Hindi - प्रेम कहानियाँ

गुलाबी दुपट्टा

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ईशा पांडेय


दिल्ली की एक उमस भरी दोपहर थी। चारों ओर ट्रैफिक का शोर, कारों के हॉर्न और मोबाइल फोन की लगातार बजती घंटियाँ करण वर्मा की चेतना को कुंद कर रही थीं। अपने ऑफिस के कांच लगे स्टूडियो में बैठा वह बार-बार कैमरे की लेंस से बाहर झांक रहा था — जैसे कोई रास्ता खोज रहा हो भाग जाने का। करण एक प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफर था, जिसे शहरी जीवन, फैशन शोज़, विज्ञापन और मॉडलों की ज़िंदगी को लेंस में उतारने में महारत हासिल थी। पर अब वह इस चकाचौंध से थक गया था। हाल ही में एक डॉक्यूमेंट्री शूट करते समय उसके मन में विचार आया था — “क्यों न एक महीना सिर्फ़ प्रकृति को समर्पित कर दिया जाए?” उसकी दादी का मायका उत्तराखंड के एक छोटे से गांव — डांडा — में था, जहाँ वह बचपन में एक बार गया था। अचानक उसी गांव की याद उसे गहराई से खींचने लगी। वहां की हरी-भरी घाटियाँ, नीले पहाड़, और वो सन्नाटा — जो बोलता नहीं, पर बहुत कुछ कहता है। करण ने देर न करते हुए ऑफिस में एक महीने की छुट्टी डाली, बैग में सिर्फ ज़रूरी कपड़े, कैमरा और एक पुरानी डायरी डाली — जिसमें उसने एक बार गांव की कहानी लिखी थी — और निकल पड़ा उत्तराखंड की ओर। ट्रेन की खिड़की से वह बाहर के दृश्य देखता रहा, जैसे हर स्टेशन के बाद उसकी आत्मा कुछ हल्की होती जा रही थी।

सफ़र लंबा था, पर करण को थकावट नहीं हो रही थी। पहाड़ी रास्तों पर चलती बस में बैठे हुए उसने झरनों, चीड़ के पेड़ों और ढलान वाले खेतों की तस्वीरें अपने कैमरे में कैद कीं। गांव पहुँचने से कुछ पहले बस खराब हो गई और बाकी रास्ता उसे पैदल तय करना पड़ा। पर उस थकावट में भी एक राहत थी — जैसे शहर के शोर से दूर अब वो खुद से मिल रहा था। डांडा गांव की सीमाओं में कदम रखते ही करण ने महसूस किया जैसे वक़्त ठहर गया हो। मिट्टी की गंध, हवा में गूंजते मवेशियों की घंटियों की आवाज़, बच्चों की हँसी, और दूर किसी मंदिर की घंटी — इन सबने करण को छू लिया। गांव के लोग अब भी वैसे ही थे — सीधे-सादे, मुस्कराते हुए चेहरे, और आंखों में सहज अपनापन। वो जिस घर में रुका, वह किसी पुराने परिचित का ही था, जिनका बेटा शहर में नौकरी करता था, पर मां-बाप अब भी गांव में रहते थे। करण ने वहीं डेरा जमाया और पहले दिन ही एक लिस्ट बना ली — वो गांव के लोगों की जिंदगी, रीति-रिवाज, खेत, और प्रकृति को अपने कैमरे में उतारना चाहता था, लेकिन बिना खलल डाले। उसे शहर में सब कुछ मिलता था — साज-सज्जा, तकनीक, सुविधा — पर वह अब उस ‘अनपढ़’ सौंदर्य को पकड़ना चाहता था, जो कहीं खो गया था।

अगली सुबह, करण कैमरा लेकर निकल पड़ा — गांव के खेतों की ओर, जहां सूरज की पहली किरणें हल्की धुंध को चीरते हुए उतर रही थीं। पर जैसे ही वह एक मेड़ पर चढ़ा, उसकी आंखें एक दृश्य पर ठहर गईं — एक लड़की, हल्के गुलाबी दुपट्टे में, खेत के बीचों-बीच झुकी हुई कुछ चुन रही थी। उसकी हरकतें बड़ी धीमी, बड़ी लयबद्ध थीं — जैसे हवा भी उसके इशारों पर चल रही हो। करण ने बिना आवाज़ किए कैमरा उठाया और एक तस्वीर ले ली। शटर की हल्की आवाज़ पर लड़की ने पलट कर देखा — आंखों में हल्का संकोच, पर कोई डर नहीं। वो बस एक पल को ठहरी, फिर मुस्कुरा कर वापस अपने काम में लग गई। करण उस पल को समझ नहीं पाया — वो मुस्कान क्या थी? एक अजनबी पर भरोसा? या बस गांव की सहजता? वो लौट गया, पर उस तस्वीर को देर तक अपने लैपटॉप की स्क्रीन पर देखता रहा। गुलाबी दुपट्टे में लिपटी वो लड़की जैसे कोई कविता थी — जो भाषा में नहीं, अहसास में लिखी जाती है। उस दिन उसे समझ आ गया था — उसके गांव आने का मक़सद सिर्फ़ फ़ोटोग्राफ़ी नहीं, कुछ और भी था… शायद उस गुलाबी दुपट्टे की कहानी जानना।

अगली सुबह की रौशनी जैसे विशेष रूप से शांत और चमकदार थी। करण अपने कैमरे को संभाले खेतों की ओर बढ़ा — मन में उस लड़की की छवि अब भी ताज़ा थी, जिसने पिछली सुबह उसके दिल की सतह पर एक हल्का कंपन पैदा किया था। हवा में मिट्टी और गेंहूँ के पौधों की खुशबू थी, और दूर किसी गांव की औरतें टोकरी लेकर चल रही थीं। करण वहीं उसी मेड़ पर खड़ा हुआ, जहाँ से उसने कल वह तस्वीर ली थी। पर आज खेत खाली था। वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा, पेड़ों के बीच से गुज़रता हुआ, तभी एक आवाज़ सुनाई दी — एक लड़की किसी लोकगीत की पंक्तियाँ गुनगुना रही थी। करण ने आवाज़ का पीछा किया और एक ऊँचे टीले के पीछे पहुंचा। वहाँ वही लड़की बैठी थी, गुलाबी दुपट्टा आज भी उसके सिर पर था, और वो हाथ में कुछ सूखे फूल लिए उन्हें ध्यान से देख रही थी — मानो हर फूल में कोई कहानी छुपी हो। करण ने धीरे से कदम रखा ताकि उसकी मौजूदगी से वह चौंक न जाए, लेकिन जैसे ही उसने फोटो लेने के लिए कैमरा उठाया, लड़की ने सिर घुमा कर देख लिया। इस बार मुस्कान थोड़ी लंबी थी — थोड़ी पहचान भरी, थोड़ी जिज्ञासु।

“आप कल भी आए थे न?” — लड़की ने पूछा, उसकी आवाज़ में कोई संकोच नहीं था, बल्कि एक तरह की सहज गर्मजोशी थी। करण थोड़ा हिचकिचाते हुए मुस्कराया, “हाँ, मैं फ़ोटोग्राफ़र हूँ… शहर से आया हूँ… आप बहुत सुंदर दृश्य में थीं, मैंने एक तस्वीर ली थी, उम्मीद है बुरा नहीं माना।” लड़की ने हल्की हँसी में जवाब दिया, “यहाँ तो सब दृश्य हैं… पर लोग उन्हें देखना छोड़ चुके हैं। आप देख पा रहे हैं, यही बहुत है।” यह संवाद करण को चौंका गया — शब्द साधारण थे, पर उनमें गहराई थी। करण ने खुद को परिचय देते हुए कहा, “मेरा नाम करण है। और आप?” लड़की ने कहा, “रूपसी।” — एक छोटा-सा नाम, मगर जैसे अपनी सादगी में ही पूर्ण हो। करण ने महसूस किया कि रूपसी कोई साधारण गांव की लड़की नहीं थी — उसकी बातों में सोच थी, उसकी आंखों में शब्दों से ज़्यादा भाव थे। उन्होंने पेड़ों की छांव में बैठकर बातें कीं — फूलों के नाम, खेतों की कहानियाँ, और उस दुपट्टे की बात जो गुलाबी था, पर रोज़ अलग-अलग भावनाएँ ओढ़ लेता था। करण ने उससे पूछा, “तुम्हारा ये दुपट्टा कुछ कहता है क्या?” रूपसी ने हँसते हुए जवाब दिया, “कभी-कभी लगता है, ये मेरी उन बातों का रंग है जो मैं कह नहीं पाती।”

उस दिन से करण का हर दिन कुछ खास हो गया। वह रूपसी से रोज़ मिलता — कभी खेतों में, कभी मंदिर की सीढ़ियों पर, कभी गांव के कच्चे रास्तों पर। कैमरा उसके हाथ में होता था, पर लेंस अब केवल रूपसी की ओर घूमता था। वह उसकी हँसी, उसकी बातों, उसके हाथों में लगे मिट्टी के कणों को भी कैद करना चाहता था — जैसे हर छोटी चीज़ में कोई अनकही कविता बसी हो। रूपसी ने उसे गांव की कहानियाँ सुनाईं — कैसे उसकी दादी ने पुराने ज़माने में गांव में स्कूल खुलवाया, कैसे बरसात के दिनों में पूरा इलाका एक नदी में बदल जाता है, और कैसे हर त्यौहार में गुलाबी रंग की कोई चीज़ ज़रूर पहनी जाती है। करण ने महसूस किया कि वह अब सिर्फ तस्वीरें नहीं खींच रहा, बल्कि उन कहानियों को संजो रहा है जिन्हें रूपसी ने अपने भीतर सहेज रखा है। और रूपसी… वो अब करण के साथ खुलने लगी थी। पहले जहां वो केवल खेतों की सीमाओं तक सीमित थी, अब वह करण के सवालों, उसकी आंखों के कौतूहल में खुद को खोज रही थी। गुलाबी दुपट्टा अब केवल परिधान नहीं रहा — वो दोनों के बीच एक पुल बन चुका था, जो दो दुनिया को जोड़ रहा था — एक शहर की खोजी आंखों वाली दुनिया, और दूसरी गांव की भावनात्मक धड़कनों वाली।

गांव में सुबहें अब करण के लिए सिर्फ धूप और हरियाली नहीं रह गई थीं — वे अब इंतज़ार का नाम बन चुकी थीं। रूपसी से रोज़ मिलना एक आदत बन गया था, लेकिन करण खुद को इस आदत के मायनों से डराने लगा था। शहर का पढ़ा-लिखा, तार्किक करण अब एक शांत, मौन-भरी आंखों वाली लड़की की बातें सुनकर बेचैन रहने लगा था — खुद से, भविष्य से, और उस अहसास से जो बिना इजाज़त उसके भीतर जगह बना रहा था। उस दिन वह कैमरा साथ लेकर गांव के मंदिर के पास पहुंचा, जहाँ रूपसी अक्सर शाम के समय दीया जलाने आती थी। पेड़ की छांव में बैठी रूपसी कुछ बुन रही थी — पुराने कपड़ों से कागज़ की डायरी के लिए कवर बना रही थी। करण ने बिना कुछ बोले पास बैठते हुए कैमरा नीचे रख दिया। कोई बातचीत नहीं हुई, पर उनकी मौजूदगी में एक तरह की आत्मीयता थी, जैसे कुछ कहना ज़रूरी नहीं — सिर्फ होना काफी है। रूपसी ने बिना सिर उठाए पूछा, “शहर में भी लोग ऐसे ही चुप बैठते हैं क्या?” करण ने थोड़ी देर बाद जवाब दिया, “शहर में सब कुछ तेज़ होता है… इतना तेज़ कि चुप्पी को समय ही नहीं मिलता।” फिर एक हल्की मुस्कान उसके चेहरे पर फैल गई — “पर मैं अब वहां बैठने का वक़्त भूल गया हूँ।”

रूपसी ने आंखें उठाकर उसकी ओर देखा — वो नज़रे कोई सामान्य प्रश्न नहीं थीं, वो जैसे करण की आत्मा को छूना चाहती थीं। कुछ पलों की खामोशी के बाद वह बोली, “यहां तो हर चीज़ बोलती है — ये पेड़, ये मिट्टी, ये चिड़िया। पर मुझे शहर से आई हर चीज़ चुप लगती है। आपकी आंखें भी, करण जी… जैसे कोई बहुत कुछ कहना चाहता हो पर कह नहीं रहा।” करण चौंक गया — वह खुद नहीं जानता था कि उसके भीतर इतने सवाल और उलझनें थीं, जिन्हें कोई बिना पूछे पहचान सकता है। वो कुछ कहने ही वाला था, तभी गांव की एक बच्ची दौड़ती हुई आई और रूपसी की गोद में बैठ गई — “दीदी, मेरी गुड़िया का सिर टूट गया।” रूपसी ने बड़े प्यार से उसे गले लगाया, और अपने झोले से सूई-धागा निकालकर गुड़िया को ठीक करने लगी। करण उस दृश्य को देखता रहा — उसके कैमरे ने बेशक हजारों चेहरों को कैद किया था, पर यह दृश्य कुछ और था। रूपसी की कोमलता, उसकी ममता, और उस क्षण की निर्दोषता ने करण के भीतर कुछ पिघलाया। उस पल उसे समझ में आया कि वो किसी फोटो-सीरीज की तलाश में गांव नहीं आया था — वह अपने खोए हुए इंसानी जुड़ाव की तलाश में था।

शाम ढल चुकी थी। दोनों अब गांव के बाहर बहती छोटी सी नदी के किनारे बैठे थे। नदी के किनारे की चट्टानें गर्म थीं, और ऊपर से बहती ठंडी हवा उनके दुपट्टों को हिला रही थी। करण ने पूछा, “रूपसी, कभी शहर जाने का सोचा है?” वह मुस्कराई, “कभी नहीं। मैं अगर इस गांव से चली गई, तो मेरी कहानियाँ कौन सुनेगा?” करण ने पहली बार महसूस किया कि इस लड़की के पास सिर्फ सुंदरता या सादगी नहीं थी — उसके पास एक गहराई थी, एक दुनिया थी जो मिट्टी, धूप और लोकगीतों से बुनी गई थी। रूपसी ने पलटकर पूछा, “और आप? शहर में सब छोड़कर कब तक यहां रह पाएंगे?” करण जवाब नहीं दे पाया। सच तो ये था कि वह खुद नहीं जानता था — वह भागकर आया था, शांति की तलाश में, पर अब यहां कुछ ऐसा पा गया था जो उसे रुकने पर मजबूर कर रहा था। वो कुछ कहता इससे पहले ही रूपसी उठ खड़ी हुई — “चलें? दादी इंतज़ार कर रही होंगी।” और फिर वो अपने गुलाबी दुपट्टे को सिर पर ठीक करते हुए आगे बढ़ गई। करण कुछ कदम पीछे चला — पर उसके भीतर कुछ बहुत आगे निकल चुका था, किसी अनदेखी दिशा में।

गांव में तीसरी सुबह की शुरुआत कुछ अलग सी थी। हल्की बारिश की बूंदें रात भर गिरी थीं और सुबह की हवा में मिट्टी की भीनी-भीनी ख़ुशबू थी। करण अपने कैमरे के साथ दरवाज़े पर बैठा था — पर आज तस्वीर लेने का मन नहीं था। उसकी आंखें उस पगडंडी को तक रही थीं जहां से रूपसी रोज़ आती थी। कुछ देर बाद, गीले रास्ते पर नंगे पांव चलती हुई रूपसी दिखाई दी — गुलाबी दुपट्टा आज भी ओढ़ा था, पर उसमें हल्की नमी थी, जैसे वो भी बारिश में भीग गया हो। करण ने मुस्कुराकर उसका स्वागत किया और दोनों बिना कहे खेतों की ओर चल दिए। रास्ते में रूपसी ने चुप्पी तोड़ी, “आपको कहानियाँ पसंद हैं?” करण ने बिना सोचे कहा, “बहुत। बचपन में मां से रोज़ एक नई कहानी सुनता था… पर बड़े होते-होते कहानियाँ कहीं पीछे छूट गईं।” रूपसी ने मुस्कुराकर कहा, “तो आज मैं आपको एक कहानी सुनाऊँगी।” और यहीं से शुरू हुई उन दो लोगों की यात्रा — जो शब्दों से ज़्यादा अहसासों से जुड़ती थी।

वे दोनों एक पुराने पीपल के पेड़ के नीचे पहुंचे, जहां एक टूटी-फूटी चौकी रखी थी। रूपसी ने बैठते ही कहना शुरू किया, “ये पेड़, ये मिट्टी, ये रास्ते — सबके पास कहानियाँ हैं। मेरी दादी कहती थीं, ये गांव कभी ‘रूपगढ़’ कहलाता था, क्योंकि यहाँ की औरतें सबसे सुंदर, पर सबसे मजबूत होती थीं। कहते हैं, एक ज़माने में यहां एक राजकुमारी रहती थी, जिसे गुलाबी रंग से बहुत लगाव था। वो जब-जब अपने गुलाबी दुपट्टे के साथ गांव में निकलती, सब कुछ रुक जाता था — जैसे खुद वक़्त ठहर जाता हो। लेकिन एक दिन, उसे शहर से आए एक राजकुमार से प्रेम हो गया। वो प्रेम सच्चा था, लेकिन शहर की चमक उसकी सादगी को निगल गई। राजकुमार लौट गया, और राजकुमारी ने फिर कभी गुलाबी दुपट्टा नहीं ओढ़ा।” रूपसी की आवाज़ धीमी हो गई — उसकी उंगलियाँ अपने दुपट्टे के छोर को मसल रही थीं। करण उस कहानी में कुछ और ही ढूंढ रहा था — क्या ये सिर्फ कहानी थी? या रूपसी की कोई दबी हुई परछाईं? उसने कुछ नहीं पूछा, बस शांत होकर सुना, जैसे हर शब्द को दिल में उतार रहा हो।

वह दिन पूरी तरह कहानियों में बीता। रूपसी कभी पुराने खंडहरों की बातें करती, कभी नदी किनारे के वृक्षों की, जो बारिश में किसी कवि की तरह झुक जाते हैं। करण के लिए यह सब नया था — उसने कैमरे से हजारों दृश्य पकड़े थे, पर यहां पहली बार वो अनुभव कर रहा था कि किसी स्थान की आत्मा को कैसे जिया जाता है। रूपसी की आवाज़ में कविता थी, उसकी कहानियों में गंध, रंग और स्पर्श। करण ने कई बार कैमरा उठाया, पर उसे महसूस हुआ कि इन पलों को लेंस से कैद करना उन्हें छोटा कर देना होगा। उस शाम रूपसी ने चलते-चलते पूछा, “क्या आपकी मां आपको अब भी कहानियाँ सुनाती हैं?” करण रुका, थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला, “नहीं… अब वो बहुत बीमार हैं। बोलती कम हैं। शायद इसलिए मुझे कहानियाँ सुनने की कमी हमेशा रहती है।” रूपसी ने पहली बार करण का हाथ थामा — एक हल्का, संवेदनशील स्पर्श — जो कह रहा था कि अब तुम्हारी कहानियाँ खत्म नहीं होंगी। उस दिन गुलाबी दुपट्टा सिर्फ उसकी पहचान नहीं, एक वादा बन गया — कहानियों की डोर, जो उन्हें जोड़े रखेगी।

गांव के दिनों में अब मौसम का बदलना भी करण के मन के बदलते भावों की तरह लगने लगा था। कभी धूप की तेज़ रोशनी में रूपसी की हँसी की चमक होती, तो कभी बादलों की ओट में उसके चेहरे की उदासी झलकती। करण अब हर सुबह गांव की परंपराओं में डूबता जा रहा था — कभी वह बल्देव भाई के साथ खेतों में हल चलाता, कभी दादी माँ के पास बैठकर पुराने लोकगीत सुनता। उसका कैमरा अब इन लोगों का नहीं, इनकी रूहों का चित्र बनाना चाहता था। एक दिन गांव में तुलसी विवाह का आयोजन था — एक धार्मिक परंपरा जिसमें गांव की सारी औरतें सज-धजकर मंदिर में एकत्र होती थीं। करण वहां पहुंचा तो उसकी नज़र रूपसी पर पड़ी — उसने हल्का गुलाबी साड़ी पहना था, और उसका वही दुपट्टा आज कुछ और ही रंग ले चुका था। उसके माथे पर बिंदी, चूड़ियों की खनक, और आंखों में लाज — करण को कुछ क्षणों के लिए लगा जैसे वक़्त थम गया हो। पर ये सिर्फ रूपसी की सुंदरता नहीं थी जो उसे रोक रही थी, ये था उसका सहज सौंदर्य — जिसमें न कोई बनावट थी, न दिखावा।

करण ने चुपचाप एक कोने में बैठकर सब कुछ देखा — महिलाएँ गीत गा रही थीं, पुरुष दीपक सजाने में लगे थे, और बच्चे इधर-उधर दौड़ रहे थे। रूपसी जब भी उसकी ओर देखती, उसकी नजरें कुछ कहने को उठतीं, पर फिर झुकी रह जातीं। पूजा के बाद गांव में लोकनृत्य का आयोजन हुआ। ढोलक की थाप पर लड़कियाँ घूंघट में घूमती रहीं, और गांव के बुजुर्ग तालियां बजाकर उत्साह बढ़ाते रहे। करण का कैमरा हर उस क्षण को कैद कर रहा था, पर उसका ध्यान हर फ्रेम में सिर्फ एक चेहरा ढूंढ़ता — रूपसी का। जब नृत्य समाप्त हुआ, तो रूपसी करण के पास आई और मुस्कराकर बोली, “आज के दृश्य कैमरे से नहीं, दिल से खींचने लायक हैं।” करण भी मुस्कराया — “मैं कोशिश कर रहा हूँ… पर कुछ तस्वीरें आंखें कैद कर लेती हैं, कैमरा नहीं।” दोनों की मुस्कान कुछ पल तक टिकी रही — फिर वह खामोशी में बदल गई, पर उस खामोशी में एक ऐसा संवाद था जो किसी भी शब्द से अधिक स्पष्ट था। रात को लौटते समय करण ने देखा, रूपसी ने उसका मनपसंद नीला फूल अपने दुपट्टे में टांक लिया था — एक छोटा-सा इशारा, पर करण के लिए वह फूल एक संकेत था कि इस गुलाबी दुपट्टे में अब उसका नाम भी दर्ज हो रहा है।

अगली सुबह जब करण खेत की ओर निकला, बल्देव भाई पहले से मौजूद थे। उन्होंने करण को अपने साथ हल चलाने को कहा। पहले तो करण हिचका, पर फिर उसने सोचा — यह भी गांव को महसूस करने का हिस्सा है। वह मिट्टी में अपने हाथ रंगते हुए सोच रहा था कि शहरी जीवन में वह कब इतना असंवेदनशील हो गया था कि मिट्टी की महक भी पहचानना भूल गया। काम के बाद बल्देव ने उसे पेड़ की छांव में बिठाया और कहा, “रूपसी सीधी लड़की है… गांव की है, पर समझ रखती है। तुमसे वो अलग नज़रों से देखती है।” करण कुछ पल चुप रहा, फिर बोला, “और आप?” बल्देव हँसे — “हम तो गांव वाले हैं, आंखों की भाषा समझते हैं। बस इतना कहूंगा — शहर से जो आता है, वो अक्सर कुछ ले जाता है। अगर तुम दिल लेकर जा रहे हो, तो उसका वज़न समझकर ले जाना।” करण के लिए यह चेतावनी भी थी, और विश्वास भी। उस रात जब वो रूपसी से मिलने पहुंचा, तो पहली बार उसने उसका नाम पूरी आत्मीयता से पुकारा — “रूपसी।” लड़की ने चौंककर उसकी ओर देखा, और बिना कुछ कहे पास आकर बैठ गई। चांदनी में उसका गुलाबी दुपट्टा चांदी जैसा चमक रहा था। करण ने धीरे से कहा, “शहर की भीड़ में मैं तुम्हें ढूंढ़ नहीं पाऊँगा… पर अगर तुम कहो, तो मैं यहीं रह जाऊँ।” रूपसी ने उसकी ओर देखा — उसकी आंखों में पानी था, पर मुस्कान भी। गुलाबी दुपट्टे ने हवा में लहराते हुए उस क्षण को अपनी ख़ुशबू में लपेट लिया।

दोपहर की थकान के बाद शाम की हल्की बारिश ने गांव को फिर एक बार जादू से भर दिया था। करण अपनी कैमरा लेकर बाहर निकला, पर इस बार उसका ध्यान तस्वीरों पर कम और किसी और पर ज़्यादा था—रूपसी पर। गांव की मिट्टी की खुशबू, आसमान से टपकती बूंदें, और रूपसी की मुस्कान, ये तीनों मिलकर किसी पुरानी कविता की तरह लग रहे थे। स्कूल से लौटते हुए रूपसी को उसने आम के पेड़ के नीचे बारिश से बचते हुए देखा। वो उसी गुलाबी दुपट्टे में थी, जिसे करण अब अपने कैमरे से ज़्यादा देखने लगा था। “तुम्हें बारिश में भी बाहर घूमने का शौक है?” रूपसी ने मुस्कुराकर पूछा। करण ने हंसते हुए जवाब दिया, “शौक नहीं, शायद बहाना है किसी से मिलने का।”

वो दोनों आम के पेड़ के नीचे खड़े हो गए, और बातों का सिलसिला चल पड़ा। करण ने उसे शहर की व्यस्त ज़िंदगी, ऊँची इमारतें और भीड़भाड़ के बारे में बताया, तो रूपसी ने जवाब में खेतों की हरियाली, पहाड़ों की कहानियाँ और नदी की मुस्कुराहट सुनाई। बारिश रुकने लगी थी, लेकिन उनके बीच की बातों की बारिश अब तक चल रही थी। अचानक करण ने अपनी जेब से छोटा सा नोटबुक निकाला और कहा, “जब मैं यहां से जाऊँगा, तो तुम्हारी यादें साथ रखनी होंगी, इसलिए आज से तुम्हारी बातों को लिखना शुरू कर दिया है।” रूपसी की आँखों में कुछ अजीब सा चमक आया—वो भाव जो शब्दों से नहीं, सिर्फ खामोशी से बयान होता है।

अगले कुछ मिनटों तक दोनों चुप थे, पर वो चुप्पी बोझिल नहीं थी, बल्कि एक नई समझदारी का संकेत दे रही थी। रूपसी ने पहली बार करण के कंधे से लटकते कैमरे को छूते हुए कहा, “एक दिन क्या तुम मुझे उस कैमरे से वैसे देखोगे, जैसे किसी तस्वीर को देखते हो?” करण ने मुस्कुराकर कहा, “तुम तस्वीर नहीं, कहानी हो। और मैं बस तुम्हारी कहानी में एक किरदार बनना चाहता हूँ।” सूरज धीरे-धीरे बादलों से बाहर निकल रहा था, और उसी के साथ करण और रूपसी के बीच कुछ अनकही बातों की रोशनी भी फैलने लगी थी। अब ये सिर्फ एक मुलाक़ात नहीं थी, बल्कि उन दोनों के दिलों में दस्तक देती मोहब्बत की शुरुआत थी।

दोपहर की धूप जैसे गांव के आंगन में उतर कर बैठ गई थी। खेतों के ऊपर धुंधली सी रोशनी फैल रही थी, और पेड़ की पत्तियाँ भी उस गर्म उजाले में सुनहरी लगने लगी थीं। करण, जो अब गांव के लगभग हर रास्ते से परिचित हो गया था, उस दिन कुछ अलग महसूस कर रहा था। उसकी नज़रें जैसे किसी एक चेहरे को खोज रही थीं—रूपसी को। जब से उस दिन बारिश के नीचे उनकी बातें हुई थीं, करण के भीतर कुछ बदल गया था। हर सुबह उसकी शुरुआत अब सिर्फ तस्वीरों के इरादे से नहीं होती थी, अब उसमें एक इंतज़ार भी जुड़ गया था। वो इंतज़ार रूपसी की झलक का, उसके उस धीमे मुस्कुराहट का, जो करण की बेचैनियों को चुपचाप सुला देती थी।

उस दिन स्कूल की छुट्टी जल्दी हो गई थी। बच्चे भागते हुए बाहर आ रहे थे, और उनके बीच में रूपसी भी, उसी नीली चूड़ीदार में, जिसके किनारे हल्के सुनहरे थे। करण दूर से उसे आते देखता रहा, पर आज उसने रूपसी को पास बुलाने के बजाय वहीं खड़ा रहना चुना। शायद वो उस पल को दूर से जीना चाहता था, बिना किसी शब्द के, सिर्फ निगाहों से। रूपसी ने उसे देखा, हल्की मुस्कान दी और धीरे-धीरे उसकी ओर आई। “आज कुछ अलग लग रहे हो,” रूपसी ने कहा, “जैसे कुछ कहना चाहते हो, पर कह नहीं पा रहे।” करण ने सिर झुका कर मुस्कुरा दिया, फिर कहा, “क्या हर कहानी को शब्दों की ज़रूरत होती है? कुछ कहानियाँ सिर्फ देखी जाती हैं, जैसे तुम।” रूपसी की आँखों में चमक और थोड़ी शर्म सी दौड़ गई, जैसे किसी ने उसके दिल के सबसे छुपे पन्ने को पढ़ लिया हो।

वे दोनों उस दिन नदी के किनारे चले गए। वहां हवा में ठंडक थी, और सामने दूर तक फैला जल बिलकुल शांत था। रूपसी एक पत्थर पर बैठ गई और पाँव पानी में डुबा दिए। करण ने धीरे से पूछा, “अगर मैं तुम्हें अपने शहर ले जाऊं, तो क्या तुम उस भीड़ में भी ऐसे ही मुस्कुरा पाओगी?” रूपसी थोड़ी देर चुप रही, फिर बोली, “मुस्कान जगह से नहीं, साथ से जुड़ी होती है। अगर तुम साथ रहो, तो हाँ, मैं हर जगह मुस्कुरा सकती हूँ।” उस क्षण करण ने महसूस किया, कि यह कोई आम लड़ाई नहीं थी दिल की—यह प्रेम था, जो शब्दों में नहीं, बस आंखों की झील में तैरता है। और वहीं, उस दिन की ढलती धूप में, करण ने पहली बार तय कर लिया था—यह लड़की, यह गांव, और यह ठहरी निगाहें, अब उसकी तस्वीरों से कहीं ज़्यादा कीमती हो चुकी थीं।

गांव की गलियों में आज कुछ अलग सी खामोशी थी। आसमान पर हलके बादल छाए हुए थे, और हवा में एक धीमी सी ठंडक थी। ऐसा लगता था मानो मौसम खुद भी किसी सोच में डूबा हो। करण उस दिन सुबह जल्दी उठ गया था, लेकिन कैमरे की बजाय आज उसकी आंखें कुछ और ढूंढ रही थीं—रूपसी को। अब ये कोई छुपा राज़ नहीं रहा था कि करण के दिल की धड़कनें उसके नाम की पुकार से बंध चुकी हैं। लेकिन प्रेम जितना सुंदर होता है, उतना ही डरावना भी, खासकर जब दिल के किसी कोने में यह डर बैठा हो कि कहीं वो खो न जाए।

दोपहर के समय जब वह मंदिर के पास बैठा हुआ था, अचानक रूपसी वहां आ पहुंची। उसकी आंखों में वो usual मुस्कान नहीं थी। कुछ उलझन थी, कुछ असहजता। करण उठ खड़ा हुआ और पास आकर पूछा, “सब ठीक है?” रूपसी ने सिर हिलाया, “हां… बस आज स्कूल में कुछ बातें सुन लीं… लोग बातें बना रहे हैं हमारे बारे में।” करण थोड़ी देर चुप रहा, फिर बोला, “लोगों का काम है कहना… हमें तो सिर्फ अपने सच को जीना है। क्या तुम इस बात से डर गई हो?” रूपसी ने उसकी ओर देखा, उसकी आंखें थोड़ी गीली थीं, “नहीं करण, डर नहीं… पर मैं गांव की लड़की हूं, और तुम्हारे जैसे शहर के लड़के के लिए शायद यह बस एक खूबसूरत अनुभव हो, लेकिन मेरे लिए…”

करण ने उसका हाथ थाम लिया। उसके शब्दों में विश्वास था, “तुम किसी अनुभव से ज़्यादा हो। मैं यहां बस तस्वीरें खींचने नहीं आया था, शायद किस्मत ने मुझे यहां भेजा सिर्फ तुम्हें देखने के लिए।” रूपसी की पलकों पर सुकून की एक परछाईं उतरी। लेकिन तभी, अचानक उसके मोबाइल की घंटी बजी—शहर से कॉल था। करण ने कुछ दूरी पर जाकर बात की। फोन पर उसकी मां थीं। उन्होंने कहा, “बेटा, तुम्हारा प्रोजेक्ट पूरा हो गया तो अब वापस आ जाओ। बहुत समय हो गया है।” करण ने हां में सिर हिलाया, लेकिन मन उलझ गया।

वापसी… ये शब्द आज पहली बार उसे बोझ की तरह लगा। जब वह दोबारा रूपसी के पास लौटा, तो उसकी मुस्कुराहट गायब थी। वो समझ गई थी कि करण को जाना होगा। और दोनों बिना कुछ कहे नदी की ओर चल दिए, जहां अक्सर उनके दिन खत्म होते थे। रूपसी ने पानी की ओर देखते हुए धीरे से कहा, “हर कहानी का अंत होता है… शायद हमारी भी।” करण उसकी ओर मुड़ा, “या फिर ये शुरुआत है, एक नई कहानी की, जिसमें दूरी होगी, पर वादा भी होगा।”

रूपसी ने उसकी आंखों में देखा। कोई आंसू नहीं, कोई शिकायत नहीं—सिर्फ खामोश धड़कनें। और उसी खामोशी में, दोनों ने उस दिन एक वादा किया—कि चाहे रास्ते अलग हों, दिल कभी जुदा नहीं होंगे।

उस रात गांव पर आसमान जैसे बोझिल हो उठा था। बादलों की परतें गहराती जा रही थीं और हवा में एक गूंजती सी बेचैनी थी। रूपसी छत की मुंडेर पर बैठी थी, उसके हाथ में करण की खींची गई तस्वीर थी—वो तस्वीर जिसमें उसकी आंखों में मुस्कान की चमक और गालों पर सूरज की रोशनी झिलमिला रही थी। तस्वीर को देखते हुए उसका मन कांप रहा था। करण कल सुबह गांव छोड़ने वाला था। यह बात अब किसी रहस्य की तरह नहीं थी, बल्कि एक कड़वा सच बन चुकी थी।

उधर करण भी चुपचाप अपने कमरे में बैठा था, कैमरा उसके बैग में पैक हो चुका था, और सभी तस्वीरें लैपटॉप में सेव थीं। लेकिन उसकी सबसे अनमोल तस्वीर कोई डिजिटल फाइल नहीं थी—वो थी रूपसी, जिसके चेहरे की हर मुस्कान उसके दिल में छप चुकी थी। करण का मन बार-बार उसे देखने को मचल रहा था, लेकिन उसने खुद को रोका। कभी-कभी बिछड़ने से पहले की मुलाकातें और भी ज़्यादा तोड़ देती हैं।

अगले दिन सुबह जैसे ही करण स्टेशन जाने के लिए निकला, बारिश शुरू हो गई। हल्की-हल्की बूँदें उसकी छतरी पर पड़ने लगीं, जैसे आसमान खुद भी उसका मन पढ़ चुका था। गांव की गलियों से गुजरते हुए हर मोड़, हर पेड़, हर दीवार उसे एक कहानी सुना रही थी। तभी मंदिर के पास उसे एक परछाईं दिखी। रूपसी… बिना छतरी, बारिश में भीगी हुई, खड़ी थी।

करण चौंक गया। “तुम यहां?” रूपसी ने बिना कुछ कहे उसकी ओर देखा, उसकी आंखों में सैकड़ों सवाल थे, लेकिन होठों पर सिर्फ एक वाक्य था, “क्या तुम लौटोगे?” करण का दिल कांप उठा। उसने उसके पास आकर कहा, “अगर तुम चाहो… तो कभी न जाने की वजह बन सकता हूं।” रूपसी ने आंखें झुका लीं, “नहीं करण, मुझे तुम्हें रोकना नहीं है। मैं बस ये जानना चाहती थी कि क्या मेरा इंतज़ार कोई मायने रखेगा?”

करण ने आगे बढ़कर उसके बालों से बारिश की बूँदें हटाईं, “हर बूँद की तरह तुम मेरी यादों में रहोगी। और एक दिन मैं लौटूंगा, जब मैं सिर्फ तस्वीरें नहीं, तुम्हारा साथ लेने आऊंगा।”

दोनों कुछ पल तक एक-दूसरे को देखे गए। बारिश अब तेज़ हो चुकी थी। फिर बिना कुछ और कहे, करण चला गया। रूपसी वहीं खड़ी रही, जब तक उसकी आंखों के सामने से वो धुंधलाता हुआ दृश्य पूरी तरह ओझल नहीं हो गया।

और उस दिन गांव की बारिश सिर्फ मौसम की नहीं थी—वो दिलों की बारिश थी, जिसमें अलविदा भी था और इंतज़ार का वादा भी।

१०

सालों बीत गए। गांव की गलियों में अब नयी ईंटों की दीवारें उग आई थीं, मंदिर के प्रांगण में बच्चों की हँसी गूंजने लगी थी, और चौपाल पर बैठने वाले कुछ चेहरे अब सिर्फ यादों में बचे थे। लेकिन कुछ चीजें वैसी ही थीं—जैसे पीपल के नीचे की पुरानी पत्थर की बेंच, या तालाब किनारे की वो छतरीदार कुर्सी, जहां कोई बैठा करता था कैमरा लिए, कुछ कैद करने की कोशिश में जिसे शब्द नहीं मिलते।

रूपसी अब स्कूल की शिक्षिका थी। उसकी आंखों में पहले जैसी चमक तो नहीं थी, लेकिन हर दिन के भीतर एक सलीके से सजा हुआ इंतज़ार था। वो अब कम बोलती थी, ज्यादा सुनती थी—शायद इसलिए क्योंकि उसका मन अब बाहर नहीं, भीतर की आवाजों से भरा था। और हर साल, मानसून के पहले दिन वो मंदिर के पास जाती थी, बारिश की पहली बूँदों को छूती थी और खुद से कहती थी, “अगर वो कभी लौटे… तो यही मौसम होगा।”

फिर एक दिन, जब पीले गुलमोहर ने फिर से खिलना शुरू किया, गांव में एक गाड़ी रुकी। उसमें से उतरा एक आदमी—थका सा, लेकिन आंखों में चमक लिए। उसके हाथ में अब कैमरा नहीं था, पर कंधे पर झोला था—भरा हुआ अनगिनत अनुभवों और यादों से। करण लौट आया था।

उसे गांव में कदम रखते ही एक सिहरन सी हुई। वही गंध, वही हवा, वही नदी की आवाज। लेकिन सबसे खास था वो चेहरा—जो मंदिर की सीढ़ियों पर बैठा था, बारिश के इंतज़ार में। रूपसी ने करण को देखा, जैसे कोई सपना कई जन्मों बाद सामने आया हो। वो खड़ी हुई, एक कदम उसकी ओर बढ़ी, फिर ठिठकी।

करण ने मुस्कुराकर कहा, “बारिश का मौसम है… लौट आने का मौसम।”

रूपसी की आंखें भर आईं, लेकिन उसके होंठों पर मुस्कान थी। वो जानती थी, कुछ इंतज़ार अधूरे नहीं होते। वो बस समय मांगते हैं—जैसे बीज को पेड़ बनने में वक्त लगता है। करण ने धीरे से उसका हाथ पकड़ा, और कहा, “अबकी बार तस्वीर नहीं… कहानी साथ लाया हूं। तुम मेरी कहानी की शुरुआत हो, और अब से अंत भी।”

उस दिन गांव की बारिश एक नई शुरुआत की गवाह बनी। मंदिर की घंटियाँ बजीं, बच्चे ताली बजाते हुए भागे, और गुलमोहर के नीचे दो लोग खड़े थे—जिनकी आंखों में अब सिर्फ यादें नहीं, भविष्य की चमक थी।

और यूँ, एक अधूरी प्रेमकथा ने अपनी सबसे खूबसूरत तस्वीर को जी लिया—जीवन के फ्रेम में, हमेशा के लिए।

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