
“ये चाय की प्याली हमें फिर से जोड़ रही है,” उसने कहा।
“या शायद कभी जो टूटे ही नहीं थे, उन्हें पहचान दिला रही है।”
घर में ज़्यादा सामान नहीं था। दीवारें सूनी थीं, पर हमने उनमें भी यादें टाँक दी थीं। एक दीवार पर वो डायरी टंगी थी, जिसमें अब हम रोज़ कुछ नया लिखते।
“आज मैं बहुत हँसी,” सिम्मी ने लिखा एक दिन।
“आज वो बहुत थकी दिखी, फिर भी मेरे लिए मुस्कान बनाई,” मैंने लिखा उसके ठीक नीचे।
शहर नया था। हम मोहल्ले के लोगों से धीरे-धीरे मिले। एक बुढ़ी आंटी थीं, जो रोज़ सुबह तुलसी को पानी देती थीं। उन्होंने पूछा, “नया-नया शादी हुआ?”
हम दोनों ने एक-दूसरे की ओर देखा, फिर सिम्मी ने कहा, “हाँ, पर बीस साल पुराना।”
आंटी हँसीं, “प्यार में तारीखें थोड़ी मायने रखती हैं!”
मैंने पास की लाइब्रेरी में आंशिक नौकरी पकड़ ली। किताबों के बीच रहना हमेशा से मुझे सुकून देता था। सिम्मी एक छोटे स्कूल में बच्चों को कहानियाँ सुनाने लगी। वो बच्चों को वही सुनाती जो कभी उसने डायरी में लिखा था।
“आज मैंने बच्चों को बताया कि प्यार सिर्फ शादी के कार्ड पर नहीं लिखा जाता, वो रोज़ की चाय में होता है,” उसने एक शाम मुझे बताया।
शामें हमारी खास होती थीं। बालकनी में बैठकर हम चाय पीते, एक-दूसरे की आँखों में चुपचाप उतरते।
“तुम्हारी आँखों में अब भी वही झील है,” मैं अक्सर कहता।
“और तुम्हारे होंठ अब भी उतने ही चाय के रंग में रंगे हुए,” वो जवाब देती।
एक शाम उसने मुझसे पूछा, “अगर फिर से कोई चौराहा आया… फिर से अलग होना पड़ा…?”
मैंने कहा, “तो इस बार मैं तुम्हारे साथ ग़लत रास्ता चुन लूँगा, पर अकेले सही रास्ता नहीं जाऊँगा।”
उसके होंठ काँपे, आँखें नम हुईं, फिर वो मेरी ओर झुक गई—हमारा पहला चुंबन, बीस साल देर से, पर पूरी तरह समय पर।
हमारी ज़िंदगी में कोई बड़ी घटनाएँ नहीं थीं। न कोई नाटक, न कोई डायलॉग—बस छोटी-छोटी बातें। सुबह उसका उलझे बालों में क्लिप लगाना। दोपहर को मुझे लाइब्रेरी में बुला कर लंच करवाना। शाम को साथ सब्ज़ी काटना। रात को उसकी हथेली में अपनी उँगलियाँ गुम कर देना।
हमने पुरानी तस्वीरें नहीं सजाईं। हमने नए पल कैमरे में नहीं कैद किए।
“जो देखा नहीं जा सकता, वही सबसे सच्चा होता है,” सिम्मी कहती थी।
“और जो छुआ नहीं जा सकता, वही सबसे क़रीबी होता है,” मैं जोड़ता।
एक बार बारिश बहुत तेज़ हुई। छत से पानी टपकने लगा। हम छत पर बाल्टी रखकर नीचे आ गए। बिजली चली गई थी।
मैंने कहा, “कैंडल कहाँ रखी है?”
उसने हँसते हुए कहा, “हम दोनों तो हैं ही, उजाला बहुत है।”
हमने फर्श पर बैठकर चाय पी। मोमबत्ती की लौ में उसकी आँखें चमक रही थीं।
“इस घर में सब कुछ अधूरा है, फिर भी कितना पूरा लगता है न?”
“क्योंकि इस बार हम दोनों अधूरे नहीं हैं,” मैंने कहा।
रात को डायरी में मैंने लिखा,
“आज उसकी उँगलियों ने मेरी पीठ पर दिल नहीं बनाया, पर जब मैंने उसकी ओर देखा, तो वो पहले से ही वहाँ था।”
***
एक दिन सुबह-सुबह सिम्मी ने खिड़की से झाँकते हुए कहा, “नील, क्या हम इस घर को सच में अपना कह सकते हैं?”
मैंने अखबार से नजर हटाकर उसकी तरफ देखा, “घर हमारा होता है या हम घर के?”
“मैं चाहती हूँ दरवाज़े पर एक नाम की प्लेट लगे,” उसने कहा, “जिस पर हमारा नाम साथ लिखा हो।”
मैं मुस्कुरा दिया।
“कह दो, ‘सिम्मी को नील से चाय के बहाने इश्क हो गया है, और अब वो इसका एड्रेस बनाना चाहती है।’”
“कुछ भी! नाम की प्लेट पर ये नहीं लिखा जा सकता,” उसने आँखें मटकाईं।
“तो क्या लिखा जाए?”
“बस… ‘सिम्मी & नील’।”
“शादी नहीं की है हमने,” मैंने धीरे से कहा।
“नाम की प्लेट शादी नहीं मांगती। बस दो दिलों की एक पहचान मांगती है।”
शाम को मैं बाज़ार गया। एक लकड़ी की प्लेट बनवाई—मुलायम किनारे, सिंपल फॉन्ट में उकेरा गया—‘सिम्मी & नील’।
प्लेट लेने के बाद मैं कुछ देर ठिठक गया। सोच रहा था, क्या ये सच में सही है? क्या दुनिया को अब हम दोनों के बारे में बताना ज़रूरी है?
फिर खुद से ही बोला, “दुनिया को बताने से ज़्यादा ज़रूरी है खुद को जताना।” और प्लेट को बैग में डाल कर घर आ गया।
घर के सामने खड़ा होकर आवाज़ लगाई, “सिम्मी!”
वो आई, हाथ में गीला तौलिया, माथे पर पसीना।
“इतनी देर लगा दी!”
“प्लेट बनवाना आसान नहीं होता,” मैंने मुस्कुरा कर जवाब दिया।
उसने प्लेट देखी, फिर कुछ नहीं बोली। बस अपने गीले हाथों से मेरी हथेली थाम ली।
“अब दरवाज़े पर ये टंग जाएगी,” उसने कहा।
“और हमारे नाम कभी मिटाए नहीं जाएँगे,” मैंने जोड़ा।
हमने मिलकर उसे दरवाज़े पर टांगा। एक पड़ोसी लड़की बालकनी से देखकर बोली, “आप लोग बहुत प्यारे लगते हैं साथ।”
सिम्मी मुस्कुराई, “प्यार दिखता है क्या?”
“हाँ दीदी,” लड़की ने कहा, “खिड़की से रोज़ दिखता है।”
हम दोनों हँस पड़े।
अगले दिन मैंने एक छोटी सी दरवाज़े की घंटी भी लगाई।
सिम्मी ने पूछा, “ये क्यों?”
“ताकि कोई आए तो पता चले… कि अब इस घर में कोई रहता है। पहले तो बस हम छुपे रहते थे, अब सामने होंगे।”
धीरे-धीरे पड़ोसी हमें जानने लगे। सबको यही लगा कि हम शादीशुदा जोड़ा हैं।
हमने किसी को नहीं टाला, पर झूठ भी नहीं बोला।
अगर कोई पूछता, “कितने साल हो गए साथ?”
सिम्मी कहती, “बीस साल लगे पहुँचने में… अब गिनती शुरू हुई है।”
उस दिन दोपहर में मैंने ऑफिस से लौटते वक्त सिम्मी के लिए एक साड़ी खरीदी। नीली साड़ी।
वो हैरान रह गई।
“किस खुशी में?”
“खुशी बाँटी नहीं जाती, पहना दी जाती है।”
उसने साड़ी पहन ली। बाल खोले, माथे पर छोटी सी बिंदी। मैं जैसे फिर पहली बार देख रहा था उसे।
“तुम अब भी वैसी ही लगती हो… जैसी तब थी।”
“और तुम अब भी वैसे ही झूठ बोलते हो,” उसने मुस्कुरा कर कहा।
हम दोनों चाय पीने बालकनी में गए।
सिम्मी ने पूछा, “क्या तुम कभी शादी का सोचते हो?”
मैं चुप रहा कुछ देर।
“सच कहूँ?”
“हमेशा,” उसने कहा।
“शादी से पहले जो जुड़ाव है… वो अगर शादी के बाद ना रहे, तो क्या फायदा?”
“पर अगर वही जुड़ाव शादी के बाद और गहरा हो जाए?”
“तब?”
“तब मैं तुम्हें रोज़ मांगलसूत्र पहनाऊँगा,” मैंने कहा।
वो थोड़ी देर खामोश रही, फिर धीरे से बोली, “चलो ना कहीं दूर… फिर से शादी करें… जैसे दो अनजान लोग पहली बार मिल रहे हों।”
मैंने कहा, “अच्छा, चलो। अगली ट्रेन से भाग चलते हैं।”
“फिर वही स्टेशन?”
“नहीं, इस बार नया स्टेशन… पर वही कुल्हड़ वाली चाय।”
रात को हमने फिर डायरी निकाली।
उसने लिखा:
“आज मैंने पहली बार खुद को पूरी तरह उसका महसूस किया… दरवाज़े की घंटी से लेकर नाम की प्लेट तक… हर चीज़ में मैं और वो शामिल हैं।”
मैंने लिखा:
“पहली बार महसूस हुआ कि प्यार का असली रूप शादी नहीं… साझेदारी है। और सिम्मी मेरे जीवन की सबसे प्यारी साझेदार है।”
***
दीवाली आने वाली थी। मोहल्ले में हलचल थी। बच्चे पटाखों की बात कर रहे थे, और हर घर के बाहर तोरण और बिजली की लड़ियाँ टंगी थीं। हमारे घर के दरवाज़े पर अब भी बस वही लकड़ी की प्लेट टंगी थी—‘सिम्मी & नील’। सादगी, मगर पूरी तरह अपना।
एक सुबह सिम्मी ने झाड़ू लगाते हुए कहा, “नील, इस बार दीवाली मनाएँगे?”
मैंने अखबार नीचे रख दिया, “अब तक क्या नहीं मना रहे थे?”
“नहीं… मनाना मतलब घर सजाना, दीप जलाना, मिठाई बनाना… और शायद कुछ यादें जोड़ना।”
“तो चलो, इस बार दीवाली पूरी तरह से हमारी होगी।”
हमने बाजार जाने का प्लान बनाया। हाथों में एक छोटी सी लिस्ट थी—दीये, रंगोली, मिठाई के डब्बे, और…
“तुम्हें क्या चाहिए?” मैंने पूछा।
उसने हँसते हुए कहा, “बस एक लाल रंग की चूड़ी। बाकी सब कुछ तो पास है।”
मैंने हाथ बढ़ाकर उसकी हथेली थामी, “इस दीवाली मैं तुम्हें हर वो चीज़ दूँगा, जो बीस साल पहले छूट गई थी।”
बाजार की भीड़ में हम दोनों खोए नहीं, बल्कि जैसे हर मोड़ पर एक-दूसरे को और पा रहे थे। एक जगह रंगोली के रंग खरीदते हुए एक महिला ने पूछा, “आप लोग नये शादीशुदा लगते हैं।”
सिम्मी ने मुस्कुरा कर कहा, “शादी पुरानी है, पर साथ नया है।”
हम घर लौटे तो मैं थक चुका था, लेकिन सिम्मी एकदम जोश में थी। उसने तुरत झाड़ू लगाई, बालकनी साफ की, दीये सजाए और दीवार पर एक छोटी सी कैंडल स्टैंड टाँग दी।
मैंने पूछा, “इतनी मेहनत?”
“जब कोई घर अपना लगे, तो सजाने में थकान नहीं होती।”
मैं किचन में गया और उसके लिए अदरक वाली चाय बनाई। ट्रे में दो कप रखकर लाया।
वो बोली, “अब तुम भी चाय अच्छे से बना लेते हो।”
“तुम्हारे साथ रहकर सीखा है, जैसे प्यार करना सीखा।”
शाम हुई, मोहल्ला रोशनी में नहाया हुआ था। हमारे घर की बालकनी में दीये जल रहे थे, और सिम्मी उस नीली साड़ी में थी, जो मैंने दी थी।
मैंने उसे देखा तो दिल ने धीरे से कहा—“अब समझ में आया, घर क्या होता है।”
हमने मिलकर पूजा की। दीपक जलाए, और मैंने उसके हाथ में वो लाल चूड़ी पहनाई।
“पहली बार किसी ने मुझे बिना मांग में सिंदूर डाले, पूरा महसूस कराया,” उसने धीमे से कहा।
मैंने उसकी हथेली चूमी, “मैंने हमेशा से तुम्हें पूरा ही देखा है… अधूरी तो बस हमारी कहानी थी।”
रात को हमने बालकनी में बैठकर मिठाई खाई। नीचे बच्चे पटाखे चला रहे थे, ऊपर आसमान रंगीन हो चला था।
“नील,” सिम्मी ने कहा, “अगर मैं तुम्हारे पहले आ जाती… तो क्या सब कुछ आसान होता?”
“शायद नहीं,” मैंने कहा, “तब शायद हम इतने गहरे नहीं होते। अब हम टूट कर जुड़े हैं… पहले बस छूते थे।”
“और अब?”
“अब तुम्हारा नाम मेरी साँसों में शामिल है।”
उसने मेरा कंधा पकड़ कर अपना सिर टिका दिया।
“अब डर नहीं लगता,” उसने कहा।
“किससे?”
“कि कोई हमें अलग करेगा। अब अगर कोई बीच में आएगा… तो वो बस हमारी चाय में बिस्किट डुबोने आएगा।”
हम दोनों हँस पड़े। वो हँसी दीवाली के शोर में भी सबसे प्यारी थी।
रात को जब सोने लगे, तो सिम्मी ने डायरी निकाली।
“आज मैं कुछ नहीं लिखूँगी,” उसने कहा।
“क्यों?”
“क्योंकि आज हर बात तुम्हारी आँखों में साफ़ दिख रही है।”
“तो क्या मैं लिखूँ?”
“हाँ, लिखो।”
मैंने डायरी में लिखा—
“आज मेरी पहली दीवाली है। बीस साल की भूख एक साथ मिट रही है—प्यार की, साथ की, और belonging की। सिम्मी अब सिर्फ नाम की प्लेट पर नहीं, मेरी रूह में लिखी है।”
रात गहरी हुई। खिड़की से रोशनी अब भी आ रही थी। पटाखों की गूंज धीरे-धीरे फीकी पड़ रही थी। मगर हमारे बीच की रोशनी स्थायी थी।
मैंने उसकी ओर देखा—नींद में भी उसके चेहरे पर वो संतोष था, जो किसी को तब मिलता है जब वो अपना घर, अपना इंसान, और अपना सच पा ले।
***
सर्दियाँ धीरे-धीरे दस्तक दे रही थीं। सुबह की चाय अब बग़ैर धूप के अधूरी लगने लगी थी। बालकनी में हवा तेज़ हो गई थी, और नीम का पेड़ अब ज़्यादा शांत दिखता था। सिम्मी ने एक नया कंबल खरीदा—सफेद रंग का, जिसमें नीले फूल थे।
“हमारे जैसे,” उसने कहा।
“सफेद मैं, नीला तुम?” मैंने पूछा।
“नहीं,” वो हँसी, “सफेद हमारे बीते दिन, और नीला हमारा आज।”
हमने एक पुराना रेडियो भी खरीदा, जो सुबह-सुबह पुराने गाने बजाता था। ‘कुछ तो लोग कहेंगे’ से लेकर ‘तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं’ तक।
एक दिन सिम्मी ने रेडियो बंद करके कहा, “कभी-कभी लगता है हमारी ज़िंदगी भी एक पुराने गीत जैसी है।”
“तो तुम मुखड़ा हो या अंतरा?”
“मैं वो लाइन हूँ जो दो बार आती है… ताकि दिल दुहराए,” उसने मुस्कराकर कहा।
हम दोनों अब छोटी-छोटी चीज़ों में बड़े सपने ढूँढने लगे थे। एक दिन दोपहर को उसने कहा, “नील, सोचो अगर हमारे बच्चे होते तो कैसे होते?”
मैंने कहा, “तुम्हारी तरह बातूनी और मेरी तरह लेटलतीफ।”
“नहीं,” वो बोली, “हमारे जैसे जिद्दी और बहुत प्यार करने वाले।”
मैंने उसकी हथेली पकड़ कर कहा, “हो सकता है ज़िंदगी ने हमें बच्चा नहीं दिया, पर एक-दूसरे को फिर से पा लिया, ये भी तो नया जन्म ही है।”
वो चुप हो गई, पर उसकी आँखें बहुत कुछ बोल गईं।
“काश…” उसने धीरे से कहा।
“काश क्या?”
“काश तुम तब थोड़ी देर और ठहर जाते।”
“अगर ठहर जाता, तो शायद इतनी शिद्दत से नहीं लौटता।”
उस रात बारिश हुई। तेज़ नहीं, पर रुक-रुक कर। बिजली गई तो सिम्मी किचन में गई और गैस पर दूध उबालने लगी।
“आज मैं तुम्हें मेरी माँ की स्टाइल में अदरक की चाय पिलाऊँगी,” उसने कहा।
“तुम्हारी माँ की चाय तो मैंने कभी पी ही नहीं।”
“पर मेरी बातों से सुनी तो है।”
मैं कुर्सी पर बैठ गया। वो चाय बना रही थी, बालों में हल्का पसीना, हाथ में चूड़ियों की खनक, और चेहरे पर एक अलग सुकून।
“तुम्हें देखकर लगता है जैसे हर आम दिन भी खास होता है,” मैंने कहा।
“क्योंकि हम अब खास बनने के पीछे नहीं भागते। जो हैं, उसे प्यार करना सीख लिया है।”
चाय आई। वही खुशबू, वही गर्माहट।
मैंने कहा, “आज ये चाय नहीं, तुम्हारी माँ का आशीर्वाद लगता है।”
वो चुप रही। फिर धीरे से बोली, “काश वो देख पातीं, कि मैंने तुम्हें फिर पा लिया।”
“और मेरे बाबा देख पाते, कि मैं अकेला नहीं रहा।”
हम दोनों कुछ देर तक बस चाय पीते रहे—जैसे कप में कुछ और भी हो, जो सिर्फ हम समझते थे।
अगले दिन मैंने एक सफेद डायरी खरीदी।
“अब ये दूसरी डायरी?” सिम्मी ने पूछा।
“हाँ, इसमें हम अपने सपने लिखेंगे।”
“सपने?”
“हाँ। तुम्हारे, मेरे, और हमारे।”
“तो तुम पहला पन्ना भरो,” उसने कहा।
मैंने लिखा—
“सपना 1: एक दिन ऐसा हो जब सुबह उठते ही तुम्हारे माथे पर अपनी अंगुलियों से सूरज बना दूँ।”
वो मुस्कुराई।
“अब मेरा नंबर?”
“हाँ।”
उसने लिखा—
“सपना 2: एक दिन तुम्हारे लिए एक छोटी सी चाय की दुकान खोलूँ, जहाँ हम दोनों चाय बनाएँ और कहानियाँ सुनाएँ।”
मैंने कहा, “तुम चाय बनाओगी, मैं ग्राहकों को अपनी डायरी पढ़ाकर चाय मुफ्त में बाँट दूँगा।”
“तभी तो दुकान नहीं, सपना है,” उसने छेड़ा।
शाम को हमने बालकनी में उस सफेद डायरी को अपने बीच रखा। हर दिन उसमें कुछ नया जुड़ता गया—कोई सपना, कोई पुरानी बात, कोई अधूरा गीत।
एक बार मोहल्ले में एक बच्चा आया—नन्हा सा, खोया हुआ। हम उसे घर ले आए, पूछा, “क्या खाओगे?”
उसने कहा, “चाय।”
हम चौंक गए।
सिम्मी ने उसके लिए हल्की दूधवाली चाय बनाई।
उसने कप पकड़ते ही कहा, “माँ जैसी है।”
हम दोनों एक-दूसरे की ओर देखने लगे।
उस दिन डायरी में मैंने लिखा—
“सपना 7: किसी बच्चे को वो प्यार देना, जो हमारे पास भरा पड़ा है।”
रात को सिम्मी ने मेरे पास लेटकर कहा, “तुम्हें पता है नील, अब डर नहीं लगता।”
“क्यों?”
“क्योंकि अब हमारी कहानी सिर्फ हमारी नहीं रही… ये उन सबकी हो गई है जो अधूरी कहानियों में उम्मीद ढूँढते हैं।”
***
उस दिन सुबह कुछ अलग थी। रेडियो पर जगजीत सिंह की ग़ज़ल चल रही थी — “कोई फरियाद तेरे दिल में दबी हो जैसे…”। चाय बन रही थी, और नीम के पत्ते बालकनी में टपक रहे थे। मैं अखबार में खोया था, और सिम्मी चुपचाप डायरी के पिछले पन्नों को पलट रही थी। तभी दरवाज़े की घंटी बजी।
“इतनी सुबह कौन हो सकता है?” उसने पूछा।
“शायद दूध वाला,” मैंने कहा।
दरवाज़ा खोला तो सामने जो खड़ा था, उससे सिम्मी का हाथ एक पल को कांप गया।
“अमित?” उसने कहा।
“हाय सिम्मी,” उसने मुस्कुराने की कोशिश की, “बस… पास के शहर में काम था, सोचा मिल लूँ।”
मैंने दरवाज़े के कोने से झाँका, “अंदर आइए।”
वो थोड़ा हिचकिचाया, फिर भीतर आया।
अमित — सिम्मी का पूर्व पति। कभी साथ में शादी की तस्वीरों में जो मुस्कराता था, आज वहीं आदमी हमारे चाय के घर में खड़ा था, कुछ उलझन के साथ। सिम्मी चुप थी। मैं चाय की ट्रे लेने अंदर गया।
चाय का कप रखते हुए मैंने कहा, “चीनी?”
“नहीं, अब बिना शक्कर पीता हूँ,” उसने कहा।
कुछ देर तक बस खामोशी रही। रेडियो अब भी चल रहा था — “इतना टूटा हूँ तेरे इश्क़ में…”
अमित ने सिम्मी की तरफ देखा, “तुम ठीक हो?”
उसने सिर हिलाया, “हाँ, अब ठीक हूँ।”
“और ये…?”
मैंने कहा, “नील।”
वो मुस्कुराया, “हाँ, नाम तो सुना है।”
सिम्मी ने टेबल पर हाथ रखकर कहा, “क्यों आए हो, अमित?”
“कुछ चीज़ें अनकही रह गई थीं… सोचा कह दूँ।”
“अब क्या फायदा?”
“कुछ सवाल थे… क्या मैं बुरा था?”
“नहीं,” सिम्मी ने सीधी नजरों से देखा, “बस सही नहीं था।”
“क्या अब तुम खुश हो?”
“इतना कि अब खुद से शिकायत नहीं होती।”
वो चुप हो गया। चाय की प्याली में भाप उठती रही।
मैंने पूछा, “कभी तुम्हें लगा कि तुमने उसे खोया?”
अमित ने मेरी ओर देखा, “शुरू में नहीं… पर जब रातें लंबी हो गईं, और घर खामोश… तब लगा।”
सिम्मी उठी, खिड़की के पास गई। बाहर बच्चे पतंग उड़ा रहे थे।
उसने कहा, “मैंने तुम्हें कभी दोष नहीं दिया, अमित। बस खुद को खो दिया था… और फिर नील ने मुझे ढूँढ़ा।”
अमित ने मेरी ओर देखा।
“तुम्हारा शुक्रगुज़ार हूँ… कम से कम किसी ने इसे वो दिया जो मैं नहीं दे पाया।”
मैंने सिर झुका लिया। बात जीतने या खोने की नहीं थी। ये उन दो इंसानों की कहानी थी, जो वक्त से जूझते हुए आज यहाँ तक पहुँचे थे।
कुछ देर बाद अमित उठ गया।
“मैं चलूँ?”
सिम्मी ने धीरे से कहा, “हाँ।”
वो दरवाज़े तक गया, फिर पलटा, “तुम्हारी चाय अब भी वही है… बस स्वाद अलग है।”
हम दोनों हल्के से मुस्कुराए।
वो चला गया।
दरवाज़ा बंद होते ही सिम्मी ने मेरी ओर देखा।
“कुछ टूटा क्या?”
“नहीं,” मैंने कहा, “बल्कि कुछ और जुड़ गया लगता है।”
उस शाम हमने चुपचाप चाय पी। कोई शब्द नहीं, बस मौन में कुछ नर्म सच बह रहे थे।
रात को डायरी निकाली।
सिम्मी ने लिखा—
“आज पुराने दरवाज़े से एक धूल भरी हवा आई… पर अब वो खिड़की बंद कर दी है।”
मैंने नीचे लिखा—
“हमारे बीच अब कोई अतीत नहीं, सिर्फ वो स्टेशन है जहाँ तुमने मुझे फिर से पाया।”
बिजली चली गई। मोमबत्ती की लौ में उसकी आँखें फिर से चमकने लगीं।
“नील,” उसने फुसफुसाया, “अगर कल फिर कोई आए… कोई और अतीत…”
“तो तुम मुझे पकड़े रहना… मैं तुम्हें नहीं छोड़ूँगा।”
हम दोनों ने एक-दूसरे की उँगलियाँ पकड़ लीं — जैसे दो यात्री जो अब किसी स्टेशन पर उतरना नहीं चाहते।
***
सर्दियाँ गहराने लगी थीं। अब चाय की प्याली सुबह की ज़रूरत नहीं, आदत बन चुकी थी। रेडियो की आवाज़ धीमी कर दी गई थी, क्योंकि अब हमें एक-दूसरे की चुप्पी भी समझ आने लगी थी। मोहल्ले के लोग हमें ‘वो प्यारा सा जोड़ा’ कहने लगे थे, और हम… अब भी खुद को रोज़ थोड़ा-थोड़ा समझ रहे थे।
उस दिन सिम्मी ने बालकनी में बैठते हुए पूछा, “नील, क्या तुम्हें कभी लगता है कि हम देर से मिले?”
मैंने उसकी तरफ देखा।
“हम अगर पहले मिलते, तो शायद हमारी परछाइयाँ इतनी साफ़ नहीं होतीं… अब जब हम मिले हैं, तो एक-दूसरे की रौशनी में रहना सीख चुके हैं।”
वो मुस्कुरा दी, “तुम्हारी बातें अब भी चाय से ज़्यादा गर्म होती हैं।”
“और तुम्हारा दिल अब भी कुल्हड़ से ज़्यादा सच्चा।”
उस शाम सिम्मी बाज़ार गई थी। मैं घर पर डायरी के पुराने पन्ने पलट रहा था। हर पन्ना किसी मोड़ जैसा लगता था—जहाँ हमने खुद को थोड़ा और जाना था। तभी दरवाज़े की घंटी बजी। सिम्मी लौटी थी, हाथ में एक पुराना थैला।
“ये क्या?”
उसने थैले से एक छोटा बोर्ड निकाला—लकड़ी का, जिस पर लिखा था: “Chai & Stories — By Niel & Simmi”
मैंने पूछा, “हमारा कैफे?”
वो हँसी, “हमारा सपना… जो अब थोड़ा हकीकत सा लगने लगा है।”
हमने तय किया, मोहल्ले के नुक्कड़ पर एक छोटा सा कैफे खोलेंगे। बस चार मेज़, आठ कुर्सियाँ, एक चाय की केतली और कुछ किताबें।
नाम वही — Chai & Stories।
उद्घाटन वाले दिन बारिश हो रही थी। हमने कैफे की छत से नीली तिरपाल बाँधी थी। दीवारों पर अपनी डायरी के चुनिंदा हिस्से फ्रेम करवा के टाँगे थे।
पहला ग्राहक एक बूढ़ा अंकल था, जो रोज़ पार्क में अख़बार पढ़ा करते थे। उन्होंने चाय का घूंट लेते हुए कहा, “ये चाय नहीं, कुछ और है… जैसे पुराने दिनों की दोस्ती।”
सिम्मी ने आँखें झुकाकर कहा, “शायद यही हमारा मकसद है।”
धीरे-धीरे कैफे चलने लगा। बच्चे आते, बुज़ुर्ग आते, प्रेमी जोड़े आते, और सबको चाय के साथ एक कहानी भी मिलती।
मैं काउंटर पर बैठा डायरी पढ़कर सुनाता, और सिम्मी हर कप में थोड़ा सा प्यार डालती।
एक दिन एक लड़की आई—बीस-बाईस की रही होगी। अकेली बैठी थी, और चुपचाप हमारी दीवारों को देख रही थी।
मैं उसके पास गया, “कौन सी कहानी पढ़ोगी?”
उसने कहा, “कोई ऐसी जिसमें कोई देर से मिले, लेकिन फिर कभी ना छूटे।”
मैंने हँसते हुए कहा, “तो फिर हमारी कहानी पढ़ो।”
वो देर तक बैठी रही। जाते समय एक नोट छोड़ गई—
“आप दोनों की चाय से दिल थोड़ा भारी और थोड़ा हल्का हो गया। शुक्रिया।”
उस रात सिम्मी ने पूछा, “नील, क्या अब हम सच में मुकम्मल हैं?”
मैंने उसकी ओर देखा।
“हम तब भी मुकम्मल थे, जब हमारे पास सिर्फ एक प्लेट और दो कप थे। अब बस हम दूसरों की कहानियों में भी थोड़ा अपना रंग भर पा रहे हैं।”
हमारे कैफे में अब एक दीवार पर एक नया कोना बन चुका था—‘खाली पन्ने’।
जहाँ हर ग्राहक एक लाइन लिखता था। कुछ लिखते—
“यहाँ आकर किसी की याद कम हो गई,”
कुछ लिखते—
“यहाँ चाय नहीं, जवाब मिलते हैं।”
हमने फिर से स्टेशन जाना शुरू किया। हर महीने की आख़िरी रविवार को।
वही प्लेटफॉर्म नंबर तीन।
वही कुल्हड़।
वही बेंच।
एक दिन सिम्मी ने वहाँ बैठते हुए कहा, “नील, अब ये बेंच नई सी लगती है।”
मैंने मुस्कुरा कर कहा, “क्योंकि अब हमारे पास थामने के लिए हाथ है… छोड़ने की कोई वजह नहीं।”
हमने कुल्हड़ उठाया। चाय थोड़ी ठंडी हो चुकी थी।
पर हम दोनों के दिल अब पहले से ज़्यादा गरम थे—यादों, भरोसे और belonging से भरे हुए।
सिम्मी ने कुल्हड़ ज़मीन पर रखा, और धीमे से कहा,
“नील…”
“हाँ…”
“अगर अगली ज़िंदगी हो, तो क्या फिर से यहीं मिलना चाहोगे?”
“नहीं,”
वो चौंकी,
“इस बार मैं चाहता हूँ हम जन्म से साथ रहें… कहीं और जाने की ज़रूरत ही न पड़े।”
उसने मेरी आँखों में देखा। वहाँ कोई आँसू नहीं था, पर हर बात पानी की तरह बह रही थी।
हम दोनों ने मिलकर अपनी आख़िरी चाय उस बेंच पर पी।
ना कोई वादा, ना कोई डर।
बस दो इंसान—जो अब हर मौसम, हर कुल्हड़, हर कहानी में एक-दूसरे के साथ थे।
और यही थी हमारी कहानी की आख़िरी चाय।
****