प्रियांशु त्रिवेदी
भाग 1 : पहली मुलाक़ात
वाराणसी की संकरी गलियाँ हमेशा से एक रहस्य समेटे रहती हैं—कभी पान की लाली से सजी हंसी, तो कभी मंदिर की घंटियों में घुली प्रार्थना। सूरज जैसे ही गंगा के ऊपर लालिमा फैलाता, घाट की सीढ़ियाँ जीवन से भर जातीं। ठीक ऐसे ही एक सुबह, दशाश्वमेध घाट पर गंगा आरती की तैयारी हो रही थी। भीड़ जमा हो चुकी थी, पुजारियों के मंत्रोच्चार वातावरण में घुल रहे थे, और हवा में अगरबत्ती का धुआँ लहराते हुए अतीत और वर्तमान को जोड़ रहा था।
इसी भीड़ में थी आर्या—सफेद सूती सलवार में, हाथ में संगीत की डायरी पकड़े। उसके चेहरे पर एक साधारण-सी मासूमियत थी, पर आँखों में गहराई वैसी ही जैसे गंगा की धारा—अनंत और अटूट। वह यहाँ रोज़ आती थी, आरती के बीच बैठकर सुर साधने के लिए। संगीत उसके लिए केवल कला नहीं, बल्कि उसकी आत्मा का विस्तार था।
दूसरी ओर अयान था—दिल्ली से आया एक युवा फोटोग्राफर, जिसकी कैमरे की नज़र हमेशा उन पलों को पकड़ लेती थी जिन्हें बाकी लोग नज़रअंदाज़ कर देते। वह शहरों की भागदौड़ से थक चुका था और जीवन के असली रंग खोजने वाराणसी आया था। उस सुबह जब वह अपने कैमरे से घाट की सीढ़ियाँ, दीपों की लौ और गंगा के बहते जल को कैद कर रहा था, तभी उसकी नज़र आर्या पर ठहर गई।
वह लड़की बाकी सब से अलग थी। भीड़ में भी उसका शांत बैठना, आंखें बंद कर सुर गुनगुनाना, और हवा में खोई-सी उसकी सूरत—अयान को लगा जैसे कैमरा अपने आप उसी पर फोकस हो गया हो। उसने कई तस्वीरें लीं, पर कैमरे की स्क्रीन पर बार-बार वही चेहरा लौटकर आता रहा।
आरती के बाद जब लोग लौटने लगे, आर्या अपनी डायरी लेकर उठी। अचानक उसके हाथ से डायरी फिसलकर सीढ़ियों से नीचे गिरी और सीधा अयान के पैरों के पास आ गई। अयान ने झुककर डायरी उठाई और हल्की-सी मुस्कान के साथ उसकी ओर बढ़ाया।
“शायद आपकी है…” उसने धीरे से कहा।
आर्या ने चौंककर देखा। पहली बार उसकी आँखें उस अजनबी से मिलीं—गहरी, स्थिर, पर अजीब-सी गर्माहट से भरी हुई। उसने डायरी लेते हुए सिर झुकाया—“धन्यवाद।”
अयान ने डायरी के पन्नों पर उभरे राग-रागिनियों के नाम देख लिए थे।
“आप संगीत सीखती हैं?” उसने सहज जिज्ञासा में पूछा।
आर्या ने संकोच से मुस्कुराया—“हाँ… शास्त्रीय। बचपन से यही सीखा है। ये शहर संगीत की आत्मा है।”
अयान ने उसकी ओर देखते हुए कहा—“और ये शहर तस्वीरों की भी आत्मा है। शायद इसीलिए मैं यहाँ आया हूँ।”
क्षणभर को दोनों के बीच एक अनकहा पुल बन गया—सुर और तस्वीरों का, कला और आत्मा का। गंगा की धारा जैसे इस पहली मुलाक़ात की साक्षी बनकर बह रही थी।
भाग 2 : सुर और तस्वीरों का रिश्ता
गंगा किनारे की हवा उस दिन कुछ और ही थी। भीड़ धीरे-धीरे छँट चुकी थी, पर घाट की सीढ़ियों पर बिखरे फूल, तैरते दीये और जल में झिलमिलाती परछाइयाँ अब भी एक जादू रच रही थीं। आर्या ने अपनी डायरी कसकर सीने से लगा रखी थी, मानो कोई उसे छीन न ले। सामने खड़े अयान की आँखों में अभी भी वही चमक थी—जैसे उसने किसी अनोखी दुनिया का दरवाज़ा खोल लिया हो।
“तस्वीरें खींचते हैं आप?” आर्या ने संकोच से पूछ लिया।
अयान ने कैमरा हवा में हल्के से घुमाया—“हाँ। ये मेरा साथी है। जहाँ मैं जाता हूँ, ये मेरे साथ चलता है। लेकिन सच कहूँ तो… जो तस्वीरें मैं यहाँ ले रहा हूँ, वो किसी और शहर ने मुझे कभी नहीं दीं। वाराणसी हर चेहरे में, हर छाया में, हर गली में कहानी छुपाकर बैठा है।”
आर्या ने मुस्कुराकर कहा—“और हर कहानी में संगीत की गूँज भी है। कभी सुना है आपने सुबह के बेला में गाया जाने वाला भैरव?”
अयान ने सिर हिलाया—“सिर्फ नाम सुना है, पर कभी असली सुरों में नहीं। क्या आप गाती हैं?”
आर्या की आँखें थोड़ी चमक उठीं। उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई। घाट पर अब बस कुछ साधु, कुछ पर्यटक और चाय बेचने वाला छोकरा रह गया था। हवा में हल्की ठंडक थी। उसने डायरी खोली और धीमे स्वर में भैरव का आलाप छेड़ दिया। आवाज़ उतनी ऊँची नहीं थी, पर इतनी सच्ची थी कि गंगा के जल ने भी उसे सुनने के लिए अपनी लहरों की रफ़्तार धीमी कर दी हो।
अयान ने सांस रोक ली। उसकी उँगलियाँ कैमरे पर जमीं थीं, पर उसने कोई तस्वीर नहीं ली। उसे लगा तस्वीरें उस आवाज़ का अपमान कर देंगी। जो सामने हो रहा था, वो किसी फ्रेम में कैद करने लायक नहीं था। वो तो सीधे दिल में उतरने के लिए था।
गाना पूरा होते ही आर्या चुप हो गई। उसने आँखें खोलकर अयान की ओर देखा।
“ये राग सुबह का है। पर गंगा के किनारे कभी भी गाया जाए, सुबह-सी ताज़गी दे जाता है।”
अयान ने धीमे स्वर में कहा—“आपको सुनकर लगा, जैसे मैं पहली बार वाराणसी को समझ पाया हूँ। तस्वीरें आँखों से देखी जाती हैं, पर शायद असली शहर कानों से सुना जाता है।”
आर्या ने कुछ जवाब नहीं दिया। वह केवल मुस्कराई और सीढ़ियाँ उतरकर पानी के करीब चली गई। झुककर उसने दोनों हथेलियों में गंगा का जल भरा और माथे से लगाया। अयान ने उसकी उस मुद्रा को देखा—एक श्रद्धा, एक आत्मीयता। उसने कैमरा उठाया, पर इस बार भी तस्वीर नहीं ली। कुछ दृश्य आँखों में रह जाने के लिए होते हैं, दूसरों को दिखाने के लिए नहीं।
“क्या आप यहीं रहती हैं?” अयान ने पास आकर पूछा।
“हाँ, अस्सी घाट के पास। वहीं मेरा घर है। बाबा संगीत के अध्यापक हैं। उन्होंने ही बचपन से सुरों से दोस्ती करवाई।”
“और आपकी पढ़ाई?”
“संगीत ही मेरी पढ़ाई, संगीत ही मेरा भविष्य। बाकी सब बस रास्ते हैं।”
अयान को उसकी बातों में सादगी के साथ-साथ एक दृढ़ता भी महसूस हुई। उसने मन ही मन सोचा—दिल्ली की चकाचौंध में लोग सपनों को दौलत और करियर के हिसाब से तौलते हैं, लेकिन यहाँ एक लड़की है जो सुरों को ही अपनी दुनिया मान बैठी है।
आर्या ने भी धीरे-धीरे उस अजनबी की आँखों में भरोसे की झलक देखनी शुरू कर दी। वह सोच भी नहीं सकती थी कि किसी अजनबी से पहली ही मुलाक़ात में इतनी सहज बातचीत होगी। लेकिन अयान का स्वभाव कुछ ऐसा था कि शब्द अपने आप बहने लगते थे।
“कल भी आएँगे आप?” आर्या ने अचानक पूछ लिया, और पूछने के बाद खुद ही चुप हो गई।
अयान ने बिना देर किए कहा—“अगर आप गाएँगी, तो क्यों नहीं।”
उस एक वाक्य ने आर्या के भीतर कोई अनजाना कंपन जगाया। घाट की सीढ़ियों पर उतरती शाम अब गहरी हो चली थी। दूर मंदिर से शंख की आवाज़ आई, और दोनों अपने-अपने रास्ते चल पड़े—पर उनके बीच कुछ ऐसा बुन गया था, जिसे दोनों ही पूरी तरह समझ नहीं पाए।
भाग 3 : गंगा किनारे की सुबहें
अगली सुबह जब सूरज की पहली किरण गंगा के पानी पर पड़ी, आर्या पहले ही दशाश्वमेध घाट की सीढ़ियों पर बैठी थी। उसकी डायरी उसकी गोद में थी और आँखें बंद थीं। वह मन ही मन राग यमन का आलाप गुनगुना रही थी। उसके स्वर में वह ताजगी थी जो केवल भोर में गंगा किनारे महसूस की जा सकती है।
कुछ ही देर बाद वही परिचित कदमों की आहट आई। अयान कैमरा लटकाए धीरे-धीरे घाट की ओर उतरा। उसकी आँखें सीधे आर्या पर टिक गईं। उसने सोचा, मानो यह शहर अब उसे दो हिस्सों में दिखने लगा है—एक हिस्सा गलियों और घाटों में, दूसरा सिर्फ आर्या की आँखों में।
“आज फिर जल्दी आ गईं,” अयान ने मुस्कुराते हुए कहा।
आर्या ने हल्की नज़रें उठाईं—“गाना भोर का है, इसलिए सूरज निकलने से पहले गाना होता है। आप भी जल्दी उठ गए?”
“कह सकता हूँ कि अब वाराणसी की सुबहों में कुछ नया मिलने लगा है,” अयान ने बिना झिझक कहा। उसकी बात सुनकर आर्या ने एक पल को नज़रें झुका लीं।
दोनों घाट की सीढ़ियों पर बैठ गए। पास में ही एक वृद्ध पंडा पूजा कराने वाले श्रद्धालुओं को मंत्र समझा रहा था। दूर से नाव की घंटी सुनाई दी। हवा में चाय और जलते धूप की गंध तैर रही थी।
अयान ने कैमरा निकाला और बोला—“आज मैं तस्वीर लूँगा। पर इस बार आपकी इजाज़त चाहिए।”
आर्या ने हँसते हुए कहा—“गाते हुए तस्वीर मत लेना, अजीब लगता है।”
“तो बस चुपचाप बैठे हुए?”
“हाँ, वो चलेगा।”
और फिर जब आर्या गंगा की ओर देखती हुई बैठ गई, अयान ने क्लिक किया। उस तस्वीर में केवल एक लड़की नहीं थी—उसमें पूरे घाट की आत्मा बसी थी। हवा में उड़ते उसके बाल, धूप की सुनहरी लकीर उसके चेहरे पर, और हाथों में कसकर पकड़ी डायरी—सबने मिलकर एक अनकहा गीत गढ़ दिया।
“क्या आप जानती हैं?” अयान ने धीरे से कहा, “आपके गाने में एक किस्म की खामोशी है, और आपकी खामोशी में भी एक किस्म का संगीत। ये बहुत कम लोगों में होता है।”
आर्या उसकी बात सुनकर चुप रही। उसके भीतर कुछ हलचल हुई, पर उसने उसे शब्द नहीं दिए।
उस दिन के बाद यह मुलाक़ात रोज़ होने लगी। कभी घाट पर, कभी गलियों में। आर्या अयान को अपने पसंदीदा कोनों में ले जाती—कभी ठठेरी बाज़ार की चाय की दुकान, कभी तुलसी घाट का शांत कोना, कभी संगीत संस्थान की खिड़की से दिखती गंगा। अयान हर जगह तस्वीरें लेता, पर हर तस्वीर में किसी न किसी रूप में आर्या मौजूद होती।
धीरे-धीरे आर्या का गाना और अयान का कैमरा एक-दूसरे के साथी बन गए। कभी अयान उसे कहता—“आज ये गली सुनाओ अपने सुरों से।” कभी आर्या हँसकर कहती—“आज ये गंगा दिखाओ अपनी तस्वीरों से।”
लेकिन इन हँसी-मजाक के बीच एक अनकही परत भी थी। दोनों जानते थे कि यह सिर्फ दोस्ती नहीं रही। यह कुछ और था—गंगा की लहरों की तरह धीमा, गहरा और अविरल।
एक शाम अस्सी घाट पर बैठते हुए अयान ने पूछा—“क्या आपने कभी सोचा है कि ये शहर छोड़कर बाहर जाएँगी?”
आर्या ने चौंककर उसकी ओर देखा—“नहीं। वाराणसी ही मेरा सबकुछ है। यही मेरा घर, यही मेरी पढ़ाई, यही मेरा संगीत। और आप? क्या आप हमेशा यहाँ रह पाएँगे?”
अयान ने गहरी साँस ली—“नहीं जानता। शायद काम मुझे वापस खींच ले जाएगा। लेकिन…” वह रुका, “…कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें पीछे छोड़ना मुश्किल होता है।”
आर्या उस वाक्य का अर्थ समझ गई। पर दोनों ही खामोश हो गए। गंगा की लहरें उनकी चुप्पी में बोलने लगीं।
भाग 4 : परंपरा की परछाइयाँ
वाराणसी की गलियाँ दिन-ब-दिन उनके लिए और भी निजी हो चुकी थीं। आर्या और अयान की मुलाक़ात अब सिर्फ घाट या गलियों तक सीमित नहीं रही थी, बल्कि उनके बीच एक मौन समझदारी भी बनने लगी थी। कभी आर्या उसे अपने रियाज़ की झलक दिखाती, तो कभी अयान उसे कैमरे से बने कोलाज दिखाता—दोनों मानो एक-दूसरे की दुनिया को धीरे-धीरे अपना रहे थे।
लेकिन शहर केवल प्रेम का ही नहीं, परंपरा का भी था। हर गली, हर मोहल्ला, हर घर अपनी विरासत और अपनी बंदिशों में लिपटा हुआ था। यही परंपराएँ एक दिन उनके बीच दीवार बनकर खड़ी होने वाली थीं।
उस दिन अस्सी घाट पर दीपों का उत्सव था। पूरा घाट रोशनी से जगमगा रहा था। सैकड़ों दीये पानी में बह रहे थे और हवा में मंत्रोच्चार गूंज रहे थे। अयान अपने कैमरे में उस दृश्य को कैद कर रहा था, जबकि आर्या दीयों में हाथ जोड़कर खड़ी थी। तभी किसी ने पीछे से उसकी कलाई पकड़ ली।
“आर्या! ये सब क्या है?”
आवाज़ कड़क और सख़्त थी। यह उसका बड़ा भाई आदित्य था, जो हमेशा से घर की मर्यादाओं का पहरेदार बना रहा था। वह आर्या को इस तरह एक अजनबी लड़के के साथ देखकर गुस्से से भर उठा।
आर्या सकपका गई। “भैया… ये अयान हैं। फ़ोटोग्राफ़र हैं। शहर की तस्वीरें लेने आए हैं।”
“और तुम उनके साथ घूम-घूमकर तस्वीरें खिंचवा रही हो? क्या यही सिखाया है पिता जी ने?” आदित्य की आवाज़ में तिरस्कार था।
अयान ने तुरंत आगे बढ़कर शांति से कहा—“मैं सिर्फ तस्वीरें खींचता हूँ, और आर्या मेरे लिए इस शहर की आत्मा जैसी हैं। इसमें गलत क्या है?”
आदित्य ने घूरकर देखा—“गलत ये है कि हमारी बहन किसी अजनबी के साथ बेवजह समय बर्बाद कर रही है। हमारे घर में कला का मतलब केवल साधना है, न कि किसी पराई निगाहों का शौक।”
आर्या के होंठ काँप गए। उसने कुछ कहने की कोशिश की, लेकिन शब्द गले में अटक गए। अयान उसकी आँखों में बेबसी पढ़ सकता था।
“भैया, मैंने कुछ गलत नहीं किया,” उसने धीमे स्वर में कहा। “सिर्फ संगीत और तस्वीरों की बातें होती हैं हमारे बीच।”
“परिवार की इज़्ज़त सब से ऊपर होती है, आर्या। अगर पिता जी को पता चला तो उन्हें धक्का लगेगा। तुम घर चलो।”
आदित्य ने उसकी कलाई पकड़कर खींचना चाहा। अयान ने रोकने की कोशिश नहीं की, पर उसकी आँखों में एक गहरी पीड़ा थी। वह जानता था कि अभी विरोध करना आग में घी डालने जैसा होगा।
आर्या जाते-जाते बस एक बार मुड़ी और अयान की ओर देखा। उसकी आँखें कह रही थीं—मुझे रोकना मत, पर मेरा विश्वास मत खोना।
उस रात आर्या अपने कमरे में अकेली बैठी रही। उसकी डायरी खुली थी, लेकिन सुर गले से नहीं निकल रहे थे। उसका मन बार-बार घाट की उन रोशनियों में अयान का चेहरा खोज रहा था।
दूसरी ओर अयान होटल के कमरे में बेचैन घूम रहा था। उसने कैमरा उठाया और तस्वीरें देखीं। हर तस्वीर में रोशनी थी, लेकिन उसके दिल में अंधेरा। उसने पहली बार महसूस किया कि यह शहर जितना खूबसूरत है, उतना ही जटिल भी है—जहाँ हर दीये की लौ के पीछे परंपरा की परछाईं खड़ी रहती है।
भाग 5 : पहली दरार
अगले कुछ दिन आर्या घर से कम ही बाहर निकली। आदित्य की निगरानी बढ़ गई थी। वह जानता था कि आर्या का मन कहीं और है, और वही “कहीं” उसे सबसे ज़्यादा खटक रहा था। पिता जी को उसने कुछ नहीं बताया, पर घर का माहौल इतना भारी हो गया था कि आर्या के स्वर भी मंद पड़ने लगे।
उसकी सुबहें अब गंगा के घाट पर नहीं, घर की चारदीवारी में बीतने लगीं। वह खिड़की से बाहर झाँककर सिर्फ नदी की परछाईं देख पाती। उसका दिल बार-बार कहता कि अयान से मिलना ज़रूरी है, वरना यह चुप्पी उसके सुरों को मार देगी।
दूसरी ओर अयान भी बेचैन था। उसकी तस्वीरों में अब पहले जैसी रोशनी नहीं थी। कैमरे का हर क्लिक उसे अधूरा लगता। वह बार-बार दशाश्वमेध घाट पर जाता, उम्मीद करता कि आर्या आएगी। लेकिन खाली सीढ़ियाँ और बहते पानी की आवाज़ ही उसका जवाब बनते।
एक शाम वह अस्सी घाट की ओर चला गया। वहाँ के नुक्कड़ पर चाय बेचने वाला छोकरा उसे पहचान गया था।
“भइया, आर्या दीदी तो कई दिन से आई ही नहीं। घर वाले शायद सख़्त हो गए हैं।”
अयान चुप रहा, लेकिन उसके भीतर कोई दीवार दरकने लगी। उसने तय किया कि वह अब और इंतज़ार नहीं करेगा।
अगले दिन सुबह वह सीधे संगीत संस्थान पहुँच गया, जहाँ आर्या की कक्षाएँ होती थीं। संयोग से वही समय था जब आर्या रियाज़ के लिए वहाँ आई थी। उसे देखकर आर्या के चेहरे पर डर और राहत एक साथ उभरे।
“आप यहाँ क्यों आए?” उसने धीरे से कहा।
“क्योंकि तुम्हारे बिना यह शहर अधूरा हो गया है। तुमसे मिले बिना तस्वीरें सूनी हैं, आर्या। मैं जानता हूँ तुम्हारे घर पर दबाव है, लेकिन क्या हम अपनी मुलाक़ातों को बस यूँ ही छोड़ देंगे?”
आर्या की आँखें भर आईं। “अयान, तुम नहीं समझते। मेरे लिए संगीत सब कुछ है। और बाबा की उम्मीदें… मैं उनका दिल नहीं तोड़ सकती। अगर उन्हें पता चला कि मैं किसी अजनबी से मिल रही हूँ, तो शायद मेरा संगीत ही छिन जाए।”
अयान ने उसके करीब आकर कहा—“मैं अजनबी नहीं हूँ, आर्या। शायद तुम्हारा संगीत और मेरी तस्वीरें एक ही चीज़ खोज रहे हैं—सच। और सच कभी छिपाकर नहीं जिया जा सकता।”
आर्या चुप हो गई। उसकी उंगलियाँ डायरी पर कस गईं। कुछ पल बाद उसने धीरे से कहा—“शायद हमें अब थोड़ा संभलकर रहना होगा। मैं तुम्हें घाट पर नहीं मिल सकती। लेकिन…” वह रुकी, “…गंगा किनारे कोई न कोई रास्ता ढूँढ ही लेती हूँ।”
उसका स्वर धीमा था, पर उसमें उम्मीद की हल्की लौ थी।
उसी रात आर्या की खिड़की से गंगा की ओर जाती हवा में उसे अयान का चेहरा दिखाई दिया। वहीं अयान होटल की बालकनी से नदी को निहार रहा था और सोच रहा था कि इस शहर की परंपराएँ कितनी गहरी हों, फिर भी गंगा की धारा किसी भी बाँध को तोड़ सकती है।
लेकिन दोनों यह भी जानते थे कि यह रास्ता आसान नहीं है। यह प्रेम सिर्फ मुलाक़ातों का खेल नहीं, बल्कि दो दुनिया के बीच की लड़ाई बनने वाला है।
भाग 6 : लहरों के खिलाफ़
दिन बीतते गए। आर्या और अयान की मुलाक़ातें अब छुपकर होने लगीं—कभी किसी तंग गली में, कभी किसी शांत घाट पर जहाँ पर्यटक कम आते थे। हर मुलाक़ात में डर भी था और चाहत भी। आर्या की आँखों में गंगा की लहरों जैसी बेचैनी थी—लगातार बहती, पर बंधन में जकड़ी हुई।
एक शाम अयान उसे मणिकर्णिका घाट के पास ले आया। वहाँ की आगें निरंतर जलती रहती थीं, जैसे जीवन और मृत्यु का अनंत चक्र। लपटों को देखते हुए अयान ने कहा—“देखो आर्या, यहाँ हर चीज़ नश्वर है। जीवन, परंपरा, डर—सब कुछ एक दिन राख हो जाता है। तो हम क्यों अपने दिल की बातों को दबाएँ?”
आर्या ने गहरी साँस ली। “तुम्हारी बातें आसान लगती हैं, अयान। पर मेरे लिए घर ही मेरा संसार है। बाबा… अगर उन्हें कुछ पता चला तो मेरा संगीत ही छिन जाएगा। और मैं बिना संगीत के जी ही नहीं सकती।”
“और मैं तुम्हारे बिना।” अयान के शब्द सीधे आर्या के दिल में उतर गए।
दोनों चुप हो गए। घाट पर जलती चिताओं से उठता धुआँ आसमान में मिल रहा था। उस धुएँ में जैसे उनके रिश्ते का प्रश्न भी तैर रहा था—क्या यह प्रेम परंपरा की राख में बदल जाएगा या किसी नए जीवन की तरह फिर जन्म लेगा?
कुछ दिनों बाद आदित्य ने आर्या को फिर टोक दिया। “तुम बदल गई हो। तुम्हारे सुर में अब पहले जैसी निष्ठा नहीं। कहीं यह उसी अजनबी की वजह से तो नहीं?”
आर्या ने कुछ नहीं कहा, पर उसकी चुप्पी ही जवाब थी। आदित्य ने ठान लिया कि इस रिश्ते को यहीं ख़त्म करना होगा।
दूसरी ओर अयान ने भी निर्णय ले लिया। उसने कहा—“आर्या, अब और छुपना नहीं चाहिए। तुम्हें अपने परिवार से बात करनी होगी। चाहे जैसा भी हो, हमें सच कहना होगा।”
आर्या हिल गई। “तुम नहीं जानते, यह कितना कठिन है।”
“कठिन तो है। लेकिन अगर हम गंगा के किनारे खड़े होकर भी सच्चाई से डर गए, तो फिर इस शहर की आत्मा से धोखा करेंगे। तुम गाओगी तो तुम्हारे राग में सच्चाई की ताक़त होगी, और मैं तस्वीरें लूँगा तो उनमें ईमानदारी की रोशनी। हम छुपकर क्यों जिएँ?”
उस रात आर्या ने अपने कमरे में बैठकर डायरी खोली। उसमें उसने पहली बार शब्दों में लिखा—
“संगीत मेरा धर्म है, पर अयान मेरा सत्य। क्या धर्म और सत्य एक साथ जी सकते हैं?”
गंगा किनारे बहती हवा ने उस डायरी के पन्नों को हिलाया। आर्या ने तय किया कि अगली सुबह बाबा से बात करेगी। यह निर्णय आसान नहीं था, पर शायद यही उनके प्रेम की पहली असली परीक्षा थी।
भाग 7 : पिता से सामना
सुबह का सूरज खिड़की से भीतर उतर आया था। आर्या ने देर तक रियाज़ नहीं किया। उसकी उंगलियाँ तानपुरे पर थीं, पर सुर टूट-टूटकर बाहर आ रहे थे। वह जानती थी आज का दिन उसके जीवन का सबसे कठिन दिन होगा।
बाबा आँगन में तुलसी को जल चढ़ा रहे थे। उनकी सफेद दाढ़ी पर धूप की सुनहरी परछाईं पड़ रही थी। वे हमेशा की तरह शांत और गंभीर दिख रहे थे। आर्या उनके पास जाकर चुपचाप खड़ी हो गई। कुछ क्षण बाद बाबा ने उसकी ओर देखा।
“क्या बात है, आर्या? आज आवाज़ में थकान क्यों है?”
आर्या का गला सूख गया। उसने हिम्मत जुटाकर कहा—“बाबा… मुझे आपसे कुछ कहना है।”
बाबा ने ध्यान से उसकी आँखों में देखा। “कहो।”
आर्या की आवाज़ काँप गई। “मैं… मैं किसी से मिली हूँ। वह फोटोग्राफर हैं, नाम है अयान। वो इस शहर को तस्वीरों में कैद कर रहे हैं। उनसे मेरी मुलाक़ात घाट पर हुई… और अब…”
बाबा की भौंहें तन गईं। “और अब?”
आर्या ने गहरी साँस ली। “अब मैं उनसे दूर नहीं रह पाती। बाबा, यह सिर्फ दोस्ती नहीं रही। मुझे लगता है कि मैं उनसे प्रेम करने लगी हूँ।”
आँगन अचानक और भी भारी लगने लगा। बाबा की आँखों में दर्द की लकीर उभर आई। कुछ देर तक वे मौन रहे, फिर धीमी लेकिन कठोर आवाज़ में बोले—“आर्या, तुम्हारा जीवन संगीत है। यह शहर तुम्हें सुरों में साधना करने के लिए जानता है। और तुम कह रही हो कि एक अजनबी के साथ प्रेम तुम्हारे सुरों से भी बड़ा है?”
आर्या ने तुरंत सिर झुका लिया। “नहीं बाबा, संगीत ही मेरी आत्मा है। पर… अयान भी उसी आत्मा का हिस्सा बन गए हैं। वो मुझे समझते हैं, मेरे सुरों को सुनते हैं, जैसे आप सुनते हैं।”
बाबा ने लंबी साँस खींची। “समझना और अपनाना अलग बातें हैं। हमारे परिवार की परंपरा है कि हम बाहरवालों से इस तरह का रिश्ता नहीं जोड़ते। तुम्हारी माँ होतीं तो शायद और भी सख़्त होतीं। आर्या, सोचो—अगर यह सब गलत निकला तो? अगर इस मोह में तुम्हारा संगीत खो गया तो?”
आर्या की आँखों से आँसू बह निकले। “बाबा, मैं वादा करती हूँ कि संगीत कभी नहीं छूटेगा। पर अयान के बिना शायद मेरा सुर ही अधूरा रह जाएगा। आप ही ने तो सिखाया है कि हर राग में एक संगति होती है। मेरा सुर और उनका कैमरा—शायद वही संगति है।”
बाबा के चेहरे पर एक पल के लिए नरमी आई, पर तुरंत कठोरता लौट आई। “आर्या, प्रेम सिर्फ भावना से नहीं चलता। जीवन भर की जिम्मेदारियाँ भी होती हैं। मैं तुम्हारा बुरा नहीं चाहता। तुम अभी बच्ची हो, समय के साथ समझ जाओगी कि यह सब क्षणिक आकर्षण है।”
आर्या ने आँसू पोंछे, पर उसकी आँखों में अब दृढ़ता थी। “बाबा, आप मुझे चाहे जो कहें, लेकिन यह आकर्षण नहीं है। यह मेरा सच है। और अगर मैं इस सच को दबा दूँ, तो मेरे गले से कोई राग कभी पूरा नहीं निकलेगा।”
बाबा ने कोई उत्तर नहीं दिया। वे उठकर भीतर चले गए। आँगन में सिर्फ तुलसी के पत्तों पर गिरी धूप और आर्या की सिसकियाँ रह गईं।
दूसरी ओर, उसी समय अयान अपने होटल के कमरे में बेचैन टहल रहा था। उसे लगा कि आज कुछ निर्णायक घटने वाला है। कैमरे की मेज़ पर रखी तस्वीरों में आर्या बार-बार जीवित हो उठती। उसके मन में सवाल था—क्या वह अपने परिवार से लड़ पाएगी? या गंगा की लहरें हमें अलग-अलग किनारों पर फेंक देंगी?
भाग 8 : टकराव का क्षण
बाबा के मौन ने घर के भीतर एक भारीपन फैला दिया था। आर्या ने सोचा था कि बात कह देने से बोझ हल्का होगा, लेकिन बोझ और भी गहरा हो गया। अगले ही दिन आदित्य ने उसके कमरे में आकर दरवाज़ा बंद कर दिया।
“तो ये सच है?” उसकी आवाज़ तलवार की धार जैसी थी।
आर्या ने चुपचाप सिर झुका लिया।
“तुम्हें होश भी है कि ये सब क्या कर रही हो? एक अजनबी लड़के के लिए पिता की इज़्ज़त दाँव पर लगा रही हो? बाबा कुछ नहीं कह रहे इसका मतलब ये नहीं कि उन्हें फर्क नहीं पड़ता। उनकी खामोशी तूफ़ान है, आर्या।”
आर्या ने धीमी आवाज़ में कहा—“भैया, अयान अजनबी नहीं हैं। वो इस शहर को उतनी ही गहराई से देखते हैं जितना हम जीते हैं। उनका दिल साफ़ है।”
आदित्य ने कटु हँसी के साथ कहा—“दिल? दिल से रोटी नहीं मिलती। और बाहरवालों का दिल कब किस ओर चला जाए कहा नहीं जा सकता। आज वह तुम्हारे साथ घाट पर घूम रहा है, कल किसी और शहर चला गया तो? तुम सोच भी सकती हो कि उस वक़्त तुम्हारी हालत क्या होगी?”
आर्या के पास कोई जवाब नहीं था। उसने बस धीरे से कहा—“भैया, अगर यह सच नहीं होता तो शायद मैं इतनी हिम्मत जुटाकर बाबा के सामने खड़ी भी न होती।”
आदित्य का चेहरा लाल हो गया। उसने तय कर लिया कि अब इस “अजनबी” से सीधे मिलकर बात करनी होगी।
उसी शाम जब अयान दशाश्वमेध घाट पर तस्वीरें खींच रहा था, आदित्य वहाँ आ पहुँचा। उसका चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था।
“तुम ही हो अयान?” उसने कड़क कर कहा।
अयान ने शांत स्वर में जवाब दिया—“हाँ। और आप आर्या के भाई हैं?”
“हाँ, और मैं साफ़-साफ़ कहने आया हूँ—अपनी ये तस्वीरों वाली दोस्ती हमारी बहन से तुरंत ख़त्म करो। वरना अच्छा नहीं होगा।”
अयान ने उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा—“मैं आर्या की इज़्ज़त करता हूँ। हमारे बीच सिर्फ सच्चाई है। अगर आप सोचते हैं कि यह दोस्ती गलत है, तो आप गलत हैं।”
आदित्य ने कदम आगे बढ़ाया—“सचाई? इस समाज में सच वही होता है जो लोग मानते हैं। और लोग ये रिश्ता कभी नहीं मानेंगे। तुम बाहर से आए हो, यहाँ की परंपरा को क्या समझोगे?”
अयान ने गहरी साँस ली। “परंपरा अगर हमें प्यार करने से रोकती है, तो शायद समय आ गया है कि परंपरा को बदलने की ज़रूरत है।”
आदित्य का धैर्य टूट गया। उसने अयान की कॉलर पकड़ ली। चारों ओर लोग जमा हो गए। घाट पर शोर उठने लगा। कुछ नाविक और साधु बीच-बचाव के लिए दौड़े।
आर्या भी वहाँ पहुँच चुकी थी। उसने भाई का हाथ पकड़ लिया—“भैया, बस कीजिए! यह मेरा फैसला है। अयान मेरी ज़िंदगी का हिस्सा हैं। आप चाहें जितना गुस्सा करें, मैं पीछे नहीं हटूँगी।”
उसकी आवाज़ काँप रही थी, लेकिन दृढ़ थी। बाबा भी दूर से यह सब देख रहे थे। उनकी आँखों में निराशा और पीड़ा दोनों थीं।
लोगों की भीड़ में माहौल गरमा गया था। कोई कह रहा था—“लड़की का हक़ है अपना साथी चुनने का।” कोई दूसरा बोल रहा था—“परंपरा टूटेगी तो समाज बिखर जाएगा।”
गंगा की लहरें इस पूरे दृश्य को चुपचाप देख रही थीं, जैसे जानती हों कि यह संघर्ष केवल एक परिवार का नहीं, बल्कि प्रेम और परंपरा की अनंत लड़ाई है।
उस रात आर्या और अयान दोनों ने अलग-अलग किनारों से नदी को देखा। उनके दिल में एक ही सवाल गूँज रहा था—क्या प्रेम लहरों की तरह हर दीवार तोड़ देगा, या किनारे की रेत में अटककर दम तोड़ देगा?
भाग 9 : बिछड़ने की आशंका
घाट पर हुई उस टकराव ने पूरे मोहल्ले में आग की तरह खबर फैला दी। लोग गलियों में फुसफुसाने लगे—“गुरुजी की बेटी किसी पराए लड़के से प्रेम करती है।” बाबा की चुप्पी और आदित्य का गुस्सा इस अफ़वाह को और भी सच बना रहे थे।
आर्या को पहली बार एहसास हुआ कि उसका निजी जीवन अब केवल उसका नहीं रहा। हर नज़र, हर आहट उसे कसूरवार साबित कर रही थी। जब वह रियाज़ के लिए तानपुरा उठाती, तो सुर कांपने लगते। मोहल्ले की औरतें उसकी ओर देख मुस्करातीं, मानो उसके दिल के राज़ उन्होंने खोल दिए हों।
घर का माहौल और भारी हो गया। आदित्य ने लगभग पहरेदारी शुरू कर दी थी। बाबा कम बोलने लगे थे। सिर्फ़ इतना कहते—“आर्या, संगीत साधना है। साधना बंधनों से होती है, भटकाव से नहीं।”
आर्या के भीतर सवाल गूंजता—क्या प्रेम भटकाव है?
दूसरी ओर अयान भी दबाव महसूस करने लगा। होटल के मालिक ने उसे अलग से चेतावनी दी—“देखिए बाबूजी, यह शहर धार्मिक है। आप गुरुजी की बेटी के साथ ज़्यादा घूमे-फिरेंगे तो लोग बुरा मानेंगे। संभालिए खुद को।”
अयान ने पहली बार महसूस किया कि यह केवल एक परिवार से नहीं, पूरे शहर से लड़ाई है।
एक शाम, जब घाट पर दोनों चोरी-छिपे मिले, आर्या की आँखें लाल थीं।
“अयान, मुझे डर लग रहा है। भैया अब मुझे कहीं जाने नहीं देते। बाबा की खामोशी और भी डरावनी है। और मोहल्ले वाले… मुझे लगता है, मैं दम घुटते हुए जी रही हूँ।”
अयान ने उसका हाथ थाम लिया। “तो चलो यहाँ से निकल चलते हैं। दिल्ली चलो मेरे साथ। वहाँ कोई हमें रोक नहीं पाएगा।”
आर्या ने झटके से हाथ खींच लिया। “नहीं अयान! मैं भागकर सब कुछ नहीं छोड़ सकती। मेरा संगीत, मेरा घर, मेरा शहर—यह सब मेरा हिस्सा है। अगर मैं इन्हें छोड़ दूँ तो मैं आर्या नहीं रहूँगी।”
अयान ने गहरी सांस ली। “तो फिर? हम यूँ ही छिपते-छिपते मिलेंगे? कब तक?”
दोनों की चुप्पी में गंगा की लहरें टकरा रही थीं। मानो वही सवाल नदी पूछ रही हो।
उस रात बाबा ने आर्या को अपने पास बुलाया। उनकी आवाज़ थकी हुई थी।
“बेटी, तुमने मुझे कभी निराश नहीं किया। पर आज पूरा शहर हमारी ओर उंगली उठा रहा है। मैं तुम्हें बंधन में नहीं रखना चाहता, लेकिन अगर तुम यह रास्ता चुनती हो, तो समझ लो कि यह घर तुम्हारे लिए नहीं रहेगा। सोच लो, तुम्हारे सुर कहाँ साधे जाएँगे?”
आर्या स्तब्ध रह गई। यह पहली बार था जब बाबा ने इतने कठोर शब्द कहे। वह कमरे में लौटकर देर तक रोती रही।
दूसरी ओर अयान ने होटल के कमरे में सामान समेटना शुरू कर दिया। उसका मन कह रहा था कि अब शायद वाराणसी उसे स्वीकार नहीं करेगा। पर उसके दिल में एक आवाज़ थी—क्या आर्या बिना कहे मुझे जाने देगी?
अगली सुबह घाट पर धूप फैली हुई थी। नावें चल रही थीं, मंत्र गूंज रहे थे। लेकिन दोनों के दिल में केवल एक डर था—क्या यह उनकी आख़िरी मुलाक़ात होगी?
भाग 10 : गंगा की गवाही
सुबह की पहली किरण गंगा के जल पर उतर रही थी। घाट पर रोज़ की तरह भीड़ थी—आरती, नावें, और हवा में घुला धूप का धुआँ। पर आर्या और अयान दोनों के लिए यह सुबह अलग थी। दोनों ही जानते थे कि अब समय आ गया है, जब या तो उनका रिश्ता गंगा की तरह अनंत हो जाएगा, या फिर हमेशा के लिए टूट जाएगा।
आर्या घर से निकलते समय बाबा और आदित्य की आँखों में देख चुकी थी—कठोरता और निराशा का मिश्रण। उसे बाबा के शब्द अब भी गूंज रहे थे—“अगर यह रास्ता चुनोगी तो यह घर तुम्हारे लिए नहीं रहेगा।” उसका दिल काँप उठा था, लेकिन उसके पाँव किसी अदृश्य ताक़त से घाट की ओर बढ़ते जा रहे थे।
अयान पहले से वहाँ था। उसकी आँखों में जागी रात का थकान था, पर चेहरे पर दृढ़ता। उसने आर्या को देखते ही कहा—“मैंने सामान बाँध लिया है। अगर तुम हाँ कहो तो हम आज ही यहाँ से चले जाएँगे।”
आर्या चुप रही। उसने गंगा की ओर देखा। जल की धारा अनवरत बह रही थी—ना रुकती, ना मुड़ती।
“अयान, भाग जाना आसान है। पर मैं भागकर अपने सुर नहीं बचा पाऊँगी। मेरा संगीत यहीं है, इस शहर में, इन घाटों पर। अगर मैं इन्हें छोड़ दूँ तो मेरी आत्मा खाली हो जाएगी।”
अयान के होंठ सूख गए। “तो फिर? मैं लौट जाऊँ? हम अलग हो जाएँ?”
आर्या ने उसकी आँखों में देखा। उनमें आँसू थे, पर उन आँसुओं में साहस भी।
“नहीं। हमें अलग होने की ज़रूरत नहीं। हमें छुपने की भी ज़रूरत नहीं। अगर प्रेम सच है, तो हमें इसे दुनिया के सामने कहना होगा। चाहे लोग हँसें, चाहे उँगली उठाएँ। गंगा हमारी गवाही बनेगी।”
इतना कहकर वह सीढ़ियों से उतरकर बीच घाट पर खड़ी हो गई। लोग उसे देखने लगे। आर्या ने गहरी साँस ली और गाना शुरू किया—राग भैरवी। उसकी आवाज़ घाट पर गूंज उठी। सुर इतने साफ़, इतने गहरे थे कि भीड़ धीरे-धीरे शांत हो गई।
और ठीक उसी क्षण अयान आगे बढ़ा। उसने कैमरा एक ओर रख दिया और ऊँची आवाज़ में कहा—“मैं अयान हूँ। बाहर से आया हूँ, पर इस शहर से प्रेम करता हूँ। और सबसे ज़्यादा आर्या से। अगर यह अपराध है, तो मैं इसे खुलेआम स्वीकार करता हूँ।”
भीड़ में हलचल मच गई। कोई फुसफुसाया, कोई सिर हिलाने लगा। लेकिन आर्या का सुर टूटे बिना बहता रहा। बाबा और आदित्य भी वहाँ पहुँच चुके थे। बाबा की आँखें भीड़ में खड़ी अपनी बेटी पर टिक गईं। उनका चेहरा कठोर था, पर भीतर कुछ पिघलने लगा।
गीत पूरा होते ही घाट पर खामोशी छा गई। आर्या ने बाबा की ओर मुड़कर कहा—“बाबा, यह मेरा सच है। अगर आप मुझे संगीत से वंचित करेंगे, तो मैं जीते-जी मर जाऊँगी। लेकिन अगर आप मेरा साथ देंगे, तो मैं आपके नाम को और ऊँचाई दूँगी। यह अयान मुझे कमज़ोर नहीं, और मज़बूत बना रहा है।”
बाबा की आँखों से आँसू छलक पड़े। उन्होंने धीमे स्वर में कहा—“संगीत का अर्थ अगर सच और साहस है… तो शायद तुम सही हो, आर्या। प्रेम भी साधना है। और साधना को कोई रोक नहीं सकता।”
आदित्य चुप रहा। उसका गुस्सा धीरे-धीरे हार मान रहा था।
भीड़ बँट गई—कुछ ने स्वीकार किया, कुछ ने विरोध। लेकिन गंगा की धारा उस क्षण एक साक्षी बन गई—कि प्रेम और परंपरा की लड़ाई में भी सच की आवाज़ गूँज सकती है।
अयान ने आर्या का हाथ थामा। इस बार उसने हाथ नहीं खींचा। दोनों ने गंगा की ओर देखा। धारा बह रही थी, सूरज की किरणें चमक रही थीं।
आर्या ने धीमे स्वर में कहा—“देखो अयान, गंगा ने हमें आशीर्वाद दे दिया।”
अयान ने मुस्कराकर जवाब दिया—“अब चाहे दुनिया जो कहे, हम साथ हैं।”
और उसी क्षण दीयों का एक समूह बहकर उनके पास आ पहुँचा। जैसे नदी ने अपना निर्णय सुना दिया हो।
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