Hindi - क्राइम कहानियाँ

खेत में खून

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प्रिया त्रिपाठी


सुबह का वक्त था और गाँव में धुंध की हल्की परत अब भी खेतों के ऊपर तैर रही थी। प्रिया यादव, जो छुट्टियों में अपने घर लौटी थी, माँ के कहने पर मंदिर जा रही थी। रास्ते में उसे कुछ गड़बड़ महसूस हुई—गाँव के सबसे बड़े सरसों के खेत की मेड़ पर कुछ लोग भीड़ लगाकर खड़े थे, फुसफुसाते हुए बात कर रहे थे, मानो कोई बड़ा अनर्थ हो गया हो। प्रिया पास पहुँची तो उसकी आँखें ठिठक गईं: अर्जुन सिंह, गाँव के सबसे प्रतिष्ठित नेता और भावी उम्मीदवार, का शव खेत की गीली मिट्टी पर पड़ा था। उनकी कमीज़ लहूलुहान थी, चेहरा शांत मगर जड़ हो चुका था। प्रिया को कुछ पल के लिए कुछ समझ नहीं आया; चारों ओर सन्नाटा, सिर्फ़ सरसों के फूलों से आती भीनी खुशबू और खेत की मिट्टी से उठती ठंडी भाप। कुछ औरतें दबी आवाज़ में रो रही थीं, बूढ़े हरपाल सिंह अपनी लकड़ी की लाठी पर झुके हुए सिर हिला रहे थे और पुलिस के आने का इंतज़ार कर रहे थे। तभी खेत के किनारे पुलिस जीप रुकी, जिससे इंस्पेक्टर राजवीर चौहान उतरे—मजबूत कद-काठी वाला, आँखों में सख़्ती लिए हुए। उन्होंने भीड़ को हटाया और खेत के चारों ओर रस्सी बंधवाई। प्रिया के दिल में सवालों की एक लहर उठी—यह हत्या क्यों हुई? चुनाव से ठीक पहले क्यों? क्या यह वही जातीय हिंसा थी, जिसकी गाँव में लंबे समय से फुसफुसाहट थी, या कुछ और? मगर उससे पहले कि वह किसी से पूछती, राजवीर की आवाज़ गूंज उठी, “कोई इधर-उधर न जाए, सब यहीं रुकें!” प्रिया वहीं ठिठक कर खड़ी रही, उसकी नज़र अर्जुन सिंह के चेहरे पर टिक गई—एक चेहरा, जिसने बचपन से गाँव की पंचायतों में न्याय की बातें की थीं और जिसने गाँव के लिए कई बार प्रशासन से लड़ाई भी लड़ी थी।

जैसे-जैसे सूरज ऊपर चढ़ा, भीड़ बढ़ती गई, और इंस्पेक्टर राजवीर चौहान की तहकीकात भी। उन्होंने अर्जुन सिंह के मोबाइल, जेब और खेत के आसपास के निशानों को ध्यान से देखा और कुछ सिपाहियों को खेत के दूसरे सिरे की तरफ भेजा। मगर प्रिया की निगाहें कुछ और देख रही थीं—खेत की मेड़ पर मिट्टी में आधा ढँका हुआ एक छोटा सा सफेद कपड़े का टुकड़ा, जिस पर धूल और शायद खून के हल्के छींटे थे। वह कुछ कहना चाहती थी, पर पुलिस के डर से चुप रही। तभी उसकी नज़र पास के पगडंडी पर पड़े कुछ ताज़ा पैरों के निशानों पर पड़ी—मानो कोई रात को जल्दबाज़ी में खेत से भागा हो। प्रिया की दिलचस्पी बढ़ती गई, उसके दिमाग में कॉलेज की क्रिमिनल लॉ की पढ़ाई से जुड़े सबक़ घूमने लगे। अचानक उसके बचपन का दोस्त विकास ठाकुर भी वहाँ आ पहुँचा; साँस फूल रही थी, चेहरे पर घबराहट थी। उसने धीरे से पूछा, “प्रिया, तू ठीक है? ये कैसे हुआ?” प्रिया ने बस सिर हिलाया, मगर उसकी आँखों में सवाल और जिज्ञासा की चमक विकास से छुप न सकी। तभी गाँव की कुछ औरतें धीरे-धीरे कहने लगीं, “कहते हैं जात वालों का झगड़ा था, तभी मारा गया बेचारा।” मगर प्रिया के मन में यह थ्योरी पूरी नहीं बैठ रही थी; अर्जुन सिंह तो हमेशा जातीय तनाव को शांत करने की कोशिश करते थे, फिर उनकी हत्या ऐसे क्यों होती? और क्यों चुनाव से ठीक पहले?

***

सुबह होते ही गाँव की गलियों में हलचल बढ़ गई। हर घर में अर्जुन सिंह की हत्या की चर्चा थी—कोई कहता ये चुनाव की साज़िश है, तो कोई जातीय बदला बता रहा था। मगर प्रिया यादव की आँखों में इन कहानियों से ज़्यादा कुछ ठहरा हुआ था: पिछली शाम खेत की मेड़ पर दिखा वो सफेद कपड़े का टुकड़ा, मिट्टी में ताज़े पैरों के निशान और अर्जुन सिंह के चेहरे की वो जड़ी हुई उदासी। उसने तय किया कि वह बस बातें सुनकर नहीं रुकेगी, बल्कि खुद जाकर सच्चाई के टुकड़े जोड़ेगी। कॉलेज में सीखी लॉ की किताबों के पन्ने जैसे दिल और दिमाग में खुलने लगे—सबूत, गवाह, मकसद। माँ सुनीता ने उसे टोका, “बिटिया, इन चक्करों में मत पड़, ज़माना बुरा है।” मगर प्रिया के लिए ये सिर्फ़ किसी का मर्डर केस नहीं था, बल्कि अपने गाँव का सच जानने की ज़िद थी। सुबह की पहली किरण के साथ वह घर से निकली, सबसे पहले अर्जुन सिंह के पुराने दोस्त और सहयोगी, बूढ़े हरपाल सिंह के दरवाज़े पर पहुँची। हरपाल सिंह गाँव की पंचायत में वर्षों तक बैठे थे; उनके झुर्रियों वाले चेहरे पर समय की कहानियाँ लिखी थीं। प्रिया ने धीमे से पूछा, “चाचा, आपको क्या लगता है, किसने मारा अर्जुन चाचा को?” हरपाल सिंह ने एक लंबी साँस ली, जैसे पुरानी यादों के भार को सीने में उतार रहे हों, और कहा, “बिटिया, अर्जुन कई सालों से बहुत कुछ बदलना चाह रहे थे, कुछ लोग खुश नहीं थे… पर जात के नाम पर ये सब इतना सीधा नहीं है।”

प्रिया के मन में एक और नाम गूंजा—विकास ठाकुर। बचपन का दोस्त, जो कल खेत पर सबसे बाद में पहुँचा था, और जिसके चेहरे पर डर की लकीरें अब भी साफ़ थीं। वह सीधा उसके पास पहुँची, जहाँ विकास खेत में काम कर रहा था। “तू कल देर से क्यों पहुँचा था?” उसने बिना भूमिका के पूछा। विकास हड़बड़ा गया, मिट्टी से भरी हथेली झाड़ते हुए बोला, “मैं… मैं तो बस किसी काम से शहर की तरफ गया था, और आते ही पता चला।” उसकी आवाज़ में झिझक थी, जो प्रिया की नज़र से बच नहीं पाई। मगर विकास के डर के पीछे प्रिया को कोई गहरी साज़िश नहीं दिखी—जैसे वो भी किसी बड़े डर से दबा हो। तभी गाँव में चर्चा शुरू हो गई कि पुलिस इंस्पेक्टर राजवीर चौहान ने अर्जुन सिंह के परिवार से भी सवाल-जवाब शुरू कर दिया है और जल्दी ही किसी को गिरफ़्तार कर सकता है। प्रिया ने ठान लिया कि उससे भी बात करनी होगी, चाहे पुलिस कितना भी सख़्त हो। शाम को प्रिया थाने पहुँची, जहाँ राजवीर चौहान अपने काग़ज़ों में सिर गड़ाए बैठे थे। उसने धीमे से कहा, “सर, मुझे लगता है अर्जुन चाचा की हत्या जातीय वजह से नहीं हुई।” राजवीर ने आँख उठाकर उसे देखा, थोड़ी बेरुख़ी और हैरानी के साथ, “कानून की किताबें पढ़ने से केस सुलझते नहीं, लड़की। गाँव में चुनाव से ठीक पहले हत्या का मतलब साफ़ है—डर फैलाना।” मगर प्रिया पीछे नहीं हटी, “पर सर, अगर मकसद कुछ और हुआ तो? क्या किसी ने अर्जुन चाचा का पुराना रेकॉर्ड देखा?” राजवीर कुछ पलों के लिए चुप रहे, फिर बोले, “तू अपने घर जा, ये पुलिस का काम है।”

उस रात प्रिया अपने कमरे में लेटी, तो मन में सवालों की भीड़ लग गई—अर्जुन सिंह किसे बदलने की कोशिश कर रहे थे? किसके लिए वो खतरा थे? डायरी में क्या लिखा होगा, जो सबको नहीं पता? तभी उसे याद आया अर्जुन सिंह का पुराना कमरा, जहाँ वो अक्सर बैठते थे; शायद वहाँ कुछ मिल जाए। चाँदनी में उसकी परछाईं जैसे उसकी अपनी हिम्मत का साथ दे रही थी। प्रिया ने खुद से वादा किया: सच चाहे जितना भी गहरा क्यों न हो, वह उस तक ज़रूर पहुँचेगी। और खेत में बही उस पहली खून की बूँद से सच्चाई की फसल बोने का वक्त आ गया था।

***

सुबह की पहली रोशनी के साथ प्रिया ने तय किया कि वह सीधे अर्जुन सिंह के घर जाएगी, वहाँ जहाँ वे अक्सर अपनी पुरानी फाइलें और डायरी रखते थे। अर्जुन सिंह का कमरा गाँव के बाकी घरों जैसा सादा था—मिट्टी की दीवारें, लकड़ी की अलमारी, खिड़की के पास एक पुरानी चौकी और उसी पर रखी अर्जुन सिंह की डायरी, जिसे देखकर प्रिया की साँस कुछ पल को थम गई। प्रिया ने धड़कते दिल से डायरी के पन्ने पलटना शुरू किया—कुछ पन्नों पर गाँव के हालात, कुछ में पुराने फैसलों की टीस और कुछ में अधूरे वाक्य थे, जैसे: “जिस सच्चाई को दबा रखा है, वही सबसे बड़ा खतरा है…” प्रिया को लगा जैसे कोई कहानी बीच में अधूरी छूट गई हो, मगर इतना ज़रूर समझ आ रहा था कि अर्जुन सिंह सिर्फ़ जातीय राजनीति से नहीं, बल्कि गाँव के किसी गहरे राज़ से जूझ रहे थे। तभी दरवाज़े पर कदमों की आहट हुई, और प्रिया ने घबरा कर डायरी को अपनी दुपट्टे में छुपा लिया। सामने इंस्पेक्टर राजवीर चौहान खड़ा था, उसकी आँखों में सख़्ती और शक दोनों थे।

राजवीर की गहरी आवाज़ गूंजी, “तुम फिर यहाँ? पुलिस की जाँच में दखल देने का शौक है?” प्रिया ने धीरे से मगर हिम्मत के साथ जवाब दिया, “मुझे सच जानना है, सर। अर्जुन चाचा की डायरी में कुछ ऐसा है जो दिखाता है कि उनका कत्ल सिर्फ़ जातीय वजह से नहीं हुआ।” राजवीर ने उसकी तरफ देखा, जैसे पहली बार उसकी जिद को गंभीरता से ले रहा हो। मगर अगले ही पल उसका चेहरा फिर सख़्त हो गया, “ये पुलिस का काम है, किताबों से कानून पढ़ने से जाँच नहीं होती।” प्रिया ने डायरी के कुछ हिस्से उसे दिखाने चाहे, मगर वह बिना देखे पलट गया। “तुम अपने घर जाओ, अगली बार सबूत छुपाने की कोशिश की तो केस बिगड़ भी सकता है,” कहकर वह लौट गया, मगर जाते-जाते उसकी चाल में भी एक हल्की हिचक दिखी, जैसे प्रिया की बात ने कहीं न कहीं उसकी सोच को छुआ हो।

प्रिया के दिल में एक अजीब सी कश्मकश शुरू हो गई—क्या वह पुलिस की बात माने और रुक जाए, या अपने सवालों की राह पर और आगे बढ़े? शाम को वह खेत के उसी किनारे पहुँची, जहाँ से पैरों के निशान मिले थे। मिट्टी अब सूख चुकी थी, मगर कुछ गहरे निशान अब भी दिख रहे थे, जो खेत से गाँव की पगडंडी की तरफ जाते थे। तभी विकास ठाकुर अचानक उसके पास आ गया, “प्रिया, तू सच में जान के लिए खतरा मोल ले रही है, छोड़ दे ये सब।” प्रिया ने उसकी आँखों में देखा, “अगर मैं छोड़ दूँ, तो सच कभी सामने नहीं आएगा।” विकास कुछ कहना चाहता था, मगर शब्द जैसे गले में अटक गए। प्रिया जानती थी कि विकास डरता है, मगर वह भी जानता है कि प्रिया की जिद के आगे कोई दीवार टिक नहीं सकती। लौटते वक्त प्रिया के कदम तेज़ थे, मन में डायरी के उन अधूरे शब्दों की गूंज थी—“सबसे बड़ा खतरा वो है, जो सबसे अपने जैसा लगता है…” उसी पल उसने ठान लिया कि चाहे पुलिस उसे रोके या डराए, वह अर्जुन सिंह की सच्चाई दुनिया के सामने लाएगी, क्योंकि कभी-कभी सच का रास्ता कानून की इजाज़त से नहीं, बल्कि दिल की आवाज़ से खुलता है।

***

अगले दिन की सुबह गाँव की हवाओं में एक अजीब सी बेचैनी थी। प्रिया की रात भी बेचैनी में बीती थी; अर्जुन सिंह की डायरी के पन्नों में लिखे अधूरे इशारे और खेत के निशान जैसे उसके सपनों में भी पीछा कर रहे थे। सूरज की पहली किरण के साथ ही उसने तय कर लिया कि उसे एक बार फिर सबसे पुराने गवाह के पास जाना होगा—बूढ़े हरपाल सिंह के पास, जिनकी झुर्रियों में गाँव का अतीत अब भी दर्ज था। मिट्टी की दीवारों से बने उनके छोटे से आँगन में चुपचाप बैठकर प्रिया ने डायरी के टुकड़ों का ज़िक्र किया। हरपाल सिंह ने कुछ देर खामोशी ओढ़ी, जैसे यादों के किसी बोझ से लड़ रहे हों, फिर गहरी आवाज़ में बोले, “बिटिया, अर्जुन बहुत कुछ बदलना चाहता था… पर कुछ सच्चाइयाँ ऐसी होती हैं, जिनसे डर भी लगता है।” प्रिया ने उनके झुर्रीदार हाथ पर हाथ रखा, “चाचा, सच छुपा रहेगा तो और खून बहेगा।” हरपाल की आँखें डबडबा गईं और उन्होंने कहना शुरू किया—कई साल पहले गाँव में पानी को लेकर दो जातों में गहरी दुश्मनी हुई थी, जिसमें दोनों तरफ़ से जानें गईं। उस वक़्त अर्जुन सिंह पंचायत में नए-नए आए थे और उन्होंने छुपकर एक समझौता करवाया, जिससे बड़े लोगों का फायदा हुआ, मगर कुछ छोटे किसान बर्बाद हो गए। तब से गाँव के कुछ लोग उन्हें दिल से कभी माफ़ नहीं कर पाए।

प्रिया का दिल तेज़ी से धड़क उठा—तो अर्जुन सिंह के अतीत में एक छुपा हुआ कड़वा सच था, जिसकी वजह से किसी का दिल अब भी ज़हर से भरा हो सकता था। हरपाल सिंह की आवाज़ जैसे अतीत की गवाही दे रही थी, “अर्जुन कहता था, जो किया वो गाँव की भलाई के लिए था, मगर कुछ लोग समझे नहीं… और वो डरता था कि कभी ये राज़ खुला, तो उसका सब कुछ खत्म हो जाएगा।” प्रिया की आँखों में वो खेत का मंज़र फिर उभरा—मिट्टी में खून, पैरों के निशान और सफ़ेद कपड़े का टुकड़ा। उसने मन ही मन तय किया कि उस कपड़े को फिर से तलाशेगी। विकास ठाकुर से उसने मदद मांगी, और दोनों शाम ढलने से पहले खेत की मेड़ पर पहुँचे। वहाँ ज़मीन पर मिट्टी हटाते-हटाते प्रिया को वो कपड़ा फिर मिल गया, इस बार थोड़ा साफ़ दिखाई दे रहा था—जैसे किसी का रूमाल, किनारे पर कढ़ाई का छोटा सा पैटर्न। प्रिया ने गौर से देखा, ये कोई आम रूमाल नहीं था; शायद किसी खास आदमी का, जिसे गाँव पहचानता हो।

उसी वक़्त प्रिया के दिल में एक और खटका जागा—कातिल कोई बाहरी नहीं, बल्कि अपने बीच का हो सकता है। तभी विकास ने डरती आवाज़ में कहा, “प्रिया, ये बहुत बड़ा खेल है… अगर तू सच्चाई में उलझ गई, तो तुझे भी नुकसान हो सकता है।” मगर प्रिया की आँखों में डर नहीं, बल्कि एक नई जिद थी। खेत से लौटते वक़्त, सूरज ढलने की लाल रौशनी में उसे अर्जुन सिंह की डायरी का एक और पन्ना याद आया, जिसमें लिखा था—“जिससे सबसे कम डर लगता है, वही सबसे बड़ा खतरा हो सकता है…” उस रात प्रिया की नींद फिर गायब थी, मगर इस बार उसे अहसास था कि अब वो सिर्फ़ सवाल नहीं पूछ रही, बल्कि सच्चाई के सबसे करीब पहुँचने वाली थी, जहाँ गाँव का सबसे पुराना झूठ गहराई में दबा पड़ा था।

***

गाँव की गलियों में शाम की हवा धीरे-धीरे ठंडी होने लगी थी, मगर प्रिया के दिल में एक अनजाना डर और जिद दोनों एक साथ जाग उठे थे। अर्जुन सिंह की डायरी के पन्नों और खेत से मिले उस रूमाल ने उसकी सोच की दिशा बदल दी थी—कातिल शायद वो नहीं था, जिस पर सबको शक था; बल्कि कोई ऐसा, जो अपनेपन की परछाईं में छुपा बैठा था। उस रात प्रिया ने रूमाल को कई बार उलट-पलटकर देखा, किनारे की महीन कढ़ाई में एक पुराना पारिवारिक चिह्न जैसा कुछ था, मगर पूरा साफ़ नहीं दिखता था। तभी बाहर आँगन में कोई धीमी आहट हुई, जैसे कोई दबे पाँव चलता हुआ उसके घर की दीवार के पास से गुज़र गया हो। दिल की धड़कन अचानक तेज़ हो गई, और खिड़की के पास जाकर देखा तो बस अधूरी परछाईं दिखाई दी, फिर अंधेरे में गुम हो गई। प्रिया ने पलटकर देखा, माँ सुनीता चुपचाप खड़ी थीं; उनकी आँखों में चिंता गहरी हो चली थी, “बिटिया, तू जो कर रही है, उससे बहुत लोग नाराज़ हो सकते हैं… डर लगता है।” प्रिया ने हल्की मुस्कुराहट से कहा, “माँ, अगर डर से रुक जाऊँ, तो सच कभी सामने नहीं आएगा।”

सुबह होते ही प्रिया ने विकास ठाकुर से मुलाक़ात की। उसकी आवाज़ में पहले से ज़्यादा घबराहट थी, “प्रिया, मैंने सुना है इंस्पेक्टर राजवीर कुछ नए नामों की जांच कर रहा है… लोग तुझे भी बीच में घसीट सकते हैं, तुझे पता भी है कितना खतरनाक है ये सब!” मगर प्रिया ने रूमाल उसे दिखाते हुए कहा, “विकास, मुझे ये पता लगाना होगा कि ये किसका है। अर्जुन चाचा की डायरी और ये रूमाल बता रहे हैं कि कातिल जाति के नाम पर नहीं, बल्कि पुरानी दुश्मनी के लिए आया था।” विकास चुप रहा, उसकी आँखों में डर के साए गहरे थे; मानो वह खुद भी कुछ जानता हो, मगर कह नहीं पा रहा हो। उसी शाम प्रिया ने फिर बूढ़े हरपाल सिंह से मिलने की ठानी। धूप अब ढलने लगी थी और हरपाल चुपचाप अपनी चारपाई पर बैठे आकाश की ओर देख रहे थे। प्रिया ने रूमाल उनके सामने रखकर पूछा, “चाचा, ये निशान किसका है?” हरपाल की आँखों में हल्की हैरानी तैर गई; उन्होंने रूमाल को छूकर धीमे से कहा, “बिटिया, ये तो ठाकुर खानदान के घर की निशानी लगती है… पर तू ये कहाँ से लाई?” प्रिया के दिल में जैसे कोई पुरानी दीवार दरक गई—क्या कातिल उन्हीं में से कोई था, जो अर्जुन सिंह से पुराने वक्त का हिसाब बराबर कर रहा था?

उस रात प्रिया को नींद नहीं आई। दीवार पर परछाईं लहराती रही, और हर लहर के साथ एक अनकही चेतावनी भी गूंजती रही—कातिल को शायद पता चल गया है कि कोई उसकी परछाईं तक पहुँचने की कोशिश कर रहा है। तभी आधी रात को घर के बाहर एक ज़ोर की आवाज़ आई, जैसे किसी ने मिट्टी की दीवार पर कुछ फेंका हो। बाहर निकलकर देखा, तो एक कागज़ के पुर्ज़े पर सिर्फ़ चार शब्द लिखे थे—“रुक जा, नहीं तो…” प्रिया का गला सूख गया, मगर डर की जगह उसके दिल में कुछ और उगा—वो समझ चुकी थी कि अब वो सही रास्ते पर है। सुबह होते ही उसने तय कर लिया, चाहे अंधेरे की परछाईं कितनी भी लंबी क्यों न हो, सच की रौशनी तक पहुँचकर ही दम लेगी।

***

सुबह की हवा में गाँव का सन्नाटा कुछ और भारी था—जैसे हर पेड़, हर दीवार किसी राज़ को चुपचाप ओढ़े खड़ा था। प्रिया की आँखों में नींद नहीं, बल्कि रात के उस धमकी भरे कागज़ का डर और उससे भी गहरी जिद थी। माँ सुनीता ने समझाया, “बिटिया, सब कुछ जान लेना ज़रूरी नहीं होता।” मगर प्रिया जानती थी, कुछ न जानना ही सबसे बड़ा खतरा है। उसने तय किया कि वो इंस्पेक्टर राजवीर चौहान से दोबारा मिलेगी, इस बार सिर्फ़ बहस के लिए नहीं, बल्कि अपने सबूत और सवाल सामने रखने के लिए। थाने के बरामदे में कदम रखते ही उसे राजवीर की आवाज़ सुनाई दी, जो किसी से फोन पर बात कर रहे थे—आवाज़ में पहली बार हड़बड़ाहट और संशय था। जब प्रिया सामने आई, तो राजवीर ने चौंककर उसकी ओर देखा। प्रिया ने बिना समय गंवाए रूमाल उसकी मेज़ पर रखा, “सर, ये अर्जुन चाचा के खेत में मिला था। इस पर ठाकुर खानदान का निशान है, और डायरी में लिखा है कि सबसे बड़ा खतरा वो है जो अपने जैसा दिखता है।”

कुछ पल के लिए कमरे में खामोशी पसर गई, जैसे दीवारें भी सांस रोककर सुन रही हों। राजवीर की आँखों में सख़्ती कम होकर हैरानी की परत चढ़ गई; उसने रूमाल को पलटा, गौर से देखा, फिर धीरे से बोला, “ये बात तुमने किसे बताई?” प्रिया ने कहा, “सिर्फ़ विकास को… और हरपाल चाचा को।” राजवीर की नज़रों में अचानक संदेह की लकीरें तैर गईं, जैसे वह दिमाग में किसी तस्वीर को जोड़ने की कोशिश कर रहा हो। फिर वह कुर्सी से उठा, खिड़की के पास जाकर कुछ देर चुप खड़ा रहा और धीरे से बोला, “माना, तुम जो कह रही हो, उसमें दम है… और सच कहूँ, तो मुझे भी लगने लगा है कि मामला सिर्फ़ जातीय हिंसा का नहीं।” प्रिया की साँस थोड़ी हल्की हुई, मगर राजवीर ने आँखें तरेर कर कहा, “पर ध्यान रखना, अगर तुमने कोई ग़लत कदम उठाया, तो मैं तुम्हें भी नहीं बचा पाऊँगा।” उसकी आवाज़ में अब चेतावनी कम और फिक्र ज़्यादा थी—जैसे किसी ने पहली बार उसे एक सहयोगी के तौर पर देखा हो, न कि बस एक पढ़ाकू लड़की के तौर पर।

वापसी के रास्ते में, खेतों के बीच से गुज़रते हुए, प्रिया के कदम तेज़ थे और दिल की धड़कन धीमे। उसके पास अब सिर्फ़ सवाल नहीं, बल्कि पुलिस की तरफ से एक अनकहा समर्थन भी था। मगर इसी राह पर एक डर भी खड़ा था—जिस सच्चाई की परतें वह उधेड़ रही थी, वो कहीं ज़्यादा पुरानी और ज़्यादा ख़तरनाक निकली। खेतों की मेड़ पर उसे वही पैरों के धँसे हुए निशान फिर दिखाई दिए, जो अब मिटने लगे थे; और तभी हवा में एक जानी-पहचानी परछाईं कुछ दूर नज़र आई—तेज़ी से हटती हुई, जैसे उसके क़दमों से डरकर भाग रही हो, या फिर उसे और गहराई में खींचने की साज़िश कर रही हो। प्रिया की मुट्ठी कस गई, दिल में वही आवाज़ गूँजी—“सच करीब है, पर उतना ही खतरनाक भी।” मगर इस बार वह डरकर नहीं, बल्कि सामना करने के लिए तैयार थी।

***

गाँव की गलियों में गर्म हवा की लहरें दिन भर घूमती रहीं, मगर प्रिया की सोच की लहरें उससे भी तेज़ चल रही थीं। अर्जुन सिंह की डायरी, खेत से मिला ठाकुर खानदान का रूमाल, हरपाल सिंह की बातें और इंस्पेक्टर राजवीर की हिचक—ये सब अब जैसे एक जगह इकट्ठा हो रहे थे। दोपहर होते-होते प्रिया ने खुद से एक सवाल पूछा: अगर अर्जुन चाचा ने सबसे ज़्यादा किसी पर भरोसा किया था, तो वही उनके सबसे करीब भी रहा होगा… और सबसे ज़्यादा चोट भी वही दे सकता है। तभी उसे याद आया विकास ठाकुर का चेहरा—डरा हुआ, चुप और कुछ कहकर भी न कह पाने वाला। उसका मन मानने को तैयार नहीं था, मगर सबूत और शक की डोर धीरे-धीरे विकास की ओर खिंच रही थी।

प्रिया ने उसी शाम विकास को खेत के उस पुराने पेड़ के पास बुलाया, जहाँ वे बचपन में अक्सर बैठा करते थे। धूप ढल रही थी, और हवाओं में बुझे हुए सरसों के फूलों की महक थी। विकास थोड़ी देर बाद आया, चेहरे पर उलझन और बेचैनी का साया। प्रिया ने बिना समय गंवाए पूछा, “विकास, सच बता… तू उस रात खेत में था?” विकास की आँखें फटी की फटी रह गईं, होंठ काँपे, और गला सूख गया। फिर अचानक उसकी आँखों में आँसू भर आए, “प्रिया… मैं बस समझौता करना चाहता था अर्जुन चाचा से… मेरे पिता की ज़मीन उन्होंने उसी पुराने राज़ की वजह से ले ली थी… मैं डर गया था… गुस्से में धक्का दे दिया… मैंने मारने की नीयत से नहीं किया था।” उसके शब्द जैसे हवा में बिखर गए। प्रिया का दिल टूटने जैसा लगा, सामने खड़ा दोस्त, जिसके साथ बचपन के हज़ार ख्वाब पाले थे, वही कातिल निकला।

तभी खेत के रास्ते पर इंस्पेक्टर राजवीर चौहान भी पहुँच गए, जिनसे प्रिया ने पहले ही कहा था कि वह विकास को सच उगलवाएगी। राजवीर ने धीमे स्वर में कहा, “हमें सबूत मिल चुके हैं—उस रूमाल पर तेरे उंगलियों के निशान, और अर्जुन सिंह की डायरी में तेरा नाम…” विकास के चेहरे पर डर और पछतावे की परतें उतर आईं; उसने सर झुका लिया, जैसे कई साल की घुटन आज बाहर आ गई हो। प्रिया की आँखों में आँसू थे, मगर साथ ही एक सुकून भी कि सच सामने आ गया—अर्जुन सिंह की हत्या जातीय नफरत से नहीं, बल्कि पुराने ज़मीन के झगड़े और गुस्से की एक भूल से हुई थी। खेत की मिट्टी पर सूरज की आख़िरी किरणें पड़ीं, और हवाओं में जैसे किसी बोझ के उतर जाने की हल्की सरसराहट थी। मगर प्रिया जानती थी, सच के सामने आने से घाव भरते नहीं, बस उजागर हो जाते हैं।

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