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गढ़वाल का मेहमान

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संजीव रावत


गढ़वाल की घाटियों में शाम जल्दी उतरती है। सूरज के ढलते ही पहाड़ियों की परछाइयाँ लंबी होकर पूरी घाटी को निगल जाती हैं। नीरज रावत, अपने कंधों पर भारी बैकपैक लटकाए, एक संकरी बर्फ़ीली पगडंडी पर बढ़ रहा था। उसका मफलर बर्फ की सफ़ेद चादर में भीग चुका था और सांसें अब स्टीम की तरह बाहर निकल रही थीं। GPS सिग्नल कब का गायब हो चुका था और मोबाइल अब केवल टाइम दिखाने की मशीन बनकर रह गया था। वह अपने कैमरे से कुछ तस्वीरें लेने की कोशिश कर रहा था, लेकिन हाथ सुन्न पड़ने लगे थे। ऊपर आसमान में काले बादल एक डरावनी चुप्पी के साथ मंडरा रहे थे, मानो किसी भयंकर तूफ़ान का एलान हो। गाँव के बुज़ुर्गों ने चेताया था — “माघ के आखिरी सप्ताह में ऊँचाई पर जाना ठीक नहीं, देवता इस वक़्त सोते नहीं हैं।” लेकिन नीरज को इन बातों पर यकीन नहीं था। वह मानता था कि पहाड़ों में डर नहीं, सुकून है — पर अब, उस सन्नाटे और बर्फ की सीली गंध में, उसे लग रहा था कि शायद वह गलत था।

घड़ी ने साढ़े पाँच बजाए, और ठंडी हवा के थपेड़ों के बीच उसे एक टूटा-फूटा सा रास्ता दिखाई दिया जो बाएं मुड़ता था। बर्फ इतनी मोटी हो चुकी थी कि उसके जूते हर कदम पर धँस जाते। कुछ ही देर में वह अपने आप को पूरी तरह से अकेला महसूस करने लगा — चारों ओर बर्फ, कोहरा और एक अजीब सी नीरवता जो केवल बर्फीली पहाड़ियों में ही पाई जाती है। तभी उसे हल्की सी रोशनी झपकती दिखी — पीली, कांपती सी लौ, जैसे कोई ढिबरी जल रही हो। वह उस दिशा में बढ़ा, और कुछ ही देर में एक छोटा-सा पत्थर का घर उसके सामने प्रकट हुआ, जैसे बर्फ के पर्दे में छिपा कोई सपना। घर की छत पर बर्फ की मोटी परत जमी थी, खिड़की के शीशे पर से रोशनी टपकती हुई दिख रही थी। दरवाज़े के पास एक बुजुर्ग महिला खड़ी थी, जिसके हाथ में मिट्टी की केतली थी और चेहरे पर एक अजीब-सा अपनापन — लेकिन ठहरा हुआ, जैसे वर्षों से किसी का इंतज़ार कर रही हो। बिना कुछ कहे उसने नीरज की ओर इशारा किया और दरवाज़ा खोल दिया।

अंदर घुसते ही नीरज को गर्माहट महसूस हुई — लकड़ी की आग जल रही थी, और कोनों में पुराने बरतन, धुंधले फोटो और लकड़ी की मूर्तियाँ सजी थीं। दीवारों पर गढ़वाली कढ़ाई के परदे लटक रहे थे, और एक कोने में देवी की मूर्ति के आगे दिया जल रहा था। महिला ने चुपचाप उसे एक लकड़ी की कुर्सी दी और केतली से चाय उड़ेली — बिना एक भी सवाल पूछे। चाय का स्वाद अलग था — उसमें तुलसी, अदरक और कुछ अजीब-सा गंध था जो नीरज ने पहले कभी नहीं महसूस किया। वह थककर आंखें बंद करने ही वाला था कि तभी वह महिला धीमे स्वर में एक लोकगीत गुनगुनाने लगी। आवाज़ में कंपन था, जैसे किसी पुरानी घड़ी की टिक-टिक — नीरज को लगा जैसे वह गीत नहीं, कोई प्रार्थना है। खिड़की के बाहर बर्फ अब और तेज़ हो चुकी थी, पर उस घर के भीतर समय जैसे रुक गया था। नीरज की पलकें भारी हो रही थीं, और अंतिम दृश्य जो उसे याद रहा, वह था उस बुजुर्ग महिला का चेहरा — धुंधला, फिर भी कुछ अजीब सा जाना-पहचाना।

नीरज की आंख खुली तो उसे कुछ पल समझ ही नहीं आया कि वह कहां है। कमरे में अजीब सी नीरवता थी — आग बुझ चुकी थी, और भीतर का तापमान काफी गिर चुका था। उसकी उंगलियां ठंडी हो गई थीं, और उसे लग रहा था कि रात भर शायद तूफान ज़ोरों पर रहा होगा। उसने चारों तरफ नज़र डाली — वही लकड़ी की दीवारें, वही देवी की मूर्ति, वही धुंधले फोटो। लेकिन अब घर में वो बुजुर्ग महिला कहीं नहीं थी। खिड़की की दरारों से बर्फ की किरचें अंदर झांक रही थीं, और हर चीज़ पर ठंडी चुप्पी की परत जम चुकी थी। वह उठा, दरवाज़े की ओर बढ़ा, लेकिन बाहर सिर्फ सफेदी थी — बर्फ का एक अंतहीन समुद्र। एक पल को उसके भीतर डर की लहर दौड़ गई — क्या वो फिर से फँस गया है? लेकिन तभी उसे बाहर दरवाज़े पर ताज़े पदचिन्ह दिखाई दिए — जैसे किसी ने अभी-अभी वहाँ से गुजर कर बाहर की ओर कदम बढ़ाया हो। क्या वो दादीमाँ बाहर गई हैं? या कोई और भी है इस इलाके में?

नीरज ने घर के भीतर कुछ खाने की तलाश में नज़र दौड़ाई, लेकिन बर्तन खाली थे। अलमारी में रखे पुराने ऊनी कपड़े अब भी वहाँ थे, जैसे किसी जमाने में कोई यहाँ रहा करता हो। उसने दीवार पर टंगी एक तस्वीर को पास से देखा — उसमें वही बुजुर्ग महिला थी, लेकिन बहुत पुरानी तस्वीर थी, धुंधली और थोड़ी जल चुकी। फोटो के पीछे हल्के हाथों से लिखा था — “गोमती दाई, 1971″। नीरज का माथा ठनका। क्या उसने रात उसी गोमती दाई के साथ बिताई थी? लेकिन ये कैसे संभव हो सकता है? वह तो शायद अब जीवित भी ना हों। उसके हाथ कांपने लगे, दिल की धड़कनें तेज़ हो गईं। उसने अपना मोबाइल निकाला, फोटो खींचने की कोशिश की — लेकिन कैमरा खुलते ही खुद-ब-खुद बंद हो गया, जैसे कोई ऊर्जा उसे ऐसा करने से रोक रही हो। उसे याद आया — उसने रात में उस महिला की चाय पी थी, उनकी गुनगुनाहट सुनी थी, और वह आवाज़ अब भी उसके कानों में गूंज रही थी। “घुगुती बासूति, मैना उड़ चली…” — वही पहाड़ी लोरी, जिसे वह दिल्ली में अपने नानीघर में सुना करता था।

अचानक एक खटका हुआ — मानो पीछे कोई खड़ा हो। वह झटके से मुड़ा — लेकिन कोई नहीं था। फिर उसे लगा कि सामने की खिड़की के बाहर कोई परछाई हिली थी, बर्फ के पार से झांकती। बाहर निकलने की हिम्मत न जुटा पाने के कारण उसने खिड़की के पास जाकर झाँकने की कोशिश की, पर सफेदी के सिवा कुछ नज़र नहीं आया। तभी एक तेज़ हवा का झोंका आया और खिड़की का एक शीशा टूट गया, जिससे ठंडी बर्फ अंदर आ गिर पड़ी। अब नीरज को एहसास हुआ कि उसे यहां ज़्यादा देर नहीं रुकना चाहिए। वह बेतहाशा अपने सामान समेटने लगा। लेकिन जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला और पीछे मुड़ा — कमरे के बीच में वह ऊनी रूमाल पड़ा था, जो रात को दाई ने उसके हाथ में थमाया था। उस पर कढ़ाई से एक नाम लिखा था — “गोमती।” उसके हाथ कांपने लगे। अब वह यह तय नहीं कर पा रहा था कि जो कुछ उसने देखा, वह सपना था, भ्रम था… या फिर सच्चाई की एक ऐसी परत, जिसे शहर में पले लोगों को समझने की इजाज़त नहीं होती।

नीरज अब बर्फ़ीली पगडंडी से नीचे की ओर उतरने लगा, लेकिन हर कदम उसके भीतर उथल-पुथल मचाए जा रहा था। सूरज बादलों के पीछे से निकलने की कोशिश कर रहा था, लेकिन रौशनी बहुत फीकी थी — जैसे कि आसमान भी खुद कुछ छिपाना चाहता हो। चलते-चलते नीरज बार-बार पीछे मुड़कर उस घर की ओर देखता रहा, जो अब एक काली परछाईं की तरह पीछे छूट रहा था। बर्फ़ हर चीज़ को चुप कर देती है, लेकिन उसके भीतर एक शोर बज रहा था — उस गुनगुनाहट का, उस चाय के कड़वे-मीठे स्वाद का, उस रूमाल की कढ़ाई का। जैसे ही वह नीचे के गांव की सीमा में पहुंचा, पहली झलक में उसे ही गांव कुछ असली नहीं लगा — हर घर से धुआँ उठ रहा था, लोग अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में लगे थे, लेकिन उनके चेहरे पर एक स्थायी चिंता की लकीरें थीं, जैसे किसी को खो देने की आदत पड़ गई हो। तभी उसे एक बूढ़ा व्यक्ति दिखा, कंधे पर कुल्हाड़ी, सिर पर ऊनी टोपी और हाथ में हुक्का — वही था जिसे गांव वाले भीम सिंह कहते थे। नीरज ने खुद को समेटते हुए उनसे पूछा, “ऊपर बर्फ में एक पत्थर का पुराना घर मिला… वहाँ एक दाई थीं… शायद गोमती नाम था…”

भीम सिंह का चेहरा सुनते ही सख्त हो गया। उसने बिना कुछ कहे नीरज को एक खाली चौपाल की तरफ इशारा किया और धीरे-धीरे वहाँ बैठ गया। हवा अब भी ठंडी थी, लेकिन नीरज को लगने लगा जैसे कुछ भारी घटने वाला है। भीम सिंह ने लंबी सांस ली और कहना शुरू किया, “गोमती दाई… तूने उसका नाम कैसे जाना?” नीरज ने वह रूमाल दिखाया, और उसकी बातों को जैसे-जैसे दोहराया, गांव की हवा और गहरी होती गई। भीम सिंह ने धीमे स्वर में बताया कि गोमती दाई इस गांव की सबसे दयालु स्त्री थीं। वर्षों पहले वह अपने बेटे के साथ ऊपरी ढलान पर रहते थे — वही घर होगा जहाँ तू गया। लेकिन एक सर्द मौसम में जब उसका बेटा लकड़ियाँ लेने बाहर गया, एक भयंकर हिमस्खलन हुआ और पूरा घर उस बर्फ में दब गया। गांव वालों ने खोजा, पर कोई नहीं मिला। तब से हर साल कोई ना कोई ट्रेकर उस ओर भटकता है… और कुछ — तेरे जैसे — वापिस आता है, कुछ नहीं। उनके चेहरे पर डर नहीं था, बल्कि थकान थी — बार-बार एक ही दर्द से गुजरने की थकान।

नीरज को अब तक लगता था कि वह एक अनोखा अनुभव लेकर लौटा है, लेकिन अब उसकी बातों को सुनते हुए वह खुद एक पुरानी पहाड़ी लोककथा का पात्र लगता था। वह समझने की कोशिश करता रहा — क्या वह महिला सचमुच भूत थी? लेकिन भूत डराते हैं, वो तो सुकून दे रही थी। क्या आत्माएँ भी इंतज़ार करती हैं, चाय बनाकर रखती हैं, किसी खोए मेहमान के लौट आने की उम्मीद करती हैं? गांव के बुजुर्गों ने कहा, “बर्फ में जो दबा है, वो हमेशा खामोश नहीं रहता। पहाड़ों की आत्माएं तब तक चैन नहीं पातीं, जब तक कोई उनकी बात सुन न ले। तू सुन आया है। तू भाग्यशाली है… या शायद, अगला संदेशवाहक।” नीरज को अब पहाड़ वही नहीं लग रहे थे — वे उसके लिए अब सिर्फ सुंदर नहीं, बल्कि जीवित हो चुके थे। पहाड़ अब उसके भीतर बोलने लगे थे।

उस रात गांव में नीरज के लिए एक पुरानी कोठरी में बिस्तर लगाया गया था — पत्थर की दीवारों से बनी छोटी-सी जगह, जिसमें लकड़ी की खिड़की से ठंडी हवा अंदर आती थी और छत पर पुराने लालटेन की रोशनी झूल रही थी। वह भीतर से थका हुआ था, लेकिन नींद जैसे आंखों के पास होकर भी उसे छू नहीं रही थी। चारपाई पर लेटे हुए वह छत को देखता रहा, जिसमें लकड़ी के बीम समय की धूल ओढ़े चुपचाप पड़े थे। बाहर से कुत्तों की कभी-कभी आती आवाज़, बर्फ पर गिरती किसी चीज़ की आहट और हवा की सरसराहट — सब मिलकर एक ऐसा संगीत रच रहे थे, जो उसे सोने नहीं दे रहा था। अचानक, जब वह ऊँघते-ऊँघते एक झपकी में गया, तो सपनों ने उसके मन को जकड़ लिया — वही घर, वही धुंधली रोशनी, और गोमती दाई की आंखें — लेकिन इस बार वह युवा थीं, उनके बाल खुले हुए थे और वह चीख रही थीं, बर्फ में फंसी हुईं, किसी को पुकारती हुईं।

नीरज ने बिस्तर पर करवट बदली तो महसूस हुआ कि कमरे में कोई है। वह झटके से उठा — दरवाज़ा बंद था, लेकिन खिड़की खुल चुकी थी, और उससे आती हवा के साथ अंदर बर्फ की कुछ बूँदें आ चुकी थीं। पर सर्दी से ज़्यादा, उसे भीतर किसी की उपस्थिति ने डराया। उसे लगा जैसे किसी ने अभी-अभी उसका नाम धीरे से पुकारा हो। वह कांपते हाथों से मोबाइल की फ्लैशलाइट जलाई, लेकिन उसकी रौशनी कमरे के कोनों तक नहीं पहुँच पा रही थी। जैसे ही उसने खिड़की की ओर देखा, एक पल के लिए उसे बाहर बर्फ के धुंध में एक परछाईं दिखी — सफेद शॉल में लिपटी, बिना हिले, बस खड़ी। उसका कलेजा सर्द हो गया। वह झटपट खिड़की बंद करने गया, लेकिन बाहर कुछ नहीं था। उसकी सांसे तेज़ थीं, शरीर पसीने से भीगा हुआ और दिल एक अनकहे डर से बेकाबू।

सुबह जैसे-तैसे उजाला हुआ तो गांव की गलियों में चहल-पहल शुरू हो गई, लेकिन नीरज उस कोठरी से बाहर नहीं निकला। उसकी आंखों के नीचे काले घेरे थे, और उसके मन में बर्फ की रात अब तक अटकी हुई थी। उसने सपने को सपना मानने की कोशिश की, लेकिन जब उसने अपने बैग में से रूमाल निकालना चाहा, तो पाया कि रूमाल अब पूरी तरह सूखा और भुरभुरा हो चुका था — जैसे वह वर्षों पुराना हो, धूप और हवा से गल चुका। क्या वह केवल सपना था? या सपनों के रास्ते कुछ कहानियाँ लौटती हैं? नीरज को अब ये समझ आ रहा था कि जो कुछ भी वह अनुभव कर रहा है, वह केवल व्यक्तिगत नहीं था — यह जगह की स्मृति थी, जो समय से बाहर निकलकर उसके पास लौट आई थी। उसने गांव के बुजुर्गों से बात करने की ठानी — लेकिन अब केवल सवालों के साथ नहीं, बल्कि एक ज़िम्मेदारी के साथ — कि वह जो देख रहा है, उसे सिर्फ डर के चश्मे से नहीं, बल्कि सुनने और समझने के भाव से देखे। वह अब ‘गढ़वाल का मेहमान’ भर नहीं था — वह किसी भूली हुई आत्मा की आवाज़ बन चुका था।

अगली सुबह नीरज ने गांव के पुरातन हिस्से की ओर कदम बढ़ाए — जहां पत्थर के रास्ते अब भी काई से ढंके थे, और मकान अपनी उम्र के बोझ से झुके हुए लगते थे। हवा में धूप और लकड़ी की जलती गंध घुली हुई थी, लेकिन उसके भीतर बीती रात की परछाई अब भी जमी हुई थी। गांव के बुजुर्गों से मिली बातों और अपने अनुभवों के बीच वह अब दो दुनियाओं में बँट चुका था — एक वह जो आंखों से दिखती थी, और एक वह जो चुपचाप आत्मा में उतरती थी। चलते-चलते वह गांव के पुराने मंदिर की सीढ़ियों तक पहुंचा। वहाँ बैठे एक बुजुर्ग — जिनका नाम केवल “बाबा” कहकर पुकारा जाता था — उसे पहचानते ही बोले, “गोमती ने तुझे देखा… इसलिए तू लौटा है। सब नहीं लौटते।” यह वाक्य ऐसा था जैसे किसी ने उसकी सबसे निजी सोच को ज़ुबान दे दी हो। बाबा ने धीरे से बताया कि वो घर जहां नीरज ने रात बिताई थी, उसे पहाड़ों में ‘नरगाड़’ कहा जाता है — एक ऐसी जगह जहां समय थम जाता है और आत्माएँ उसी रूप में बनी रहती हैं, जैसे उस क्षण में जब उन्हें छोड़ा गया था।

नीरज ने जब बाबा को वह ऊनी रूमाल दिखाया, तो उन्होंने उसकी ओर देखते हुए सिर झुकाया और बोले, “यह गोमती की मां ने कढ़ाई की थी, उसका नाम छोड़ने के लिए। पहाड़ों में नाम मिट जाए, तो आत्मा भटक जाती है।” उनकी आंखों में नमी थी, और उनके शब्दों में कोई मिथक नहीं, केवल स्मृति की पीड़ा थी। उन्होंने बताया कि गोमती दाई किसी देवता की सेविका मानी जाती थीं — वह हर आने-जाने वाले को चाय पिलाती थीं, राह दिखाती थीं, और जब तूफ़ान आया, तो उनका बेटा बाहर था। गोमती ने दरवाज़ा बंद कर लिया, यह सोचकर कि वह लौटेगा — लेकिन हिमस्खलन ने सबकुछ लील लिया। कुछ लोगों ने दावा किया कि तूफान के ठीक पहले घर से एक गाना सुनाई दिया था — वही गढ़वाली लोरी जो नीरज ने भी सुनी थी। बाबा ने धीमे स्वर में गुनगुनाना शुरू किया — वही शब्द, वही लय, वही कंपन। नीरज की आंखों में आंसू आ गए। यह अब रहस्य नहीं था — यह कोई अधूरी प्रार्थना थी, जो उसके भीतर बजने लगी थी।

जब नीरज मंदिर से लौटकर गांव की पगडंडियों से नीचे जाने लगा, तो उसका बैग थोड़ा हल्का लगा, जैसे वह कुछ छोड़ आया हो — या शायद किसी की पीड़ा बांट आया हो। उसने कैमरा उठाया, लेकिन इस बार तस्वीर लेने के लिए नहीं, बल्कि लेंस को बंद करने के लिए — क्योंकि कुछ दृश्य केवल देखने के लिए नहीं, महसूस करने के लिए होते हैं। पहाड़ी धूप उसके चेहरे पर पिघल रही थी, लेकिन उसके भीतर एक दूसरी आग जल रही थी — अनुभव की, और उस अंधेरे की जो उजाले में ही दिखाई देता है। वह जानता था कि दिल्ली लौटकर वह इस अनुभव को शब्दों में नहीं बांध पाएगा, क्योंकि यह कहानी सिर्फ डर की नहीं थी — यह प्रतीक्षा की थी, परछाई की थी, और उन आत्माओं की थी जो अपने नाम को जीवित रखने के लिए चाय के प्याले और लोरी के बोल के सहारे लौटती हैं। नीरज अब उस मेहमान की भूमिका से आगे बढ़ चुका था — वह अब पहाड़ की उस भूली हुई आवाज़ का वाहक बन चुका था।

नीरज को लगा जैसे रात और भी भारी हो गई थी। अब कमरे की दीवारें पहले जैसी शांत नहीं थीं, उनमें से कुछ धीरे-धीरे धड़कती-सी आवाज़ें निकल रही थीं — जैसे लकड़ी सांस ले रही हो। वह जानता था कि यह महज़ थकान या डर की उपज हो सकती है, पर अब उसके दिल में यह सवाल घर कर गया था कि जिस घर में वह रुका है, वह असल में अस्तित्व में है भी या नहीं। चाय की प्याली अब भी मेज़ पर थी, लेकिन वह ठंडी हो चुकी थी, उस पर पड़ी हल्की परतों से लगता था जैसे उसे किसी और युग में बनाया गया हो। बाहर बर्फ़ अब भी गिर रही थी, लेकिन वह अब शांत और स्याह थी — जैसे आसमान खुद भी थक गया हो। उसने कंबल को और कस कर लपेट लिया, पर जिस गहराई से उस पर डर चढ़ रहा था, उसका इलाज ऊन या आग से नहीं हो सकता था। तभी, घर के पिछवाड़े से धीमे-धीमे कराहने जैसी एक आवाज़ आई — मानो कोई ज़मीन के नीचे से किसी खोई चीज़ को पुकार रहा हो। नीरज ने साहस कर खिड़की से झाँका, पर वहाँ कोई न था। फिर भी आवाज़ें रुकने का नाम नहीं ले रही थीं, और उनकी दिशा अब भीतर की सीढ़ियों की ओर बढ़ रही थी।

वह जानता था कि उसने इस घर में ऊपर की ओर जाने वाली कोई सीढ़ी नहीं देखी थी, लेकिन अब — जैसे कोई भूल सुधार हो रही हो — कोने में लकड़ी की एक संकरी सीढ़ी दिखाई देने लगी थी जो ऊपर के अंधेरे में विलीन हो रही थी। यह सीढ़ी पहले नहीं थी, इस बात का उसे पूरा विश्वास था। लेकिन अब वह वहाँ थी — शांति और डर का मिलाजुला रूप बनकर। नीरज का गला सूख गया था, लेकिन किसी अदृश्य ताकत ने उसके कदमों को जकड़ लिया था। वह आगे बढ़ा, क़दमों की आहट खुद ही उसके कानों में धमाके जैसी लग रही थी। सीढ़ियाँ चरमराईं, लेकिन टूटी नहीं — जैसे उन्होंने भी उसे आने की इजाज़त दे दी हो। ऊपर पहुँचते ही उसने देखा कि यह एक छोटा सा अटारीनुमा कमरा था, धूल और जालों से भरा हुआ, लेकिन उसके एक कोने में लकड़ी की पुरानी संदूक पड़ी थी। संदूक की सतह पर उकेरे गए कुछ पहाड़ी चिन्ह थे, जिनका अर्थ वह नहीं जानता था, लेकिन उनमें कुछ बेहद पुराना और असली छिपा था। वह संदूक के पास गया, और जैसे ही उसने उसे छुआ, पूरे कमरे में हवा का एक चक्र सा बन गया — जैसे कोई पुरानी आत्मा जाग गई हो।

संदूक खुला, और अंदर से जो निकला, वह सिर्फ़ पुराना ऊनी कपड़ा या चिट्ठियाँ नहीं थीं — वहाँ एक पुरानी तस्वीर थी, जिसमें एक जवान औरत खड़ी थी, हूबहू वही चेहरा, जिसे उसने नीचे चाय देती महिला में देखा था। लेकिन यह तस्वीर कम से कम 70–80 साल पुरानी लग रही थी। उसके हाथ काँप उठे — यह कैसे संभव है? क्या वह महिला, जिसे वह देख रहा था, मर चुकी है? क्या वह आत्मा थी? तभी कमरे में बर्फ़ीली हवा की एक तेज़ लहर आई और उस तस्वीर को हवा में उड़ा ले गई। नीरज झपका, लेकिन तस्वीर अब ग़ायब थी। कमरे की हवा भारी और सघन हो गई थी — जैसे कोई अदृश्य उपस्थिति उसे देख रही हो, उसकी हर साँस गिन रही हो। और फिर, अचानक, उसे सीढ़ियों के नीचे से किसी के धीमे कदमों की आहट सुनाई दी — कोई ऊपर आ रहा था।

बर्फ अब पहले से भी ज़्यादा तेज़ गिर रही थी, हवा की सनसनाहट जैसे पहाड़ों पर कोई अदृश्य जीव घूम रहा हो—कभी सरसराहट, कभी फुसफुसाहट, कभी ठंडी कराह। नीरज अब उस घर में कैद-सा हो गया था, लेकिन उसे यह कैद किसी कारावास की तरह नहीं बल्कि किसी पहेली की तरह लग रही थी, जैसे ये चार दीवारें उससे कुछ कह रही हों, पर वह समझ नहीं पा रहा हो। बुज़ुर्ग महिला अब कम ही दिखती थीं, लेकिन उनके पदचाप, छांव, और भुनभुनाहटें हवाओं में घुली रहतीं। उस दिन शाम को नीरज ने पहली बार उन पुराने दराजों में से एक लकड़ी का डिब्बा निकाला—जिस पर महीन बर्फ जम गई थी, जैसे वह वर्षों से वहीं पड़ा हो। खोलने पर उसमें कुछ धागों से बंधे पुराने कागज़ मिले—जैसे किसी पुजारी की तांत्रिक पुस्तक हो, या फिर किसी अनजाने रिवाज़ की जानकारी। एक नाम बार-बार उभरा—”काली सैर”—जिसका अर्थ वह नहीं समझ सका, लेकिन उसका दोहराव उस पर एक रहस्यमयी असर डाल गया। बाहर हवा में एक विकृत-सी सीटी सुनाई दी—मानो कोई बच्चे को बुला रहा हो। नीरज खिड़की तक गया, लेकिन सामने बस बर्फ की दीवार थी। उस अजीब सीटी की दिशा उस टूटे मंदिर की तरफ से आ रही थी, जहाँ वह पहले गया था। उसकी आँखों में अब संदेह, जिज्ञासा और डर का मिश्रण था—क्या सब कुछ उसके दिमाग का ही खेल था?

नींद उसे अब टुकड़ों में ही आती थी। उस रात एक सपने ने उसे जगा दिया—एक बच्चा, जिसकी आँखें नहीं थीं, बस गहरी काली जगहें, वह उसे उसी घर में घसीटता हुआ किसी बंद दरवाज़े की ओर ले जा रहा था। सपना टूटा तो पाया कि वह वाकई ज़मीन पर था, दरवाज़े की ओर घसीटते हुए, नाखूनों के निशान ज़मीन पर बने थे। वह चौंक कर उठा, और कमरे की दीवार पर देखा—वहीं ताजे खरोंचों के निशान, और एक बेहद हल्की फुसफुसाहट, मानो कोई उसे “नीरज” कह कर पुकार रहा हो। उसने दरवाज़ा खोला, लेकिन वहां बस सन्नाटा था। अगली सुबह, वह पूरी हिम्मत बटोर कर मंदिर की ओर चल पड़ा, इस बार बर्फ कम थी, पर हवा उतनी ही कटार जैसी। मंदिर की टूटी दीवारों के पीछे उसे फिर वही किताब जैसा कुछ मिला—इस बार उसमें एक फीका, धुंधला चित्र था—उस महिला जैसा चेहरा, लेकिन युवावस्था में, और बगल में वही बच्चा—बिना आँखों के। नीचे लिखा था: “भैरव-निशा, 1949″। नीरज का सिर घूमने लगा। ये सब यथार्थ है या उसने अपने अकेलेपन में एक कथा गढ़ ली है?

शाम को लौटते वक़्त उसे गाँव की दिशा में एक लालटेन की हल्की रोशनी दिखी—वह भागा, पुकारा, लेकिन कोई उत्तर नहीं। जब वह वहाँ पहुँचा, तो कुछ नहीं था, सिर्फ़ ज़मीन पर ताज़ा जले हुए दीपक की राख। उसके पीछे से किसी ने आहिस्ता से उसका नाम पुकारा—”नीरज…” वह मुड़ा, लेकिन वहाँ कोई नहीं था। तभी, उसने पहली बार महसूस किया कि यह घर अब उसका स्वागत नहीं कर रहा। फर्श में कंपन था, दीवारों में एक भरी-भरी सी खामोशी थी, जैसे वो उसके अंदर उतर रही हो। बुज़ुर्ग महिला अब दिन में भी नहीं दिखती थीं, पर चाय का कप रोज़ मेज़ पर रख दिया जाता। उस रात दरवाज़े की दरारों से काला पानी रिसता दिखा, जैसे पहाड़ के अंदर से कोई चीज़ पिघल कर बह रही हो। उसने किताब में एक और पंक्ति पढ़ी: “जो बर्फ में दिखे, वह सच नहीं, जो बर्फ में छिपे, वही असल है।”

नीरज अब इस रहस्य में पूरी तरह उलझ चुका था, जैसे ये पहाड़ उसका अतीत जानते हों, जैसे उसकी आत्मा इस बर्फ़ीले घर से जुड़ी हो। उसकी सोचने की शक्ति शून्य होने लगी थी, हर खटका, हर सरसराहट उसे सीधे उसकी नसों में महसूस होती थी। जब वह अगली बार आईने में झाँका, तो उसे अपने पीछे कोई खड़ा दिखा—शायद वही बच्चा, लेकिन इस बार उसकी आँखें थीं—बिलकुल वैसी ही जैसी नीरज की थीं।

नीरज रावत के सामने जो दृश्य था, वह किसी जीवित स्वप्न की भाँति प्रतीत हो रहा था। वह घाटी, जिसके किनारे-किनारे बर्फीली चट्टानें थीं, अचानक किसी रहस्यमयी आकर्षण से सजीव हो उठी थी। हवा में झनझनाती सी आवाज़ें, जो पहले कानों को भ्रम लगती थीं, अब स्पष्ट होने लगी थीं — जैसे किसी पुरानी बोली में कुछ दोहराया जा रहा हो, बार-बार। नीरज ने अपने कैमरे से एक तस्वीर लेनी चाही, पर जैसे ही उसने शटर दबाया, स्क्रीन पर एक पल के लिए वह बुज़ुर्ग महिला दिखाई दी, जो उस टूटी-फूटी झोपड़ी में उसे चाय देती थी। लेकिन जैसे ही वह पुनः स्क्रीन पर देखता, छवि गायब हो जाती। उसकी साँसें तेज़ हो चुकी थीं, और हाथ काँपने लगे थे। वह जानता था कि यह सिर्फ डर नहीं है, बल्कि कुछ ऐसा है जो इस दुनिया की हदों से परे है। घाटी के भीतर बर्फ की परतें चटक रही थीं, जैसे ज़मीन के नीचे कुछ हिल रहा हो। उसने अपने चारों ओर देखा — वह अकेला नहीं था। पर जो वहाँ थे, वे लोग नहीं लगते थे। सफेद धुँध में से कुछ आकृतियाँ धीरे-धीरे उभर रही थीं, लंबे और लहराते हुए शरीर, चेहरे अस्पष्ट और आँखें शून्य में टिकी हुईं। नीरज को ऐसा लगा जैसे यह घाटी कोई दरवाज़ा है, जो जीवित और मृत के बीच की सीमाओं को मिटा रही है।

हिम्मत जुटाकर वह घाटी के उस ओर जाने लगा, जहाँ से वह ध्वनि आ रही थी — गहरी, डूबी हुई और अवचेतन को झकझोरने वाली। उस आवाज़ में कोई गीत नहीं था, कोई मंत्र नहीं, बल्कि एक पुकार थी — ऐसी पुकार जो आत्मा को भीतर तक गूंजती हुई लगती थी। वह चला, हर कदम के साथ उसकी चेतना धुँधलाती जा रही थी। उसकी आँखें अब पूरी तरह खुली नहीं थीं, फिर भी वह देख सकता था — जैसे कोई और देख रहा हो उसके ज़रिए। एक झील के किनारे पहुँचकर वह रुक गया। झील जम चुकी थी, पर उसमें जीवन की सी हरकत थी — जैसे किसी ने भीतर से दस्तक दी हो। और तभी वह फिर से दिखी — वही बुज़ुर्ग महिला, ठीक सामने। इस बार वह धुँधली नहीं थी, बल्कि सजीव, तेज नज़र और क्रोध से भरी हुई। उसने नीरज की ओर देखा, जैसे कोई गहरे अपराध को पहचान रहा हो। “तू फिर से आया?” उसकी आवाज़ हवा में गूंज उठी। नीरज पीछे हटना चाहता था, पर उसके पाँव मानो ज़मीन से चिपक चुके थे। महिला की आँखों में कोई पुरानी ज्वाला थी — जैसे वह किसी व्रत या प्रतिशोध को पूरा करने आई हो। हवा तेज़ हो गई, झील के भीतर से एक लाल सा प्रकाश बाहर निकलने लगा, और वह आकृति धीरे-धीरे उसी रोशनी में समा गई। नीरज घबरा गया। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह ज़िंदा है या किसी और लोक की यात्रा में।

जब नीरज की चेतना लौटी, वह एक चट्टान के किनारे लेटा हुआ था। उसके कपड़े गीले और बर्फ से ढके थे, पर उसके शरीर पर कोई चोट नहीं थी। घाटी फिर से शांत थी, जैसे वहाँ कुछ हुआ ही न हो। वह धीरे-धीरे उठा और चारों ओर देखा — न कोई बुज़ुर्ग महिला, न कोई आकृति, न लाल रोशनी। पर उसके कैमरे में उस रात की सभी तस्वीरें थीं, और उनमें एक तस्वीर ऐसी थी, जिसमें झील के ऊपर एक आकृति हवा में तैरती हुई दिख रही थी — साफ़, निर्भीक और अनदेखी। वह तस्वीर सबूत थी, पर किसके लिए? कौन विश्वास करेगा कि गढ़वाल की इस घाटी में समय कभी रुक जाता है, और परछाइयाँ अपना इतिहास दोहराती हैं? नीरज अब जान चुका था कि उसका सफर सिर्फ एक ट्रेक नहीं था, बल्कि उसे चुना गया था — शायद किसी पुराने ऋण को चुकाने के लिए, या किसी कहानी को पूरा करने के लिए जो अधूरी रह गई थी।

नीरज रावत की आँखों में रात की छाया अब स्थायी होती जा रही थी। उसने बूढ़ी औरत के धुंधले चेहरे को फिर से देखा—वह अब केवल याद नहीं थी, वह अब सवाल बन चुकी थी। अगली सुबह गाँव लौटकर उसने फैसला किया कि वह उस प्राचीन घर के रहस्य को पूरी तरह सुलझाए बिना नहीं जाएगा। बर्फ अब पिघलने लगी थी, पर नीरज के भीतर की ठंड और गहराती जा रही थी। उसने गाँव के मंदिर के पुजारी पंडित गोविंद दत्त से मिलने का निर्णय लिया, जो वर्षों से गाँव की कहानियों और परंपराओं के संरक्षक रहे थे। मंदिर की घंटियों की गूंज के बीच पंडित जी ने नीरज की आंखों की बेचैनी को पढ़ लिया। जब नीरज ने उस बूढ़ी औरत और पुराने मकान की बात की, तो पंडित जी का चेहरा पल भर को सफेद पड़ गया। उन्होंने चुपचाप मंदिर के पुराने कमरे में उसे बैठाया और एक धूल भरी संदूक से एक किताब निकाली—गढ़वाली पुराख्यान, जिसमें सैकड़ों साल पुराने लोक-कथाएँ दर्ज थीं। एक अध्याय में ‘जसुला बुआ’ का ज़िक्र था, जो एक अकेली औरत थी, जिसने 1918 की महामारी के दौरान गाँव के दर्जनों लोगों को अपनी झोपड़ी में आश्रय देकर बचाया था। लेकिन जब बाकी गाँव वालों को लगा कि उसने अंधविश्वास और टोने-टोटके से लोगों को मारा, तो उन्होंने उसकी झोपड़ी को आग लगा दी। वह औरत उसी आग में मारी गई। मगर कहानी यह कहती है कि हर साल बर्फबारी के मौसम में, जब कोई अजनबी रास्ता भटकता है, तो जसुला बुआ की आत्मा उसे अपनी चाय और गर्माहट से शरण देती है।

नीरज की सांसें रुक-सी गईं। पंडित जी ने कहा, “बेटा, जिस घर में तू गया, वो जसुला बुआ की आखिरी झोपड़ी थी। दशकों पहले ध्वस्त हो चुकी है। पर तू भाग्यशाली है कि तू जिंदा लौटा।” यह सुनते ही नीरज को याद आया कि जब उसने उस रात बूढ़ी औरत की रसोई में गर्म रोटी खाई थी, वहाँ कोई लकड़ी का चूल्हा नहीं जल रहा था। कोई धुआँ नहीं था, कोई ताप नहीं था—फिर भी वहाँ गर्माहट थी। उसे अपने गले में लटकती रुद्राक्ष की माला याद आई, जो उसकी दादी ने दी थी और शायद उसी ने उसे उस आत्मा की छाया से बचाया। मगर यह जानकर भी उसकी बेचैनी कम नहीं हुई। वह जसुला बुआ की आत्मा के पास क्यों गया? क्या इसलिए कि वह मदद माँग रही थी? या इसलिए कि वह कोई संदेश देना चाहती थी? नींद अब नीरज से कोसों दूर थी। रात को उसने जसुला बुआ के नाम एक चिट्ठी लिखी—”आपकी चाय में जो सच्चाई थी, वह अब मेरी आत्मा में बस गई है। मैं आपका कर्ज़ी हूँ।”

सुबह होते ही उसने तय किया कि वह जसुला बुआ की स्मृति में उस जगह एक पत्थर का छोटा स्मारक बनाएगा, ताकि जो भी अगला पथिक उस रास्ते से गुज़रे, उसे यह पता चले कि वहाँ कोई था—जो इंसानियत से भरा था, जो अब भी राह दिखाता है। वह एक पत्थर पर खुद अपने हाथों से उकेरेगा—”यहाँ जसुला बुआ ने अजनबियों को अपनापन दिया।” गाँव वाले पहले विरोध करेंगे, पर जब नीरज यह बताएगा कि वह आत्मा अब भी पहाड़ की किसी खामोश साँझ में चाय का प्याला लिए किसी राही की प्रतीक्षा करती है, तब शायद उनकी आस्था डर पर भारी पड़ेगी। नीरज जानता था, वह अब एक यात्रा से लौट चुका था, लेकिन उसका मन वहीं कहीं अटका था—पुराने पन्नों की खामोश कहानियों में, जो कभी सुनी नहीं गईं, मगर अब फिर से बोलने लगी थीं।

१०

बर्फ की चादर धीरे-धीरे पिघल रही थी, लेकिन गांव के ऊपर जैसे किसी और ही वक़्त की परछाई पड़ी थी। नीरज, जो अब तक खुद को महज़ एक ट्रेकर समझता था, अब एक ऐसे राज़ का साक्षी बन चुका था जिसे वर्षों तक मिट्टी में दबा दिया गया था। उस रात बुजुर्ग महिला के घर से भागने के बाद, उसने गांव के प्राचीन मंदिर की शरण ली थी — एक टूटी फूटी सीढ़ियों वाला, धूप से रंग उड़ा मंदिर, जहाँ घंटियों की आवाज़ भी सदी पुरानी लगती थी। वहीं उसे एक बुजुर्ग पुजारी मिले जिन्होंने नीरज को चुपचाप अंदर बुलाया और बिना कोई सवाल किए एक पुराने संदूक से एक दस्तावेज़ निकाला। दस्तावेज़ में उस महिला का नाम — गौरा देवी — लिखा था, और नीचे तारीख: 12 जनवरी 1958 — “प्रलय की रात।” यह वही तारीख थी जब गांव में हिमस्खलन हुआ था और गौरा देवी का घर समेत कई जानें दफ़न हो गई थीं। पर सवाल ये था कि जो महिला नीरज ने चाय पिलाई, बात की — वो कौन थी?

नीरज का मन अजीब सी बेचैनी से भरा था। उसने पुजारी से पूछा कि क्या कभी किसी और ने भी गौरा देवी को देखा है। पुजारी ने नज़रें झुका लीं और धीरे से कहा, “कभी-कभी जो आत्माएं अधूरी रहती हैं, वो अपना दरवाज़ा बंद नहीं करतीं। उन्हें लगता है कोई फिर लौटेगा — या कोई फिर समझेगा।” इसी के साथ पुजारी ने नीरज को एक आखिरी चेतावनी दी — “अगर उस घर को फिर देखोगे, तो वापस आना मुश्किल हो जाएगा।” पर नीरज अब ठान चुका था — वह उस जगह लौटेगा, लेकिन इस बार डर के लिए नहीं, बल्कि सच्चाई के लिए। वह वापस उसी ढहे हुए घर की ओर बढ़ा। रास्ते में अब बर्फ कम थी, लेकिन हवा में कुछ घुला था — जैसे राख का धुंआ। जिस जगह कभी गौरा देवी का घर था, अब वहाँ केवल जले हुए लकड़ी के टुकड़े थे, और एक टूटी हुई चाय की केतली। नीरज ने वो केतली उठाई — उस पर उंगलियों के हल्के निशान थे, जैसे अभी किसी ने उसे छुआ हो। और तभी, हवाओं में एक मद्धिम सी आवाज़ आई — “अब तू जान गया है, नीरज। अब तू भी यहीं रहेगा।”

उसके बाद क्या हुआ — कोई नहीं जानता। जब रेस्क्यू टीम पहुँची, तो नीरज का बैग मंदिर के पास मिला, लेकिन वह खुद कहीं नहीं था। गांव के लोग कहते हैं कि जब भी कोई ट्रेकर बर्फीली रातों में रास्ता भटकता है, उसे एक घर की रौशनी दिखती है और एक बुज़ुर्ग औरत चाय के लिए बुलाती है। और अगली सुबह — वहाँ कुछ भी नहीं होता, सिर्फ राख और एक अधखाली केतली। गढ़वाल के उस गांव में अब भी लोग शाम ढलते ही दरवाज़े बंद कर लेते हैं, और नयी रौशनी वाले ट्रेकरों को यही सलाह देते हैं — “अगर कोई बूढ़ी औरत चाय के लिए बुलाए… तो इनकार कर देना, क्योंकि हर मेहमान सौभाग्य नहीं होता।”

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